माणूस माणसाशी बोलताना नकळत हातात हात घेतो. सहज कृती आहे ती. जसा सहज श्वास घेतो तसा सहज जगू शकतो का ? याचे उत्तर बहुधा नाही असेच आहे. जगणे सोपे व्हावे म्हणून प्रत्येकालाच एक मितवा हवा असतो. तो प्रसंगी मित्र , तत्वज्ञ किंवा वाटाड्या, मार्गदर्शक होवू शकेल असा कोणीही आपल्याला हवाच असतो. बरेचदा काय होते , आयुष्यातला प्रॉब्लेम जेवढा मोठा तेवढे समोरचे आव्हान मोठे वाटू लागते. आव्हान आपल्या अहंकारला सुखावण्यासाठीच असते. मुळात अहंकार नसतोच पण तो निर्माण केला जातो. यात मुख्य सहभाग त्या लोकांचा असतो जे त्यांना स्वत:ला आपले हितचिंतक मानतात. एखाद्या छोट्या गोष्टीला डोंगराएवढी करण्यात त्यांचा पुढाकार असतो, Psychoanalyst, गुरु मंडळी, तत्ववेत्ते तुमच्या नसलेल्या problems ना अस्तित्व देतात नाहीतर त्यांचे अस्तित्व धोक्यात येऊ लागेल. अडचणीत जर कोणी आलेच नाही तर ते मदत कोणाला करणार? हा ही प्रश्न उरतोच. खरेतर नक्की काय शोधत असतो आपण? नेमके काय हवे असते आपल्याला? याचा विचार का करत नाही आपण? आपण जे पचायला सोपे ते आणि तेवढेच स्वीकारतो आणि जे पटत नाही ते सोडून देतो. बरेचदा सरावाने आपल्याला कळत जाते काय घ्यायचे आणि काय नाही, पण त्यातही आपली कुवत आड येतेच.
आपण सारेच तसे अर्जुन असतो.आपापल्या कुरूक्षेत्रांवर लढण्यासाठी ढकलले गेलेले अर्जुन..आणि प्रत्येकाला कोणी कृष्ण भेटतोच असे नाही.म्हणून आपल्याला स्वतःमधला कृष्ण चेतवावा लागतो परिस्थितीप्रमाणे.. कृष्णच का ??..तर कृष्ण ही वृत्तीची तटस्थता आहे.आपल्या वर्तनाचा त्रयस्थ राहून विचार करणारी.स्वतःला ओळखण्यासाठी त्रयस्थ व्हा..आरसा व्हा स्वतःचाच ..” प्रत्येकात कृष्ण असतोच .तो कोणाला सापडतो , कोणाला भासमान दिसतो , कोणी कृष्ण होतो तर कोणी कृष्णमय…” अर्जुनालाही कृष्णमय व्हावे लागले तेव्हाच त्याला महाभारतीय युद्धाची आवश्यकता , त्यासाठीचे त्याच्या स्वतःच्या अस्तित्वाचे असणे उमजले…” कृष्णायन ”
पण कृष्णायन म्हणजे गीता नव्हे.स्वतःला ओळखणे , स्वतःच्या अस्तित्वाचा हेतू ओळखणे , स्वतःच्या कोषातून बाहेर काय आहे याची जाणिव होणे म्हणजे गीता.एखादा कोणी जेव्हा म्हणतो की तुझ्याकडे कोणतीच कसलीच प्रतिभा नाही..तेव्हा हा विचार करावा कृष्णाने सांगीतलेला..दुस-या कोणापेक्षा तुम्ही स्वतः स्वतःला जास्त ओळखू शकता..तुमची ताकद , तुमची मर्यादा तुम्हाला माहिती हवी..असे कोणी म्हणल्याने तुमच्याकडे काही येत नाही तसे जातही नाही.ते असतेच अंगभूत.. माऊलींनी देखील स्वतःचा स्वतःमध्ये लपलेल्या अर्जुनापासून विलग होऊन कृष्णरुप होण्याचा प्रवासच जणु ज्ञानेश्वरीत मांडला आहे. आपल्याला काय काय हवे आहे ह्याची बकेट लिस्ट नक्कीच करावी. पण आपल्याकडे काय काय आहे आणि नाही हे आपल्याला कळले आहे का ह्याची लिस्टही जरुर करावी आणि ह्या कळण्यातही किती वाढ झाली हे पण पहावे. आपल्याकडे असलेल्याचा वापर आपण कसा करतो यावर आपले व्यक्तिमत्व घडते. “माझ्याबाबतीच असे का होते”? “त्याला मिळू शकते तर मग मला का नाही”? असे प्रश्न पडत असतील तर आपल्याकडे काय आहे हे आपल्याला कळलेच नाही हे पक्के ओळखावे. आयुष्य अनुभवानी आपल्याला समृद्ध करत असते. आणि श्रीमंत ही ! आपले असमाधान आपल्या अपेक्षांना जन्म देते त्यामुळे असे असमाधानी असण्यापेक्षा अप्रगतच असणेच बरे नाही का?
चोरी फक्त गरजा भागवण्यासाठीच केली जाते असे नाही होत. काहीजण गरजा लपवण्यासाठीही चोर्या करतात. उघडपणे केले तर समाज बहिष्कृत करेल या भितीने चोरुन करतात. काय हवे, काय नको हेच साठत जाते नंतर. काय हवे आहे आणि का हवे आहे ह्याचा विचारच करायला विसरतो आपण. हे नाही, हे सुध्दा नाही. असे सगळेच नाकारून पहा एकदा, सर्व नकार संपले. . . की एक आणि एकच होकार उरेल. हेच हवे असते आपल्याला. हेच असते आपले खरे सत्य, सत्व आणि अस्तित्व. मानवी प्रयत्न , मानवी जीवन , मानवी आकांक्षा या सर्वांमध्ये ..यासाठी प्रयत्न करणा-या व्यक्ती अविस्मरणीय ठरतात आणि त्या व्यक्तींच्या आयुष्याचा परिपाक आपल्याला मानवतेच्या छटांचे दर्शन घडवत राहतो….” पिंडी ते ब्रम्हांडी ” जे मनात उपजते तेच आपण अंगिकारतो.हिग्ज बोसाॅन , क्वांटम थिअरी , ब्लॅक होल या संकल्पना ज्ञानेश्वरांनी अभ्यासल्या होत्या की नाही हे माहिती नाही पण ” मी विश्वरुप आहे ” ही कल्पना त्यांनी प्रत्यक्षात आणली.प्रत्येकाने आहे आणि नाही यामधला अवकाश समजून घेतला पाहिजे ही जाणिव जिथे उमगते…तिथे कृष्ण भेटतो. ….
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सेंध दिल में‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 138 ☆
☆ लघुकथा – सेंध दिल में☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
फ्लैट का दरवाजा खोलकर अंदर आते ही उसकी नजर सोफे पर रखी लाल रंग की साड़ी पर पड़ी। उसने पास जाकर देखा ‘अरे! यह कितनी सुंदर साड़ी है। लाल रंग पर सुनहरा बार्डर कितना खिल रहा है, चमक भी कितनी है साड़ी में। सुनहरे बार्डरवाली लाल साड़ी तो मुझे भी चाहिए। कब से दिल में है पर पैसे ना होने से हर बार मन मसोसकर रह जाती हूँ। ’ – उसने मन ही मन सोचा।
मालकिन के फ्लैट की चाभी उसी के पास रहती है पर वह घर की किसी चीज को कभी हाथ नहीं लगाती। ‘अपनी इज्जत अपने हाथ’ लेकिन आज साड़ी पर नजर पड़ी तो मानों अटक ही गई। काम करते-करते भी उसकी आँखें उसी ओर चली जा रही थीं। ‘आज क्या हो गया उसे?’ उसने अपने मन को चेताया ‘अरे! कमान कस!’। काम निपटाती जा रही थी लेकिन मन बेलगाम घोड़े की तरह उस साड़ी की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।
‘साड़ी को एक बार हाथ से छूकर देखने का बहुत मन हो रहा है। ‘
‘ठीक नहीं है ना! मालकिन की किसी चीज को हाथ लगाना। ‘
‘पर कौन-सा पहन के देख रही हूँ साड़ी को, बस हाथ से छूकर देखना ही तो है’ – उसका मन तर्क–वितर्क करने लगा।
उसने धीरे से पैकेट खोलकर साड़ी निकाल ली- ‘अरे! कितनी मुलायम है, रेशम हो जैसे, सिल्क की होगी जरूर, बहुत महँगी भी होगी। मेमसाहब ऐसी ही साड़ी तो पहनती हैं’। साड़ी हाथ में लेकर वह आईने के सामने खड़ी हो गई। मन फिर मचला- ‘एक बार कंधे पर डालकर देखूँ क्या, कैसी लगती है मुझ पर? हाँ तह नहीं खोलूंगी, बस ऐसे ही डाल लूंगी। ‘ बड़े करीने से अपने कंधे पर साड़ी डालते ही वह चौंक गई –‘ओए! कितनी सुंदर दिख रही है मैं इस सिलक की लाल साड़ी में, गजब खिल रहा है रंग मुझ पर। ‘ खुशी से पागल- सी हो गई किसी को दिखाने के लिए, कैसे बताए कि वह इतनी सुंदर भी दिखती है। ‘बाप रे! सिलक की साड़ी की कैसी चमक है, मेरे चेहरे की रंग-रौनक ही बदल गई। इतनी अच्छी तो कभी दिखी ही नहीं, अपनी शादी में भी नहीं। ‘ हाथ मचलने लगे फोन उठाने को, ‘पति को एक वीडियो कॉल कर लूँ? नहीं-नहीं, वह नाराज होगा उसने पहले ही कहा था कि ‘साहब के घर कोई लोचा नहीं माँगता’, फिर क्या करे? अच्छा एक फोटो तो खींच ही लेती हूँ, पर क्या फायदा किसी को दिखा तो नहीं सकती?सबको पता है मेरी हैसियत।
‘किसी को नहीं दिखा सकती तो क्या, खुद तो देखकर खुश हो सकती हूँ?’ मालकिन की बड़ी ड्रेसिंग टेबिल के सामने जाकर वह खड़ी हो गई। आत्ममुग्ध हो खुशी में गुनगुनाने लगी। उसने आईने में स्वयं को भरपूर नजरों से देखा जैसे अपने उस रूप को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो। वह जैसे अपनी ही आँखों में उतरती चली गई। पर तभी न जाने उसे क्या हुआ अचानक विचलित हो खुद पर बरस पड़ी -‘अरे! क्या कर रही है?मत् मारी गई है क्या? संभाल अपने मन को।
‘मैं तो बस साड़ी को छूकर देखना चाह रही थी- – कभी देखी नहीं ना, ऐसी साड़ी- वह मायूसी से बोली। ‘
‘माँ की बात याद है ना! एक छोटी-सी गलती इज्जत मिट्टी में मिला देती है। ‘
वह झटके से आईने के सामने से हट गई। बचपन में माँ ने दिल की जगह पत्थर का टुकड़ा लगा दिया था यह कहकर कि ‘लड़की जात और ऊपर से गरीब, गम खाना सीख। ‘
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा… ☆
बहुत ही लोकप्रिय शब्द है प्रजातंत्र, कुछ भी करो सब जायज हो जाता है आखिर प्रजा की ताकत तो राजतंत्र से ही चली आ रही है। चुनाव के समय पर इसकी पूछ – परख कुछ ज्यादा ही होती है। एक साहित्यिक गोष्ठी चल रही थी उसमें परजा को लेकर एक से एक विचार आने लगे एक ने कहा पर जा अर्थात दूर हो जा तो दूसरे ने चौका मारते हुए कहा पर होते तो उड़ न जाते। तीसरे ने भी शब्दों का छक्का जड़ते हुए कहा, बिन पर जा राजा की भी कोई कीमत नहीं होती।
पर, किन्तु, परन्तु से लोग त्रस्त ही रहते हैं। पर इसकी शक्ति का कोई सानी नहीं होता तभी तो इनकी शक्ति का लोहा बड़े- बड़े वीरों को भी मानना पड़ा। पर जब भी उपसर्ग के रूप में आया तब उसने अपने से जुड़े हुए शब्द को महान बना दिया।
अब तो तीनों तरकश से परजा की तारीफ में तीर निकलने लगे किसी ने अपने गुरु को याद किया तो किसी ने गुरु घण्टाल को तो किसी ने एकता की शक्ति में भक्ति को समाहित करते हुए मुक्तक के तार छेड़ दिए। आस-पास बैठे लोग भी खुश हुए चलो कुछ तो हाथ लगा दिन भर से पर फड़फड़ा रहे थे अब जाकर दाना पानी हाथ लगा आखिर समय और निष्ठा की भी तो कोई ताकत होती है।
चुनावी जोड़तोड़ से कोई भी अछूता नहीं है जिसे जहाँ मन आ रहा है वहीं की राह पकड़ने लगा है। कोई भक्ति की शक्ति में डूबकर शक्ति प्रदर्शन करता है तो कोई कुर्सी की आशक्ति में बिना सिर पैर की कोशिश कर रहा है।कोशिशें वही कामयाब होंगी जिसमें सर्वजन हिताय का भाव हो। दूरदर्शिता के साथ आगे बढ़िए विश्व आपकी अगुआई चाहता है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – लंदन से 6 – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है !
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 270 ☆
व्यंग्य – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है !
पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् |
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||
अर्थ – यह है कि पुस्तक में रखा ज्ञान तथा दूसरे के हाथ में दिया गया धन, ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम के नहीं होते
यह चाणक्य के समय की बात थी, जो तब शाश्वत सत्य रही होगी।
अब इस नीति में अमेंडमेंट की आवश्यकता है। मोबाइल हाथ में हो, और इंटरनेट हो तो गूगल का ज्ञान और ई बटुए का धन ही नहीं, ई मेल में पड़े रिफरेंस, डिजिटल डाक्यूमेंट, फोटो गैलरी के फोटो, कांटेक्ट लिस्ट के नंबर, एड्रेस, बैंक एकाउंट, सब कुछ काम का होता है। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही है की जो कुछ “ई” है, आज वह ही सोते, जगते, उठते बैठते, घर बाहर, हर कहीं सदा साथ होता है।
देश विदेश की यात्रा करते हुए न तो सारे सहेजे हुए फिजिकल डाक्यूमेंट्स और न ही एल्बम तथा विजिटिंग कार्ड्स होल्डर लेकर चल पाते हैं न ही पास बुक और चैक बुक किसी काम आते हैं।
आवश्यकता इंस्टेंट होती है, तब ई डाक्यूमेंट्स एक सर्च पर खुल जाते हैं। दुनियां में कहीं भी हों नेट बैंकिंग ही रूपयो के लेन देन में काम आती है। खुल जा सिम सिम के जप की तरह पासवर्ड डालते ही एप ओपन हो जाते हैं और वह सब जो “ई” है न वह सेवा में हाजिर मिलता है। याददाश्त में पासवर्ड गुम भी हों तो मोबाइल आपका चेहरा देखकर खुल जाता है और स्कैनर पर फिंगर प्रिंट्स लगाते ही आप मनचाही वेबसाइट खोल पाते हैं।
मुझे तो लगता है कि ” ई ” ईश्वर सा ही है जो सर्व व्यापी है। ईश्वर की कल्पना स्वर्ग में होने की है। स्वर्ग की परिकल्पना बादलों के पार कहीं आकाश में की गई है। ये जो सदा साथ रहने वाला “ई” है वह भी क्लाउड स्टोरेज में रहता है। आप कहीं भी हों, क्लोज सर्किट कैमरों की मदद से घर दफ़्तर जहां चाहें पहुंच जाते हैं। कैमरों के क्लाउड स्टोरेज से घर बाहर के बीते हुए पल भी फिर फिर देख सकते हैं।
इधर जूम या गूगल पर वर्चुअल सेमिनार खत्म होता है और क्लिक करते ही ई सर्टिफिकेट जनरेट होकर मेल बाक्स में हाजिर हो जाता है।
हर चैट बोट पर कोई ई सहायक ईवा, दिया, सिया, 24 घंटे सेवा में समर्पित है।
ई वीजा, ई पासपोर्ट, ई सर्टिफिकेट, ई कामर्स, ई पत्रिका, ई अखबार, ई बुक्स, ई राइटिंग, और ई रेटिंग, ई वोटिंग वगैरह वगैरह है। जमाना ई का है, पर ई डेटिंग से जनरेटेड दिल की अहसासी फाइल अभी भी भौतिक स्पर्श की ही भूखी है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
‘तो’ म्हणजे अर्थातच देव..! त्याची माझ्या मनात नेमकी कधी प्रतिष्ठापना झाली हे नाही सांगता यायचं. की कशी झाली असेल हे मात्र सांगता येईल. ‘देव’ ही संकल्पना माझ्या मनात कुणीही जाणीवपूर्वक,अट्टाहासाने रुजवलेली नाहीये. ती आपसूकच रुजली गेली असणार. दत्तभक्त आई-वडील, घरातले देवधर्म, नित्यनेम, शुचिर्भूत वातावरण, हे सगळं त्याला निमित्त झालं असणारच. पण रुजलेला तो भाव सर्वांगानं फुलला तो कालपरत्त्वे येत गेलेल्या अनुभूतीमुळेच!
हे रुजणं, फुलणं नेमकं कधीपासूनचं याचा शोध घेता घेता मन जाऊन पोचतं ते मनातल्या सर्वात जुन्या आठवणीपर्यंत.मी दोन अडीच वर्षांचा असेन तेव्हाच्या त्या काही पुसट तर काही लख्ख आठवणी. आम्ही तेव्हा नृसिंहवाडीला होतो. वडील तेथे पोस्टमास्तर होते. सदलगे वाड्याच्या भव्य वास्तूच्या अर्ध्या भागात तेव्हा पोस्ट कार्यालय होतं. आणि आमच्यासाठी क्वार्टर्सही.वडील आणि आई दोघांचंही नित्य दत्तदर्शन कधीच चुकायचं नाही. रोजच्या पालखीला आणि धुपारतीला वडील न चुकता जायचे.बादलीभर धुणं आणि प्यायच्या पाण्यासाठी रिकामी कळशी बरोबर घेऊन आई रोज नदीवर जायची. धुतलेल्या कपड्यांचे पिळे आणि भरलेली कळशी घेऊनच ती पायऱ्या चढून वर आली की आधी दत्तदर्शन घ्यायची आणि मग उजवं घालून परतीची वाट धरायची.आम्ही सर्व भावंडे तिची वाट पहात दारातच ताटकळत उभे असायचो.त्या निरागस बालपणातली अशी सगळीच स्मृतिचित्रं आजही माझ्या स्मरणात मला लख्ख दिसतात.त्यातलं एक चित्र आहे आम्हा भावंडांच्या ‘गोड’ हट्टाचं! पोस्टातली कामं आवरून वडील आत येईपर्यंत आईने त्यांच्या चहाचं आधण चुलीवर चढवलेलं असायचं. तो उकळेपर्यंत आई देवापुढे दिवा लावून कंदील पुसायला घ्यायची.अंधारून येण्यापूर्वी कंदील लावला की रात्रीच्या जेवणासाठी स्वयंपाकाची तयारी सुरू करायची. तोवर चहा घेऊन देवाकडे जाण्यासाठी वडिलांनी पायात चप्पल सरकवलेल्या असायच्या.
“मुलांनाही बरोबर घेऊन जा बरं. म्हणजे मग मला स्वैपाक आवरून, तुम्ही येईपर्यंत जेवणासाठी पानं घेऊन ठेवता येतील” आईचे शब्द ऐकताच आम्हा भावंडांच्या अंगात उत्साह संचारायचा.
“चला रेs” वडीलांची हाक येताच आम्ही आनंदाने उड्या मारत बाहेर पडायचो.त्या आनंदाचं अर्थातच देवदर्शनाची ओढ हे कारण नसायचं.त्या वयात ती ओढ जन्माला आलेलीच नव्हती. त्या आनंद, उत्साहाचं कारण वेगळंच होतं. वडिलांच्या मागोमाग आम्हा बालगोपालांची वरात सुरक्षित अंतर ठेवून उड्या मारत मारत सुरू होई.दुतर्फा पेढेबर्फीच्या दुकानांच्या रांगा आज आहेत तिथेच आणि तशाच तेव्हाही होत्या. रस्ताही आयताकृती घोटीव दगडांचा होता. ती दुकानं जवळ आली की माझी भावंडं मला बाजूला घेऊन कानात परवलीचे शब्द कुजबुजायची. मी शेंडेफळ असल्याने त्यांची हट्ट करायची वयं उलटून गेलेली आणि मी हट्ट केला तर वडील रागावणार नाहीत हा ठाम विश्वास. मग त्यांनी पढवलेली घोषणा ऐकताच नुसत्या कल्पनेनेच माझ्या तोंडाला पाणी सुटायचं.डोळे लुकलुकायचे.न राहवून आपल्या दुडक्या चालीने धावत जाऊन मी वडिलांचा हात धरून त्यांना थांबवायचा प्रयत्न करायचो.
“काय रे?”
“कवताची बलपी..”
“आधी दर्शन घेऊन येऊ. मग येताना बर्फी घेऊ.चलाs..” ते मला हाताला धरून चालू लागायचे. काय करावे ते न सुचून मी मान वळवून माझ्या भावंडांकडे पहायचो. त्यांनी केलेल्या खुणांचा अर्थ मला नेमका समजायचा. मी वडिलांच्या हाताला हिसडा देऊन तिथेच हटून बसायचो.आणि माझ्या कमावलेल्या रडक्या आवाजात..’ कवताची बलपी’ घेतलीच पायजे..’ अशा बोबड्या घोषणा देत रहायचो. वडील थांबायचे. कोटाच्या खिशात जपून ठेवलेला एक आणा न बोलता बाहेर काढायचे.’अवधूत मिठाई भांडार’ मधून कवठाची बर्फी घेऊन ती पुडी माझ्या हातात सरकवायचे. त्यांनी तो एक आणा देवापुढे ठेवायला घेतलेला असायचा हे त्या वयात आमच्या गावीही नसे. न चिडता,संतापता, आक्रस्ताळेपणा न करता, कसलेही आढेवेढे न घेता माझा हट्ट पुरवणाऱ्या वडिलांच्या त्या आठवणी माझ्यासाठी खूप मोलाच्या आहेत. कारण त्या ‘गोड’ तर आहेतच, पण त्याहीपेक्षा महत्त्वाचं म्हणजे त्या आठवणींना दत्तमंदिराच्या परिसराची सुरेख,पवित्र, शुचिर्भूत अशी सुंदर महिरप आहे.
देव म्हणजे काय हेच माहीत नसलेल्या वयातली ही त्याच देवाच्या देवळासंदर्भातली सर्वात जुनी आठवण! ‘त्या’ची गोष्ट सुरू होते ती त्या आठवणीपासूनच! देवाची खरी ओळखच नसणाऱ्या माझ्या त्या वयात वडिलांमागोमाग चालणाऱ्या माझ्या इवल्याशा पावलांना, जीवनप्रवासातील अनेकानेक कठोर प्रसंगात खंबीरपणे उभं रहायचं बळ ज्याच्यामुळे मिळालं ‘त्या’चीच ही गोष्ट!
माझी कसोटी पहाणारे कितीतरी प्रसंग पुढे आयुष्यभर येत गेले.अर्थात या ना त्या रूपात ते प्रत्येकाच्या आयुष्यात येतच असतात. पण त्या प्रसंगातही माझ्या मनातली त्याच्याबद्दलची श्रद्धा कधी डळमळीत झाली नाही. त्या अर्थानं सगळेच प्रसंग माझी नव्हे तर त्या श्रद्धेचीच कसोटी पहाणारे होते. त्यापैकी अनेक प्रसंगात मी माझ्या मनातली ‘देव’ ही संकल्पना मुळातूनच तपासून पहायलाही प्रवृत्त झालो आणि पुलाखालून बरच पाणी वाहून गेल्यानंतरच्या आजच्या या क्षणीही त्या पाण्याबरोबर वाहून न गेलेली ती श्रद्धा तितकीच दृढ आहे !
माझ्या आयुष्यातल्या या सगळ्याच अनुभवांबद्दल लिहायला मी प्रवृत्त झालो खरा, पण हे अनुभव जगावेगळे नाहीत याची नम्र जाणीव मला आहे. तुमच्यापैकी अनेकांना ते तसे आलेही असतील.अशांना माझे हे अनुभव वाचायला नक्कीच आवडतील.जे नास्तिक असतील त्यांनी निदान हे लिहिण्यासाठी निमित्त झालेल्या माझ्या श्रद्धेमागची माझी निखळ भावना समजून घ्यावी हीच माफक अपेक्षा!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “रोयें कैसे…” ।)