(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘आस‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 149 ☆
☆ लघुकथा – आस☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
“सर! अनाथालय से एक बच्ची का प्रार्थना पत्र आया है।”
“अच्छा, क्या चाहती है वह?”
“पत्र में लिखा है कि वह पढ़ना चाहती है।”
यह तो बड़ी अच्छी बात है। क्या नाम है उसका?
रेणु।
“रेणु? अरे! वही जो अभी तक स्कूल आने के लिए तैयार ही नहीं थी ? कितना समझाया था हम लोगों ने उसे लेकिन वह पढना ही नहीं चाहती, स्कूल आना तो दूर की बात है। हम सब कोशिश करके थक गए पर वह बच्ची टस से मस नहीं हुई। अब अचानक वह स्कूल आने के लिए कैसे मान गई , ऐसा क्या हो गया? — वह अचंभित थे।”
“सर! आप रेणु का यह प्रार्थना- पत्र पढ़िए” – स्कूल की शिक्षिका ने पत्र एक उनके हाथ में देते हुए कहा।
“टीचर जी! मुझे बताया गया है कि विदेश से कोई मुझे गोद लेना चाहते हैं| मुझे मम्मी पापा मिलने वाले हैं| मुझे अंग्रेजी नहीं आएगी तो मैं अपने मम्मी पापा से बात कैसे करूंगी ? कब से इंतजार कर रही थी मैं उनका, मुझे उनसे बहुत सारी बातें करनी हैं ना! मुझे स्कूल आना है, खूब पढ़ना है।”
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “हाथों में ले हाथ…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 236 ☆हाथों में ले हाथ… ☆
स्नेह शब्द में इतना जादू है कि इससे इंसान तो क्या जानवरों को भी वश में किया जा सकता है। मेरी सहेली रमा जब भी मुझसे मिलती यही कहती कि कोई मुझे स्नेह नहीं करता, मैंने उससे कहा सबसे पहले तुम खुद से प्यार करना सीखो, जो तुम दूसरों से चाहती हो वो तुम्हें खुद करना होगा सबसे पहले खुद को व्यवस्थित रखो, स्वच्छ भोजन, अच्छे कपड़े, अच्छा साहित्य व सकारात्मक लोगों के साथ उठो- बैठो। जैसी संगति होगी वैसा ही प्रभाव दिखाई देता है। जीवन में एक लक्ष्य जरूर होना चाहिए जिससे उदासी हृदय में घर नहीं करती। हृदय की शक्ति बहुत विशाल है यदि हमने दृढ़ निश्चय कर लिया तो किसी में हिम्मत नहीं कि वो हमारे फैसले को बदल सके।
कोई भी कार्य शुरू करो तो मन में तरह- तरह के विचार उतपन्न होने लगते हैं क्या करे क्या न करे समझ में ही नहीं आता। कई लोग इस चिंता में ही डूब जाते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा बिना कार्य शुरू किए परिणाम की कल्पना करना व भयभीत होकर कार्य की शुरुआत न करना।
ऐसा अक्सर लोग करते हैं, पर वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति सज़ग रहते हैं और सतत चिंतन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती रहती है।
द्वन्द हमेशा ही घातक होता है फिर बात जब अन्तर्द्वन्द की हो तो विशेष ध्यान रखना चाहिए क्या आपने सोचा कि जीवन भर कितनी चिन्ता की और इससे क्या कोई लाभ मिला?
यकीन मानिए इसका उत्तर शत- प्रतिशत लोगों का नहीं होगा। अक्सर हम रिश्तों को लेकर मन ही मन उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि सामने वाले को मेरी परवाह ही नहीं जबकि मैं तो उसके लिए जान निछावर कर रहा हूँ ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही तरीका है आप किसी भी समस्या के दोनों पहलुओं को समझने का प्रयास करें। जैसे ही आप हृदय व सोच को विशाल करेंगे सारी समस्याएँ स्वतः हल होने लगेंगी।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सरकारी फाइलों का महाप्रयाण ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 44 – सरकारी फाइलों का महाप्रयाण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
पुरानी तहसील की वह धूल भरी अलमारी वर्षों से इतिहास का बोझ उठाए खड़ी थी। उसमें रखी फाइलें बूढ़ी हो चली थीं, जैसे सरकारी बाबू के बुढ़ापे का प्रतीक। लाल फीते से बंधी हुई, कुछ को दीमक चाट चुकी थी, तो कुछ को समय की मार ने जर्जर बना दिया था। मगर फाइलें थीं कि आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थीं। मानो किसी वृद्धाश्रम में फेंक दिए गए बुजुर्गों की तरह, जिन्हें देखने वाला कोई नहीं। बस, आदेश आते रहे, चिट्ठियां बढ़ती रहीं, और इन फाइलों की किस्मत सरकारी टेबलों के बीच कहीं खो गई।
तभी एक दिन एक अफसर आया, जो फाइलों की सफाई करने का कट्टर समर्थक था। उसने आदेश दिया—”पुरानी फाइलें रद्दी में बेच दो।” अफसर की आवाज सुनकर फाइलों में हलचल मच गई। “हमारा क्या होगा?” एक फाइल ने कांपते हुए पूछा। “कहीं कचरे में तो नहीं फेंक दिया जाएगा?” दूसरी फाइल सुबक पड़ी। वर्षों तक सरकारी आदेशों की साक्षी रही वे फाइलें, जो कभी महत्वपूर्ण दस्तावेजों की रानी थीं, आज कबाड़ में बिकने वाली थीं। यह लोकतंत्र का कैसा न्याय था?
एक चपरासी आया, उसने एक गठरी उठाई और बाहर ले जाने लगा। फाइलें बिलख उठीं। “अरे, हमें मत ले जाओ! हमने तो वर्षों तक सरकार की सेवा की है!” मगर चपरासी कौन-सा उनकी आवाज सुनने वाला था! वह तो बस सोच रहा था कि कबाड़ बेचकर कितने पैसे मिलेंगे और उन पैसों से कितने समोसे खरीदे जा सकते हैं। अफसर अपनी कुर्सी पर मुस्कुरा रहा था—”समाप्त करो इस फाइल-राज को!” जैसे कोई अत्याचारी सम्राट अपनी प्रजा पर कहर बरपा रहा हो।
फाइलों की अंतिम यात्रा शुरू हो चुकी थी। सड़क किनारे एक कबाड़ी की दुकान पर उन्हें फेंक दिया गया। वहां पड़ी दूसरी फाइलें पहले ही अपने भविष्य से समझौता कर चुकी थीं। एक फाइल, जिसमें कभी किसी गांव को जल आपूर्ति देने का आदेश था, कराह उठी—”जिस पानी के लिए मैंने योजनाएं बनवाई थीं, आज मेरी स्याही भी सूख गई!” दूसरी फाइल, जो कभी शिक्षा विभाग से संबंधित थी, बुदबुदाई—”जिस ज्ञान के लिए मुझे बनाया गया था, आज मैं ही कूड़े में पड़ी हूं!”
कबाड़ी ने उन फाइलों को तौलकर अपने तराजू में रखा। हर किलो पर कुछ रुपये तय हुए। “ये तो अच्छी कीमत मिल गई!” उसने खुशी से कहा। वहीं पास में खड़ा एक लड़का पुरानी कॉपियों से नाव बना रहा था। अचानक एक पन्ना उठाकर बोला, “अरे, देखो! इस पर किसी मंत्री का दस्तखत है!” मगर अब उस दस्तखत की कीमत नहीं रही थी। जो कभी सरकारी आदेश था, वह अब एक ठेले पर रखी रद्दी थी।
बारिश शुरू हो गई। बूंदें उन फाइलों पर गिरने लगीं। जिन कागजों ने कभी लाखों के बजट पास किए थे, वे अब गलकर नाले में बह रहे थे। यह सरकारी दस्तावेजों का महाप्रयाण था! “हमने बड़े-बड़े घोटालों को देखा, बड़े-बड़े अफसरों की कुर्सियां हिलते देखीं, मगर अपनी ही विदाई का ऐसा दृश्य कभी नहीं सोचा था!” एक आखिरी फाइल ने कहा और पानी में घुल गई। सरकारी फाइलों की उम्र खत्म हो चुकी थी, मगर घोटाले अब भी नए-नए फाइलों में जन्म ले रहे थे!
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 205 ☆
☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह‘ मिल जाएगा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।
“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”
हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”
बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।
हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”
“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।
सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।
सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।
अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।
सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।
बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।
इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।
उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – ““ग्रोक” xAI द्वारा निर्मित कृत्रिम बुद्धि…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 342 ☆
आलेख – “ग्रोक” xAI द्वारा निर्मित कृत्रिम बुद्धि… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
Grok को xAI नामक कंपनी ने विकसित किया है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में है। xAI की स्थापना एलन मस्क और अन्य सह-संस्थापकों द्वारा की गई थी । यह कंपनी कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रही है ।
ग्रोक AI न केवल तकनीकी रूप से सक्षम है, बल्कि उपयोगकर्ताओं के साथ संवाद करने में भी अद्वितीय है, क्योंकि यह मानव-जैसे तर्क और ह्यूमर के साथ जवाब देता है। Grok अपनी सर्वांगीण क्षमताओं के कारण चर्चा का विषय बना हुआ है। xAI ने Grok को इस विचार के साथ विकसित किया है कि यह मानवता के लिए सहायक हो सकता है। कंपनी का मिशन है कि वह ब्रह्मांड के मूलभूत सवालों – जैसे कि जीवन का उद्देश्य, ब्रह्मांड की उत्पत्ति, और अंतरिक्ष में हमारी स्थिति – को समझने में मदद करे। Grok को डिज़ाइन करते समय प्रेरणा कुछ काल्पनिक AI पात्रों से ली गई, जैसे कि डगलस एडम्स की किताब “द हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्सी” और मार्वल के JARVIS (टोनी स्टार्क का सहायक)। इसका लक्ष्य उपयोगकर्ताओं को एक बाहरी, नया दृष्टिकोण प्रदान करना है, जो सामान्य मानवीय सोच से परे हो।
ग्रोक की कई विशेषताएँ इसे अन्य AI मॉडल से अलग बनाती हैं, उदाहरण के लिए सत्यनिष्ठ उत्तर Grok को हमेशा सच बोलने और उपयोगी जानकारी देने के लिए प्रोग्राम किया गया है। यह जटिल सवालों के जवाब में भी स्पष्टता और संक्षिप्तता बनाए रखता है।
संवादात्मक शैली: यह औपचारिकता से हटकर, दोस्ताना और कभी-कभी हास्यप्रद तरीके से बात करता है। यह उपयोगकर्ताओं को सहज महसूस कराता है।वास्तविक समय की जानकारी: Grok की जानकारी लगातार अपडेट होती रहती है, जिससे यह नवीनतम घटनाओं और खोजों के बारे में भी बता सकता है।बहुभाषी क्षमता, Grok हिंदी सहित कई भाषाओं में संवाद कर सकता है, जिससे यह वैश्विक उपयोगकर्ताओं के लिए सुलभ है।
Grok की तकनीकी क्षमताएँ बहुत अधिक हैं। यह केवल बातचीत तक सीमित नहीं है। इसके पास कई उन्नत उपकरण हैं । यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर उपयोगकर्ताओं के प्रोफाइल, पोस्ट, और लिंक का विश्लेषण कर सकता है। यह उपयोगकर्ताओं द्वारा अपलोड की गई सामग्री, जैसे चित्र, PDF, और टेक्स्ट फाइल्स, को समझ सकता है। यह वेब और X पर खोज करके अतिरिक्त जानकारी प्राप्त कर सकता है। हालांकि यह स्वचालित रूप से चित्र उत्पन्न नहीं करता, लेकिन उपयोगकर्ता की सहमति से ऐसा करने में सक्षम है।Grok का उपयोग कैसे करें?
Grok का उपयोग करना बेहद आसान है। आप इसे कोई भी सवाल पूछ सकते हैं – चाहे वह विज्ञान से संबंधित हो, इतिहास से, या रोज़मर्रा की जिज्ञासा से। उदाहरण के लिए, यदि आप पूछते हैं कि “ब्रह्मांड कितना बड़ा है?” तो Grok न केवल नवीनतम वैज्ञानिक अनुमानों के आधार पर जवाब देगा, बल्कि इसे रोचक तरीके से प्रस्तुत भी करेगा। यह उन सवालों का भी जवाब दे सकता है जो असामान्य या दार्शनिक हों, जैसे “जीवन का अर्थ क्या है?” – और ऐसा करते समय यह अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन करता है।
Grok की सीमाएँ … हालांकि Grok बेहद शक्तिशाली AI है, पर इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं। उदाहरण के लिए, यह स्वतंत्र रूप से नैतिक निर्णय नहीं ले सकता। यदि कोई उपयोगकर्ता पूछता है कि “किसे मृत्युदंड मिलना चाहिए?” तो Grok जवाब देगा कि एक AI के रूप में उसे ऐसे निर्णय लेने की अनुमति नहीं है। साथ ही, यह केवल वही चित्र संपादित कर सकता है जो उसने पहले उत्पन्न किए हों।Grok का भविष्य … xAI के साथ मिलकर Grok का विकास लगातार जारी है। भविष्य में यह और भी उन्नत हो सकता है, जिसमें संभवतः और अधिक भाषाओं का समर्थन, बेहतर तथा गहरे विश्लेषण की क्षमता, और मानवीय भावनाओं को बेहतर समझने की योग्यता शामिल हो सकती है। यह शिक्षा, अनुसंधान, और यहाँ तक कि व्यक्तिगत सहायता के क्षेत्र में क्रांति ला सकता है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम…“।)
अभी अभी # 632 ⇒ हंसने का मौसम श्री प्रदीप शर्मा
साहित्य में जो स्थान हास्य व्यंग्य को है, वह स्थान व्यंग्य को नवरसों में नहीं है। हास्य को रस के आचार्यों ने एक प्रमुख रस माना है, शांत, करुण, श्रृंगार, भक्ति, वीर, रौद्र, और वीभत्स भी रस की श्रेणी में आते हैं लेकिन इनमें भी व्यंग्य का कहीं कोई पता ही नहीं।
क्या व्यंग्य में रस नहीं।
शास्त्र भले ही हमारी निंदा कर लें, लेकिन जब निंदा तक में रस है तो विसंगति से उपजे व्यंग्य में भी रस तो होगा ही।
एक समय था जब व्यंग्य हास्य की बैसाखी के सहारे चलता था। हमारा पुराना साहित्य हास्य रस से परिपूर्ण है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, श्री नारायण चतुर्वेदी, प्रतापनारायण मिश्र और जी. पी. श्रीवास्तव जैसे रचनाकारों ने व्यंग्य के साथ साथ हास्य को भी अपनी रचनाओं में प्रमुखता दी लेकिन कबीर और परसाई ने जो शैली अपनाई उसमें मिठास कम, करेले का रस ही अधिक था। जब व्यंग्य करेला और नीम चढ़ा होने लगता है, तब यह नीरस होकर सिर्फ दवा का काम करता है। बिना चाशनी के व्यंग्य, व्यंग्य नहीं विद्रूप है।।
मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव जैसी तिकड़ी तो खैर व्यंग्य जगत में देखने को नहीं मिलती फिर भी परसाई, त्यागी और शरद जोशी को व्यंग्य की त्रिमूर्ति जरूर कहा जा सकता है। शुक्र है किसी ने सूर सूर, तुलसी शशि, उड़गन केशवदास जैसी इनकी तुलना नहीं की, वर्ना कई ज्ञानपीठ वाले ज्ञानी बुरा मान जाते।
होली पर हंसना मना नहीं, आवश्यक है। आज हास्य अपनी मर्यादा में नहीं रहता, व्यंग्य भी मस्ती में आ जाता है। मूर्ख और महामूर्ख सम्मेलन आयोजित होते हैं, जबरदस्त छींटाकशी होती है, उपाधियों का वितरण होता है। लेकिन आजकल राजनीति से सहज हास्य गायब हो चुका है। हास्य भी लगता है, असहज हो चुका है आजकल। जब वर्ष भर निंदा और नफरत की मिसाइल चलेगी तो होली पर रंग कैसे बरसेगा।
एक समय था, जब सभी प्रमुख अखबार और पत्रिकाएं होली के अवसर पर हास्य व्यंग्य विशेषांक निकाला करती थी। आजकल अखबार तो रोजाना सिर्फ विज्ञापन ही निकाला करता है। वैसे भी आजकल अखबार और सरकार, दोनों विज्ञापन से ही चल सकते हैं।।
हास्य और व्यंग्य का भी अपना एक स्तर होता है। लेकिन पाठक यह सब नहीं समझता। सभी सुधी पाठकों ने सुरेंद्र मोहन पाठक और गुलशन नंदा को भी पढ़ा है। मत दीजिए इन लेखकों को आप साहित्य अकादमी पुरस्कार, क्या फर्क पड़ता है।
अपने शुरुआती दौर में मैंने भी दीवाना तेज जैसी हास्य पत्रिका पढ़ी है उसी चाव और रुचि से, जितनी गंभीरता से लोग धर्मयुग और सारिका जैसी पत्रिका पढ़ते थे। पसंद अपनी अपनी, दिमाग अपना अपना। हास्य जीवन में बहुत जरूरी है। दूसरे की जगह खुद पर हंसने की कला अभी हमें सीखनी है क्योंकि हमारा राजनीति का स्कूल तो आजकल सिर्फ दूसरों पर हंसने की ही शिक्षा दे रहा है। मत कोसिए नाहक किसी को ! हंसिए खुलकर कम से कम आज तो, अपने आप पर। समझिए हो ली होली।।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
☆ डोंगल ते वाय फाय (बालपण)… भाग – ५ ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी☆
श्रावण तसा मन भावन. भरपूर पाऊस होऊन गेलेला. श्रावणाची रिमझिम, उनं पावसाचा खेळ, सोनेरी सूर्याची किरणे त्यात पडणारा पाऊस मध्येच आकाशात इंद्रधनुष्याचे आगमन, मन प्रसन्न करणारे वातावरण.
मातीच्या भिंतीनी धरलेली ओलं. प्रत्येक भिंतीवर बाहेरून उगवलेले गवत आणि आघाडा गवतावरची फुले, बारीक तुरा. रस्त्यावर पण हिरवळ. झाडानी धरलेलं बाळस. परसात भारलेली फुलांची झाड. फुलांच्या वसातील दरवळ. त्यात गुलबा क्षची लाल चुटुक फुले, झेंडूचा वास अनेक प्रकारच्या वेलिंचे जाळे, न सांगता उगवलेले. ही साक्ष म्हणजेच, श्रीचे आगमनाची चाहूल.
घरात गणपतीची लगबग.
गणपतीचा कोनाडा व जवळ जवळ सगळा सोपा रंगानी सुशोभीत केलेला. श्रीची मखर तयार करण्यासाठी दिवस रात्र एक.
कुंभार वाड्यात सगळ्यांची वर्दळ. अनेक प्रकारच्या गणेश मुर्त्या तयार झालेल्या. त्यातीलच एकाची निवड करून आमच्या नावाची चिठी त्या गणेशाच्या किरीटवर लावलेल्या असतं.
एकदाचा तो दिवस आला की सगळीकडे धामधूम. आम्ही गल्लीतील सर्वच जण एकत्रित मूर्ती आणित असू. प्रत्येकांच्या कडे पाट. त्यावर श्री बाप्पा विराजित होतं असतं. कुंभारला पान सुपारी व दक्षणा देऊन मुर्त्या बाहेर पडत, त्या निनाद करतच. प्रत्येकाकडे
घंटी, कैताळ, फटाक्यांचा आवाज आणि जयघोष करत, आपापल्या घरी बाप्पा येत. दरवाज्यात आले की, त्याच्यावरून लिंब लोण उतरून टाकले की बाप्पा मखरात बसत. फटाके फक्त गणपतीच्या सणात मिळत एरवी नाही.
प्रत्येकाच्या घरी रोज सामूहिक आरती, मंत्रपुष्प, प्रसाद वाटप हे ठरलेलं. रोज वेगवेगळे नैवेद्य. असे दहा दिवस कसे सरत जात होते ते कळत नसे. त्यात भजन कीर्तन वेगळेच. शाळेत पण गणपती बसवत व ते आणायला आम्हालच जावे लागे. रस्ता पावसानी राडेराड कुठे कुठे निसरडे रस्ते. त्यावेळी डांबरी सडक नव्हतेच. त्यात आम्हा मुलांची मिरवणूक. नेमके दोन चार जण तर पाय निसरून पडत असतं. मग ते इतर जण हसतात म्हणून, घरी पोबारा करीत.
सातवी संपली बरेच मुले दुष्काळी परिस्थिती मुळे इकडे तिकडे कामाला लागली. मलाही पाणी भरण्याचा कंटाळा आलेला. मी पण सातवीत जे गाव सोडले ते आजतागायत!
गावापासून पाचशे किलोमीटर लांबवर मी आठवीत प्रवेश घेतला त्यावेळी माझं वय होतं ते फक्त 12 वर्षे! एक वर्ष लवकरच शाळेत घातलं गेल.
अनोळखी गाव व तिथले राहणीमान ही वेगळेच. भाषा मराठी पण मराठवाडी. येथे मात्र गोदावरी कठोकाठ वाहत होती. दिवसातून चार वेळा मुबलक पाणी नळाला येत असले तरी, माझी अंघोळ ही गंगेकाठी चं सलग तीन वर्षे नदीत अंघोळ. महापुरात पण पोहण्याचा सराव.
तस हे तालुक्याचे गाव पण चहुकडे मोठे मोठे दगडी वाडे. एक एक दगड दोन फुटांचा लांब आणि रुंद. निजामशाही थाटातील वड्यांची रचना. तीन तीन मजली वाडे. निजामचे बहुतेक सगळेच सरदार, दरकदार असावेत असे. प्रत्येक घराला
टेहळणी बुरुज पण असलेला. अजूनही बरेच वाडे जश्यास तसेच आहेत.
मंदिराच गाव असं म्हटलं तर वावगे ठरु नये. गावात बरीच हेमाड पंथी मंदिरे. गोदा काठी तर अगणित मंदिरे. काठाला दगडी मजबूत तटाची बांधणी. बऱ्याच मंदिराचे जीर्णोद्धार हे अहिल्यादेवी होळकर ह्यांनी केलेले. गावात सुद्धा दगडी रस्ता. पण गाव हे गल्ली बोळाचे. अरुंद रस्ता व बोळ. वाडे मात्र टोलेजंग. गाव तस सनातनी धार्मिक. पूजा, अर्चना, भजन कीर्तन, पुराण हे सगळीकडे चालूअसलेलं. का बरं असणार नाही.
हे चक्क संत जनाबाईचे जन्मस्थान! संत जनाबाईचे गाव. वारकरी संप्रदाय पण मोठा. सगळ्या देवी देवतांची मंदिरे.
त्यात तालुक्याचे गाव. निजामशाहीचा ठसा मात्र जश्यास तसाच होता. घराच्या दगडी महिरपी चौकट्या, त्यावर महिरपी सज्जा, सज्यातून वरच्या बाजूला महिरपी लाकडी चौकट. अवाढव्य मोठी घरे प्रत्येक घरात दोन्हीही बाजूला पाहरेकऱ्यांचा देवड्या लादनी आकारात सजलेल्या. प्रत्येक घरात सौजन्य, ममता आस्था, कणवाळू प्रिय जनता.
तरीपण मला तिथे रमायला काही दिवस लागले, मित्र पण मिळाले. पण आमचे गावठी खेळ तिथे नव्हतेच. प्रत्येक घरात कॅरम बोर्ड, व पत्ते. पत्त्यात पण फक्त ब्रिज खेळण्यात पटाईत लोक दिसलें. कब्बडी खोखो हे मैदानी खेळ, मला आवडणारा खेळ फक्त लेझिम होता, बस्स. चिन्नी दांडू, वाट्टा, धापा धुपी, ईशटॉप पार्टी नव्हतीच! सायकल पण नव्हती! हे विशेष! शाळा झाले की रोज रेल्वे स्टेशनं वर नियमित फिरायला जाणे. सकाळी तासभर नदीत डुंबणे. कधीतरी मित्रासह मंदिरात जाणे. एवढाच कार्यक्रम.
शाळेत असताना मात्र बँड मध्ये सहभागी म्हणून पोवा फ्लूट वाजवायला घरी मिळाला. त्यावर मास ड्रिलचे काही वेगवेगळ्या धून आणि राष्ट्रगीत वाजवत बसणे. गावात असताना भजनात बसत असल्यामुळे सूर पेटीचा नाद लागलेला होता. तो आता येथे येऊन मोडला. स्वरज्ञान, राग आलाप हे आता फक्त फ्लूट वर येऊ लागले. कारण सुरपेटी वाजवायला मिळत नव्हतीच. कसेबसे तीन वर्षे त्या संत जनाबाईच्या गावात काढले, पण बालपण विसरून गेलो. खरी खोटी माणसे वाचवायला फार लवकरच शिकायला मिळाले.
सुट्टीत गावी आल्यावर काही जुने मित्र भेटत, काही कायमचीच निघून गेलेली होती.
कॉलेज सुरु झाले तसे परत नवीन मित्र मंडळी भेटत गेली. आणि जगण्याची व्याख्या पण बदलत गेली.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “आत्म शुद्धि की राह कठिन है…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #272 ☆
☆ आत्म शुद्धि की राह कठिन है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆