हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 74 – देश-परदेश – राजस्थान की परंपराएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 74 ☆ देश-परदेश – राजस्थान की परंपराएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विविधता वाले हमारे देश में जब हर आठ कोस पर बोली बदल जाती है, तो हर क्षेत्र और प्रदेश की परंपरा भी भिन्न भिन्न होना स्वाभाविक है।

राजस्थान में मरुस्थल बहुत बड़े भाग में फैला हुआ है। इसलिए खान पान भी वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही होता है।

जयपुर में हनुमान जी का एक प्रसिद्ध स्थान ” खोले के बाला जी” है। यहां वर्षों से लोग अपनी मुरीद पूरी हो जाने पर भगवान को भोग लगा कर प्रसादी वितरण कर पुण्य अर्जित करते आ रहें हैं।

शहर के करीब हो जानें से भीड़ अधिक होना स्वाभाविक है। कुछ माह पूर्व राज्य सरकार ने मंदिर परिसर में “रोप वे” की व्यवस्था करवा दी है। आज हम जब वहां गए तो उसके किराए में सत्तर वर्ष की आयु पर छूट की जानकारी थी। हमने भी मानस बना लिया दो वर्ष बाद आकर इस सुविधा का लाभ अवश्य लेंगे।

यहां पर 24 रसोइयां हैं, और एक समय में पांच हज़ार भक्त प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

आज रविवार का दिन होने पर भी भीड़ कम दिखी, तब दिमाग के घोड़े दौड़ाए तो ज्ञात हुआ कि पेट्रोल पंप वाले हड़ताल पर हैं। हम मित्र तो कार में बैठने की शत प्रतिशत सुविधा का उपयोग कर शहर की आबो हवा को दुरस्त रखने में तो विश्वास करते ही है,साथ ही साथ अपने लाभ के हित भी साध लेते हैं।

आज के कार्यक्रम में अकेले ही जाना पड़ा क्योंकि श्रीमती जी अस्वस्थ है, हमने भी मौके का लाभ लिया और पेट भर कर दाल बाटी और तीन प्रकार के चूरमा का दबा कर सेवन किया, श्रीमती जी साथ रहती है, तो शुगर रोग के नाम से मीठे और मोटापे में वृद्धि को नियंत्रण में रखने के बहाने प्रतिबंध लगा देती हैं।

परिवर्तन पारंपरिक भोजन में भी हुआ हैं। धार्मिक आयोजनों में चावल भी परोसे जाना लगा है। कुछ दिन पूर्व एक गुरुद्वारे में लंगर प्रसाद ग्रहण किया वहां भी चावल परोसे जा रहे थे। पूर्व में सिर्फ गेंहू की रोटी ही होती थी। वहां एक बजुर्ग सिक्ख से इस बाबत बातचीत हुई तो उन्होंने बताया की पांच दशक से पंजाब में भी चावल की खेती बहुत बड़े स्तर पर होने से चावल अब दैनिक भोजन का हिस्सा बन गया हैं।

आप जब भी कभी “खोले के हनुमान” में प्रसादी करवाएं,तो हमें अवश्य याद रखियेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #228 ☆ भूमिका* अनलज्वाला… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 228 ?

भूमिका* अनलज्वाला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

सर्व निजानिज झाल्यानंतर निजते बाई

सूर्य उगवण्या आधी रोजच उठते बाई

*

चारित्र्याला स्वच्छ ठेवण्या झटते कायम

कपड्यांसोबत आयुष्याला पिळते बाई

*

चूल तव्यासह भातुकलीचा खेळ मांडते

भाकर नंतर त्याच्या आधी जळते बाई

*

ज्या कामाला किंमत नाही का ते करते ?

जो तो म्हणतो रिकामीच तर असते बाई

*

सासू झाली टोक सुईचे नवरा सरपण

रक्त, जाळ अन् छळवादाने पिचते बाई

*

तिलाच कळते कसे करावे गोड कारले

कारल्यातला कडूपणाही गिळते बाई

*

पत्नी, मुलगी, बहीण, माता, सून, भावजय

एकावेळी किती भूमिका करते बाई

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ अध्यात्माचे शाश्वत धन ! ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– अध्यात्माचे शाश्वत धन ! – ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

शेगाव ग्रामे , 

प्रकट झाले श्री गजानन !

अवलिया असा,

अध्यात्माचे शाश्वत धन ! 

*

उष्ट्या पत्रावळी ,

आनंदे अन्न सेवन !

योगियाचे झाले , 

जगा प्रथम दर्शन !

*

गजानन महाराजांनी ,

केल्या लीला अगाध  !

धावून भक्तांच्या हाकेला, 

कृपेचा दिला प्रसाद  !

*

झुणका भाकरी नैवैद्य, 

महाराजांना तो प्रिय !

चिलीम घेतली हाती,

भाव भक्ताचा वंदनीय!

*

गण गण गणात बोते,

ध्यान मंत्र मुखी सदा!

सरतील संसारी दु:खे,

टळतील सर्व आपदा!

*

शेगावी दर्शना जावे,

करावे तेथे पारायण!

एक चित्ती ध्यान करावे,

प्रसन्न होईल नारायण!

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 179 – गीत – मैं दीपक था …. ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – मैं दीपक था ।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 179 – मैं दीपक था …  ✍

मैं दीपक था किंतु जलाया

चिंगारी की  तरह    मुझे

 इतना बहकाया है तुमने 

छल लगती है सुबह मुझे ।

*

तुमने समझा हृदय खिलौना 

खेल समझ कर छोड़ दिया 

कभी देवता सा    पूजा  तो 

कभी स्वप्न-सा तोड़ दिया ।

*

जन्म मृत्यु की आंख मिचौनी

 और ना  अब  मुझसे  खेलो 

बहुत बहुत पीड़ा तन मन की 

कुछ मैं ले लूं , कुछ तुम   झेलो।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 180 – “कहीं लहरें थमी थीं किंचित…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  कहीं लहरें थमी थीं किंचित...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 180 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कहीं लहरें थमी थीं किंचित...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

उसके हाथों में समय का

वह सुनहरा केक  था

सधा जिस पर जिन्दगी का

मुस्कराता डेक था

 *

बाजुओं में था प्रणय का

क्षीण सन्नाटा मगर

हथेली में चुभ गया

गम्भीर सा काँटा , जिधर –

 *

उजाले की फ्लड लाइट

में छिपा आक्रोश था

जो अकेला जिंदगी की

फिल्म का रीटेक था

 *

कहीं लहरें थमी थीं किंचित

मुखर दिव्यांग हो

आँख से बहती थी जिनके

नदी कोई ह्वांग हो

 *

ए.आई. के धुँधलके में

चित्र के विस्तार को

उद्धरण ही था मगर

पूरा का पूरा फेक था

 *

क्षुब्ध था मूल्यांकनो का

अनुगमन आभ्यांतर बस

क्षीण सा लगने लगा था

इस कथन का प्राक्कथन वस

 *

हमारे अभिप्राय का उन्नयन

ना हो कदाचित पर

किसी बहके समय का

यह सुलगता अतिरेक था

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

03-01-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # 4 ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

सुश्री बसन्ती पवांर

परिचय

नाम:- सुश्री बसन्ती पवांर

जन्म:- 5 फरवरी, 1953 (बसन्त पंचमी), बीकानेर

शिक्षा:- एम. ए. (राजस्थानी भाषा),  बी. एड. 

व्यवसाय:-’निरामय जीवन’’ एवं ’’केन्द्र भारती’’ मासिक पत्रिका जोधपुर के प्रकाशन विभाग कार्यालय में (अवैतनिक) कार्यरत, रिटायर्ड वरिष्ठ अध्यापिका ।

जुड़ाव:- महिलाओं की साहित्यिक संस्था ’’सम्भावना’’ की उपाध्यक्ष, ’’खुशदिलान-ए-जोधपुर’’, व अन्य संस्थाओं की सक्रिय सदस्य ।

राजस्थानी भाषा में प्रकाशित कृतियां

1.’‘सौगन‘’-1997, (दूसरा संस्करण-2022)  2. ’’अैड़ौ क्यू?’’-2012 (दो उपन्यास) 3 .’’जोऊं एक विस्वास’’-2018 (कविता संग्रह) 4. ’’नुवौ सूरज’’-2017 (कहानी संग्रह) 5. ’’खुशपरी’’-2022 (बाल कहानी संग्रह) 6. ’’धरणी माथै लुगायां’’-2022 (हिन्दी से राजस्थानी में अनूदित काव्य संग्रह) 7. ’’इंदरधनख’’ (संपादित गद्य संग्रह)-2022 8. ’’हूंस सूं आभै तांई’’ (अनुवाद हिन्दी से राजस्थानी में-संस्मरणात्मक निंबध)-2023 9. ’’राधा रौ सुपनौ’’ (कहानी संग्रह)-2023 10 ’’चूंटिया भरुं ?’’ (व्यंग्य संग्रह)-2023 11. ’’कमाल रौनक रौ’’ (बाल कहानी संग्रह)-2023

राजस्थानी भाषा में प्रकाशनाधीन कृतियां

1. एक कविता संग्रह उपनिषद का राजस्थानी भाषा में अनुवाद 3. हिन्दी से राजस्थानी शब्दकोष 4. मोनोग्राफ  

हिन्दी भाषा में प्रकाशित कृतियां

1. ’’कब आया बसंत’’-2016 (कविता संग्रह) 2. ’’नाक का सवाल’’-2019 (व्यंग्य संग्रह) 3. ’’नन्हे अहसास’’-2019 (काव्य संग्रह) 4. ’’तलाश ढाई आखर की’’-2023 (कहानी संग्रह) 5. ’’फाॅर द सेक आॅफ नोज’’ ’’नाक का सवाल’’ का अंग्रेजी में अनुवाद-2022, ’’अपना अपना भाग्य’’ (राजस्थानी आत्मकथा का हिन्दी में अनुवाद) – 2023. 7. ’’संस्कारों की सौरभ’’ (पत्र शैली में बाल निबंध । पं. जवाहरलाला नेहरु, बाल साहित्य  अकादमी, राजस्थान द्वारा प्रकाशित)

हिन्दी में प्रकाशनाधीन कृतियां

1. ’’प्यार की तलाश में प्यार’’ (उपन्यास) 2. एक व्यंग्य संग्रह, ’’अहसासों की दुनिया’’ (काव्य संग्रह) 4. एक काव्य संग्रह

राजस्थानी और हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं / साझा संकलनों में कहानियां, कविताएं, लेख, व्यंग्य, लघुकथाएं, संस्मरण, पुस्तक समीक्षा आदि का लगातार प्रकाशन ।

आकाशवाणी जोधपुर, जयपुर दूरदर्शन से वार्ता, कहानी, कविता, व्यंग्य आदि का प्रसारण । राजस्थानी भाषा के ’’आखर’’ कार्यक्रम (जयपुर) में और जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर, राजस्थानी विभाग के ’गुमेज’ कार्यक्रम में भागीदारी  ।

विशेषः-राजस्थानी भाषा की पहली महिला उपन्यासकार एवं दूसरी व्ंयग्यकार ।

यूट्यूब पर ’’मैं बसंत’’ नाम से चेनल ।

पुरस्कार और सम्मान – 50 से अधिक प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार एवं सम्मान से सम्मानित।

☆ कहाँ गए वे लोग # 4 ☆

☆ गुरुभक्त : कालीबाई सुश्री बसन्ती पवांर  

राजस्थान के इतिहास में देश सेवा के विभिन्न कार्यों में सिर्फ पुरुष और महिलाओं ने ही अपने नाम दर्ज नहीं करवाए हैं बल्कि बालिकाएं भी किसी क्षेत्र में पीछे नहीं रही हैं, उन्हीं में से एक नाम कालीबाई का है ।

गांव रास्तापाल, जिला डूंगरपुर राजस्थान की पहचान ’अमर शहीद वीर बाला कालीबाई’ के नाम से की जाती है । आदिवासी समुदाय के भील सोमा के घर इसका जन्म जून 1935 ई. में माता नवली की कोख से हुआ जिसने मात्र 12 वर्ष की आयु में 19 जून 1947 को जागीरदारों व अंग्रेजों के शोषण के विरुद्ध बहादुरी की एक शानदार मिसाल कायम कर आदिवासी समाज में शिक्षा की अलख जगाई ।

बलिदान की इस घटना के समय डंूगरपुर रियासत के शासक महारावल लक्ष्मण सिंह थे और वे अंग्रेजों की हुकूमत की सहायता से अपना राज्य चलाते थे । उस समय के महान समाजसेवी श्री भोगी लाला पंड्या के तत्वावधान में एक जन आंदोलन चलाया गया जो समाज में फैली कुरीतियों को मिटाने तथा शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य करने लगा । डूंगरपुर रियासत के गांव-गांव में क्षेत्रियस्तर पर स्कूल खोले गए उनमें भील, मीणा, डामोर और किसान वर्ग के बालकों को शिक्षा दी जाती थी ।

जब महारावल को पता चला तो उन्होंने तथा उनके सलाहकारों ने सोचा कि यदि ये बालक शिक्षित हो गए तो बड़ी परेशानी हो जाएगी क्योंकि ये अपना अधिकार मांगने लगेंगे । इस सोच के चलते लक्ष्मण सिंह ने स्कूल बंद करवाने के लिए सन् 1942 में कानून बनवाया और मजिस्ट्रेट नियुक्त किये । वे जहां-जहां भील, मीणाओं के बालक पढ़ते थे, उन स्कूलों को बंद करवाने लगे इसके लिए पुलिस और सेना की मदद भी ली गई । इसी के तहत रास्तापाल की स्कूल बंद करवाने के लिए एक मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक तथा ट्रक भर कर पुलिस व सैनिकों को उस गांव में भेजा गया ।

रास्तापाल में नानाभाई खांट, गांव के बालकों को अपने घर बुलाकर शिक्षा देते थे। स्कूल में इनका सहयोग देने के लिए गांव के बेड़ा मारगिया के सेंगाभाई भी अपनी सेवा देते थे । स्कूल के सभी खर्च नानाभाई वहन करते थे । राजकीय आदेश के बावजूद भी यहां पढ़ाई जारी थी । 19 जून 1947 को जब पुलिस यहां पहुंची तब दोनों वहां मौजूद थे । पुलिस नै उन्हें मारना शुरु कर दिया । नानाभाई को स्कूल में ताला लगाने को कहा तो उन्होंने इंकार कर दिया । चाबी नहीं देने पर सैनिकों उनको ट्रक के पीछे रस्सी से बांध कर घसीटने लगे । रस्सी का एक सिरा सेंगाभाई की कमर से बंधा था और दूसरा ट्रक से । पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने की किसी की भी हिम्मत नहीं हुई । सेंगाभाई अपने लोगों को आवाज लगाते रहे मगर सभी को डर के मारे सांप सूंघ गया ।

तभी अचानक सिर पर घास की गठरी और हाथ में दांतली लिए बिजली की तरह एक 12 वर्ष की बालिका ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया, उस भीड़ को चीरते हुए हुए उसने पूछा कि ये सब किसके आदेश पर हो रहा है ? जब बालिका को सभी बातों का पता चला तो उसने कहा कि सबसे पहले मुझे गोली मारो । और साथ ही वह गाड़ी के पीछे दोड़ पड़ी, उसका खून खौल उठा । पुलिस ने उसे बहुत डराया धमकाया मगर उसने उनकी एक सुनी, अपनी दांतली से उसने रस्सी को एक ही झटके में काट दिया, पुलिस वाले अपनी बंदूकें तानें खड़े थे मगर कालीबाई को गोलियों की कोई परवाह नहीं थी ।

यह तेज और हट देखकर पुलिस को बहुत क्रोध आया । सैनिकों ने उस नन्ही बालिका पर गोलियों की बौछार कर दी । कालीबाई ने अपना जीवन गुरुजी के लिए बलिदान कर दिया । हमेंशा के लिए अमर हो गई । अपने गुरु को बचाकर, उसने गुरु-शिष्य की इस दुनिया में एक अलग पहचान कायम की । 

गुरु-शिष्य के ऐसे अनूठे उदाहरण इतिहास में बहुत कम ही मिलेंगे । नन्ही कालीबाई को शत-शत नमन ।

© सुश्री बसन्ती पंवार

संपर्क –  90, महावीरपुरम, चौपासनी फनवल्र्ड के पीछे, जोधपुर (राज.) – 342008 मो-9950538579

संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ स्वर्ग और नरक…. ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख ‘स्वर्ग और नरक….’।)

☆ आलेख – स्वर्ग और नरक…. ☆

मेरे विचार….

जिन्दगी जिंदा दिली का नाम है, 

मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं,,

सच है, जब तक जिंदगी है, इसे सुख से जियो, मुस्करा कर जियो, हंसते खेलते जिओ, स्वर्ग नर्क मात्र कल्पना है, ऐसा कुछ नहीं है, मृत्यु के बाद की दुनिया किसी ने नहीं देखी है,  ना ऊपर कोई स्वर्ग है, ना कोई नर्क है, जिंदगी में अगर सुख है, दुख है,  तो वह आपके कर्म की ही देन है, इसलिए जब तक जीवन जीते हो,  इसका पूरा आनंद लो, जीवन को, आरामदायक बनाने के लिए, सुख सुविधा एकत्रित करो, और उसके लिए, मेहनत कर अपनी आमदनी बढ़ाओ,  जो कुछ कमाओ,  उसे अपने लिए और अपने परिवार के लिए खर्च कर दो, अगली पीढ़ियों के लिए बचा कर रखने का कोई औचित्य नहीं है, अगली पीढ़ी आपकी संपत्ति को खर्च करेगी, या नष्ट करेंगी, कोई भरोसा नहीं, ना आप देखने आओगे, इसलिए खुशी में तो खुश रहो, और दुख में भी खुश रहो, आपका  अस्तित्व तब तक ही है जब तक आप जिंदा है,, मृत्यु के बाद तो सब मिट्टी है।

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 168 ☆ # सुबह की सुहानी डगर # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सुबह की सुहानी डगर  #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 168 ☆

☆ # सुबह की सुहानी डगर #

रात का बीत रहा है

आखिरी पहर

आज बादलों में

छुपी हुई है सहर

*

कितने अहंकार में डूबा है तम

कितने मजबूर हो गए है हम

कितने सांसों में अटका है दम

ना जाने कब

किस पर टूटेगा कहर?

रात का बीत रहा है

आखिरी पहर

आज बादलों में

छुपी हुई है सहर

*

चांद तारों तक

फैला उसका साम्राज्य है

बहती हवाओं पर भी

उसका राज है

हर मुंडेर पर उसके

सिखाए बाज़ है

रात को हुक्म है

और कुछ देर ठहर?

रात का बीत रहा है

आखिरी पहर

आज बादलों में

छुपी हुई सहर

*

तम से पीड़ित

हर नर और नारी है

अफीम के नशे में

ग़ाफ़िल दुनिया सारी है

आज तुम्हारी तो

कल मेरी बारी है

कब टूटेगा नशा

कब जाएगा दिलों से यह डर

रात का बीत रहा है आखिरी पहर

आज बादलों में छुपी हुई है सहर

*

क्षितिज पर देखो

रात ने जुल्फें संवारीं है

नभ के भाल पर

लाल बिंदिया कंवारी है

सब कुछ शांत है पर

अंदर कोई चिंगारी है

कौन रोक सका है

सुबह की सुहानी डगर ?

रात का बीत रहा है आखिरी पहर

आज बादलों में छुपी हुई है सहर //

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “जराशी शाब्दिक गंमत …” – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “जराशी शाब्दिक गंमत …” – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

एक वेलांटी सरकली,

पिताकडून पतीकडे आली. 

*

एक काना सरकला, 

राम ची रमा झाली. 

*

दोन काना जोडले, 

शरद ची शारदा झाली. 

*

एक मात्रा सरकली, 

खेर ची खरे झाली. 

*

एक अक्षर घटले, 

आठवले ची आठले झाली. 

*

एक अक्षर बदलले, अन्

मालू ची शालू झाली.

कर्वे ची बर्वे झाली. 

अत्रे ची छत्रे झाली. 

गानू ची भानू झाली. 

कानडे ची रानडे झाली. 

*

लग्नानंतर नांवच उलटे केले, 

निलिमाची मालिनी झाली. 

*

पदोन्नती झाली, 

प्रधान ची राजे झाली. 

राणे ची रावराणे झाली. 

देसाई ची सरदेसाई झाली. 

अष्टपुत्रे ची दशपुत्रे झाली. 

*

झुरळाला भिणारी ती, 

दैवयोगाने वाघमारे झाली. 

*

लेकराला कुरवाळीत, 

पुढे लेकुरवाळी झाली. 

*

एक पिढी सरकली,  

सुनेची सासू  झाली !!

लेखक : अज्ञात 

संग्राहिका – सौ उज्ज्वला केळकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 232 ☆ व्यंग्य – एक रोमांटिक की त्रासदी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 232 ☆

☆ व्यंग्य –  एक रोमांटिक की त्रासदी

नन्दलाल हमारी मित्र-मंडली में भीषण रोमांटिक आदमी है, बर्नार्ड शॉ के शब्दों में ‘लाइलाज रोमांटिक स्वभाव वाला।’ बाकी हम सब लोग खाने-कमाने और ज़मीन पर रहने वाले लोग हैं। नन्दलाल अपने ऊपर ज़बरदस्ती साहित्यिक मुद्रा ओढ़े रहता है। वैसे उसकी साहित्यिक समझ खासी घटिया है, लेकिन उसे उस पर बेहद नाज़ है। सस्ते बाज़ारू शेर सुनकर उन पर घंटों सिर धुनता है। इश्क, माशूक और चांद-सितारों वाले शेरों से उसने कई कॉपियां भर रखी हैं। उनमें से कई उसे याद भी हैं, भले ही कुछ शब्द और टुकड़े छूट जाएँ। लेकिन उसे परेशानी इसलिए नहीं होती कि उन शेरों का मतलब उसे खुद भी नहीं मालूम।

तलफ्फुज़ के मामले में उसकी हालत दर्दनाक है, ‘शेर’ को ‘सेर’ और ‘माशूक’ को ‘मासूक’ कहने वाला। उसके ‘सेर’ सुनकर जानकारों का रक्तचाप बढ़ जाता है, सिर फोड़ लेने की इच्छा बलवती हो जाती है, लेकिन नन्दलाल इस स्थिति से बेखबर ‘सेर’ पर ‘सेर’ मारे जाता है। उर्दू के किसी विद्वान को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने हेतु नन्दलाल का उपयोग सफलता से किया जा सकता है।

नन्दलाल का पूरा व्यक्तित्व रूमानियत से सराबोर है। बादशाह अकबर की तरह बैठकर फूल सूँघते रहना उसे बहुत प्रिय है। लड़कियों के मामले में अपने दीवानेपन के लिए वह कुख्यात है। लेकिन उसका प्रेम विशुद्ध अफलातूनी होता है। लड़कियों को ख़त लिखना और उनके ख़तों पर आहें भरना उसका प्रिया शग़ल है। बाज़ार में किसी सुन्दर लड़की को देखकर उसकी आत्मा शरीर का साथ छोड़ देती है। वह किसी ‘ज़ोम्बी’ की तरह विदेह हुआ, लड़की के पीछे खिंचा चला जाता है। उस वक्त उसे हिला-डुला कर ज़मीन पर वापस लाना पड़ता है।

नन्दलाल अपने दोस्तों को धिक्कारता रहता है। कहता है, ‘तुम लोगों को रोटी-दाल के सिवा इस दुनिया में कुछ दिखाई नहीं पड़ता। दुनिया कितनी खूबसूरत है, जरा आँखें खोल कर देखो। यों ही एक दिन रोटी कमाते कमाते मर जाओगे।’ और फिर वह दो तीन ‘सेर’ जड़ देता है।

चाँदनी रातों में नन्दलाल बदहवास हो जाता है। कहीं मैदान में घंटों चाँदनी के नीचे लुढ़कता रहता है और हम लोगों को अपने पास पकड़ कर घंटों ‘बोर’ करता है। माशूक के मुखड़े की चाँद से तुलना करने वाले पचास साठ ‘सेर’ सुना देता है।

उसके आनन्द में सबसे ज़्यादा बाधा छुट्टन डालता है। जब नन्दलाल आँखें बन्द करके ‘सेर’ सुनाता होता है, तभी वह कसमसाने लगता है। कहता है, ‘यार, मैं चलूँ। भैंस को चारा डालना है। बाबूजी गुस्साएँगे।’

छुट्टन ‘गुस्साएँगे’ जैसे नूतन शब्द प्रयोग करने के लिए विख्यात है। नन्दलाल उसकी बात सुनकर भिन्ना जाता है। जबड़े भींच कर कहता है, ‘भैंसों को पालते पालते तुम भी भैंसा हो गये। जाओ, किसी चरई के किनारे खड़े होकर पूँछ हिलाओ।’

छुट्टन पर कोई असर नहीं होता। वह अपनी पतलून की घास झाड़ता उठ खड़ा होता है। कहता है, ‘कल से वह ठीक से खा-पी नहीं रही है। ढोर-डाक्टर को दिखाना पड़ेगा। तुम्हारे शेरों से दूध नहीं निकलने वाला।’

गुस्से में नन्दलाल के मुँह से एक मिनट तक शब्द नहीं निकलते। चेहरा लाल भभूका हो जाता है। शेर सब लटपट हो जाते हैं। छुट्टन के जाने पर हिकारत से कहता है, ‘साला बिना सींग- पूँछ का जानवर। ढोर कहीं का।’

लेकिन एक दिन नन्दलाल का रूमानीपन सूली पर चढ़ गया। कम से कम हमारे सामने तो उसने रूमानियत झाड़ना बन्द ही कर दिया। हमें काफी राहत महसूस हुई।

बात यह हुई कि एक दिन छुट्टन मुझे, नन्दलाल और राजू को बीस पच्चीस मील दूर एक गाँव में ले गया जहाँ उसकी ज़मीन थी। नन्दलाल बहुत उत्साह में गया क्योंकि उसे आवारागर्दी बहुत पसन्द है।

छुट्टन का गाँव सड़क से काफी हटकर था। सड़क भी ऐसी कि जहाँ से दिन भर में मुश्किल से तीन चार बसें निकलती हैं। हम लोग सुबह दस ग्यारह बजे बस से उतरे। फिर हमें करीब तीन मील पैदल चलना पड़ा। तीन मील धूप में चलने में नन्दलाल की हुलिया बिगड़ गयी। उसका उत्साह आधा हो गया। किसी तरह मुँह बनाते, रोते- झींकते उसने सफर पूरा किया।

बहुत छोटा सा गाँव था, करीब पच्चीस तीस घर का। लेकिन गाँव के नज़दीक पहुँचकर नन्दलाल का उत्साह लौट आया। खेतों में खड़ी फसल देखकर उसकी रूमानियत फिर जाग गयी। वैसे उसके लिए गन्ने को छोड़कर और किसी पौधे को पहचानना मुश्किल था, लेकिन हरियाली को देखकर उसका दिल भी हरा हो जाता था।

छुट्टन का घर उसके खेतों के बीच में था जिसको देखने के लिए उसने एक कारिन्दा रख छोड़ा था। वह खपरैल वाला कच्चा घर था। उसे देखकर नन्दलाल बाग़ ब़ाग हो गया। झूम कर बोला, ‘क्या खूबसूरत घर है, खेतों के बीच में। एकदम फिल्मी चीज है। शहर के मकान देखते देखते जी भर गया।’

छुट्टन बोला, ‘बेटा, एक रात गुजारोगे तो आसमान से जमीन पर आ जाओगे।’

वहाँ पहुँचकर छुट्टन तो कामकाज में लग गया और हम लेट कर सुस्ताने लगे। नन्दलाल कूदफाँद मचाये था। कभी घर में घुस जाता, कभी दौड़कर खेतों की मेड़ पर खड़ा हो जाता। वह बहुत खुश था।

छुट्टन का कारिन्दा एक पंडित था। थोड़ी देर में वह अपने घर से खाना बनवा कर ले आया। मोटी मोटी रोटियाँ, पनीली दाल, लौकी की सब्ज़ी और कैथे की चटनी। भूख के मारे बहुत अच्छा लगा। नन्दलाल खाने पर लट्टू हो रहा था। गाँव की मोटी मोटी रोटियों के प्रति भी लोगों के मन में एक रोमांस होता है। वह उसी का शिकार था। ‘वाह वाह’ करते उसने खाना खाया।

थोड़ी देर बाद छुट्टन हमें कुछ दूर नदी किनारे ले गया। छायादार बड़े-बड़े पेड़ थे और साफ, नीला पानी शोरगुल करता, उछलता- कूदता बह रहा था। सामने नीला आसमान था और रुई के टुकडे़ जैसे तैरते बादल। खेत सोने के रंग में रंगे लगते थे।

देखकर नन्दलाल पर जैसे दौरा पड़ गया। उसके मुँह से मशीनगन की गोलियों की तरह ‘सेर’ छूटने लगे। किसी तरह उसके मुँह पर ढक्कन रखने में हम सफल हुए, फिर वह आहें भरते भरते सो गया। खुर्राटे भरने लगा। करीब दो घंटे तक बेहोश सोता रहा।

जब वह जागा तो साये लंबे होने लगे थे। सूरज झुक आया था। अब छुट्टन हड़बड़ी मचाये था। सड़क से आखिरी बस छः बजे निकलती थी। उसके बाद सबसे पहली बस सुबह सात बजे ही थी।

लेकिन नन्दलाल अपनी जगह से नहीं हिला। वह इधर-उधर आँखें पसारकर आहें भरता रहा। बार-बार कहता, ‘अबे, चलते हैं। वहाँ शहर में यह नजारा कहाँ मिलने वाला।’

उसकी रंगीन तबियत के  फलस्वरूप हम लोग पाँच बजे तक गाँव से रवाना नहीं हो पाये। फिर रास्ते भर हम लोग उसे जल्दी चलने के लिए धकियाते रहे, लेकिन उसके पाँव जैसे मन-मन भर के हो गये थे।

नतीजा यह हुआ कि जब हम लोग सड़क से करीब आधा मील दूर थे तभी हमें बस आती दिखी। हम लोग दौड़े, हाथ हिलाया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हम लोगों ने नन्दलाल को पेट भर गालियाँ दीं। वह चुप्पी साध कर रह गया।

हम फिर लौट कर गाँव गये। अब की बार नन्दलाल की हालत खराब हो गयी। अब किसी प्राकृतिक दृश्य का उस पर असर नहीं पड़ रहा था। वह मरियल टट्टू की तरह सिर लटकाये,  पाँव घसीटता चलता रहा। घर पहुँच कर वह ऐसे पड़ रहा जैसे उसके प्राण निकल गये हों।

पंडित जी ने फिर भोजन का प्रबंध किया, लेकिन अब नन्दलाल ‘वाह वाह’ करना भूल गया था। वह सिर झुकाये, मातमी चेहरा बनाये भोजन ठूँसता रहा।

घर में सिर्फ दो खाटें थीं, जिन में से एक पर पंडित जी सोते थे। पंडित जी ने प्रस्ताव रखा कि दो तीन खाटें गाँव से मँगा लें, लेकिन हमने मना कर दिया। फिर उन्होंने कहा कि हम लोग दो खाटों पर सो जाएँ, वे ज़मीन पर सो जाएँगे। लेकिन हमने ज़मीन पर सोने का निश्चय किया।

हम ज़मीन पर दो दरियाँ बिछाकर लेट गये। पंडित जी थोड़ी दूर खाट पर लेटकर नाक बजाने लगे। नन्दलाल चुपचाप लेट गया। उसकी बोली बन्द हो गयी थी।

रात घुप्प अँधेरी थी। दूर कहीं कोई रोशनी कभी-कभी टिमटिमाती थी। हवा चलती तो पेड़ ‘खड़ खड़ सूँ सूँ ‘ करने लगते। दिन का सुहावना दृश्य अब खासा भयानक हो गया था। मच्छरों का भीषण आक्रमण हुआ। छोटे मच्छर थे, बिना आवाज़ किये मार करते थे। नन्दलाल शरीर पर पट्ट पट्ट हाथ मारने लगा। फिर उठकर बैठ गया, बोला, ‘बड़े बगदर हैं।’

मैंने कहा, ‘शुद्ध भाषा बोलो। ‘बगदर’ नहीं, ‘मच्छर’ कहो।’

वह चिढ़कर बोला, ‘चुप रह बे,’ और वापस लेट गया। लेकिन उसकी और हम सब की नींद हराम थी। मच्छरों को शहरी खून काफी पसन्द आ रहा था।

नन्दलाल ने थोड़ी देर में फिर आँखें खोलीं। इधर-उधर देखकर बोला, ‘बाप रे, कैसा डरावना लगता है। मुझे तो डर लग रहा है।’

फिर थोड़ा रुक कर उसने मुझे हिलाया, कहा, ‘दत्तू, सो गये क्या यार?’

मैंने आँखें बन्द किये ही कहा, ‘जाग रहा हूँ। क्या बात है?’

वह कुछ लज्जित होकर बोला, ‘कुछ नहीं’, और चुप हो गया।

थोड़ी देर में सामने कहीं से एक औरत की चीखें आने लगीं। ऐसा लगता था जैसे चीखने वाला इधर-उधर दौड़ रहा हो। बड़ी भयानक और रोंगटे खड़ी कर देने वाली चीखें थीं। हम सब की नींद खुल गयी। लेकिन पंडित जी अब भी नाक बजा रहे थे।

छुट्टन ने पंडित जी को जगा कर पूछा। पंडित जी उठकर बैठ गये, फिर दाढ़ी खुजाते हुए बोले, ‘एक काछी की बहू है। पागल हो गयी है। रोज ऐसा ही करती है। अभी घर के लोग पकड़ कर ले जाएँगे।’ फिर वे दाढ़ी खुजाते खुजाते  लेट कर सो गये।

और सचमुच थोड़ी देर में चीखें  बन्द हो गयीं। हम लोग फिर ऊँघने लगे। लेकिन नन्दलाल को बड़ी देर तक नींद नहीं आयी। वह देर तक मेरा हाथ पकड़े रहा। बार-बार कहता, ‘यार, सो गये क्या?’ और मैं आधी  नींद में जवाब देता, ‘नहीं।’

किसी तरह राम राम करते सवेरा हुआ। सवेरे नन्दलाल की हालत दयनीय थी। बिखरे बाल, नींद न आने के कारण गुलाबी आँखें, भारी पलकें और उतरा हुआ बासी मुँह। चुपचाप मुँह धोकर वह एक तरफ खड़ा हो गया।

छुट्टन ने चाय पीने का प्रस्ताव रखा तो नन्दलाल ने जोर से प्रतिवाद किया। बोला, ‘नहीं, नहीं, वहीं सड़क पर पियेंगे।’

हम वहाँ से चल दिये। नन्दलाल अब सबसे आगे तेज़ी से चल रहा था। चिड़ियों की आवाज़ से वातावरण भरा था। मैंने देखा, पूर्व में सूरज का नारंगी गोला धीरे-धीरे उठ रहा था।

मैंने नन्दलाल को आवाज़ देकर कहा, ‘देख नन्दू, सूरज कैसा सुन्दर लग रहा है।’

लेकिन हमारा परम रोमांटिक नन्दू, इन सब बातों से बेखबर, सिर झुकाये, बस के लिए दौड़ा जा रहा था।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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