(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना नेताओं का संकल्प और जनता का विकल्प।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 37 – नेताओं का संकल्प और जनता का विकल्प ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
गांव का नाम था आशावादीपुर, जहां हर चार साल में उम्मीदें हवा में तैरतीं, और ज़मीन पर गिरते ही चकनाचूर हो जातीं। इस बार का चुनावी माहौल बड़ा ही गरमागरम था। प्रत्याशी धर्मपाल वर्मा, जो हर बार अपने वादों से गांववालों को चकाचौंध कर देते थे, इस बार फिर तैयार थे। उनके प्रमुख वादे—”हर घर में इंटरनेट, हर हाथ में टैबलेट, और हर गली में डामर की सड़क।”
सभा में, धर्मपाल वर्मा की आवाज़ गूंज रही थी, “भाइयों और बहनों, मैंने जो कहा, वो करके दिखाया। पिछली बार मैंने वादा किया था कि हर खेत तक पानी पहुंचेगा। पानी पहुंचा ना?”
पीछे से एक बूढ़े किसान ने खांसते हुए कहा, “हां, पानी पहुंचा था, लेकिन ट्यूबवेल के पाइप में, वो भी चुनाव के आखिरी दिन तक।”
सभा में तालियां और ठहाके गूंज उठे। धर्मपाल जी मुस्कुराए, “सिर्फ आलोचना से काम नहीं चलेगा। इस बार मैं गारंटी देता हूं कि आपकी गली चमचमाती सड़कों से भरी होगी।”
गांव के एक युवा, शंभू, जो हमेशा धर्मपाल जी के भाषणों में चाय बेचता था, इस बार एक सवाल लेकर खड़ा हो गया, “साहब, आपके भाषण में जो सड़कें हैं, वो हमारे गांव में क्यों नहीं दिखतीं? क्या वो भाषण में ही बनती हैं?”
धर्मपाल जी ने अपने रुमाल से पसीना पोछा और जवाब दिया, “सड़कें बन रही हैं, बेटा। देखना, अगली बार जब मैं आऊंगा, तो मेरी गाड़ी से धूल नहीं उड़ेगी।”
चुनाव नज़दीक था, और वादों की बारिश हो रही थी। “हर गरीब को पक्का मकान देंगे, हर बच्चे को शिक्षा मुफ्त। बिजली चौबीस घंटे और पानी सातों दिन!”
गांववाले मन ही मन बोले, “अगर ये सब होगा, तो फिर ‘आशावादीपुर’ को ‘सपनों का शहर’ बना दिया जाएगा।”
धर्मपाल जी जीत गए। गांववालों ने मिठाई खाई, और फिर भूले नहीं, बल्कि सपनों को धूल खाते देखा। चुनाव के अगले दिन ही बिजली की लाइन काट दी गई। “सरकारी काम में थोड़ी देरी होती है,” अधिकारी ने कहा। सड़कें बनीं, लेकिन बारिश में बह गईं। पक्के मकान आए, लेकिन दीवारों पर दरारें थीं। हर हाथ में टैबलेट की जगह, हर हाथ में बिल थमा दिया गया।
धर्मपाल जी पांच साल बाद फिर लौटे। इस बार उनके वादे और बड़े थे। “इस बार हर घर में हवाई जहाज और हर खेत में ड्रोन से सिंचाई!”
गांववालों ने ठहाका लगाया, “साहब, सड़कें तो पहले बनवा दीजिए, ड्रोन बाद में चलाएंगे।”
सभा खत्म हुई, धर्मपाल जी गाड़ी में बैठे, और गाड़ी के ड्राइवर ने धीरे से कहा, “साहब, गाड़ी का टायर इस सड़क पर फिर फंस गया।” धर्मपाल जी चुपचाप आसमान की ओर देखने लगे।
गांववाले अब जानते थे कि वादे सिर्फ वादे हैं। लेकिन एक नई पीढ़ी तैयार हो रही थी, जो सवाल पूछने लगी थी। धर्मपाल जी इस बदलाव से घबरा गए। और गांव ने तय किया, “अब चुनाव में कोई वादा नहीं, सिर्फ काम पर वोट मिलेगा।”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – “एक धांसू व्यंग्य की रचना… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 329 ☆
व्यंग्य – एक धांसू व्यंग्य की रचना… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
क्या बात है आज बड़े प्रसन्न लग रहे हैं. घर पहुंचते ही पत्नी ने उलाहना देते स्वर में उनसे पूछा.मनोभाव छिपाते हुये वे बोले, कुछ तो नही. मैं तो सदा खुश ही रहता हूं. खुश रहने से पाजीटिवीटी आती है. व्यंग्यकार जी ने व्हाट्सअप ज्ञान बघारते हुये जबाब दिया. पर मन ही मन उन्होंने स्वीकार किया कि सच है इन पत्नियों की आंखो में एक्स रे मशीन फिट होती है. ये हाव भाव से ही दिल का हाल ताड़ लेती हैं. इतना ही नही पत्नी की पीठ भी आपकी ओर हो तो भी वे समझ लेती हैं कि आप क्या देख सुन और कर रहे होंगे. बिना बातें सुने केवल मोबाईल के काल लाग देखकर ही उन्हें आधे से ज्यादा बातें समझ आ जाती हैं. पत्नी के सिक्स्थ सेंस को व्यंग्यकार जी ने मन ही मन नमन किया और अपनी स्टडी टेबल पर जा बैठे. बगीचे के ओर की खिड़की खोली और आसमान निहारते हुये एक धांसू फोड़ू व्यंग्य रचना लिखने का ताना बाना बुनने लगे.
दरअसल व्यंग्यकार जी को देश के श्रेष्ठ १०१ रचनाकारों वाली किताब के लिये व्यंग्य लिखने का मौका मिल रहा था. वे इस प्रोजेक्ट में अपनी सहभागिता को लेकर मन ही मन खुशी से फूले नही समा रहे थे. उन्होंने तय किया था कि इस किताब के लिये वे एक चिर प्रासंगिक व्यंग्य की रचना करेंगे. कुछ शाश्वत लिखने के प्रति वे आश्वस्त थे. उन्होंने अपनी कलम चूम ली. जब चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी अपनी तीन कहानियों से हिन्दी साहित्य में अमरत्व प्राप्त कर चुके हैं, फिर वे तो आये दिन लिख ही नही रहे छप भी रहे हैं.पर अखबारो में छपने और जिल्द बंद किताब में छपने का अंतर वे खूब समझते हैं इसलिये व्यंग्यकार जी अपने ज्ञान और व्यंग्य कौशल से कुछ जोरदार धारदार ऐसा लिखने का प्लान बना रहे थे जो हरिशंकर परसाई जी के लेखो की तरह हर पाठक की पसंद बन सके. जिसे शरद जी के प्रतिदिन की तरह शारदेय कृपा मिल सके.
व्यंग्यकार जी की पहली समस्या थी कि व्यंग्य किस विषय पर लिखा जाये, जो एवर ग्रीन हो लांग लास्टिंग हो सीधे सीधे कहें तो आज रात एक धांसू व्यंग्य की रचना कर डालना उनका टारगेट था ? व्यंग्यकार जी अच्छी तरह जानते थे कि शाश्वत मूल्यो वाली रचना वही हो सकती है, जिसमें व्यंग्यकार जन पीड़ा के साथ खड़ा हो. ए सी कमरे में रिवाल्विंग चेयर पर बैठ आम आदमी की तकलीफों को महसूसना सरल काम नही होता. काफी पीते हुये सिगरेट के कश से मूड बनाकर व्यंग्यकार जी शाश्वत टापिक ढ़ूंढ़ने लगे. सोचा कि अखबारी खबरों की मदद ली जाये, पर तुरंत ही उन्हें ध्यान आया कि व्यंग्य गुरू ने कल ही एक चर्चा में कहा था कि खबरो पर लिखे व्यंग्य अखबार की ही तरह जल्दी ही रद्दी में तब्दील हो जाते हैं. मूड नही बन पा रहा था सो उन्होनें स्मार्ट टीवी का रिमोट दबा दिया, शायद किसी वेब सिरीज से कोई प्लाट मिल जाये, पर हर सिरीज में मारधाड़ और अश्लीलता ही मिली. उन्होने सोचा वे इतना फूहड़ नही लिख सकते.
अनायास उनका ध्यान व्यंग्य के साथ जुड़े दूसरे शब्द ” हास्य ” की ओर गया. हाँ, मुझे हास्य पर ही कुछ लिखना चाहिये उन्होंने मन बनाया. हंसी ही तो है जो आज सबके जीवन से विलुप्त हो रही है. वे भीतर ही भीतर बुदबुदाये हंसी तो हृदय की भाषा है दूध पीता बच्चा भी माँ के चेहरे पर हास्य के भाव पढ़ लेता है. वे व्यंग्य तो लिख लेते हैं पर क्या वे हास्य भी उसी दक्षता से लिख पायेंगे, उन्होने स्वयं से सवाल किया. उन्होंने कामेडी शो से कुछ गुदगुदाता टाइटिल उठाने का मन बना लिया. फेमस कामेडी शो का चैनल दबाया, पर वहां तो भांडगिरी चल रही थी. पुरुष स्त्री बने हुये थे, जिनकी मटरगश्ती पर जबरदस्ती हंसने के लिये भारी पेमेंट पर सेलीब्रिटी को चैनल ने सोफा नशीन किया हुआ था. बात व्यंग्यकार जी की ग्रेविटी के स्तर की नही थी. और आज उन्होने तय किया था कि वे एंवई कुछ भी बिलो स्टैंडर्ड नही लिखेंगे. लिहाजा अपने लेखन में वे कोई काम्प्रोमाइस नही कर सकते थे, मामला जम नही रहा था.
तभी पत्नी ने फ्रूट प्लेट के साथ स्टडी रूम में प्रवेश किया, मुस्कराते हुये बोली किस उधेड़बुन में हो. उन्होनें अपनी उलझन बता ही दी कि वे कुछ झकास व्यंग्य लिखना चाहते हैं. पत्नी ने भी पूरी संजीदगी से साथ दिया बोली देखिये, व्यंग्य वही हिट होता है, जिसमें भरपूर पंच लाईनें हों. फिर अपनी बात एक्सप्लेन करते हुये बोली, पंच लाईने तो समझते ही हैं आप. साहित्यिक ढ़ंग से कहें तो जैसे कबीर के दोहे या सीधे सीधे रोजमर्रा की बातों में कहूं तो वे ताने यानी व्यंग्यबाण जिनसे सासें अपनी बहुओ को बेधकर बेवजह बुरा बनती हैं. उन्हें गुस्सा आ गया वे स्थापित व्यंग्यकार हैं और पत्नी उन्हें व्यंग्य में पंच लाईनो का महत्व बता रही है, वे तुनककर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये बोले अरे तुम तो रचना के विन्यास की बात कर रही हो इधर मैं सब्जेक्ट सर्च कर रहा हूं.
पत्नी ने चुटकियो में प्राब्लम साल्व करते हुये कहा तो ऐसा कहिये न. सुनिये व्यंग्य वही फिट होता है जो कमजोर के पक्ष में लिखा जाये. फिर उसने समझाते हुये बात बढ़ाई, वो अपन खाटू श्याम के दर्शन के लिये गये थे न. वे ही खाटू श्याम जो हमेशा हारते का सहारा होते हैं , व्यंग्यकार को भी हमेशा ताकतवर से टक्कर लेते हुये कमजोर के पक्ष में लिखना चाहिये.पत्नी की बात में दम था. एक बार फिर व्यंयकार जी पत्नियों के सामान्य ज्ञान के कायल हो गये. यूं ही नही हर पत्नी चाहे जब ठोंककर कह देती है, “मैं तो पहले ही जानती थी “. पर उन्होनें रौब जमाते हुये कहा, यार तुम भटक रही हो, मेरी समस्या व्यंग्य की नही टापिक को लेकर है. एक बार यूनिवर्सल टापिक डिसाइड हो जाये फिर तो मैं खटाखट कंटेट लिख डालूंगा.तुम तो देखती ही हो मैं कितने फटाफट धाकड़ सा व्यंग्य लिख लेता हूं. इधर घटना घटी नही कि मेरा व्यंग्य तैयार हो जाता है और अगली सुबह ही अखबारो में छपा मिलता है. फिर उन्हें व्यंग्य लेखन और प्रकाशन कि इस सुपर फास्ट गति से तेज एनकाउंटर की याद हो आई, जिसमें अपराधी के पकड़ आने पर उनका व्यंग्य संपादक के मेल बाक्स में पहुंच पाता इससे पहले ही एनकाउंटर हो गया और व्यंग्य की भ्रूण हत्या हो गई.
वे बोले, मुझे ऐसा सब्जेक्ट चाहिये, जो हिट हो और सबके लिये सदा के लिये फिट हो. अच्छा तो मतलब आप बच्चा होने से पहले ही उसका नाम तय करने को कह रहे हैं, पत्नी ने कहा. कुछ सोचते हुये वह बोली, चलिये कोई बात नही, चुनावों पर लिख डालिये इतने सारे चुनाव होते रहते हैं देश विदेश में जब भी चुनाव होंगें, आपका व्यंग्य सामयिक हो जायेगा. नहीं, नहीं, चुनावों पर बहुत लिखा जा चुका है. उन्होने तर्क दिया. हम्मम, कुछ सोचते हुये पत्नी बोली हिंदू मुस्लिम पर लिखिये, साल दो साल में दंगे फसाद होते ही रहते हैं, आपका व्यंग्य चकाचक बना रहेगा. अरे भाई मैं सरकारी अफसर हूं, और उससे भी पहले एक भारतीय मैं कोई सांप्रदायिक बात नही लिखना चाहता, व्यंग्यकार जी का जबाब तर्कसंगत था. पत्नी ने सुझाया, अच्छा तो भ्रष्टाचार पर लिखिये, जब तक लेन देन रहेगा, कमीशन रहेगा, घोटाले रहेंगें, आपका व्यंग्य रहेगा. उन्होने बात काटते हुये कहा नहीं. कहने तो लोग यह भी कहते थे कि “जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू”. लालू को मैनेजमेंट पर व्याख्यान के लिये हावर्ड बुलाया जाता था, पर देखा न तुमने कि लालू किस तरह जेल में है, मैं ऐसे मैटर पर जोरदार, असरदार, लगातार बार बार पढ़ा जाने वाला व्यंग्य भला कैसे लिख सकता हूं, अब डिजिटल पेमेंट का जमाना है, अब जल्दी ही कमीशन और परसेंटेज गुजरे जमाने की बातें हो जायेंगे. पत्नी को व्यंग्यकार जी का यह आशावाद यथार्थ से बहुत परे लग रहा था, पर फिर भी उसने बहस करना उचित नही समझा और अपने हर सजेशन के रिजेक्शन से ऊबते हुये टरकाने के लिये सुझाया कि आप कोरोना पर लिख डालिये. व्यंग्यकार जी ने भी चिढ़ते हुये प्रत्युतर दिया, हाँ इधर कोरोना की वैक्सीन बनी और उधर मेरा व्यंग्य गया पानी में. मैने कहा न कि मैं कुछ धांसू व्यंग्य लिखना चाहता हूं जो फार एवर रहे. मेरा मतलब है जैसे तुम्हारे चढ़ाव के कंगन, पत्नी के खनकते कंगनो को देखते हुये व्यंग्यकार जी उसकी काम की भाषा में बोले. पत्नी ने भी तुरंत बाउंड्री पर कैच लपका, बोली ये आपने अच्छी बात कही.सुनिये सोना बहुत मंहगा हो रहा है, एक सैट ले लीजीये, बेटे के चढ़ाव में काम आयेगा इसी बहाने बचत हो जायेगी. आपका व्यंग्य रहे न रहे पर मेरा कंगन पुश्तैनी है, यह शाश्वत है, यह हमेशा रहेगा. व्यंग्यकार जी को भी समझ आया कि सोना शाश्वत है, और वे एक धांसू व्यंग्य की रचना का सपना देखने सोने चले गये.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “अथकथा में, हे कथाकार!”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 201 ☆
☆ लघुकथा- तीर्थयात्रा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
हरिद्वार जाने वाली गाड़ी दिल्ली पहुंची थी कि फोन घनघना उठा,” हेल्लो भैया !”
“हाँ हाँ ! क्या कहा ? भाभी की तबियत ख़राब ही गई. ज्यादा सीरियस है. आप चिंता न करें.” कहते हुए रमन फोन काट कर अपनी पत्नी की ओर मुड़ा, “ सीमा ! हमें अगले स्टेशन पर उतरना पड़ेगा.”
“क्यों जी ? हम तो तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं. फिर वापस घर लौटना पड़ेगा ?” सीमा का वर्षों पूर्व संजौया सपना पूरा हो रहा था, “ कहते हैं कि तीर्थयात्रा बीच में नहीं छोड़ना चाहिए. अपशगुन होता है.”
“कॉमओन सीमा ! कहाँ पुराने अंधविश्वास ले कर बैठ गई,” सीमा के पति ने कहा, “ कहते हैं कि बड़ों की सेवा से बढ़ कर कोई तीर्थ नहीं होता हैं ”
यह सुन कर सीमा सपनों की दुनिया से बाहर आ गई और रेल के बर्थ पर बैठेबैठे बुजुर्ग दंपत्ति के हाथ यह देखसुन कर आशीर्वाद के लिए उठ गए.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- लिलाताईचा हा श्रीदत्तदर्शनाचा नित्यनेम पुढे प्रदीर्घ काळ उलटून गेल्यानंतर माझ्या संसारात अचानक निर्माण होणाऱ्या दुःखाच्या झंझावातात त्या दुःखावर हळुवार फुंकर घालणार आहे याची पुसटशी कल्पनाही मला तेव्हा नव्हती.)
आम्ही कोल्हापूरला रहात होतो तेव्हाची गोष्ट. १९७९ साल. आमच्या संसारात झालेलं समीरबाळाचं आगमन सुखाचं शिंपण करणारंच तर होतं. बाळाला घेऊन आरती माहेरहून घरी आली तेव्हाचं नजरेत साठवलेलं त्याचं रुप आजही माझ्या आठवणीत जिवंत आहे. समीरबाळाचं छान गोंडस बाळसं,.. लख्ख गोरा गुलाबी रंग.. काळेभोर टपोरे डोळे.. दाट जावळ.. एवढीशी लांबसडक बोटं.. सगळंच कसं सुंदर आणि लोभसवाणं!
समीर माझ्या सहवासात येऊन मोजके दिवसच झाले होते. माझ्या नजरेत नजर घालून ओळख पटल्याचं छानसं कोवळं हसू समीर अजून हसलाही नव्हता त्यापूर्वीच कधी कल्पनाही केली नव्हती अशा त्या अरिष्टाची सुरुवात झाली. समीरला ट्रिपलपोलिओचा डोस द्यायचा होता. डॉ. देवधर यांच्या हॉस्पिटलमधे मी न् आरती त्याला घेऊन गेलो तर तिथे ट्रिपलपोलिओसाठी आधीपासूनचीच लांबलचक रांग. दुसऱ्या मजल्यावरील हाॅस्पिटलपासून सुरू झालेली ती रांग दोन जिने उतरून महाद्वार रोडच्या एका बाजूने वाढत चाललेली. पावसाळ्याचे दिवस. आभाळ गच्च भरलेलं. कुठल्याही क्षणी पाऊस सुरु होईल असं वातावरण. आम्ही रांगेत ताटकळत उभे. त्यात समीर किरकिरु लागलेला. काल रात्रीपासून हवापाण्याच्या बदलामुळं असेल त्याचं पोट थोडं बिघडलेलं होतं. रांग हलायची शक्यता दिसेना तसे पाऊस सुरु होण्यापूर्वी घरी जाऊ आणि नंतर कधीतरी आधी अपॉइंटमेंट घेऊन येऊ असं ठरवून आम्ही तिथून निघालो. आमचं घर जवळच्या ताराबाई रोडवरुन पुढं आलं की चालत दहा मिनिटांच्या अंतरावर. ताराबाई रोडवर येताच माझं लक्ष सहजच उजव्या बाजूच्या एका दवाखान्याच्या बोर्डकडे गेलं.
डाॅ. जी. एन्. जोशी. बालरोगतज्ञ बोर्ड वाचून मी थबकलो.
” इथं ट्रिपल पोलिओ डोस देतात कां विचारूया?” मी म्हंटलं. तिने नको म्हणायचा प्रश्नच नव्हता. आजच्या आज डोस देऊन होतोय हेच महत्त्वाचं होतं. आम्ही जिना चढून डॉ. जोशींच्या क्लिनिकमधे गेलो. मी स्वतःची ओळख करून दिली. आमच्या येण्याचं प्रयोजन सांगितलं. समीरचं किरकिरणं सुरूच होतं. त्यात त्याने दुपटं घाण केलं. डाॅ. नी नर्सला बोलावलं. आरती समीरला घेऊन तिच्याबरोबर आत गेली. त्याला स्वच्छ करून बाहेर घेऊन आली. ट्रिपल पोलिओचा डोस देऊन झाला. तेवढ्यांत त्याला पुन्हा लूज मोशन झाली. चिंताग्रस्त चेहऱ्याने डॉक्टर माझ्याकडेच पहात होते.
“बाळाचं पोट बिघडलंय कां? कधीपासून?” त्यांनी विचारलं.
“काल रात्री त्याला एक दोनदा त्रास झाला होता. आणि आज सकाळी इकडे येण्यापूर्वीसुध्दा एकदा. पाणी बदललंय म्हणून असेल कदाचित. पण तोवर छान मजेत असायचा. कधीच कांही तक्रार नव्हती त्याची. “
“ठीक आहे. एकदा तपासून बघतो. वाटलंच तसं तर औषध देतो. ” डॉक्टर म्हणाले.
त्यांनी समीरला तपासलं. त्याची नाडीही पाहिली. ते कांहीसे गंभीर झाले.
” बाळाला एक-दोन दिवसासाठी अॅडमिट करावं लागेल “
” अॅडमिट?कां? कशासाठी ?”
” तसं घाबरण्यासारखं काही नाहीय. पण इन्फेक्शन आटोक्यांत आणण्यासाठी तातडीने उपचार करणे आवश्यक आहे. एक-दोन दिवस सलाईन लावावं लागेल. पुढे एखादा दिवस ऑब्झर्वेशनखाली राहील. “
घरी आम्ही दोघेच होतो. आई मोठ्या भावाकडे सातारला गेली होती. पुढच्या आठवड्यात आरतीची मॅटर्निटी लिव्ह संपणार होती. त्यापूर्वी आई येणार होतीच. आत्ता लगेच अॅडमिट करायचं तर तिला लगोलग इकडे बोलावून घेणे आवश्यक होऊन बसेल. मला ते योग्य वाटेना.
“डॉक्टर, घरी आम्ही दोघेच आहोत. आम्हा दोघांच्या पेरेंट्सना आम्ही आधी बोलावून घेतो. तोवर त्याला तात्पुरतं औषध द्याल का कांही? तरीही बरं वाटलं नाही तर मात्र वाट न बघता आम्ही त्याला अॅडमिट करू. “
“अॅज यू विश. मी औषध लिहून देतो. दिवसातून तीन वेळा एक एक चमचा त्याला द्या. तरीही मोशन्स थांबल्या नाहीत तर मात्र रिस्क न घेता ताबडतोब अॅडमिट करा.”
त्यांनी औषध लिहून दिलं. जवळच्याच मेडिकल स्टोअरमधून आम्ही ते घेतलं. यात बराच वेळ गेला होता. मला बँकेत पोहोचायला उशीरच होणार होता. मी समोरून येणारी रिक्षा थांबवली. दोघांना घरी पोचवलं. दोन घास कसेबसे खाऊन माझा डबा भरून घेतला आणि बँकेत जाण्यासाठी बाहेर आलो. आरती बाळाला मांडीवर घेऊन बसलेली होती.
“त्याला औषध दिलंयस कां?”
“पेंगुळला होता हो तो. आत्ताच डोळा लागलाय त्याचा. थोडा वेळ झोपू दे. तोवर मी पाणी गरम करून ठेवते. जागा झाला की लगेच देते. ” ती म्हणाली.
तो शनिवार होता.
“आज हाफ डे आहे. मी शक्यतो लवकर येतो. कांही लागलं तर मला बॅंकेत फोन कर लगेच. काळजी घे ” मी तिला धीर दिला न् घाईघाईने बाहेर पडलो.
त्याकाळी क्वचित एखाद्या घरीच फोन असायचा. त्यामुळे फोन करायचा म्हणजे तिला कोपऱ्यावरच्या पोस्टात जाऊनच करायला लागणार. बाळाला घेऊन कशी जाईल ती?
हाफ डे असला तरी बॅंकेतून बाहेर पडायला संध्याकाळ उलटून गेलीच. त्यात बाहेर धुवांधार पाऊस. घरी पोचेपर्यंत अंधारुन तर आलं होतंच शिवाय मी निम्माशिम्मा भिजलेलो. आत जाऊन कपडे बदलून आधी गरम चहा घ्यावा असं वाटलं पण तेवढीही उसंत मला मिळणार नव्हती. कारण बेल वाजवण्यापूर्वीच दार किलकिलं असल्याचं लक्षात आलं. दार ढकलताच अजून लाईट लावलेले नसल्यामुळे आत अंधारच होता. पण त्या अंधूक प्रकाशातही समोर भिंतीला टेकून आरती समीरला मांडीवर घेऊन थोपटत बसली असल्याचं दिसलं.
“अगं लाईट नाही कां लावायचे? अंधारात काय बसलीयस?” मी विचारलं आणि लाईटचं बटन ऑन केलं. समोरचं दृश्य बघून चरकलोच. समीर मलूल होऊन तिच्या मांडीवर केविलवाणा होऊन पडलेला. निस्तेज डोळे तसेच उघडे. ऐकू येईल न येईल अशी म्लान कुरकूर फक्त.
“काय झालं?अशी का बसलीयस?”
“सांगते. आधी तुम्ही पाय धुवून या न् याला घ्या बरं थोडावेळ. पाय खूप अवघडलेत हो माझे. “
मनातली चहाची तल्लफ विरुन गेली. मी पाय धुऊन घाईघाईने कपडे बदलले आणि समीरला उचलून मांडीवर घेऊन बसलो. त्याचा केविलवाणा चेहरा मला पहावेना.
“जा. तू फ्रेश होऊन ये, मग बोलू आपण. ” मी आरतीला म्हंटलं. पण ती आत न जाता तिथंच खुर्चीवर टेकली. तिचे डोळे भरुन आले एकदम.
“तुम्ही ऑफिसला गेल्यापासून फक्त एक दोन वेळाच दूध दिलंय त्याला पण तेही पोटात ठरत नाहीय हो. आत्तापर्यंत चार दुपटी बदललीयत. काय करावं तेच कळत नाहीय. किती उशीर केलात हो तुम्ही यायला.. “
“तू फोन करायचा नाहीस का? मी रोजची सगळी कामं आवरत बसलो. त्यात हा पाऊस. म्हणून उशीर झाला. तू औषध कां नाही दिलंस?”
“दिलंय तर. दोन डोस देऊन झालेत. तिसरा रात्री झोपताना द्यायचाय. पण औषध देऊनही त्रास थांबलाय कुठं? उलट जास्तच वाढलाय. मला काळजी वाटतेय खूsप. काय करायचं?”
डाॅ. जोशी म्हणालेच होते. त्रास वाढला तर रिस्क घेऊ नका म्हणून. आम्हा दोघानाही या कशाचाच अनुभव नव्हता. अॅडमिट करण्यावाचून पर्यायही नव्हता. कुणा डाॅक्टरांच्या ओळखी नव्हत्या. समीरला डाॅक्टरांकडे न नेता रात्रभर घरीच ठेवायचीही भीती वाटत होती. माझी मोठी बहिण आणि मेहुणे सुदैवाने कोल्हापुरातच रहात होते. त्यांना समक्ष भेटून त्यांच्याशी बोलणं आवश्यक होतं. मी कपडे बदलून जवळचे सगळे पैसे घेतले न् बाहेर आलो.
” कुठे निघालात?”
“ताईकडे. त्या दोघांना सांगतो सगळं. त्यांनाही सोबत घेऊ. तू आवरुन ठेव. मी रिक्षा घेऊनच येतो. जोशी डाॅक्टरांकडे अॅडमिट करायच्या तयारीनेच जाऊ. बघू काय म्हणतायत ते. “
मी ताईकडे गेलो. सगळं सांगितलं.
“जोशी डाॅक्टर? पार्वती टाॅकीजजवळ हाॅस्पिटल आहे तेच का?” मेव्हण्यांनी विचारलं.
मी सकाळी डाॅक्टरांनी आम्हाला दिलेलं त्यांचं व्हिजिटिंग कार्ड खिशातून काढलं. पाहिलं तर हाॅस्पिटलचा पत्ता तोच होता.
” हो. तेच. त्यांचं ताराबाई रोडवर क्लिनिक आहे आणि हॉस्पिटल पार्वती टॉकीजजवळ. तुमच्या माहितीतले आहेत कां?”
” नाही. पण नाव ऐकून होतो. तरीही कोल्हापुरात डॉ. देवधर हेच प्रसिद्ध पेडिट्रेशियन आहेत. आधी त्यांना दाखवू या का? “
” चालेल. पण असं ऐनवेळी जाऊन भेटतील कां ते?नाही भेट झाली तर? सकाळी खूप गर्दी होती आम्ही ट्रिपलपोलिओ डोससाठी गेलो तेव्हा, म्हणून म्हटलं”
” ठिकाय. तू म्हणतोस तेही बरोबरच आहे. चल. “
आम्ही रिक्षातूनच घरी गेलो. आरती दोघांचं आवरून आमचीच वाट पहात होती. पावसाचा जोर संध्याकाळपासून ओसरला नव्हताच. समीरबाळाचं डोकं काळजीपूर्वक झाकून घेत ती कशीबशी रिक्षात बसली. मी रिक्षावाल्याला पार्वती टाॅकीजजवळच्या डाॅ. जोशी हाॅस्पिटलला न्यायला सांगितलं. रिक्षा सुरु झाली न् माझा जीव भांड्यात पडला. आत्तापर्यंत ठरवल्याप्रमाणे सगळं सुरळीत सुरू होतं असं वाटलं खरं पण ते तसं नव्हतं यांचा प्रत्यय लगेचच आला. एकतर पावसामुळे रिक्षा सावकाश जात होती. रस्त्यात खड्डेही होतेच. आपण कुठून कसे जातोय हेही चटकन् समजत नव्हतं. तेवढ्यांत रिक्षा थांबली.
” चला. आलं हॉस्पिटल. ” रिक्षावाला म्हणाला. उतरतानाच माझ्या लक्षांत आलं की आपण महाद्वार रोडवरच आहोत. त्या अस्वस्थ मन:स्थितीत मला त्या रिक्षावाल्याची तिडीकच आली एकदम.
“मी पार्वती टॉकीजजवळ डॉ. जोशी असं सांगितलं होतं ना तुम्हाला? इथं उतरुन काय करू?”
त्यांने चमकून माझ्याकडं पाहिलं. थोडासा वरमला. मी पुन्हा रिक्षात बसलो.
“इथं कोल्हापुरात लहान वयाच्या पेशंटना देवधर डाकतरकडंच आणत्यात समदी. रोज चारपाच फेऱ्या हुत्यात बघा माज्या रिक्षाच्या. सवयीने त्येंच्या दवाखान्याम्होरं थांबलो बगा.. ” तो चूक कबूल करत म्हणाला. पण….. ?
पण ती त्याची अनवधानाने झालेली चूक म्हणजे पुढील अरिष्टापासून समीरबाळाला वाचवण्याचा नियतीचाच एक केविलवाणा प्रयत्न होता हे सगळं हातातून निसटून गेल्यानंतर आमच्या लक्षात येणार होतं… !!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “खबर उड़ी हम नही रहे…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #264 ☆
☆ खबर उड़ी हम नही रहे…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(पिछले दिनों एक साथी के साथ घटी घटना से प्रेरित एक मुक्तछंद रचना)
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सपने सोये…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 88 ☆ सपने सोये… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बुराई किसकी करूँ किसकी मैं करूँ तारीफ़…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 92 ☆
बुराई किसकी करूँ, किसकी मैं करूँ तारीफ़… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे..“।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 6 ☆
कविता – छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मानवता।)
“भैया अम्मा की तबियत ठीक नहीं है आप भाभी और बच्चों को लेकर आ जाइए।”
शांति ने अपने बड़े भाई को फोन किया।
बड़े भाई अरुण की आंखें भर आयीं थी और वह अपनी छोटी बहन से कह रहा था कि 4 साल से मां बिस्तर में हैं और तू अपना घर परिवार देखते हुए कैसे सेवा कर रही है?
अपनी माँ को अकेले में छोड़कर तुम्हारी भाभी से डर कर के घर में शांति बनी रहे अपने बच्चों को देख रहा था लेकिन तूने हर कर्तव्य का निर्वाह किया।
सुबह शाम मां को खाना बनाकर अपने हाथ से उनको खाना खिलाना। उनके बिस्तर को ठीक करना, गन्दे कपड़े धोना आदि सभी काम वह स्वयं ही करती है इतनी हिम्मत कहां से आई जीजाजी और बच्चों को भी तो तू ही संभालती है।
शांति ने मुस्कुरा कर कहा भैया “अरे कुछ नहीं , आप तो बेकार ही परेशान हो जाते हैं, आप ही आ जाते तो कम से कम अम्मा आपको ही देख लेतीं उनकी तबियत बहुत खराब है।”
बड़ी दीदी भी आई है मां दरवाजे की तरफ अपनी उदास नजरों से देखती है कुछ कह नहीं पाती। आप हम दोनों बहनों के बीच में अकेले भाई हो। आप ही का इंतजार कर रही है अब जल्दी से आ जाओ भैया।
इतने में अंदर से कुछ आवाज आती है और शांति – भैया अब मैं फोन रख रही हूं।
हाथ का पानी का गिलास छूटकर नीचे जा गिरा।
उसकी मां अब इस दुनिया से जा चुकी थी बड़ी बहन कमला ने आवाज दी। वह भी हड़बड़ा कर मां के कमरे में पहुंची।
क्या हुआ कहते हुए जब उसने मां को छुआ तो वह भी सन्न रह गई।
वे तो अनन्त यात्रा पर निकल चुकी थीं।
सभी को फोन कर के बुलाया गया। कुछ ने थोड़ा सच में तो कुछ ने नाटक में आंसू भी गिराये, दुख प्रकट किया।
बड़े बेटे के साथ भाभी भी आई।
भाभी का ध्यान अम्मा के बक्से पर ही टिका हुआ था।
अन्तिम संस्कार के बाद शाम को बड़ी बहन कमला से बोली जीजी सन्दूक मैं मां के गहने सब छोटी ने ही रख लिए क्या? हमें उन में कुछ नहीं मिलेगा?
बीच में सन्दूक रख कर छोटी बहन ने चाबी भाभी को दे दी।
भाभी भाई और बड़ी बहन कमला के बीच उनकी अम्मा से अधिक उनके जेवरों और पैसों पर चर्चा हो रही थी।
भाई ने कहा – दोनों भी अम्मा की एक एक चीज यादगार के रूप में रख लो।
भैया आज ही सुनार बुला रहे हो जो भी लोग सुनेंगे वे क्या कहेंगे?
अरे कोई कुछ भी क्यों कहेगा ? किसी के घर डाका डालने जा रहे हैं क्या ? बड़े भाई भाभी एक ही जबान में बोल पड़े।
अब जेवर कौन रखता है? सोनार को बुलाकर इसे बेच देते हैं और रकम ले लेते हैं।
कोई प्रॉपर्टी खरीद लेंगे।
फिर बहस का विस्तार हुआ।
यही अधिकार तब दिखाते जब अम्मा बीमार थीं। तब तो उनकी सेवा में हिस्सेदारी करने कोई भी नहीं आया।
रहने दो दीदी बेकार की बात बढ़ाने में क्या फायदा? भाई ने बहन को शान्त करते हुए
कहा।
सुनार बहुत देर तक गहनों को देखता रहा।
सुनार की आंखों से दो बूंद आंसू लुढ़क आए…। कमला मां की कमरे में जाकर उनकी तस्वीर देखने लगी। मां सारे संस्कार तूने हम बहनों को ही दिए भाई को क्या कुछ भी नहीं सिखाया?