हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 44 ☆ एक गीत वसंत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “एक गीत वसंत…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 43 ☆  एक गीत वसंत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पीत वसन हुई धरा

और मौसम हल्दिया

किसने आकर गाल पर

रँग वसंती मल दिया।

 

आम बौराया फिरे

गंध महुए से चुए

वन के कारोबार सारे

टेसू-सेमल के हुए

 

बैठ कोयल डाल पर

गा रही पिया-पिया।

 

स्नेह हरियाली लिए

खेत आँचल पसारे

पहन स्वर्णिम बालियाँ

रूप धरती सँवारे

 

बाँध सपने आँख से

प्रीति ने मन छू लिया।

 

तान बैठा चँदोबा

मस्तियों की ले गुलाल

आ गया मनचला फागुन

बाँटते सुख के रुमाल

 

बहकी-बहकी हवा ने

गंध से मुँह धो लिया ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़मज़दा बोलिये हैं किस ग़म से… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ग़मज़दा बोलिये हैं किस ग़म से“)

✍ ग़मज़दा बोलिये हैं किस ग़म से… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

बेरुखी आप क्यों दिखाते हैं

खुद न  आते न ही बुलाते हैं

 *

एक वादा नहीं किया पूरा

आप मिस खूब पर बनाते हैं

 *

ग़मज़दा बोलिये हैं किस ग़म से

बेवज़ह इतना मुस्कराते हैं

 *

हाथ अपना भी दोसती को बढ़ा

सिलसिला हम ही हम चलाते हैं

 *

नाम उनका कभी नहीं मिटता

जो लहू देश को बहाते हैं

 *

रब्त जो प्यार का नहीं हमसे

रात भर रोज़ क्यों जगाते हैं

 *

रिज़्क़ दे ज़ीस्त में जो इंसा को

इल्म ऐसा नहीं सिखाते हैं

 *

अब चुनावों में जीत हो उनकी

दाम का जोर जो लगाते हैं

 *

ए अरुण इल्म बह्र का न हमें

शाइरी करते गुनगुनाते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 93 – बैंक: दंतकथा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “बैंक: दंतकथा : 2“

☆ कथा-कहानी # 93 –  बैंक: दंतकथा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अविनाश और कार्तिकेय की ज्वाइंट मैस अपनी उसी रफ्तार से चल रही थी जिस रफ्तार से ये लोग बैंकिंग में प्रवीण हो रहे थे. दालफ्राई जहाँ अविनाश को संतुष्ट करती थी, वहीं चांवल से कार्तिकेय का लंच और डिनर पूरा होता था पर फिर भी पासबुक की प्रविष्टियां अधूरी रहती थी.

यह क्षेत्र उत्कृष्ट कोटि की मटर और विशालकाय साईज़ की खूबसूरत फूलगोभी के लिये विख्यात था जो अपने सीज़न आने पर पूरे शबाब पर होती थी. सीज़न आने पर इसने पाककला के प्राबेशनर द्वय को मजबूर कर दिया कि वो किसी भी तरह से इसे भी अपने भोजन में सुशोभित करें. यूट्यूब की जगह उस वक्त पड़ोस की गृहणियां हुआ करती थीं जिनसे सामना होने पर, “नमस्कार भाभीजी” करके आवश्यकता पड़ने पर पाककला को मजबूत बनाने में सहयोग की क्रेडिट लिमिट सेंक्शन कराई जा सकती थी. धीरे धीरे इसी लिमिट के सहारे आत्मनिर्भरता पाने पर लंच और डिनर की प्लेट्स दोनों को संतुष्टि और गर्व दोनों प्रदान करने लगी. उसी तरह की ललक और निष्ठा बैंकिंग में दक्ष बनाने की ओर अग्रसर होती चली गई और शाखा प्रबंधक सहित शेषस्टाफ को इन दोनों में बैंक का और शाखा का उज्जवल भविष्य नजर आने लगा.

शाखा के ही कुछ वरिष्ठ सहयोगियों ने जो खुद CAIIB Exam नामक वायरस से अछूते और विरक्त थे, इन्हें बिन मांगी और बिना गुरुदक्षिणा के यह सलाह दे डाली कि यह एक्जाम पास करना बैंक में अपना कैरियर बनाने की रामबाण दवा है. जबरदस्ती शिष्य का चोला पहनाये गये इन रंगरूटों द्वारा जब यह पूछा गया कि आपने क्यों नहीं किया तो पहले तो सीनियर्स की तरेरी आंखों ने आंखों आंखों में उन्हें धृष्टता का एहसास कराया गया और फिर उदारता पूर्वक इसे इस तरह से अभिव्यक्ति दी कि “हम तो अपने कैरियर से ज्यादा बैंक और इस शाखा के लिये समर्पित हैं और इस विषय में तुम दोनों की प्रतिभा परखकर और उपयुक्त पात्र की पहचान कर तुम लोगों को समझा रहे हैं.” इस सलाह को दोनों ने ही पूरी तत्परता से अपने मष्तिकीय लॉकर में जमा किया और इस परीक्षा को पास करने का तीसरा टॉरगेट बना डाला क्योंकि पहले नंबर पर समय पर भोजन करना और दूसरे नंबर पर व्यवहारिक बैंकिंग को अधिक से अधिक सीखना थे.

गाड़ी अपने ट्रेक पर जा रही थी पर नियति और नियंता ने दोनों के रास्ते अलग करने का निश्चय कर रखा था. रास्ते अलग होने पर भी ये लगभग तय था कि दोस्ती पर तो आंच आयेगी नहीं  पर जिसे आना था वो तो आई अर्थात अवंतिका जोशी एक सुंदर कन्या जिसके इस शाखा में बैंक की नौकरी ज्वाइन करते ही, रातों रात अविनाश और कार्तिकेय सीनियर बन गये थे. नियति के इस वायरस ने ही इन नवोन्नत सीनियर्स पर अलग अलग प्रभाव डाले. बेकसूर अविनाश अपने पेरेंटल डीएनए के शिकार बने तो कार्तिकेय अपनी सांस्कृतिक विरासत का लिहाज कर ऐसे विश्वामित्र बने जो मेनका और उर्वशी के प्रभाव को बेअसर करते कवच से लैस थे.

जहाँ अविनाश अपनी पेरेंटल विरासत को प्रमोट करते हुये शाखा में नजर आने लगे वहीं कार्तिकेय ने लगातार बेस्ट इंप्लाई ऑफ द मंथ की रेस जीतने का सिलसिला जारी रखा. शायद यही तथ्य भाग्य नामक मान्यता को प्रतिपादित करते हैं कि शाखा में एक ही दिन आने वाले, एक घर में रहने वाले, एक किचन में सामूहिक श्रम से भोजन बनाने और खाने वालों के रास्ते भी अलग अलग हो सकते हैं.

दंतकथा जारी रहेगी, अगर अच्छी लगे तो मुस्कुराइए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 13 – खोट ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खोट।)

☆ लघुकथा – खोट ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अमित की मां शारदा को ऐसी नजरों से देखा रही थी जाने वह क्या करेगी ?

परंतु शारदा मां बेटे दोनों को इग्नोर करती हुई, गेट खोल कर ऑफिस चली गई। ‌

अमित की मां कमला सोफे के कवर ठीक करती हुई जोर से चिल्ला उठी “कैसी चंड़ी है? पता नहीं स्कूल में लड़कियों को क्या पढ़ाती होगी ? गालियां तो ऐसा देती है, इससे ठीक तो मोहल्ले के अनपढ़ हैं।

यह उच्च शिक्षा प्राप्त है और स्वयं को शिक्षिका कहती है।”

“अमित तुझको  सारे जमाने में बस यही लड़की मिली थी? इसी से शादी करने के लिए तू  मरा जा रहा था।” क्रोध में कमला ने अपनी बेटे को एक असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी। चश्मा उतार अपने बेटे को गले से लगा लिया ।

उसने कहा “बेटा तुझ में कोई खोट नहीं है, कोसने का प्रश्न ही कहां उठाता है पर तूने यह किस मिट्टी को चुन लिया?”

“कोई बात नहीं अपने मन को स्थिर रखो मां स्वयं में ही खोट निकालकर ही रंग रोगन करना पड़ेगा।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 220 ☆ वैशाख वृत्त ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 220 ?

वैशाख वृत्त ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

केदार अश्रु  आज तिथे ढाळतो कसा?

माझाच देव आज मला टाळतो कसा?..

*

मीही झुगारलेत अता बंध कालचे

इतिहास काळजातच गंधाळतो कसा?..

*

देवास काय सांग सखे मागणार मी

माझेच दु:ख देव शिरी माळतो कसा?..

*

अग्नीस सोसतात उमा आणि जानकी

बाईस स्वाभिमान इथे जाळतो कसा?.

*

राखेत गवसतात खुणा नित्य-नेहमी

स्त्रीजन्म अग्निपंखच कुरवाळतो कसा?..

*

मदिरेस लाखदा विष संबोधतात ते

सोमरस नीलकंठ स्वतः गाळतो कसा ?

*

वैशाख लागताच झळा पोचती ‘प्रभा’

सूर्यास सूर्यवंशिय सांभाळतो कसा?..’

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “काव्यरेणू” (कविता संग्रह) – कवयित्री : रेणुका मार्डीकर ☆ परिचय – सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “काव्यरेणू” (कविता संग्रह) – कवयित्री : रेणुका मार्डीकर ☆ परिचय – सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

पुस्तक परिचय

कवयित्री- सौ रेणुका धनंजय मार्डीकर

प्रकाशक : पंचक्रोशी प्रकाशन, बारामती

कवयित्री सौ रेणुका धनंजय मार्डीकर यांच्या ‘ काव्यरेणू ‘ या काव्यसंग्रहाचा प्रकाशन समारंभ नुकताच  धुळे येथे झालेल्या शुभंकरोती साहित्य परिवाराच्या प्रथम राज्यस्तरीय संमेलनात मोठ्या दिमाखात संपन्न झाला.

एकूण बासष्ट कवितांचा हा संग्रह! यातील एकेक कविता जसजशी वाचत गेले तेव्हा मनात आले वा! काय अफाट प्रतिभा आहे ही!  पुस्तकाची शीर्षक कविता काव्यरेणू जी अगदी शेवट आहे तीच मी प्रथम वाचली आणि केवळ चार कडव्यात संपूर्ण पुस्तकात काय आहे ते समजल्यावर पुस्तक वाचण्याची उत्सुकता वाढली.

या संग्रहात सगळेच आहे हो ! यात बालमन आहे, तारुण्य आहे, वार्धक्य आहे, मानवता आहे, लोभस निसर्ग आहे, अध्यात्म आहे. रेणुका ताई म्हणतात,

 शब्द शारदा अंतरी येऊन

 काव्य बहरले माझ्यामधले

 काव्यरेणू हे सर्वांसाठी

 ओंजळ भरुनी अखंड दिधले=

तर अशी ही काव्याने भरलेली ओंजळ आहे.

त्यांच्या निसर्ग कविता वाचताना  लक्षात येते की अधिकतर कविता पावसावरील आहेत.  त्यांच्या कवितातून पावसाची विविध रूपे पहावयास मिळतात.

ओल्या मातीचा सुगंध ही वर्षा ऋतूचे वर्णन करणारी कविता. ऋतू गाभुळला बाई. गाभूळला अतिशय समर्पक शब्द.  या एका शब्दाने मेघांनी भरून आलेले आभाळ आणि निसर्गाचे ओलेतेपण तात्काळ नजरेसमोर उभे राहते.  या ओळी पहा- 

                   वारा जाऊनी कानात

                   सांगे लता वल्लरींच्या

                   धूळ झटका रे सारी

                    आल्या सरी मिरगाच्या

चेतनगुणोक्ती अलंकारामुळे काव्य कसे जिवंत वाटते, निसर्ग टवटवीत दिसतो.

प्रभात समयी वरून येऊनी या कवितेत कवयित्रीने सुंदर पावसाच्या सकाळचे वर्णन केले आहे.

विरहाचा श्रावण ही कविता श्रावणातल्या पावसाच्या पार्श्वभूमीवर विरहाची व्यथा सांगते.

 आभास होतसे मजला

 मोगऱ्यात राणी दिसली

 तिज कवेत मी घेताना

 गंधाळून कळी ती हसली

…  किती सुंदर रूपक साधले आहे.

 शेतकऱ्याचे आणि पावसाचे फार जवळचे नाते काळजीची सल या कवितेत दिसून येते

 पाटाचं पाणी साऱ्या

 रानात फिरलं

 जोंधळ्याची रास लागून

 लक्ष्मी खेळलं

शेतकऱ्याच्या भाषेतील कविता असल्यामुळे अधिक जवळची वाटते.

ऋतू पावसाळी हे पावसावरील गीत आहे

 ऋतू पावसाळी धुंद धुंद झाला

 गिरी कंदरी ती फुले वनमाला

गीत असल्यामुळे लयबद्धता आली आहे

केळभ करतो सुंदर  नर्तन या पावसाच्या कवितेत छन छननन, दीड दा दीड दा,  थुई थुई या शब्दयोजनांनी पावसातील संगीत आणि नृत्य दृश्य झाले आहे.

सुगंधी झाल्या पहा पायवाटा ही पावसावरील कविता रेणुका ताईनी भुजंगप्रयात या वृत्तात लिहून त्यांनी छंद शास्त्राचाही अभ्यास केला आहे हे वाचकांच्या निदर्शनास आणून दिले आहे.

याव्यतिरिक्त .. त्या कोवळ्या सकाळी( सकाळचे वर्णन), ऋतुराज, वसंताचे वैभव वर्णन करणारी षडाक्षरी कविता, गुज सांगते ना झाड- वृक्षारोपणाचे महत्त्व सांगणारी अष्टाक्षरी कविता, वाट बाई वळणाची- गोव्याकडे जाणारा घाटातील वळणावळणाच्या रस्त्याचे ओवी अंगाने केलेले वर्णन, अशा अनेक निसर्गाच्या कवितांचा समावेश या पुस्तकात आहे.

रेणुकाताई त्यांच्या मनोगतात लिहितात की त्या निसर्गात आणि शेतीमातीत नेहमीच रमतात. निसर्ग पाहिला की त्यांना कविता स्फुरते. काव्यरेणूतील या निसर्गकविता वाचल्या की त्यांच्या मनोगतातील विधानाची सत्यता पटते.

कोणत्याही कवीचा प्रेम हा अगदी आवडीचा विषय नाही का? रेणुका ताईंच्या या संग्रहात प्रेम भावनेवर अनेक कविता आहेत. मग ते प्रेम प्रियकर~प्रेयसीचे असेल, पती-पत्नीचे असेल, वात्सल्य असेल, विरहातीलही प्रेमभावना असेल. या एकाच पुस्तकात सर्व भावना काव्यरूपात वाचताना मन आनंदून जाते.

 तुझी माझी रे जोडी ही शृंगार रसयुक्त प्रेम कविता! नवपरिणीतेचे मनोगत या कवितेत व्यक्त झाले आहे.

 सासरघरच्या उंबरठ्याशी नववधूच मी थरथरली

 मर्यादांचे कुंपण तरीही कळी पहा मोहरली.

…  या दोनच ओळीत एका नववधूची मानसिकता रेणुका ताई समर्थपणे दर्शवितात.

आणि शेवटी संसार परिपक्व होतो तेव्हा त्या लिहितात,

 फळ पिकल्यावर मधुर लागते

 तशीच आपली जोडी

 जीवन नौका तरुन जाईल

 अशीच त्यातील गोडी

.. .  शब्दयोजना कशी अगदी सहज आणि लयबद्ध आहे.

 चांदण्याच्या अंगणात

 चंद्र आणि चांदणीचा

 अनुराग गगनात

 चिंब ओलेत्या मनात या कवितेच्या या वरील ओळींतून कवयित्रीचे अनुरक्त मन व्यक्त होते.

नभी चांदवा येताना हे असेच एक प्रेम गीत!

 गोड गुलाबी चाहूल लागे नभी चांदवा येताना

 प्रीतीच्या त्या धुंद क्षणाला हळूच कवेत घेताना

….  ध्रुवपदच किती छान! हळुवार शब्दातून प्रीत भावना व्यक्त झाली आहे.

 चिंब चिंब जाहलो सख्या चांदण्यात या भिजताना

 सागर साक्षी होता तेव्हा श्वास नव्याने रुजताना

 कोजागिरीच्या चंद्रासंगे प्रेम गीत मग गाताना

 प्रीतीच्या त्या धुंद क्षणाला हळूच कवेत घेताना

…. हे शृंगारिक काव्य अगदी पुनवेच्या चंद्रासारखेच शितल आणि पवित्र वाटते. कुठेही उत्तान शृंगार नाही.

साथ तुझी देता मला या प्रेम कवितेतही कवीची लाडकी चंद्र,चांदणं, फुले ही खास प्रीती स्थानं आढळून येतात

 प्रीतीत मी मोहरलेली या प्रेम कवितेत रेणुका ताई म्हणतात,

 स्वर्ण आभा रवी किरणांची

  मुखचंद्रावर पडलेली

 गालावरची खळी सांगते

 प्रीतीत मी मोहरलेली

….  गुलाबी थंडीत प्रेमाला बहर येतो असे म्हणतात.

प्रेम रंगी रंगे थंडी ही अशीच एक प्रेम कविता .. अष्टाक्षरी या अक्षरछंदात लिहिलेली. शब्दयोजना किती समर्पक आहे पहा…

  थंडी गुलाबी गुलाबी

 इशारा केला ना गोड

 अनुराग रंगलेला

 सख्या साजणाची ओढ

स्त्री आणि तिला माहेरची आठवण येणार नाही, शक्य आहे? रेणुका ताईंच्या या संग्रहात मन गेले माहेरा ही माहेराची सय येणारी कविता.

 मन गेले ग माहेरा

 आमराई पिकलेली

 गंध आला आला आला

 मोहरून मीही गेली.

….  माहेरच्या वैभवाचा प्रत्येकच मुलीला अभिमान असतो. या कवितेत तो दिसून येतो.

भक्ती म्हटली की कवितेत प्रथम दिसतो तो कृष्ण. काव्यरेणूमध्येही गोकुळचा बासरीवाला आहे. भक्तीत तन्मय झालेल्या रेणुकाताईही कृष्णामध्ये एकरूप होतात. त्या म्हणतात,

 माझे मन धुंद होते

 सांजवेळी सायंकाळी

 अवचित वेणू वाजे

 वृंदावनी ये झळाळी

 क्षण पळभर एक

 कान्हामय सारे झाले

 एकरुप होऊन मी

 कृष्णा सवे पुन्हा आले

…. कधी मी बसावे अशा शांत वेळी ही कविता कृष्णभक्तीवरच आहे. सुमंदारमाला या वृत्तात ती

लिहिली आहे परंतु शब्दयोजना करताना कुठेही प्रयास पडल्यासारखे वाटत नाही. कंठ्यातील मोती सरसर सरकत जावेत तसे एक एक शब्द रेणुकाताईंच्या लेखणीतून उतरले आहेत.

राम लल्लाच्या चरणी घेऊया विश्राम हे भक्ती गीत त्यांनी लिहिले आहे.

पांडुरंगाच्या भेटीशिवाय भक्तीचे प्रदर्शन होणार नाही. आषाढीचा दिन या कवितेत पंढरपूरला जाणाऱ्या आणि जमलेल्या भक्तांची मनोवृत्ती रेणुकाताईनी चित्रित केली आहे.  त्या लिहितात,

 भगवी पताका फडके

 वारकरी मनात साठलं

 चिपळ्यांचा नाद बोले

 माऊली विठ्ठल भेटलं

 …. कविता वाचताना वाचकालाही कवयित्री पंढरपूरला घेऊन गेल्यासारखे वाटते.

रेणुका ताईंची आजीची पैठणी शांताबाईंच्या पैठणीची आठवण करून देते.

फडताळात एक गाठोडे आहे ..  त्याच्या तळाशी अगदी खाली  जिथे आहेत जुने कपडे कुंच्या  टोपी शेले शाली ..  त्यातच आहे जपून ठेवलेली एक पैठणी

पैठणीच्या घडीतून अवघे आयुष्य उलगडत गेले

 …. या शांताबाई शेळके यांच्या ओळी. आणि रेणुका ताई लिहितात,

 जुन्या काळ्यापेटीत वस्तू मौल्यवान

 आजीची पैठणी त्यात आनंदाचे दान

 आयुष्याचे सारे उन्हाळे पावसाळे

 पैठणीने पाहिले या सारे सुख सोहळे

 …. क्या बात है!

आयुष्याचा सातबारा – आयुष्यावरील फार सुरेख कविता. माणसाचा देह पंचमहाभूतांचा असतो यावर आधारित रेणुका ताई लिहितात,

चक्र अविरत चाले । ऊन वारा  माती पाणी

पंचतत्व संचारात । शरीराची ही कहाणी

जन्म आणि मृत्यू मध्ये । असे पोकळ गाभारा

त्यात असतो राखीव । आयुष्याचा सातबारा

…  किती प्रगल्भता आहे या विचारात!

माणसाकडे सर्व गोष्टी असूनही त्यात समाधान नसल्यामुळे तो कसा उपाशी सैरभैर फिरत राहतो याचे सार्थ वर्णन तुझा रिकामा झुला या आध्यात्मिक कवितेत रेणुकाताईने केले आहे.  त्या लिहितात,

अंतरात तो तुझ्याच आहे,  परि न दिसला तुला

सैरभैर हे मन फिरणारे,  तुझा रिकामा झुला

आपल्या मातृभाषेचा अभिमान बाळगणाऱ्या रेणुकाताई त्यांच्या माय मराठीची कथा या अष्टाक्षरीत जात्यावरच्या ओव्या, अभंग, भारुड, लावणी, बखर, लोकगीते, कथा, कादंबऱ्या या सर्वच साहित्याने आपली मराठी भाषा कशी नटली आहे याचे वर्णन करतात.

आली दिवाळी माझ्या घरात, राखी पौर्णिमा नभांगणी, वसुबारस, चैत्रगौर अशा हिंदूंच्या पारंपारिक सणांविषयीच्याही कविता आहेत.

सर्वच बासष्ट कवितांचा परामर्श घेणे शक्य नाही, परंतु पूर्ण काव्यसंग्रह वाचल्यावर रेणुकाताईंचा अभ्यास, जीवनाकडे पाहण्याची त्यांची दृष्टी, सकारात्मक मनोवृत्ती, आणि अत्यंत संवेदनशील मन  याचा प्रत्यय आल्याशिवाय राहत नाही. त्या त्यांच्या मनोगतात म्हणतात ” कविता अंतरातून येते, ती तयार होत नाही.” काव्यरेणूतील सर्वच कविता अशा अंतरातून आलेल्या आहेत, म्हणूनच त्या वाचकांच्या थेट अंतकरणाला भिडतात.

त्यांच्या लेखनातील वैशिष्ट्य म्हणजे, कविता वृत्तबद्ध असो वा नसो, प्रत्येकच कवितेत लय साधली आहे, जी कोणत्याही पद्यप्रकारासाठी आवश्यक आहे.

रेणुकाताई एक प्रतिभाशाली कवयित्री आहेतच पण त्याचबरोबर त्या एक उत्तम चित्रकार आहेत. काव्यरेणू या पुस्तकाचे मुखपृष्ठ त्यांनी स्वतः तयार केले आहे. त्यांनी काढलेल्या विविध रांगोळ्यांचा कोलाज करून मुखपृष्ठ तयार झाले आहे.  त्यांच्या या कलेला नक्कीच दाद दिली पाहिजे.

काव्यसंग्रह संपूर्ण वाचल्यावर माझी जी प्रतिक्रिया झाली तीच प्रतिक्रिया या पुस्तकाचे प्रस्तावना लेखक श्री विलास एकतारे यांचीसुद्धा झाली आहे, हे प्रस्तावना वाचल्यावर माझ्या तात्काळ लक्षात आले.

पुढील येणाऱ्या काळात सौ रेणुका धनंजय मार्डीकर  यांचे अनेक काव्यसंग्रह प्रकाशित होवोत आणि त्यांना भरभरून यश प्राप्त होवो या माझ्या मनःपूर्वक शुभेच्छा!

परिचय : अरुणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 43 – एक सैलाब आज आया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – एक सैलाब आज आया है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 43 – एक सैलाब आज आया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

प्यास, प्राणों की, बुझाते रहना 

जाम आँखों के, पिलाते रहना

*

गेसुओं की, घटाएँ घिरने दो

छाँव इनसे ही दिलाते रहना

*

गीत की लय, न टूटने पाये 

अपनी आवाज, मिलाते रहना

*

बाहुपाशों को, और कस लो तुम 

ताप चढ़ता है, चढ़ाते रहना

*

फैलने दो सुगंध, यौवन की 

फूल अधरों के, झराते रहना

*

आज झंकृत हुई है, तन-वीणा 

उँगलियाँ इसपे चलाते रहना

*

एक सैलाब आज आया है 

नाव मिलकर के बढ़ाते रहना

*

पार कश्ती को, कर ही लेंगे हम 

हौसला, आप बढ़ाते रहना

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 119 – नन्हीं चिड़िया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना नन्हीं चिड़िया…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 119 – नन्हीं चिड़िया… ☆

मैं कुर्सी पर बैठकर, देख रहा परिदृश्य।

मन संवेदित हो गया, मुझे भा गया दृश्य।।

*

नन्हीं चिड़िया डोलती, शयन कक्ष में रोज।

चीं-चीं करती घूमती, कुछ करती थी खोज।।

*

चीं-चीं कर चूजे उन्हें,  नित देते संदेश।

मम्मी-पापा कुछ करो, क्यों सहते हो क्लेश।।

*

नीड़ बना था डाल पर, जहाँ न पत्ते फूल।

झुलसाती गर्मी रही, जैसे तीक्ष्ण त्रिशूल।।

*

वातायन से झाँककर, देखा कमरा कूल।

ठंडक उसको भा गयी, हल खोजा अनुकूल।।

*

कूलर से खस ले उड़ी, वह नन्हीं सी जान।

तेज तपन से थी विकल, वह अतिशय हैरान।।

*

पहुँच डाल उसने बुना, खस-तृण युक्त मकान।

ग्रीष्म ऋतु में मिल गया, लू से उसे निदान।।

*

सब में यह संवेदना, प्रभु ने भरी अथाह।

बोली भाषा अलग पर, सुख की सबको चाह।।

*

कौन कष्ट कब चाहता, जग में जीव जहान।

सुविधायें सब चाहते, पशु- पक्षी इन्सान।।  

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 263 ☆ कविता – अपरिग्रह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता – अपरिग्रह)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 263 ☆

? कविता – अपरिग्रह ?

हवाई यात्रा की

सिक्योरिटी के पल

सच्चा त्याग अपरिग्रह सिखाते हैं

सब कुछ ट्रे में …और आप स्कैनर में !

 

सोचता हूं

मन की गठरी में बंधे

ईर्ष्या, चिंता, अभिमान

लोभ, वगैरह वगैरह का वजन

ढोते लोग यूं ही पार हो जाते हैं क्यूं, बिना किसी लोड लिमिट ।

 

काश

कोई स्कैनर

पकड़ पाता

मन की भी

कलुषता !

और उस पार

पहुंचते

पवित्र, निष्कलंक इंसान

ऊंची उड़ान भरने।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 2 – झबरू ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  झबरू)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – झबरू  ?

हमारा शहर अत्याधुनिकता की ओर पुरज़ोर अग्रसर हो रहा है और मेट्रो बनाने का काम भी तीव्र गति से चल रहा है। ऐसे में भीड़-भाड़वाले इस विशाल शहर में जब ट्रैफिक रुकती है तो इंसान चाहे तो एक पावर नैप ले ही सकता है।

सुबह के आठ बजे थे। इस समय दफ्तर जानेवालों की भीड़ एकत्रित हो रही थी और मैं अपनी बिटिया को एयरपोर्ट से लाने के लिए निकली थी। यात्रा लंबी थी और कई ट्रैफिक लाइट पर रुकने की मानसिक तैयारी मैं भी कर चुकी थी।

ट्रैफिकलाइट के पास गाड़ी रुक गई। गाड़ी के रुकते ही फूलवाले, कूड़ा रखने के पैकेटवाले और टिश्यूपेपर बॉक्स वाले गाड़ियों के आसपास काँच पर टोका मारते हुए घूमने लगे। सुबह का समय था तो इन सबके साथ नींबू और मिर्ची बाँधकर बेचनेवाले भी घूम रहे थे और भीड़ में खड़े टैक्सीवाले बहुनी के चक्कर में उन्हीं को अधिक महत्त्व दे रहे दे।

मेरी नज़र रास्ते की बाईं ओर थी क्योंकि बाहर बिकनेवाली किसी भी वस्तु में मुझे रुचि नहीं थी। बाईं फुटपाथ पर एक आठ -नौ  बरस का लड़का अपनी  बाईं कमर पर साल दो साल के बच्चे को पकड़े हुए था और उसके दूसरे हाथ में एक पन्नी में गरम चाय थी। शायद सुब-सुबह अपने माता पिता के लिए किसी टपरी से चाय ले जा रहा था।

वह भी रास्ता पार करने के लिए ही खड़ा था पर उसे जल्दी न थी। वह अपनी कमर को इस तरह हिलाता कि गोद का बच्चा थिरक उठता और साथ ही खिलखिलाता। अपने छोटे भाई को खिलखिलाते देख उसका कमर नचाना बढ़ गया और वह और स्फूर्ति से उसे हँसाता।

मुझे उस दृश्य को देखने में आनंद आ रहा था। दरिद्रता में संतोष की छवि का दर्शन मिल रहा था। प्रसन्न रहने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं इस बात को यह बालक स्पष्ट रूप से व्यक्त कर रहा था। मेरी दृष्टि बस उस भीड़ में उसी को देख पा रही थी। मौका मिलते ही वह रास्ता पार कर अपनी माँ के पास पहुँचा जहाँ वह गुलाब के फूलों का गुच्छा बना रही थी।

गाड़ी चल पड़ी और मेरी आँखों के सामने अचानक झबुआ खड़ा हो गया। झबुआ उत्तर प्रदेश के बस्ती का रहनेवाला था। उसका बाप कानपुर शहर में साइकिल रिक्शा चलाता था। उसकी पत्नी का जब देहांत हो गया तो वह अपने बच्चे को कानपुर ले आया।

उन दिनों मेरी दीदी और जीजाजी कानपुर में ही रहा करते थे। शिक्षा विभाग में उच्च पदस्थ थे तो बहुत बड़ा बँगला जो बाग- बगीचे से सुसज्जित था  और नौकर – चाकर की सुविधा सरकार की ओर से उपलब्ध थी। झबरू का बाप उनके बंगले के बाहरी हिस्से में जहाँ एक गेट हमेशा बंद रहता था वहाँ अस्थाई व्यवस्था कर रहा करता था। प्रातः हैंडपंप के पानी से नहाता, अपनी धोती धोकर फैला देता और सत्तू खाकर निकल पड़ता। उसकी गठरी वहीं पड़ी रहती। दीदी को अगर पास – पड़ोस में जाना होता तो वह उसी रिक्शेवाले के साथ चली जाया करती थी।

दीदी का लड़का साल भर का ही था। झबरू का बाप एक दिन झबरू को लेकर दीदी के पास आया और झबरू को नौकर रखने के लिए कहा। आठ -नौ साल का बच्चा क्या काम करेगा ? पर झबरू के बाप की परेशानी देखकर उसे घर पर रख लिया गया। उसे दीदी के बच्चे को संभालने का काम दिया गया। वह दिन भर बच्चे के साथ खेलता उसे अपनी कलाबाज़ी दिखाता, उसे अपनी गोद में लेकर बगीचे में घूमता और दोनों खूब खुश रहते।

झबरू को बागवानी का शौक था तो वह माली का एसिस्टेंट भी बन गया था। धनिया, पुदीना, हरीमिर्च, पालक, मेथी टमाटर पत्तागोभी आदि घर के बगीचे में उगाए जाते। झबरू का काम बड़ा साफ़ था। वह बगीचे से झरे हुए पत्ते उठाकर बगीचा साफ़ रखता। लॉन पर रखी बेंत की कुर्सी मेज़ साफ़ करता। शाम को लॉन में पानी डालता और दीदी जीजाजी की सेवा में जुटा रहता।

दीदी का लड़का स्कूल जाने लगा, स्कूल ले जाने -लाने की ज़िम्मेदारी भी झबरू के पिता ने सहर्ष ले ली। इधर झबरू भी बड़ा होने लगा। दीदी के हाथ के नीचे कई छोटे -बड़े काम करने लगा। उन दिनों गरीब बच्चों को पढ़ाने -लिखाने की बात पर लोग खास विचार नहीं करते थे। पर झबरू जब सोलह वर्ष का हुआ तो जीजा जी ने उसे एक बढ़ई के हाथ के नीचे काम करने के लिए भेज दिया।

वह अभी भी उनके घर में ही रहता था। घर बुहारना, पोछा लगाना, रसोई में धनिया, मेथी पालक, पुदीना साफ़ कर देना, चूल्हा जलाना (उन दिनों गैस का प्रचलन नहीं था) आलू छील देना सब्ज़ी धोकर रखना आदि सारे काम कर नहा-धोकर नाश्ता खाकर टिफन लेकर काम सीखने जाने लगा।

झबरू बहुत हँसमुख, खुशमिजाज़, मिलनसार तथा  हुनरमंद लड़का था। हर काम को सीखने की उसकी तीव्र इच्छा और त्वरित सीख लेने की योग्यता ने जीजाजी की आँखों में उसे विशेष स्थान दिया था। दीदी के लिए वह घर का सेवक मात्र था पर हाँ दीदी उसकी अच्छी देखभाल करतीं और स्नेह भी।

जिस बच्चे को झबरू गोद में लेकर घूमता था वह भी अब बड़ा हो गया था। वह अब नौवीं में पढ़ता था और झबरू शायद बाईस -तईस साल का था। कानपुर के किसी बड़े कॉलेज में फर्नीचर बनाने का बड़ा कॉन्ट्रेक्ट हीरालालको दिया गया। झबरू हीरालाल के पास ही काम सीखता था।

झबरू ने जी-जान से सभी प्रकार के फर्नीचर बनाए। मेज़, अलमारी, साहब के लिए शानदार कुर्सी, ग्रंथालय के लिए डेस्क सब कुछ नायाब डिज़ाइन के बनाए गए और झबरू की कुशलता स्पष्ट दिखाई दी। उसकी खूब प्रशंसा भी की गई। अब रोज़गार भी खूब बढ़ गया।

झबरू की उम्र बढ़ती रही, कामकाज भी अच्छा करने लगा, हाथ में अच्छा रुपया पैसा आ गया तो उसने गंगा के किनारे एक खोली किराए पर ले ली। आवश्यक वस्तुएँ जुटाकर कमरा सजाया और बाप को लेकर वहाँ रहने गया।

झबरू मेरी दीदी को माई कहता था और जीजाजी को बड़े बाबू। उसके जाने पर जिस कमरे में वह रहता था उसकी सफ़ाई की गई। एक लोहे के बक्से में बढ़ई के काम के औज़ार मिले। कुछ काँच के रंगीन टुकड़े, कँचे, गंगा के गोल-  गोल पत्थर, गुलेल, भैया जी के ड्रॉइंग पेपर के कई कागज़ जिस पर फ़र्नीचर के पेंसिल से डिज़ाइन निकाले गए  थे। कुछ गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ चिपका कर डिज़ाइन बनाए गए पुराने कागज़ भी मिले। कानपुर की मिट्टी थोड़ी सफेद सी होती है जिसमें बालू भी मिश्रित रहती है। मिट्टी के कई गोले मिले जिन्हें सुखाकर उस पर कई सुंदर आकृतियाँ उकारी गई  थीं। मसूरदाल चिपकाकर एक  सुंदर स्त्री का चित्र मिला जो देखने में कुछ कुछ मेरी दीदी जैसा ही था। अगर झबरू को पढ़ना लिखना आता तो शायद वह उस चेहरे के नीचे माई लिख डालता। सभी वस्तुओं को देखकर दीदी के नैन डबडबा उठे थे। एक योग्य लड़के को जीवन में खास अवसर न दे पाने का शायद उन्हें पश्चाताप भी होने लगा था।

झबरू जब से पिता को लेकर गंगा पार रहने गया था तब से वह भी फिर कभी लौटकर नहीं आया। कई  वर्ष बीत गए। दीदी का लड़का पढ़ने के लिए लखनऊ यूनिवरसिटी चला गया तो जीजाजी ने अपना भी ट्रांसफर करा लिया।

एक दिन घर के दरवान ने आकर कहा कि कोई वृद्ध व्यक्ति उनसे मिलना चाहता है। अपना नाम वह रसिकलाल बताता है। जीजाजी तुरंत बाहर बरामदे में आए। वृद्ध कोई और नहीं झबरू का बाप था। जीजाजी को देखते ही पैर पकड़कर फूटफूटकर वह रोने लगा। शांत होने पर बोला उसके बेटे को पुलिस पकड़कर ले गई। कृपया उसे बचा लीजिए। मेरा बेटा निर्दोष है। कोई उसे फँसा रहा है।

जीजाजी की सरकारी दफ्तरों के उच्च पदस्थ लोगों के साथ न केवल परिचय था बल्कि उठना -बैठना भी था। पता चला कि झबरू खूब पैसा कमाने लगा तो गलत लोगों के संगत में रहने लगा था। वह वेश्याओं के यहाँ भी आना जाना रखता था। किसी एक पर उसका दिल आया था और वह नहीं चाहता था कि और कोई ग्राहक उसके पास जाए। बस एक दिन हाथापाई हो गई  और उसने आरी से अपनी प्रेमिका और ग्राहक दोनों को मार डाला।

पुलिस पकड़कर ले गई। बाप को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि झबरू ऐसा काम कर भी सकता था। पर अब हत्या का आरोप था वह भी एक नहीं दो हत्याओं का। रसिकलाल बेटे को बचाना चाहता था पर जीजाजी को जब पता चला कि उसे शायद फाँसी की सज़ा सुनवाई जाएगी तो उन्होंने उसे यह कहकर लौटा दिया कि उनसे जो बन पड़ेगा वे करेंगे।

साल दो साल बीत गए। एक दिन समाचार पत्र में झबरू की फाँसी का समाचार आया। जिस दिन उसे फाँसी दी गई उसके बाप को मृतदेह ले जाने के लिए बुलवाया गया। शाम हो गई पर वह न आया। रात के समय पता चला कि गंगा में पेट पर पत्थर बाँधकर  रसिकलाल ने आत्महत्या कर ली।

घटना तो बहुत ही पुरानी है पर आज ट्रैफिक पर खड़े उस खुशमिज़ाज बालक ने झबरू की यादें किसी फिल्म के रील की तरह आँखों के सामने घुमा दी। मैं झबरू से बहुत बार दीदी के घर मिल चुकी थी। आज उसे याद कर अनायास ही मेरे कपोलों पर अश्रु ढुलक पड़े।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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