हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 262 ☆ आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 262 ☆

? आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता ?

निर्विवाद है। समय के साथ यदि बड़ी से बड़ी घटना का दोहराव बदलती पीढ़ी के सम्मुख न हो तो वर्तमान की आपाधापी में गौरवशाली इतिहास की कुर्बानियां विस्मृत हो जाती हैं। हमारी संस्कृति में दादी नानी की कहानियों का महत्व यही सुस्मरण है।

भारतीय संदर्भो में राष्ट्रीय एकता का विशेष महत्व है। भारत पाकिस्तान का बंटवारा कर अंग्रेजो ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण किया था। शेष भारत विभिन्नता में एकता के स्वरूप में मुखरित हुआ है। देश में अनेको भाषायें, ढ़ेरों बोलियां, कई संस्कृतियां, विभिन्न धर्मावलम्बी, क्षेत्रीय राजनैतिक दल हैं। यही नही नैसर्गिक दृष्टि से भी हमारा देश रेगिस्तान, समुद्र, बर्फीली वादियों और मैदानी क्षेत्रो से भरा हुआ है, हम विविधता में देश के रूप में एकता के जीवंत उदाहरण के लिए सारी दुनियां के लिये पहेली हैं। जाति, वर्ग, धर्म आदि अनेक व्यैक्तिक मान्यताओं में भेद होने के बावजूद एकता और परस्पर शांति, प्रेम सद्भाव के अस्तित्व पर हमारी शासन व्यवस्था और समाज का ताना बाना केंद्रित है। विविधता में यह एकता राष्ट्र की शक्ति है। विशिष्ट रीति-रिवाजों के साथ लोग हमारे देश में शांत तरीके से अपना जीवनयापन करते हैं, यहाँ मुसलमान, सिख, हिंदू, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी सहअस्तित्व के संग जोश और उत्साह के साथ अपने धार्मिक त्यौहार मनाते हैं।

जब इस तरह का परस्पर सद्भाव होता है तो विचारों में अधिक ताकत, बेहतर संचार और बेहतर समझ होती है। अंग्रेजों के भारत पर शासन के पहले दिन से लेकर भारत की आज़ादी के दिन तक भारतीयों की आजादी का संघर्ष सभी समुदायों की धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अलग होने के बावजूद जनता के संयुक्त प्रयास किए बिना आजादी संभव नहीं थी। जनता सिर्फ एक लक्ष्य से प्रेरित थी और यह भारत की आजादी प्राप्त करने का उद्देश्य था। यही कारण है कि भारत की स्वतंत्रता संग्राम विविधता में एकता का एक अप्रतिम उदाहरण है।

आजादी के लिये गांधी जी की अहिंसा वाली धारणा के समानांतर आत्म बलिदानी क्रांतिकारियों, सेनानियों का योगदान निर्विवाद है। आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा हंसते हुये फांसी के फंदे पर भारत माता की जय का जयकारा लगाते हुये झूल जाने वाले बलिदानी शहीद, काला पानी की प्रताड़ना सहने वाले वीर और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सेनानियों सहित गुमनाम रहकर वैचारिक क्रांति के आंदोलन रचने वाले प्रत्येक क्रांतिवीर का योगदान अप्रतिम है जिसका ज्ञान नई पीढ़ी को होना ही चाहिये। फिल्में, किताबें, शैक्षिक पाठ्यक्रम और साहित्य इस प्रयोजन में बड़ी भूमिका निभाता है।

क्रांतिकारी भगतसिंह युवाओ के लिये पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेरणा स्त्रोत हैं। उनका दार्शनिक अंदाज, क्रांतिकारी स्वभाव, उनका संतुलित युवा आक्रोश, उनके देश प्रेम का जज्बा जिल्द बंद किताबों में सजाने के लिये भर नहीं है। उनको किताबों से बाहर लाना समय की आवश्यकता है। भगत सिंह की विचारधारा और उनके सपनों पर बात कर उनको बहस के केन्द्र में लाना युवा पीढ़ी को दिशा दर्शन के लिये वांछनीय है। बदलती राजनीति शहीदो के सपने साकार करने की राह से भटके हुये लगते हैं। समय की मांग है कि देश भक्त शहीदो के योगदान से नई पीढ़ी को अवगत करवाने के निरंतर पुरजोर प्रयास होते रहने चाहिये। भगतसिंह ने कहा था कि देश में सामाजिक क्रांति के लिये किसान, मजदूर और नौजवानो में एकता होनी चाहिए। साम्राज्यवाद, धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक वर्ग के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उन्होने न केवल मौलिक विचार दिये थे बल्कि अपने आचरण से उदाहरण रखा था। उनके चरित्र, त्याग की भावना के अनुशीलन और विचारों को आत्मसात कर आज के प्रबल स्वार्थ भाव समाज को सही दिशा दी जा सकती है। उनके विचार शाश्वत हैं, आज भी प्रासंगिक हैं।

क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के विचारो की प्रासंगिकता का एक उदाहरण वर्तमान साम्प्रदायिकता की समस्या के हल के संदर्भ में देखा जा सकता है। आजादी के बरसो बाद आज भी साम्प्रदायिकता देश की बड़ी समस्या बनी हुई है। जब तब देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठते हैं। युवा भगत सिंह ने 1924 में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे देखे थे। भगतसिंह विस्मित थे कि दंगो में दो अलग अलग धर्मावलंबी परस्पर लोगो की हत्या किसी गलती पर नही वरन अकारण केवल इसलिये कर रहे थे, क्योकि वे परस्पर अलग धर्मो के थे। उनका युवा मन आक्रोशित हो उठा। स्वाभाविक रूप से दोनो ही धर्मो के आदर्श सिद्धांतो में हत्या को कुत्सित और धर्म विरुद्ध बताया गया है। धर्म के इस स्वरूप से क्षुब्ध होकर व्यक्तिगत रूप से स्वयं भगत सिंह तो नास्तिकता की ओर बढ़ गये। उन्होने अवधारणा व्यक्त की, कि धर्म व्यैक्तिक विषय होना चाहिये, सामूहिक नही। आज भी यह सिद्धांत समाज के लिये सर्वथा उपयुक्त है। राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। साम्रदायिक वैमनस्य को समाप्त करने की जरूरत सबने महसूस की। साम्प्रदायिकता की इस समस्या के निश्चित हल के लिए भगत सिंह के क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। जून 1928 के पंजाबी मासिक ‘कीर्ती’ में उनके द्वारा धार्मिक उन्माद विषय के कारण तथा समाधान पर लेख छापा गया। भगत सिंह के अनुसार ” साम्प्रदायिक दंगों का मूल कारण आर्थिक असंपन्नता ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर समाज में अविश्वास-सा हो गया। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। तोंद जहाँ पूंजीपतियों की प्रतीक है, वहीं निराला की रचना में पीठ से चिपकता पेट गरीबी प्रदर्शित करता है। भगतसिंह मानते थे कि दंगों का स्थाई समाधान भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। कलकत्ते के दंगों में एक अच्छी बात भी देखने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें अपने कार्य वर्ग की चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे। इस तरह उन्होंने पाया कि कार्य वर्ग चेतना का यही रास्ता साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है। इसी से भगत सिंह ने मजदूरो, किसानो को एकजुट होने और आर्थिक आत्मनिर्भरता व विकास के लिये काम करने और साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़े करने के प्रयत्न किये।

आज हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी जाति से ऊपर विकास का रास्ता ही साम्प्रदायिकता का हल बता रहे हैं। आज राष्ट्रीय प्रगति पथ पर सबके साथ चलते हुये धार्मिक मसलों को न्यायपालिका के निर्देशानुसार हल किया जा रहा है। इसी से भगत सिंह की दूरगामी सोच और गहरे चिंतन की स्पष्ट झलक मिलती है। देश में आम नागरिको की आर्थिक संपन्नता के लिये आज सतत विकास और जनसंख्या नियंत्रण ही एक मार्ग है।

जो कुछ दिखता रहता है लोग उसे ही तो स्मरण करते हैं, मंदिरो में भगवान रहता हो या नही किंतु शायद मंदिरो की इस सार्थकता से मना नहीं किया जा सकता कि सड़क किनारे के मंदिर भी हमें उस परम सत्ता का निरंतर स्मरण करवाते रहते हैं। भगत सिंह को नई पीढ़ी भूल चली है, उन्हें जीवंत बनाये रखकर सामाजिक समस्याओ पर उनके वैचारिक चिंतन के अमृत तथ्यो का अनुसरण आवश्यक है। देश हित में भगत सिंह के निस्वार्थ बलिदान को प्रेरणा दीप बनाकर पाठक तक उनके समर्पण का प्रकाश पहुंचे। फिर फिर पहुंचे।

देश के तमाम शहीदो को जिन्होने किसी प्रतिसाद की अपेक्षा के बिना अपने सुखो का और परिवार का परित्याग करके देश व समाज के लिये अपना जीवन दांव पर लगा दिया उन्हें और आज भी देश की सीमाओ पर नित शहीद होते उन वीर जवानो को, जो केवल आजीविका से परे, देश की रक्षा के लिये लड़ते हुये शहीद हो जाते हैं, उन सब को समर्पित करते हुये यह कृति प्रस्तुत है। इसके लिये इंटरनेट पर ढ़ेरो माध्यमो से सहज उपलब्ध कराई गई शहीद भगत सिंह की ही सामग्रियो तथा पूर्व प्रकाशित कुछ किताबो के अध्ययन से संदर्भ उपयोग किये है। मुक्त ज्ञान की इस रचनात्मक दुनियां का आभार।

शहीद भगतसिंह की प्रमुख कार्यस्थली रहा लाहौर शहर अब पाकिस्तान में है। लाहौर तब भी था और आज भी है। लाहौर प्रतीक है भविष्य की संभावना का, जो शहीदे आजम की कुर्बानी के नाम पर ही सही पाकिस्तान को साम्प्रदायिक, संकुचित, कट्टरपंथी आतंकी विचार धारा से मुक्त कर भारत के नक्शे कदम पर चलने की प्रेरणा दे यही कामना है। शहीद भगत सिंह के पुनर्स्मरण के इस प्रयास को पाठकीय आशीर्वाद की अपेक्षा के साथ… 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #36 ☆ कविता – “जाते हो तो…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 36 ☆

☆ कविता ☆ “जाते हो तो…☆ श्री आशिष मुळे ☆

जाते हो तो हँसते जाना

अगर हम है बस कांटे

मगर फिक्र न करना जानां

हम फूलों का दिल नहीं दुखाते

 

कांटे है कांटे ही रहेंगे

होंगे नहीं गमगीन

कहीं ख़ुद फूल ना बन जाएं

आपका ग़म जो है इतना हसीन

 

जायज़ है आप बने है उनके लिए

खिलना आपका हक है

बने है हम बस अपने लिए

सख्ती हमारा नक्श है

 

यह धूप है बड़ी मस्त मस्त

कांटो को सख़्त दिल बनाए

जाते जाते आंसू मत गिराना

कहीं कांटे फिर से ना खिल जाए

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #161 – लघुकथा- प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “प्रायश्चित)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 161 ☆

☆ लघुकथा- प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

ए को जैसे ही पता चला बी बहुत बीमार है वह तुरंत उससे मिलने के लिए आई, “तू अपनी बहू को अमेरिका से यहां क्यों नहीं बुला लेती। वह तेरी इतनी सेवा तो कर ही सकती है।”

“वह गर्भ से है,” बड़ी मुश्किल से बी बिस्तर पर सीधे बैठते हुए बोली, ” उसने मुझे ही अमेरिका बुलाया था। ताकि मैं जच्चे-बच्चे की देखभाल कर सकूं।”

“ओह! मतलब वह नहीं आ पाएगी।”

“हां, उसकी मजबूरी है,” बी ने इशारा किया तो काम वाली लड़की चाय रख कर चली गई। तब तक ए अपने घर परिवार के दुख-सुख की बातें करती रही। तभी अचानक बी की दुखती रग पर हाथ चला गया, “काश! तूने मेरी बात मानी होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता,” ए ने कहा।

“हां यार, वह मेरी जीवन की सबसे बड़ी गलती थी,” बी ने कहा, “काश! मैंने उस समय भ्रूण हत्या न की होती तो आज मेरी बेटी भी तेरी तरह मेरी सेवा कर रही होती,” कहते हुए उसने अपने बड़े से घर को निहारा तथा काम वाली लड़की की ओर देखकर बोली, “क्या तुम मेरी बेटी बनेगी?”

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 195 ☆ बाल कविता – जलवायु परिवर्तन के रूप ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 195 ☆

☆ बाल कविता – जलवायु परिवर्तन के रूप ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पश्चिम में सूरज जी पहुँचे

स्वर्णिम हो गई धूप।

नारंगी से गोल – गोल हैं

लगता रूप अनूप।।

 

प्राची में चंदा जी झूलें

धवल दूधिया रूप।

खुला गगन वासंती ऋतु है

ईश्वर दिखें स्वरूप।।

 

जलवायु परिवर्तन होता

रोज बदलता मौसम।

मानव जैसे बीज बो रहा

नहीं कर्तव्य धरम।।

 

बढ़ा प्रदूषण जल,थल , नभ में

सहज नहीं अब जीवन।

सोचो अच्छा , कर लो अच्छा

सुमन बने तब मन।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #219 – कविता – ☆ तीन मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है “तीन मुक्तक…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #219 ☆

☆ तीन मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

[1]

हँसी गायब हुई है, अब बची मुस्कान फीकी सी

नहीं दिल में रही, पहले सरीखी चाह मीठी सी

सुहाती है नहीं, आदर्श की बातें तुम्हारी अब,

न जाने क्यूँ लगे मिश्री, हमें अब सुर्ख़ मिर्ची सी।

[2]

बुरा जो वक्त आया तो, किनारे हो गए सारे

उजाले छोड़ कर चलते बने अब संग अँधियारे

चुगाये थे जिन्हें दानें, उड़े अब दूर वे नभ में,

न दूजों से दुखी हम तो, हमारो से ही हैं हारे।

[3]

राह में पत्थर मिले तो, सीढ़िया उनको बना लें

मिले बाधाएँ, परीक्षा समझ उनका हल निकालें

उधारी के उजाले, निश्चित करेंगे दिग्भ्रमित ही

बिना श्रम बिन साधना के, सफलता के भ्रम न पालें।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 43 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खिलखिलाती अमराइयाँ…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 43 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हवा कुछ ऐसी चली है

खिलखिलाने लगीं हैं अमराइयाँ।

माघ की ख़ुशबू

सोंधापन लिए है

चटकती सी धूप

सर्दी भंग पिए है

रात छोटी हो गई है

नापने दिन लगे हैं गहराइयाँ।

नदी की सिकुड़न

ठंडे पाँव लेकर

लग गई हैं घाट

सारी नाव चलकर

रेत पर मेले लगे हैं

बड़ी होने लगीं हैं परछाइयाँ।

खेत पीले मन

सरसों हँस रही है

और अलसी,बीच

गेंहूँ फँस रही है

खेत बासंती हुए हैं

बज रहीं हैं गाँव में शहनाइयाँ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि ? ?

बौराये बैठे हैं;

मेरे अजेय

अस्तित्व से

पगलाये बैठे हैं,

मतिशून्य हैं;

नहीं समझते

सत्य, आत्मा

का प्रतिरूप है,

हताश होता है;

परास्त नहीं होता,

आदि-अनादि

कभी समाप्त नहीं होता,

योगेश्वर ने

यों ही नहीं कहा-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि

नैनं दहति पावक:।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो

न शोषयति मारुत:॥

© संजय भारद्वाज  

(सुबह 7:31 बजे, 14.4.2017)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जिया जो उम्र भर दामन बचाकर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जिया जो उम्र भर दामन बचाकर“)

✍ जिया जो उम्र भर दामन बचाकर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ये आदम जात की फ़ितरत तो देखो

बिकाऊ हो गई उलफ़त तो देखो

*

रहा जो उम्र भर बस रोनकों में

ये कब्रिस्तान की खलबत तो देखो

*

शरीफों की नहीं अब पूछ कोई

गुनहगारों की है इज्ज़त तो देखो

*

हुए शैतान के वंदे ख़ुदा के

परस्पर कर रहे नफ़रत तो देखो

*

जिया जो उम्र भर दामन बचाकर

उसी से हो गई गफ़लत तो देखो

*

पिता के सामने बेटा चला है

ये कैसी हो रही रुख़सत तो देखो

*

करेगी राज रानी बनके बेटी

किसी मुफ़लिस की ये हसरत तो देखो

*

कलम अखबार टी व्ही हाथ जोड़े

अरुण सरकार की दहशत तो देखो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 92 – बैंक: दंतकथा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “बैंक: दंतकथा : 1“

☆ कथा-कहानी # 92 –  बैंक: दंतकथा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बैंक की परिपाटी कि “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना जो हमारी विरासत है, हमारी आदत बन चुकी थी और  है भी, और शायद बैंक के संस्कारों के रूप में हमने भावी पीढ़ी को सौंपा भी है. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं. इसी परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त शीर्षक के साथ इस कथा का सृजन करने का प्रयास है. पात्र और प्रसंग काल्पनिक होते हुये भी सत्य के करीब लग सकते हैं, इसका खतरा तो रहेगा. उम्मीद है इसे भी अन्य रचनाओं की तरह प्रेम और स्नेह मिलेगा.

अविनाश बैंक के आंचलिक कार्यालय में उपप्रबंधक के पद पर सुशोभित थे और अभी अभी अपने सहायक महाप्रबंधक से, उनके चैंबर में डांट खाकर बाहर आ चुके थे. उनका यह अटल विश्वास था कि चैंबर की घटनाएं चैंबर के अंदर ही रहती हैं और उनकी गूंज से बाहरवाले अंजान रहते हैं. जो इस गुप्त राज का पर्दाफाश करता है, वो बाहर निकलने वाले पात्र का चेहरा होता है अत: अविनाश की आंचलिक कार्यालय की दीर्घकालीन पदस्थापनाओं ने उनके अंदर यह सिद्धि स्थापित कर दी थी कि उनके चेहरे की रौनक और हल्की मुस्कान बरकरार रहती चाहे वो चैंबर के अंदर हों या बाहर. पर आज उनकी बॉडी लैंग्वेज ने उनका साथ देने से साफ साफ मना कर दिया.

ऐसा माना जाता है कि दुश्मन से ज्यादा दुखी बेवफा दोस्त करता है. जी हां, डांटने वाले और डांट खाने वाले किसी ज़माने में एक ही शाखा में सहायक के रूप में पदस्थ थे, अगल बगल में काउंटरों के संचालक थे और हम उम्र, हमपेशा, और रूमपार्टनर हुआ करते थे. अंतर सिर्फ उनकी संस्कृति, मातृभाषा, काया, रंग और अंग्रेज़ी में वाक्पटुता का होता था. अविनाश भांगड़ा की संस्कृति को प्रमोट करते थे तो कार्तिकेय भरतनाट्यम संस्कृति के हिमायती थे. किसी को कुलचे पराठे लुभाते थे तो किसी को इडली के साथ सांभर की खुशबू अपनी ओर खींचती थी. दोनों की आंखों में पानी आता तो था पर अलग अलग स्वाद की याद आने से. ये उनका दुर्भाग्य था कि उनकी पहली पदस्थापना के उस कस्बे से कुछ बड़ी सी जगह में न कुलचा पराठा मिलता था न ही इडली सांभर. अविनाश के नाम में पंजाबियत का सौंधापन नहीं था बल्कि उत्तरप्रदेश के बनारस या काशी की नगरी की पावनता थी जो बनारस निवासी उनकी माताजी के कारण थी. अब ये तो पता नहीं पर संतान के लक्षणों से अंदाज तो लगाया जा सकता ही था कि अविनाश, पेरेंटल प्रेमविवाह के परिणाम थे.

प्रथम पदस्थापना पर जैसा कि होता है, अविनाश और कार्तिकेय भी अविवाहित थे और दोनों की पाककला का प्रशिक्षण, बैंकिंग सीखने से कदम से कदम मिलाकर चल रहा था. दोनों मित्र दाल चांवल बनाना सीख चुके थे और अविनाश की दाल फ्राई करने की कला न केवल भोजन को स्वादिष्ट बनाती थी, वरन उन्हें कार्तिकेय पर सुप्रीमेसी स्थापित करने का अवसर भी प्रदान करती थी. बदले में स्वादिष्ट और चटपटे अचार की प्रबंधन व्यवस्था कार्तिकेय करते थे.

कथा चलती रहेगी, जमाना विद्युतीय और सौर ऊर्जा का है पर आपकी प्रतिक्रिया भी लेखक को ऊर्जावान बना सकती है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 12 – दलदल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दलदल।)

☆ लघुकथा – दलदल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

वह युवा शिक्षिका सभी लोगों को तिरंगे परिधान में देखकर एक गहन चिंता में खो गई और अचानक उसके मुंह से निकल गया-

” अरे आज 2 अक्टूबर है?”

गांधी जी के सादा जीवन और उच्च विचार से अवगत कराएंगे,इसी उधेड़बुन में वह जल्दबाजी में चल पड़ी।

चारों तरफ देश के प्रति सम्मान बिखरा पड़ा है,लेकिन अच्छा है  बापू आज नहीं है….. उनके नाम पर जाने क्या-क्या होता है?

स्कूल के सभागार में पहुंच गई।

वहाँ बापू की प्रतिमा पर फूलों के हार चढ़ाने के बाद  सभागृह में सभी उपस्थित लोगों ने भाषण दिया।

शाकाहारी को भोजन हर सार्वजनिक स्थल पर मिलना चाहिए। मांसाहार की दुकानों को बंद करवाने की सफलता का गुणगान में रत।

चारों तरफ जश्न…लाउडस्पीकर पर देशभक्ति, बापू-भक्ति के गाने।

बापू के सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हुए 3 बच्चे नजर आए,

बुरा मत देखो बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो की मुद्रा में बैठे थे।

क्या इन बच्चों को इसका मतलब समझ आ रहा है, उसे देखकर  अच्छा भी लगा और हंसी भी आ गई।

क्या यह आज के युग में संभव है?

सभा समाप्त हुई।

रास्ते में उसे सभागृह में उपस्थित जो व्यक्ति उपदेश दे रहे थे वही व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे पर लाठी ताने, गाली दे रहे थे ।

कानों में लाउडस्पीकर शोर उड़ेल रहा था –

दे दी हमें आजादी

बिना खड्ग, बिना ढाल…!

गांधीजी के स्वच्छ भारत और नशा मुक्ति अभियान को क्या जनमानस समझ पाएगा!

अरे! यह क्या?

मैं यह कहां फंस गई…

गाड़ी को क्या हो गया?

देश भी तो धार्मिक, जातिवाद, गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक कुरीतियों के बंधन में जकड़ा हैं।

मैंने तो अपनी गाड़ी को इस दलदल से निकाल लिया …

भारतवर्ष इस दलदल से कैसे निकलेगा….?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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