मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 219 ☆ माझी मराठी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 219 ?

☆ माझी मराठी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(अष्टाक्षरी)

 माय माऊली मराठी

अभिमान माझ्या साठी

डामडौल जगण्याचा

मुळामुठेच्या गं काठी….१

*

भाषा पुण्याची प्रमाण

शुद्ध, सुंदर सात्विक

मराठीचे आराधक

आम्ही आहोत भाविक ….२

*

बोल प्रेमाचे बोलतो

सारे भाषेत तोलतो

असा मनाचा दर्पण

खरे खुरेच सांगतो…..३

*

भाषा सदाशिव पेठी

मला खरंच भावते

माझी शाळा “सरस्वती”

मार्ग मराठी दावते…..४

*

बाजीराव रस्त्यावर

शाळा भक्कम, चांगली

सरस्वती मंदिरात

बाराखडी ती घोकली…..५

*

 मला अभिमान आहे

माझ्या मृदू मराठीचा

मर्द मावळ्या रक्ताचा

आणि पुण्यनगरीचा…..६

© प्रभा सोनवणे

२१ फेब्रुवारी २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “मायमराठी…” – कवयित्री : सुश्री दीपाली ठाकूर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “मायमराठी…” – कवयित्री : सुश्री दीपाली ठाकूर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(वृत्त – भुजंगप्रयात)

नसे घेतला मी तिच्या जन्म पोटी,

नसे देवकी माय माझी जरी ती,

जिचे स्तन्य सांभाळते भान माझे,

यशोदाच ती माय माझी मराठी ॥

*

तिचा ‘छंद’ माझ्या नसांतून वाहे,

तिचे ‘वृत्त’ श्वासांतुनी खेळताहे,

जरी भंगण्याचा असे शाप देहा,

‘अभंगातुनी’ ती चिरंजीव आहे ॥

*

तिची एक ‛ओवी’ मलाही स्फुरावी,

कधी ‛शाहिरी’ लेखणीही स्रवावी ,

तिचे ओज शब्दांत ऐसे भरावे,

सुबुद्धी जनां ‛भारुडातून’ व्हावी ॥

*

दिसे बाण ‛मात्रेत’ तो राघवाचा,

निळा सूर ‛कान्यातला’ बासरीचा, 

‛उकारात’ डोले तुझी सोंड बाप्पा,

‛अनुस्वार’ भाळी टिळा विठ्ठलाचा ॥

*

तिची ‛अक्षरे’ ईश्वरी मांदियाळी,

अरूपास साकारती भोवताली,

तिचा स्पर्श तेजाळता ‛वैखरीला’,

युगांची मिटे काजळी घोर काळी ॥

कवयित्री : सुश्री दीपाली ठाकूर

संग्राहिका – सौ उज्ज्वला केळकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 42 – जिसने देखा तेरा जलवा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जिसने देखा तेरा जलवा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 42 – जिसने देखा तेरा जलवा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

जितना चाहा, तुम्हें भुलाना, ध्यान तुम्हीं पर जाता है

मेरा यह शीशा दिल, जाने क्यों पत्थर पर जाता है

*

सहरा में जाकर के, कितनी नदियाँ सूख गईं 

उसकी प्यास बुझाने वाला, खुद प्यासा मर जाता है

*

जिसने देखा एक बार, हो गया तुम्हारा दीवाना 

इस ही कातिल एक अदा पर, हर कोई मर जाता है

*

जिसने देखा तेरा जलवा, उसको होश नहीं रहता 

तू तो परदे में रहकर भी, यह जादू कर जाता है

*

तेरी शोहरत का दीवाना, एक अकेला मैं हूँ क्या 

हर कोई लेकर मुराद, तेरे ही दर पर जाता है

*

यमुना तट की रेत सुबह मिलती है मेरी मुट्ठी में 

तेरी यादों में, वृन्दावन जैसा, घर हो जाता है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 118 – मंथन करते रहे उम्र भर… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना “मंथन करते रहे उम्र भर…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 118 – मंथन करते रहे उम्र भर… ☆

मंथन करते रहे उम्र भर,

निष्कर्षों से है पाया।

धुन के रहे सदा ही पक्के,

जो ठाना कर दिखलाया।

पले अभावों के आँगन में,

पैरों पर जब खड़े हुए।

मिला सहारा गैरों से भी,

सीढ़ी चढ़ने अपनाया।

गिरे हुओं की पढ़ी इबारत,

मंजिल पर बढ़ना सीखा।

रिद्धि-सिद्धि की रही चाहना,

धीरज धर कर सुलझाया।

चले निरंतर पथ में अपने,

मात-पिता का साथ मिला।

जीवन में सहयोग रहा पर,

बिछुड़ा हमसे हर साया।।

दृढ़ संकल्प अगर हो मन में,

मिले सफलता कदम कदम।

निश्छल भाव रहे जीवन में,

सदा मिले प्रभु की छाया।

देख रहा अब विश्व हमारा,

अंतरिक्ष में सूर्योदय।

विश्व गुरु की अवधारणा पर,

सबने फिर शीश झुकाया।

हिन्दी को जो भी कहते थे,

यह अनपढ़ की भाषा है।

आज वही भाषा ने देखो,

अपना परचम फहराया।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 261 ☆ आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 261 ☆

? आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले ?

पाठक लेखक के साथ उसकी लेखन नौका पर सवार होकर रचना में अभिव्यक्त वैचारिक  प्रवाह की दिशा में पाठकीय सफर करता है। यह लेखक के रचना कौशल पर निर्भर होता है कि वह अपने पाठक के रचना विहार को कितना सुगम, कितना आनंदप्रद और कितना उद्देश्यपूर्ण बना कर पाठक के मन में अपनी लेखनी की और विषय की कैसी छबि अंकित कर पाता है। रचना का मंतव्य समाज की कमियों को इंगित करना होता है। इस प्रक्रिया में लेखक स्वयं भी अपने मन के उद्वेलन को  रचना लिखकर शांत करता है। जैसे किसी डाक्टर को जब मरीज अपना सारा हाल बता लेता है, तो इलाज से पहले ही उसे अपनी बेचैनी से किंचित मुक्ति मिल जाती है। उसी तरह लेखक की दृष्टि में आये विषय के समुचित प्रवर्तन मात्र से रचनाकार को भी सुख मिलता है। लेखक समझता है कि ढ़ीठ समाज उसकी रचना पढ़कर भी बहुत जल्दी अपनी गति बदलता नहीं है पर साहित्य के सुनारों की यह हल्की हल्की ठक ठक भी परिवर्तनकारी होती है। व्यवस्था धीरे धीरे ही बदलतीं हैं। साफ्टवेयर के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रो में जो पारदर्शिता आज आई है, उसकी भूमिका में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी गई व्यंग्य रचनायें भी हैं। शारीरिक विकृति या कमियों पर हास्य और व्यंग्य अब असंवेदनशीलता मानी जाने लगी है। जातीय या लिंगगत कटाक्ष असभ्यता के द्योतक समझे जा रहे हैं, इन अपरोक्ष सामाजिक परिवर्तनों का किंचित श्रेय बरसों से इन विसंगतियों के खिलाफ लिखे गये साहित्य को भी है। रचनाकारों की यात्रा अनंत है, क्योंकि समाज विसंगतियों से लबरेज है।

पुस्तक दीर्घ जीवी होती हैं। वे संदर्भ बनती हैं। आज या तो डोर स्टेप पर ई कामर्स से पुस्तकें मिल जाती हैं, या एक ही स्थान पर विभिन्न पुस्तकें लाइब्रेरी या पुस्तक मेले में ही मिल पाती हैं। अतः पुस्तक मेलों की उत्सव धर्मिता बहु उपयोगी है। और नई किताबों से पाठको को जोड़े रखने में हमेशा बनी रहेगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 182 – लघुकथा – पैती ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा पैती”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 182  ☆

☆ लघुकथा ❤️ पैती ❤️

सनातन धर्म के अनुसार कुश  को साफ सुथरा कर मंत्र उच्चारण कर उसे छल्ले नुमा अंगूठी के रूप में बनाया जाना ही पैती कहलाता है। जिसे हर पूजा पाठ में सबसे पहले पंडित जी द्वारा, उंगली पर पहनाया जाता है और इसके बाद ही पूजन का कार्य चाहे, कोई भी संस्कार हो किया जाता है।

सुधा और हरीश यूँ तो जीवन में किसी प्रकार की कोई चीज की कमी नहीं थीं। धन-धान्य और सुखी -परिवार से समृद्ध घर- कारोबार और अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे।

सृष्टि की रचना कब कहाँ किस और मोड़ लेती है कहा नहीं जाता।

सुखद वैवाहिक जीवन के कई वर्षों के बीत जाने पर भी संतान की इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी।

कहते देर नहीं लगी की कोई दोष होगा। घर की शांति पूजा – पाठ नाना प्रकार के उपाय करते-करते जीवन आगे बढ़ रहा था। कहीं ना कहीं मन में टीस  बनी थी।

क्योंकि सांसारिक जीवन में सबसे पहले.. अरे आपके कितने… बाल गोपाल और कैसे हैं? समाज में यही सवाल सबसे पहले पूछा जाता है।

फिर भी अपने खुशहाल जिंदगी में मस्त दोस्तों से मेलजोल अपनों से मुलाकात और रोजमर्रा की बातें चलती जा रही थी।

समय पंख लगाकर उड़ता चला जा रहा था। कहते हैं देर होती है पर अंधेर नहीं। आज सुधा का घर फूलों की सजावट से महक रहा था।

चारों तरफ निमंत्रण से घर में सभी मेहमान आए थे। सभी को पता चला कि आज कुछ खास कार्यक्रम है।

पीले फूलों की पट्टी और उस पर छल्ले नुमा कुश से बने…. नाम लिखा था पैती।

नए जोड़ों की तरह दोनों का रूप निखर रहा था। मंत्र उच्चारण आरंभ हुआ। गोद में नन्हा सा बालक रंग तो बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहा था। पर नाक नक्श और सुंदर कपड़ों से सजे बच्चों को लेकर सुधा छम छम करती निकली।

फूलों की बरसात होने लगी सभी को समझते देर ना लगी कि सुधा और हरीश ने किसी अनाथ बच्चों को गोद लेकर उसे अपने पवित्र घर मंदिर और अपने हाथों की पैती बना लिया।

जितने लोग उतनी बातें परंतु पैती आज अपने मम्मी- पापा के हाथों में पवित्र और निर्मल दिखाई दे रहा था।

सुधा की सुंदरता बच्चे के साथ देव लोक में अप्सरा की तरह दिखाई दे रही थी। ममता और वात्सल्य से गदगद वह सुर्ख लाल छुई-मुई लग रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 72 – देश-परदेश – लीप वर्ष ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 72 ☆ देश-परदेश – लीप वर्ष ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रत्येक चार वर्ष के पश्चात लीप वर्ष याने वर्ष का सबसे छोटा माह फरवरी भी थोड़ा सा बड़ा हो जाता हैं।

कुछ दिन पूर्व एक पेंशनर साथी ने फोन कर जानकारी मांगी थी, क्या फरवरी की पेंशन दो/ तीन जल्दी याने कि हर माह साताईस को मिलती है, तो क्या इस बार पच्चीस तारीख को मिलेगी ना। उनके तर्क में दम हैं।

मन में विचार आया कि जो दिहाड़ी/ दैनिक वेतन पर भुगतान प्राप्त करते हैं, उनका तो इस माह नुकसान रहेगा।

पेपर में उपभोक्ता सामान पर लीप डिस्काउंट भी आरंभ हो गया हैं। रेडीमेड शर्ट विक्रेता एक के साथ तीन शर्ट और खरीदने पर छूट के लुभाने ऑफर दे रहें हैं।

होटल वाले भी आपके लिए ” लीप की शाम” का ऐलान करने लगे हैं। पैसा फैंक तमाशा देख।

आज एक मित्र का मैसेज आया कि उन्नतीस को क्या कार्यक्रम हैं। हमने कहा कुछ नहीं घर पर ही रहेंगे, आ जाओ। मित्र बोला इस बार की उन्नतीस कुछ खास है, चार वर्ष के बाद फरवरी में ये तारीख़ आती है। सर्दी भी वापस हो रही है, कहीं आस पास सब मित्र भ्रमण हेतु चलते हैं। मज़ाक में बोला क्या पता हम लोग की ये आखरी उन्नतीस फरवरी हो।

हमारे ये मित्र भी जिंदादिल है, मौका ढूंढते रहते है, सब को साथ मिल कर कुछ नया करने का कार्यक्रम जमा देते हैं।

आपने, अपने मित्र/ परिवार के साथ कोई कार्यक्रम बनाया या  नहीं ? हमारा काम तो, था आपको आगाह करने का, आगे आपकी मर्जी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #226 ☆ पाचर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 226 ?

☆ पाचर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

शांत वाटला प्रशांत सागर

तांडव करतो माझा शेखर

*

आमिष मोठे दाखवितो अन

हाती देतो नुसते गाजर

*

हलावयाला जागा नाही

अशी ठोकली त्याने पाचर

*

संस्काराचे कुळ फाशीला

लोक बेगडी त्यांचा आदर

*

सोबत सागर असून माझ्या

तहानलेली माझी घागर

*

हरामखोरी कोठे पचते

कष्ट करूनी खावी भाकर

*

मूषक दिसता दूध सोडुनी

मागे धावत सुटली मांजर

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ किंमत – भाग – २ ☆ श्री दीपक तांबोळी ☆

श्री दीपक तांबोळी

? जीवनरंग ?

☆ किंमत – भाग – २ ☆ श्री दीपक तांबोळी

(नशिबाने शेठजींना दुसरा माणूस मिळाला.पण तो चार हजार पगारावर अडून बसला.शेवटी राजूशेठना त्याचं ऐकावं लागलं.येत्या सोमवारपासून तो कामावर येणार होता.) – इथून पुढे 

सोमवार उजाडला.शेठजी दुकानात आले.अजून ग्राहकांची वर्दळ सुरु व्हायची होती.प्रदीपला दुकानात पाहून त्यांना आश्चर्य वाटलं

“काय रे विचार बदलला की काय तुझा?”

प्रदीप हसून म्हणाला

“नाही शेठजी.या नवीन दादांना काम समजावून सांगायला आणि सगळ्यांना शेवटचं भेटून घ्यायला आलोय”

“बरं बरं” 

प्रदीप आणि तो नवीन माणूस आत गेला.शेठजी खुर्चीवर बसत नाही तो एक आलिशान कार दुकानासमोर उभी राहिली.आजची सकाळ एका दांडग्या ग्राहकाने सुरु होणार याचा शेठजींना आनंद झाला.

” बोला साहेब “ती व्यक्ती आत आल्यावर शेठजी म्हणाले

” प्रदीपला घ्यायला आलोय”

शेठजींनी एकदा कारकडे पाहिलं.एका मामुली सफाईकामगाराला घेण्यासाठी हा देखणा माणूस एवढी आलिशान कार घेऊन यावा याचं त्यांना आश्चर्य वाटलं.या माणसाकडे तर प्रदीप कामाला लागला नाही?

“प्रदीप कोण आपला?”त्यांनी साशंक मनाने विचारलं

” प्रदीप मुलगा आहे माझा”

“काय्यsssप्रदीप तुमचा मुलगा?”

तेवढ्यात प्रदीप बाहेर आला.आल्याआल्या त्याने वेगाने धावत जाऊन त्या माणसाला मिठी मारली

” पप्पाsss” असं त्याने म्हणताच 

त्या माणसाने त्याला मिठीत घेतलं आणि तो ढसाढसा रडू लागला.सगळे सेल्समन,नोकर जमा झाले.प्रदीपही रडत होता.हे काय गौडबंगाल आहे हे कुणाला कळेना.थोडा वेळाने प्रदीप जरा बाजुला झाला तसा तो माणूस म्हणाला.

” शेठजी मी ओंकारनाथ.माझी धुळ्यात चटईची फँक्टरी आहे.दोन इंडस्ट्रीयल वर्कशाँप आहेत.अगोदर मीही एक कामगार होतो.मेहनतीने आणि देवक्रुपेने फँक्टरीचा मालक झालो.मी गरीबी पाहिली आहे.कित्येक दिवस उपाशी राहून आयुष्य काढलं आहे.पण आमची मुलं तोंडात चांदीचा चमचा घेऊन आली आहेत.त्यांना पैशाची,श्रमाची,माणसांची किंमत नाही.हा माझा अति लाडावलेला मुलगा माझ्या फँक्टरीत यायचा.तिथल्या कामगारांवर रुबाब करायचा.लहानमोठा बघायचा नाही.वाटेल ते बोलायचा.माझ्या कानावर आलं होतं पण एकूलत्या एक मुलावरच्या प्रेमापोटी मी चुप बसायचो.एक दिवस त्याने लिमीट क्राँस केली. आमच्या सफाई कामगाराला वाँशरुम नीट साफ केलं नाही म्हणून सगळ्या कामगारांसमोर शिव्या दिल्या.साठी उलटलेला तो माणूस.त्याच्या मनाला ते लागलं.तो माझ्याकडे रडत आला आणि “माझा हिशोब करुन टाका.मला आता इथे रहायचं नाही “असं म्हणू लागला.माझं डोकं सरकलं.मी याला बोलावलं.म्हाताऱ्याची माफी मागायला लावली तर हा आपल्या मस्तीत.सरळ माफी मागणार नाही म्हणाला.मी उठून त्याच्या मुस्काटात मारली आणि त्याला म्हणालो की तुझ्यात एवढी मग्रुरी आहे ना तर तू मला महिनाभर सफाईचं काम करुनच दाखव.त्याने माझं चँलेंज स्विकारलं पण आपल्याच फँक्टरीत सफाई करण्याची त्याला लाज वाटत होती.मला म्हणाला मी जळगांवला जातो आणि तिथे काम पहातो.मीही संतापात होतो म्हणालो तू कुठेही जा.पण हेच काम करायचं आणि महिन्याने मला सांगायचं कसं वाटतं ते!त्याचा एक गरीब शाळकरी मित्र जळगांवच्या समता नगरात रहातो.त्याच्याकडे तो आला.तुमच्या दुकानात कामाला लागला.मला फोन करुन त्याने हे सांगितलं. मला वाईट वाटलं.शेवटी बापाचं मन ते.पण म्हंटलं उतरु द्या याची मस्ती.अशीही त्याला सुटीच होती.रिकाम्या टवाळक्या करण्यापेक्षा आयुष्य किती खडतर आहे हे तरी शिकेल.म्हणून मी काहीही चौकशी केली नाही.मागच्या आठवड्यात त्याचा फोन आला खुप रडला.म्हणाला ‘मी आता खुप सुधारलो आहे.मी आठवड्याने परत येतो घरी’ मी म्हंटलं ‘मीच येतो.बघतो तुझं दुकान आणि तू कायकाय काम करत होतास ते’ म्हणून आज मी ते बघायला आणि त्याला घ्यायला आलोय”

राजूशेठ ते ऐकून अवाक झाले. म्हणाले

” तरीच मला वाटत होतं की हा मुलगा सफाईच्या कामाला योग्य नाहिये.पण हा काम तर छान करत होता”

प्रदीप हसला

“नाही शेठजी.मला सुरवातीला काम जमत नव्हतं पण या सगळ्या काकांनी मला खुप मदत केली.मी डबा आणत नव्हतो कारण मित्राची आई खरंच आजारी असायची पण महिनाभर यांनी त्यांच्या घासातला घास मला भरवला.माझ्याकडून खुप चुका व्हायच्या पण ते माझ्यावर कधी रागावले नाहीत.मला त्यांनी खुप सांभाळून घेतलं”

प्रदीप परत रडायला लागला तसं भास्करने त्याला जवळ घेतलं.

“अरे बेटा आपण सगळेच पोटापाण्यासाठी नोकरी करतो ना?मग आपण एकमेकांना सांभाळून घ्यायला नको?”

” हो काका.पण मला हे समजत नव्हतं.आता ते कळायला लागलं.पप्पा तुम्ही मला म्हणत होते ना की मला पैशाची, श्रमांची किंमत नाही म्हणून.मला इथं आल्यावर मेहनतीची ,पैशांची,माणसांची,अन्नाची सगळ्यांची किंमत कळायला लागलीये.पप्पा शेठजींची तीन मोठी दुकानं आहेत जळगांवात, पण त्यांना कसलाही गर्व नाही.ते कुणाशीच कधीही वाईट वागले नाहीत.कारण त्यांना माणसाच्या कष्टाची जाणीव आहे.त्यांच्या घरी काहीही कार्यक्रम झाला की ते दुकानात सगळ्यांना मिठाई वाटायचे.कधीही गरीब -श्रीमंत असा भेदभाव त्यांनी केला नाही “

“बेटा हेच मला हवं होतं.तुला ते शेवटी कळलं यातच मला समाधान वाटतंय” 

” चला साहेब तुम्हांला दुकान दाखवतो” राजूशेठ प्रदीपच्या वडिलांना म्हणाले “आणि भास्कर जरा सगळ्यांसाठी मिठाई घेऊन यायला सांग.आज एक बिघडलेला मुलगा माणसात आलाय याचा मलाही खुप आनंद होतोय” 

ते तीन मजली भव्य दुकान पाहून प्रदीपच्या वडिलांना प्रदीपच्या मेहनतीची कल्पना आली.त्यांचे डोळे भरुन आले.आलेली मिठाई खाऊन झाल्यावर ते म्हणाले.

“चला मंडळी.आता निघायची वेळ आली.तुम्ही सर्वांनी माझ्या या नाठाळ मुलाला सांभाळून घेतलं त्याबद्दल तुमचे मनापासून आभार.आणि हो पुढच्या महिन्यात प्रदीपचा वाढदिवस आहे.तुम्ही सगळ्यांनी धुळ्याला पार्टीला जरुर यायचं आहे.गाडी करुनच या सगळे.खर्चाची काळजी करु नका.गाडीचा खर्च मी करेन.”

प्रदीप उठला .सगळ्या सेल्समन आणि नोकरांच्या पाया पडला.मग शेठजींकडे आला तसं शेठजी त्याला जवळ घेऊन म्हणाले

“बेटा तुझ्या वडिलांनी आणि तु ही नव्या पिढिसाठी एक आदर्श घालून दिलाय”

प्रदीप आणि त्याचे वडील गाडीत जाऊन बसले तसे सर्वजण त्यांना निरोप द्यायला बाहेर आले.गाडी निघाली.निरोपाचे हात हलले.

प्रत्येकजण आत येऊन आपापल्या कामाला लागला.शेठजींना काऊंटरवर  बसल्यावर आपल्या अशाच बिघडलेल्या मुलाची आठवण झाली. सध्या तो पुण्यात इंजीनियरींग करत होता.तो करत असलेले रंगढंग,त्याला लागलेली व्यसनं त्यांच्या कानावर आली होती.त्याला सुधारण्यासाठी प्रदीपसारखं काही करता येईल का याच्या विचारात ते गढून गेले.

– समाप्त – 

© श्री दीपक तांबोळी

जळगांव

मो – 9503011250

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ एक धागा अंतरीचा गाभा… (विषय एकच… काव्ये दोन) ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि श्री ए के मराठे ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  एक धागा अंतरीचा गाभा… (विषय एकच… काव्ये दोन) ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि श्री ए के मराठे ☆

श्री आशिष बिवलकर   

? – एक धागा अंतरीचा गाभा– ? ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

( १ )

गुंफल्या या मूक कळ्या 

गजऱ्याची झाल्या शोभा |

शल्य ना मनी कशाचे,

एक धागा अंतरीचा गाभा |

एक एक कळी गुंफली 

एकमेकींचे वाढवले सौंदर्य |

क्षणभंगुर या जीवनात,

जोपासले आनंदाचे औदार्य |

रंग रूप गंध लाभे,

एक दिवसाचा साज |

सुकता कुणी न पाहे,

आनंदे जगून घेती आज |

गजरा म्हणून एक ओळख,

कोणाचे कुंतल सजवती |

हातात कुणाच्या बांधून ,

मैफलीत गंध दरवळती |

प्रारब्ध होई धागा,

गुंफतो आपल्या कर्माच्या माळा |

क्षण क्षण सत्कारणी लावावा,

सार्थ करावा जीवनाचा सोहळा |

आनंद या जीवनाचा,

सुगंधापरी दरवळावा |

सार लाभल्या आयुष्याचा,

कळ्यांना पाहून ओळखावा |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

श्री ए के मराठे

? – एक धागा अंतरीचा गाभा… – ? ☆ श्री ए के मराठे ☆

( २ )

कळ्या निमूट ओवून घेतात

गजऱ्यामधे स्वतःला

दोष देत बसत नाहीत

सुईला वा सुताला ll

कारण त्यांना माहीत असतं

हेच त्यांचं काम आहे

क्षणभंगुर मिळालेलं आयुष्य

जगण्यामधेच राम आहे ll

रूप,रंग एका दिवसाचा

गंधही उद्या राहणार नाही

फुल होऊन कोमेजल्यावर

ढुंकूनही कुणी पाहणार नाही ll

म्हणून म्हणतो जसं,जेवढं

मिळालंय जीवन जगून घ्यावं

विषालाही अमृत समजून

हसत हसत चाखून प्यावं ll

कवी : श्री ए के मराठे

कुर्धे, पावस, रत्नागिरी

मो. 9405751698

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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