हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #257 ☆ साथ और हालात… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख साथ और हालात। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 257 ☆

☆ साथ और हालात… ☆

साथ देने वाले कभी हालात नहीं देखते और हालात देखने वाले कभी साथ नहीं देते। दोनों विपरीत स्थितियाँ हैं, जो मानव को सोचने पर विवश कर देती हैं। साथ देने वाले अर्थात् सच्चे मित्र व हितैषी कभी हालात नहीं देखते बल्कि विषम परिस्थितियों में भी सदैव अंग-संग खड़े रहते हैं। वे निंदा-स्तुति की तनिक भी परवाह नहीं करते तथा आपकी अनुपस्थिति में भी आपके पक्षधर बन कर खड़े रहते हैं। वे आपकी बुराई करने वालों को मुँहतोड़ जवाब देते हैं। वे समय की धारा के साथ रुख नहीं बदलते बल्कि पर्वत की भांति अडिग व अटल रहते हैं। उनकी सोच व दृष्टिकोण कभी परिवर्तित नहीं होता। वे केवल सुखद क्षणों में ही आपका साथ नहीं निभाते बल्कि विपरीत परिस्थितियों में भी आपके साथ ढाल बनकर खड़े रहते हैं। वे मौसम के साथ नहीं बदलते और ना ही गिरगिट की भांति पलभर में रंग बदलते हैं। उनकी सोच आपके प्रति सदैव समान होती है।

‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं’ शाश्वत् सत्य है तथा स्वरचित पंक्तियाँ उक्त संदेश प्रेषित करती हैं कि प्रकृति के नियम अटल हैं। रात के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व मौसम के साथ फूल-पत्तियाँ बदलती रहती हैं। सुख व दु:ख में परिस्थितियाँ भी समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। ‘जो आया है, अवश्य जाएगा’ पंक्तियाँ मानव की नश्वरता पर प्रकाश डालती हैं। मानव इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही यहाँ से लौट कर जाना है। ‘मत ग़ुरूर कर बंदे!/ माटी से उपजा प्राणी,  माटी में ही मिल जाएगा।’ सो! मानव को स्व-पर, राग-द्वेष, निंदा-स्तुति व हानि-लाभ से ऊपर उठ जाना चाहिए अर्थात् हर परिस्थिति में सम रहना कारग़र है। मानव को इस कटु सत्य को स्वीकार लेना चाहिए कि हालात देखने वाले कभी साथ नहीं देते। वे आपकी पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान व धन-वैभव से आकर्षित होकर आपका साथ निभाते हैं और तत्पश्चात् रिवाल्विंग चेयर की भांति अपना रुख बदल लेते हैं। जब तक आपके पास पैसा है तथा आपसे उनका व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध होता है; वे आपका गुणगान करते हैं। जब आपका समय व दिन बदल जाते हैं; आपदाओं के बादल मँडराते हैं तो वे आपका साथ छोड़ देते हैं और आपके आसपास भी नहीं फटकते।

यह दस्तूर-ए-दुनिया है। जैसे भंवर में फँसी नौका हवाओं के रुख को पहचानती है; उसी दिशा में आगे बढ़ती है, वैसे ही दुनिया के लोग भी अपना व्यवहार परिवर्तित कर लेते हैं। सो! दुनिया के लोगों पर भरोसा करने का कोई औचित्य नहीं है। ‘मत भरोसा कर किसी पर/ सब मिथ्या जग के बंधन हैं/ सांचा नाम प्रभु का/ झूठे सब संबंध हैं/… तू अहंनिष्ठ/ ख़ुद में मग्न रहता/ भुला बैठा अपनी हस्ती को।’ यह दुनिया का चलन है और प्रचलित सत्य है। उपरोक्त पंक्तियाँ साँसारिक बंधनों व मिथ्या रिश्ते-नातों के सत्य को उजागर करती हैं तथा मानव को किसी पर भरोसा न करने का संदेश प्रेषित करते हुए आत्म-चिंतन करने को विवश करती हैं।

मुझे स्मरण हो रहा है जेम्स ऐलन का निम्न कथन कि ‘जिसकी नीयत अच्छी नहीं होती, उससे कोई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होता।’

वैसे नीयत व नियति का गहन संबंध है तथा वे अन्योन्याश्रित हैं। यदि नीयत अच्छी व सोच सकारात्मक होगी, तो नियति हमारा साथ अवश्य देगी। इसलिए प्रभु की सत्ता में सदैव विश्वास रखिए, सब अच्छा, शुभ व मंगलकारी होगा। वैसे भी मानव को हंस की भांति निश्चिंत व विवेकशील होना चाहिए।  जो मनभावन है, उसे संजो लीजिए और जो अच्छा ना लगे, उसकी आलोचना मत कीजिए, क्योंकि विवाह के सभी गीत सत्य नहीं होते। सो! मानव को आत्मकेंद्रित होना चाहिए और विपरीत परिस्थितियों में धैर्य, साहस व अपना आपा नहीं खोना चाहिए, क्योंकि हर इंसान सुखापेक्षी है। वह अपने दु:खों से अधिक दूसरों के सुखों से अधिक दु:खी रहता है। इसलिए दु:ख में वह आगामी आशंकाओं को देखते हुए अपने साथी तक को भी त्याग देता है, क्योंकि वह किसी प्रकार का खतरा मोल लेना नहीं चाहता।

‘अगर आप सही अनुभव नहीं लेते, तो निश्चित् है आप ग़लत निर्णय लेंगे।’ हेज़लिट का यह कथन अनुभव व निर्णय के अन्योन्याश्रित संबंध पर प्रकाश डालते हैं। हमारे अनुभव हमारे निर्णय को प्रभावित करते हैं, क्योंकि जैसी सोच वैसा अनुभव व निर्णय। मानव का स्वभाव है कि वह आँखिन देखी पर विश्वास करता है, क्योंकि वह सत्यान्वेषी होता है।

‘मानव मस्तिष्क पैराशूट की तरह है, जब तक खुला रहता है; तभी तक का सक्रिय व कर्मशील रहता है।’ लार्ड डेवन की उपर्युक्त उक्ति मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालती है, जो स्वतंत्र चिंतन की द्योतक है। यदि इंसान संकीर्ण मानसिकता में उलझा  रहता है, तो उसका दृष्टिकोण उदार व उत्तम कैसे हो सकता है? ऐसा व्यक्ति दूसरों के हित के बारे में कभी चिंतित नहीं रहता बल्कि स्वार्थ साधने के निमित्त कार्यरत रहता है। उसे विश्वास पात्र समझने की भूल करना सदैव हानिकारक होता है। ऐसे लोग कभी आपके हितैषी नहीं हो सकते। जैसे साँप को जितना भी दूध पिलाया जाए, वह डंक मारने की आदत का त्याग नहीं करता। वैसे ही हालात को देखकर निर्णय लेने वाले लोग कभी सच्चे साथी नहीं हो सकते, उन पर विश्वास करना जीवन की सबसे बड़ी अक्षम्य भूल है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ ☆ दस्तावेज़ # 2 – मारिशस से ~ मेरा एक संस्मरण – अविस्मरणीय नौका विहार — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी के चुनिन्दा साहित्य को हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करते रहते हैं। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं।

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है मारिशस से श्री रामदेव धुरंधर जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “नौका विहार”।) 

☆ दस्तावेज़ # 2 – मारिशस से ~ मेरा एक संस्मरण — अविस्मरणीय नौका विहार — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆ 

(इस दस्तावेज़ में श्री रामदेव धुरंधर जी की मारिशस में आयोजित “विश्व हिन्दी सम्मेलन 1976” में  डा. शिवमंगल सिंह सुमन जी, हजारीप्रसाद द्विवेदी जी,  उपेन्द्रनाथ अश्क जी, अमृतलाल नागर जी, विष्णु प्रभाकर जी और डा. रमानाथ  त्रिपाठी जी से संबन्धित अविस्मरणीय ऐतिहासिक यादें जुड़ी हुई हैं) 

‘नौका विहार’ शीर्षक से मेरा यह संस्मरण मॉरिशस में आयोजित [सन् 1976] विश्व हिन्दी सम्मेलन से संबद्ध है। 

सुबह का वक्त था। ड्राइवर वैन चला रहा था। हम पूर्वी प्रांत में पड़ने वाले पंच सितारा ‘त्रू ओ बिश होटल’ के लिए जा रहे थे। मैंने उस होटल में ठहरे हुए डा. शिवमंगल सिंह सुमन जी से कहा था सुबह वाहन ले कर होटल पहुँच जाऊँगा। उन्हें घुमाने ले जाने की मेरी सरकारी ड्यूटी थी। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी भी उसी होटल में थे। इन दोनों के साथ होना मेरे मन के अनुकूल था। वहाँ और भी तीन भारतीय थे जो साथ में होते। अगला दिन भी मेरे लिए एक शानदार दिन होता। उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर और डा. रमानाथ  त्रिपाठी जी को इन्हीं की तरह सैर के लिए ले जाना था। ये चारों किसी और होटल में ठहरे हुए थे। मैंने अमृतलाल नागर जी से बात कर ली थी। मैं उन्हें ‘परी तालाब’ की ओर ले जाने वाला था। वे लेखक थे। मैं परी तालाब की कहानी उन्हें सुनाता। उधर बहुत जंगल पड़ने से वातावरण शांत रहता है। पर आज जब उस दिन की बात लिख रहा हूँ इस जमाने में परी तालाब का नाम परिवर्तित हो गया है। लगभग तीस साल हुए परी तालाब का परिवर्तित नाम अब ‘गंगा तालाब’ है। 

हजारीप्रसाद द्विवेदी और शिवमंगलसिह सुमन जी से संबंधित संस्मरण में आगे बढ़ने से पहले मैं यहाँ एक विशेष बात लिखने के लिए अपने को बहुत ही उत्सुक पा रहा हूँ। वह बात इस तरह से है हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने एक दिन पहले सम्मेलन में एक सत्र की अध्यक्षता की थी। बोलने में वे विस्मयकारी थे। मैं अपने दिल की बात कह रहा हूँ। उन्हें सुनना मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य था। भारतीय टोली की अध्यक्षता राजनेता करण सिंह जी ने की थी। उनके परिचय में लिखा हुआ पढ़ कर मैंने जाना था वे जम्मू और कश्मीर के महाराजा थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी जब बोलने के लिए खड़े हुए थे श्रोता के रूप में सामने बैठे हुए करण सिंह जी ने जा कर उनके चरण स्पर्श किये थे।

हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था वे समझना चाहते हैं हिन्दी में इतने कवि कहाँ से निकलते चले आ रहे हैं।

आज मुझे लगता है महान गद्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने यह व्यंग्य में कहा था और लोगों ने व्यंग्य मान कर ही तालियाँ बजायी थीं। अब जो खालिस कवि हों और हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की परिभाषा से कहीं से निकलते चले आ रहें हों तो उस वक्त सब के बीच होने से जरूर बगलें झाँक रहे हों। भारतीय कवियों की बात तो मैं न जानता। अलबत्ता अपने देश के कवियों को मैं जानता था। उन दिनों मॉरिशस में सचमुच ऐसी स्थिति बन आयी थी काव्यकारी के जोश में मानो वाकई कवि कहीं से निकलते चले आ रहे हों।

हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का भाषण मौखिक था। वह टेप कर लिया गया था। बाद में वह गगनांचल में प्रकाशित हुआ था। पढ़ने पर मुझे लगा था उनका बोला स्वयं में एक उत्कृष्ट साहित्य था।

त्रू ओ बिश होटल पहुँचने पर ड्राइवर ने वैन पार्किग में खड़ा किया। होटल के गेट पर मेरा नाम लिखा गया। गॉर्ड को पता था मैं आने वाला हूँ। मंत्रालय की ओर से वहाँ सूचना पहुँचा दी गयी थी। इसका मतलब था मैं सरकारी नियम में बंधा हुआ था। मुझे जो करना होता मेरे ध्यान में रहता नियम का उल्लंघन न हो। पर यहाँ जो होना था वह नियम पर मानो प्रहार जैसा होता। इसका खुलासा मैं नीचे की पँक्तियों में करने वाला हूँ। रिशेप्शन में अपना नाम कहने से मुझे ठहरने के लिए कहा गया। सुमन जी को फोन से सूचना पहुँची। थोड़ी देर बाद मैंने देखा सुमन जी झपटते चले आ रहे थे। उनके आते ही मैंने उनके चरण स्पर्श किये। वे जिंदादिल इंसान थे। मुझसे मित्रवत मिले। उन्होंने कहा अच्छा हुआ मैं पहुँच गया। पर आज सुबह उन लोगों के बीच योजना बनी थी होटल की ही सरपरस्ती में उनके लिए नौका विहार का आयोजन हो। सुमन जी मेरे लिए एक कागज लिख कर रिशेप्शन में छोड़ देते वे कहीं और के लिए निकल गए हैं। उन दिनों मोबाइल जैसी सुविधा तो थी नहीं। स्थायी फोन से भी संपर्क करना कठिन ही होता। अब जब मैं पहुँच गया तो वे मौखिक मुझे समझा रहे थे आज की उनकी योजना कैसी बनी है। सुमन जी मेरी ओर से आश्वस्त थे। वे कह रहे थे मैं हालत समझ जाने पर उन्हें अन्यथा न लेता। मॉरिशस में दो चार दिनों के अपने प्रवास का अपने तरीके से लाभ उठाना इन लोगों को आवश्यक भी तो लगता।

अब जब नौका विहार के लिए उनके निकलने से पहले मैं पहुँच गया और मुलाकात हो गयी तो मेरे लिए यही शेष रहता ड्राइवर और मैं वैन में लौट जाते। मंत्रालय लौटने पर हम कह देते उन लोगों ने आज का अपना कार्यक्रम अपने तरीके से बना लिया है। पर सुमन जी ने मेरे साथ एक दूसरी बात की। उन्होंने मुझसे कहा जा कर ड्राइवर से कह दूँ यहीं कुछ घंटों के लिए तुम्हारा इंतजार करे। तुम नौका विहार में हमारे साथ जा रहे हो।

यह तो मेरे लिए काफी कठिन परिस्थिति हुई। यह मेरी ड्यूटी का हिस्सा नहीं था। मैंने मंत्रालय से वाहन लिया था तो वहाँ लिखित पड़ा हुआ था मैं कहाँ – कहाँ उन लोगों को ले कर जाने वाला हूँ। अब मान लें वैन यहीं रहे और मैं ड्राइवर से बात करूँ तो वह मान जाये। पर दिशांतर तो हो रहा था। थल की अपेक्षा अब हम जल में होते। वे स्वयं जाते और मैं उनके साथ न होता तो जिम्मेदारी उनकी अपनी होती।

पर अब मैं सरकारी आदमी दिशांतरता के कारण समुद्र में होता और कुछ हो जाता तो मेरी खैर नहीं। मेरा इतना बड़ा धर्म संकट बन आने से मैं यह सब सुमन जी से नहीं कहता। मैंने उनसे दोबारा यही कहा आप लोग जायें और मैं वापस चला जाता हूँ। पर उन्होंने तो इस बार भी नहीं माना। तब तो मैं अब मानो हिल डुल पाता ही नहीं। इतने बड़े आदमी से कितनी बार इन्कार का रुख दिखाता। मैंने जैसे तैसे उन्हें मान लिया और ड्राइवर को कहने चल दिया। मुझे सुनने पर ड्राइवर नाराज हुआ। उसकी नाराजगी सही थी। उसने मेरे सामने योजना रखी लौट चलते हैं। मैं भी तो लौटने की ही सोच रहा था। पर इस समाधान में रोड़ापन था। हम लौट जाते और वहाँ नाव में छेद हो जाता तो हमारे पास कौन सा उत्तर होता। चलें हम कह देते हमारे पहुँचने से पहले वे निकल चुके थे और हमें वापस होना पड़ा। यह हमारी निष्कलंकता तो हो जाती लेकिन मेरा मन नहीं माना।

वास्तव में यह कितना बड़ा फरेब होता सुमन जी के कहने पर मैं ड्राइवर से मिलने आया और लौट कर उनके पास गया नहीं। क्या मेरे लौटने का वे इंतजार न करते? अब जो भी हो मेरे मन में यही आया कम से कम मैं सुमन जी से धोखा नहीं कर सकता। मैं किसी तरह ड्राइवर को समझा बुझा कर होटल की ओर लौट गया।  

अब तक नौका विहार के लिए जाने की तैयारी हो चुकी थी। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी तो मेरे खूब पहचाने हो गये थे। बाकी तीन मेरे लिए लगभग अनजान ही थे। सुमन जी ने हजारीप्रसाद द्विवेदी जी से कहा धुरंधर भी हमारे साथ चल रहे हैं। अजीब ही था मानो समुद्र में चलना था। मेरा गणित गड़बड़ा जाने से मैं शायद दिमाग से बहुत ही डँवाडोल होने लगा था। पर उन्हें मेरी आंतरिक दशा कहाँ मालूम होती। मैं साथ जाता तो हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने इसके लिए खुशी जतायी। बाकी तीनों ने सिर हिला कर कहा तब तो अच्छी बात है।

नौका ले जाने वाला क्रृओल था। वह समझ तो गया था मैं बाहरी आदमी हूँ। बल्कि देशी आदमी हूँ और उन लोगों से मिलने आया हूँ। उनके साथ मेरे जाने की बात हो रही थी तो मामला यहाँ कुछ उलझा। नौका चालक ने कृओल में मुझसे कहा मेरे लिए अतिरिक्त पैसा लगेगा। यही नहीं नौका चालक ने अब सीधे मेहमानों से अंग्रेजी में बात की। उसने नम्रता से ही कहा मेरे होने से पैसा अधिक लगेगा। उसने अपनी मजबूरी इस रूप में दिखायी वह तो कर्मचारी है। पैसा होटल के खाते में जायेगा। उससे इतना सुनते ही सुमन जी ने कहा उनके खाते में जोड़ दे। अब मुझे पता चला नौका विहार का पूरा खर्च सुमन जी वहन कर रहे थे। यह मेरे हौसले के लिए बहुत था। चलें अब मैं अपना गणित इस तरह से बनाता मैं सुमन जी का मेहमान था और वे मेरे नाम का खर्च चुकाना मान रहे थे। दो घंटे के लिए नौका विहार था। एक घंटे के लिए नौका जाती और एक घंटा उसके लौटने के लिए होता। 

प्रकांड विद्वान हजारीप्रसाद द्विवेदी जी उस वक्त मानो सब के समकक्ष थे। दूसरे बोलें तो वे भी बोलते। उनकी विराटता मानो एक तरह से लुप्तप्राय थी। यह मेरे लिए अच्छा ही था। अन्यथा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी से प्रत्यक्ष बोलने से शायद मेरे मन में कंपन होता। हाँ घुमाने के लिए उन्हें ले जा रहा होता तो मेरी भाषा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के साथ कहीं ज्यादा मुखर होती। वे मॉरिशस के बारे में मुझसे कुछ भी पूछ लेते मेरे पास जवाब तैयार रहता। मानो वहाँ मेरे मन की गंगा खूब अठखेलियों में मस्त होती जब कि यहाँ परिस्थितिवश मेरे मन की गंगा ऐसे सो रही होती कि उसकी मदमस्त मौजों के एक कतरे का आभास ही न होता हो।

नौका चली और मैंने बस अपने भगवान से कहा उबड़ खाबड़ न हो भगवन ! वास्तव में ये लोग अपने देश के नगीने हैं। मैं भी तो अपने देश में छोटा मोटा नगीना ही हूँ। पर किसी कारणवश नौकरी जाये तो कुत्ता भी हाल चाल न पूछे।  

यहाँ तक मैंने जो लिखा यह मेरे संस्मरण का एक अंश है। इस अंश से मेरे संस्मरण में इतना ही हो रहा है एक संशय में घिरा हुआ हूँ मानो मेरी बेचारगी का वह एक बहुत बड़ा पक्ष हो। इतनी सी ही बात होती तो मैं यह संस्मरण लिखता नहीं। पर बात इससे आगे और भी है। उसी से मेरा यह संस्मरण अपना वजूद पा सकता था। 

नाव में नीचे शीशा लगा हुआ था। शीशे का करिश्मा ऐसा था कि छोटी मछलियाँ बड़ी दिखाई देती थीं। इस करिश्मे को न जानें तो वहम हो पड़े नीचे विचरने वाली विशालकाय मछलियाँ तो नाव को उलाट ही देंगी। मछलियाँ नाव से टकराती भी थीं। यह समुद्री इलाका ऐसा है जहाँ समुद्र में नीचे मानो विस्मयकारी प्रवाल बिछे हुए हैं। प्रवाल के ऐसे – ऐसे आकार थे मानो मनुष्य हों या भीमकाय जानवर हों। प्रागैतिहासिक दृश्यों का भी मानो आभास हो रहा हो। वह समुद्र के निचले तल का मानो एक विचित्र संसार हो। पर इतना तय था मगरमच्छ नहीं थे। बीच – बीच में प्रवाल से जहाँ – जहाँ जगह बचती हो उन्हीं के बीच मछलियाँ तैरती दिखाई दे रही थीं। मछलियाँ रंग बिरंगी थीं।

विशेष कर सुमन जी प्रवाल और मछलियों को अपने पैरों के नीचे शीशे में देखने पर तो उछल ही पड़ते थे। वे कहते थे यह देखो वह देखो। उनकी आवाज में मानो बड़ा ही भोलापन था। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने सहसा उनसे कहा यह तो हम देखते रहेंगे। अब तुम अपनी आवाज से हमें कुछ दिखाओ। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की फरमाइश थी वे ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता का पाठ करें। यह तो सुमन जी के अनुकूल ही था। बल्कि उन्होंने मानो संकेत ठोंक दिया था वे यह काव्य सुनाएँगे। सुमन जी अब सहसा गंभीर हो गये थे। उन्होंने अपना हाथ नाव से बाहर सरसरा कर अपनी अंजुरी में पानी भर लिया था। उन्होंने अब पानी को समुद्र में बहा दिया। स्पष्ट प्रतीत हो रहा था वे कविता सुनाने की भावना से ओत प्रोत हो गये थे।

उन्होंने सहसा मुझसे कहा था मॉरिशस के लोगों ने जरूर महाकवि निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता पढ़ी होगी। बड़ी अद्भुत कृति है।

कहने की मेरी बारी होने से मैं विनम्रतापूर्वक कहता। मुझे कहीं पढ़ने को मिला था सुमन जी ने ‘राम की शक्ति पूजा’ आद्यंत कंठस्थ कर रखा है। मैंने यह कहा तो सुमन जी चौंक पड़े और हजारीप्रसाद द्विवेदी जी तो तालियाँ बजाने लगे। मैंने उत्तर में कहा यह काव्य यहाँ प्रचलित है। मैंने अपने उदाहरण से कहा यह काव्य यहाँ एक पाठ्यक्रम में संलग्न है। इन दिनों मैं अपने विद्यार्थियों को यह पढ़ा रहा हूँ। पर मैं स्वीकार करता हूँ मैं आधा ही समझ पाता हूँ और वही अपने विद्यार्थियों को समझाने का प्रयास करता हूँ।

अब एक तरह से तो मैदान मेरे हवाले हो गया। सुमन जी ने कह दिया वे यह काव्य अपने कंठ से मुझे समर्पित कर रहे हैं। यह मेरे लिए अद्भुत चमत्कार था। वे सुनाने की प्रक्रिया में उसमें खो जाते थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी बहुत सी पँक्तियों में उनका साथ दे रहे थे।

उन दिनों मेरी उम्र तीस थी और लेखन में तो मैं बस कच्चा ही था। पर लेखन की मेरी भावना प्रबल होने से मुझे लगता है मेरा मार्ग ऐसा बन जाता था भारत के बड़े रचनाकारों से तो मुझे मिलना ही है। 

***
© श्री रामदेव धुरंधर

16 – 11 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – विश्वविभूति महात्मा गांधी — लेखक – डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 22 ?

? विश्वविभूति महात्मा गांधी — लेखक – डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

 

पुस्तक का नाम-  विश्वविभूति महात्मा गांधी

विधा- जीवनी

लेखक- डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’

? मूर्ति से बाहर के महात्मा गांधी  श्री संजय भारद्वाज ?

महात्मा गांधी का व्यक्तित्व वैश्विक रहा है। अल्बर्ट आइंस्टाइन का कथन ‘आनेवाली पीढ़ियाँ आश्चर्य करेंगी कि हाड़-माँस का  चलता-फिरता ऐसा कोई आदमी इस धरती पर हुआ था’ गांधीजी के व्यक्तित्व के चुंबकीय प्रभाव को दर्शाता है। यही कारण है कि लंबे समय से विश्व के चिंतकों, राजनेताओं तथा आंदोलनकारियों  को गांधीजी की बहुमुखी प्रतिभा के विभिन्न आयाम आकर्षित करते रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि महात्मा गांधी के प्रति चिर आकर्षण और भारतीय मानस में बसी श्रद्धा ने डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ को उन पर पुस्तक लिखने को प्रेरित किया।

डॉ. गुप्त द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विश्वविभूति महात्मा गांधी’ राष्ट्रपिता पर लिखी गई एक और पुस्तक मात्र कतई नहीं है। 248 पृष्ठों की यह पुस्तक एक लघु शोध ग्रंथ की तरह पाठकों के सामने आती है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व विशेषकर उनके जीवन के अंतरंग और अनछुए पहलुओं को लेखक ने पाठकों के सामने रखा है। विषय पर कलम चलाते समय लेखक ने विश्वविभूति  के जीवन के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों को ज्यों का त्यों ईमानदारी से वर्णित किया है। यह साफ़गोई पुस्तक को लीक से अलग करती है।

वस्तुतः लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था भर नहीं अपितु जीवन शैली होता है। इसकी सार्वभौमिकता लेखन पर भी लागू होती है। प्रस्तुत पुस्तक इस सार्वभौमिकता का उत्तम उदाहरण है। सामान्यतः अपनी विचारधारा के आग्रह में अनेक बार लेखक यह भूल जाता है कि शब्दों का एक छोर लेखक के पास है तो दूसरा पाठक के हाथ है। बाँचे जाने के बाद ही स्थूल रूप से शब्द की यात्रा संपन्न होती है। डॉ. गुप्त ने घटनाओं का वर्णन किया है पर विश्लेषण पाठक की नीर-क्षीर विवेक बुद्धि पर छोड़ दिया है। पुस्तक को इस रूप में भी विशिष्ट माना जाएगा कि शैली और प्रवाह इतने सहज हैं कि वर्णित प्रसंग हर वर्ग के पाठक को बाँधे रखते हैं। अधिक महत्वपूर्ण है कि सभी 40 अध्याय एक चिंतन बिंदु देते हैं। यह चिंतन असंदिग्ध रूप से पाठक की चेतना को झकझोरता है।

गांधी के जीवन पर चर्चा करते हुए लेखक ने उन रसायनों की ओर संकेत किया है जिनके चलते गांंधी ने जीवन को प्रयोगशाला माना। ‘श्रीमद्भागवत गीता’ और रस्किन की पुस्तक ‘ अन टू दिस लास्ट’ का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। ‘न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित’अर्थात मनुष्य से श्रेष्ठ कोई नहीं।’ तेरहवीं शती का यूरोपिअन रेनेसाँ मनुष्य की इसी श्रेष्ठता का तत्कालीन संस्करण था।  रेनेसाँ  का शब्दिक अर्थ है-‘अपना राज या स्वराज’। यहाँ स्वराज का अर्थ शासन व्यवस्था पर नहीं अपितु मनुष्य का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण है। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की सनातन भारतीय अवधारणा कोे रस्किन ने ‘समाज के अंतिम आदमी तक पहुँचना’ निरूपित किया। ‘अंत्योदय’ या ‘ अन टू दिस लास्ट’ का  विस्तार कर गांधीजी ने इसका नामकरण ‘सर्वोदय’ किया। उनके सर्वोदय का उद्देश्य था-सर्व का उदय, अधिक से अधिक का नहीं और मात्र आख़िरी व्यक्ति का भी नहीं।

सर्वोदय की अवधारणा को स्वतंत्र भारत के साथ जोड़ते हुए ‘हरिजन’ पत्रिका में उन्होंने लिखा,‘ भारत की ऐसी तस्वीर मेरे मन में है जो प्रगति के रास्ते पर अपनी प्रतिभा के अनुकूल दिशा पकड़कर लगातार आगे बढ़े। भारत की तस्वीर बिलकुल ऐसी नहीं है कि वह पश्चिमी देशों की मरणासन्न सभ्यता के तीसरे दर्ज़े की नकल जान पड़े। अगर मेरा सपना पूरा होता है तो भारत के सात लाख गाँवों में से हर गाँव में  एक जीवंत गणतंत्र होगा। एक ऐसा गाँव जहाँ कोई भी अनपढ़ नहीं होगा, जहाँ कोई भी काम के अभाव में खाली हाथ नहीं बैठेगा, जहाँ सबके पास रोज़ की सेहतमंद रोटी, हवादार मकान और तन ढकने के लिए ज़रूरतभर कपड़ा होगा।’

रमेश गुप्त ने गांधी दर्शन के सूक्ष्म तंतुओं को छुआ है। भारतीय समाज को गांधीजी की वास्तविक देन का एक उल्लेख कुछ यों है,‘ गांधीजी धर्मांधता, धन-शक्ति और बाज़ारवाद को समाप्त करना चाहते थे। कहा जाता था कि गांधीजी ने तीन ‘ध’ समाप्त किए- धर्म, धंधा और धन। इनके बदले तीन ‘झ’ दिए- झंडा, झाड़ू और झोली।’  

आत्मविश्लेषण और सत्य का स्वीकार गांधीजी के निजी जीवन की विशेषता रही। इस विशेषता ने गांधी को मानव से महामानव बनाया। यों भी कोई महामानव के रूप में कोख में नहीं आता। इसके लिए रत्नाकर से वाल्मीकि होना एक अनिवार्य प्रक्रिया है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में अपने जीवन की अधिकांश गलतियाँ स्वीकार की हैं। जॉन एस. होइलैंड से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा,‘ पत्नी को अपनी इच्छा के आगे झुकाने की कोशिश में मैंने उनसे अहिंसा का पहला सबक सीखा। एक ओर तो वह मेरे विवेकहीन आदेशों का दृढ़ता से विरोध करतीं, दूसरी ओर मेरे अविचार से जो तकलीफ़ होती उसे चुपचाप सह लेती थीं। इस तरह अहिंसा की शिक्षा देनेवाली वे मेरी पहली गुरु बनीं।’ आरंभिक समय में कस्तूरबा पर शासन करने की इच्छा रखनेवाले गांधी जीवन के उत्तरार्द्ध में उनसे कैसे डरने लगे थे, इसका भी वर्णन लेखक ने एक मनोरंजक प्रसंग में किया है।

जैसाकि संदर्भ आ चुका है, गांधीजी गीता को जीवन के तत्वज्ञान को समझने के लिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानते थे। गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोकों ‘ध्यायतो विषयान्यंसः संगस्तेषूपजायते/संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते/क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः/स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशत्प्रणश्यति’ में उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा पाठ पढ़ा। श्लोकों का भावार्थ है कि विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष को उनमें आसक्ति उपजती है, आसक्ति से कामना होती है और कामना से क्रोध उपजता है, क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया, वह मृतक तुल्य है।

डॉ. गुप्त लिखते हैं कि इस भावार्थ ने मोहनदास के जीवन में क्राँतिकारी परिवर्तन ला दिया। उनकी यात्रा मृत्यु से जीवन की ओर मुड़ गई। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों की खर्चीली जीवनशैली से प्रभावित व्यक्तित्व मितव्ययी बन गया। वह अपने कपड़े खुद धोने लगा। अपने बाल मशीन से खुद काटने लगा।  माँसाहार की ओर आकृष्ट होनेवाले ने शाकाहार क्लब बनाया। वकालत में जिन मुकदमों को लड़ते रहने से मोटी रकम मिल सकती थी, उनमें भी दोनों पक्षों के बीच सुलह करवाई। पत्नी को भोग की वस्तुभर माननेवाले ने दाई बनकर अपनी पत्नी का प्रसव भी खुद कराया। असंयमित जीवन जीनेवाला मोहनदास मन, वचन, काया से इंद्रियों पर संयम कर पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन जीने लगा। चर्चिल के शब्दों में वह ‘नंगा फकीर’ हो गया।

लेखक ने गांधीजी के जीवन के ‘ग्रे शेडस्’ पर कलम चलाते समय भाषाई संयम, संतुलन और मानुषी  सजगता  को बनाए रखा है। इतिहास साक्षी है कि गांधीजी जैसा राजनीतिक चक्रवर्ती अपने घर की देहरी पर परास्त हो गया। अन्यान्य कारणों से बच्चों को उच्च शिक्षा ना दिला पाना, बड़े बेटे हरिलाल का पिता से विद्रोह कर धर्म परिवर्तन कर लेना, शराबी होकर दर-दर भटकना और गुमनाम मौत मरना, राष्ट्रपिता की पिता के रूप में असफलता को रेखांकित करता है।

विरोधाभास देखिए कि अपने घर का असफल स्रष्टा सार्वजनिक जीवन में उन ऊँचाइयों पर पहुँचा कि युगस्रष्टा कहलाया। इंग्लैंड में बैरिस्टरी, द. अफ्रीका की यात्रा में हुआ अपमान, भारत में वकालत में मिली असफलता, पुनः अफ्रीका यात्रा, वहाँ सशक्त राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने जैसे प्रसंगों की पुस्तक में समुचित चर्चा की गई है। दक्षिण अफ्रीका में आंदोलन को आरंभ में उन्होंने ‘पैसिव रेजिस्टेंस’ (निष्क्रिय प्रतिरोध) कहा। यही रेजिस्टेंस आगे चलकर सक्रिय होता गया और सदाग्रह, शुभाग्रह से होता हुआ सत्याग्रह के महामंत्र के रूप में सामने आया।

सत्याग्रह की इस शक्ति ने उनके शत्रुओं को भी बिना युद्ध के अपनी हार मानने के लिए विवश कर दिया। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें जेल में डालने का आदेश देनेवाले जन. स्मट्स को गांधीजी ने अपने हाथों से चप्पलों की एक जोड़ी बनाकर भेंट की। वर्षों बाद गांधीजी के 70 वें जन्मदिन पर मित्रता के प्रतीक रूप में वही जोड़ी उन्हें लौटाते हुए  जन. स्मट्स ने लिखा, ‘बहुत-सी गर्मियों में ये चप्पलें मैंने पहनी, हालांकि मैं महसूस करता हूँ कि मैं ऐसे महापुरुषों के जूतों में खड़े होने के योग्य भी नहीं हूँ।’

गांधी दर्शन की सबसे बड़ी शक्ति मनुष्य को इकाई के रूप में पहचानना और हर इकाई को परिष्कृत कर परिपूर्ण बनाने का प्रयास करना है। लोकतंत्र पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र वह अवस्था नहीं है जिसमें लोग भीड़ की तरह व्यवहार करें।’ उन्होंने इस बात का ख़ास ध्यान रखा कि गांधी के नेतृत्व में आंदोलन करनेवाला हर व्यक्ति गांधी हो। यही कारण था कि गांधी बनने की पाठशाला साबरमती आश्रम में एकादश व्रत- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, शरीर श्रम, सर्वधर्म समभाव और स्वदेशी अनिवार्य थे।

सत्य को किसीका डर नहीं होता। हज़ारों की भीड़ में भी वह सीना चौड़ा करके चलता है। सत्य के पुजारी की अंतिम यात्रा में बेटे देवदास के आग्रह पर उनका सीना उघड़ा ही रखा गया। सत्य के सिपाही के सीने पर लगी गोलियों के निशान बता रहे थे कि गांधी की हत्या हो गई है किंतु शवयात्रा में सहभागी लाखों गांधी साक्षी दे रहे थे कि गांधी अमर है।

गांधी की अमरता ने ही उन्हें ‘महात्मा’ की पदवी दी और विश्वविभूति बनाया। विश्वविभूति गांधी को मानवेतर मान लेना, मानव के रूप में उनकी मानव सेवा को कम आँकना होगा। इस सत्य को अपनी भूमिका में अधोरेखित करते हुए लेखक ने  राष्ट्रपिता की पौत्री सुमित्रा कुलकर्णी के कथन को उद्धृत किया है। बकौल सुमित्रा कुलकर्णी, “जिस क्षण हम गांधी को महज मूर्ति मान लेते हैं, उसी क्षण हम उन्हें पत्थर का बनाकर भूल जाते हैं। जब हम उन्हें सिर्फ मानव मानेंगे तो उन्हें पत्थर की मूर्ति में सिमटकर नहीं रहना पड़ेगा।” प्रस्तुत पुस्तक गांधी को पत्थर की मूर्ति से बाहर लाकर मनुष्य के रूप में देखने-पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करती है।

लेखक को अनंत शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #30 – गीत – आलोकित मनमंदिर मेरा… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतआलोकित मनमंदिर मेरा

? रचना संसार # 29 – गीत – आलोकित मनमंदिर मेरा…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

☆ 

रोम -रोम रोमांचित होता,

बहती प्रेम सुधा रस धारा।

जब भी कविता लिखने बैठूँ ,

लिख जाता है नाम तुम्हारा।।

 *

अन्तर्मन में बसते प्रियतम ,

हिय में है प्रतिबिंब तुम्हारा।

गंगा -यमुनी संगम अपना ,

जन्म -जन्म का प्रेम हमारा।।

रूप मनोहर कामदेव सा ,

तुम्हें निरखता मन मतवारा।

रोम -रोम रोमांचित होता ,

बहती प्रेम सुधा रस धारा।।

 *

सृजन करूँ जब – जब मैं साजन,

भावों में आती छवि प्यारी।

गीत ग़ज़ल रस अलंकार हो,

सप्त सुरों की सरगम सारी।।

पढ़कर मन नैनों की भाषा,

लिखता मन शृंगार दुलारा।

रोम -रोम रोमांचित होता,

बहती प्रेम सुधा रस धारा।।

 *

आलोकित मनमंदिर मेरा,

अंग – अंग में प्रीत समाई।

सन्दल सी सुरभित काया है,

पड़ी सजन की जो परछाई।।

रात अमावस दीप जले हैं,

पूनम सा फैला उजियारा।

रोम -रोम रोमांचित होता,

बहती प्रेम सुधा रस धारा।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #257 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 257 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

बता दिया उसने मुझे, अपने दिल का राज।

कैसे कह दूँ मैं तुम्हें, बन जाओ सरताज।।

*

 अश्क बहाने क्यों अभी, आए मेरे पास।

दिल तेरा कहने लगा, मैं हूँ  तेरी खास।।

*

कहते क्यों हो  जीवनी, भोर नहीं है रात।

कैसे तुम यह भूलते, होती कितनी  बात।।

*

समझ गए हो आज तुम, अपनी ही तकदीर।

आए जब से तुम यहाँ, हर ली मेरी पीर।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #239 ☆ एक बुंदेली गीत – हिंदुस्तान है सबको भैया… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  आपका  – एक बुंदेली गीत – हिंदुस्तान है सबको भैया…  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 239 ☆

☆ एक बुंदेली गीत – हिंदुस्तान है सबको भैया ☆ श्री संतोष नेमा ☆

मिल जुल खें सब रहबे बारे

बात समझ खें कहवे बारे

*

सड़कों पै बिन समझें उतरें

बातें ऊंची करवे बारे

*

गंगा जमुनी तहजीब हमारी

बा में हम सब पलवे बारे

*

हमरी एकता हमरी ताकत

कम हैं बहुत समझवे बारे

*

नाहक में बदनाम होउत हैं

जबरन सड़क पै उतरवे बारे

*

हिंदुस्तान है सबको  भैया 

सुखी “संतोष”संग रहवे बारे

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-९ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-९ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

.. आई जोगेश्वरी ची सेवा…

आईने नानांच्या पिठाला मीठ जोडण्यासाठी केलेल्या अनेक उद्योगांपैकी आणखी एक उद्योग म्हणजे पाळणाघर. शेजारच्या दोन मुली आणि रुबी हॉस्पिटलला एक सिस्टर होत्या, योगेशच्या आई म्हणतो आम्ही त्यांना. त्यांची दोन मुलं आणखी एक शेजारचे तान्हे बाळ पण होते. योगेशच्या आईंची शिफ्ट ड्युटी असायची. त्यांच्या वेळेप्रमाणे आईने मुलं अगदी नातवंडा सारखी सांभाळली. आई अगदी बांधली गेली होती. ही बाळं मोठी झाली त्यांनाही बाळं झाली, तरी त्या मुलांनी आणि त्यांच्या आयांनी जाणीव ठेवली. जोगेश्वरीचे दर्शन घेऊन त्या आमच्याकडे यायच्या आणि म्हणायच्या, “माजगावकर काकू जोगेश्वरी नंतर दर्शनाचा मान तुमचा आहे. देवी नंतर दर्शन घ्यावं तर ते तुमचचं.

“ज्योत से ज्योत जगाते चलो प्रेम की गंगा बहाते चलो, ” हे आईचं ब्रीदवाक्य होतं. सेवाभावी वृत्तीमुळे तिने माणसं जोडली, ती म्हणायची कात्रीसारखी माणसं तोडू नका, ‘ सुई’ होऊन माणसे जोडा. ’ पै न पै वाचवून खूप कष्ट करून सुखाचा संसार केला तिने. आईची बँक मजेशीर होती. नाणी जमवून ती एका डब्यात हळदीकुंकू वाहून पूजा करून देव्हाऱ्यात ठेवायची. आईचं रोज लक्ष्मीपूजन व्हायचं. आम्ही म्हणायचो “आई तुझी रोजच दिवाळी असते का गं ? रोज लक्ष्मीपूजन करतेस मग रोज लाडू कां नाही गं करत दिवाळीतल्या सारखे? “ आता कळतंय कशी करणार होती आई लाडू? रेशनची साखर रोजच्यालाच पुरत नव्हती. गुरविणबाई आईला नेहमी त्यांच्या घरी बोलवायच्या. त्यावेळी देवीपुढे नाणी खूप जमायची, इतकी की नाणी वेगवेगळी करण्यासाठी खूप वेळ जायचा, मान पाठ एक व्हायची. पण देवीची सेवा म्हणून आई ते पण काम करायची. गुरव श्री. भाऊ बेंद्रे हुशार होते. त्यांनी रविवार पेठेतून बोहरी आळीतून तीन-चार मोठ्या भोकाच्या चाळण्या आणल्या. आईचं बरचसं काम सोप्प झाल. भोकं बरोब्बर त्या त्या नाण्यांच्या आकाराची असायची त्यामुळे पाच, दहा, 25 पैसे, अशी नाणी त्या चाळणीतून खाली पडायची. घरी पैसे वाचवणारी आई देवीपुढची ती नाणी मोजताना अगदी निरपेक्ष प्रामाणिक असायची. गरिबी फार फार वाईट असते. गुरविणबाई आईकडे सुरुवातीला लक्ष ठेऊन असायच्या. विश्वासाने आईने त्यांचं मन जिंकलं.. दहा पैसे सुद्धा तिने इकडचे तिकडे केले नाही. चाळून झाल्यानंतर पैसे मोजणी व्हायची वेगवेगळी गाठोडी करून आकडा कागदावर लिहून त्या गाठोड्याची गाठ पक्की व्हायची.

देवळातल्या मिळकतीचा आणि त्या गाठोड्यातील पैशांचा गुरव बाईंना अभिमान होता. त्या श्रीमंत होत्या. तितक्याच लहरी पण होत्या. पण आईने त्यांची मर्जी संभाळली. मूड असला तर त्या सोबत म्हणून आईला सिनेमाला घेऊन जायच्या. आणि कधी कधी मुठी मुठीने नाणी पण द्यायच्या. जोगेश्वरीपुढे साड्यांचा ढीग पडायचा. मनात आलं तर त्या नारळ पेढे, तांदूळ, फुटाणे आणि साडीची घडी आईच्या हातात ठेवायच्या. देवीचा प्रसाद म्हणून अपार श्रद्धेने आई ती साडी घ्यायची, आणि दुसऱ्या दिवशी नेसायची तेव्हा आई आम्हाला साक्षात जोगेश्वरीच भासायची. कधीकधी गुरवबाई भरभरून एकत्र झालेले देवी पुढचे तांदूळ गहू पण आम्हाला द्यायच्या. आई त्याची सुरेख धिरडी करायची. तिची चटणी आणि बटाट्याची भाजी इतकी लाजवाब असायची की समोरच्या उडपी हॉटेलचा मसाला डोसा पण त्याच्यापुढे फिक्का पडायचा. हा जेवणातला सुरेख बदल आणि चविष्टपणा चाखून माझे वडील आईला गंमतीने म्हणायचे, ” इंदिराबाई मनात आलं तर देऊळसुद्धा गुरवीण बाई तुमच्या नावावर करून देतील. “.. “काहीतरीच तुमचं! “असं म्हणून आई गालातल्या गालात हसायची.

आईनानांच्या गरीबीच्या संसाराला विनोदाची अशी फोडणी असायची. खिडकीतून दिसणाऱ्या जोगेश्वरीच्या कळसाला हात जोडून आई म्हणायची, ” आई जगदंबे देऊळ नको मला, आई अंबे तू मात्र आमच्याजवळ हवीस. आईने मनापासून केलेली प्रार्थना फळाला आली आणि रोड वाइंडिंगमध्ये आमची जागा गेल्याने आम्हाला तिथेच (पोटभरे) मोरोबा दादांच्या पेशवेकालीन वाड्यात आम्हाला जागा मिळाली. तेही दिवस आमचे मजेत गेले. धन्यवाद त्या मोरोबादादांच्या वाड्याला आणि तुम्हालापण..

.. आई जोगेश्वरी माते तुला त्रिवार वंदन .

– क्रमशः…  

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १७ — श्रद्धात्रयविभागयोगः — (श्लोक १ ते १0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १७ — श्रद्धात्रयविभागयोगः — (श्लोक १ ते १0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अर्जुन उवाच 

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । 

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १ ॥

कथित अर्जुन 

शास्त्रविधी विरहित श्रद्धेने जे अर्चन करिती

सात्विक राजस वा तामस काय तयांची स्थिती ॥१॥

श्रीभगवानुवाच 

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । 

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ २ ॥

कथित श्रीभगवान 

देह स्वभावज श्रद्धा पार्था असते तीन गुणांची

ऐक कथितो सात्विक राजस तामस या गुणांची ॥२॥

*

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । 

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ ३ ॥

*

स्वभाव मनुजाचा श्रद्धामय तसे तयाचे रूप

अंतरी असते श्रद्धा जागृत अंतःकरणानुरूप ॥३॥

*

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः । 

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ ४ ॥

*

सात्विक भजती देवांना यक्षराक्षसांसि राजस

प्रेत भूतगणांचे पूजन करिताती ते असती तामस ॥४॥

*

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः । 

दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ ५ ॥

*

त्याग करुनिया शास्त्राचा घोर तपा आचरती

युक्त कामना दंभाहंकार बलाभिमान आसक्ती ॥५॥

*

कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः । 

मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्‌ ॥ ६ ॥

*

कृशावती कायास्थित सजीव देहांना 

तथा जेथे स्थित मी आहे त्या अंतःकरणांना

मतीहीन त्या नाही प्रज्ञा असती ते अज्ञानी

स्वभाव त्यांचा आसुरी पार्था घेई तू जाणूनी ॥६॥

*

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः । 

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥ ७ ॥

*

भोजनरुची प्रकृतीस्वभावे तीन गुणांची

यज्ञ तप दानही असती तीन प्रकाराची

स्वभावगुण असती या भिन्नतेचे कारण

कथितो तुजला भेदगुह्य ग्रहण करी ज्ञान ॥७॥

*

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः । 

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ ८ ॥

*

आयु सत्व बल आरोग्य प्रीति वर्धकाहार

सात्विका प्रिय स्थिर रसाळ स्निग्ध हृद्य आहार ॥८॥

*

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः । 

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९ ॥

*

अत्युष्ण तिखट लवणयुक्त शुष्क कटु जहाला

दुःख शोक आमयप्रद भोजन प्रिय राजसाला ॥९॥

*

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌ । 

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌ ॥ १० ॥

*

नीरस उष्ट्या दुर्ग॔धीच्या अर्ध्याकच्च्या शिळ्याप्रती

नच पावित्र्य भोजनाप्रति रुची तामसी जोपासती ॥१०॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “खरे प्रेम…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “खरे प्रेम…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

.. तो रस्त्यावरचा भटका  कुत्रा  नेहमी रात्रभर तिच्या घराच्या दाराशी जागा असायचा. एकप्रकारे तिचं संरक्षण करण्याचं व्रतच त्याने घेतलं होतं..

तिच्या मनी त्याच्याप्रती भूतदया जागृत झाल्याने, त्याला सकाळ संध्याकाळ नेमाने ब्रेड बटर प्रेमाने खाऊ घालायची.

प्रेमाने केलेल्या क्षुधाशांतीच्या तृप्ततेने  तो आनंदाने आपली शेपटी हलवत सतत तिच्या आजूबाजूला, घराजवळ घुटमळत राहायचा..

तिच्या नवऱ्याला कुत्र्यांबद्दल तिडीक असल्याने  तो तिच्यावर सारखा चिडायचा ; कुत्र्याला हडतूड करायचा. आणि एका रात्री…

 मुसळधार पाऊस झोडपत असताना तिच्या नवऱ्याने  कडाक्याच्या भांडणातून तिला घरातूनच कायमचे हाकलून दिले; त्यावेळी तो भटका कुत्रा तिच्याजवळ येऊन ,तिची ओढणी ओढत ओढत  तेथून आपल्या बरोबर घेऊन जाऊ लागला, जणूकाही इथून पुढे इथं राहून अधिक मानहानी करण्यात काही मतलब नाही हेच तो सुचवत होता..

आजवरचं मालकिणीचं खाल्लेलं मीठ नि तिनं दिलेलं प्रेम या जाणीवेला तो भटका  असला तरी  आता  त्याच्या इमानीपणाला जागणारं होता..

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 221 ☆ व्यवहार की भाषा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना व्यवहार की भाषा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 221 ☆ व्यवहार की भाषा

हमारा व्यवहार लोगों के साथ, खासकर जो हम पर आश्रित होते हैं उनके साथ कैसा है ?इससे निर्धारित होता है आपका व्यक्तित्व। विनम्रता के बिना सब कुछ व्यर्थ है। मीठी वाणी, आत्मविश्वास, धैर्य, साहस ये सब आपको निखारते हैं। समय- समय पर अपना  मूल्यांकन स्वयं करते रहना चाहिए।

यदि  कोई कुछ कहता है तो अवश्य ये सोचे कि अप्रिय वचन कहने कि आवश्यकता उसे क्यों पड़ी, जहाँ तक संभव हो उस गलती को सुधारने का प्रयास करें जो जाने अनजाने हो जाती है। जैसे- जैसे स्वयं को सुधारते जायेंगे वैसे- वैसे आपके करीबी लोगों की संख्या बढ़ेगी साथ ही वैचारिक समर्थक भी तैयार होने लगेंगे।

*

भावनाएँ भाव संग, मन  में  भरे  उमंग

पग- पग चलकर, लक्ष्य पूर्ण कीजिए।

*

इधर- उधर मत, नहीं व्यर्थ कार्यरत

समय अनमोल होता, ये संकल्प लीजिए। ।

*

पल- पल प्रीत धारे, खड़े खुशियों के द्वारे

राह को निहारते जो, उन्हें साथ दीजिए।

*

कार्य उनके ही होते, जागकर जो न सोते

जीवन के अमृत को, घूँट- घूँट पीजिए। ।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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