हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 220 – पतझड़ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पतझड़”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 220 ☆

🌻लघु कथा🌻 🍂पतझड़ 🍂

फागुन की रंग बिरंगी मस्ती के साथ जहाँ सभी उत्साह, उमंग, गाते बजाते, आती – जाती टोली। वहीं सड़क के किनारे फुटपाथ पर कतारों में लगे वृक्ष और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखी टूटी- फूटी कुर्सियाँ।

उम्र का पड़ाव और मानसिक सोच के साथ-साथ गुलाब राय मन ही मन कुछ बात कर रहे थे। सड़क सफाई करने वाला स्वीपर झाड़ू लेकर पेड़ के गिरे पत्तों को एकत्रित कर रहा था। राम राम बाबु जी 🙏🙏कैसे हैं?

देखिए न इस मौसम में हम लोगों का काम बढ़ गया। अब यह सारी सूखी पत्तियाँ किसी काम की नहीं रही। सरसराती गिरती जा रही हैं। आप सुनाएं – – – आप होली के दिन यहाँ चुपचाप क्यों बैठे हैं। घरों में आसपास पड़ोसी या परिवार के संग होली नहीं खेल रहे।

गुलाब राय जैसे नींद से जाग उठे। झुरझुरी आँखे और कपकपाते हाथों से डंडे का सहारा लेकर उठ कहने लगे – –  यही तो सृष्टि का नियम है!! बेटा पतझड़ होता ही इसीलिए है कि नयी कपोले अपनी जगह बना सके।

हृदय की टीस दर्द को दबाते हुए कहना चाहते थे कि परिवार वाले ने तो उन्हें कब का पतझड़ समझ लिया है। शायद उस ढेर का इंतजार है जिसमें माचिस की तीली लगे और पतझड़ जलकर हवा में उड़ने लगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 123 – देश-परदेश – विश्व निद्रा दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 123 ☆ देश-परदेश – विश्व निद्रा दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

14 मार्च शुक्रवार 2025 को प्रतिवर्षानुसार संपूर्ण विश्व निद्रा दिवस मनाने की तैयारियों में लगा हुआ हैं। कुछ  व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के मेधावी शोधकर्ताओं से इस बाबत चर्चा भी हुई हैं। उन सभी ने एक मत से कहा ये तो ” कुंभकरण” जोकि रावण के अनुज थे, उनके अवतरण दिवस को मनाने के लिए सैकड़ों वर्षों से आयोजित किया जाता हैं।

कुछ शोधकर्ताओं ने तो इसकी पुष्टि करते हुए ऐतिहासिक प्रमाणों की फोटो तक भी प्रेषित कर दी हैं। हम समझ गए ये त्यौहार भी हमारी प्राचीन परंपरा और संस्कृति से भी प्राचीन है, जिसको अब पूरा विश्व भी स्वीकार कर चुका हैं।

हमारे दादाश्री ने हमें भी कुंभकरण नाम से नवाजा था। घर में कोई भी परिचित या अजनबी आता तो वो हमेशा कहते थे, कुंभकरण जाओ मेहमान के लिए जल ले कर आओ।

हमारा पूरा जीवन बिना सूर्योदय देखे हुए व्यतीत हुआ है। जब सूर्य देवता दस से बारह घंटे तक उपलब्ध रहते हैं, तो दिन में कभी भी उनके दर्शन कर सकते हैं। दिन में दस बजे के बाद उठने के कुछ समय बाद हमारा प्रिय पेय ” मीठी लस्सी” है। यदि आलू के पराठे साथ में हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है।

मीठी लस्सी ग्रहण करने के बाद तो हम चिर निद्रा के आगोश में आकर, दिन में ही तारे (सपने) देखने लग जाते हैं। आप भी प्रयास कर सकते हैं, यदि लम्बी नींद लेनी हो तो कम से कम आधा लीटर लस्सी अवश्य ग्रहण करें।

हमारे कई मित्र तो हमेशा ही नींद में रहते हैं। दिन के समय जागते हुए भी यदि आप उनसे कोई बात पूछें तो वो एकबार तो हक़ब्का जाते हैं। चाणक्य ने भी ये ही कहा था “सोते हुए मूर्ख व्यक्ति को कभी भी नहीं उठाना चाहिए”।

हम भी इस लेख से व्हाट्स ऐप और सोशल मीडिया के उन पाठकों को जागने का निरर्थक प्रयास कर रहें है, जोकि जागते हुए भी सो रहें हैं। बुरा ना माने होली है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #276 ☆ अमृतानुभव… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 276 ?

☆ अमृतानुभव… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

धमन्यांमधल्या शब्दांसोबत यावी कविता

माझ्यासोबत सात सुरांनी गावी कविता

*

बोलघेवडे शब्द जरासे ठेव बाजुला

या शब्दांची सांग कशाला व्हावी कविता

*

नको नशेचा गंध यायला नकोय धुंदी

अमृतानुभव घेउन आता प्यावी कविता

*

शिशिर पाहून सृष्टी सारी उदासलेली

बाग सुनी ही येथेही बहरावी कविता

*

विद्रोहाचा मलाच पुळका आला होता

माझ्याहातुन झालेली कळलावी कविता

*

छान लिहावे मस्त जगावे ताल धरावा

सरळ असावी नकोच उजवी डावी कविता

*

मज शब्दाचे ध्यान असावे हेच मागणे

माझ्या हातुन सुरेख व्हावी भावी कविता

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 229 – बुन्देली कविता – पूँछत हैं नाँव… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – पूँछत हैं नाँव।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 229 – पूँछत हैं नाँव… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

बोलत में सरम लगे पूँछत हैं नाँद

पूँछत हैं गाँव, पूँछत हैं नाँव

बोलत में सरम लगे पूँछ दे नाँव गाँव।

 

बेर बेर टेरत हैं देर देर हेरत हैं

जानें का बुदबुदात माला सी फेरत हैं।

चौपर सी खेलें अर सोचत हैं दाँव। पूँछत हैं नाँव ।

 

प्रान प्रीत जागी है फेंकी आँग आगी है

नदिया-सी उफन रई रीत नीत त्यागी है।

गोरस की गगरी खों मिलो एक ठाँव। पूछत हैं गाँव।

 

पूँछ पूँछ हारे हैं लगें को तुमारे हैं ?

राधा सी गोरी के कही कौन कारे हैं ?

औचक मैं खड़ी रही पकर लये पाँव। पूँछें वे नाँव गाँव।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 229 – “आज आँगन के थके हाथों…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “आज आँगन के थके हाथों...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 229 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “आज आँगन के थके हाथों...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

चुप रहो कि तनिक दूरी पर

रुकी घबराहटें

पास में आती हुई सहमी

सुरों की आहटें ॥

 

घर नहीं बोला यहाँ कुछ

सहन कर मजबूरियों को

पीठ पर लादे समय की

अनगिनत कुछ दूरियों को

 

कई मुखड़ों में बनी हैं

कष्ट की ताजा धुने क्यों

मुस्कराते इन कपोलों में

कहीं कुछ सलवटें  ॥

 

आज आँगन के थके हाथों

छपा इतिहास सारा

कहरहा भूगोल कैसे क्या

यहाँ पर हो गुजारा

 

कुटुम का मुखिया समाजों

की युगों से छानता है

गुम हुई परिवार की

ताजातरीं वो तलछटें ॥

 

अब बची परिपक्व होती

हुई केवल एक आशा

किन्तु ओढे हुये है

गृहस्वामिनी भीषण निराशा

 

देह जिसकी सहन न

कर पा रही थी जो उसीके

कठिन हिस्से आपड़ी

दुर्दांत गतिमय करवटें हैं ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14 – 03 – 2025 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 211 ☆ # “इस होली में…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता इस होली में…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 211 ☆

☆ # “इस होली में…” # ☆

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

गीत खुशी के गाओ इस होली में

 

अमराई में कोयल गाती

भ्रमरों को कलियाँ मदमाती

आम्र वृक्ष सा बौराओ इस होली मे

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

 

भीगी है रंगों से चोली

फूट रही अंगों से बोली

कामबाण से देह बचाओ इस होली में

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

 

दया नहीं अधिकार चाहिए

तिरस्कार नहीं प्यार चाहिए

मानवता का अलख जगाओ इस होली में

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

 

बिखर गए हैं सारे सपने

बिछड़ गए हैं हमसे अपने

नफरत की दीवार गिराओ इस होली में

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में     

 

तपिश सूर्य की पी जाओ

मधुर चांदनी जग में लाओ

धरती को ही स्वर्ग बनाओ इस होली में

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

 

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

गीत खुशी के गाओ इस होली में /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – त्यौहार… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा त्यौहार।)

☆ लघुकथा – त्यौहार☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

चौराहे पर, अपनी छोटी बच्ची को लिए, वह गुलाल के पैकेट बेच  रही थी। जो भी कार, लाल सिग्नल पर रुकती थी, वह कार के पास पहुंच जाती और शीशे पर उंगली की दस्तक कर वह गुलाल पैकेट लेने का आग्रह करती।  जो चाहते, उससे ले लेते, कुछ लोग शीशा ही नहीं खोलते थे, और चले जाते थे।  वह फिर भी आस लगाए, हर कार वाले के पास जाकर, पैकेट गुलाल ले लो, कह कर उन्हें मनाया करती। एक परिवार कार में था, पति-पत्नी, उनकी माताजी और उनकी बेटी जो कॉलेज में पढ़ती थी। उसके पास भी गुलाल बेचने वाली ने शीशे पर दस्तक दे कर, गुलाल लेने का आग्रह किया। उनकी बेटी ने गुलाल का पैकेट लिया और उस बेचने वाली को भी क्योंकि होली के उत्सव पर जिसने गुलाल नहीं लगाई थी, उसको और उसकी बच्ची को गुलाल लगा दिया। वह महिला चिल्लाने लगी कि मुझे गुलाल लगाने की हिम्मत कैसे हुई? क्यों गुलाल लगाया मुझे? परिवार ने कहा-  आप गुलाल आप बेच रही थी, और क्योंकि आपने आज होली का गुलाल नहीं लगाया था इसलिए, आपको और आपकी  बच्ची को, जिसे आप लिए हैं उसे थोड़ा सा गुलाल लगा दिया।  वह गुस्से में चिल्लाई कि हम तुम्हारे मजहब के नहीं हैं तुमने हमें गुलाल क्यों लगाया? हमारे मजहब में गुलाल नहीं खेलते, रंग नहीं लगाते है, शोर हो गया, काफी हंगामा हो रहा था। कार में बैठे परिवार ने बाहर निकल कर उससे माफी मांगी कि-  बहन हमें माफ करो हम आपका मजहब नहीं जानते थे, मगर आप गुलाल बेच रही थी, इसलिए बिटिया ने गुलाल लगा दिया।

वो महिला कुछ शांत हुई और रोने लगी और कहने लगी- कि रंग किसी भी मजहब में बुरे नहीं होते, मगर हम नहीं खेल सकते। पति की मृत्यु के बाद हम, हर त्यौहार पर, उस त्यौहार में काम आने वाली सामग्री बेच तो सकते हैं, मगर हर त्यौहार मना नहीं सकते। कोई भी धर्म आपस में लड़ना नहीं सिखाता और… । अपने पल्लू से अपना और इन सब बातों से अनजान अपनी बच्ची का रंग पोंछते हुए रो पड़ी। उसकी आंखों से आंसू बरसने लगे।

सच है कोई भी धर्म आपस में लड़ने की बात नहीं करता, लड़ते तो वे हैं जो धर्म ग्रंथो का सार ही नहीं समझ पाए जो जीवन के लिए आवश्यक है।

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 280 ☆ व्यंग्य – दुख की होली ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य – ‘दुख की होली‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 280 ☆

☆ व्यंग्य ☆ दुख की होली

खन्ना परिवार की होली दुख की होली हो गयी है। भ्रम में न पड़ें, उनके यहां कोई ग़मी नहीं हुई है। बात यह है कि उनके यहां काम करने वाली सभी बाइयां छुट्टी लेकर गांव चली गई हैं। उनके घर में तीन बाइयां खाना बनाने से लेकर झाड़ू-पोंछा तक का काम करती हैं। उनमें से दो के परिवार में कोई मृत्यु हो गई थी, इसलिए वे दुख की होली मनाने गांव चली गयी हैं। उनके हफ्ते भर से पहले लौटने की उम्मीद नहीं है। बाकी एक है, लेकिन उसने भी तीन दिन की छुट्टी ली है। खन्ना परिवार के लिए मुश्किल वक्त है।

मिसेज़ खन्ना बहुत सफाई-पसन्द हैं। बाई सफाई करती है तो वे सिर पर खड़ी रहती हैं। उंगली चला चला कर धूल की पर्त बताती हैं। बाई को चैन से बैठने नहीं देतीं। इसीलिए बाइयों की छुट्टी उनके लिए मुसीबत का सबब बनती है।

घर का काम मिसेज़ खन्ना के लिए मुसीबत है। उनका वज़न ज़्यादा है, रक्तचाप की दवा लेनी पड़ती है। घुटनों में भी पीड़ा रहती है। चलना मुश्किल होता है। किचिन में ज़्यादा देर खड़ी नहीं रह सकतीं। इसीलिए बाइयों के चले जाने पर घर में दिन भर चिड़चिड़ होती है, पति और बच्चों पर गुस्सा निकलता है।

बाइयों की अनुपस्थिति के पहले दिन मिसेज़ खन्ना ने रो-झींक कर दोपहर का खाना बना दिया। लेकिन उसके बाद वे, निढाल, पलंग पर लेट गयीं। पति से बोलीं, ‘मैं शाम  का खाना नहीं बनाऊंगी। आई एम टोटली एक्ज़्हास्टेड। घुटने इतना ‘पेन’ कर रहे हैं। शाम का खाना होटल से बुलवा लेना। इट इज़ बियोंड मी।’

बच्चों ने सुना तो खुश हो गये ।बाहर से खाना आना है तो पिज़्ज़ा-बर्गर, नूडल्स आना चाहिए। बाहर से आना है तो फिर घर जैसा खाना क्यों? पिता के सामने फरमाइश पेश होने लगी।

अब मिस्टर खन्ना बैठे हिसाब लगा रहे हैं। पिज़्ज़ा-बर्गर आएगा तो एक दिन का बिल ही दो ढाई हज़ार पर पहुंचेगा। अभी तो पांच छः दिन काटना है। तब तक कितने का चूना लगेगा?

अब मिसेज़ खन्ना के साथ-साथ मिस्टर खन्ना की होली भी दुख  की होली हो गयी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – अनबोलते जानवर – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “– अनबोलते जानवर –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — अनबोलते जानवर — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

बछिया गौशाला के एक किनारे में बंधी होती थी। दूसरे किनारे में वह गाय बंधी हुई थी जो वर्षों से दूध देती आयी। यह बछिया उसी से पैदा हुई थी। गाय दूध से खाली हो गयी और उसे कसाई के हाथों बेच दिया गया। तत्काल बछिया को उस किनारे से खोल कर गाय की खूँट से बांध दिया गया। बछिया ने खूँट के इस अंतर से जाना वह दूध देगी और फिर उसका हश्र उसकी माँ जैसा होगा।

— समाप्त  —

© श्री रामदेव धुरंधर

15 – 03 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 280 – मिलें होली, खेलें होली… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 280 मिलें होली, खेलें होली… ?? 

क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य/

अपने भीतर देखो रंगों का इंद्रधनुष..,

जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में  हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।

फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत:  दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।

नेह की सरिता जब धाराप्रवाह बहती है तो धारा न रहकर राधा हो जाती है। शाश्वत प्रेम की शाश्वत प्रतीक हैं राधारानी। उनकी आँखों में, हृदय में, रोम-रोम में प्रेम है, श्वास-श्वास में राधारमण हैं।

सुनते हैं कि एक बार राधारमण गंभीर रूप से बीमार पड़े। सारे वैद्य हार गए। तब भगवान ने स्वयं अपना उपचार बताते हुए कहा कि उनकी कोई परमभक्त गोपी अपने चरणों को धो कर यदि वह जल उन्हें पिला दे तो वह ठीक हो सकते हैं। परमभक्त सिद्ध न हो पाने भय, श्रीकृष्ण को चरणामृत देने का संकोच जैसे अनेक कारणों से कोई गोपी सामने नहीं आई। राधारानी को ज्यों ही यह बात पता लगी, बिना एक क्षण विचार किए उन्होंने अपने चरण धो कर प्रयुक्त जल भगवान के प्राशन के लिए भेज दिया।

वस्तुत: प्रेम का अंकुरण भीतर से होना चाहिए। शब्दों को  वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर  जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।

प्रेम ना बाड़ी ऊपजै / प्रेम न हाट बिकाय/

राजा, परजा जेहि रुचै / सीस देइ ले जाय…

बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीश देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..!

इंद्रधनुष का सुलझा गणित / रंगी-बिरंगी छटाएँ अंतर्निहित / अंतस में पहले सद्भाव जगाएँ /नित-प्रति तब  होली मनाएँ।….

मिलें होली, खेलें होली!.. शुभ होली। ? 

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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