(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – सुबह सुबह देखा है सपना…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 176 – गीत – सुबह सुबह देखा है सपना…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “एक चित्र बादल का...”)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – “आम आदमी की फिक्र”।)
☆ कविता – “आम आदमी की फिक्र” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता ‘सीता की व्यथा…’।)
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# दिल और दिमाग#”)
☆ “पिंपरी चिंचवड गाव ते महानगर” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल☆
श्रीकांत चौगुले लिखित पिंपरी चिंचवड गाव ते महानगर या पुस्तकाची द्वितीय आवृत्ती प्रकाशित झाली. हाती आलेल्या प्रति वरून पुस्तकाचे मुखपृष्ठ पाहिले आणि मनात विचारांची गर्दी झाली.
ठसठशीत नावावरून आणि त्यावरील दोन चित्रावरून हे पूर्वीचे पिंपरी चिंचवड आणि हे आत्ताचे पिंपरी चिंचवड आहे हे चाणाक्ष लोकांच्या लगेच लक्षात येते. किती बदलले ना हा विचारही मनात निर्माण होतो
नीट लक्ष देऊन पाहिले तर हे चित्र खूप काही बोलून जाते.
१) हल्लीच्या ट्रेंड नुसार पूर्वीची मी आणि आत्ताची मी असे लवंगी मिरची आणि ढब्बू मिरची आरशासमोर दाखवून केलेली दोन चीत्रे नजरेसमोर येऊन पूर्वीचे पिंपरी चिंचवड आणि आत्ताचे पिंपरी चिंचवड असेही चित्र आहे असे वाटले.
२) पूर्वीच्या पिंपरी चिंचवडचे स्वरूप आणि आत्ताचे हे रूप यामध्ये जमीन आसमानाचा फरक आहे हे सांगते
३) बैलगाडीचे कच्चे रस्ते ते आताचे उड्डाण पुलावरील मोठे पक्के रस्ते हा बदल प्रामुख्याने जाणवतो
४) पूर्वीचे संथ जीवन आणि आत्ताची प्राप्त झालेली गती त्यावरून लक्षात येते
५) नीट पाहता गावाने केलेला मोठा विस्तार लक्षात येतो
६) हे वरवरचे अर्थ झाले तरी गर्भित अर्थ खूपच वेगळं काही सांगून जातो पूर्वीच्या आणि आत्ताच्या पिंपरी चिंचवड मधून वाहणारी पवनामाई यातून दिसते
०७) या पवना माईचे हे ऐल तट पैलं तट असून ऐल तटावर विस्तारलेले पिंपरी चिंचवड दिमाखाने उभे आहे तर पैल तट दूर राहून तेथे मनात जुने पिंपरी चिंचवड दिसत आहे
०८) पुस्तकाच्या नावावरून त्यातील ते या शब्दावरून हा एक प्रवास आहे असे लक्षात येते आणि हा प्रवास श्रीकांतजी चौगुले यांनी केलेला असून ते प्रवासवर्णन आपल्याला यातून मिळते
०९) हा प्रवास पवनामाईतून जणू बोटीन केलेला आहे आणि ह्या बोटीचे रूप त्या नावातील मांडणीवरून वाटते आणि या बोटीचे खलाशी श्रीकांतजी चौगुले आहेत हे स्पष्ट होते
१०) या चित्राचे दोन भाग म्हणजे शहराच्या विकासाचा विस्ताराचा डोंगर आणि त्या डोंगराने तितक्याच आदराने घेतलेली जुन्या संस्कृतीची पताका अखंड फडफडती ठेवली आहे याचे प्रतीक वाटते.
११) मधला पांढरा भाग उभा करून पाहिला तर A अक्षर वाटते दोन चित्रांचे रूप बघितले ते Z अक्षर वाटते म्हणजेच पिंपरी चिंचवडचे गाव ते महानगर या प्रवासातील सगळी स्थित्यंतरे इत्तमभूत A to Z यामध्ये लिहिलेली आहेत हे दर्शवते
१२) पुरणकाळाचा संदर्भ घेतला तर पवना माईचे या दंडकाच्या मेरुनी केलेले हे मंथन असून त्यातून पिंपरी चिंचवड महानगरपालिका टाटा मोटर्स टेक महिंद्रा पक्के रस्ते उत्तुंग इमारती उद्योग कारखान्यांचा झालेला गजबजाट हि लाभलेली रत्ने महानगराला चिकटलेली आहेत
१३) शिवाजी महाराज आणि संत तुकाराम यांच्या भेटीतून भक्ती शक्ती प्रतीत होत असली तरी गाव संस्काराचे मोरया गोसावी यांचे मंदिर यातून उद्बोधित झालेली भक्ती आणि गावाची प्रगतीची विकासाची शक्ती असे वेगळे भक्ती शक्ती रूप यातून दिसते.
१४) गावाची अंगभूत असलेली ऐतिहासिकता अंगीकारलेली औद्योगिकता यातून स्पष्ट होते
१५) मधला पांढरा भाग हा पावना माईचे प्रतीक वाटून सुरुवातीला अगदी चिंचोळा असलेला हा प्रवाह पुढे अतिशय विस्तारलेला आहे आणि पुढे अजून विस्तार होणार आहे असे सांगते.
१६) पूर्वीच्या पिंपरी चिंचवड मधे फक्त साधी रहाणी असावी असे वाटते. पण त्याच साध्या रहानिमनातून उच्च विचारसरणी ठेऊन संपादन केलेले ज्ञान अर्थात सरस्वती आणि सगळ्यात श्रीमंत अशी महानगरपालिका म्हणजे लक्ष्मी अर्थात लक्ष्मी सरस्वती एकत्र नांदतांना दिसतात.
कदाचित अजूनही काही अर्थ या चित्रांमधून निघू शकतील. मला वाटलेले अर्थ मी येथे सांगण्याचा प्रयत्न केला आहे.
एवढा सर्वांगीण विचार करून तयार केलेले मुखपृष्ठ हे संतोष घोंगडे यांचे आहे.तसेच हे चित्र निवडण्याचे काम संवेदना प्रकाशन यांच्या नीता नितीन हिरवे यांनी केले.त्यास मान्यता श्रीकांतजी चौगुले यांनी दिली. या सगळयांचे मन:पूर्वक आभार.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘दुनियादारी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 228 ☆
☆ कहानी – दुनियादारी ☆
विपिन भाई के पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन खिसक गयी। दस दिन की बीमारी में ही पत्नी दुनिया से विदा हो गयी। दस दिन में विपिन भाई की दुनिया उलट-पुलट हो गयी। पहले एक हार्ट अटैक और फिर अस्पताल में ही दूसरा अटैक। विपिन भाई के लिए वे पन्द्रह दिन दुःस्वप्न जैसे हो गये। लगता था जैसे अपनी दुनिया से उठ कर किसी दूसरी भयानक दुनिया में आ गये हों।
विपिन भाई सुशिक्षित व्यक्ति थे। जीवन की क्षणभंगुरता और अनिश्चितता को समझते थे। कई धर्मग्रंथों को पढ़ चुके थे और जानते थे कि जीवन अपनी मर्जी के अनुसार नहीं चलता, खासकर अपने से अन्य प्राणियों का। लेकिन यह अनुभव कि जिस व्यक्ति के साथ पैंतीस वर्ष गुज़ार चुके हों, जिसे संसार के पेड़-पौधों,ज़र-ज़मीन, नातों-रिश्तों से भरपूर प्यार हो, वह अचानक सबसे विमुख हो इस तरह अदृश्य हो जाएगा, हिला देने वाला था। लाख कोशिश के बावजूद विपिन इस आघात से दो-चार नहीं हो पा रहे थे।
विपिन भाई अपने घर में अपने दुख को लेकर भी नहीं बैठ सकते थे क्योंकि उनके दुख का प्रकट होना उनके बेटे बेटियों के दुख को बढ़ा सकता था। इसलिए वे सायास सामान्यता का मुखौटा पहने रहते थे ताकि बच्चे उनकी तरफ से निश्चिंत रह सकें।
पत्नी की मृत्यु के बाद कर्मकांड का सिलसिला चला। अब तेरहीं के साथ बरसी निपटाने का शॉर्टकट तैयार हो गया है ताकि वर्ष में शुभ कार्य चलते रहें। आजकल के नौकरीपेशा लड़कों के लिए तेरहीं तक रुकने का वक्त नहीं होता, पंडित जी से मृत्यु के तीन-चार दिन के भीतर सब कृत्य निपटाने का अनुरोध होता है। विपिन भाई के लिए यह सब अटपटा था, लेकिन यंत्रवत इन कामों के विशेषज्ञों के निर्देशानुसार करते रहे।
विपिन की पत्नी की मृत्यु का समाचार पढ़कर बहुत से लोग आये। कुछ सचमुच दुख- कातर, कुछ संबंधों के कारण रस्म-अदायगी के लिए। कहते हैं न कि धीरज,धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा विपत्ति में होती है। कुछ लोग देर से आये, कारण अखबार में सूचना पढ़ने से चूक गये या शहर से बाहर थे। जो नहीं आये उनके नहीं आने का विपिन भाई ने बुरा नहीं माना। ज़िन्दगी के सफर में जो जितनी दूर तक साथ आ जाए उतना काफी मानना चाहिए। ज़्यादा की उम्मीद करना नासमझी है।
विपिन भाई अब नई स्थितियों से संगति बैठा रहे थे और पुरानी स्मृतियों को बार-बार कुरेदने से बचते थे। पत्नी का प्रसंग घर में उठे तो उसे ज़्यादा खींचते नहीं थे, अन्यथा बाद में अवसाद घेरता था। अब भी सड़क पर चलते कई ऐसे लोग मिल जाते थे जो सड़क पर ही सहानुभूति जता लेना चाहते थे। फिर वही बातें कि सब कैसे हुआ, कहाँ हुआ, फिर अफसोस और हमदर्दी। विपिन को ऐसे राह-चलते ज़ख्म कुरेदने वालों से खीझ होती थी। जब घर नहीं आ सके तो राह में मातमपुर्सी का क्या मतलब?
एक व्यक्ति जिसका न आना उन्हें कुछ खटकता था वह दयाल साहब थे। एक सरकारी विभाग में बड़े अफसर थे। मुहल्ले के कोने पर उनका भव्य बंगला था। दुनियादार आदमी थे। शहर के महत्वपूर्ण आयोजनों में वे ज़रूर उपस्थित रहते थे। फेसबुक पर रसूखदार लोगों के साथ फोटो डालने का उन्हें ज़बरदस्त शौक था। विपिन को भी अक्सर सुबह पार्क में मिल जाते थे।
मुस्कुराकर अभिवादन करते। जब उनका प्रमोशन हुआ तब उन्होंने घर पर पार्टी का आयोजन किया था। विपिन को भी आमंत्रित किया था। हाथ मिलाते हुए सब से कह रहे थे, ‘क्लास वन में आ गया हूँ।’
कुछ दिन बाद वे विपिन के घर आ गये थे। बोले, ‘नयी कार खरीदी है। आइए, थोड़ी राइड हो जाए।’ मँहगी गाड़ी थी। रास्ते में बोले, ‘नये स्टेटस के हिसाब से पुरानी गाड़ी जम नहीं रही थी, इसलिए यह खरीदी।’ फिर हँसकर बोले, ‘लोन पर खरीदी है ताकि इनकम टैक्स का नोटिस न आ जाए। वैसे पूछताछ तो अभी भी होगी।’
विपिन की पत्नी की मृत्यु के बाद दयाल साहब अब तक विपिन के घर नहीं आये थे। विपिन को कुछ अटपटा लग रहा था। एक दिन जब वे स्कूटर पर दयाल साहब के बंगले से गुज़र रहे थे तब वे गेट पर नज़र आये, लेकिन विपिन को देखते ही गुम हो गये। एक और दिन वे विपिन को एक मॉल में नज़र आये, लेकिन उन्हें देखते ही वे भीड़ में ग़ायब हो गये। विपिन को इस लुकाछिपी का मतलब समझ में नहीं आया।
दिन गुज़रते गये और विपिन की पत्नी की मृत्यु को लगभग दो माह हो गये। परिवार अब बहुत कुछ सामान्य हो गया था। अब मातमपुर्सी के लिए किसी के आने की संभावना नहीं थी। विपिन चाहते भी नहीं थे कि अब कोई उस सिलसिले में आये।
उस शाम विपिन ड्राइंग रूम में थे कि दरवाज़े की घंटी बजी। खुद उठकर देखा तो दरवाज़े पर दयाल साहब थे। हल्की ठंड में शाल लपेटे। सिर पर बालों वाली टोपी। बगल में पत्नी। बिना एक शब्द बोले दयाल साहब, आँखें झुकाये, विपिन के बगल से चलकर अन्दर सोफे पर बैठ गये। घुटने सटे, हथेलियाँ घुटनों पर और आँखें झुकीं। पाँच मिनट तक वे मौन, आँखें झुकाये, बीच बीच में लंबी साँस छोड़ते और बार बार सिर हिलाते, बैठे रहे। उनके बगल में उनकी पत्नी भी मौन बैठी थीं। विपिन भाई भी स्थिति के अटपटेपन को महसूसते चुप बैठे रहे।
पाँच मिनट के सन्नाटे के बाद दयाल जी ने सिर उठाया, करुण मुद्रा बनाकर बोले, ‘इसे कहते हैं वज्रपात। इससे बड़ी ट्रेजेडी क्या हो सकती है। जिस उम्र में पत्नी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है उसी उम्र में उनका चले जाना। बहुत भयानक। हॉरिबिल।’
विपिन भाई को उनकी मुद्रा और बातों से तनाव हो रहा था। वे कुछ नहीं बोले।
दयाल साहब बोले, ‘मैंने तो जब सुना, मैं डिप्रेशन में चला गया। आपकी मिसेज़ को पार्क में घूमते देखता था। शी लुक्ड सो फिट, सो चियरफुल। मैंने तो इनसे कह दिया कि दुनिया जो भी कहे, मैं तो अभी दस पन्द्रह दिन विपिन जी के घर नहीं जा पाऊँगा। मुझ में हिम्मत नहीं है। आई एम वेरी सेंसिटिव। इस शॉक से बाहर आने में मुझे टाइम लगेगा।’
वे फिर सिर झुका कर खामोश हो गये। विपिन भाई उनकी नौटंकी देख खामोश बैठे थे। उन्हें लग रहा था कि यह जोड़ा यदि आधा पौन घंटा और बैठा तो उनका ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगेगा। लेकिन दयाल साहब उठने के मूड में नहीं थे। वे अपनी अभी तक की अनुपस्थिति की पूरी सफाई देने और उसकी भरपाई करने के इरादे से आये थे। अब उन्होंने अपने उन मित्रों-रिश्तेदारों के किस्से छेड़ दिये थे जो विपिन की पत्नी की ही तरह हार्ट अटैक की चपेट में आकर दिवंगत हो गये थे या बच गये थे।
समय लंबा होते देख विपिन ने औपचारिकतावश चाय के लिए पूछा तो दयाल जी ने हाथ उठाकर जवाब दिया, ‘अरे राम राम, अभी चाय वाय कुछ नहीं। चाय पीने के लिए फिर आएँगे।’ समय बीतने के साथ विपिन का दिमाग पत्थर हो रहा था। तनाव बढ़ रहा था। यह मुलाकात उनके लिए सज़ा बन गयी थी।
पूरा एक घंटा गुज़र जाने के बाद दयाल साहब ने एक लंबी साँस छोड़ी और फिर खड़े हो गये। विपिन भाई की तरफ दुखी आँखों से हाथ जोड़े और धीरे-धीरे बाहर की तरफ चले। विपिन भाई उनके पीछे पीछे चले। दरवाज़े पर पहुँचकर दयाल साहब मुड़े और विपिन भाई के कंधे से लग गये। बोले, ‘विपिन भाई, हम आपके दुख में हमेशा आपके साथ हैं। यू कैन ऑलवेज़ डिपेंड ऑन मी। आधी रात को भी बुलाओगे तो दौड़ा चला आऊँगा। आज़मा लेना।’
वे इतनी देर चिपके रहे कि विपिन का दम घुटने लगा। अलग हुए तो विपिन की साँस वापस आयी। विदा करके विपिन भाई वापस कमरे में आये तो थके से सोफे पर बैठ गये। हाथ से माथा दबाते हुए बेटी से बोले, ‘ये लोग अब क्यों आते हैं? इन्हें समझ में नहीं आता कि ये पहले से ही परेशान आदमी पर अत्याचार करते हैं। ये कैसी हमदर्दी है?’
फिर बोले, ‘मुझे एक सरदर्द की गोली दे दो और थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो।’
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 227☆ शारदीयता
कुछ चिंतक भारतीय दर्शन को नमन का दर्शन कहते हैं जबकि यूरोपीय दर्शन को मनन का दर्शन निरूपित किया गया है।
वस्तुतः मनुष्य में विद्यमान शारदीयता उसे सृष्टि की अद्भुत संरचना और चर या अचर हर घटक की अनन्य भूमिका के प्रति मनन हेतु प्रेरित करती है। यह मनन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, कृति और कर्ता के प्रति रोम-रोम में कृतज्ञता और अपूर्वता का भाव जगता है। इस भाव का उत्कर्ष है गदगद मनुष्य का नतमस्तक हो जाना, लघुता का प्रभुता को नमन करना।
मनन से आगे का चरण है नमन। नमन में समाविष्ट है मनन।
दर्शन चक्र में मनन और नमन अद्वैत हैं। दोनों में मूल शब्द है – मन। ‘न’ प्रत्यय के रूप में आता है तो मन ‘मनन’ करने लगता है। ‘न’ उपसर्ग बन कर जुड़ता है तो नमन का भाव जगता है।
मनन और नमन का एकाकार पतझड़ को वसंत की संभावना बनाता है।
मौसम तो वही था,
यह बात अलग है
तुमने एकटक निहारा
स्याह पतझड़,
मेरी आँखों ने चितेरे
रंग-बिरंगे वसंत,
बुजुर्ग कहते हैं-
देखने में और
दृष्टि में
अंतर होता है!
देखने को दृष्टि में बदल कर आनंदपथ का पथिक हो जाता है मनुष्य।
एक प्रसंग साझा करता हूँ। स्वामी विवेकानंद के प्रवचन और व्याख्यानों की धूम मची हुई थी। ऐसे ही एक प्रवचन को सुनने एक सुंदर युवा महिला आई। प्रवचन का प्रभाव अद्भुत रहा। तदुपरांत स्वामी जी को प्रणाम कर एक-एक श्रोता विदा लेने लगा। वह सुंदर महिला बैठी रही। स्वामी जी ने जानना चाहा कि वह क्यों ठहरी है? महिला ने उत्तर दिया,’ एक इच्छा है, जिसकी पूर्ति केवल आप ही कर सकते हैं।’ ..’बताइये, आपके लिए क्या कर सकता हूँ’, स्वामी जी ने पूछा। ..’मैं, आपसे शादी करना चाहती हूँ।’ …स्वामी जी मुस्करा दिया ये। फिर पूछा, ‘ आप मुझसे विवाह क्यों करना चाहती हैं?’…कुछ समय चुप रहकर महिला बोली,’ मेरी इच्छा है कि मेरा, आप जैसा एक पुत्र हो।’…स्वामी जी तुरंत महिला के चरणों में झुक गए और बोले, ‘आजसे आप मेरी माता, मैं आपका पुत्र। मुझे पुत्र के रूप में स्वीकार कीजिए।’
देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता हम सबमें सदा जाग्रत रहे। वसंत ऋतु की मंगलकामनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈