हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 173 – “पेड़ सभी बन गये बिजूके…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  पेड़ सभी बन गये बिजूके...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 173 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “पेड़ सभी बन गये बिजूके...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

अधबहियाँ छाँव

के सलूके

पहिन धूप ढूंढती-

छेद कुछ रफू के

 

आ बैठी रेस्तराँ

 दोपहरी

देख रही मीनू को

टिटहरी

 

हैं यहाँ तनाव

फालतू के

 

स्वेद सनी गीली

बहस सी

सभी ओर असुविधा

उमस सी

 

मैके में मौसमी

बहू के

 

श्वेत- श्याम धरती

के द्वीपों

गरमी है खुले

अन्तरीपों

 

पेड़ सभी बन गये

बिजूके

 

इधर- उधर भटकी

छायायें

अब उन्हें कहो कि

घर चली जायें

 

बादल शौकीन

कुंग-फू के

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-11-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 223 ☆ “क्यों भागें अब लड़कियां” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – “क्यों भागें अब लड़कियां)

☆ कविता  क्यों भागें अब लड़कियां☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अब लड़कियां

घर से नहीं भागतीं

क्योंकि उन्होंने

पढ़ ली है कविता

कवि आलोक धन्वा की,

अब पृथ्वी घूमती हुई

चलीआती है उनके

बैचेन पैरों के पास,

अब वे उड़ाती है पतंग

हवा की धारा के खिलाफ

बेकार पड़ी चीजों को

वे बटोर लेतीं हैं

फटे जीन्स की जेब में

हरियाली की तरह

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ तिरंगे में लिपटे बेटे की माँ… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता तिरंगे में लिपटे बेटे की माँ…’।)

☆ कविता – 🇮🇳 तिरंगे में लिपटे बेटे की माँ… ☆

देश की सीमा पर ,शहीद बेटे को, तिरंगे में लिपटा देख कर,मां की आखों से आंसू नहीं गिरते, वो एकटक अपने शहीद बेटे को तिरंगे में लिपटा देखती रहती है, मां की अभिव्यक्ति……

*********

सज के तिरंगे में, आया है मेरा लाल,

कोई नजर उतारो.

सीमा पर मस्तक ऊंचा कर,सोया   है मेरा लाल,

कोई नजर उतारो.

बचपन से ही वर्दी में वो,

घर में खेला करता था,

जान देश की,देश को दूंगा,

सबसे कहता फिरता था,

आज उसी वर्दी में आया,

करके ऊंचा भाल,

कोई नजर उतारो.

सदा कहा करता था मां,

तेरा कर्ज उतारूंगा,

सीने पर गोली खाऊंगा,

तुझको न लजाऊंगा,

सीने पर झंडा लेकर,

सोया है मेरा लाल,

कोई नजर उतारो.

ईश्वर तुमने कोख में मेरी,

कमी अगर न की होती,

मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने,

सारे बेटे दे देती,

रक्त भरी सीमा की मिट्टी,

पाकर हुई निहाल,

कोई नजर उतारो,

सज के तिरंगे में,आया है मेरा

लाल,

कोई नजर उतारो,

कोई नजर उतारो…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 163 ☆ # दिल और दिमाग # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# दिल और दिमाग #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 163 ☆

☆ # दिल और दिमाग #

दिल और दिमाग में

आजकल द्वंद

चलता रहता है

दिल कुछ और चाहता है

दिमाग कहीं

और बहता है

दोनों अजीब सी

कशमकश में हैं

दोनों असमंजस में हैं

दोनों अपने अपने

इरादों पर अटल है

दोनों निष्पाप, निश्छल है

दोनों एक ही विषय पर

अलग अलग राय

रखतें हैं

दोनों इसी द्वंद में

दिन-रात

लगे रहते हैं

दिल,

आजकल

हवा के

रूख को देखकर

अपनी जिद को

दूर फेंककर

दिमाग का

गुलाम हो गया है

अपनी अस्मिता

खो गया है

और

दिमाग

अपनी कामयाबी पर

जश्न मना रहा है

फूला नहीं समा रहा है

और

दिल की गुलामी पर

ठहाके लगा रहा है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 159 ☆ हे शब्द अंतरीचे… माझी आई… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 159 ? 

☆ हे शब्द अंतरीचे… माझी आई… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆/

(चाल :- आये हो मेरे ज़िन्दगी में तुम बहार बनके (राजा हिंदुस्थानी))

माझी आई माझी आई, दिला जन्म तिने मजला

माझी आई माझी आई, दिला जन्म तिने मजला

कसा होऊ उतराई, दिला जन्म तिने मजला… धृ

*

खूप कष्ट तिला झाले, खूप त्रास तिला झाला

नऊ मास तिने मजला, पोटात वाढविला

सांगा तुम्ही हो मजला, तिला काय देऊ आजला…१

*

दिनरात काम केले, संसार चालविला

माझ्याच साठी आई, संसार पूर्ण केला

किती प्रेम मला दिले, शब्द न स्फुरती मजला…२

*

शब्द निःशब्द होता,  अश्रूंचा बांध फुटला

वात्सल्य तुझे आई,  चाफ्यास बहर आला

आयु हे माझे सर्व,  अर्पण करतो तुजला…३

*

अशी माझी आई जननी, ऋणानुबंध फुलला

आई-विना कुठे मग, शोभा ये अंगणाला

वसंत ऋतु जीवनी, आई मुळेच आला…४

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – बोलकी मुखपृष्ठे ☆ “गोष्टी गावां शहरांकडील” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

? बोलकी मुखपृष्ठे ?

☆ “गोष्टी गावां शहरांकडील” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

गोष्टी गावां शहरांकडील हे पुस्तकाचे नाव आणि मुखपृष्ठावर दोन चित्रे एक गावाचे एक शहराचे यावरून सहजच सगळ्यांना समजते गाव आणि शहर यामधील गोष्टी लेखक सांगणार आहेत

पण नीट विचार करता लक्षात येते की गाव आणि शहर दाखवले असले तरी यावर विचार करण्यासारख्या बऱ्याच गोष्टी आहेत

१) अगदी पहिल्यांदा एक खेळ आठवला ज्यामध्ये दोन चित्रातील फरक ओळखा असे लिहिलेले असते आणि प्रामुख्याने फरक लक्षात येतो तो म्हणजे एक गाव आहे एक शहर आहे

२) मग रेखाटनावरून लक्षात येते ते गावाची बैठक आणि शहराची ठेवण

३) अजून विचार करता गावातील नैसर्गिकता आणि शहरातील कृत्रिमता प्रामुख्याने जाणवते

४) गावाकडचे वातावरण आणि शहराचे वातावरण हे देखील चटकन लक्षात येते

५) थोडा अजून विचार करता लक्षात येते की गावाकडची संस्कृती आणि शहराची संस्कृती या दोन संस्कृतीमध्ये असलेला फरक दाखवायचा आहे

६) अजून खोल विचार करता असे लक्षात येते की गावाची जागा आता शहराने घेतलेली आहे आणि ही खूप चिंताजनक गोष्ट आहे

७) गावाचे प्रतिबिंब मनात शहराचे रूप घेऊन येते आणि हा एक प्रगतीचा आरसा वाटतो

८) जमिनीची ओढ संपून आकाशाला हात लावण्याची वृत्ती निर्माण झालेली असल्याने छोटी बैठी घर जाऊन गगनचुंबी इमारती आलेल्या आहेत हे जरी समाधानकारक असले तरी तितकेच घातकही आहे

९) गाव आणि शहर या दोन्ही राहणीमानामध्ये पडलेला फरकही उद्धृत होतो

१०) नाईलाजाने शहराकडे आलेला आजोबा आपल्या नातवाला आमच्या वेळी की नाही असे म्हणून जेव्हा गोष्टी सांगतो तेव्हा त्याच्या नजरेसमोर येणार गाव आणि आत्ताच शहर हे हे त्याच्या दोन डोळ्यात दिसणारे चित्र स्पष्ट केलेले आहे

११) बारकाईने पाहता असे लक्षात येते की गावाकडच्या झाडांचा रंग आणि शहरातील झाडांचा रंग यामध्ये फरक दाखवलेला आहे तो म्हणजे नैसर्गिक रित्या वाढलेली झाडे किती छान दिसतात आणि कृत्रिम रित्या वाढवलेली झाडे जरी वाढली तरी ती कशी खुरटी खुरटलेलीच दिसतात

१२) गावाकडील मोकळी जागा मोकळे वातावरण हिरवी जमीन शहरातील कोंडतं वातावरण गजबजीत जागा आणि सिमेंट जंगल

१३) मोकळ्या हवेमुळे निर्माण झालेली प्रसन्नता कोंदट हवेने प्रदूषण वाढल्याने निर्माण झालेला तणाव

१४) लेखकाच्या दृष्टीचा पडलेला गाव आणि शहरावरचा प्रकाशझोत

अशा अनेक कल्पनांना वाव देणारे साधेसे चित्र पण अतिशय चिंतनीय. विचारशील असे हे चित्र. रमेश नावडकर यांनी चितारलेले विषय पूरक असे असून साध्या गोष्टीतूनही सामाजिक भान जागे करणारे असे आहे त्याची निवड प्रकाशक उषा अनिल प्रकाशनच्या उषा अनिल शिंदे यांनी केली आणि लेखक नारायण कुंभार यांनी त्याला मान्यता दिली म्हणून त्यांचे मन:पूर्वक आभार

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 227 ☆ व्यंग्य – सुरक्षित सम्मान की गारंटी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – सुरक्षित सम्मान की गारंटी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 226 ☆

☆ व्यंग्य  – सुरक्षित सम्मान की गारंटी

नगर के जाने-माने लेखक छोटेलाल ‘नादान’ इस वक्त अपने सम्मान के लिए सम्मान- समारोह में बैठे हैं। सम्मान नगर की जानी मानी संस्था ‘अभिशोक’ के द्वारा हो रहा है। ‘अभिशोक’ लेखकों के लिए दो ही काम करती है –अभिनन्दन और शोकसभा। इसीलिए संस्था का नाम ‘अभिशोक’। फिलहाल अभिनन्दन और सम्मान का कार्यक्रम चल रहा है।

‘अभिशोक’ संस्था प्रतिवर्ष इक्कीस लेखकों का सम्मान करती है। इस बार के इक्कीस में ‘नादान’ जी भी शामिल हैं। साल में कई बार संस्था के पदाधिकारियों के घुटने और ठुड्डी छू कर उन्होंने इस साल के इक्कीस में अपनी जगह सुनिश्चित की। अब वे अपनी पुलक दबाये स्टेज पर प्रतीक्षारत बैठे हैं।

सम्मान कार्यक्रम शुरू हो गया है लेकिन ‘नादान’ जी का नंबर सत्रहवाँ है। एक-एक सम्मानित के सम्मान में समय लग रहा है क्योंकि कई सम्मानित अपने परिवार को साथ लाये हैं जो सम्मान बँटाने और फोटो खिंचाने के लिए स्टेज पर पहुँच जाते हैं। कई सम्मानित भावुक होकर परिवार के लोगों से लिपटकर रोने लगते हैं। इसीलिए कार्यक्रम मंथर गति से चल रहा है।

‘नादान’ जी अपनी जगह क्समसा रहे हैं। सम्मान में होते विलम्ब के साथ धीरज छूट रहा है। बार-बार माथे का पसीना पोंछते हैं। दिल की धड़कन असामान्य हो रही है।

अन्ततः ‘नादान’ जी का नंबर आया और वे हड़बड़ा कर उठे। आगे बढ़ने से पहले अचानक सीने में दर्द उठा और वे वापस कुर्सी में ढह गये। अचेत हो गये। लोग उन्हें उठाकर अस्पताल ले गये। दो घंटे की कोशिशों के बाद डाक्टरों ने उन्हें स्वर्गवासी घोषित कर दिया।

‘नादान’ जी की चेतना लौटी तो देखा सामने एक छोटे से सिंहासन पर एक सयाने सज्जन बैठे हैं और उनके आजू-बाजू चार छः लोग अदब से खड़े हैं। पता चला सिंहासन पर बैठे सज्जन चित्रगुप्त थे।

चित्रगुप्त जी थोड़ी देर तक अपने बही खाते के पन्ने पलट कर बोले, ‘आपके नाम का पन्ना मिल गया है। अभी आप एक-दो दिन विश्राम करेंगे। तब तक हम आपकी जिन्दगी का जमाखर्च देख लेंगे। उसी हिसाब से आपके भविष्य का फैसला होगा।’

‘नादान’ जी दुख और गुस्से से भरे बैठे थे। क्रोध में बोले, ‘वह सब ठीक है। हमें पता है कि एक दिन सबको यहाँ आना है, लेकिन यह क्या बात हुई कि आपने सम्मान से पहले यहाँ उठा लिया? क्या आपके दूत सम्मान का कार्यक्रम खत्म होने तक रुक नहीं सकते थे? आपको शायद पता नहीं कि पृथ्वी पर लेखक को सम्मान कितनी मुश्किल से मिलता है, कितने तार जोड़ने पड़ते हैं।’

चित्रगुप्त जी नरम स्वर में बोले, ‘वह सब माया है। यहाँ आने का समय सबके लिए नियत है। उसमें फेरबदल नहीं हो सकता।’

‘नादान’ जी ने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया, ‘सब कहने की बातें हैं। आपके यहाँ रसूखदार लोगों के लिए सब एडजस्टमेंट हो जाते हैं। मनचाहा एक्सटेंशन भी मिल जाता है। सिर्फ हमीं जैसे लोगों के लिए ‘राई घटै, ना तिल बढ़ै’ की बात की जाती है।’

चित्रगुप्त जी ने अपनी पोथी से सिर उठाकर पूछा, ‘कौन सा पक्षपात किया हमने?’

‘नादान’ जी बोले, ‘एक हो तो बताऊँ। भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का वरदान कैसे मिला? उन्होंने अपने पिता का विवाह सत्यवती से कराने के लिए आजीवन अविवाहित रहने का प्रण लिया ताकि सत्यवती की सन्तान ही उनके पिता के बाद सिंहासन पर बैठे। इसी से प्रसन्न होकर राजा ने भीष्म को इच्छा-मृत्यु का वरदान दिया और भीष्म ने 58 दिन तक शर-शैया पर लेटे रहने के बाद शरीर छोड़ा। क्या यह आपकी सहमति के बिना हो सकता था?

‘दूसरा केस राजा ययाति का है। यमराज कई बार उनके प्राण लेने के लिए पहुँचे और उन्होंने कई बार उनकी खुशामद करके मृत्यु टाल दी। उन्होंने अपने पुत्र की जवानी माँग ली और फिर हजारों साल तक सांसारिक सुखों को भोगा। यह सब क्या आपकी सहमति के बिना संभव था?’

चित्रगुप्त असमंजस में अपना सिर खुजाने लगे। फिर बोले, ‘अब ये सब बातें मत उठाओ। तुम्हारा शरीर तो जल गया, इसलिए तुम्हें उस शरीर में वापस नहीं भेज सकते। अब क्या चाहते हो?’

‘नादान’ जी बोले, ‘अब यह नीति बनाइए कि किसी लेखक को सम्मान के बीच में नहीं उठाया जाएगा। आपके दूतों को हिदायत दी जाए कि जब सम्मानित अपने घर पहुँच कर परिवार और इष्ट-मित्रों को सम्मान-पत्र दिखाकर खुश और गर्वित कर दे उसके बाद ही आपकी कार्यवाही हो।’

चित्रगुप्त जी बोले, ‘ठीक है, मैं ऊपर बात करूँगा, लेकिन ये पुरानी बातें उठाना बन्द करो।’

दो दिन बाद मुनादी हो गयी कि मर्त्यलोक में किसी भी लेखक को सम्मान के कार्यक्रम के बीच में नहीं उठाया जाएगा।

यह सूचना पृथ्वी पर पहुँचने पर समस्त लेखक समुदाय हर्षित हुआ। यह इत्मीनान हुआ कि लेखक के सम्मान के दौरान दैवी शक्तियों के द्वारा कोई विघ्न-बाधा उपस्थित नहीं की जाएगी। किसी सम्मानित का ऊपर से बुलावा आएगा तो यमदूत सम्मान-कार्यक्रम खत्म होने तक कहीं बैठकर इन्तज़ार कर लेंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 226 – सहजानुभूति ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 226 ☆ सहजानुभूति ?

शब्द ब्रह्म है। हर शब्द की अपनी सत्ता है। भले ही हमने पर्यायवाची के रूप में  विभिन्न शब्दों को पढ़ा हो तथापि हर शब्द अपना विशिष्ट अस्तित्व रखता है। समानार्थी शब्द भी एक तरह से जुड़वा संतानों की तरह हैं, एक ही नाल से जुड़े पर अलग देह, अलग विचार, अलग भाव रखनेवाले। शब्दों की इस यात्रा में ‘नग्न’ और ‘निर्वस्त्र’ शब्द पर विचार हुआ।

इस विचार के साथ ही स्मरण हो आया शुकदेव जी महाराज से जुड़ा एक प्रसंग। शुकदेव जी, महर्षि वेदव्यास के पुत्र थे। ज्ञान पिपासा ऐसी कि बिना वस्त्र धारण किए ही साधना के लिए अरण्य की ओर चले। महर्षि वेदव्यास जानते थे कि पुत्र को साधना से विरक्त करना संभव नहीं तथापि ज्ञान पर पुत्र के प्रति आसक्त पिता भारी पड़ा। आगे-आगे निर्वस्त्र शुकदेव जी विरक्त भाव से  भाग रहे हैं, पीछे-पीछे अपने वस्त्रों को संभालते पुत्र मोह में व्याकुल महर्षि वेदव्यास भी दौड़ लगा रहे हैं। अरण्य के आरंभिक क्षेत्र में एक सरोवर में कुछ कन्याएँ स्नान कर रही थीं। शुकदेव जी महाराज सरोवर के निकट से निकले। कन्याओं ने उसी अवस्था में बाहर आकर उन्हें प्रणाम किया। महर्षि ने दूर से यह दृश्य देखा, आश्चर्यचकित हुए। आश्चर्य का चरम यह कि महर्षि को सरोवर की ओर आते देख सभी कन्याएँ सरोवर में उतर गईं। महर्षि सोच में पड़ गए। अथक ज्ञान साधना में डूबे रहने वाले महर्षि अपने जिज्ञासा को रोक नहीं पाए और उन कन्याओं से पूछा, “मेरा युवा पुत्र निर्वस्त्र अवस्था में यहाँ से निकला तो तुम लोगों ने बाहर आकर प्रणाम किया। जबकि मुझ वस्त्रावृत्त वृद्ध ऋषि को आते देख तुम लोगों ने स्वयं को सरोवर के जल में छिपा लिया है। मैं इस अंतर का भेद समझ नहीं पाया। मेरा मार्गदर्शन करो कुमारिकाओ!” एक कन्या ने गंभीरता के साथ कहा,”महर्षि! आपका पुत्र नग्न है, निर्वस्त्र नहीं।”

निर्वस्त्र होने और नग्न होने में अंतर है। अघोरी निर्वस्त्र है, साधु नग्न है। एक वासना से पीड़ित है, दूसरा साधना से उन्मीलित है। एक में कुटिलता है, दूसरे में दिव्यता है।

यूँ देखें तो अपनी आत्मा के आलोक में हर व्यक्ति निर्वस्त्र है। निर्वस्त्र से नग्न होने की अपनी यात्रा है। बहुत सरल है निर्वस्त्र होना, बहुत कठिन है नग्न होना। नागा साधु, दिगंबर मुनि होना, अपने आप में उत्कर्ष है।

लेकिन यूँ ही नहीं होती उत्कर्ष की यात्रा। इस यात्रा को वांछित है सदाचार, वांछित है  पारदर्शिता जो जन्म से मनुष्य को मिली है। प्राकृत होना है तो भीतर-बाहर के आवरण से मुक्त होना होगा, निष्पाप भाव से शिशु की भाँति नंग-धड़ंग होना  होगा।  इस संदर्भ में ‘नंग-धड़ंग’ शीर्षक की अपनी कविता स्मरण आ रही है,

तुम झूठ बोलने की

कोशिश करते हो

किसी सच की तरह,

तुम्हारा सच

पकड़ा जाता है

किसी झूठ की तरह..,

मेरी सलाह है,

जैसा महसूसते हो

वैसे ही जिया करो,

काँच की तरह

पारदर्शी रहा करो,

मन का प्राकृत रूप

आकर्षित करता है

प्रकृति के

सौंदर्य की तरह,

किसी नंग-धड़ंग

शिशु की तरह..!

स्मरण रहे, व्यक्ति नग्न अवस्था में जन्म लेता है, अगले तीन-चार वर्ष न्यूनाधिक प्राकृत ही रहता है। इस अवस्था के बालक या बालिका  परमेश्वर का रूप कहलाते हैं। ईश्वरीय तत्व के लिए  सहजानुभूति आवश्यक है। इस सहजानुभूति का मार्ग आडंबरों और आवरणों से मुक्त होने से निकलता है। मार्ग का चयन करना, न करना प्रत्येक का अपना निर्णय है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 174 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 174 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 174) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IMM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 174 ?

☆☆☆☆☆

Wasteful Moments

☆☆

ज़िंदगी का हर लम्हा

कुछ यूं बर्बाद हुआ है,

कि उसका अहसास भी

बरबादी के बाद ही हुआ है…!

☆☆

Every moment of the life has

been wasted in such a way…

That its realisation ocurred

only after its wasteful loss…!

☆☆☆☆☆

Sacrosanct Epic

☆☆

लिख कर रखा है मैंने

तुम्हें किताबों की तरह,

मेरे बाद भी तुम दुनियाँ में

दिल से ही पढे जाओगे…!

☆☆

I have manuscripted you

sacrosanctly like an epic,

Even after me, you’ll be read

from the heart only…!

☆☆☆☆☆

Quyamat…the Catastrophe…!

☆☆

अगर फिर किसी मोड़ पर मिलूँ

तो मुँह जरूर फ़ेर लेना

वरना, पुराना इश्क़ है, अगर दुबारा

मिले तो कयामत ही आ जाएगी…!

☆☆

If I ever meet you aat some point,

you must turn away your face…

It’s an age-old love, meeting again,

will certainly result in catastrophe…!

☆☆☆☆☆

Existential Loss

☆☆

बड़े लोगों से मिलने में

हमेशा फ़ासला रखना,

जहाँ दरिया समुंदर से मिला

वो दरिया नहीं रहता…!

– बशीर बद्र

☆☆

Always avoid meeting with

big influential people,

Whenever the river meets the

ocean, it ceases to exist…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 172 ☆ मुक्तक ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तक )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 172 ☆

☆ मुक्तक – ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

रात गई है छोड़कर यादों की बारात

रात साथ ले गई है साँसों के नग्मात

रात प्रसव पीड़ा से रह एकाकी मौन

रात न हो तो किस तरह कहिए आए प्रात

*

कोशिश पति को रात भर रात सुलाती थाम

श्रांत-क्लांत श्रम-शिशु को दे जी भर आराम

काट आँख ही आँख में रात उनींदी रात

सहे उपेक्षा मौन रह ऊषा ननदी वाम

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८-११-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares