हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #220 – 107 – “नाराज़ी इतनी ठीक ना है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल नाराज़ी इतनी ठीक ना है…” ।)

? ग़ज़ल # 107 – “नाराज़ी इतनी ठीक ना है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

तुमको  कहते हैं  लोग  मेरी जाने जाँ,

लेकर मेरा दिल बन गई मेरी जाने जाँ।

तुम आग तन बदन में लगाकर जाती हो

लहराती हो जब ज़ुल्फ़ें छत पर जाने जाँ।

तुमने मुझ पर नाराज़ होना छोड़ दिया,

नाराज़ी इतनी  ठीक ना  है जाने जाँ।

दुनियादारी में खोई हो तुम तो जानम,

तुम खूब बहाने क्यूँ  बनाती जाने जाँ।

तुम खुलकर भी तो मिल नहीं पाती हो,

आतिश को रहती हो  भर्माती जाने जाँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 97 ☆ मुक्तक ☆ ।।चलो शिद्दत से मंजिल खुद कदम चूम लेती है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 97 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।चलो शिद्दत से मंजिल खुद कदम चूम लेती है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

चाहो शिद्दत से हर सपना   साकार होता है।

बिन इच्छा शक्ति यह   निराधार ही होता है।।

हमारा जोशो जनून बनता ऊर्जा का खजाना।

अगर   सामने लक्ष्य हमारा लगातार होता है।।

[2]

बीता समय कभी  आगे को   बढ़ाता नहीं है।

और आज भी कभी लौट कर आता नहीं है।।

वर्तमान में ही समाहित है भविष्य का रहस्य।

भूतकाल से भविष्य का रास्ता जाता नहीं है।।

[3]

समस्या के भीतर निहित होता समाधान है।

जीवन ही समस्या और जीवन ही निदान है।।

पीड़ा का स्वागत करो कि मजबूत बनाती है।

युगों से जाना   माना यही   एक विधान है।।

[4]

गलती से सीखो यह  अनुभव  ज्ञान देती है।

ये जिंदगी हर कदम कोई इम्तिहान कहती है।।

आशा विश्वास की ऊर्जा मत  गँवाना कभी।

फिर मंजिल आकर खुद  कदम चूम लेती है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 160 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “अनुपम भारत…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “परीक्षाओं से डर मत मन…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “अनुपम भारत” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

अपने में आप सा है, भारत हमारा प्यारा

जग में चमकता जगमग जैसे गगन का तारा।

हैं भूमि भाग अनुपम नदियाँ-पहाड़ न्यारे

उल्लास से तरंगित सागर के सब किनारे ।

ऋतुएँ सभी रंगीली, फल-फूल सब रसीले

इतिहास गर्वशाली, आँचल सुखद सजीले।

है सभ्यता पुरानी, परहित की भावनाएँ

सत्कर्ममय हो जीवन है मन की कामनाएँ।

गाँवों में भाईचारे का सुखद स्नेह व्याप्त था।

हवाएँ नरम थीं, मौसम सुहावना था।

लोगों में सरलता है दिन-रात सब सुहाने

त्यौहार प्रीतिमय हैं, अनुरागसिक्त गाने।

रामायण और गीता ज्ञान की अद्वितीय पुस्तकें हैं

जो मन को विचलित नहीं होना, बल्कि स्थिर रहना सिखाती हैं।

ये देश है सुहाना, धर्मों का मेला

असहाय भी न पाता, खुद को जहाँ अकेला।

आध्यात्मिक है चिन्तन, धार्मिक विचारधारा

संसार से अलग है, भारत पुनीत प्यारा।

है ‘एकता विविधता में’ लक्ष्य अति पुराना

भारत ‘विदग्ध’ जग का आदर्श है सुहाना ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #215 ☆ ज़िंदगी उत्सव है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी उत्सव है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 215 ☆

☆ ज़िंदगी उत्सव है

‘कुछ लोग ज़िंदगी होते हैं / कुछ लोग ज़िंदगी में होते हैं / कुछ लोगों से ज़िंदगी होती है और कुछ लोग होते हैं, तो ज़िंदगी होती है’… इस तथ्य को उजागर करता है कि इंसान अकेला नहीं रह सकता; उसे चंद लोगों के साथ की सदैव आवश्यकता होती है और उनके सानिध्य से ज़िंदगी हसीन हो जाती है। वास्तव में वे जीने का मक़सद होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि दोस्त, किताब, रास्ता और सोच सही व अच्छे हों, तो जीवन उत्सव बन जाता है और ग़लत हों, तो मानव को गुमराह कर देते हैं। सो! दोस्त सदा अच्छे, सुसंस्कारित, चरित्रवान् व सकारात्मक सोच के होने चाहिएं। परंतु यह तभी संभव है, यदि वे अच्छे साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो सामान्यतः वे सत्य पथ के अनुगामी होंगे और उनकी सोच सकारात्मक होगी। यदि मानव को इन चारों का साथ मिलता है, तो जीवन उत्सव बन जाता है, अन्यथा वे आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं; जहां का हर रास्ता अंधी गलियों में जाकर खुलता है और लाख चाहने पर भी इंसान वहां से लौट नहीं सकता। इसलिए अच्छे लोगों की जीवन में बहुत अहमियत होती है। वे हमारे प्रेरक व पथ-प्रदर्शक होते हैं और उनसे स्थापित संबंध शाश्वत् होते हैं।

यह भी अकाट्य सत्य है कि रिश्ते कभी क़ुदरती मौत नहीं मरते, इनका कत्ल इंसान कभी नफ़रत, कभी नज़रांदाज़ी, तो कभी ग़लतफ़हमी से करता है, क्योंकि घृणा में इंसान को दूसरे के गुण और अच्छाइयां दिखाई नहीं देते। कई बार इंसान अच्छे लोगों के गुणों की ओर ध्यान ही नहीं देता; उनकी उपेक्षा करता है और ग़लत लोगों की संगति में फंस जाता है। इस प्रकार दूसरे के प्रति ग़लतफ़हमी हो जाती है। अक्सर वह अन्य लोगों द्वारा उत्पन्न की जाती है और कई बार हम किसी के प्रति ग़लत धारणा बना लेते हैं। इस प्रकार इंसान अच्छे लोगों को नज़रांदाज़ करने लग जाता है और उनकी सत्संगति व साहचर्य से वंचित हो जाता है।

परंतु संसार में यदि मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करने वाला कोई है, तो वह प्रेम है और इसका सबसे बड़ा साथी है आत्मविश्वास। सो! प्रेम ही पूजा है। प्रेम द्वारा ही हम प्रभु को भी अपने वश में कर सकते हैं और आत्मविश्वास रूपी पतवार से कठिन से कठिन आपदा का सामना कर, सुनामी की लहरों से भी पार उतर कर अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। इस प्रकार प्रेम व आत्मविश्वास की जीवन में अहम् भूमिका है… उन्हें कभी ख़ुद से अलग न होने दें। इसलिए किसी के प्रति घृणा व मोह का भाव मत रखें, क्योंकि वे दोनों हृदय में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव उत्पन्न करते हैं। मोह में हमारी स्थिति उस अंधे की भांति हो जाती है; जो सब कुछ अपनों को दे देना चाहता है। मोह के भ्रम में इंसान सत्य से अवगत नहीं हो पाता और ग़लत काम करता है। वह राग-द्वेष का जनक है और उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है। हम सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं और एक-दूसरे के बिना अधूरे व अस्तित्वहीन हैं… यही रिश्तों की गरिमा है; खूबसूरती है। इसीलिए कहा जाता है ‘दिल पर न लो उनकी बातें /जो दिल में रहते हैं’ अर्थात् जिन्हें आप अपना स्वीकारते हैं, उनकी बातों का बुरा कभी मत मानें। वे सदैव आपके हित मंगल कामना करते हैं; ग़लत राहों पर चलने से आपको रोकते हैं; विपत्ति व विषम परिस्थिति में ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं। हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जब हम यह समझ लेते हैं कि ‘वे ग़लत नहीं हैं; भिन्न हैं। उस स्थिति में सभी शंकाओं व समस्याओं का अंत हो जाता है, क्योंकि हर इंसान का सोचने का ढंग अलग-अलग होता है।’

‘ज़िंदगी लम्हों की किताब है /सांसों व ख्यालों का हिसाब है / कुछ ज़रूरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी / बस इन्हीं सवालों का जवाब है ज़िंदगी।’ सांसों का आना-जाना हमारे जीवन का दस्तावेज़ है। जीवन में कभी भी सभी ख्वाहिशें पूरी नहीं होती, परंतु ज़रूरतें आसानी से पूरी हो जाती हैं। वास्तव में ज़िंदगी इन्हीं प्रश्नों का उत्तर है और बड़ी लाजवाब है। इसलिए मानव को हर क्षण जीने का संदेश दिया गया है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि ख्वाहिशें तभी मुकम्मल अर्थात् पूरी होती हैं/ जब शिद्दत से भरी हों और उन्हें पूरा करने की/ मन में इच्छा व तलब हो। तलब से तात्पर्य है, यदि आपकी इच्छा-शक्ति प्रबल है, तो दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं। आप आसानी से अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकते हैं और हर परिस्थिति में सफलता आपके कदम चूमेगी।

सो! कुछ बातें, कुछ यादें, कुछ लोग और उनसे बने रिश्ते लाख चाहने पर भी भुलाए नहीं जा सकते, क्योंकि उनकी स्मृतियां सदैव ज़हन में बनी रहती हैं। जैसे इंसान अच्छी स्मृतियों में सुक़ून पाता है और बुरी स्मृतियां उसके जीवन को जहन्नुम बना देती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लो; अपना लो, क्योंकि यही सबसे उत्तम विकल्प होता है। जो मानव दोष-दर्शन की प्रवृत्ति से निज़ात नहीं पाता, सदैव दु:खी रहता है। अच्छे लोगों का साथ कभी मत छोड़ें, क्योंकि वे तक़दीर से मिलते हैं। दूसरे शब्दों में वे आपके शुभ कर्मों का फल होते हैं। ऐसे लोग दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं जो आपकी तक़दीर बदल देते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘रिश्ते वे होते हैं, जहां शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो/ आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो। यही है रिश्तों की खूबसूरती।’ जब इंसान बिना कहे दूसरे के मनोभावों को समझ जाए; वह सबसे सुंदर भाषा है। मौन विश्व की सर्वोत्तम भाषा है, जहां तक़रार अर्थात् विवाद कम, संवाद ज़्यादा होता है। संवाद के माध्यम से मानव अपनी प्रेम की भावनाओं का इज़हार कर सकता है। इतना ही नहीं, दूसरे पर विश्वास होना कारग़र है, परंतु उससे उम्मीद रखना दु:खों की जनक है। इसलिए आत्मविश्वास संजोकर रखें, क्योंकि इसके माध्यम से आप अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

सुख मानव के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन सफल होता है। सो! मानव को सुख में अहंकार से न फूलने की शिक्षा दी गई है और दु:ख में धैर्यवान बने रहने को सफलता की कसौटी स्वीकारा गया है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु व सभी रोगों की जड़ है। वह वर्षों पुरानी मित्रता में पल-भर में सेंध लगा सकता है; पति-पत्नी में अलगाव का कारण बन सकता है। वह हमें एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देता। इसलिए अच्छे लोगों की संगति कीजिए; उनसे संबंध बनाइए; कानों-सुनी बात पर नहीं, आंखों देखी पर विश्वास कीजिए। स्व-पर व राग-द्वेष को त्याग ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ को जीवन का मूलमंत्र बना लीजिए, क्योंकि इंसान का सबसे बड़ा शत्रु स्वयं उसका अहम् है। सो! उससे सदैव कोसों दूर रहिए। सारा संसार आपको अपना लगेगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #216 ☆ लघुकथा – करनी का फल… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा करनी का फल)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 216 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा –  करनी का फल… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

जीवन के रंग कितने निराले हैं। आज जैसे ही लल्लन ने सूचना दी कि …”बड़ी चाची नहीं रही।”

हमने कहा …”ठीक है हम थोड़ी देर में पहुंचते हैं।”

लल्लन ने कहा.. “कोई बात नहीं हमने बहुत पहले ही फॉर्म भर दिया था देहदान के लिए।”

इसका मतलब तो यह हुआ जब  देहदान कर ही दिया है तो घर जाने का  क्या अर्थ?

तब सारी परतें खुलने लगी वह क्षण याद आने लगा जब 4 महीने के बच्चे को छोड़कर फूफा जी नहीं रहे थे। तब बुआ ने मुश्किल से लल्लन का पालन पोषण किया था और उसे कलेक्टर बनाया लेकिन वह अपनी बेवकूफी में कलेक्ट्री हाथ से धो बैठा और गलत संगत में पड़ गया इस कारण पत्नी बच्चे भी छोड़ कर चले गए केवल मां ही उसके लिए एक सहारा बची  थीं मां जानते हुए भी कि बच्चा अपनी राह से भटक चुका है फिर भी उसे कई बार राह पर लाने की कोशिश की जिसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें जो जीवन में कभी नहीं सोचा था  वह हुआ, बच्चे के हाथ से मार भी खानी पड़ेगी तिल तिल कर के उस बच्चे ने जाने किस जन्म का बदला लिया। वह सिर्फ अपनी अय्याशी अपनी मनमर्जी करना चाहता था उसे जब जब चाची ने रोका टोका तब तब उसने उस बात की अवहेलना की। और 3 दिन पहले ही पता चला कि चाची घर पर गिर पड़ी है और  वह कोमा में चली गई ।आज जैसे ही देह दान का पता चला अंतर्मन से सिर्फ एक ही आवाज निकली लल्लन को उसकी करनी का फल जरुर मिलेगा।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #197 ☆ संतोष के दोहे – सब मिल गाओ गीत प्रेम के ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – ऊँचे हिमगिरि के शिखरआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 197 ☆

☆ संतोष के दोहे  – सब मिल गाओ गीत प्रेम के ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आज  अवध  में धूम  मची है

सरयू -सलिला  सजी-धजी है

आएंगे    प्रभु    राम    हमारे

ढोलक  घंटी  झाँझ  बजी  है

बरसों  से  थी  आस   हमारी

आज मिली हैँ  खुशियां सारी

सब मिल गाओ  गीत प्रेम  के

प्रभु मिलन की  आई  घड़ी है

प्रभु  का मन्दिर भव्य बना है

बिराजे  जिसमें राम लला  हैँ

केंद्र  बना  सबकी  आशा का

सबको अब आने  की पड़ी है

हर   घर  में  उत्सव   दीवाली

खूब  सजीं   पूजा  की  थाली

दिल की बातें कर लो  प्रभु से

आज  कृपा की   हवा चली है

सारे   जग  से   न्यारा   मंदिर

हम  सबका   है  प्यारा  मंदिर

आस   दरश “संतोष” लिए  है

बढ़ी   हृदय  में   उतावली   है

आज  अवध  में  धूम मची है

सरयू सलिला  सजी-धजी  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 205 ☆ शब्द तुझे का स्वरात माझ्या… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 205 – विजय साहित्य ?

☆ शब्द तुझे का स्वरात माझ्या… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

(गागा गागा लगाल गागा)

चिंतेचे घर मनात माझ्या

घरघर त्याची उरात माझ्या .

 

बोलत जातो तुझ्या स्मृतींशी

हळवे वारे घरात माझ्या.

 

मोठे झाले कधी लेकरू

घुटमळतो मी पदात माझ्या .

 

बांधावरती ओली बाभळ

सळसळ बोली सुरात माझ्या.

 

हाती माझ्या प्रगती पुस्तक

रेघ लाल का सुखात माझ्या.

 

निरोप नाही नसे खुशाली

शब्द तुझे का स्वरात माझ्या.

 

लेखणीस या फुटला पाझर

हरवशील तू जगात माझ्या .

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ फूल ज़रा आहिस्ता फेको…… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ फूल ज़रा आहिस्ता फेंको… फूल बडे नाजुक होते हैं… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

फुलं आणि मुलं उमलताना सुकोमल असतं… दिसताना तसचं दिसत असतं…ममतेने, प्रेमाने त्यांची काळजी घेणारे हात…मुग्धावस्थेत लालन पालन करणाऱ्यांची असते का त्यांना  साथ… पण हे सगळं प्रत्येकाच्या नशिबात कुठे असते.. भाग्याचा अभंग  खडक परिस्थितीच्या चौकात वाट पाहात असतो त्यांची… अशी दुर्भाग्य पूर्ण बालकांची नि फुलांची… अबोल भावना दोघांच्याही.. एक हाताने चौकात कुठे फुलांची माळ विकावी तेव्हा कुठे मिळणाऱ्या दमडीतून पोटाची खळगी भरावी… फुलांना तरी हट्ट करायला कुठे मिळते स्वातंत्र्य…कधी मूर्तीवर,प्रतिमेवर तर कधी पांढऱ्या शुभ्र वसनातील कलेवर…आजचं फुलणं, सुगंधाची पखरण करणं आणि आणि  संध्यासमयी कोमेजून आपलचं निर्माल्य होणं… काय तर म्हणे निसर्ग चक्र.. आजवरी यात कधी तसुभर बदल झालाय काय?  आणि होईल कसा?… बाल्यावस्थेतील मुलाची निसर्गाच्या नियमाने होत जाणारी वाढ थांबवता येते का?.. परिस्थितीतचा नकाशा मात्र व्यापक नि विस्तृत झालेला… चौकातच जिना और चौकातच मरना अपनी अपनी औकात पहचानना… फुलांच्या माळेने नाकाला सुगंध जाणवतो तो जगणं किती सुंदर असतयं याचा क्षणाचा भास दाखवतो…मला विकुन तुझं पोट भरता येईल… विकत घेणाऱ्याला सुगंधाचा आनंदही देईन माझ्या अंतापर्यंत… पण पण मला काय मिळेल.. चौकातला दगडी कटृटा निर्विकारपणे मुलाला नि फुलाला जवळ बसवून घेत असतो… सिग्नलचा लाल पिवळा हिरवा रंगाचा …थांबा पाहा पुढे जाचा खेळ मांडून बसतो…वाहनांमधले, पदपथावरले माणसांना क्षण दोन आपल्या विश्वातून भानावर या संवेदनशीलता जागरूक ठेवून सजगतेने अवतीभवतचं अवलोकन करा… कुणी गरजु असेल तर त्यास न हिचकिचता मदतीचा हात पुढे करा… हिच खरी मानवता… नाहीतर आहेच आपली कोरडी शुष्क घोषणाबाजी बसवर नि भिंतीवर रंगवलेली.. मुलं म्हणजे देवा घरची फुलं.. झाडं लावा झाडं जगावा… बालकांना शाळेत पाठवा… आणि आणि आणि बालमजुरी करायला लावणं हा समाजाचा शासनाचा नैतिक अध: पात आहे…कायदेशीर गुन्हा आहे…हिरवा सिग्नल लागताच वाहनं बसेस पळू लागतात नि त्यावरील घोषणा पोकळच ठरतात… निर्जीव भिंतीना रंग चोपडून घोषणा गोंदवून घेतात पण त्याकडे माणूस नावाचा प्राणी फक्त बघत नसतो… त्याच्याशी त्याचं काहीच देणं घेणं नसतं… रूपायाचं चाफ्याचं  फुलं मात्र दहाच पैश्यालाच हवं असतं… महागाईला धरबंध काही उरलाच नाही हे तत्त्वज्ञान मात्र चौकात मांडायचं असतं…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ४ — ज्ञानकर्मसंन्यासयोग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ४ — ज्ञानकर्मसंन्यासयोग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

श्रीभगवानुवाच 

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ । 

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥ ४-१ ॥ 

कथित भगवान

अव्यय योग कथिला मी विवस्वानाला

त्याने कथिला स्वपुत्राला वैवस्वताला ।। १ ।।

अपुल्या सुतास कथिले त्याने मग मनुला

इक्ष्वाकूला मनुने कथिले या अव्यय योगाला ॥१॥

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ ४-२ ॥ 

अरितापना राजर्षींनी योग जाणला परंपरेने

वसुंधरेवर नष्ट पावला तो परि कालौघाने ॥२॥

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥ ४-३ ॥ 

योग हा तर अतिश्रेष्ठ अन् कारकरहस्य

प्रिय सखा नि भक्त असशी माझा कौन्तेय 

मानवजातीला उद्धरण्या घेउन आलो हा योग

तुजला कथितो आपुलकीने पार्था ऐक हा योग ॥३॥

अर्जुन उवाच 

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । 

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४-४ ॥ 

कथिले अर्जुनाने

हे श्रीकृष्णा जन्म तुझा तर अर्वाचीन काळाला

अतिप्राचीन सूर्यजन्म  कल्पारंभी काळाला

महाप्रचंड अंतर तुम्हा दोघांच्याही काळाला

मला न उमगे आदीकाळी कथिले कैसे सूर्याला ॥४॥

श्रीभगवानुवाच 

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ४-५ ॥ 

कथित श्रीभगवान

कितीक जन्म झाले माझे-तुझे ऐक परंतपा कुंतीपुत्रा

तुला न जाणिव त्यांची परी मी त्या सर्वांचा ज्ञाता ॥५॥

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ । 

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ४-६ ॥ 

अजन्मा मी,  मी अविनाशी मला न काही अंत

सकल जीवांचा ईश्वर मी नाही तुजला ज्ञात

समग्र प्रकृती स्वाधीन करुनी देह धारुनी येतो

योगमायेने मी अपुल्या प्रकट होत असतो ॥६॥

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ ४-७ ॥ 

जेव्हा जेव्हा धर्माची भारता होत ग्लानी 

उद्धरण्याला धर्माला येतो मी अवतरुनी ॥७॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ । 

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ४-८ ॥ 

विनाश करुनीया दुष्टांचा रक्षण करण्या साधूंचे

युगा युगातुन येतो मी  संस्थापन करण्या धर्माचे ॥८॥

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । 

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ४-९ ॥ 

जन्म माझा दिव्य पार्था कर्म तथा निर्मल

मोक्ष तया मिळेल जोही या तत्वा जाणेल

देहाला सोडताच तो मजला प्राप्त करेल

पुनरपि मागे फिरोन ना पुनर्जन्मास येईल ॥९॥

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । 

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ ४-१० ॥ 

क्रोध भयाला नष्ट  करुनी निस्पृह जे झाले होते

अनन्य प्रेमाने माझ्या ठायी वास करूनि स्थित होते

ममाश्रयी बहु भक्त पावन होउनिया तपाचरणे ते

कृपा होउनी प्राप्त तयांना स्वरूप माझे झाले होते ॥१०॥

– क्रमशः भाग चौथा 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 134 ☆ लघुकथा – पचास पार की औरत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा पचास पार की औरत। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 134 ☆

☆ लघुकथा – पचास पार की औरत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सुनंदा बहुत दिनों से अनमनी-सी हो रही थी। क्यों? यह उसे भी नहीं पता।बस मन कुछ उचट रहा था। रह-रहकर निराशा और अकेलापन उसे घेर लेता। बेटी की शादी के बाद से अक्सर ऐसा होने लगा था। पति अपनी नौकरी में व्यस्त और वह सारा दिन घर में अकेली। इतनी फुरसत तो आज तक कभी उसे मिली ही नहीं थी। कहीं पढ़ा था कि पैंतालीस-पचास की उम्र के बाद स्त्रियों में हारमोनल बदलाव आते हैं, तो यह मूड स्विंग है? मेरे साथ भी यही हो रहा है क्या? अपने में ही उलझी हुई थी कि फोन की घंटी बजी। बेटी का फोन था– ‘क्या कर रही हो मम्माँ! बर्थ डे का क्या प्लान है? कितने साल की हो गईं अब ? ‘

‘अरे, कुछ नहीं इस उम्र में क्या बर्थ डे मनाना। जहाँ उम्र का काँटा चालीस-पैंतालीस के पार गया कि फिर शरीर ही उम्र बताने लगता है बेटा! विदेश में कहते हैं कि जीवन चालीस में शुरू होता है। हमारे देश में तो इस उम्र तक आते-आते महिलाएं चुक जाती हैं। ‘वह सोचने लगी अब पति कहते हैं– ‘तुम्हें आराम के लिए समय नहीं मिलता था ना, अब जितना आराम करना है करो।‘ बेटी समझाती है-  ‘घूमने जाइए, शॉपिंग करिए, मस्ती करिए, बहुत काम कर लिया माँ आपने। ‘वह कैसे समझाए कि उसकी जिंदगी तो इन दोनों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। अपने लिए कभी सोचा ही कहाँ उसने। अब एकदम से कैसे बदल ले अपने आपको ?

‘हैलो मम्माँ कहाँ खो गईं ?’ बेटी फोन पर फिर बोली ।

‘अरे यहीं हूँ, बोल ना।‘

‘बताया नहीं आपने, क्या करेंगी बर्थ डे पर?‘

अभी कुछ सोचा नहीं है, अच्छा फोन रखती हूँ। मुँह धोकर वह शीशे के सामने खड़ी हो गई। लगा बहुत समय बाद फुरसत से अपने चेहरे को देख रही है। वह मुस्कुराने लगी, सुना था ऐसा करने से मन खुशी से भर जाता है। हाँ कुछ कह रहा है मन ‘-अब भी अपने लिए नहीं जीऊँगी तो कब? निकलना ही होगा अपने बनाए इस घेरे से। ‘उसने कपड़े बदले, रिक्शा बुलाया और निकल पड़ी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares