मराठी साहित्य – बोलकी मुखपृष्ठे ☆ “मनाचा गूढ गाभारा” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

? बोलकी मुखपृष्ठे ?

☆ “मनाचा गूढ गाभारा” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

नुकतेच म्हणजे २६ नोव्हेंबर २०२३ रोजी प्रकाशित झालेले  मनाचा गूढ गाभारा पुस्तक हातात पडले आणि मुखपृष्ठ पहातच राहिले. 

गर्द हिरवट रंगावर एक दिवटी, त्याचा प्रकाश आणि वर असलेले मनाचा गूढ गाभारा हे शब्द. बस्सऽऽऽ एवढेच चित्र! पण किती बोलके आहे•••

०१) गाभारा या शब्दातून देवालय प्रेरित होते आणि मग त्या दृष्टीकोनातून बघितले तर गाभार्‍यातील अंधार हा कधीच काळा नसतो तर तो कधी निळा कधी हिरवा असा मोरपंखी असतो. तोच भाव या रंगातून प्रेरित होतो आणि अशा गाभार्‍यात पेटणारी नव्हे तर तेवणारी ही दिवटी गाभारा उजळून टाकत आहे. हा प्रकाश सूर्य वलयासारखा शाश्वत आहे आणि त्याची आभा ही एक सकारात्मकता एक चैतन्य देणारी आहे.

०२) नंतर विचार करता मनाचा शब्द गाभार्‍यातून घुमतो आणि मग हा गाभारा हा अंतरात्म्याचा आहे त्यातील भाव कधीच लवकर स्पष्ट होत नसतात आणि या गूढतेवर दिवटीची तेजोवलये पडली तर मनातील गर्तता सकारात्मकतेने चैतन्याने उजळून स्पष्ट होऊ लागते.

०३) ही दिवटी नीट पाहिली तर ही साधी पणती नसून संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर यांच्या ज्ञानेश्वरीवर असलेल्या दिवटीसारखी आहे. त्याच ज्ञानशक्तीचे रूप घेऊन आलेली आहे आणि हा ज्ञानप्रकाश गूढ असला तरी गीतेतील जीवनाचे सार सांगून अर्जूनाला नैराश्येच्या तमातून बाहेर काढणार्‍या कृष्णवर्णिय आभा सारख्या सदोदित उर्जा देणारा आहे.

०४) मनाचा गूढ गाभारा या अक्षरांकडे नीट पाहिले तर गाभारा हा शब्द केशरी आणि पिवळ्या रंगात आहे. त्या रंगातच गाभारा हा अंधारी नसून तेजाने भरलेला आहे असे सांगितले आहे. गूढ शब्द पिवळ्या रंगात आहे. म्हणजे ही गूढता आता प्रकाशमय होईल हा संकेत दाखवते. हा रंग सोन्याचा असल्याने शुद्ध सोन्यासारखे मौलिक काही या गाभार्‍यातून येणार आहे असे सुचवते. किंवा रस्त्यावरिल सिग्नलमधे असणारा पिवळा सिग्नल जसे लाल रंगाचा धोका जाऊन पुढचे लवकरच सुकर होईल त्यासाठी तयार रहा अशी सूचना देत असतो आणि आता पुढच्या प्रवासाला सुरुवात करा सांगतो तसेच गूढ आता बोलून सगळे स्पष्ट होईल सुचवते. नंतर मनाचा शब्द बघितला तर सगळे मळभ जाऊन सारे काही हिर्‍यासारखे चमचमणारे सफेद रंगातील विचार असणार आहेत. ते अगदी स्पष्ट असणार आहेत. हे सुचवते.

०५) सहज लेखकाच्या नावाकडे लक्ष गेले आणि यापुस्तकाच्या लेखकाचे नावही किती समर्पक आहे असे वाटले. अभिजीत काळे•••

अभिजीत म्हणजे कृष्ण ; जो अंतर्मनातील  गूढार्थ वाचक अर्जूनाच्या मनापर्यंत घेऊन जाणार आहे आणि ये हृदयीचे ते हृदयी घातले याची अनुभूती देणार आहे. 

किंवा काळ्या गर्ततेवर सदा विजय मिळवून अजेय राहणारे असे अभिजीत काळे मनातील गाभार्‍याचे रहस्य उलगडणार आहेत.

०६) पुस्तकातील अंतरंगाशीही तादात्म्य साधणारे हे चित्र आहे. हे पुस्तक १०१ गझलांचा संग्रह आहे. गझल म्हणजे उला आणि सानी मिसर्‍यांनी दोन ओळीतून मोठा अर्थ सांगणारी शेर रचना. तर हे चित्र म्हणजे मनाचा गूढ गाभारा या शब्दांचा उला मिसरा आणि चित्राचा सानी मिसरा या शेरात लपलेला तेजोमय गर्भितार्थ सांगू इच्छितो.

०७) लेखक अभिजीत काळे यांना मी ओळखत असल्याने त्यांचा संस्कृत सुभाषिते अध्यात्म यांचाही मोठा अभ्यास असल्याने ती केशरी सात्विकता, ती सत्यता प्रखर असूनही मंद आणि शीतल प्रकाशाप्रमाणे मनापर्यंत घेऊन जाणारी गूढ असले तरी सहज सोप्या शब्दांनी तेजोवलयाप्रमाणे परावर्तित होणारी शब्दरचना घेऊन येणारी गझलरचना सकारात्मकतेच्या आभेला स्पर्श करणार असल्याची ग्वाही देते.

०८) अंतरंगात डोकावल्यावर समजते की गझलकार अभिजीत यांनी ‘मन’ हे तखल्लुस ( टोपणनाव) घेऊन गझल लेखन केले आहे म्हणून त्या नावाचा लिलया उपयोग करून घेत गझलसंग्रहाला नाव दिले आहे. या अर्थाने देखील मग अर्थाला नवे आयाम लाभतात आणि ‘मनाच्या’ गूढ गाभार्‍यातील रहस्य जाणून घ्यायला आपले मन सज्ज होऊन अंतरंगात डोकावलेच पाहिजे असे वाटून केव्हा गझलेच्या प्रवाहात न्हाऊ लागतो हे कळत नाही.

असे छोटा पॅकेज मोठा धमाका असणारे मुखपृष्ठ अभिजीत काळे यांच्याच संकल्पनेतून श्री सुरेश नावडकर, श्री शिवदादा डोईजोडे, श्री साईनाथ फुसे यांनी चितारले आणि प्रकाशक गझलपुष्प पिंपरी- चिंचवड यांनी स्विकारले याबद्दल सगळ्यांचे मन:पूर्वक आभार

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 223 ☆ व्यंग्य – लेखक का सन्ताप ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – लेखक का सन्ताप। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 223 ☆

☆ व्यंग्य – लेखक का सन्ताप

[1]

आदरणीय तुलाराम जी,

सादर प्रणाम।

मैं पिछले चालीस साल से कलम का मजदूर बना हुआ हूँ। अब तक सात उपन्यास और तेइस कहानी संग्रह निकल चुके हैं। मेरे लेखन के प्रसंशकों की अच्छी खासी संख्या है। लेकिन मैं इसे ऊपर वाले की कृपा मानता हूँ, वर्ना मेरे जैसे आदमी की औकात ही क्या है।

आप प्रतिष्ठित समीक्षक हैं। बहुत लोगों से  आपकी समीक्षा की तारीफ सुनी है। मेरे मित्र कहते हैं की आपकी समीक्षा लेखकों के लिए बहुत फायदेमन्द होती है।

मैं अपना सद्यप्रकाशित उपन्यास ‘ऊँट और पहाड़’ आपकी सेवा में समीक्षा के लिए भेज रहा हूँ। मेरे मित्रों की राय में यह बहुत उच्च कोटि का उपन्यास है। कुछ मित्र इसे दास्तायवस्की के ‘कारामाजोव ब्रदर्स’ की टक्कर का मानते हैं। अब आप निर्णय करें की वह किस स्तर का है। मैं आपकी समीक्षा तीन-चार अच्छी पत्रिकाओं में छपवा दूँगा। मेरे कई संपादकों से प्रेम-संबंध हैं, इसलिए दिक्कत नहीं होगी। समीक्षा जल्दी कर देंगे तो आपका आभारी हूँगा।

आपका

छेदीलाल ‘इंकलाबी’

[2]

प्रिय तुलाराम जी,

कल आपकी लिखी समीक्षा मिली। पढ़ कर बहुत निराशा हुई। आपने मेरे बहुचर्चित और लोकप्रिय उपन्यास को बचकानी और दिशाहीन बताया है जिससे मुझे गहरा आघात लगा है। अब मेरी समझ में आ गया कि लोग झूठमूठ ही आपकी तारीफ करते हैं, आप में तो निरक्षर आदमी के बराबर भी समझ नहीं है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप जैसा अनाड़ी आदमी समीक्षा का महत्वपूर्ण काम कैसे कर रहा है। मुझे ऐसा लगता है  कि आप समीक्षा करने के बजाय भाड़ झोंकते हैं। मैं आपके खिलाफ अभियान चलाऊँगा।

आपने लिखा है कि मेरी भाषा कमजोर है। आपने लिखा है कि मैंने कई जगह ‘स्थिति’ को ‘स्तिथि’, ‘प्रवृत्ति’ को ‘प्रवर्ती’, ‘प्रशंसा’ को ‘प्रसंशा’  और ‘तरन्नुम’ को ‘तरुन्नम’ लिखा है जो मेरी भाषा की अनभिज्ञता को दिखाता है। आपने यह भी लिखा है कि मैं ‘कि’ के स्थान पर ‘की’ लिखता हूँ जो बड़ी गलती है। यह सब फालतू मीन-मेख निकालने की बात है। भाषा की छोटी-मोटी गलतियाँ निकलने से कोई किताब बेकार नहीं हो जाती।

जाहिर हुआ कि आप मेरे प्रति दुर्भाव रखते हैं और किसी ने आपको मेरे खिलाफ भड़काया है। वर्ना आप मेरे स्तर के लेखक की किताब को इस तरह खारिज न करते।

आपकी लिखी समीक्षा मैंने डस्टबिन में डाल दी है। अब किसी दूसरे समझदार समीक्षक से लिखवाऊँगा। अभी साहित्य में समझदार समीक्षकों की कमी नहीं है।

भवदीय,

छेदीलाल ‘इंकलाबी’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 222 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 222 धरातल ?

हम पति-पत्नी यात्रा पर हैं। दांपत्य की साझा यात्रा में अधिकांश भौगोलिक यात्राएँ भी साझा ही होती हैं। बस का स्लीपर कोच.., कोच के हर कंपार्टमेंट में वातानुकूलन का असर बनाए रखने के लिए स्लाइडिंग विंडो है। निजता की रक्षा और  धूप से बचाव के लिए पर्दे लगे हैं।

मानसपटल पर छुटपन में सेना की आवासीय कॉलोनी में खेला ‘घर-घर’ उभर रहा है। इस डिब्बेनुमा ही होता था वह घर। दो चारपाइयाँ साथ-खड़ी कर उनके बीच के स्थान को किसी चादर से ढककर बन जाता था घर। साथ की लड़कियाँ भोजन का ज़िम्मा उठाती और हम लड़के फ़ौजी शैली में ड्यूटी पर जाते। सारा कुछ नकली पर आनंद शत-प्रतिशत असली। कालांतर में हरेक का अपना असली घर बसा और तब  समझ में आया कि ‘दुनिया  जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है.., मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ यों भी बचपन में निदा फाज़ली कहाँ समझ आते हैं!

जीवन को समझने-समझाने की एक छोटी-सी घटना भी अभी घटी। रात्रि भोजन के पश्चात बस में चढ़ता हुए एक यात्री जैसे ही एक कंपार्टमेंट खोलने लगा, पीछे से आ रहे यात्री ने टोका, ‘ये हमारा है।’ पहला यात्री माफी मांगकर अगले कंपार्टमेंट में चला गया। अठारह-बीस घंटे के लिए बुक किये गए लगभग  6 x 3 के इस कक्ष से सुबह तक हर यात्री को उतरना है। बीती यात्रा में यह किसी और का था, आगामी यात्रा में किसी और का होगा। व्यवहारिकता का पक्ष छोड़ दें तो अचरज की बात है कि नश्वरता में भी ‘मैं’, ‘मेरा’ का भाव अपनी जगह बना लेता है। जगह ही नहीं बनाता अपितु इस भाव को ही स्थायी समझने लगता है।

निदा के शब्दों ने चिंतन को चेतना के मार्ग पर अग्रसर किया। सच देखें तो नश्वर जगत में शाश्वत तो मिट्टी ही है। देह को बनाती मिट्टी, देह को मिट्टी में मिलाती मिट्टी। मिट्टी धरातल है। वह व्यक्ति को बौराने नहीं देती पर सोना, कनक है।

‘कनक, कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।’

बिहारी द्वारा वर्णित कनक की उपरोक्त सर्वव्यापी मादकता के बीच धरती पकड़े रखना कठिन हो सकता है, असंभव नहीं। मिट्टी होने का नित्य भाव मनुष्य जीवन का आरंभ बिंदु है और उत्कर्ष बिंदु भी।

इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 170 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 170 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 170) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 170 ?

☆☆☆☆☆

Reconciliation

थक  सा  गया हूँ  मैं ख़ुद    

से तकरार करते-करते,

अपने  आप  से  अब सुलह

करना  चाहता  हूँ  मैं..!

☆☆ 

I am done fighting

with myself…

Trying to make peace

with myself now…

☆☆☆☆☆

 ☆ Memories ☆  

गुजिश्ता यादों के पंख लगा के

उड़ता रहा तमाम ज़िंदगी,

तन्हाई से  यूंही इक परिंदा,

परवाज़ में ही फना हो गया…

☆☆

Whole life it kept flying with

the wings of past memories,

A bird just got perished in the

flight because of loneliness…!

☆☆☆☆☆

Silent Cacophony... ☆

खामोशीयों में कितना

ज़बरदस्त शोर होता है,

मैंने ये खुद को तन्हा कर

के महसूस किया है…!

☆☆

There happens to be an

eerie noise in the silence,

I have experienced it by

keeping myself aloof…!

☆☆☆☆☆

Life 

फिसलती ही चली गई

एक पल भी रुकी नहीं

अब जाके पता चला कि

रेत के मानिंद हैं ज़िंदगी…!

☆☆

Just kept slipping away,

didn’t stop for a moment

Now only I came to know

that life is like the sand…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 169 ☆ जबलपुर में शुभ प्रभात  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता जबलपुर में शुभ प्रभात )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 169 ☆

☆ जबलपुर में शुभ प्रभात ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

रेवा जल में चमकतीं, रवि-किरणें हँस प्रात।

कहतीं गौरीघाट से, शुभ हो तुम्हें प्रभात।।१।।

*

सिद्धघाट पर तप करें, ध्यान लगाकर संत।

शुभप्रभात कर सूर्य ने, कहा साधना-तंत।।२।।

*

खारी घाट करा रहा, भवसागर से पार।

सुप्रभात परमात्म से, आत्मा कहे पुकार।।३।

*

साबुन बिना नहाइए, करें नर्मदा साफ़।

कचरा करना पाप है, मैया करें न माफ़।।४।।

*

मिलें लम्हेटा घाट में, अनगिन शिला-प्रकार।

देख, समझ पढ़िये विगत, आ आगत के द्वार।।५।।

*

है तिलवारा घाट पर, एक्वाडक्ट निहार।

नदी-पाट चीरे नहर, सेतु कराए पार।।६।।

*

शंकर उमा गणेश सँग, पवनपुत्र हनुमान।

देख न झुकना भूलना, हाथ जोड़ मति मान।।७।।

*

पोहा-गरम जलेबियाँ, दूध मलाईदार।

सुप्रभात कह खाइए, कवि हो साझीदार।।८।।

*

धुआँधार-सौन्दर्य को, देखें भाव-विभोर।

सावधान रहिए सतत, फिसल कटे भव-डोर।।९।।

*

गौरीशंकर पूजिए, चौंसठ योगिन सँग।

भोग-योग संयोग ने, कभी बिखेरे रंग।।१०।।

*

नौकायन कर देखिये, संगमरमरी रूप।

शिखर भुज भरे नदी को, है सौन्दर्य अनूप।११।।

*

बहुरंगी चट्टान में, हैं अगणित आकार।

भूलभुलैयाँ भुला दे, कहाँ गई जलधार?।१२।।

*

बंदरकूदनी देख हो, लघुता की अनुभूति।

जब गहराई हो अधिक, करिए शांति प्रतीति।।१३।।

*

कमल, मगर, गज, शेर भी, नहीं रहे अब शेष।

ध्वंस कर रहा है मनुज, सचमुच शोक अशेष।।१४।।

*

मदनमहल अवलोकिए, गा बम्बुलिया आप।

थके? करें विश्राम चल, सुख जाए मन-व्याप।।१५।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८.११.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 96 ☆ मुक्तक ☆ ॥ मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 96 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये।

प्रेम से दूर अपनी हर तकरार हो जाये।।

महोब्बत हर जंग पर होती भारी है।

यह दुनिया बस इतनी सी समझदार हो जाये।।

[2]

संवेदना बस हर किसी का सरोकार हो जाये।

हर कोई प्रेम का खरीददार हो जाये।।

नफ़रतों का मिट जाये हर गर्दो गुबार।

धरती पर ही स्वर्ग सा यह संसार हो जाये।।

[3]

काम हर किसीका परोपकार हो जाये।

हर मदद को आदमी दिलदार हो जाये।।

जुड़ जाये हर दिल से हर दिल का ही तार।

तूफान खुद नाव की पतवार हो जाये।।

[4]

अहम हर जिंदगी में बस बेजार हो जाये।

धार भी हर गुस्से की बेकार हो जाये।।

खुशी खुशी बाँटे आदमी हर इक सुख को।

गले से गले लगने को आदमी बेकरार हो जाये।।

[5]

हर जीवन से दूर हर विवाद हो जाये।

बात घृणा की जीवन में कोई अपवाद हो जाये।।

राष्ट्र की स्वाधीनता हो प्रथम ध्येय हमारा।

देश हमारा यूँ खुशहाल आबाद हो जाये।।

[6]

वतन की आन ही हमारा किरदार हो जाये।

दुश्मन के लिए जैसे हर बाजू ललकार हो जाये।।

राष्ट्र की गरिमा और सुरक्षा हो सर्वोपरि।

बस इस चेतना का सबमें संचार हो जाये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #219 – 106 – “करने कितने काम हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल करने कितने काम हैं …” ।)

? ग़ज़ल # 106 – “करने कितने काम हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जब से तेरे इश्क़ की शहद ओंठों से लगाई है,

तब से दिल में मीठ सा दर्द मीठी सी तन्हाई है।

सांसद चुनते रहते हम हर दफ़ा पाँच सालों में,

सरकारी मेहनत का फल सिर पर मंहगाई है।

वो पेड़ा भगवान को दिखाकर ख़ुद ही चढ़ा जाते,

भ्रष्टाचारी की अब तक बनी ना कोई दवाई है।

भारत को राष्ट्र हितैषी नेता अब मिल पाया है,

असली आज़ादी पचहत्तर वर्ष बाद मिल पाई है।

करने कितने काम हैं अभी बाक़ी देश हित में,

देखिए आगे है क्या अभी तो लम्बी लड़ाई है।

राष्ट्र में एकरूप नागरिक संहिता लागु होना है,

तब कौन कहेगा अलग हिंदू मुस्लिम सिक्ख ईसाई है।

रामलला दरबार सज़ रहा है सरयू किनारे पर,

आतिश को अब रोज-रोज मिलनी मीठी मलाई है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 159 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “कामना…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “कामना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “कामना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

चाह नहीं मेरी कि मुझको मिले कहीं भी बड़ा इनाम

इच्छा है हो सादा जीवन पर आऊँ जन-जन के काम ॥

निर्भय मन से करूँ सदा कर्त्तव्य सभी रह निरभिमान

सेवाभाव बनाये रक्खे मन में नित मेरे भगवान ॥

रहूँ जगत् के तीन-पाँच से दूर मगर नित कर्म-निरत

भाव कर्म औ’ मन से जग में करता रहूँ सभी का हित ॥

मन में कभी विकार न उपजे, देश प्रेम हो सदा प्रधान

स‌द्विचार का रहूँ पुजारी, बुद्धि सदा यह दें भगवान ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #213 ☆ दस्तूर-ए-दुनिया… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दस्तूर-ए-दुनिया…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 213 ☆

☆ दस्तूर-ए-दुनिया

‘ता-उम्र किसी ने जीने की वजह न पूछी/ अंतिम दिन पूरा मोहल्ला पूछता है/ मरा कैसे?’ जी हां! यही है दस्तूर-ए-दुनिया और जीवन का कटु सत्य, क्योंकि संसार में सभी संबंध स्वार्थ के हैं। वैसे भी इंसान अपनी खुशी किसी से सांझी नहीं करना चाहता। वह अपने द्वीप में कैद रह कर उन खूबसूरत लम्हों को जी लेना चाहता है। सो! वह आत्मकेंद्रित हो जाता है। परंतु वह अपने दुख दूसरों से बांटना चाहता है, ताकि शह उनकी सहानुभूति बटोर सके। वैसे भी दु:ख बांटने से हल्का हो जाता है। अक्सर लोग गरीब व दुखी लोगों के निकट जाने से कतराते हैं, कहीं उनकी आफत उनके गले का फंदा न बन जाए। वे भयभीत रहते हैं कि कहीं उनकी खुशियों में खलल न पड़ जाए अर्थात् विक्षेप न पड़ जाए। परंतु वे लोग जिन्होंने आजीवन उनका हालचाल नहीं पूछा था, मृत्यु के पश्चात् अर्थात् अंतिम वेला में  वे लोग दुनियादारी के कारण उसका हाल जानना चाहते है।

जीवन एक रंगमंच है, जहाँ इंसान अपना-अपना क़िरदार निभाकर चल देता है। विलियम शेक्सपीयर ने ‘Seven Stages Of Man’ में  मानव की बचपन से लेकर वृद्धावस्था की सातों अवस्थाओं का बखूबी बयान किया है। ‘क्या बताएं लौट कर नौकरी से क्या लाए हैं/ गए थे घर से जवानी लेकर/ लौटकर बुढ़ापा लाए हैं’ में भी उक्त भाव प्रकट होता है। युवावस्था में इंसान आत्म-निर्भर होने के निमित्त नौकरी की तलाश में निकल पड़ता है, ताकि वह अपने परिवार का सहारा बन सके और विवाह-बंधन में बंध सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपना दायित्व वहन कर सके। सो! वह अपनी संतान की परवरिश में स्वयं को झोंक कर अपने अरमानों का खून कर देता है। उसके आत्मज भी अपनी गृहस्थी बसाते हैं और उससे दूर चले जाते हैं। दो से उन्होंने अपनी जीवन यात्रा प्रारंभ की थी और दो पर आकर यह समाप्त हो जाती है और सृष्टि चक्र निरंतर चलता रहता है।

अक्सर बच्चे माता-पिता के साथ रहना पसंद ही नहीं करते और रहते भी हैं, तो उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी रहता है कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। वैसे तो आजकल मोबाइल ने सबका साथी बन कर दिलों में दरारें नहीं, दीवारें उत्पन्न कर दी हैं। सो! एक छत के नीचे रहते हुए भी वे एकां त की त्रासदी झेलने को विवश रहते हैं और उनमें संवाद का सिलसिला प्रारंभ ही नहीं हो पाता।  घर के सभी प्राणी मोबाइल में इस प्रकार लिप्त रहते हैं कि वे सब अपना अधिकांश समय मोबाइल के साथ गुज़ारते हैं, क्योंकि गूगल बाबा के पास सभी प्रश्नों के उत्तर व सभी समस्याओं का समाधान उपलब्ध है। आजकल तो लोग प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी मोबाइल से करते हैं।

इस प्रकार इंसान आजीवन इतना व्यस्त रहता है कि उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता। परंतु बुढ़ापा एक समस्या है, क्योंकि इस अंतराल में मानव दुनिया के मायाजाल में उलझा रहता है। उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता। परंतु वृद्धावस्था एक समस्या है, क्योंकि इस काल में असंख्य रोग व चिंताएं इंसान को जकड़ लेती हैं और अंत काल में उसे प्रभु को दिए गये अपने वचन की याद आती है कि कब होता है कि मां के गर्भ में उल्टा लटके हुए उसने प्रार्थना की थी कि वह उसका नाम स्मरण करेगा। परंतु जीवन का प्रयोजन कैवल्य प्राप्ति को भूल जाता है। ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक ठहरेगा। खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ जाएगा।’ अंतकाल में न संतान साथ देती है, न ही शरीर व मनोमस्तिष्क ही कार्य करते है। वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है कि वह उसके सब अवगुण  माफ कर दे और उससे थोड़ी सी मोहलत दे दे। परंतु परिस्थितियों के अनुकूल होते ही वह दुनिया की रंगीनियों व बच्चों की संगति में अपनी सुधबुध खो बैठता है। इसलिए कहा जाता है कि इंसान युवावस्था में नौकरी के लिए निकलता है और वृद्धावस्था में सेवानिवृत्त होकर लौट आता है और शेष जीवन प्रायश्चित करता है कि उसने सारा जीवन व्यर्थ क्यों गंवा दिया है। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित  पंक्तियां ‘यह जीवन बड़ा अनमोल बंदे/ राम राम तू बोल’ यही है जीवन का सत्य। लोग बाह्य आंकड़ों में लिप्त रहते हैं तथा दिखावे के लिए परिवारजन भी चार दिन आंसू बहाते हैं, फिर वही ढाक के तीन पात। किसी ने बहुत सुंदर कहा है कि ‘इंसान बिना नहाए दुनिया में आता है और नहा कर चल देता है। लोग श्मशान तक कांधा देते हैं और अग्निदाह कर लौट आते हैं। सो। आगे का सफ़र उसे अकेले ही तय करना पड़ता है।  ‘जप ले हरि का नाम फिर पछताएगा/ जब छूटने लगेंगे प्राण फिर पछताएगा’ तथा ‘एक साचा तेरा नाम’ से भु यही स्पष्ट होता है कि केवल प्रभु नाम ही सत्य हैं और सत्य सदैव मंगलकारी होता है। इसलिए उसका सुंदर होना तो स्वाभाविक है तथा उसे जीवन में धारण करें, क्योंकि वही अंत तक साथ निभाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #213 ☆ मुक्तक – नव वर्ष… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  मुक्तक – नव वर्ष…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 213 – साहित्य निकुंज ☆

☆ मुक्तक – नव वर्ष…  डॉ भावना शुक्ल ☆

नया देखें सवेरा जो  नव वर्ष आया है ।

मिला हमको तोहफा ये दिल में समाया है।

तेरी आंखों में हमने तो सपने जो देखे हैं।

उन्हें पूरा ही करने का  मौका जो आया है।

नव वर्ष प्यारा है खुशियां प्यारी ही लाया है।

जगी दिल में जो उम्मीदें फरमान आया है।

सोचा जो हमने है वो हासिल हमें होगा।

आशा का ये दीपक जो हमने जलाया है।।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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