☆ व्रतोपासना – ७. कोणत्याही ऋतूची निंदा करु नये ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆
जसे आपण काही व्रत कथा वाचल्या की, त्यात प्रथम लिहिलेले असते ‘उतू नको, मातू नको, घेतला वसा टाकू नको. ‘ त्याच प्रमाणे कोणती व्रते करावीत हे आपण बघत आहोत. ही व्रते जुनीच आहेत फक्त काळानुसार आपण त्यात थोडा बदल करुन अंमलात आणावे.
वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर अशा सहा ऋतूंनी आपले संवत्सर पूर्ण होते. आणि हे ऋतूचक्र अव्याहत चालू असते. त्या मुळेच संपूर्ण जीवसृष्टीला, माणसाला जगण्यासाठी आवश्यक गोष्टी मिळतात. कधी कधी काही ऋतूंचा त्रास होऊ शकतो. पण तो काही जणांनाच होतो. काहींना ऋतू बदलाचा पण त्रास होतो. या बदलाच्या काळात काहींना आरोग्याशी संबंधित समस्या येऊ शकतात. पण त्यात ऋतूंचा दोष नसतो. आपली प्रत्येकाची प्रकृती भिन्न असते. त्या नुसार आपल्याला त्रास होतात. पण आपण आहार, विहार, विश्रांती, यात ऋतू प्रमाणे बदल करुन कधी आवश्यक ती औषध योजना करुन हे त्रास, आजार नियंत्रित करु शकतो. परंतू या कोणत्याही ऋतूंची निंदा करणे योग्य नाही.
आपण निसर्गा कडे बघितले की निसर्ग प्रत्येक ऋतुशी कसे जमवून घेतो, पशुपक्षी कसे जमवून घेऊन राहतात हे समजते. आणि कोणत्याही परिस्थितीत आनंदी कसे रहायचे हे शिकवतात. एक माणूसच असा आहे की आनंद शोधण्या पेक्षा दु:ख शोधत रहातो. आपल्याला जर कोणी आठवणी विचारल्या किंवा लिहायला सांगितल्या तर आनंदी प्रसंग फार कमी समोर येतात. आणि अवघड, दुःखाचे प्रसंग जास्त आठवतात. ही सवय जर आपण बदलू शकलो तर आपण कायम आनंदात राहू शकतो. हेच ऋतूंच्या विषयी करायचे. प्रत्येक ऋतुतील आनंद शोधायचा. आयुर्वेदिक औषधे देणाऱ्यांना या ऋतूंचे खूप महत्व असते. आपली संस्कृती, आपले सण समारंभ बघितले तर त्यात निसर्गाचेच पूजन दिसते. आपल्या पूर्वजांनी सगळे सण व त्यातील आहार, पूजा, व्रते त्या त्या ऋतू नुसार ठरवलेली होती. ऋतू बदलतात म्हणून तर आपल्याला विविध फळे, फुले यांचा आस्वाद घेता येतो. आणि अनेक प्रकारची धान्ये, भाज्या मिळतात. हा सर्व विचार करून विविधता देणाऱ्या ऋतूंचा सन्मान करु या. आणि या ऋतूंची निंदा बंद करु या.
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 36 – “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी” ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
बुढ़ापा क्या है? एक ऐसा संतत्व जो बिना पूजा, बिना माला, और बिना शांति के थमा दिया जाता है। और इसके साथ मिलता है एक गिफ्ट पैक—उम्मीदों का, तानों का और एक अजीब सा सम्मान जो तंग करता है। ऐसे ही हमारे नायक, 82 साल के जगन्नाथ शर्मा, कानपुर वाले, इस अनचाहे संतत्व के शिकार बन गए।
जगन्नाथ जी का जीवन एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बीतता था—उनका राजसिंहासन। उनका साम्राज्य? एक दो कमरे का फ्लैट, जहां तीन पीढ़ियां एक साथ रहती थीं, लेकिन किसी को उनसे मतलब नहीं था। “दादा जी तो घर का फर्नीचर हैं,” ये सबने मान लिया था।
“बुजुर्गों को सबसे अच्छा तोहफा क्या दे सकते हो? अपनी गैर-मौजूदगी,” उनका पोता, केशव, अक्सर कहा करता था। वो यह कहता हुआ अपने फोन पर ऐसे व्यस्त रहता जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय से सीधा आदेश आ रहा हो। “बुजुर्ग तो पूजनीय होते हैं, लेकिन नेटफ्लिक्स भी तो ज़रूरी है,” केशव ने अपना तर्क पूरा किया।
जगन्नाथ जी की कहानी अनोखी नहीं थी। ये एक ऐसा राष्ट्रीय खजाना है जिसे हम सब छुपा कर रखते हैं। जहाँ वेद कहते हैं कि बुजुर्ग भगवान के समान होते हैं, वहीँ आधुनिक परिवार उनकी पूजा योग की तरह करते हैं—कभी-कभार और इंस्टाग्राम पर दिखाने के लिए। उनके बेटे प्रकाश शर्मा, जो ‘पारिवारिक मूल्यों’ पर बड़े-बड़े भाषण देते थे, ने अपने पिता को बचा हुआ खाना और बेपरवाही के साथ जीवन जीने की परंपरा दी थी। “पापा, आदर दिल से होता है, कामों से नहीं। और मेरा दिल साफ है,” प्रकाश ने कहा।
भारतीय संस्कृति संयुक्त परिवारों पर गर्व करती है। ये गर्व अक्सर शादी में भाषणों के रूप में दिखता है, जबकि दादा-दादी को बच्चों के साथ छोड़ दिया जाता है जो उन्हें चलती-फिरती मूर्ति समझते हैं। “दादा जी ताजमहल की तरह हैं,” केशव की छोटी बहन रिया ने कहा। “खूबसूरत, लेकिन दूर से देखने में ही अच्छे लगते हैं।”
एक दिन परिवार ने “वृद्ध दिवस” मनाने की योजना बनाई। योजना क्या थी? जगन्नाथ जी की सलाह को अनसुना करना, उन्हें मसालेदार खाना खिलाना जो उनके पेट के लिए ज़हर था, और सोशल मीडिया पर दिल छू लेने वाले कैप्शन डालना। “हैशटैग ग्रैटीट्यूड,” रिया ने लिखा, जगन्नाथ जी की एक फोटो के साथ जिसमें वो एक प्लेट छोले को देखते हुए उलझन में थे।
प्रकाश ने “त्याग” पर भाषण दिया, लेकिन उस त्याग का ज़िक्र नहीं किया जब उन्होंने जगन्नाथ जी की पुश्तैनी ज़मीन बेच दी थी। “परिवार ही सब कुछ है,” प्रकाश ने जोड़ा, वकील का मैसेज इग्नोर करते हुए जो उनके पिता की पेंशन के केस के बारे में था।
पड़ोसी भी आए। “बुजुर्ग अनमोल होते हैं,” गुप्ता जी ने कहा, जो खुद अपने पिता को वृद्धाश्रम भेजने की गूगल सर्च कर रहे थे। “उनकी बुद्धि तो अनमोल है,” गुप्ता आंटी ने जोड़ा, जो जगन्नाथ जी को पार्क की बेंच से हटाने की शिकायत कर चुकी थीं।
दिन के अंत में, उन्होंने एक तोहफा दिया—ब्लूटूथ हियरिंग ऐड। “तकनीक सब कुछ आसान कर देती है,” केशव ने कहा, जब उनके दादा उसे चालू करने की कोशिश में लगे हुए थे।
सब्र का बांध तब टूटा जब उन्होंने एक केक लाया—जो लाठी के आकार का था। “दादा जी, काटिए!” रिया ने खुशी-खुशी कहा। “क्या शानदार लमहा है,” गुप्ता आंटी ने कहा, केक के साथ सेल्फी लेते हुए, जिसमें उन्होंने जगन्नाथ जी को क्रॉप कर दिया।
जगन्नाथ जी उठ खड़े हुए, ये अपने आप में एक चमत्कार था। “बस बहुत हुआ!” वे चिड़चिड़े हो उठे। “आप लोग मेरा सम्मान वैसे ही करते हैं जैसे ट्रैफिक सिग्नल का—सिर्फ तब, जब पुलिस वाला देख रहा हो!”
परिवार स्तब्ध था। दादा जी ने शायद पहली बार अपने मन की बात कही थी। “आप लोग कहते हैं मैं समझदार हूं, लेकिन रिमोट तक देने में विश्वास नहीं रखते।”
जगन्नाथ जी की ये बातें पड़ोस के व्हाट्सएप ग्रुप पर वायरल हो गईं। उनका नाम पड़ गया—”विप्लवी दादा”। “सच्चे इंसान हैं,” गुप्ता जी ने लिखा, और फिर ग्रुप म्यूट कर दिया। प्रकाश ने अपनी लिंक्डइन प्रोफाइल पर जोड़ लिया, “महापुरुष का बेटा।”
जगन्नाथ जी को आखिरकार शांति अकेलेपन में मिली। “बुढ़ापा एक तोहफा है,” उन्होंने कहा। “लेकिन इस परिवार में, ये बस री-गिफ्टिंग जैसा है।”
और इस तरह, जगन्नाथ शर्मा की कहानी हमें याद दिलाती है कि आदर, चाय की तरह है—गर्म और बिना बनावट के होना चाहिए। लेकिन भारत में बुढ़ापा? वो हमेशा एक आशीर्वाद और एक मजाक के बीच झूलता रहेगा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “मेड, इन इंडिया… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 327 ☆
व्यंग्य – मेड, इन इंडिया… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
मेड के बिना घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो जाती हैं.
मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.
विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना पीरियड ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.
मेरे एक मित्र तो बहू बेटे को अमेरिका से अपने पास बुलाना ज्यादा पसंद करते हैं, स्वयं वहां जाने की अपेक्षा, क्योंकि यहां जैसे मेड वाले आराम वहां कहां ? बर्तन, कपड़े धोने सुखाने की मशीन हैं जरूर पर मशीन में कपड़े बर्तन डालने निकालने तो पड़ते ही हैं। पराठे रोटी बने बनाए भले मिल जाएं पैकेट बंद पर सारा खाना खुद बनाना होता है। यहां के ठाठ अलग हैं कि चाय भी पलंग पर नसीब हो जाती है मेड के भरोसे । इसीलिए मेड के नखरे उठाने में मैडम जी समझौते कर लेती हैं।
सेल्फ सर्विस वाले अमरीका में होटलों में हमारे यहां की तरह कुनकुने पानी के फिंगर बाउल में नींबू डालकर हाथ धोना नसीब नहीं, वहां तो कैचप, साल्ट और स्पून तक खुद उठा कर लेना पड़ता है और वेस्ट बिन में खुद ही प्लेट डिस्पोज करनी पड़ती है । मेड की लक्जरी भारत की गरीबी और आबादी के चलते ही नसीब है । मेड इन इंडिया, कपड़े धोने सुखाने प्रेस करने, खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने, घर की साफ सफाई, झाड़ू पोंछा फटका का उद्योग है, जिसके चलते रहने से ही साहब साहब हैं और मैडम मैडम । इसलिए मेड, इन इंडिया खूब फले फूले, मोस्ट अनार्गजाइज्ड किंतु वेल मैनेज्ड सेक्टर है मेड, इन इंडिया।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “परीक्षा की तैयारी के पंच”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 200 ☆
☆ आलेख – परीक्षा की तैयारी के पंच☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
परीक्षा की तैयारी छात्र जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। यह सफलता प्राप्त करने का एक माध्यम है, लेकिन इसके लिए सही रणनीति और मानसिक तैयारी की आवश्यकता होती है। हम इसकी जितनी बेहतर तैयारी करेंगे सफलता उसी अनुपात में हमें प्राप्त होगी।यही वजह है कि अच्छे परिणामों के लिए एक व्यवस्थित योजना बनानी चाहिए और उसे समय पर लागू करना चाहिए।
1. समय प्रबंधन:
राजीव कहता है कि यदि समय प्रबंधन करके मैंने पढ़ाई नहीं की होती तो मैं आज सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण नहीं होता। यही वजह हैं कि छात्रों के लिए सबसे पहले, समय का सही उपयोग करना आवश्यक है। इसके लिए आप तीन काम कर सकते हैं –
अध्ययन के लिए निश्चित समय तय करें और उसे नियमित रूप से पालन करें।
लिखने और पढ़ने का एक टाइम टेबल बनाकर उसे सही तरीके से फॉलो करें।
इसके साथ खेलने और मनोरंजन का समय भी तय करें।
2. विषयों को प्राथमिकता:
अपने समय में सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण हुई अनीता का कहना है कि सबसे पहले मैंने अपनी कमजोरी को समझा। मैं किस विषय में कमजोर हूं। यह जानकर मैंने विषय को प्राथमिकता देना तय किया। इसके लिए मैंने एक महत्वपूर्ण कार्य किया जो इस प्रकार है–
सभी विषयों को एक समान महत्व देने के बजाय, कठिन और महत्वपूर्ण विषयों को पहले तय करें।
उन्हें अच्छे से समझने का प्रयास करें।
अध्ययन के समय पहले कठिन फिर सरल, फिर कठिन और फिर सरल के क्रम में विषय को विभक्ति करें। तदनुसार उसको समझने का प्रयास करें।
3. मानसिक शांति:
वैभव कहता है कि एक बात बहुत जरूरी है जिनका छात्र कभी ध्यान नहीं रखते हैं। वह है- परीक्षा के समय तनाव प्रबंधन करने की। परीक्षा के समय मानसिक तनाव सामान्य होना, सामान्य बात होती है, मगर इसे नियंत्रित करना जरूरी है। इसके लिए प्रत्येक छात्र को दोएक काम करना चाहिए–
योग, ध्यान, और अच्छी नींद नियमित रूप से ले।
परीक्षा से घबरा बिना मानसिक शांति बनाए रखें।
4. निरंतर अभ्यास:
गौरव अपनी सफलता का राज अपने अभ्यास को देता है। उसका कहना है कि हरेक छात्र को यह काम नियमित रूप से करना चाहिए—
नियमित रूप से मॉक टेस्ट और पुराने प्रश्न पत्र को हल करें। इससे न केवल आत्मविश्वास बढ़ता है, बल्कि परीक्षा के पैटर्न का भी ज्ञान होता है।
5. आत्म-मूल्यांकन:
मोनिका कहती है कि परीक्षा में आत्मविश्वास बनाए रखना सबसे बड़ी बात है। यदि हमने अपना आत्म मूल्यांकन किया हो तो हमें अपने ऊपर आत्मविश्वास भरपूर होता है। इसके लिए हम निम्न काम कर सकते हैं –
समय-समय पर अपनी तैयारी का मूल्यांकन करें।
यह देखे कि कौनसा विषय मजबूत हैं और किसमें सुधार की आवश्यकता है।
जिसमें सुधार की आवश्यकता है उसमें मेहनत करके उसमें सुधार करें।
निष्कर्षतः
राहुल का कहना है कि इसके बावजूद हमें एक बात सदैव ध्यान रखना चाहिए। परीक्षा की तैयारी धैर्य, समर्पण और सही दिशा से की जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसे अपने आत्मविश्वास और सही दृष्टिकोण से अपनाने की जरूरत है। इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए।
(पूर्वसूत्र- “शांत हो. काळजी नको करू. सगळं व्यवस्थित होईल. बेबीचं तर होईलच तसं तुझंही होईल. येत्या चार दिवसात तुला दत्तमहाराजांनी ठरवलेल्या स्थळाकडूनच मागणी येईल. बघशील तू”
बाबा गंमतीने हसत म्हणाले. कांहीच न समजल्यासारखी ती त्यांच्याकडे पहातच राहिली. )
आज जवळजवळ पन्नास वर्षांनंतर हे सगळे प्रसंग नव्याने आठवताना त्या आठवणींमधला एकही धागा विसविशीत झालेला किंवा तुटलेला नसतो ते त्या अनुभवांच्या त्या त्या वेळी माझ्या अंतर्मनाला जाणवलेल्या अलौकिक अनुभूतीमुळे! आणि या अनुभूतीमधला मुख्य दुवा ठरली होती ती हीच लिलाताई!
लिलाताई माझ्यापेक्षा जवळजवळ बारा वर्षांनी मोठी. अर्थातच माझ्या सर्वात मोठ्या बहिणीपेक्षाही सहा वर्षांनी मोठी. केवळ वयातलं अंतर म्हणूनच ती माझी ताई नव्हती तर तिने आपल्या सख्ख्या दहा भावंडांइतकंच आमच्यावरही मोठ्या बहिणीसारखंच प्रेम केलं होतं! मी तर तिचा तिच्या लहान भावंडांपेक्षाही कणभर जास्तच लाडका होतो. आम्ही त्यांच्या शेजारी रहायला गेलो तेव्हा मी चौथीतून पाचवीत गेलो होतो. त्याआधी मला अभ्यासात कांही शंका आली तर आईला किंवा मोठ्या बहिणीला विचारायचो. आता त्याकरता लिलाताई माझा पहिला चाॅईस असायची. तिचं शांतपणे मला समजेल असं समजावून सांगणं मला आवडायचं. माझी पुढची चारपाच वर्षे शाळेतल्या सगळ्या बौध्दिक स्पर्धांची तयारीसुध्दा तीच करुन घ्यायची चित्रकला, वक्तृत्व, कथाकथन, गद्यपाठांतर, गीतापठण, निबंधलेखन, हस्ताक्षर अशा सगळ्या स्पर्धांची तिने करुन घेतलेली तयारी म्हणजे खणखणीत नाणंच. अशा सगळ्या स्पर्धांत मला बक्षिसं मिळायची, कौतुक व्हायचं तेव्हा मिळालेलं बक्षिस, प्रमाणपत्र हातात घट्ट धरुन मी पळत घरी यायचो ते थेट शेजारी लिलाताईकडेच धाव घ्यायचो. तिला मनापासून झालेला आनंद, तिच्या नजरेतलं कौतुक आणि मला जवळ घेऊन तिने दिलेली शाबासकी हेच माझ्यासाठी शाळेत मिळालेल्या बक्षिसापेक्षाही खूप मोठं बक्षिस असायचं! तिच्यासोबतचे माझे हे भावबंध गतजन्मीचे ऋणानुबंधच म्हणायला हवेत. विशेषकरुन मला तसे वाटतात ते नंतर आलेल्या ‘अलौकिक’ अनुभवामुळेच!!
बाबांनी सांगितल्याप्रमाणे ती बाहेर जाऊन दत्ताला नमस्कार करुन आली, बाबांनी दिलेला तीर्थप्रसाद घेतला. बाबांना नमस्कार करून झरकन् वळली आणि डोळे पुसत खालमानेनं घरी निघून गेली.
“किती गुणी मुलगी आहे ना हो ही? दुखावली गेलीय बिचारी. तिच्या डोळ्यांत पाणी बघून बरं नाही वाटत. “
” ते दु:खाचे नाहीत, पश्चातापाचे अश्रू आहेत. देव पहातोय सगळं. तो तिची काळजी नक्की घेईल. बघच तू. “
बाबांच्या तोंडून सहजपणे बाहेर पडलेल्या या सरळसाध्या शब्दांमधे लपलेलं गूढ त्यांनाही त्याक्षणी जाणवलेलं होतं की नाही कुणास ठाऊक पण त्याची आश्चर्यकारकपणे उकल झाली ती पुढे चारच दिवसांनी कुरुंदवाडच्या बिडकर जमीनदारांच्या घराण्यातून लिलाताईसाठी मागणी आली तेव्हा!!
हे सर्वांसाठीच अनपेक्षितच नाही तर सुखद आश्चर्यकारकही होतं!
लिलाताईच्या आनंदाला तर पारावार नव्हता. “शांत हो. काळजी नको करू. सगळं व्यवस्थित होईल. बेबीचं तर होईलच, तसंच तुझंही होईल. येत्या चार दिवसात तुला दत्त महाराजांनी ठरवलेल्या स्थळाकडूनच मागणी येईल. बघशील तू. ” बाबांच्या अगदी अंतःकरणापासून व्यक्त झालेल्या या बोलण्यातला शब्द न् शब्द असा खरा झाला होता! कारण तिला मागणी आली होती ती कुरुंदवाडच्या जमीनदार घराण्याकडून!!
“काका, मी लग्न होऊन सासरी गेले तरी आता नित्य दत्तदर्शन चुकवायची नाही. कारण कुरुंदवाडहून नृसिंहवाडी म्हणजे फक्त एक मैल दूर. हो की नै?” तिने बाबांना त्याच आनंदाच्या भरात विचारले होते.
“तुझी मनापासून इच्छा आहे ना? झालं तर मग. तुझ्या मनासारखं होईल. पण त्यासाठी अट्टाहास नको करू. तू सासरी जातेयस. आधी त्या घरची एक हो. तुझं कर्तव्य चुकवू नको. बाकी सगळं दत्त महाराजांवर सोपवून निश्चिंत रहा. “
बाबांनी तिला समजावलं होतं.
पाटील आणि बिडकर या दोन्ही कुटुंबांची कोणत्याच बाबतीत बरोबरी होऊ शकत नव्हती. पाटील कुटुंब कसंबसं गुजराण करणारं. बिडकर जमीनदार घराणं. सख्खं-चुलत असं वीस बावीस जणांचं
एकत्र कुटुंब. उदंड धनधान्य. दुभती जनावरं त्यामुळं दूधदुभतं भरपूर. ददात कशाचीच नव्हती. रोज दिवसभर डोक्यावर पदर घेऊन वावरणं मात्र लिलाताईला एक दिव्य वाटायचं. इकडच्या मोकळ्या वातावरणामुळे या कशाची तिला सवयच नव्हती. पण सासरची माणसं सगळी चांगली होती. हिच्या डोक्यावरचा पदर पहिल्या दिवशी सारखा सारखा घसरत राहिला तेव्हा सगळ्या सासवा एकमेकींकडे पाहून गंमतीने हसायच्या. तिला सांभाळून घ्यायच्या. ‘सवयीने जमेल हळूहळू’ म्हणायच्या. दारापुढं हिने काढलेल्या रांगोळ्या बघून बायकाच नव्हे तर घरातले कर्ते पुरुषही तिचं मनापासून कौतुक करायचे. मूळच्याच शांत, हसतमुख, कलासक्त, कामसू, सुस्वभावी लिलाताई त्या आपुलकीच्या वातावरणामुळे अल्पकाळातच त्या घरचीच एक कधी होऊन गेली तिचं तिलाच समजलं नाही.
“घरचं सगळं आवरून मी नृसिंहवाडीला रोज दर्शनाला जाऊन आले तर चालेल?”
एक दिवस तिने नवऱ्याला विचारलं. त्याने चमकून तिच्याकडे पाहिलं.
“एकटीच?”
“हो. त्यात काय?”
“घरी नाही आवडायचं. “
“कुणाला?”
“कुणालाच. मोठे काका नकोच म्हणणार. ते म्हणतील तीच पूर्व दिशा असते. “
“मी विचारु त्यांना?”
“तू? भलतंच काय?”
“मग मोठ्या काकींना विचारते हवंतर. त्या परवानगी काढतील. चालेल?”
तिच्या निरागस प्रश्नाचं त्याला हसूच आलं होतं.
“नको. मी बोलतो. विचारतो काकांना. ते हो म्हणाले तरच जायचं”
“बरं” तिने नाईलाजाने होकारार्थी मान हलवली. काका काय म्हणतील या विचाराने रात्रभर तिच्या डोळ्याला डोळा लागला नव्हता.
“देवदर्शनालाच जातेय तर जाऊ दे तिला. पण एकटीने नाही जायचं. तू तिच्या सोबतीला जात जा. त्यानिमित्ताने तुझंही देवदर्शन होऊ दे. ” काका म्हणाले. घरच्या इतर बायका़ंसाठी हे आक्रीतच घडलं होतं. ज्या घरच्या बायका आजपर्यंत नवऱ्याबरोबर कधी फिरायला म्हणून घराबाहेर पडल्या नव्हत्या त्याच घरची ही मोठी सून रीतसर परवानगी घेऊन रोज देवदर्शनासाठी कां असेना नवऱ्याबरोबर फिरून येणार होती याचं त्या सगळ्यांजणींना अप्रूपच वाटत राहिलं होतं!
दुसऱ्याच दिवसापासून लिलाताईचं नित्य दत्तदर्शन सुरु झालं. पहाटे उठून आंघोळी आवरून झपाझप चालत दोघेही नृसिंहवाडीची वाट धरायचे. दर्शन घेऊन अर्ध्यापाऊण तासात परतही यायचे.
लिलाताईच्या या नित्यनेमानेच तिला आमच्याशीही जोडून ठेवलं होते. कारण मोबाईल नसलेल्या पूर्वीच्या त्या काळात पाटील कुटुंबीयांपैकी बाकी कोणाशीच भेटीगाठी, संपर्क राहिला नव्हता. पण लिलाताई मात्र आम्हाला अधून मधून भेटायची ती तिच्या या नित्यनेमामुळेच. आईचाही पौर्णिमेला वाडीला जायचा नेम असल्याने दर पौर्णिमेला न ठरवताही लिलाताईची न् तिची भेट व्हायचीच. लिलाताई रोज तिथे आली की ‘अवधूत मिठाई भांडार’ मधेच चप्पल काढून ठेवून दर्शनाला जायची. पौर्णिमेदिवशी “लिमयेवहिनी आल्यात का हो?” अशी त्यांच्याकडे चौकशी ठरलेलीच. त्यांच्यामार्फत निरोपानिरोपी तर नेहमीचीच. कधी आईला सवड असेल तेव्हा आग्रहाने कुरुंदवाडला आपल्या सासरघरी घेऊन जायची. पुढे माझा नित्यनेम सुरु झाल्यावर आम्हीही संपर्कात राहू लागलो.
हे सगळे घटनाप्रसंग १९५९ पासून नंतर लिलाताई १९६४ साली लग्न होऊन कुरुंदवाडला गेली त्या दरम्यानच्या काळातले. पण तिचा तोच नित्यनेम पुढे प्रदीर्घकाळ उलटून गेल्यानंतर माझ्या संसारात अचानक निर्माण झालेल्या दु:खाच्या झंझावातात मला सावरुन माझ्या दु:खावर हळूवार फुंकर घालणाराय याची पुसटशी कल्पनाही मला तेव्हा नव्हती.
प्रत्येकाच्याच आयुष्यात घडणाऱ्या वरवर सहजसाध्या वाटणाऱ्या घटनांचे धागेदोरे ‘त्या’नेच परस्परांशी कसे जाणीवपूर्वक जोडून ठेवलेले असतात याचा प्रत्यय मात्र त्यानिमित्ताने मला येणार होता!!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “हम पढ़ रहे ककहरे हैं…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #263 ☆
☆ हम पढ़ रहे ककहरे हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “किसको दें इल्ज़ाम…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 87 ☆ किसको दें इल्ज़ाम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆