हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 157 ☆ # परिनिर्वाण दिन # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# परिनिर्वाण दिन #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 157 ☆

☆ # परिनिर्वाण दिन #

(बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर जी के परिनिर्वाण दिन के निमित्त उस महामानव को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि)

आंख भर आती है,जब याद तुम्हारी आती है

है महामानव यह तिथि हमें कितना रूलाती है

 

जब जीवन था दूभर, भयावह चुभते साये थे

सब तरफ था तिरस्कार,  कैसा जीवन पाये थे

पग पग पर अपमान,  हम जुल्म से घबरायें थे

आवाज़ नहीं थी होंठों पर,  सामंतों के सताये थे

स्याह अंधेरे में तुम,  सूरज बनकर आए थे

काले मेघों को चीरकर,  नया सवेरा लाए थे

वो शोषित, पीड़ित जनता,  आज अश्रु धारा बहाती है

आंख भर आती हैं, जब याद तुम्हारी आती है

 

हम तो थे पेड़ सूखे,  तुमने देह में प्राण फूंके

रक्त कोशिकाओं में हलचल हुई, तुमने जब देखा छुंके

हम थे अज्ञानी, विवश,  हम लाचार थे रूखे

तुमने शिक्षा की ज्योति जलाई, हम थे शिक्षा के भूखें

जीवन में बदलाव आ गया,  आंखों से हट गए धूंके

शिक्षा शेरनी का दूध है,  बोलने लगे जो थे मुके

रूदन देख जन सैलाब का, आज धरती भी थर्राती है

आंख भर आती है, जब याद तुम्हारी आती हैं

 

अब हमें अधिकार मिले हैं, पर दिन बीते नहीं संघर्षो के

अब मांगने लगे हैं हक अपना, जो वंचित थे वर्षों से

खुशियां आई जीवन में, दिन लौटे हैं हर्षों के

सपने देख रहे हैं सब, अपने अपने उत्कर्षों के

भेदभाव मिटा नहीं है पर, अर्थ बदलें है स्पर्शो के

हमें संगठित होना होगा, वर्ना आयेंगे दिन अपकर्षों के

यह परिनिर्वाण की बेला, क्या सामाजिक क्रांति लाती हैं ?

आंख भर आती है, जब याद तुम्हारी आती है

हे महामानव यह तिथि हमें कितना रूलाती हैं

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 152 ☆ हास्य कविता, जाडू बाई… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 152 ? 

☆ हास्य कविता, जाडू बाई… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

 बालपण आठवलं मला

मला माझी शाळा आठवली

शाळेजवळची जाडूबाई

डोळ्यासमोर तरळली…०१

 

शाळेत जायच्या रस्त्यावर

घर होते जाडूबाईचे

अवजड प्रचंड होती ती

सखुबाई नाव तिचे…०२

 

ठेगणी होती खूपच

दिसायला सुद्धा सावळी

आरडायची, ओरडायची

जशी वाघिणीची डरकाळी…०३

 

पोरं तिला चिडवायचे

जाडी जाडी म्हणायचे

ती मागे लागताच मग

लगेच पळून जायचे…०४

 

तिला पाहून खरेच हो

हसायला खूप यायचे

चेष्टा तिची करतांना

हसून हसून पोट दुखायचे…०५

 

होती मात्र खूप प्रेमळ

बोरं, चिंचा खायला द्यायची

तहान लागली उन्हाळ्यात

थंड थंड, पाणी पाजायची…०६

 

आम्ही थोडे मोठे झालो

पश्चाताप आम्हाला झाला

तिची चेष्टा न करण्याचा

संकल्प आम्ही केला…०७

 

सखुबाई आम्हाला बोलायची

मोकळी मुक्त, सहज हसायची

मला जाडी म्हणा रे सर्वजण

स्वतःच निर्भेळ, ठुमकायची…०८

 

एक शिकायला मिळाले

दोष कुणाला न द्यावा

ईश्वराची निर्मिती सर्व

सन्मान सर्वांचाच करावा…०९

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – बोलकी मुखपृष्ठे ☆ “कथापौर्णिमा” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

? बोलकी मुखपृष्ठे ?

☆ “कथापौर्णिमा” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

छान दाट निळे ••• काळे भासणारे आकाश ••• त्यात असंख्य लुकलुकणार्‍या चांदण्या, तारे तारका••• या सगळ्या गोपिकांत शोभून दिसणारा कृष्ण जणू हा पूर्णचंद्र••• पृथ्वीवर डोंगरांवर झाडांवर पाण्यात सगळीकडे सांडणारा हा लक्ख प्रकाश ••• हे सगळे पाहताना भान हरपलेले एक प्रेमी युगूल तळ्याकाठी झाडाखाली बसलेलं ••• हितगूज करण्यात मश्गूल असलेलं••• 

सुंदर लोभस असे हे चित्र. कोणत्याही रसिक मनाला भुरळ घालणारं•••

पण काय सांगते हे चित्र? फक्त पौर्णिमेची रात्र आहे एवढच? मला नाही तसे वाटतं••• 

हे संपूर्ण चित्र कितीतरी कथा सांगतेय असे वाटतं

०१) धरती आणि आकाश यांना जोडणारी ही डोंगराची रांग दु्रून चांगली दिसत असली तरी त्यांच्या आयुष्यात आलेले चढ उतार, खाचाखळगे यांचे दर्शन त्या युगुलाला देते. त्याचेच स्पष्ट प्रतिबिंब पाहून ते विचार करू लागले••••

०२) आयुष्यात कितीही अंधार असला तरी ब्लू मूनची रात्र कधीतरी येतेच जीवनात. याचा अनुभव ते दोघे घेत होते•••

०३) दोघेही व्याकूळ••• समदु:खी••• आपापली कथा, व्यथा सांगताना तो पूर्णचंद्र त्यांच्या कथा ऐकायला केव्हा झाडावर विसावला हे त्यांना कळलेच नाही•••

०४) नर्गिस राजकपूरचा प्रभाव असलेले दोघे झाडाची छत्री करून एकत्र त्यामधे गुजगोष्टी करत असताना चांदण्याची बरसात होत आहे•••

०५) आपल्या जीवनाचा निर्णय घेताना साशंक असणारे ते दोघे••• विचारमंथनातून त्यांच्या अंतरंगावर ऊमटलेल्या लहरी••• यातून त्यांच्या जीवनात एक शरदचंद्रीय निर्णयाची आलेली जीवन उजळणारी कोजागिरी पौर्णिमा •••

अशा अनेक कथांचे कथन करणारे केशरयुक्त रंगाचे कथापौर्णिमा हे शब्द•••

लेखिकेच्या नावाप्रमाणेच पुनवेची छत्री घेऊन आपल्या शब्द चांदण्यांना लकाकते रूप देऊन प्रत्येक कथेतून साराचा पूर्णचंद्र घेऊन येणार याची ग्वाही••• 

तरीही एक कहाणी मला या चित्रातून समजली ती  कवितेतून सांगावी वाटते .

☆ सुरेल मैफिल ☆

रात सांगते एक कहाणी

चमचमणा-या ता-याची

गज-याला स्पर्श करून 

गंधाळणा-या वा-याची

 

वारा गाई एक गाणे 

लकेर घेऊन हास्याची

मंजूरवाने पुलकीत होऊन 

मोहरणा-या प्रितीची

 

प्रीत छेडी एक तराणा

साथ तया आरोहाची

अवरोह ये मागूती

सुरूवात मल्हाराची

 

मल्हार हा भारी जीवन

साथ तया असे तुझी 

भूपाळी ते भैरवी

सुरेल मैफिल दोघांची 

हे सगळे म्हणजे कथापौर्णिमा या कथासंग्रहाचे मुखपृष्ठ. या कथा संग्रहात १५ कथा असल्याने दिलेले कथापौर्णिमा हे नाव संयुक्तिक असले तरी कितीतरी कथाबिजे मनात देणारे हे मुखपृष्ठ आहे एवढे नक्की. 

इतके बोलके मुखपृष्ठ करणार्‍या गंगाधर हवालदार यांना धन्यवाद आणि या मुखपृष्ठाची निवड केली म्हणून रसिक आंतरभारतीचे प्रकाशक नांदुरकर आणि लेखिका पूनम छत्रे यांचे आभार.

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 219 ☆ व्यंग्य – गुरूजी का अमृत महोत्सव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘गुरूजी का अमृत महोत्सव’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 219 ☆

☆ व्यंग्य – गुरूजी का अमृत महोत्सव 

परमप्रिय शिष्य मन्नू,

स्वस्थ रहो और गुरुओं की सेवा के योग्य बने रहो। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हें प्राप्त है।

आगे बात यह कि तुम्हें मालूम है कि जनवरी में मैं 75 वर्ष पार कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि तुम जैसे मेरे सारे शिष्य मेरा अमृत महोत्सव मनाने के लिए अकुला रहे होंगे। तुम जैसे शिष्यों के होते हुए मेरा अमृत महोत्सव शानदार होगा इसमें मुझे रंच मात्र भी सन्देह नहीं है।

मेरा विचार है कि इस उत्सव की सफलता के लिए तुम मेरे निष्ठावान 50-60 शिष्यों से 10-10 हजार रुपये एकत्रित कर लो। उनसे कहना कि उनकी गुरुभक्ति की परीक्षा है और गुरु- ऋण चुकाने का अवसर आ गया है। इससे लगभग पाँच लाख रुपया प्राप्त हो जाएगा। इसमें से कुछ मेरे अभिनन्दन ग्रंथ पर खर्च होगा जो कम से कम छः सात सौ पेज का होना चाहिए।

अभिनन्दन ग्रंथ के लिए लेख मैं खुद ही लिखूँगा क्योंकि मुझसे बेहतर मुझे कौन जानता है? दूसरों को देने से लोग कई बार ऊटपटाँग लिख देते हैं जिससे मन खिन्न हो जाता है। मैंने 30-35 लेख लिख भी लिये हैं। ये सभी लेख मेरे शिष्यों के नाम से छपेंगे। बचपन से लेकर अभी तक के सारे फोटो निकाल लिये हैं जिन्हें अभिनन्दन ग्रंथ में स्थान मिलेगा।

मेरे खयाल से अभिनन्दन ग्रंथ और दीगर खर्चों के बाद दो ढाई लाख रुपया बच जाएगा। मेरा विचार है कि उस राशि को मियादी जमा में डालकर उसके ब्याज से एक ग्यारह हजार रुपये का पुरस्कार मेरे नाम से स्थापित किया जाए जो मेरे स्वर्गवासी होने के बाद भी चलता रहे। यह पुरस्कार प्रति वर्ष मेरे किसी शिष्य को ही दिया जाए ताकि मेरे जाने के बाद भी मेरे शिष्यों की भक्ति मेरे प्रति बनी रहे। इस पुरस्कार के प्रबंध की सारी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। इसमें कभी गफलत हुई तो तुम्हें पाप के साथ-साथ मेरा शाप लगेगा।

तो अब विलंब न करके काम पर लग जाओ। मुझे भरोसा है कि तुम हमेशा की तरह मेरे सुयोग्य शिष्य साबित होगे।

स्नेही

अनोखेलाल ‘सिद्ध’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 218 – संभावना के बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 218 संभावना के बीज ?

सीताफल की पिछले कुछ दिनों से बाज़ार में भारी आवक है। सोसायटी की सीढ़ियाँ उतरते हुए देखता हूँ  कि बच्चे सीताफल खा रहे हैं। फल के बीज निकालकर करीने से एक तरफ़ रख रहे हैं। फिर सारे बीज एक साथ उठाकर डस्टबिन में डाल दिए। स्वच्छता और सामाजिक अनुशासन की दृष्टि से यह उचित भी था।

यहीं से चिंतन जन्मा। सोचने लगा, हर बीज के पेट में एक पौधा  है, पौधे का बीज फेंका जा रहा है। फ्लैट में रहने की विवशता कितना कुछ नष्ट कराती है।

सर्वाधिक दुखद होता है संभावनाओं का नष्ट होना। वस्तुत: संभावना की हत्या महा पाप है। हर संभावना को अवसर मिलना चाहिए। पनपना, न पनपना उसके प्रारब्ध और प्रयास पर निर्भर करता है।

चिंतन बीज से मनुष्य तक पहुँचा। सही ज़मीन न मिलने पर जैसे बीज विकसित नहीं हो पाता, कुछ उसी तरह अपने क्षेत्र में काम करने का अवसर न पाना, संभावना का नष्ट होना है। साँस लेने और जीने में अंतर है। अपनी लघुकथा ‘निश्चय’ के संदर्भ से बात आगे बढ़ाता हूँ। कथा कुछ यूँ है,

“उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।

जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं दर्शक यहीं, पर मैदान मानो निष्प्राण है।

एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने‌ लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग‌ वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।

दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।”

अँग्रेज़ी की एक कहावत है, ‘यू गेट लाइफ वन्स। लिव इट राइट। वन्स इज़ इनफ़।’ जीवन को सही जीना अर्थात अपनी संभावना को समझना, सहेजना और श्रमपूर्वक उस पर काम करना।

स्मरण रहे, आप जीवन के जिस भी मोड़ पर हों, जीने की संभावना हमेशा बनी रहती है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 166 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 166 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 166 ) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 16६ ?

☆☆☆☆☆

 ☆ Fake People… ☆

इन  बेगैरत  अय्यारों  की  झूठी 

मासूमियत का मुज़ाहरा तो देखिए

धूल इनके चेहरे पर जमी होती है मगर

तोहमत ये  आईने  पर  लगाते हैं..!

☆☆

Just look at the display of false

innocence of these fake people

Dust  settles on  their  faces

But they blame the mirror..!

☆☆☆☆

Dreamy Character ☆

ख्वाब में भी देर तलक

जागा किए हम…

नींद खुद भी एक किरदार थी

उस गहरे ख्वाब में…!

 ☆

Remained awake till late,

even  in  the  dream…

Sleep itself was a character

in that astral dream..!

 ☆  ☆  ☆  ☆  ☆

 ☆ Stark Darkness ☆  

चारों तरफ तो बिछी हैं

अँधेरों की चादरें…

फिर फ़िजूल में क्यों

जगाया गया मुझे…!

  ☆  

Sheet of darkness are

spread all around…

Then why was I woken

up unnecessarily…!

Mortal Fear 

अरे, इतना क्यूँ डर रहे हो

इन घने जंगलों से…

यहाँ कोई आदमी की

बस्ती थोड़ी ही न है…!

What are you so scared of

in this dense forest….

They doesn’t exist any

human settlement here…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 165 ☆ नवगीत – प्रवहित थी अवरुद्ध है… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं – एक नवगीत – प्रवहित थी अवरुद्ध है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 165 ☆

☆ नवगीत – प्रवहित थी अवरुद्ध है ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

प्रवहित थी अवरुद्ध है

नेह नदी की धार,

व्यथा-कथा का है नहीं

कोई पारावार।

*

लोरी सुनकर कब हँसी?

कब खेली बाबुल गोद?

कब मैया की कैयां चढ़ी

कर आमोद-प्रमोद?

मलिन दृष्टि से भीत है

रुचता नहीं दुलार

प्रवहित थी अवरुद्ध है

नेह नदी की धार

*

पर्वत – जंगल हो गए

नष्ट, न पक्षी शेष हैं

पशुधन भी है लापता

नहीं शांति का लेश है

दानववत मानव करे

अनगिन अत्याचार

प्रवहित थी अवरुद्ध है

नेह नदी की धार

*

कलकल धारा सूखकर

हाय! हो गयी मंद

धरती की छाती फ़टी

कौन सुनाए छंद

पछताए, सुधरे नहीं

पैर कुल्हाड़ी मार

प्रवहित थी अवरुद्ध है

नेह नदी की धार

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१०-६-२०१६

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #215 – 102 – “वायदों के परिंदे फुर्र से उड़ जाएँगे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल वायदों  के  परिंदे  फुर्र  से उड़  जाएँगे…” ।)

? ग़ज़ल # 102 – “वो यूँ मिलता था  कभी ना बिछड़ेगा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जनादेश मिला अब तो हाते खुल जाएँगे,

ख़ाली हुए ख़ज़ाने अब जल्दी भर जाएँगे।

सुचिता संहिता चुनाव होने तक ही लागू,

रेत भू माफिया अब हरकत में आ जाएँगे,

हर चुनाव के बाद ऐसा ही होता आया है,

पक्ष विपक्ष नेता पाँच साल को सो जाएँगे।

आ गये  जो चुनकर  पाल रहे  हैं सपने,

वायदों  के  परिंदे  फुर्र  से उड़  जाएँगे।

पक्ष विपक्ष खेल रहे साँप सीढ़ी का खेल,

निन्यानवे वाले दो नंबर पर उतर आयेंगे।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – अब वक़्त को बदलना होगा – भाग -8 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆

सुश्री दीपा लाभ 

(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं।  आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त  को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।) 

☆ कविता ☆ अब वक़्त  को बदलना होगा – भाग – 8 सुश्री दीपा लाभ  ☆ 

[8]

हम भ्रष्टाचार का रोना रोते हैं

हर महकमे पर तंज कसते हैं

हो अफसर सरकारी बाबू

या हो कोई प्राइवेट क्लर्क

खामियों की गिनती करते हैं

हर रोज़ गालियाँ देते हैं

ये हुआ क्यों, कैसे हुआ

ऐसा विचार कब करते हैं

जड़ में जाना हो इनकी तो

घर से इसकी शुरुआत करो

समस्या कहाँ नहीं है आज

विश्लेषण करो, विचार करो

समस्या गिनाने में कैसी बहादुरी

उन्हें सुलझाने के उपाय करो

कहीं ऊँगली उठाने से पहले

अपनी गिरेबान में झाँको

हर भ्रष्ट आचरण की शुरुआत

अपने घर से तो होती है

गलत-सलत अच्छा या बुरा

सब सामने घटता रहता है

चुप्पी धर कर सहते रहना

क्या इससे मन नहीं बढ़ता है?

लाचारी का रोना बहुत हुआ

जागरूक हो फर्ज़ निभाना होगा

अब वक़्त को बदलना होगा

© सुश्री दीपा लाभ 

बर्लिन, जर्मनी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 92 ☆ मुक्तक ☆ ।।संघर्ष में तपकर ही व्यक्ति महान होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 92 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। संघर्ष में तपकर ही व्यक्ति महान होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

जब हौंसला हमारा   चट्टान  सा   होता है।

तो फिर  रास्ता भी  आसान सा  होता   है।।

जो विपरीत परिस्थितियों में धैर्य खोते नहीं।

उनके लिए संकट बस मेहमान सा होता है।।

[2]

मन में विश्वास तो कोई हरा नहीं सकता।

बिना आस के तो कोई जिता नहीं सकता।।

यदि मन से न हारे तो फिर हार होती नहीं ।

यदि ठान लो तो कोई   गिरा   नहीं सकता।।

[3]

उम्मीद से अंधेरे में भी उजाला हो जाता है।

खराब हालात प्रभु खुद रखवाला हो जाता है।।

कुदरत खुद सवाल का जवाब जाती है बन।

जोश जनून सेआदमी दिलवाला हो  जाता है।।

[4]

जो कि  हर  स्तिथि  में    धैर्यवान    होता है।

वह जाकर फिर एक  सफल इंसान होता है।।

अपनेअनमोल जीवन का मूल्य जो जानता।

वही फिर सोने सा तप   कर  महान होता है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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