(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “जिसके आध्यात्मिक वैभव की चर्चा देश-विदेश है” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “जिसके आध्यात्मिक वैभव की चर्चा देश-विदेश है” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆
इस दुनियाँ में सबसे सुन्दर अनुपम भारत देश है
अपने में अपना सा प्यारा इसका हर परिवेश है ।।
पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण बिखरा अति सौंदर्य है
वन, मरूथल, पर्वत, नदियों मंदिरों में भी आश्चर्य है
प्राकृत सुषमा, हरे भरे खेतों में अजब मिठास है
हर प्रदेश का खान-पान कुछ भिन्न है, मोहक वेश है || 1 ||
उत्तर, ओड़ीसा, कर्नाटक अलग नृत्य संगीत है
खान पान जीवन पद्धति में सबकी अपनी रीति है
फिर भी सब हैं सरल भारतीय, संस्कृति अनुपम एक सी
गंगोत्री से रामेश्वर तक धार्मिक भाव विशेष है || 2 ||
इस दुनियाँ में.
राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत हर मन की पावन चाह है
प्रगति हिमालय सी संवृद्धि हो जैसे सिन्धु अथाह है
जीवन सबका निर्मल मन पावन हो कर्मठ भावना
भारत का युग युग से “बंधुता’ प्रेम रहा संदेश है ||3||
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द, समस्या व प्रार्थना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 209 ☆
☆ दर्द, समस्या व प्रार्थना ☆
‘दर्द एक संकेत है ज़िंदा रहने का; समस्या एक संकेत है कि आप मज़बूत हैं और प्रार्थना एक संकेत है कि आप अकेले नहीं हैं। परंतु कभी-कभी मज़बूत हाथों से पकड़ी हुई अंगुलियां भी छूट जाती हैं,क्योंकि रिश्ते ताकत से नहीं; दिल से निभाए जाते हैं,’ गुलज़ार का यह कथन अत्यंत चिंतनीय है,विचारणीय है। जीवन संघर्ष व निरंतर चलने का नाम है। परंतु वह रास्ता सीधा-सपाट नहीं होता; उसमें अनगिनत बाधाएं,विपत्तियां व आपदाएं आती-जाती रहती हैं; जिनका सामना मानव को दिन-प्रतिदिन जीवन में करना पड़ता है। अक्सर वे हमें विषाद रूपी सागर के अथाह जल में डुबो जाती हैं और मानव दर्द से कराह उठता है। वास्तव में दु:ख,पीड़ा व दर्द हमारे जीवन के अकाट्य अंग हैं तथा वे हमें एहसास दिलाते हैं कि आप ज़िंदा हैं। समस्याएं हमें संकेत देती हैं कि आप साहसी,दृढ़-प्रतिज्ञ व मज़बूत हैं और अपना सहारा स्वयं बन सकते हैं। वे हमें लीक पर न चलने को प्रेरित करती हैं और टैगोर के ‘एकला चलो रे’ की राह को अपनाने का संदेश देती हैं,जो आपके आत्मविश्वास को परिभाषित करता है। परंतु जब मानव भयंकर तूफ़ानों में घिर जाता है और जीवन में सुनामी दस्तक देता है; उसे केवल प्रभु का आश्रय ही नज़र आता है। उस स्थिति में मानव उससे ग़ुहार लगाता है और उसके आर्त्त हृदय की पुकार प्रार्थी के नतमस्तक होने से पूर्व ही प्रभु तक पहुंच जाती है तो उसे आभास ही नहीं; पूर्ण विश्वास हो जाता है कि वह अकेला नहीं है; सृष्टि-नियंता उसके साथ है। उसके अंतर्मन में यह भाव दृढ़ हो जाता है कि अब उसे चिंता करने की दरक़ार नहीं है।
‘अपनों को ही गिरा दिया करते हैं कुछ लोग/ ख़ुद को ग़ैरों की नज़रों में उठाने के लिए।’ यह आज के युग का कटु सत्य है,क्योंकि प्रतिस्पर्द्धा की भावना के कारण प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को पछाड़ कर आगे निकल जाना चाहता है और उसके लिए वह अनचाहे व ग़लत रास्ते अपनाने में तनिक भी संकोच नहीं करता। आजकल लोग अपनों को गिराने व ख़ुद को दूसरों की नज़रों में श्रेष्ठ कहलाने के निमित्त सदैव सक्रिय रहते हैं। इस स्थिति में मज़बूती से पकड़ी हुई अंगुलियां भी अक्सर छूट जाती हैं और इंसान ठगा-सा रह जाता है,क्योंकि रिश्तों का संबंध दिल से होता है और वे ताकत व ज़बरदस्ती नहीं निभाए जा सकते। पहले रिश्ते पावन होते थे और विश्वास पर आधारित होते थे। इंसान अपने वचनों का पक्का था,जैसाकि रामचरित मानस में तुलसीदास जी कहते हैं, ‘रघुकुल रीति सदा चली आयी/ प्राण जायें, पर वचन ना जाय।’ लोग वचन-पालन व दायित्व-निर्वहन हेतू प्राणों की आहुति तक दे दिया करते थे,क्योंकि वे निःस्वार्थ भाव से रिश्तों को गुनते-बुनते व सहेजते-संजोते थे। इसलिए वे संबंध अटूट होते थे; कभी टूटते नहीं थे। परंतु आजकल तो रिश्ते कांच के टुकड़ों की भांति पलभर में दरक़ जाते हैं,क्योंकि अपने ही,अपने बनकर,अपनों की पीठ में छुरा भोंकते हैं।
‘चुपचाप सहते रहो तो आप अच्छे हैं और अगर बोल पड़ो तो आप से बुरा कोई नहीं है।’ यही सत्य है जीवन का– इंसान को भी संबंधों को सजीव बनाए रखने के लिए अक्सर औरत की भांति हर स्थिति में ‘कहना नहीं, चुप रहकर सब सहना पड़ता है।’ यदि आपने ज़ुबान खोली तो आप सबसे बुरे हैं और वर्षों से चले आ रहे संबंध उसी पल दरक़ जाते हैं। उस स्थिति में आप संसार के सबसे बुरे अथवा निकृष्ट प्राणी बन जाते हैं। वैसे हर रिश्ते की अलग-अलग सीमाएं व मर्यादा होती है। परंतु यदि बात आत्मसम्मान की हो तो उसे समाप्त कर देना ही बेहतर व कारग़र होता है। वैसे समझौता करना अच्छा है,उपयोगी व श्रेयस्कर है,परंतु आत्म-सम्मान की कीमत पर नहीं। इसलिए कहा जाता है कि ‘दरवाज़े छोटे ही रहने दो अपने मकान के/ जो झुक कर आ गया,वही अपना है।’ दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति विनम्र होता है, जिसमें अहं लेशमात्र भी नहीं होता; वास्तव में वही विश्वसनीय होता है। यह अकाट्य सत्य है कि ‘अहं की बस एक ही खराबी है; वह आपको कभी महसूस नहीं होने देता कि आप ग़लत हैं।’ सो! आप औचित्य-अनौचित्य का चिंतन किए बिना अपनी धुन में निरंतर मनचाहा करते जाते हैं, जिसका परिणाम बहुत भयावह होता है।
‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तों में/ अलग-अलग विचारों को एक होना पड़ता है’ अर्थात् सामंजस्य करना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अपनी ऊंचाई पर कभी घमंड ना करना ऐ दोस्त!/ सुना है बादलों को भी पानी ज़मीन से उठाना पड़ता है।’ जब दोनों पक्षों में स्नेह,प्यार व सम्मान का भाव सर्वोपरि होगा; तभी रिश्ते पनप सकेंगे और स्थायित्व ग्रहण कर सकेंगे। केवल रक्त-संबंध से कोई अपना नहीं होता– प्रेम,सहयोग,विश्वास व सम्मान भाव से आप दूसरों को अपना बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। नाराज़गी यदि कम हो तो संबंध दूर तक साथ चलते हैं। सो! रिश्तों में अपनत्व भाव अपेक्षित है। जीवन में हीरा परखने वाले से पीड़ा परखने वाला अधिक महत्वपूर्ण होता है,क्योंकि वह आपके दु:ख-दर्द को अनुभव कर उसके निवारण के उपाय करता है। वह हर स्थिति में आपके अंग-संग रहता है। मेरी स्वरचित पंक्तियां ‘ज़िंदगी एक जंग है/ साहसपूर्वक सामनाकीजिए/ विजयी होगे तुम/ मन को न छोटा कीजिए।’ इसलिए कहा जाता है कि ‘जो सुख में साथ दें; रिश्ते होते हैं और जो दु:ख में साथ दें; फ़रिश्ते होते हैं।’ ऐसे लोगों को सदैव अपने आसपास रखिए और संबंधों की गहराई का हुनर पेड़ों से सीखिए। ‘जड़ों में चोट लगते ही शाखाएं टूट जाती हैं।’ वास्तव में वे संबंध शाश्वत् होते हैं,जिनमें स्व-पर व राग-द्वेष के भाव का लेशमात्र भी स्थान नहीं होता; यदि चोट एक को लगती है तो अश्रु-प्रवाह दूसरे के नेत्रों से होता है।
‘अतीत में मत झाँको/ भविष्य का सपना मत देखो/ वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करो,’ महात्मा बुद्ध की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि केवल वर्तमान ही सत्य है और मानव को सदैव उसमें ही जीना चाहिए। परंतु शर्त यह है कि कोई कितना भी बोले; स्वयं को शांत रखें; कोई आपको कितना भी भला-बुरा कहे; आप प्रतिक्रिया मत दें, क्योंकि तेज़ धूप में सागर को सुखाने का सामर्थ्य नहीं होता बल्कि शांत रहने से सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। ‘सो! अहं त्याग देने से मनुष्य सबका प्रिय बन जाता है– जैसे क्रोध छोड़ देने से वह शोक-रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने से धनवान और लोभ छोड़ देने से सुखी हो जाता है’– युधिष्ठिर के उक्त कथन में काम,क्रोध,लोभ व अहं त्याग करने की सीख दी गई है। यही जीवन का आधार है,सार है। महात्मा बुद्ध के मतानुसार ‘सबसे उत्तम तो वही है,जो स्वयं को वश में रखे और किसी भी परिस्थिति व अवसर पर कभी भी उत्तेजित न हो।’
‘संबंध जोड़ना एक कला है तो उसे निभाना साधना है।’ मानव को संबंध बनाने से पहले उसे परखना चाहिए कि वह योग्य है भी या नहीं,क्योंकि आजकल रिश्ते-नाते मतलब की पटरी पर चलने वाली रेलगाड़ी के समान हैं, जिसमें जिसका स्टेशन आता है,उतरता चला जाता है। वैसे भी सब संबंध स्वार्थ पर टिके होते हैं; जिनमें विश्वास का अभाव होता है। इसलिए जब विश्वास जुड़ता है तो पराये भी अपने हो जाते हैं और जब विश्वास टूटता है तो अपने भी पराये हो जाते हैं। परंतु इसकी समझ मानव को उचित समय पर नहीं आती; ख़ुद पर बीत जाने से अर्थात् अपने अनुभव से आती है।
‘जीवन में कभी किसी से इतनी नफ़रत मत करना कि उसकी अच्छी बात भी आपको ग़लत लगे और किसी से इतना प्यार भी मत करना कि उसकी ग़लत बात भी अच्छी व सही लगने लगे।’ इसलिए रिश्तों का ग़लत इस्तेमाल करना श्रेयस्कर नहीं है। रिश्ते तो बहुत मिल जाएंगे,परंतु अच्छे लोग ज़िंदगी में बार-बार नहीं आएंगे और ऐसे संबंधों की क्षतिपूर्ति किसी प्रकार भी नहीं की जा सकती। अपनों से बिछुड़ने का दु:ख असह्य होता है। इसलिए मानव को दृढ़-प्रतिज्ञ होना चाहिए तथा आपदाओं का डटकर सामना करना चाहिए। उसे स्वयं को कभी अकेला नहीं अनुभव करना चाहिए,क्योंकि सृष्टि-नियंता हमसे बेहतर जानता है कि हमारा हित किसमें है? इसलिए वह हम-साये की भांति पल-पल हमारे साथ रहता है। सो! दु:ख में मानव को चातक सम प्रभु को पुकारना चाहिए। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित विभिन्न गीतों की ये पंक्तियां ‘मन चातक तोहे पुकार रहा/ हर पल तेरी राह निहार रहा/ अब तो तुम आओ प्रभुवर!/ अंतर प्यास ग़ुहार रहा’ और ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहां है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा।’ परमात्मा सदैव हमारे अंग-संग रहते हैं; चाहे सारी दुनिया हमारा साथ छोड़ जाए। इसलिए मानव को सदैव प्रभु में अटूट व अथाह विश्वास रखना चाहिए– ‘मोहे तो एक भरोसो राम/ मन बावरा पुकारे सुबहोशाम।’
अंत में ‘संभाल के रखी हुई चीज़ और ध्यान से सुनी हुई बात कभी भी काम आ ही जाती है और सुन लेने से कितने ही सवाल सुलझ जाते हैं और सुना देने से हम फिर वहीं उलझ कर रह जाते हैं।’ वैसे हम भी वही होते हैं; रिश्ते भी वही होते हैं और रास्ते भी वही होते हैं– बदलता है तो बस समय,एहसास और नज़रिया। रिश्तों की सिलाई अगर भावनाओं से हुई हो तो टूटना मुश्किल है; अगर स्वार्थ से हुई है तो टिकना मुश्किल है। इसलिए मानव को संवेदनशील व आत्मविश्वासी होना चाहिए और दु:ख के समय पर आपदाओं से घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि वह दुनिया का मालिक सदैव उसके साथ रहता है। समस्याओं के दस्तक देते ही मानव दु:ख-दर्द से आकुल-व्याकुल हो जाता है और उसे कोई भी राह दृष्टिगोचर नहीं होती। ऐसी स्थिति में वह प्रभु से प्रार्थना करता व ग़ुहार लगाता है,जो उसके नत-मस्तक होने से पूर्व पलभर में उस तक पहुंच जाती है और उसके कष्टों का निवारण हो जाता है। ‘यह दुनिया है रंग-बिरंगी/ मोहे लागै है ये चंगी’ और अंतकाल में वह ‘मोहे तो प्रभु मिलन की आस/ बार-बार तोहे अरज़ लगाऊँ/ कब दर्शन दोगे नाथ’ की तमन्ना लिए वह मिथ्या संसार से रुख्सत हो जाता है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे…।)
☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(मनमोहिनी मॉलीन्नोन्ग, डिव्हाईन, डिजिटल डिटॉक्स (divine, digital detox))
इस जगत की सबसे सुंदर चित्रकला का कक्ष है, हर दिन नवीनतम चित्र लेकर आनेवाली प्रकृति !
प्रिय पाठकगण,
कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)
हर वर्ष पाच जून इस तारीख को हम विश्व पर्यावरण दिन मनाते हैं| युनायटेड नेशन्स युनो (United Nations Organization, UNO) की तरफ से इस अवसर की थीम है “सिर्फ एकही पृथ्वी” (Only One Earth) स्वीडन में इस वर्ष ५ जून के जागतिक पर्यावरण दिन के लिए मुख्य चर्चा का विषय था, प्रकृति से समन्वय साधकर शाश्वत हरित जीवनशैलीका स्वीकार करना, उसे वृद्धिंगत करना और उसका प्रचार करना! (to adopt, enhance and propagate sustainable greener life style in harmony with nature) इस वर्ष के ५ जूनको जागतिक पर्यावरण दिनकी पचासवीं वर्षगांठ थी! सुवर्णजयंती ही कह लीजिये!
५ जून १९७२ को स्टोकहोम (Stockholm) यहाँ आयोजित युनो की परिषद में जागतिक पर्यावरण दिन मनाने का निर्णय लिया गया| “सिर्फ एक ही पृथ्वी” इसी विषय पर तब चर्चा हुई. उसके बाद प्रत्येक वर्ष इसी तारीख को जागतिक पर्यावरण दिन मनाया जा रहा है! इस दिन का मुख्य उद्देश है, पर्यावरण के बारे में अखिल विश्व में जागरूकता तथा वह सदाहरित कैसे रहे, उसके लिए परिणाम प्रदान करने वाली कार्यक्षम कृतिशीलता! मित्रों, पर्यावरण यानि हमारे आसपास का प्रान्त!
१) प्राकृतिक पर्यावरण अर्थात प्रकृति के तत्व (पौधे, पशु, पक्षी, मनुष्य) यह ईश्वर की देन और उपहार है|
२) मानवनिर्मित/कृत्रिम पर्यावरण अर्थात मानवनिर्मित वस्तुएं (घर, कार, बिजली के उपकरण, आदि)
यह प्रकृति पर मानव द्वारा किए गए अत्याचारों के कारण सर पर चढ़ा कर्जा है!
जैसे बालक की जननी एक ही होती है, वैसी ही हमारी परम प्रिय लाडली पृथ्वी भी एक ही है! अगर उसका कोई विकल्प नहीं है, तो क्या उसे बचाना आवश्यक नहीं? अगर वहीँ मुँह फेर ले तो हमें सर छुपाने के लिए भी कहीं जगह नहीं बचेगी! संयुक्त राष्ट्रसंघ के (यूएन) पर्यावरणविषय से सम्बंधित कार्यक्रम का मुख्य उद्दिष्ट है, प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण और संवर्धन, इसे साध्य करने के लिए राजकीय, औद्योगिक और सामान्य नागरिकोंका सक्रिय सहभाग अत्यावश्यक है| यह कार्य कुछ कालावधि तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रत्येक क्षण के लिए है| इसीका अर्थ है कि इसे अपनी जीवनशैली में शाश्वतरूप में समाहित किया जाए| फिर हम एक दिन के लिए ही यह पर्यावरण दिन क्यों मनाएं? मित्रों, हमारी उम्र हर क्षण बढ़ती है, परन्तु क्या हम अपना जन्मदिन एक ही दिन नहीं मनाते? चाहे तो वैसा ही समझ लीजिये! अलावा इसके विविध कार्यक्रमों के कारण नए उत्साह का संचार होता है, नवीन कल्पनाओं के सुझाव दिए जाते हैं और उन्हें साकार करने के नए मार्ग भी दृष्टिगोचर होते हैं!
सच में पूछा जाए तो इस पृथ्वीवर अनगिनत जीव जंतू, पंछी, प्राणी, पौधे, वृक्ष और कीड़े सुख चैन से निवास कर रहे हैं, इनमें सबसे महत्व पूर्ण घटक है मानव प्राणी! प्रकृतिसे बेईमानी में अव्वल, पर्यावरण का सर्वाधिक सर्वनाश करनेवाला! परन्तु जिम्मेदारी लेने में सबसे पीछे रहने वाला यहीं मानव! केवल स्वयं का विचार करने वाला, स्वार्थी, जरुरत हो या ना हो, लापरवाही से प्रकृति की समृद्धि को लूटने कर उसे लहूलुहान करने वाला यहीं है बेईमान मानव! उसे प्राकृतिक सजीव सृष्टि से कोई लेना देना नहीं है| किसी एक ज़माने में अनाज पकाते समय हल्कासा धुआँ निकला था, वह बढ़ा और कंपाउंडिंग ब्याज की तरह बढ़ता ही रहा! औद्योगिक क्रांति के पश्चात् कारख़ानोंका यहीं काला-कलूटा धुआँ नाक और मुँह में कब गया यह पता ही नहीं चला! मानव का दिमाग विकसित होता रहा और पर्यावरण के प्रदूषण का आलेख चढ़ता हुआ आकाशभेद करता रहा! क्या यहीं विकास है? हम इसकी भारी कीमत अदा कर रहे हैं| जगत के सबसे अधिक प्रदूषित शहर हमारे देश में हैं, यह हमारी प्रगति है या अधोगति? ऐसा कहते हैं कि, सोते हुए को जगाना आसान है, परन्तु जागते हुए भी सोने का स्वांग भरने वाले को जगाना बिलकुल नामुमकिन है!
परन्तु हमारे देश में क्या हर तरफ यहीं भीषण परिस्थिति है? क्या कालेकाले बादलों को कहीं प्रकाश का श्वेत किनारा है? इसका उत्तर हैं हाँ, यह अत्यंत हर्ष की बात है! मुझे यह उत्तर मिल गया मेघों के गृह (आलय), अर्थात मेघालय यहाँ पर बसे हुए, एक प्रकृति के झूले पर आनंद की लहरों के हिंडोले लेनेवाले मनोहर, मनोरम तथा मनमोहिनी मॉलीन्नोन्ग (Mawlynnong) इस गांव में!
भारत के उत्तरपूर्व सीमा पर बस्ती करने वाली सात बहनें अर्थात “सेव्हन सिस्टर्स” में से एक बहन मेघालय! दीर्घ हरित पर्वतश्रृंखला, कलकल प्रवाहित निर्झर तथा पर्वतोंपर ही कहीं कहीं बसे हुए छोटे बड़े गांव! अर्थात, मेघालय की राजधानी शिलाँग को आधुनिकता का स्पर्श है! (मित्रों,शिलाँग सहित मेघालय के चुनिन्दा स्थानों का सफर कीजिये मेरे साथ अगले भाग में!) आज का प्रवास अविस्मरणीय और अनुपमेय ही होगा मित्रों, यह भरोसा रखिये! बिलकुल तिनके-सा छोटासा गांव और मॉलीन्नोन्ग यह नाम! इस गांव का यह नाम थोडासा विचित्र ही लगता है न? ७० या उससे भी अधिक वर्षों पूर्व यह गांव जलकर राख हुआ था, गांव के लोग दूसरे स्थान पर चले गए, परन्तु जल्द ही वापस आकर उन्होंने नए जोश के साथ यह गांव फिर से बसाया! खासी भाषा में “maw”, का अर्थ है पत्थर और “lynnong” का अर्थ है बिखरे हुए! यहाँ के घरोंतक ले जाने वाली पथरीली गलियां इसकी साक्षी हैं|
किसी भी महानगर की एकाध गगनचुंबी इमारत में रहनेवाले लोगों की संख्या से भी कम (२०१९ के रिकॉर्ड के अनुसार जनसंख्या केवल ९००) गांववालों की बस्ती का यह गांव (पर्यटकों को भूलिए, क्यों कि वे आते रहते हैं और {मजबूरी में} जाते रहते हैं!) “पूर्व खासी पर्वतश्रृंखला” इस खास नाम के जिलेमें आनेवाला! (in Pynursla community development block)! पर्यावरण के साथ सुंदर समन्वय साधते हुए मानव उतना ही सुंदर जीवन कैसे व्यतीत कर सकता है, इसका मैंने अबतक देखा हुआ सर्वोत्तम उदाहरण है यह गांव! इसीलिए जागतिक पर्यावरण दिन के अवसर पर यह भाग केवल इस मनमोहिनी के कदमोंपे निछावर! क्या है ऐसा इस गांव में कि “तारीफ करूँ क्या उसकी, जिसने इसे बसाया!!!” ऐसा (शर्मिला सामने न होते हुए भी) गाने का दिल करता है! स्वच्छ और पवित्र गांव कैसा हो, तो ऐसा हो! मासिक पत्रिका डिस्कवरी इंडिया ने इसे एशिया खंड का सबसे स्वच्छ गांव (२००३), भारत का सबसे स्वच्छ गांव (२००५), करार देकर गौरवान्वित करने के बाद बहुत अवसरोंपर यह गांव प्रसिद्धी के शिखर पर विराजमान रहा! फिलहाल मेघालय के सबसे सुंदर तथा स्वच्छ गांव के रूप में इसका गुणगान हो रहा है! कहीं भी हमारी परिचित जोर-जबरदस्ती नहीं, कागजी फाइलों का व्याप नहीं। यहाँ के बहुसंख्य लोग ख्रिश्चन धर्मी और “खासी” जनजाति के हैं|(मेघालय में तीन मुख्य जनजातियां हैं, Khasis, Garos व Jaintias) यहाँ ग्राम पंचायत है, चुनाव में गांव का मुखिया चुना जाता है| फ़िलहाल श्री थोम्बदिन (Thombdin) ये इस गांव के मुखिया हैं| (उनके व्यस्त होने के कारण उनसे भेंट नहीं हो पाई!) यहाँ है एक बोर्ड, स्वच्छता का आवाहन करने वाला! स्वयं-अनुशासन (हमारे पास सिर्फ स्वयं है), अर्थात, सेल्फ डिसिप्लिन क्या होती है (भारत में भी)यह यहीं अपने आंखोंसे देखना होगा, ऐसा मैं आवाहन करती हूँ! सामाजिक पहल से गांव का हर व्यक्ति गांव की सफाई-अभियान में शामिल है। यह सफाई-अभियान प्रत्येक शनिवार को स्फूर्ति से अनायास चलाया जाता है। प्रत्येक स्थानीय की उपस्थिति अनिवार्य है एवं ग्राम प्रधान की जुबानी है निर्णायक! इसकी जड़ गांव वालों की नस-नस में समायी है, यह किसी राजनीतिक दल या नेता के बस का काम नहीं! जबतक पर्यटक गांव में रहें कम से कम तबतक, इसी प्रवृत्ति की आशा गांववाले पर्यटकों से करते हैं|
यहाँ प्राकृतिक रूप से बसे बांस के बनों का कितना और कैसे बखान करें! मुझे तो बांस इस शब्द से बेंत से ज्यादातर रोज खाई मार(रोज कम से कम ५) ही याद आती है| उसमें से ९९. ९९% बार मार पड़ती थी, स्कूल में देरी से पहुँचने के लिए| (मित्रों, ऐसा कुछ खास नहीं, स्कूल की घंटी घर में सुनाई देती थी, इसलिए, जाएंगे आराम से, बगल में ही तो है स्कूल, यह कारण होता था!) यहाँ बांस का हर तरफ राज है! कचरा डालने हेतु जगह जगह बांस की बास्केट, यानी खोह(khoh), उसकी बुनाई इतनी सुंदर, कि, उसमें कचरा डालने का मन ही नहीं करेगा! यहाँ लोगोंके लिए धूप तथा बारिश से बचाव करने के लिए भी फिर बांस के अत्यंत बारीकी और खूबसूरती से बने प्रोटेक्टिव्ह कव्हर होते हैं! अनाज को सहेज कर रखने, मछली पकड़ने और आभूषण बनाने के लिए बांस ही काम आता है ! बांस की अगली महिमा अगले भाग में!
सवेरे सवेरे यहाँ की स्वच्छता-सेविकाएं कचरा इकठ्ठा करने के काम में जुट जाती हैं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं के बराबर, क्यों कि पॅकिंग के लिए हैं छोटे मोटे पत्ते! प्राकृतिक रूप से जो भी उपलब्ध हो उसी साधन संपत्ती का उपयोग करते हुए यहाँ के घर बनाये जाते हैं(फिर बांस ही तो है)! जैविक कचरा इकठ्ठा कर यहाँ खाद का निर्माण होता है| यहाँ है open drainage system परन्तु क्या बताएं, उसका पानी भी प्रवाही और स्वच्छ, गटर भी कचरे से बंद नहीं(प्रत्यक्ष देखें और बाद में विश्वास करें!) सौर-ऊर्जा का उपयोग करते हुए यहाँ के पथदीप स्वच्छ रास्तोंको प्रकाश से और भी उज्जवल बना देते हैं| अलावा इसके हर घर में सौर-दिये(बल्ब) और सौर-टॉर्च होते ही हैं, बारिश के कारण बिजली गायब हो तो ये चीजें काम आती हैं! प्रिय पाठकगण, ध्यान दीजिये, यह मेघालय का गांव है, यहाँ मेघोंकी घनघोर घटाएं नित्य ही छाई रहती, तब भी सूर्यनारायण के दर्शन होते ही सौर-ऊर्जा को सहेज कर रखा जाता है! और यहाँ हम सूर्य कितनी आग उगल रहा है, यह गर्मी का मौसम बहुत ही गर्म है भैय्या, इसी चर्चा में मग्न हैं! यहाँ होटल नहीं हैं, आप कहेंगे फिर रहेंगे कहाँ और खाएंगे क्या? क्यों कि पर्यटक के रूप में यह सुविधा अत्यावश्यक होनी ही है! यहाँ है होम् स्टे (home stay), आए हो तो चार दिन रहो भाई और फिर चुपचाप अपने अपने घर रवाना हो जाओ, ऐसा होता है कार्यक्रम! यहाँ आप सिर्फ मेहमान होते हैं या किरायेदार! मालिक हैं यहाँ के गांव वाले! हमें अपनी औकात में रहना जरुरी है, ठीक है न? कायदा thy name! किसी भी प्रकारका धुआँ नहीं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं साथ ही पानी का प्रबंधन है ही(rain harvesting). अब तो “स्वच्छ गांव” यहीं इस गांव का USP (Unique salient Point), सन्मान निर्देशांक तथा प्रमुख आकर्षण बन चुका है! गांवप्रमुख कहता है कि इस वजह से २००३ से इस गांव की ओर पर्यटकों की भीड़ में बढ़ौतरी होती ही जा रही है! गांववालों की आय में ६०%+++ वृद्धि हुई है और इस कारण से भी यहाँ की स्वच्छता को गांव वाले और भी प्रेमपूर्वक निभाते हैं, सारा गांव जैसे अपना ही घर हो ऐसी आत्मीयता और ऐसा भाईचारा देखने को मिलते हैं यहाँ! मित्रों,यह विचार करने योग्य चीज है! स्वच्छ रास्ते और घर इतने दुर्लभ हो गए हैं, यहीं है कारण कि हम लज्जा के मारे सर झुका लें!
मावलीन्नोन्ग (Mawlynnong) इस दुर्घट नाम का कोई गांव पृथ्वीतल पर मौजूद है , इसका मुझे दूर दूर तक अता-पता नहीं था! वहां जाने के पश्चात् इस गांव का नाम सीखते सीखते चार दिन लग गए (१७ ते २० मई २०२२), और गांव को छोड़ने का वक्त भी आ गया! शिलाँग से ९० किलोमीटर दूर बसा यह गांव| वहां पहुँचने वाली राह दूर थी, घाट-घाट पर वक्राकार मोड़ लेते लेते खोजा हुआ यह दुर्गम और “सुनहरे सपनेसा गांव” अब मन में बांस का घर बसाकर बस चुका है! उस गांव में बिताये वो चार दिन न मेरे थे न ही मेरे मोबाइल के! वो थे केवल प्रकृति के राजा और उनके साथ झूम झूम कर खिलवाड़ करती बरसात के! मैंने आज तक कई बरसातें देखी हैं! अब तक मुंबई की बरसात मुझे सबसे अधिक तेज़ लगती थी! लेकिन इस गांव के बारिश ने मुंबई की घनघोर बारिश की “वाट लगा दी भैय्या”! और यहाँ के लोगों को इस बरसात का कुछ खास कुतूहल या आश्चर्य नहीं होता! शायद उनके लिए यह सार्वजनिक स्नान हमेशा का ही मामला है! अब मेघालय मेघों का आलय (hometown ही कह लीजिये) फिर यह तो उसीका घर हुआ न, और हम यहाँ मेहमान, ऐसा सारा मामला है यह! वह यहाँ एंट्री दे रहा है यहीं उसके अहसान समझ लें, अलावा इसके लड़कियां झूले और लुकाछुपी खेल कर थक जाती हैं और थोड़ी देर के लिए विश्राम लेती हैं, वैसे ही वह बीच बीच में कम हो रहा था| हमारा नसीब काफी अच्छा था, इसलिए उसके विश्राम की घड़ियाँ और हमारी वहां के प्राकृतिक स्थलों को भेंट देने की घड़ियाँ पता नहीं पर कैसे चारों दिन खूब अच्छी तरह मॅच हुईं! परन्तु रात्रि के समय उसकी और बिजली की इतनी मस्ती चलती थी, कि उसे धूम ५ का ही दर्जा देना होगा और गांव की बिजली (आसमानी नहीं) को धराशायी करने वाले इस जबरदस्त आसमानी जलप्रपात के आक्रमण के नूतन नामकरण की तयारी करनी होगी!
मॉलीन्नोन्ग सुंदरी: सैली!
खासी समाज में मातृसत्ताक पद्धति अस्तित्व में है! महिला सक्षमीकरण तो यहाँ का बीजमंत्र ही है| घर, दुकान, घरेलु होटल और जहाँ तक नजर पहुंचे वहीँ महिलाऐं, उनकी साक्षरता का प्रमाण ९५-१००%. आर्थिक गणित वे ही सम्हालती हैं! बाहर काम करने वाली प्रत्येक स्त्री के गले में स्लिंग बॅग(पैसे के लेनदेन के लिए सुविधाजनक व्यवस्था) | हमने भी एक दिन एक घर में और तीन दिन एक अन्य घर में वास्तव्य किया! वहां की मालकिन का नाम Salinda Khongjee, (सैली)! यह मॉलीन्नोन्ग सुंदरी यहाँ के क्यूट, नटखट और चंचल यौवन की प्रतिनिधि समझिये! फटाफट, द्रुत लय में काम निपटने वाली, चेहरे पर कायम मधुर हास्य! यहाँ की सकल स्त्रियों को मैंने इसी तरह काम निपटते देखा! मैंने और मेरी लड़की ने इस सुन्दर सैलीसे छोटासा साक्षात्कार किया| (इस जानकारी को प्रकाशित करने की अनुमति उससे ली है) वह केवल २९ वर्ष की है! ज्यादातर उसके पल्लू अर्थात जेन्सेम में छुपी (खासी पोशाक का सुंदर आविष्कार यानी जेन्सेम, jainsem) दो बेटियां, ५ साल और ४ महीने की, उनके पति, Eveline Khongjee (एवलिन), जिनकी उम्र केवल २५ साल है! हमने जिस घर में होम स्टे कर रहे थे वह घर था सैलीका और हमारे इस घर के बाएं तरफ वाला घर भी उसीका है, जहाँ वह रहती है! हमारे घर के दाहिने तरफ वाला घर उसके पति का मायका, अर्थात उसकी सास का और बादमें विरासत के हक़ के कारण उसकी ननद का! उसकी मां थोड़े ही अंतर पर रहती है|सैली की शिक्षा स्थानिक स्कूल और फिर सीधे शिलाँग में जाकर बी. ए. द्वितीय वर्ष तक हुई|(पिता का निधन हुआ इसलिए अंतिम वर्ष रहा गया!) विवाह सम्पन्न हुआ चर्च में (धर्म ख्रिश्चन)| यहाँ पति विवाह के बाद अपनी पत्नी के घर में जाता है! अब उसके पति को हमारे घर के सामने से(उसके और सैली के)मायके और ससुराल जाते हुए देखकर बड़ा मज़ा आता था| सैली को भी अगर किसी चीज की जरुरत हो तो फटाफट अपनी ससुराल में जाकर कभी चाय के कप तो कभी ट्रे जैसी चीजें जेन्सेम के अंदर छुपाकर ले जाते हुए मैं देखती तो बहुत आनंद आता था! सारे आर्थिक गणित अर्थात सैली के हाथ में, समझे न आप! पति ज्यादातर मेहनत के और बाहर के काम करता था ऐसा मैंने निष्कर्ष निकाला! घर के ढेर सारे काम और बच्चियों की देखभाल, इन सब के रहते हुए भी सैलीने हमें साक्षात्कार देने हेतु समय दिया, इसके लिए मैं उसकी ऋणी हूँ ! इस साक्षात्कार में एक प्रश्न शेष था, वह मैंने आखिरकार, उसे आखरी दिन धीरेसे पूछ ही लिया, “तुम्हारा विवाह पारम्परिक या प्रेमविवाह? इसपर उसका चेहरा लाज के मारे गुलाबी हुआ और “प्रेमविवाह” ऐसा कहकर सैली अपने घर में तुरंत भाग गई!
सैली से मिली जानकारी कुछ इस तरह थी:
गांव के लोग स्वच्छता के नियमों का सख्ती से पालन करते हैं| यूँ सोचिये कि स्वच्छता अभियान में भाग नहीं लिया तो क्या? गांव के नियमों का भंग करने के कारण गांवप्रमुख की ओर से अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है! उसने बताया, “मेरी दादी और माँ ने गांव के नियम पालने का पाठ मुझे बचपन से ही पढ़ाया है”| यहाँ के घर कैसे चलते हैं, इस प्रश्न पर उसने यूँ उत्तर दिया, “होम स्टे” अब आमदनी का अच्छा साधन है! अलावा इसके, शाल और जेन्सेम बनाना या बाहर से लेकर बिकना, बांस की आकर्षक वस्तुएं पर्यटकों को बेचना| यहाँ की प्रमुख फसलें हैं, चावल, सुपारी और अन्नानास, संतरा, लीची तथा केले ये फल! प्रत्येक स्त्री समृद्ध, खुदका घर, जमीन और बागबगीचे! परिवार खुद ही धान और फल निर्माण करता है| वहां एकबार (तथा कई बार) फल बेचनेवाली स्त्री ने ताज़ा अन्नानास काटकर हमें झाड़ के तने की परत में सर्व्ह किया, वह अप्रतिम जायका अब तक तक जुबान पर चढ़ा है! इसका कारण है,”जैविक खेती”! फलों को निर्यात करके भी पैसे कमाए जाते हैं, अलावा इसके, पर्यटक “बारो मास” रहते ही हैं! (परन्तु लॉकडाऊन में पर्यटन काफी कम था|)
इस गांव में सबसे खूबसूरत चीज़ क्या है, यह सोचें तो वह है, यहाँ की हरितिमा, यह रंग यहाँ का स्थायी भाव समझिये! प्राकृतिक पेड़पत्ते और फूलों से सुशोभित स्वच्छ रास्तों पर मन माफिक और जी भर चहल कदमी करें! हर घर के सामने रमणीय उपवन का एहसास हो, ऐसे विविध रंगों के पत्ते और सुमनों से सुसज्जित बागबगीचे, घरों में छोटे बड़े प्यारे बच्चे! उनके लिए पर्यटकों को टाटा करना और फोटो के लिए पोझ देना हमेशा का ही काम है! मित्रों, यह समूचा गांव ही फोटोजेनिक है, अगर कैमरा हो तो ये क्लिक करूँ या वो क्लिक करूँ यह सोचने की चीज़ है ही नहीं! परन्तु मैं यह सलाह अवश्य दूँगी कि पहले आँखों के कैमेरे से इस प्रकृति के रंगों की रंगपंचमी को जी भरकर देखें और बादमें निर्जीव कॅमेरे की ओर प्रस्थान करें! गांव के किनारोंको छूता हुआ एक जल प्रवाह है (नाला नहीं!) उसके किनारों पर टहलने का आनंद कुछ और ही है! पानी में खिलवाड़ करें, परन्तु अनापशनाप खाकर कहीं भी कचरा फेंका तो? मुझे पूरा विश्वास है कि, बस अभी अभी सुस्नात सौंदर्यवतीके समान प्रतीत हो रहे इस रमणीय स्थान का अनुभव लेने के पश्चात् आप तिल के जितना भी कचरा फेकेंगे नहीं! यहाँ एक “balancing rock” यह प्राकृतिक चमत्कार है, तस्वीर तो बनती है, ऐसा पाषाण! ट्री हाउस, अर्थात पेड़ के ऊपर बना घर, स्थानीय लोगों द्वारा उपलब्ध सामग्री से निर्मित, टिकट निकाओ और देखो, बांस से बने घुमावदार घनचक्कर के ऊपर जाते चक्कर ख़त्म होते पेड़ के ऊपर बने घर में जाकर हम कितने ऊपर आ पहुंचे हैं इसका एहसास होता है! नीचे की और घर की तस्वीरें तो बनती ही हैं जनाब! शहरों में भी घरों के लिए जगह न हो तो यह उपाय विचारणीय है, परन्तु, मित्रों क्या शहर में ऐसे पेड़ हैं? यहाँ तीन चर्च हैं, उसमें से एक है “चर्च ऑफ द एपिफॅनी”, सुंदर रचना और निर्माण, वैसे ही पेड़ पौधे और पुष्पों की बहार से रंगीनियां बिखेरता संपूर्ण स्वच्छ वातावरण| अंदर से देखने का अवसर नहीं मिला क्यों कि, चर्च निश्चित दिनों में और निश्चित समय पर खुलता है!
अब यहाँ की सर्वत्र देखी जानेवाली आदत बताती हूँ, हमेशा पान खाना, वह यहाँ के लोगों के जैसा सादा, पान के टुकड़े, हलकासा चूना और पानी में भिगोकर नरम किये हुए सुपारी के बड़े टुकड़े! फलों और सब्जियों की दुकानों में सहज उपलब्ध! (फोटो देखकर समझ जाएंगे!) वह खाकर (चबाकर) यहां की सुन्दर नवयुवतियों के होंठ सदैव लाल रहते हैं! किसीभी लिपस्टिक के शेड के परे मनभावन प्राकृतिक लाल रंग! यहाँ तक कि आधुनिक स्कूल कॉलेजों की लड़कियां भी इसकी अपवाद नहीं थीं! पुरुष भी पान खानेवाले, लेकिन इसमें आश्चर्य की क्या बात है, सचमुच का आश्चर्य तो अब आगे है! मित्रों, एक चीज जो मैंने जान- बूझकर, बिलकुल मायक्रोस्कोपिक नजर से देखी, कहीं पान की पिचकारियां नज़र आ रही हैं? ! परन्तु यह गांव ठहरा स्वच्छता का पुजारी! फिर यहाँ पिचकारियां कैसे होंगी? इसका मुझे सचमुच ही अचरज भरा आनंद हुआ! यह सबकुछ आदत के कारण गांव वालों के रगरग में समाया है!
यहाँ कब पर्यटन करना चाहिए? अगर सुरक्षित तरीकेसे घूमना है और ट्रेकिंग करना है तो अक्टूबर महीना उत्तम है, परन्तु पेड़पौधों की हरियाली थोड़ी कम और निर्झरों के जलभंडार कम होंगे| परन्तु अगर हरीतिमा के रंगों से रंगे रंगीन वनक्षेत्र और जलप्रपातों से लबालब भरा मेघालय देखना हो तो मई से जुलाई ये महीने सर्वोत्तम हैं ! परन्तु ….. सावधान! घूमते समय और ट्रेकिंग करते समय बहुत सावधानी बरतना आवश्यक है! वैसे ही आकाशीय बिजली की अधिकतम व्याप्ति के कारण जमीं की बिजली का बारम्बार अदृश्य होना, यह अनुभव हमने हाल ही में लिया!
मित्रों, अगर आप को टीव्ही, इंटरनेट, व्हाट्सअँप और चॅट की आदत है (मुझे है), तो यहाँ आकर वह भूलनी होगी! हम जब इस गांव में थे, तब ९०% समय गांव की बिजली गांव चली गई थी! एकल सोलर दिये को छोड़ शेष दिये नहीं, गिझर नहीं, नेटवर्क नहीं, सैली के घर में टीव्ही नहीं! पहले मुझे लगा, अब जियेंगे कैसे? परन्तु यह अनुभव अनूठाही था! प्रकृति की गोद में अनुभव की हुई एक अद्भुत अविस्मरणीय और अनकही अनुभूती! मेरे सौभाग्य से प्राप्त डिव्हाईन, डिजिटल डिटॉक्स!
प्रिय पाठकगण, मॉलीन्नोन्ग का महिमा-गीत अभी शेष है, और मेरी उर्वरित मेघालय यात्रा में भी आप को संग ले चलूँगी, अगले भागों में!!!
तब तक मेघालय के मेहमानों, इंतज़ार और अभी, और अभी, और अभी…….!
तो, बस अभी के लिए खुबलेई! (khublei यानी खासी भाषा में खास धन्यवाद!)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – मत की कीमत। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘वाह रे इंसान!’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 130 ☆
☆ लघुकथा – वाह रे इंसान! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
लक्ष्मी जी दीवाली-पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पड़ीं। एक झोपड़ी के पास पहुँचीं, चौखट पर रखा नन्हा- सा दीपक अमावस के घोर अंधकार को चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था उस पर दो- चार फूल चढ़े थे और एक दीपक यहाँ भी मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोड़े से खील – बतासे एक कुल्हड़ में रखे हुए थे।
लक्ष्मी जी को ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढ़ी स्त्री याद आ गई- ‘जिसने जबरन उसकी झोपड़ी हथियाने वाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपडी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा था।‘ लक्ष्मी जी ने फिर सोचा – ‘बूढ़ी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, अब जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।‘
जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खड़े थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह- जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी, मंदिर में भी खान -पान का वैभव भरपूर था। लक्ष्मी जी ने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह- तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साड़ी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से वह कह रहा था –‘एक बुढ़िया की झोपड़ी लौटाने से दुनिया में मेरे नाम की जय-जयकार हो गई। यही तो चाहिए था मुझे, लेकिन गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो यह वैभव कहाँ से आएगा। एक बार दिखावा कर दिया, बस बहुत हो गया।’ वह घमंड से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोला– ‘यह धन–दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मजबूत शिला सी दृढ़ छाती…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 173 ☆
☆ मजबूत शिला सी दृढ़ छाती… ☆
परिस्थितियों के अनुसार एक ही शब्द के अलग- अलग अर्थ हो जाते हैं। सुनने वाला वही समझता है, जो उसके मन की कल्पना होती है और दोषारोपण दूसरे पर कर देता है।
ऐसा ही आपसी संबंधों में देखने को मिलता है। हमारी एक दूसरे से इतनी अपेक्षाएँ होती हैं कि जिनके पूरा न होने से एक अनचाही दीवार बन जाती है जिसे समय रहते न गिराया गया तो सम्बन्धों में दरार निश्चित है। दृढ़तापूर्वक जब लक्ष्य निर्धारित हो और उसे पूरा करने के लिए जी जान से लोग जुटे हों तो परिणाम अप्रत्याशित होते हैं।
कदम फूँक-फूँक कर रखते हुए चलने से देरी भले हो रही हो किंतु धोखा होने की गुंजाइश नहीं रह जाती है। जनता जनार्दन जरूर होती है पर पूजा के समय का निर्धारण पुजारी द्वारा होता है। सारे दावेदार भले ही शक्ति का दम्भ भरते दिखाई दे रहें हो लेकिन होगा वही जो ऊपर वाला चाहेगा।
चाहत और राहत का किस्सा साथ- साथ नहीं चल सकता है, चेहरा नए मोहरे के साथ जब भी आएगा कोई न कोई कमाल दिखायेगा। वक्त की आवाज परिवर्तन की माँग उठा रही है। सभी अपनी- अपनी शक्ति जरूर दिखा रहे हैं लेकिन शीर्ष नेतृत्व दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखकर युवा पीढ़ी पर विश्वास जताना चाहता है। जब तक नयापन न हो मजा नहीं आता। संगठन केवल पुराने कार्यों के लेखा – जोखा को ध्यान में रखकर यदि निर्णय लेता है तो नए को मौका कैसे मिलेगा। जब स्थिति मजबूत हो तो नवीन प्रयोग करने चाहिए।