(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# नवपुरुष #”)
आकाशात तांबूस आभा ••• तोच तांबूल रंग जमीनीवर सांडलेला••• या दोघांना सांधणारी डोंगराची रांग•••डोंगर माथ्यावर चमचमणारी सोनेरी किरणे असलेला सोन्याचा गोळा•••
अहाहा नेत्रसुख देणारे हे सुंदर चित्र••• उगवत्या सूर्याचे आहे का मावळतीच्या सूर्याचे आहे हे समजणे कठीण.
पण काय सांगते हे चित्र? फक्त सकाळ किंवा संध्याकाळ झाली आहे एवढेच ? नक्कीच नाही.
१.झरा म्हटले तरी एक सदा पुढे जाणारा चैतन्याचा स्रोत जाणवतो. पण या सोनेरी रंगामुळे हा झरा रुपेरी न रहाता सोन्याचा होऊन जातो.
२.झर्याचा उगम नेहमीच डोंगरमाथ्यावरून होतो. हा सोन्याचा झरा पण डोंगर माथ्यावर उगम पावला आहे.
३. पुढे पुढेच वाहणारा हा स्रोत अनेक आशेची, यशाची, प्रगतीची रोपटी वाढवतो आणि याच रोपट्यांचे डेरेदार वृक्षात परिवर्तन होणार असल्याची ग्वाही देतो. हे सांगताना या सोनेरी वाटेवर चितारलेली छोटी झुडुपे आणि वर मोठ्या झाडाची फांदी एक समाधानकारक लहर मनात निर्माण करते.
४. जमीन आणि आकाश सांधणारे डोंगर खूप मोठा आशय सांगतात. जमिनीवर घट्ट पाय रोऊन उभे राहिले तरी आकाशा एवढी उंची गाठता येते.
५. तुमच्या मनात आले तर तुम्ही आकाशाला गवसणी घालू शकता .ते सामर्थ्य तुमच्यामधे आहे .फक्त त्याची जाणिव सूर्यातील उर्जेप्रमाणे तुम्ही जागवा.
६. सूर्यातून ओसंडणारी ही आभा दिसताना जरी लहान दिसली तरी तिचा विस्तार केवढा होऊ शकतो हे प्रत्यक्ष तुम्ही जाणा.
७. जैसे बिंब तरि बचके एवढे।
परि प्रकाशा त्रैलोक्य थोकडे।
शब्दांची व्याप्ति तेणें पाडे।
अनुभवावी।। (श्रीज्ञानेश्वरी : ४-२१३)
ज्ञानेश्वरीतील या ओवी प्रमाणे तुम्ही स्वत: जरी लहान वाटलात तरी तुमच्यातील सामर्थ्य तुमचे कर्तृत्व यामुळे तुम्ही मोठे कार्य निश्चित करू शकता या आदर्शाची आठवण करून देणारा हा दीपस्तंभ अथवा तेवती मशाल वाटतो .
८. त्यापुढे आलेला देवळाचा भाग , देवळाची ओवरी, त्यावर विसावलेला माणूस ••• हे सगळे जे काही माझे माझे म्हणून मी गोळा केले आहे ते माझे नाही .हे या परमात्म्याचे आहे याची जाणिव मला आहे हे मनापासून या भगवंताच्या दरबारात बसून मी भगवंताला सांगत आहे. असा अर्थ प्रतीत करणारे हे चित्र वाटते .
०९. देवाला जाताना नेहमी पाय धुवून जावे. तर मी देवळात जाताना या सुवर्णसुखाच्या झर्यात पाय धुवून मी तुझ्याकडे आलो आहे .हे सांगत आहे.
१०. हे सगळे नक्की काय आहे हे सांगायला सोन्यासारख्या पिवळ्या धम्मक अक्षरांनी लिहिलेले सुवर्णसुखाचा निर्झरू हे शिर्षक.
११. यातील निर्झरू या शब्दाने त्यातील लडिवाळपणा जाणवतो. आणि हा निर्झर सुवर्णाचाच नाही तर तसेच सुख देणारा आहे हे सांगतात.
१२. ना सकाळ ना रात्र, ना जमिनीवर ना आकाशात, ना मंदिरात ना मंदिराबाहेर, ना दृष्य ना अदृष्य अशा परिस्थीतीत नरसिंहासारखे ना बालपणी ना वृद्धापकाळी घडलेले हे परमात्म्याचे दर्शन आहे असे वाटते .
अशा छान मुखपृष्ठासाठी सुनिल मांडवे यांना धन्यवाद.
अशा छान मुखपृष्ठाची निवड केल्याबद्दल प्रकाशक सुनिताराजे पवार आणि लेखक एकनाथ उगले यांचे आभार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है वर्तमान सामाजिक परिवेश पर विमर्श करती एक सार्थक एवं विचारणीय कहानी ‘एक फालतू आदमी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 218 ☆
☆ कहानी – एक फालतू आदमी☆
(लेखक के कथा-संग्रह ‘खोया हुआ कस्बा’ से)
चन्दन कॉलोनी की रौनकें बहुत कुछ उजड़ गयी हैं। पाँच दस साल पहले यहाँ ख़ूब रौनक थी। शाम होते ही झुंड की झुंड लड़कियाँ कॉलोनी की सड़कों पर साइकिलें लेकर निकल पड़ती थीं, जैसे चिड़ियों के आकाश में तैरते झुंड हों। उनका अल्हड़पन और हँसी पूरी कॉलोनी को गुलज़ार कर देती थी। कॉलोनी में रहने वाले लड़कों के दोस्तों की भी खूब आवाजाही बनी रहती थी। कॉलोनी के किसी भी कोने पर उन्हें बेफिक्री से ज़ोर-ज़ोर से बतयाते हुए देखा जा सकता था। कॉलोनी में बुज़ुर्गों के चेहरे पर भी उत्साह और सुकून पढ़ा जा सकता था। लेकिन अब यह गुज़रे ज़माने की बातें थीं। पिछले पाँच दस साल में ज़्यादातर लड़के लड़कियाँ पढ़ाई या नौकरी के लिए शहर से निकल गये थे और कॉलोनी की रौनक कम हो गयी थी। लड़के लड़कियों की सोच थी कि इस शहर में उनके पंख फैलाने की जगह नहीं है, इसलिए उन्होंने उड़ जाना ही बेहतर समझा था। उनके उड़ जाने के बाद पीछे छूट गये उनके माता-पिता के चेहरे पर रीतापन नज़र आता था।
कई माता-पिता ने अपने बेटे-बहू के साथ भावी जीवन बिताने की उम्मीद में अपने मकानों में कई कमरे बना लिये थे और अब वे परेशान थे कि बड़े मकानों का वे क्या करेंगे। कुछ ने किरायेदार रख लिये थे जबकि कुछ ने किरायेदारों की झंझट में पड़ने के बजाय अकेले ही रहना बेहतर समझा था। बुज़ुर्ग अपनी सुरक्षा के प्रति बेहद सावधान हो गये थे। दरवाज़े की घंटी बजाने पर बिना पूरी ताक-झाँक और इत्मीनान के दरवाज़ा खुलना मुश्किल होता था।
अब शाम होते ही बुज़ुर्ग अपना मोबाइल लेकर बैठ जाते थे और घंटों बेटों-बेटियों और नाती-पोतों से बात करने में मसरूफ रहते थे। यही सुकून पाने का बड़ा ज़रिया था। मोबाइल पर आवाज़ के अलावा प्रियजन को बात करते हुए देखा भी जा सकता था, जो बड़ी नेमत थी। बात ख़त्म होने के बाद भी बुज़ुर्ग बड़ी देर तक फोन पर हुई बातों को ही उठाते-धरते रहते थे।
कॉलोनी में अब बहुत कम लड़के- लड़कियाँ बाकी रह गये थे। अब वहाँ वे ही लड़के रह गये थे जो पढ़ाई-लिखाई में कोई तीर नहीं मार पाये थे या जिनके लिए अपना शहर छोड़ पाना मुश्किल था। ऐसे लड़के-लड़कियांँ अब शहर में ही कोई नौकरी या छोटा-मोटा धंधा खोजते थे।
ऐसे ही लड़कों में नीलेश था जो अपने दोस्तों की तुलना में पीछे छूट गया था। पढ़ाई में वह लाख सिर मारने के बाद भी औसत ही रहा था और इसीलिए न कोई दीवार तोड़ सका, न लंबी उड़ान भर पाया। शहर को न लाँघने का एक कारण यह भी था कि उसे शहर से बहुत प्यार था। अपना शहर छोड़ने के लिए जो बेरुखी चाहिए उसे वह पैदा नहीं कर पाया था। उसने अपने शहर में एम.बी.ए. की कक्षाओं में भी प्रवेश लिया था लेकिन वह दुनिया भी उसे थोथी लगी। उसकी समझ में नहीं आया कि हर वक्त अंग्रेज़ी में ही बातचीत क्यों की जाए या क्लास में टाई लगाकर जाना क्यों ज़रूरी हो। अन्त में वह उस कोर्स को छोड़ कर वापस अपनी दुनिया में आ गया।
कॉलोनी के कोने पर एक छोटा सा पार्क भी था जो बुज़ुर्गों के लिए वरदान था। सुबह-शाम कॉलोनी के बुज़ुर्ग वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। बातें ज़्यादातर अपने अपने बच्चों के बारे में ही होती थीं। ज़्यादातर बुज़ुर्गों को इस बात का गर्व था कि उनके बच्चे अच्छी संस्थाओं या मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों में पहुँच गये थे। जिनके बच्चे देश से बाहर निकलकर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों में नौकरी पा गये थे वे अपने को वी.आई.पी. समझते थे।
नीलेश पार्क के इस जमावड़े से बचता था क्योंकि उसे बुलाकर बुज़ुर्ग ऐसे सवाल करते थे जो उसके लिए तकलीफदेह थे। वही सवाल कि अब तक वह कहीं निकल क्यों नहीं पाया, और फिर अपने बच्चों का उदाहरण देते हुए ढेर सारी नसीहतें। नीलेश के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाता। किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाता।
बुज़ुर्गों में सबसे ज़्यादा परेशानी उसे वर्मा जी से होती है। उसे देखते ही वे आवाज़ देकर बुलाते हैं। फिर पहला सवाल— ‘क्यों कुछ जमा, या ऐसे ही भटक रहे हो?’ फिर लंबा भाषण— ‘आदमी में एंबीशन होना चाहिए। बिना एंबीशन के आदमी लुंज-पुंज हो जाता है। कुछ दिन बाद वह किसी काम का नहीं रहता। सोसाइटी पर ‘डेडवेट’ हो जाता है। एंबीशन पैदा करो तभी कुछ कर पाओगे।’ फिर वे अपने बेटे का उदाहरण देने लगते हैं जो नीलेश का दोस्त है, लेकिन मुंबई में एक कंपनी में ऊँचे पद पर बैठा है।
वैसे नीलेश अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट है। नौकरी नहीं है लेकिन पिता की हार्डवेयर की दूकान पर बैठकर उन्हें कुछ राहत दे देता है। रोज़ शाम को बूढ़े दादाजी की बाँह पकड़कर उन्हें कुछ देर टहला लाता है। दो बड़ी बहनों की ससुराल आना-जाना होता रहता है और मुसीबत या ज़रूरत में एक दूसरे की मदद होती रहती है। कहीं लंबा रुकना पड़े तो नौकरी का दबाव न होने के कारण तनाव नहीं होता। रिश्तो का रस पूरा मिलता रहता है।
वर्मा जी का बेटा प्रशान्त नीलेश का दोस्त है। शहर आने पर नीलेश को ज़रूर याद करता है। नीलेश की सरलता और उसका औघड़पन उसे अच्छा लगता है। स्वभाव विपरीत होने के कारण उसकी तरफ आकर्षण महसूस होता है। लेकिन प्रशान्त की ज़िन्दगी में फुरसत नहीं है। सारे वक्त जैसे उसके कान कहीं लगे होते हैं। लैपटॉप हर वक्त उसके आसपास होता है। मोबाइल पर व्यस्तता इतनी होती है कि उसके साथ वक्त गुज़ारने के लिए आये दोस्तों को ऊब हो जाती है। लेकिन वर्मा जी को अपने बेटे की व्यस्त ज़िन्दगी से कोई शिकायत नहीं है। उनके हिसाब से कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।
नीलेश के बारे में उसके दोस्तों और कॉलोनी वालों की धारणा बन गयी है कि वह फालतू है, उसके पास कोई काम धंधा नहीं है। इसलिए उससे कॉलोनी के ऐसे कामों में भी सहभागिता की उम्मीद की जाती है जिनमें उसकी कोई रुचि नहीं होती। कई बार उसे ऐसे मामलों में चिढ़ महसूस होने लगती है।
ऐसे ही उपेक्षा-अपेक्षा के बीच एक रात नीलेश के मोबाइल पर रिंग आयी। प्रशान्त था, आवाज़ घबरायी हुई। बोला, ‘अभी अभी पापा का फोन आया था। मम्मी को शायद पैरेलिसिस का अटैक आया है। वहाँ और कोई नहीं है। पापा बहुत परेशान हैं। तू पहुँच जा तो मुझे थोड़ा इत्मीनान हो जाएगा। मैंने बंसल हॉस्पिटल को फोन लगाकर एंबुलेंस के लिए कह दिया है। पहुँचती होगी। मैं सुबह दस बजे फ्लाइट से पहुँच जाऊँगा।’
नीलेश ने टाइम देखा। एक बजा था। वह बाइक उठाकर निकल गया। वहाँ वर्मा जी बदहवास थे। काँपते हुए इधर-उधर घूम रहे थे। बार-बार माथे का पसीना पोंछते थे। नीलेश को देख कर उनके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ गयी और मरीज़ अस्पताल पहुँच गया। चिकित्सकों की देखरेख में मामला नियंत्रण में आ गया। वर्मा जी, थके और बेबस, पत्नी की बेड की बगल में बैठे रहे।
प्रशान्त के पहुँचने तक नीलेश वहाँ रुका रहा। प्रशान्त करीब ग्यारह बजे, बहुत परेशान, वहाँ पहुँचा। माँ को ठीक-ठाक देखकर उसके जी में जी आया। वर्मा जी बेटे को देखकर रुआँसे हो गये। बड़ी देर के दबे भाव चेहरे पर प्रकट हो गये। प्रशान्त ने नीलेश का हाथ पकड़कर कृतज्ञता का भाव दर्शाया।
नीलेश का काम ख़त्म हो गया था। शायद अब कुछ नाते-रिश्तेदार या इष्ट-मित्र आकर मामला सँभाल लें। उसने प्रशान्त से विदा ली। चलते वक्त वर्मा जी की तरफ हाथ जोड़े तो उन्होंने कृतज्ञता से हाथ जोड़कर माथे से लगा लिये। आज वे नीलेश को कोई नसीहत नहीं दे सके।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 217☆ जमघट…मरघट..!
नदी किनारे की एक पुलिया के नीचे से गुज़र रहा हूँ। ऊपर महामार्ग, रेलवे पटरियाँ, मेट्रो ट्रैक हैं। नीचे नदी बहती है। इसी पुलिया से ‘यू’ मोड़ लेकर आगे जाना पड़ता है।
सुबह का समय है। आसपास की मांसाहारी होटलों से निकले प्राणियों के अवशेष इस पुलिया के इर्द-गिर्द बिखरे पड़े हैं। कौवे और चील इन छोटे-छोटे हिस्सों पर मंडरा रहे हैं, अपनी चोंच में भर रहे हैं। रोज़ाना सुबह इसी पुलिया के नीचे से गुज़रना पड़ता है। रोज़ाना इसी दृश्य को देखना पड़ता है। एक तरह का आदिम मरघट है यह।
किसी भी देह का इस तरह का विदारक अंत भीतर तक हिला देता है। थोड़ा-सा आगे निकलता हूँ। अभी पुलिया पार नहीं कर पाया हूँ। देखता हूँ कि मुर्गों से भरा एक ट्रक चला आ रहा है। अपने-अपने पिंजरों में क़ैद अपने अंत की ओर बढ़ते मुर्गे। इन प्राणियों ने अपनी प्रजाति के इन अवशेषों को देखा- समझा-जाना है या नहीं, पता नहीं चलता। वे अपने में मग्न हैं। एक तरह का शाश्वत जमघट है यह।
चलते ट्रक में लगा जमघट है, ठहरी पुलिया के नीचे थमा मरघट है। जीवन के पनघट पर अनादिकाल से इसी दृश्य का साक्ष्य और पात्र बनता हर घट है।
देहरूपी घट की यही कथा सार्वकालिक है, सार्वजनीन है। यात्रा मरघट की, तृष्णा जमघट की। जमघट का आनंद लेना वांछित है, अधिकारों का उपभोग, कर्तव्यों का निर्वहन भी अनिवार्य है। तथापि अपने अंत को जानते हुए विशेषकर बुद्धितत्व के धनी मनुष्य का इस देहयोनि को सार्थक नहीं कर पाना, उसकी मेधा पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
हर जीव जानता है कि उसका जीवन बीत रहा है। मेधावी चिंतन करता है कि जीवन बीत रहा है या रीत रहा है?
विशेष बात यह कि बीतना और रीतना की गुत्थी को सुलझाने का चमत्कारी सूत्र भी मनुष्य के ही पास है। चमत्कारी इसलिए कहा क्योंकि वाह्य जगत का बीज अंतर्जगत में है। जिस दृश्य को बाहर देख रहे हो, वह भीतर का रेपलिका या प्रतिकृति भर है।
कबीर लिखते हैं,
या घट भीतर अनहद बाजे,
या ही में उठत फुवारा,
ढूँढ़े रे ढूँढ़े अँधियारा।
जीवन को रीता रखोगे या घटी-पल के नित बरते जा रहे रिक्थ पर टिके अपने घट को समय रहते सार्थकता से लबालब करोगे, इसका निर्णय तुम्हें स्वयं करना है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 165 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 165)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं – एक प्रयोग – सॉनेट – कल (इटैलियन /इंग्लिश शैली) …।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 164 ☆
☆ एक प्रयोग – सॉनेट – कल (इटैलियन /इंग्लिश शैली) …☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
“डोळ्याचं ऑपरेशन कधी झालं ? ” सौनी आस्थेनं विचारलं.
“आठ दिस झाले”
“घरी आराम करायचा”
“असं कसं चाललं,पोटाची खळगी भरावी लागते ना. मी ही अशी म्हातारी, पोरं मोठी झाली. सुना आल्यात पण आज बी म्या कुणावर अवलंबून नाय. माज्या पैशानं फुलं आणून इकते. पैसे मिळवते म्हणून घरात अजूनही मान हाये.”
“या वयातही काम करता कौतुक वाटतं”
“तेत माजा स्वार्थ हायेच की”
“म्हणजे”
“इथं फुलं इकायला बसते त्यात जीव रमतो. येगयेगळी लोकं भेटतात.ईचारपुस करतात ते बरं वाटतं. घरी नुसतं बसून डोकं कामातून जातं. माज्याशी कुणालाबी बोलायला येळ नाई. काई ईचारल तर वसकन वरडतात. त्यापरिस इथं बसलेलं बरं”
“काकू,एक विचारू”
“काय ईचारणार ते माहितेय. जास्त फुलं का देता”
“बरोबर”
“ताई,आतापतूर लई पुडे दिले पण ह्ये इचरणारी तूच पयली.”
“इतर दुकानदार असं करत नाही. माल देताना हात आखडता घेतात.वर परवडत नाही असं ऐकवतात.”
“ते बी खरंय.”
“कमी फुलं दिली तर पैसे जास्त मिळतील की”
“जास्त दिल्यानं डबल फायदा व्हतो. माज्याकडून फुलपुडा घेतलेलं गिर्हाइक पुना पुना येतं. जास्त फुलं मिळाल्यावर लोकाला जो आनंद व्हतो ते पावून लई बरं वाटतं.”
“पण यात तुमचं नुकसान होतं ना”
“हा आता पैशे कमी मिळतात पण माल संपतो. फुलं ताजी हायित तोपतूर मागणी. एकदा का शिळी झाली की मग फेकूनच द्यायची. माणसाचं जगणं सुद्धा फुलासारखच .. उपयोग हाय तवर मान, नायतर….”
“म्हातारपणी पैसा उपयोगाला पडतो” सौ
“तो कितीबी कमवला तरी कमीच. पैसा हा पाणीपुरीसारखा असतो,कधीच मन भरतं नाई. अन गरजंपेक्षा जास्त मिळालं की जगण्याला फाटे फुटतातच”
“वा,कसलं भारी बोललात.”
दोन दुकानदारांचे टोकाचे अनुभव. परिस्थिती भिन्न. एक माल देताना हात आखडणारा पक्का व्यवहारी तर दुसरी सढळ हातानं फुलपुडा देणारी. दोघेही आपआपल्या जागी बरोबर !! पहिल्या ठिकाणी पैशांची गुंतवणूक तर दुसऱ्या ठिकाणी भावनेची.
“निघतो,आता भेट होत राहिलच” आम्ही फुलपुडा घेऊन निघाल्यावर गुलाबांचं टपोरं फुल देत काकू म्हणाल्या “ *माणसानं घेताना आवर घालावा पर देताना हात कायम सैल सोडवा.*” खूप मोठी गोष्ट काकूंनी अगदी सहज सांगितली.
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “वो यूँ मिलता था कभी ना बिछड़ेगा…” ।)
ग़ज़ल # 101 – “वो यूँ मिलता था कभी ना बिछड़ेगा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं। आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ कविता ☆ अब वक़्त को बदलना होगा – भाग – 7 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆