हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – विश्वविभूति महात्मा गांधी — लेखक – डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 22 ?

? विश्वविभूति महात्मा गांधी — लेखक – डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

 

पुस्तक का नाम-  विश्वविभूति महात्मा गांधी

विधा- जीवनी

लेखक- डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’

? मूर्ति से बाहर के महात्मा गांधी  श्री संजय भारद्वाज ?

महात्मा गांधी का व्यक्तित्व वैश्विक रहा है। अल्बर्ट आइंस्टाइन का कथन ‘आनेवाली पीढ़ियाँ आश्चर्य करेंगी कि हाड़-माँस का  चलता-फिरता ऐसा कोई आदमी इस धरती पर हुआ था’ गांधीजी के व्यक्तित्व के चुंबकीय प्रभाव को दर्शाता है। यही कारण है कि लंबे समय से विश्व के चिंतकों, राजनेताओं तथा आंदोलनकारियों  को गांधीजी की बहुमुखी प्रतिभा के विभिन्न आयाम आकर्षित करते रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि महात्मा गांधी के प्रति चिर आकर्षण और भारतीय मानस में बसी श्रद्धा ने डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ को उन पर पुस्तक लिखने को प्रेरित किया।

डॉ. गुप्त द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विश्वविभूति महात्मा गांधी’ राष्ट्रपिता पर लिखी गई एक और पुस्तक मात्र कतई नहीं है। 248 पृष्ठों की यह पुस्तक एक लघु शोध ग्रंथ की तरह पाठकों के सामने आती है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व विशेषकर उनके जीवन के अंतरंग और अनछुए पहलुओं को लेखक ने पाठकों के सामने रखा है। विषय पर कलम चलाते समय लेखक ने विश्वविभूति  के जीवन के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों को ज्यों का त्यों ईमानदारी से वर्णित किया है। यह साफ़गोई पुस्तक को लीक से अलग करती है।

वस्तुतः लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था भर नहीं अपितु जीवन शैली होता है। इसकी सार्वभौमिकता लेखन पर भी लागू होती है। प्रस्तुत पुस्तक इस सार्वभौमिकता का उत्तम उदाहरण है। सामान्यतः अपनी विचारधारा के आग्रह में अनेक बार लेखक यह भूल जाता है कि शब्दों का एक छोर लेखक के पास है तो दूसरा पाठक के हाथ है। बाँचे जाने के बाद ही स्थूल रूप से शब्द की यात्रा संपन्न होती है। डॉ. गुप्त ने घटनाओं का वर्णन किया है पर विश्लेषण पाठक की नीर-क्षीर विवेक बुद्धि पर छोड़ दिया है। पुस्तक को इस रूप में भी विशिष्ट माना जाएगा कि शैली और प्रवाह इतने सहज हैं कि वर्णित प्रसंग हर वर्ग के पाठक को बाँधे रखते हैं। अधिक महत्वपूर्ण है कि सभी 40 अध्याय एक चिंतन बिंदु देते हैं। यह चिंतन असंदिग्ध रूप से पाठक की चेतना को झकझोरता है।

गांधी के जीवन पर चर्चा करते हुए लेखक ने उन रसायनों की ओर संकेत किया है जिनके चलते गांंधी ने जीवन को प्रयोगशाला माना। ‘श्रीमद्भागवत गीता’ और रस्किन की पुस्तक ‘ अन टू दिस लास्ट’ का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। ‘न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित’अर्थात मनुष्य से श्रेष्ठ कोई नहीं।’ तेरहवीं शती का यूरोपिअन रेनेसाँ मनुष्य की इसी श्रेष्ठता का तत्कालीन संस्करण था।  रेनेसाँ  का शब्दिक अर्थ है-‘अपना राज या स्वराज’। यहाँ स्वराज का अर्थ शासन व्यवस्था पर नहीं अपितु मनुष्य का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण है। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की सनातन भारतीय अवधारणा कोे रस्किन ने ‘समाज के अंतिम आदमी तक पहुँचना’ निरूपित किया। ‘अंत्योदय’ या ‘ अन टू दिस लास्ट’ का  विस्तार कर गांधीजी ने इसका नामकरण ‘सर्वोदय’ किया। उनके सर्वोदय का उद्देश्य था-सर्व का उदय, अधिक से अधिक का नहीं और मात्र आख़िरी व्यक्ति का भी नहीं।

सर्वोदय की अवधारणा को स्वतंत्र भारत के साथ जोड़ते हुए ‘हरिजन’ पत्रिका में उन्होंने लिखा,‘ भारत की ऐसी तस्वीर मेरे मन में है जो प्रगति के रास्ते पर अपनी प्रतिभा के अनुकूल दिशा पकड़कर लगातार आगे बढ़े। भारत की तस्वीर बिलकुल ऐसी नहीं है कि वह पश्चिमी देशों की मरणासन्न सभ्यता के तीसरे दर्ज़े की नकल जान पड़े। अगर मेरा सपना पूरा होता है तो भारत के सात लाख गाँवों में से हर गाँव में  एक जीवंत गणतंत्र होगा। एक ऐसा गाँव जहाँ कोई भी अनपढ़ नहीं होगा, जहाँ कोई भी काम के अभाव में खाली हाथ नहीं बैठेगा, जहाँ सबके पास रोज़ की सेहतमंद रोटी, हवादार मकान और तन ढकने के लिए ज़रूरतभर कपड़ा होगा।’

रमेश गुप्त ने गांधी दर्शन के सूक्ष्म तंतुओं को छुआ है। भारतीय समाज को गांधीजी की वास्तविक देन का एक उल्लेख कुछ यों है,‘ गांधीजी धर्मांधता, धन-शक्ति और बाज़ारवाद को समाप्त करना चाहते थे। कहा जाता था कि गांधीजी ने तीन ‘ध’ समाप्त किए- धर्म, धंधा और धन। इनके बदले तीन ‘झ’ दिए- झंडा, झाड़ू और झोली।’  

आत्मविश्लेषण और सत्य का स्वीकार गांधीजी के निजी जीवन की विशेषता रही। इस विशेषता ने गांधी को मानव से महामानव बनाया। यों भी कोई महामानव के रूप में कोख में नहीं आता। इसके लिए रत्नाकर से वाल्मीकि होना एक अनिवार्य प्रक्रिया है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में अपने जीवन की अधिकांश गलतियाँ स्वीकार की हैं। जॉन एस. होइलैंड से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा,‘ पत्नी को अपनी इच्छा के आगे झुकाने की कोशिश में मैंने उनसे अहिंसा का पहला सबक सीखा। एक ओर तो वह मेरे विवेकहीन आदेशों का दृढ़ता से विरोध करतीं, दूसरी ओर मेरे अविचार से जो तकलीफ़ होती उसे चुपचाप सह लेती थीं। इस तरह अहिंसा की शिक्षा देनेवाली वे मेरी पहली गुरु बनीं।’ आरंभिक समय में कस्तूरबा पर शासन करने की इच्छा रखनेवाले गांधी जीवन के उत्तरार्द्ध में उनसे कैसे डरने लगे थे, इसका भी वर्णन लेखक ने एक मनोरंजक प्रसंग में किया है।

जैसाकि संदर्भ आ चुका है, गांधीजी गीता को जीवन के तत्वज्ञान को समझने के लिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानते थे। गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोकों ‘ध्यायतो विषयान्यंसः संगस्तेषूपजायते/संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते/क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः/स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशत्प्रणश्यति’ में उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा पाठ पढ़ा। श्लोकों का भावार्थ है कि विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष को उनमें आसक्ति उपजती है, आसक्ति से कामना होती है और कामना से क्रोध उपजता है, क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया, वह मृतक तुल्य है।

डॉ. गुप्त लिखते हैं कि इस भावार्थ ने मोहनदास के जीवन में क्राँतिकारी परिवर्तन ला दिया। उनकी यात्रा मृत्यु से जीवन की ओर मुड़ गई। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों की खर्चीली जीवनशैली से प्रभावित व्यक्तित्व मितव्ययी बन गया। वह अपने कपड़े खुद धोने लगा। अपने बाल मशीन से खुद काटने लगा।  माँसाहार की ओर आकृष्ट होनेवाले ने शाकाहार क्लब बनाया। वकालत में जिन मुकदमों को लड़ते रहने से मोटी रकम मिल सकती थी, उनमें भी दोनों पक्षों के बीच सुलह करवाई। पत्नी को भोग की वस्तुभर माननेवाले ने दाई बनकर अपनी पत्नी का प्रसव भी खुद कराया। असंयमित जीवन जीनेवाला मोहनदास मन, वचन, काया से इंद्रियों पर संयम कर पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन जीने लगा। चर्चिल के शब्दों में वह ‘नंगा फकीर’ हो गया।

लेखक ने गांधीजी के जीवन के ‘ग्रे शेडस्’ पर कलम चलाते समय भाषाई संयम, संतुलन और मानुषी  सजगता  को बनाए रखा है। इतिहास साक्षी है कि गांधीजी जैसा राजनीतिक चक्रवर्ती अपने घर की देहरी पर परास्त हो गया। अन्यान्य कारणों से बच्चों को उच्च शिक्षा ना दिला पाना, बड़े बेटे हरिलाल का पिता से विद्रोह कर धर्म परिवर्तन कर लेना, शराबी होकर दर-दर भटकना और गुमनाम मौत मरना, राष्ट्रपिता की पिता के रूप में असफलता को रेखांकित करता है।

विरोधाभास देखिए कि अपने घर का असफल स्रष्टा सार्वजनिक जीवन में उन ऊँचाइयों पर पहुँचा कि युगस्रष्टा कहलाया। इंग्लैंड में बैरिस्टरी, द. अफ्रीका की यात्रा में हुआ अपमान, भारत में वकालत में मिली असफलता, पुनः अफ्रीका यात्रा, वहाँ सशक्त राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने जैसे प्रसंगों की पुस्तक में समुचित चर्चा की गई है। दक्षिण अफ्रीका में आंदोलन को आरंभ में उन्होंने ‘पैसिव रेजिस्टेंस’ (निष्क्रिय प्रतिरोध) कहा। यही रेजिस्टेंस आगे चलकर सक्रिय होता गया और सदाग्रह, शुभाग्रह से होता हुआ सत्याग्रह के महामंत्र के रूप में सामने आया।

सत्याग्रह की इस शक्ति ने उनके शत्रुओं को भी बिना युद्ध के अपनी हार मानने के लिए विवश कर दिया। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें जेल में डालने का आदेश देनेवाले जन. स्मट्स को गांधीजी ने अपने हाथों से चप्पलों की एक जोड़ी बनाकर भेंट की। वर्षों बाद गांधीजी के 70 वें जन्मदिन पर मित्रता के प्रतीक रूप में वही जोड़ी उन्हें लौटाते हुए  जन. स्मट्स ने लिखा, ‘बहुत-सी गर्मियों में ये चप्पलें मैंने पहनी, हालांकि मैं महसूस करता हूँ कि मैं ऐसे महापुरुषों के जूतों में खड़े होने के योग्य भी नहीं हूँ।’

गांधी दर्शन की सबसे बड़ी शक्ति मनुष्य को इकाई के रूप में पहचानना और हर इकाई को परिष्कृत कर परिपूर्ण बनाने का प्रयास करना है। लोकतंत्र पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र वह अवस्था नहीं है जिसमें लोग भीड़ की तरह व्यवहार करें।’ उन्होंने इस बात का ख़ास ध्यान रखा कि गांधी के नेतृत्व में आंदोलन करनेवाला हर व्यक्ति गांधी हो। यही कारण था कि गांधी बनने की पाठशाला साबरमती आश्रम में एकादश व्रत- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, शरीर श्रम, सर्वधर्म समभाव और स्वदेशी अनिवार्य थे।

सत्य को किसीका डर नहीं होता। हज़ारों की भीड़ में भी वह सीना चौड़ा करके चलता है। सत्य के पुजारी की अंतिम यात्रा में बेटे देवदास के आग्रह पर उनका सीना उघड़ा ही रखा गया। सत्य के सिपाही के सीने पर लगी गोलियों के निशान बता रहे थे कि गांधी की हत्या हो गई है किंतु शवयात्रा में सहभागी लाखों गांधी साक्षी दे रहे थे कि गांधी अमर है।

गांधी की अमरता ने ही उन्हें ‘महात्मा’ की पदवी दी और विश्वविभूति बनाया। विश्वविभूति गांधी को मानवेतर मान लेना, मानव के रूप में उनकी मानव सेवा को कम आँकना होगा। इस सत्य को अपनी भूमिका में अधोरेखित करते हुए लेखक ने  राष्ट्रपिता की पौत्री सुमित्रा कुलकर्णी के कथन को उद्धृत किया है। बकौल सुमित्रा कुलकर्णी, “जिस क्षण हम गांधी को महज मूर्ति मान लेते हैं, उसी क्षण हम उन्हें पत्थर का बनाकर भूल जाते हैं। जब हम उन्हें सिर्फ मानव मानेंगे तो उन्हें पत्थर की मूर्ति में सिमटकर नहीं रहना पड़ेगा।” प्रस्तुत पुस्तक गांधी को पत्थर की मूर्ति से बाहर लाकर मनुष्य के रूप में देखने-पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करती है।

लेखक को अनंत शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #30 – गीत – आलोकित मनमंदिर मेरा… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतआलोकित मनमंदिर मेरा

? रचना संसार # 29 – गीत – आलोकित मनमंदिर मेरा…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

☆ 

रोम -रोम रोमांचित होता,

बहती प्रेम सुधा रस धारा।

जब भी कविता लिखने बैठूँ ,

लिख जाता है नाम तुम्हारा।।

 *

अन्तर्मन में बसते प्रियतम ,

हिय में है प्रतिबिंब तुम्हारा।

गंगा -यमुनी संगम अपना ,

जन्म -जन्म का प्रेम हमारा।।

रूप मनोहर कामदेव सा ,

तुम्हें निरखता मन मतवारा।

रोम -रोम रोमांचित होता ,

बहती प्रेम सुधा रस धारा।।

 *

सृजन करूँ जब – जब मैं साजन,

भावों में आती छवि प्यारी।

गीत ग़ज़ल रस अलंकार हो,

सप्त सुरों की सरगम सारी।।

पढ़कर मन नैनों की भाषा,

लिखता मन शृंगार दुलारा।

रोम -रोम रोमांचित होता,

बहती प्रेम सुधा रस धारा।।

 *

आलोकित मनमंदिर मेरा,

अंग – अंग में प्रीत समाई।

सन्दल सी सुरभित काया है,

पड़ी सजन की जो परछाई।।

रात अमावस दीप जले हैं,

पूनम सा फैला उजियारा।

रोम -रोम रोमांचित होता,

बहती प्रेम सुधा रस धारा।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #257 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 257 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

बता दिया उसने मुझे, अपने दिल का राज।

कैसे कह दूँ मैं तुम्हें, बन जाओ सरताज।।

*

 अश्क बहाने क्यों अभी, आए मेरे पास।

दिल तेरा कहने लगा, मैं हूँ  तेरी खास।।

*

कहते क्यों हो  जीवनी, भोर नहीं है रात।

कैसे तुम यह भूलते, होती कितनी  बात।।

*

समझ गए हो आज तुम, अपनी ही तकदीर।

आए जब से तुम यहाँ, हर ली मेरी पीर।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #239 ☆ एक बुंदेली गीत – हिंदुस्तान है सबको भैया… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  आपका  – एक बुंदेली गीत – हिंदुस्तान है सबको भैया…  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 239 ☆

☆ एक बुंदेली गीत – हिंदुस्तान है सबको भैया ☆ श्री संतोष नेमा ☆

मिल जुल खें सब रहबे बारे

बात समझ खें कहवे बारे

*

सड़कों पै बिन समझें उतरें

बातें ऊंची करवे बारे

*

गंगा जमुनी तहजीब हमारी

बा में हम सब पलवे बारे

*

हमरी एकता हमरी ताकत

कम हैं बहुत समझवे बारे

*

नाहक में बदनाम होउत हैं

जबरन सड़क पै उतरवे बारे

*

हिंदुस्तान है सबको  भैया 

सुखी “संतोष”संग रहवे बारे

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-९ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-९ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

.. आई जोगेश्वरी ची सेवा…

आईने नानांच्या पिठाला मीठ जोडण्यासाठी केलेल्या अनेक उद्योगांपैकी आणखी एक उद्योग म्हणजे पाळणाघर. शेजारच्या दोन मुली आणि रुबी हॉस्पिटलला एक सिस्टर होत्या, योगेशच्या आई म्हणतो आम्ही त्यांना. त्यांची दोन मुलं आणखी एक शेजारचे तान्हे बाळ पण होते. योगेशच्या आईंची शिफ्ट ड्युटी असायची. त्यांच्या वेळेप्रमाणे आईने मुलं अगदी नातवंडा सारखी सांभाळली. आई अगदी बांधली गेली होती. ही बाळं मोठी झाली त्यांनाही बाळं झाली, तरी त्या मुलांनी आणि त्यांच्या आयांनी जाणीव ठेवली. जोगेश्वरीचे दर्शन घेऊन त्या आमच्याकडे यायच्या आणि म्हणायच्या, “माजगावकर काकू जोगेश्वरी नंतर दर्शनाचा मान तुमचा आहे. देवी नंतर दर्शन घ्यावं तर ते तुमचचं.

“ज्योत से ज्योत जगाते चलो प्रेम की गंगा बहाते चलो, ” हे आईचं ब्रीदवाक्य होतं. सेवाभावी वृत्तीमुळे तिने माणसं जोडली, ती म्हणायची कात्रीसारखी माणसं तोडू नका, ‘ सुई’ होऊन माणसे जोडा. ’ पै न पै वाचवून खूप कष्ट करून सुखाचा संसार केला तिने. आईची बँक मजेशीर होती. नाणी जमवून ती एका डब्यात हळदीकुंकू वाहून पूजा करून देव्हाऱ्यात ठेवायची. आईचं रोज लक्ष्मीपूजन व्हायचं. आम्ही म्हणायचो “आई तुझी रोजच दिवाळी असते का गं ? रोज लक्ष्मीपूजन करतेस मग रोज लाडू कां नाही गं करत दिवाळीतल्या सारखे? “ आता कळतंय कशी करणार होती आई लाडू? रेशनची साखर रोजच्यालाच पुरत नव्हती. गुरविणबाई आईला नेहमी त्यांच्या घरी बोलवायच्या. त्यावेळी देवीपुढे नाणी खूप जमायची, इतकी की नाणी वेगवेगळी करण्यासाठी खूप वेळ जायचा, मान पाठ एक व्हायची. पण देवीची सेवा म्हणून आई ते पण काम करायची. गुरव श्री. भाऊ बेंद्रे हुशार होते. त्यांनी रविवार पेठेतून बोहरी आळीतून तीन-चार मोठ्या भोकाच्या चाळण्या आणल्या. आईचं बरचसं काम सोप्प झाल. भोकं बरोब्बर त्या त्या नाण्यांच्या आकाराची असायची त्यामुळे पाच, दहा, 25 पैसे, अशी नाणी त्या चाळणीतून खाली पडायची. घरी पैसे वाचवणारी आई देवीपुढची ती नाणी मोजताना अगदी निरपेक्ष प्रामाणिक असायची. गरिबी फार फार वाईट असते. गुरविणबाई आईकडे सुरुवातीला लक्ष ठेऊन असायच्या. विश्वासाने आईने त्यांचं मन जिंकलं.. दहा पैसे सुद्धा तिने इकडचे तिकडे केले नाही. चाळून झाल्यानंतर पैसे मोजणी व्हायची वेगवेगळी गाठोडी करून आकडा कागदावर लिहून त्या गाठोड्याची गाठ पक्की व्हायची.

देवळातल्या मिळकतीचा आणि त्या गाठोड्यातील पैशांचा गुरव बाईंना अभिमान होता. त्या श्रीमंत होत्या. तितक्याच लहरी पण होत्या. पण आईने त्यांची मर्जी संभाळली. मूड असला तर त्या सोबत म्हणून आईला सिनेमाला घेऊन जायच्या. आणि कधी कधी मुठी मुठीने नाणी पण द्यायच्या. जोगेश्वरीपुढे साड्यांचा ढीग पडायचा. मनात आलं तर त्या नारळ पेढे, तांदूळ, फुटाणे आणि साडीची घडी आईच्या हातात ठेवायच्या. देवीचा प्रसाद म्हणून अपार श्रद्धेने आई ती साडी घ्यायची, आणि दुसऱ्या दिवशी नेसायची तेव्हा आई आम्हाला साक्षात जोगेश्वरीच भासायची. कधीकधी गुरवबाई भरभरून एकत्र झालेले देवी पुढचे तांदूळ गहू पण आम्हाला द्यायच्या. आई त्याची सुरेख धिरडी करायची. तिची चटणी आणि बटाट्याची भाजी इतकी लाजवाब असायची की समोरच्या उडपी हॉटेलचा मसाला डोसा पण त्याच्यापुढे फिक्का पडायचा. हा जेवणातला सुरेख बदल आणि चविष्टपणा चाखून माझे वडील आईला गंमतीने म्हणायचे, ” इंदिराबाई मनात आलं तर देऊळसुद्धा गुरवीण बाई तुमच्या नावावर करून देतील. “.. “काहीतरीच तुमचं! “असं म्हणून आई गालातल्या गालात हसायची.

आईनानांच्या गरीबीच्या संसाराला विनोदाची अशी फोडणी असायची. खिडकीतून दिसणाऱ्या जोगेश्वरीच्या कळसाला हात जोडून आई म्हणायची, ” आई जगदंबे देऊळ नको मला, आई अंबे तू मात्र आमच्याजवळ हवीस. आईने मनापासून केलेली प्रार्थना फळाला आली आणि रोड वाइंडिंगमध्ये आमची जागा गेल्याने आम्हाला तिथेच (पोटभरे) मोरोबा दादांच्या पेशवेकालीन वाड्यात आम्हाला जागा मिळाली. तेही दिवस आमचे मजेत गेले. धन्यवाद त्या मोरोबादादांच्या वाड्याला आणि तुम्हालापण..

.. आई जोगेश्वरी माते तुला त्रिवार वंदन .

– क्रमशः…  

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १७ — श्रद्धात्रयविभागयोगः — (श्लोक १ ते १0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १७ — श्रद्धात्रयविभागयोगः — (श्लोक १ ते १0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अर्जुन उवाच 

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । 

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १ ॥

कथित अर्जुन 

शास्त्रविधी विरहित श्रद्धेने जे अर्चन करिती

सात्विक राजस वा तामस काय तयांची स्थिती ॥१॥

श्रीभगवानुवाच 

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । 

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ २ ॥

कथित श्रीभगवान 

देह स्वभावज श्रद्धा पार्था असते तीन गुणांची

ऐक कथितो सात्विक राजस तामस या गुणांची ॥२॥

*

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । 

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ ३ ॥

*

स्वभाव मनुजाचा श्रद्धामय तसे तयाचे रूप

अंतरी असते श्रद्धा जागृत अंतःकरणानुरूप ॥३॥

*

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः । 

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ ४ ॥

*

सात्विक भजती देवांना यक्षराक्षसांसि राजस

प्रेत भूतगणांचे पूजन करिताती ते असती तामस ॥४॥

*

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः । 

दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ ५ ॥

*

त्याग करुनिया शास्त्राचा घोर तपा आचरती

युक्त कामना दंभाहंकार बलाभिमान आसक्ती ॥५॥

*

कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः । 

मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्‌ ॥ ६ ॥

*

कृशावती कायास्थित सजीव देहांना 

तथा जेथे स्थित मी आहे त्या अंतःकरणांना

मतीहीन त्या नाही प्रज्ञा असती ते अज्ञानी

स्वभाव त्यांचा आसुरी पार्था घेई तू जाणूनी ॥६॥

*

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः । 

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥ ७ ॥

*

भोजनरुची प्रकृतीस्वभावे तीन गुणांची

यज्ञ तप दानही असती तीन प्रकाराची

स्वभावगुण असती या भिन्नतेचे कारण

कथितो तुजला भेदगुह्य ग्रहण करी ज्ञान ॥७॥

*

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः । 

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ ८ ॥

*

आयु सत्व बल आरोग्य प्रीति वर्धकाहार

सात्विका प्रिय स्थिर रसाळ स्निग्ध हृद्य आहार ॥८॥

*

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः । 

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९ ॥

*

अत्युष्ण तिखट लवणयुक्त शुष्क कटु जहाला

दुःख शोक आमयप्रद भोजन प्रिय राजसाला ॥९॥

*

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌ । 

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌ ॥ १० ॥

*

नीरस उष्ट्या दुर्ग॔धीच्या अर्ध्याकच्च्या शिळ्याप्रती

नच पावित्र्य भोजनाप्रति रुची तामसी जोपासती ॥१०॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “खरे प्रेम…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “खरे प्रेम…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

.. तो रस्त्यावरचा भटका  कुत्रा  नेहमी रात्रभर तिच्या घराच्या दाराशी जागा असायचा. एकप्रकारे तिचं संरक्षण करण्याचं व्रतच त्याने घेतलं होतं..

तिच्या मनी त्याच्याप्रती भूतदया जागृत झाल्याने, त्याला सकाळ संध्याकाळ नेमाने ब्रेड बटर प्रेमाने खाऊ घालायची.

प्रेमाने केलेल्या क्षुधाशांतीच्या तृप्ततेने  तो आनंदाने आपली शेपटी हलवत सतत तिच्या आजूबाजूला, घराजवळ घुटमळत राहायचा..

तिच्या नवऱ्याला कुत्र्यांबद्दल तिडीक असल्याने  तो तिच्यावर सारखा चिडायचा ; कुत्र्याला हडतूड करायचा. आणि एका रात्री…

 मुसळधार पाऊस झोडपत असताना तिच्या नवऱ्याने  कडाक्याच्या भांडणातून तिला घरातूनच कायमचे हाकलून दिले; त्यावेळी तो भटका कुत्रा तिच्याजवळ येऊन ,तिची ओढणी ओढत ओढत  तेथून आपल्या बरोबर घेऊन जाऊ लागला, जणूकाही इथून पुढे इथं राहून अधिक मानहानी करण्यात काही मतलब नाही हेच तो सुचवत होता..

आजवरचं मालकिणीचं खाल्लेलं मीठ नि तिनं दिलेलं प्रेम या जाणीवेला तो भटका  असला तरी  आता  त्याच्या इमानीपणाला जागणारं होता..

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 221 ☆ व्यवहार की भाषा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना व्यवहार की भाषा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 221 ☆ व्यवहार की भाषा

हमारा व्यवहार लोगों के साथ, खासकर जो हम पर आश्रित होते हैं उनके साथ कैसा है ?इससे निर्धारित होता है आपका व्यक्तित्व। विनम्रता के बिना सब कुछ व्यर्थ है। मीठी वाणी, आत्मविश्वास, धैर्य, साहस ये सब आपको निखारते हैं। समय- समय पर अपना  मूल्यांकन स्वयं करते रहना चाहिए।

यदि  कोई कुछ कहता है तो अवश्य ये सोचे कि अप्रिय वचन कहने कि आवश्यकता उसे क्यों पड़ी, जहाँ तक संभव हो उस गलती को सुधारने का प्रयास करें जो जाने अनजाने हो जाती है। जैसे- जैसे स्वयं को सुधारते जायेंगे वैसे- वैसे आपके करीबी लोगों की संख्या बढ़ेगी साथ ही वैचारिक समर्थक भी तैयार होने लगेंगे।

*

भावनाएँ भाव संग, मन  में  भरे  उमंग

पग- पग चलकर, लक्ष्य पूर्ण कीजिए।

*

इधर- उधर मत, नहीं व्यर्थ कार्यरत

समय अनमोल होता, ये संकल्प लीजिए। ।

*

पल- पल प्रीत धारे, खड़े खुशियों के द्वारे

राह को निहारते जो, उन्हें साथ दीजिए।

*

कार्य उनके ही होते, जागकर जो न सोते

जीवन के अमृत को, घूँट- घूँट पीजिए। ।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 29 – सिस्टम की सवारी, जनता की बेज़ारी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सिस्टम की सवारी, जनता की बेज़ारी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 29 – सिस्टम की सवारी, जनता की बेज़ारी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

किसी ने सही कहा है, “नेताओं का सबसे बड़ा काम यह है कि वे जनता की आँखें जनता के द्वारा फुड़वाते हैं।” और यह काम हमारे सच्चे नायक, श्रीमान रामानंद जी ने बखूबी किया। वह एक राजनेता नहीं, बल्कि एक ‘मसीहा’ थे। उनके पास हर समस्या का समाधान था—बस उसे किसी न किसी तरीके से ‘घुमा-फिरा’ कर पेश करना होता था।

रामानंद जी का कार्यक्षेत्र बड़ा था, हालांकि यह कार्यक्षेत्र केवल उन्हीं के घर तक सीमित था। उनका बड़ा आदर्श वाक्य था, “हम जो कहें, वही सच है। और सच को समझने के लिए हमें हमेशा थोड़ी देर रुककर उसका पुनः मूल्यांकन करना चाहिए।” इस वाक्य को सुनकर तो लोग चकरा जाते थे, लेकिन इसका मतलब बहुत गहरा था, यह वही बानी थी, जिससे लोग उन्हीं को समझते थे, बिना समझे।

एक दिन रामानंद जी अपने कार्यलय में व्यस्त थे। उनके पास कुछ बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे थे—मसलन, सड़क के गड्ढे भरवाने का निर्णय और नल के पानी को इतना साफ करने का ऐतिहासिक निर्णय, जिससे लोग उसका रंग देख सकें। इन मुद्दों के साथ वे एक बेहद अहम बैठक करने वाले थे। पर एक अजीब घटना हुई, जो ना तो रामानंद जी की योजना का हिस्सा थी, और ना ही किसी के लिए सहज रूप से समझी जा सकती थी।

दरअसल, रामानंद जी के पास एक फाइल आई थी, जो एक नई सड़क के निर्माण से संबंधित थी। सड़क की डिजाइन इतनी अद्भुत थी कि किसी को समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह सड़क किसे जोड़ी जाए—क्या यह स्कूल के बच्चों के लिए थी, या फिर वो रास्ता था, जिस पर राजनेताओं के काफिले को तेजी से गुजरना था। जैसे ही फाइल पर एक नजर डाली, रामानंद जी ने कहा, “ये सड़क तो हमें खुद बनाने की जरूरत नहीं है, ये तो खुद बनाई जाएगी।”

और फिर, जैसे ही बैठक खत्म हुई, एक नया फॉर्मूला सामने आया: “जनता के मुद्दे पर इतना विचार करने की कोई जरूरत नहीं, अगर उनके पास सड़क नहीं है, तो चलने का क्या फायदा।” इस महान विचार को सुनकर उनके सभी कर्मचारी भौंचक्के रह गए, लेकिन वे जानते थे कि यह एक गहरी राजनीति का हिस्सा था।

इसी बीच, रामानंद जी की टीम ने एक नया विकास कार्यक्रम प्रस्तुत किया—”भारत स्मार्ट बनेगा, अगर हम इसे थोड़ा और स्मार्ट बना लें।” यह विचार उन्होंने खुद ही खड़ा किया था, और अब इसे लागू करने का वक्त था। इसका पहला कदम था ‘स्मार्ट वॉटर सप्लाई’। स्मार्ट वॉटर सप्लाई का मतलब था कि पानी में कुछ न कुछ ऐसी सामग्री मिलाई जाएगी, जिसे पीकर लोग खुद को स्मार्ट महसूस करेंगे, और उनकी अज्ञानता भी घट जाएगी। पानी में कुछ जड़ी-बूटियों का मिश्रण करने के लिए एक वैज्ञानिक को नियुक्त किया गया, जो इस उपक्रम में सफलता पाने के लिए न जाने कितनी रातें जागता रहा। अंततः, जब पानी का टेस्ट हुआ, तो लोग इसको पीने के बाद, स्मार्ट तो क्या, अपनी नाक से ही परेशान हो गए।

रामानंद जी के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ चुका था। अब उन्होंने एक नया कदम उठाया—’जनता की शिकायतें दूर करना’। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने एक विशाल कंट्रोल रूम स्थापित किया, जहां सभी शिकायतें दर्ज की जाती थीं। यह कंट्रोल रूम इतना बड़ा था कि किसी भी शिकायत को पंजीकरण से पहले, उन पर सिर्फ एक लकीर खींची जाती थी। रामानंद जी ने इसका नाम दिया “लकीरी व्यवस्था”। इसके बाद, किसी भी शिकायत के समाधान से पहले, वे शिकायतकर्ताओं को बुलाकर एक प्रेरक भाषण देते थे, ताकि वे समझ सकें कि आखिर क्यों उनकी समस्या इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। यह तरीका बड़ा कारगर साबित हुआ, क्योंकि अब शिकायतें आई ही नहीं।

एक दिन रामानंद जी के सामने एक और समस्या आई—विकास कार्यों के लिए धन की कमी। पर वे निराश नहीं हुए। “धन की कमी से कोई फर्क नहीं पड़ता,” उन्होंने कहा, “हमारे पास हर समस्या का समाधान है, बशर्ते उसे सही तरीके से घुमाया जाए।” और फिर, उन्होंने ‘विकास की गति’ को धीमा कर दिया। यह तरीका इतना सटीक था कि अब सब कुछ स्थिर था—न कोई सड़क बन रही थी, न कोई पानी साफ हो रहा था, लेकिन सब लोग बहुत खुश थे।

आखिरकार, रामानंद जी ने एक और बेमिसाल घोषणा की: “हम विकास के नाम पर किसी भी उन्नति की जरूरत नहीं समझते। हम जो हैं, उसी में खुश हैं।” यह घोषणा सुनकर जनता भी खुश हो गई। अब वे विकास के बारे में चिंता नहीं करते थे, क्योंकि रामानंद जी का भरोसा था—”जिसे जो चाहिए, वो यही कर सकता है।”

और इस तरह, रामानंद जी ने अपने कार्यकाल को सफलतापूर्वक पूरा किया, बिना किसी परिणाम के। यह कहानी एक सच्चे नेता की है, जो सच में जानता था कि कैसे झूठ को इतने सफाई से पेश किया जाए कि वह सच जैसा लगे।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 314 ☆ व्यंग्य – “हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी से बचना !” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆

?  व्यंग्य – हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी से बचना ! ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी न करना वरना लोकायुक्त धर लेगा। हुनरमंद होना भी कभी मुश्किल में डाल देता है। मेरा दोस्त बचपन से ही बड़ा हुनरमंद है। स्कूल के दिनों से ही वह पढ़ाई के साथ साथ छोटे बच्चों को ट्यूशन देकर अपनी फीस और जेब खर्च सहज निकाल लेता था। जब कभी कालेज में फन फेयर लगता तो वह गोलगप्पे और चाय की स्टाल लगा लेता था। सुंदर लड़कियों की सबसे ज्यादा भीड़ उसी की स्टाल पर होती और बाद में जब नफे नुकसान का हिसाब बनता तो वह सबसे ज्यादा कमाई करने वालों में नंबर एक पर होता था।

कालेज से डिग्री करते करते वह व्यापार के और कई हुनर सीख गया। दिल्ली घूमने जाता तो वहां से इलेक्ट्रानिक्स के सामान ले आता, उसकी दिल्ली ट्रिप तो फ्री हो ही जाती परिचितों को बाजार भाव से कुछ कम पर नया से नया सामान बेचकर वह कमाई भी कर लेता। बाद में उसने सीजनल बिजनेस का नया माडल ही खड़ा कर डाला।  राखी के समय राखियां, दीपावली पर झिलमिल करती बिजली की लड़ियां, ठंड में लुधियाना से गरम कपड़े, चुनावों के मौसम में हर पार्टी के झंडे, टोपियां, गर्मियों में लखनऊ से मलमल और चिकनकारी के वस्त्र वह अपने घर से ही उपलब्ध करवाने वाला टेक्टफुल बंदा बन गया। दुबई घूमने गया तो सस्ते आई फोन ले आया मतलब यह कि वह हुनरमंद, टेक्टफुल और होशियार है।

इस सबके बीच ही वह नौकरी के लिये कांपटेटिव परीक्षायें भी देता रहा। जैसा होता है, स्क्रीनिग, मुख्य परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम पर स्टे वगैरह की वर्षौं चली प्रक्रिया के बाद एक दिन एक प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम आया और हमारा मित्र द्वितीय श्रेणि सरकारी कर्मचारी बन गया। अब अपने हुनर से वह दिन भर का सरकारी काम घंटो में निपटा कर फुर्सत में बना रहता। बैठा क्या न करता उसने अपना साइड बिजनेस, पत्नी के नाम पर कुछ और बड़े स्तर पर डाल दिया। उसके पद के प्रभाव का लाभ भी मिलता चला गया और वह दिन दूना रात चौगुना सफल व्यापार करने लगा। कमाई हुई तो गहने, प्लाट, मकान, खेत की फसल भी काटने लगा। जब तब पार्टियां होने लगीं।

गुमनाम शिकायतें, डिपार्टमेंटल इनक्वायरी वगैरह शुरु होनी ही थीं, किसी की सफलता उसके परिवेश के लोगों को ही सहजता से नहीं पचती। फिर एकदिन भुनसारे हमारे मित्र के बंगले पर लोकायुक्त का छापा पड़ा। दूसरे दिन वह अखबार की सुर्खियों में सचित्र छा गया। अब वह कोर्ट, कचहरी, वकीलों, लोकायुक्त कार्यालय के चक्कर लगाता मिला करता है। हम उसके बचपन के मित्र हैं। हमने उसके हुनर को बहुत निकट से देखा समझा है, तो हम यही कह सकते हैं कि हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी न करना वरना लोकायुक्त धर लेगा।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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