मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “प्रेरणादायी पुस्तके” – लेखक : श्री सुबोध जोशी ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “प्रेरणादायी पुस्तके” – लेखक : श्री सुबोध जोशी ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

सर्वसाधारणपणे आपण एका वेळेला एक पुस्तक  वाचतो. काही लोकांना वेगळ्या विषयांवरील दोन पुस्तके आलटून  पालटून  वाचायची सवय असते. पण एकाच वेळेला, एकाच पुस्तकात नऊ पुस्तकांचा खजिना सापडला तर ? ही किमया  केली आहे सांगलीचे प्रा.सुबोध अनंत जोशी यांनी.

श्री.सुबोध जोशी सरांचे ‘प्रेरणादायी  पुस्तके ‘ हे पुस्तक  नुकतेच प्रकाशित  झाले व वाचायलाही मिळाले. आयुष्याला प्रेरणा देणा-या व व्यक्तिमत्त्व  विकासाला चालना देणा-या नऊ पुस्तकांचा परिचय   या एकाच पुस्तकात करुन देण्यात आला आहे. एका लेखमालेच्या निमित्ताने लिहीलेले हे लेख आता पुस्तकाच्या स्वरुपात आपल्यासमोर आले आहेत. भारतीय लेखकांनी इंग्रजीत लिहीलेल्या नऊ पुस्तकांचे सविस्तर  विवेचन या पुस्तकात करण्यात  आले आहे. मुख्यतः प्रेरणा देणारी व वाड्मयीन  मूल्य असलेली पुस्तके यासाठी निवडण्यात आली आहेत. ही पुस्तके  व त्यांचे लेखक खालीलप्रमाणे.:— 

1   You Can Win…. शिव खेरा 

2   You Are Unique…. डाॅ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम 

3   Smile Your Way To… Accomplishment and Bliss… कमरुद्दीन 

4   The Best Thing About…. You Is You…अनुपम खेर 

5 Count Your Chickens …  Before They Hatch… अरिंदम् चौधरी.

6 Secrets of Happiness… तनुश्री  पोडेर

7 “The Heads – We Win; ” The Tails – We Win”… कर्नल पी.पी.मराठे

8 Winners and Losers… उज्वल पाटणी

9 The Tao of Confidence… एरी प्रभाकर 

श्री.जोशी यांनी या नऊ पुस्तकांचा परिचय  करून दिला आहे. त्यांच्याच शब्दात सांगायचे तर हे पुस्तकांचे परीक्षण नाही, तर पुस्तकाच्या सर्व  अंगोपांगांचे  रसग्रहण आहे. या पुस्तकांच्या परिचयाशिवाय  पुस्तकातील वाड्मयीन सौंदर्यही त्यांनी दाखवून दिले आहे.

या पुस्तकाचे आणखी एक वैशिष्ट्य  म्हणजे लेखकाने आपल्या प्रस्तावनेत काही मुद्द्यांवर  चर्चा केली आहे. प्रेरणा किंवा प्रेरक शक्ती म्हणजे काय ? प्रेरणाविषयक सिद्धांत, फ्राईड यांचा जीवनप्रेरणा-मृत्यूप्रेरणा सिद्धांत, मॅस्लोने  यांची गरजांची क्रमवारी, अशा अनेक संकल्पनांचा उहापोह  प्रस्तावनेत केला असल्यामुळे, मूळ पुस्तकांतील विविध लेखकांचे विचार समजून घेण्यास मदत होईल  हे नक्कीच. उत्तम व्यक्तिमत्त्व  संपादन करून  परिपूर्तता गाठणे हे अंतिम ध्येय कसे गाठता येईल  याविषयी मार्गदर्शन  करणारी ही पुस्तके आहेत. ‘व्यक्तिमत्त्व विकास’ आणि ‘भारतीय  परंपरेतील आत्मशोधन’ यातील साम्यही लेखकाने दाखवून दिले आहे. प्रेरणादायी पुस्तक म्हणजे यशाचा शाॅर्टकट नव्हे हे लक्षात ठेवून जो याचे वाचन करेल त्याच्या व्यक्तिमत्त्वाचा विकास साधणे सहज शक्य  होईल, असा विश्वास  लेखकाने शेवटी व्यक्त  केला आहे.

पुस्तकांचा परिचय  करुन देत असताना लेखकाने प्रत्येक  पुस्तकातील महत्वाचे मुद्दे वाचकासमोर ठेवले आहेत. त्यामुळे मूळ पुस्तकांतील मुद्देसूदपणा लक्षात  येतो. तसेच आपल्या मनातील अनेक संकल्पनांविषयी असलेला गोंधळ, गैरसमज  दूर होण्यास मदत होईल असे वाटते. त्यामुळे श्री.जोशी सरांच्या या पुस्तकाच्या वाचनानंतर  त्यांनी  सुचवलेली पुस्तके वाचणा-यालाच संपूर्ण  ‘फळ’ मिळेल, हे मात्र  नक्की.

या पुस्तकाचे आणखी एक वैशिष्ट्य  त्याच्या निर्मितीत दडले आहे. प्रा.सुबोध जोशी यांनी जी लेखमाला लिहिली होती, ती कल्याण येथील प्रा.मुकुंद बापट यांच्या वाचनात आली व या मालिकेचे रुपांतर पुस्तकात  व्हावे असे त्यांना वाटले. प्रा.जोशी यांनी तशी परवानगी देताच या पुस्तकाचा जन्म  झाला. परंतु विशेष असे की श्री. बापट सरांनी प्रकाशन खर्च स्वतः केला व लेखक प्रा.जोशी यांनी कोणतेही मानधन घेतलेले नाही. हे पुस्तक खाजगी वितरणाद्वारे  जास्तीत  जास्त  लोकांपर्यंत  पोहोचावे व लोकांना जीवन घडवण्यासाठी प्रेरणा मिळावी या एकाच  हेतूने हा ज्ञानयज्ञ प्रज्वलित केला आहे.

… हे सुद्धा प्रेरणादायीच नाही का ?

पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #206 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 206 ☆

वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #206 ☆ भावना के दोहे … चाँद ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे … चाँद)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 206 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … चाँद  डॉ भावना शुक्ल ☆

चाँद देखता चाँदनी, लगी मिलन की आस।

मिलजुल कर कब साथ हो, आए दिन वह पास।।

देख रहा है चाँद तो, बस चकोर की ओर।

नजर नजर से कह रही, हुई सुहानी भोर।।

चंद्रमुखी को देखकर, चाँद हुआ बेचैन।

कब होगा अपना मिलन, कब आएगा चैन।।

शरद सुहानी आ गई, छाई पूनम रात।

रखना बाहर खीर तुम, रात अमृत बरसात।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #190 ☆ संतोष के दोहे – धर्म… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – धर्म आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 190 ☆

☆ संतोष के दोहे – धर्म ☆ श्री संतोष नेमा ☆

मानवता सबसे बड़ा, इस दुनिया का धर्म

साँच दया मत छोड़िये, करें नेक हम कर्म

दीन-दया करिये सदा, कहते दीन दयाल

परहित से बढ़कर नहीं, दूजा कोई ख्याल

आज धर्म के नाम पर, हिंसा करते लोग

समझ सके ना  मूल को, लगा अजब सा रोग

एक चाँद सूरज बने, यही धर्म का सार

सब की गणना चाँद से, एक ईश  करतार

घृणा करें मत किसी से, रखें प्रेम व्यबहार

यही सिखाता धर्म भी, करिये पर उपकार

प्रथम पूज माँ -बाप हैं, जो हैं ईश समान

उनकी सेवा कीजिये, होंगे तभी सुजान

जिनके जीवन में रहें, काम, क्रोध, मद, लोभ

उनको कब संतोष हो, बढ़ा रहे बस क्षोभ

धर्म, पंथ, मजहब सभी, सबका प्रेमाधार

धर्म सनातन कर रहा, सबका ही उद्धार

सत्य, अहिंसा, दान, तप, श्रद्धा, लज्जा, यज्ञ

इंद्रियसंयम, ध्यान, क्षमा, लक्षण कहते प्रज्ञ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गझल ☆ श्री विनायक कुलकर्णी ☆

श्री विनायक कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ गझल ☆ श्री विनायक कुलकर्णी ☆ 

(वृत्त. . . वनहरिणी [मात्रा ८-८-८-८])

चाल पाहिली प्रत्येकाची सरळ कुठे ती तिरकी आहे

सुख दुसर्‍याचे पाहुन जळतो त्याची नियती सडकी आहे

तोंडावरती गोड बोलणे पाठीमागे माप काढणे

कोण बोलतो आपुलकीने बोलण्यात ही फिरकी आहे

काल कसा घालवला आपण तीच आजची मिळकत नक्की

कुणास नाही टळली सगळी कर्मफलांचीच गिरकी आहे

सुंदरतेच्या अवतीभवती वखवखलेल्या नुसत्या नजरा

मधुबाला बावरून जाते तिच्या उरी पण धडकी आहे

सहजासहजी पुण्य घडेना पापाचा मुडदाच पडेना

वरचा असतो पहात त्याची सदाच उघडी खिडकी आहे

© श्री विनायक कुलकर्णी

मो – 8600081092

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #196 ☆ भाऊबीज ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 196 – विजय साहित्य ?

☆ भाऊबीज ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

कार्तिकात द्वितीयेला

आली आली भाऊबीज

म्हणे बहिण भावाला

जरा आसवात भीज.. . . ! १

 

भाऊ बहीणीचा सण

औक्षणाचा थाटमाट

आतुरल्या अंतरात

भेटवस्तू पाहे वाट. . . . ! २

 

दोन घास जेवूनीया

आशिर्वादी मिळे ठेव

दीपोत्सव ठरे सार्थ

आठवांचे फुटे पेव. . . . ! ३

 

किती दिले किती नाही

हिशोबाचा नाही सण

ओढ नात्यांची करते

आयुष्याचे समर्पण. . . . ! ४

 

चंद्रा मानुनीया भाऊ

कुणी करी भाऊबीज.

बहिणीच्या सुखासाठी

भाऊ करे तजवीज…!  ५

 

अशी स्नेहमयी वात

घरोघरी  उजळावी.

मांगल्याची भाऊबीज

मनोमनी चेतवावी.. . ! ६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – अध्याय दुसरा – (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय पहिला — भाग दुसरा – (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । 

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥ 

वीर क्षत्रिया त्यजी भया जाणूनिया स्वधर्मासी

युद्धाहुनी श्रेष्ठ भला दुजा नसे धर्म क्षत्रियासी ॥३१॥

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ । 

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥ ३२ ॥ 

भाग्यवान क्षत्रियासी युद्धाने केवळ लाभते

आपोआप मुक्त स्वर्गद्वार होणे नशिबी प्राप्त ते ॥३२॥ 

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि । 

ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥ 

यद्यपि विन्मुख होशी या धर्मयुद्धा 

गमावशील स्वधर्म तथा कीर्तिसुद्धा

संचय न होई  यत्किंचित पुण्याचा

होशील धनी तू केवळ  पापाचा ॥३३॥

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ । 

सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥ 

अपकीर्ति मग पसरेल तुझी पार्था या जगती

मरणापरीस अधिक दुःसह मनुष्यास ती दुष्कीर्ति ॥३४॥

भयाद्रणादुपरतरं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । 

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥ ३५ ॥ 

आदर करिती तुझा आजवर महारथी जाणुनी

म्हणतील भ्याड फिरला मागे  भिउनी रणांगणी ॥३५॥ 

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः । 

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥ ३६ ॥ 

निंदक वैरी तुझे निंदतिल अश्लाघ्य वचने

यापरी  दूजे काही नाही जीवनात दुखणे ॥३६॥

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ । 

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥ 

मृत्यू येता स्वर्गप्राप्ती  जिंकलास भोगी धरणी

उठि कौन्तेया निश्चय करुनी युद्धासी तू रणांगणी ॥३७॥ 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । 

ततो युद्धाय युज्यस्य नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥ 

सुख-दुःख हानी-लाभ जित-जेता समान 

युद्ध करी रे नाही पाप रणांगणातील रण ॥३८॥

एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु । 

बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥ 

ज्ञानयोगाचे हे ज्ञान कथिले पार्था मी तुजला

ऐक कर्मयोग नष्ट करण्या कर्मबंधनाला ॥३९॥ 

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । 

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥ ४० ॥ 

बीजाचा  ना होतो नाश  नाही फलदोष यात

कर्मयोगाचा धर्म जननमरण भय रक्षण  करित ॥४०॥ 

बीजाचा  ना होतो नाश  नाही फलदोष यात

जननमरण भय रक्षण  कर्मयोग धर्म करित ॥४०॥ 

– क्रमशः भाग दुसरा 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ गो माय ऽऽ… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ गो माय ऽऽ… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

 “आई आज असं अचानक तुला मला प्रेमानं जवळ घेऊन थोपटत का आहेत सगळे?… ते ओवळणं, हिरवा चारा खाऊ घालणं, अंगावर भरजरी शाल टाकणं!.. अगदी आपण देव असल्यासारखे पुजन का करताहेत?… नमस्कार तर कितीजण करताहेत… आज कुठला विषेश दिवस आहे वाटतं… आज अचानक आपल्या बद्दल त्यांना प्रेमाचा पान्हा फुटावा!.. सांग ना गं आई!.. “

“.. वासरा त्यांच्या या प्रेमाच्या दिखाव्याला भुलू नको बरं… अरे वर्षानुवर्ष चालत आलेली ती वसुबारसाची परंपरा  चालवताहेत झालं.. त्यांची दिवाळी सुरु होतेय ना आजपासून म्हणुन पहिला मान गोधनला देतात… आपणं भरपूर दुधदुभतं कायम देत राहावं असा मतलबी डाव असतो त्यांचा… वासरा पूर्वीचे आपले वंशज  प्रत्येक घराघरात गोठ्यात राहतं होते.. मोठ्या संख्येने.. मोठ्या घरात अविभक्त कुटुबाचा काबिला तसं गोठ्यात पण मोठ्ठ कुटुंब गाई, म्हशी, बैल, शेळ्या, कोंबड्या एकत्रित राहत होतो.. देखरेखीला चौविसतास माणसं असायची.. खाण्यापिण्याची तरतूद भरपूर, रानावनात भटकणे भरपूर, नदी तळ्यात मनसोक्त डुंबणं सारं सारं काही पाहिलं जात असे… मग ईतकी काळजी घेतल्याने आपणही संतत कासंड्या भरभरून फेसाळते दूध देत गेलो… वयोमानानुसार ज्यांची कास सुकत गेली, गाभण राहता येईना, दूध आटत गेले त्या भाकड गाईनां रेडा महणून पोसले गेले होते.. पण त्यांना कधीच गोठ्याबाहेर काढले गेले नाही.. दैववशात पंचत्त्व पावलेलीच घराचा गोठा कायमचा सोडून जात असे… अंगी धष्टपुष्टपणा आणि तजेलदारपणा असल्याने घरातली गोठ्यातले गोधनाची वाढती संख्या श्रीमंतीचं मापदंड ठरला जात असे… कडबा, वैरण, पेंड याने गोठ्यतला एक कोपरा कायम भरलेला असे… पाऊस भरपूर असल्याने कोरडा दुष्काळ कधी दिसलाच नाही… झाडं, डोंगर, कधी  छाटले नव्हते… आपल्यात देवत्त्वाचा अंश असल्याची त्यांची पुज्य भावना होती तेव्हा… पण पण हळूहळू  माणसांच्या प्रवृत्तीत बदल होत गेला.. आधुनिकतेचे वारे वाहू लागले.. गावात सुधारणेचा सोसट्याचे वादळ घुमले.. शिक्षणाचे फायदे दिसू लागले अन जुने संस्कार काटे होउन टोचू लागले.. भावकीत दरी पडली नि घरं दुभंगून मोडली.. शेताचा भार एकीकडे नि दुधाचा बाजार दुसरीकडे.. विभक्त कुटुंबाची घरचं टाचकी मग गोठ्यावर का न यावी टाच ती… हळूहळू एकेक गाई गुरं जनावरांच्या बाजारात गेली… दुधाच्या मिळकती पेक्षा वैरणीचा खर्च परवडेना, , माणसाच्या हातातलं घड्याळ देखभालीची वेळच दावेना.. काही गणित जुळेना म्हणून गाई गुरांना  ठेवले पांजरपोळच्या आश्रयाला.. तर काही हडखलेली, उताराला लागलेली कसायाने लाटली… शेण गोमुत्र सुद्धा आटले तिथे दुधाची काय कथा… मग आपल्याला पोसणार कोण?… कशाला बांधुन घेईल गळ्यात आपल्या फुकाची धोंड!… वासरा ! अरे हे माणसांचं जगचं मतलबी… इथे खायला कार नि भुईला भार होणारी त्यांना जड होतात ;अगदी वृद्ध असाह्य जन्मदात्या  माता पिता सुद्धा.. त्यांना देखिल त्या वयात वृद्धाश्रमाला पाठवतात तर तिथं तुमची आमची काय कथा… वर्षभर सांभाळताना, दुधाचा गल्ला वाढता राहताना, आखुडशिंगी, चारा कमी खाणारी नि शेणा गोमुत्राचा कमीत कमी उपद्रव देणारी गाई गुरं असतील तोवर आपला प्रतिपाळ करत राहणं फायद्याचं असतं.. यातलं एक जरी मागं हटलं कि लगेच त्याचं आपलं नातचं तुटलं… जोवरी हाती पैका तोवरी इथं बुड टैका हा जसा माणसाने माणसाला न्याय लावलेला असतो अगदी तसाच न्याय आपल्याला असतो… मग एक दिवस करतात आपली साग्रसंगीत  पुजा… वासरा आपल्यासाठी म्हणून ती काही पूजा नसतेच मुळी ती असते त्यांच्यासाठी… एक आदराची प्रेममय  कृतज्ञतेची दृष्टी असली आपल्यावर तरीही पुरेशी असते रे… कितीही झालं तरी ते माय लेकराचं नातं असते ते.. माय आपल्या लेकरावर माया लावणारी चिरतंन  असणारी.. मग ती माय कालची असो वा  आजची किंवा उद्याची असणारी… तिला कसही असलं तरी आपलं लेकरू कधी जड होत नसतं… पण हे लेकराला  कधीच कळत नसतं..

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 27 – सूर्य उगाना होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – उनकी मालगुजारी।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 27 – सूर्य उगाना होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मिले रोशनी तुम्हें

तुम्हीं को सूर्य उगाना होगा 

 

उद्यत हों जब हाथ 

उठाने जली मशालों को 

तब शायद पहचान मिले 

पिछड़े संथालों को 

एक साथ अब इन्कलाब का

बिगुल बजाना होगा 

 

धरे हाथ पर हाथ 

न कोई हल होगा मसला 

करो संगठित अब कुदाल 

अपने गेंती तसला 

बिखरे हुए स्वरों को

अब इक साथ मिलाना होगा

 

अगर समझ लोगे कीमत 

अपने मतपत्रों की 

ताकत खुद बढ़ जाएगी 

संसद के सत्रों की 

तिमिर निराशा का मिटवाने

शौर्य जगाना होगा

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 105 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 105 – मनोज के दोहे… ☆

अष्टभुजा सिंह वाहनी, कर जग का कल्याण।

विकट युद्ध है चल रहा, बचें सभी के प्राण।।

दुर्गा दुर्गति को हरे, सुख शांति विस्तार।

दुश्मन का संहार कर, करे भक्त उद्धार।।

आतंकों` का अंत हो, सुखद शांति का वास।

आपस में सद्भावना, हो दुश्मन का नास।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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