हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक आज़ाद परिंदे सी थी उड़ान कभी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “एक आज़ाद परिंदे सी थी उड़ान कभी“)

✍ एक आज़ाद परिंदे सी थी उड़ान कभी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

बाँकपन छोड़ दिया है सगीर लगने लगे

एक थे लाख में अब बे-नज़ीर लगने  लगे

एक आज़ाद परिंदे सी थी उड़ान कभी

इश्क़ जब उनसे हुआ है असीर लगने लगे

साथ का उनके असर मुफ़लिसी में ऐसा हुआ

हम अपने दिल से यकायक अमीर लगने लगे

वक़्त का ये नहीं बदलाव है तो फिर क्या है

आज के दौर के बच्चे मुशीर लगने लगे

ज़िंदगी से वो गया दूर तीरगी करके

पास असबाव सभी हम फ़क़ीर लगने लगे

☆ 

दूसरा था जो कभी हो गया है अब अपना

प्यार का जबसे मुझे वो सफीर लगने लगे

पढ़ लिए हो जो अरुण चार पोथियाँ केवल

ये गलत फहमी है जो खुद को मीर लगने लगे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 88 – प्रमोशन… भाग –6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 88 – प्रमोशन… भाग –6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

आखिर कुछ महीनों और कुछ दिनों के इंतजार के बाद बहुप्रतीक्षित रिजल्ट आ ही गया और सारे कि सारे ही पास हो गये. अब इंटरव्यू फेस करना था तो उसकी तैयारियां शुरु हो गईं. तैयारी का पहला चरण इंटरव्यू के लिये पहनी जानी वाली ड्रेस का चयन करना था. इंटरव्यू की अनुमानित तिथि तक ग्रीष्म ऋतु के पूरे शबाब में होने के कारण फुल शर्ट और पैंट ही मुफीद माना गया. कंठलंगोट पहनने का प्रशिक्षण शुरु हो गया जो कि साक्षात्कार से दस मिनट पहले भी पहनी जा सकती है. शुक्र है कि उस वक्त सीसीटीवी का अविष्कार नहीं हो पाया था वरना बाहर की रिकार्डिंग देखकर ही अंदरवाले कुछ लोगों को सिलेक्ट लिस्ट से बाहर कर देते. जो रोजमर्रा के जीवन में पहने जाते हैं उन्हें जूते कहा जाता है पर इंटरव्यू में चरणों की शोभा “शूज़” से बढ़ती है इसका पूरा खयाल रखा जाता है कि ये साउंड प्रुफ हों और इन शूज़ को कुत्तों के समान काटने का शौक न हो. शहर इतना बड़ा तो था कि वहाँ बैंक में पहले प्रमोशन के हिसाब से सब कुछ मिल जाता था तो बाहरी डेकोरेशन की तैयारी पूरी थी.

अब इंटरनल डेकोरेशन के लिये तैयारी करनी थी. उस समय मॉक इंटरव्यू नामक सुविधा उपलब्ध नहीं थी. जिन लोगों ने फिर से वही किताबें उठा लीं, उनको सलाह दी गई कि इन किताबों पर आधारित ज्ञान की परीक्षा तो हो गई. अब इंटरव्यू का मतलब पर्सनैलिटी परीक्षण से होता है. बात करने का तरीका, समस्याओं पर प्रत्याशी का नजरिया, जो भी आसपास घट रहा है याने करेंट अफेयर्स, उसकी अपडेट्स, और सबसे कठिन प्रश्न कि “Why you should be promoted” वैसे इसके बहुत सारे सरल जवाब हैं पर ये इंटरव्यू में दिये नहीं जा सकते, उद्दंडता प्रकट होने का खतरा होता है. जो इसका जवाब बड़ी चतुराई से दे पाते हैं वो बोर्ड के सामने सिक्का जमा लेते हैं. ये बोर्ड कैरमबोर्ड नहीं बल्कि शतरंज का बोर्ड होता है जिसमें सारे शक्तिशाली मोहरे, दूसरी तरफ बैठे प्यादे की वजीर बनने की क्षमता भांपते हैं या अपने मानदंडों पर नापते हैं. इंटरव्यू कक्ष में नॉक करने और कक्ष में प्रवेश करते समय की बॉडी लेंग्वेज से लेकर वापस जाने तक की बॉडीलैंग्वेज का बड़ी बारीकी से परीक्षण किया जाता है. लिपिकीय स्टाफ क्या आसानी से अपनी कंफर्ट ज़ोन से बाहर आ पायेगा या फिर शाखाप्रबंधक बनकर भी बाबू बनकर ही बचा हुआ या छोड़ा हुआ काम करता रहेगा. प्रबंधन भले ही कनिष्ठ हो पर चयन, उपलब्ध में से ही सबसे बेहतर लोगों को चुनने की प्रक्रिया ही इंटरव्यू कहलाती है जिसकी गुणवत्ता और श्रेष्ठता प्रबंधन के बढ़ते लेवल के साथ बढ़ती जाती है. इंटरव्यू के दौरान कॉन्फिडेंस तो कम होता है पर हाथों, और चेहरे पर पसीना आना, गला सूखने पर भी सामने रखे पानी के गिलास का अनुमति लेकर प्रयोग नहीं करना, आवाज़ कांपना, बहुत धीरे बोलना, जानते हुये भी खुद को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाना ये सब व्यक्तित्व की कमजोरियों में शुमार होते हैं. हर अर्जुन, कर्ण और एकलव्य के समान कुशल धनुर्धर नहीं होता पर काबलियत से जो इंटरव्यू बोर्ड को आश्वस्त करदे वही सिलेक्ट लिस्ट में जगह पाता है. मि. 100% जब इंटरव्यू कक्ष में गये और फिर जब वापस निकले तो उनकी nervousness में अप्रत्याशित वृद्धि नजर आ रही थी जबकि बाकी चार तो “हुआ तो हुआ वरना कौन सी नौकरी जाने वाली है” वाले मूड में प्रफुल्लित नजर आ रहे थे.

रिजल्ट का इंतजार कीजिये, ये मेरी नहीं हमारी कहानी है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 204 ☆ कविता ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 204 ?

कविता ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

बरेच दिवस सुचलीच नव्हती कविता,

घरातले पुस्तकांचे पसारे

आवरता आवरेनात,

खेळ तर मांडलेला असतो,

पण पटावरच्या सोंगट्या

दगा देतात?

की खेळताच येत नाही खेळी?

 

किती निरागस,

त्या शाळेतल्या सख्या…

कुबेर नगरीत रहात असूनदेखील,

निगर्वी, व्यक्तिमत्त्वात विलोभनीय

सहजपणा!

माझ्यावर कौतुक वर्षाव करणा-या..

थोर प्रशंसक!

 

आयुष्य किती रंगीबेरंगी—-

काहीच नको असतं ,

एकमेकांकडून…

फक्त अडीच अक्षरे प्रेमाची!

 

 तू ही बोलतोस,

खूप भरभरून…

आयुष्याच्या सांजवेळी..

भरून जाते ओंजळ तुझ्या शब्दांनी,

आणि घमघमतेच एक कविता,

मोग-याच्या दरवळा सारखी !!

 

आणि सा-या फापटपसा-यातून,

अलगद स्वतःला सोडवून घेत,

मी ही होते…

अशरीरी… मुक्तछंद!

© प्रभा सोनवणे

(१७ ऑक्टोबर २०२३)

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 25 – निर्जला हैं नदियां बेचारी… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – निर्जला हैं नदियां बेचारी…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 25 – निर्जला हैं नदियां बेचारी… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

निर्जला हैं नदियां बेचारी

सुबह-सुबह ही झरने लगती

अम्बर से चिन्गारी 

आग बबूला हो जाती है 

तपकर क्रुद्ध दुपहरी 

चीख-चीखकर ताने 

मारा करती रोज टिटहरी 

किरणों के कोड़े बरसाता

सूरज गगन-बिहारी 

पाँव कुल्हाड़ी मारी 

हमने उल्टे पढ़े पहाड़े 

मातु-पिता जैसे हितकारी 

जंगल सभी उजाड़े 

रहती है ज्वर ग्रस्त हमेशा

यह धरती महतारी 

अपशकुनी हो रही हवाएँ 

करतीं जादू-टोना 

चिथड़ा-चिथड़ा हुआ 

धरा का वो मखमली बिछौना 

सूख गये तालाब

निर्जला हैं नदियां बेचारी

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 102 – नयन हँसे तो दिल हँसे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना  “नयन हँसे तो दिल हँसे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 102 – नयन हँसे तो दिल हँसे… ☆

नयन हंँसें तो दिल हँसे, हँसें चाँदनी – धूप।

नयन जलें क्रोधाग्नि से, देख डरें सब भूप।।

नयन विनोदी जब रहें, करें हास परिहास।

व्यंग्य धार की मार से, कर जाते उपहास।।

नयन रो पड़ें जब कभी,आ जाता तूफान।

पत्थर दिल पिघलें सभी, बन आँसू वरदान।।

नयनों की अठखेलियाँ, जब-जब होतीं तेज।

नेह प्रीत के सुमन से, सजती तब-तब सेज।।

इनके मन जो भा गया, खुलें दिलों के द्वार।

नैनों की मत पूछिये, दिल के पहरेदार ।।

नयनों की भाषा अजब, इसके अद्भुत ग्रंथ।

बिन बोले सब बोलते, अलग धर्म हैं पंथ।।

बंकिम नैना हो गये, बरछी और कटार।

पागल दिल है चाहता, नयन करें नित वार।।

प्रकृति मनोहर देखकर, नैना हुए निहाल।

सुंदरता की हर छटा, मन में रखे सँभाल।।

नैंना चुगली भी करें, नैना करें बचाव।

नैना से नैना लड़ें, नैंना करें चुनाव।।

नैना बिन जग सून है, अँधियारा संसार।

सुंदरता सब व्यर्थ है, जीवन लगता भार।।

सम्मोहित नैना करें, चहरों की है जान ।

मुखड़े में जब दमकतीं, बढ़ जाती है शान।।

प्रभु की यह कारीगिरी, नयन हुए वरदान।

रूप सजे साहित्य में, उपमाओं की खान।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 236 ☆ लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 236 ☆

? लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर ?

काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की नीली शर्ट, गले में गहरी नीली टाई, कंधे पर लैप टाप का काला बैग, और हाथ में मोबाइल… जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है. मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता, सातों दिन पूरे महीने, टारगेट के बोझ तले. एटीकेट्स के बंधनो में, लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार, बातचीत के दौरान सेलिंग स्ट्रैटजी के अंतर्गत देश दुनिया, मौसम की बाते भी करनी पड़ती, यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है, उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता. डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता. डील के बाद वही “ब्रांड एम्बेसडर” कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता. बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता, उस एक दिन के बादशाह पर. उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है, अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू टर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है. अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है, घर घर.

इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है, अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है,

आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर, झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की भूरी शर्ट, गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये… वह पहले ही जाँच परख चुका था कार, पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे, तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई.. पत्नी और बच्चे “ब्रांड एम्बेसडर” बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे.. निर्णय लिया जा चुका था, सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी. डील फाइनल हो गई. सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे. बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे. आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये, वह एटीकेट्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर. . आज वह “ब्रांड एम्बेसडर” जो था.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 171 – मूरत में ममता – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित अप्रतिम कल्पना से परिपूर्ण एक लघुकथा “मूरत में ममता🙏”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 171 ☆

☆ लघुकथा – 🌷 मूरत में ममता 🙏. 

भरी कालोनी में सजा हुआ दुर्गा मैया का पंडाल। अद्भुत साज सज्जा जो भी देख रहा था मन प्रसन्नता से भर उठता था। दुर्गा जी की प्रतिमा ऐसी की अभी बोल पड़े। गहनों से सजा हुआ शृंगार, नारी शक्ति की गरिमा, दुष्ट महिषासुर का वध करते दिखाई दे रही थी।     

आलोक कालोनी में एक फ्लैट, जिसमे सुंदर छोटा सा परिवार। धर्म पत्नी बड़ी ही होनहार सहनशील और ममता की मूरत। दो बच्चों की किलकारी घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।

आलोक प्राइवेट कंपनी में जाब करता था। परंतु कहते हैं ना कि सब कुछ संपन्न होने के बाद कहीं ना कहीं कुछ रह ही जाता है। उसे शक या वहम की बीमारी थी। इस कारण सभी से कटा- कटा सा रहता था।

पत्नी कल्पना भी किसी से मेल मिलाप नहीं कर पाती थी, क्योंकि यदि बात भी कर ले तो… क्यों आया? कैसे आया? किस लिए आया? कहां से आया? और सवाल ऊपर सवाल करते? दो से चार हाथों की झड़ी भी लग जाती थी।

मोटी-मोटी आँसू की बूँदें लिए कभी कल्पना चुपचाप रहती, कभी सिसकी लेते हुए रोती दिखाई देती थी।

परंतु उसमें अपने पति से लड़ने या बहस कर उसे सच्चाई बताने की ताकत नहीं थी। क्योंकि वह एक गरीब परिवार से ब्याह कर आई। एक बेचारी बनकर रह गई थी।

आज कालोनी में बताया गया की दुर्गा मैया का आज विशेष शृंगार होगा। सभी महिलाएं खुश थी अपने-अपने तरीके से सभी शृंगार सामग्री ले जा रही थी। परंतु कल्पना बस कल्पना करके रह गई।

उसे न जाने का न मन था और न ही उसे कुछ खरीदने की चाहत थी। आलोक के डर के कारण वह जाना भी नहीं चाह रही थी। बच्चों की जिद्द की वजह से आलोक अपने दोनों बच्चों को लेकर माता के पंडाल पर गया।

भजन, आरती और गरबा सभी कुछ हो रहे थे। परंतु आलोक का मन शांत नहीं था। एक दोस्त ने पूछा… क्यों भाई इतनी सुंदर माता की मूरत और आयोजन हो रहा है। आप खुश क्यों नहीं हो।

आलोक ने हिम्मत करके उसे एक कोने में ले जाकर पूछा…. भाई जरा बताना क्या? तुम्हें दुर्गा माता की आँखों से गिरते आँसू दिखाई दे रहे हैं।

उसने जवाब दिया क्या बेवकूफी भरी बातें कर रहा है इतनी प्रसन्नता पूर्वक ममता में माता भला क्यों आँसू गिरायेगी। फिर वह एक दूसरे से पूछा क्या तुम्हें दुर्गा माता के आँसू दिखाई दे रहे हैं। उसने जवाब दिया मुझे तो सिर्फ ममतामयी वरदानी और अपने बच्चों के लिए हँसती हुई प्यार बांँटने वाली दिखाई दे रही है।

वह बारी-बारी से कई लोगों को पूछा सभी ने जवाब में दिया कि भला माता क्यों रोएगी। अब तो उसके सब्र का बाँध टूट गया।

बच्चों को पंडाल में सुरक्षित जगह पर बिठाकर। वह दौड़कर अपने घर की ओर भागा। जैसे ही दरवाजा खुला लाल साड़ी से सजी उसकी कल्पना आँसुओं की धार बहते दरवाजा खोलते दिखाई दे गई।

बस फिर क्या था वह कसकर उससे लिपट गया और कहने लगा मैं आज तक समझ नहीं सका तुमको मुझे माफ कर दो। चाहो तो मुझे कोई भी सजा दे सकती हो परंतु मुझे कभी छोड़कर नहीं जाना।

कल्पना इससे पहले कुछ कह पाती वह झट से अलमारी खोल लाल चुनरी निकाल लिया और कल्पना के सिर पर डाल कर उसके मुखड़े को देखने लगा।

आज मूरत में जो ममता और करुणा नजर आया था। वह कल्पना के मुखड़े पर साकार देखा और देखता  ही जा रहा था। बस उसकी आँखों से पश्चाताप अंश्रु धार बहने लगी। कल्पना सब बातों से अनभिज्ञ थी। पर उसे आज अच्छा लगा।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 56 – देश-परदेश – आज का मक्खन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 56 ☆ देश-परदेश – आज का मक्खन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज सांय रेडियो पर एक गीत “ओ मेरे मखना मेरी सोनिए” बज रहा था, तो मक्खन शब्द पर मन में अनेक विचार आने लगे। हमारे परिवार में एक बुजुर्ग भी “मक्खन लाल” के नाम से जाने जाते थे। जब नौकरी आरंभ हुई तो वरिष्ठ साथी कहने लगे मक्खन लगाना सीख लो, तभी ऊंचाई तक पहुंच पाओगे।

अब तो नाश्ते में भी “ब्रैड बटर” को प्रमुखता दी जाती हैं।

विगत दो दशकों से “ढाबा” संस्कृति का चलन बहुत अधिक हो गया हैं। घर का भोजन छोड़ बाहर के भोजन को प्राथमिकता दी जाने लगी है। आजकल किसी भी ढाबे पर जाओ मक्खन दिल खोल कर खिला रहा है। खाने के साथ कटोरी में या परांठों के ऊपर मक्खन के बड़े से क्यूब रख दिए जाते हैं या फिर इस मक्खन को दाल और सब्जियों के ऊपर गार्निश की तरह डाल दिया जाता है।  

खाने वाले गदगद हो जाते हैं कि देखो क्या कमाल का होटल है पूरा पैसा वसूल करवा रहा है।

ये मक्खन नहीं सबसे घटिया पाम आयल से बनी मार्जरीन है।

बटर टोस्ट, दाल मखनी, बटर ऑमलेट, परांठे, पाव भाजी, अमृतसरी कुल्चे, शाही पनीर, बटर चिकन और ना जाने कितने ही व्यंजनों में इसे डेयरी बटर की जगह इस्तेमाल किया जा रहा है और आपसे दाम वसूले जा रहे हैं डेयरी बटर के।

कुछ लोगों को ढाबे पर दाल में मक्खन का तड़का लगवाने और रोटियों को मक्खन से चुपड़वा कर खाने की आदत होती है। उनकी तड़का दाल और बटर रोटी में भी यही घटिया मार्जरीन होती है।    

लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए इसे जीरो कोलेस्ट्रॉल का खिताब भी हासिल है। क्योंकि मेडिकल लॉबी ने लोगों के दिमाग में ठूंस दिया है कि बैड कोलेस्ट्रॉल ह्रदय आघात का प्रमुख कारण है। इसीलिये आजकल जिस भी चीज पर जीरो कोलेस्ट्रॉल लिखा होता है जनता उसे तुरंत खरीद लेती है। इस प्रकार के उत्पाद जो किसी असली चीज का भ्रम देते हैं उनपर सरकार को कोई ठोस नियम बनाना चाहिए।

सरकार को चाहिये इस मार्जरीन का रंग डेयरी बटर के रंग सफ़ेद और हल्के पीले के स्थान पर भूरा आदि करने का नियम बनाये जिससे लोगों को इस उत्पाद को पहचानने में सुविधा हो ताकि उन्हें मक्खन के नाम पर कोई मार्जरीन ना खिला सके… आप मार्जरीन के बारे मे और अधिक गूगल पर सर्च कर सकते है यह मक्खन नहीं है।

इसलिए बाज़ार के मक्खन का उपयोग दूसरों को लगाने में ही करें। आपके अटके हुए कार्य इत्यादि जल्द पूरे हो जाएंगे। यदि मक्खन खाना है, तो घर में बनाया हुआ ही खाए और स्वस्थ रहें।

मदनगंज किशनगढ़ (राजस्थान) में “पहाड़िया” के मक्खन वड़े बहुत प्रसिद्ध होते हैं। कहते हैं, सबके साथ खाने से जल्दी हजम हो जाते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #210 ☆ हरला नाही… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 210 ?

☆ हरला नाही… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

भात्यामधला बाणच त्याच्या सुटला नाही

जखमी झाले कशी जरी तो भिडला नाही

मला न कळले कधी निशाणा धरला त्याने

नेम बरोबर बर्मी बसला चुकला नाही

माहिर होता अशा सोंगट्या टाकायाचा

डाव कुणाला कधीच त्याचा कळला नाही

बऱ्याच वेळा चुका जाहल्या होत्या माझ्या

तरी कधीही माझ्यावरती  चिडला नाही

गुन्हास नसते माफी आहे सत्य अबाधित

कधीच थारा अपराधाला दिधला नाही

जुनाट वाटा किती चकाचक झाल्या आता

कधी चुकीच्या वाटेवरती वळला नाही

गुलाम होता राजा झाला तो कष्टाने 

काळासोबत युद्ध छेडले हरला नाही

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 161 – गीत – मूरत रखकर मन मंदिर में… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – मूरत रखकर मन मंदिर में।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 161 – गीत – मूरत रखकर मन मंदिर में…  ✍

मूरत रखकर मन मंदिर में

पूजा किया करूँगा

हाजिर नहीं रहूँगा

 

भीड़ भरा है तीरथ तेरा

अविरल यात्री आते

आँखों के इस घटाटोप में

तेरा चेहरा देख न पाते

धक्का मुक्की के ये करतब, मैं तो नहीं करूँगा।

 

सब दर्शन की खातिर आते

पर पूजन का ढोंग रचाते

तेरा रूप चुराने वाले

गढ़ लेते हैं रिश्ते नाते

रिश्तों की इस भागदौड़ में मैं तो नहीं पडूंगा।

 

सिर्फ हाजिरी से क्या होता

असली चीज समर्पण होती

अपनी अपनी प्रेम पिपासा

अपना अपना दर्पण होती

यह जीवन तुमको ही अर्पित क्या उपयोग करूँगा।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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