हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #211 – 97 – “वो इश्क़ है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “वो इश्क़ है…”)

? ग़ज़ल # 97 – “वो इश्क़ है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

कोई किसी को जान से चाहे वो इश्क़ है,

पूरी शख़्सियत पर छा जाए वो इश्क़ है।

 

जो बदन से अक़्ल को मिला वो हवस है,

जो रूह को  रूह से  मिला  वो इश्क़ है।

 

एक  समसनी  महसूस होती  रगे जाँ में,

जो तेरी  हस्ती को  भुला दे वो इश्क़ है।

 

महबूब  ना  नज़दीक  हों  ना  दूर हों,

यादों में रखकर जान लुटाए वो इश्क़ है।

 

तासीरे इश्क़ सबसे अलहदा  आतिश की,

दोनो जहाँ  इश्क़ में  लुटाए वो इश्क़ है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – अब वक़्त को बदलना होगा – भाग -3 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆

सुश्री दीपा लाभ 

(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं।  आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त  को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।) 

☆ कविता ☆ अब वक़्त  को बदलना होगा – भाग -3 सुश्री दीपा लाभ  ☆ 

[3]

राम-राज्य पाना आसान नहीं,

एक कोशिश तो कर सकते हैं

अनुचित कृत्यों से दूर हो

इतिहास नया गढ़ सकते हैं

जो उचित है ऐसे कृत्य करें

न्याय-संगत व्यवहार करें

भ्रष्ट तंत्रों का करें नाश

फैलाएँ नीतिगत प्रकाश

अब भोलीभाली जनता का

भक्षण नहीं, रक्षण होगा

छलने की साजिश बहुत हुई

अब जनता का स्वागत होगा

अब वक़्त को बदलना होगा

अब भी जब अहंकार कभी

मानवता के सिर चढ़ बोलेगा

तब हर घर में फिर एक बार

भक्त प्रहलाद जनम लेगा

हर स्तम्भ से नरसिंह निकलेगा

चौखट पर दंभ का अंत होगा

षडयंत्र न कुछ चल पाएगा

बस सत्य का परचम लहरेगा

अब वक़्त को बदलना होगा

© सुश्री दीपा लाभ 

बर्लिन, जर्मनी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 87 ☆ मुक्तक ☆ ।।दिल जीते जाते हैं, दिल में उतर जाने से।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 87 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।दिल जीते जाते हैं, दिल में उतर जाने से।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हर पल नया साज  नई   आवाज है जिंदगी।

कभी खुशी कभी  गम बेहिसाब है जिंदगी।।

अपने हाथों अपनी किस्मत का देती है मौका।

हर रंग समेटे नया करने का जवाब है जिंदगी।।

[2]

जीतने हारने की  ये हर   हिसाब रखती है।

यह जिंदगी हर अरमान हर ख्वाब रखती है।।

हार के बाजी पलटने की ताकत जिंदगी में।

जिंदगी बड़ीअनमोल हर ढंग नायाब रखती है।।

[3]

समस्या गर जीवन में तो समाधान भी बना है।

हर कठनाई से पार पाने का निदान भी बना है।।

देकर संघर्ष भी हमें यह है संवारती निखारती।

जीतने को ऊपर ऊंचा  आसमान भी बना है।।

[4]

तेरे मीठे बोल जीत सकते हैं दुनिया जहान को।

अपने कर्म विचार से पहुंच सकते हैं आसमान को।।

अपने स्वाभिमान की  सदा ही रक्षा तुम करना।

मत करो और  नहीं  गले लगायो अपमान को।।

[5]

युद्ध तो जीते जाते हैं ताकत  बम हथियारों से।

पर दिल नहीं जीते जाते कभी भी तलवारों से।।

उतरना पड़ता दिल के अंदर अहसास बन कर।

यही बात  समा जाए    सबके ही किरदारों में।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 151 ☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “तरुणों का दायित्व” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “क्योंकि परम्परागत सब प्यार खो गया है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “तरुणों का दायित्व” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सँवर सजकर के बचपन ही बना करता जवानी है।

जवानी ही लिखा करती वतन की नई कहानी है ॥

 

भरे इतिहास के पन्ने, जवानी की खानी से

है गाथायें कई जो दमकती यौवन के पानी से।

 

परिस्थितियाँ बदल दी हैं जवानी ने जमाने की

अनेकों हैं मिसालें, हारते को भी जिताने की।

 

हुये कई वीर जिनकी कथा हर मन को जगाती है

कहानी जिन्दगी की जिनकी नई आशायें लाती है। 1

 

महाराणा प्रताप, रणजीत, गुरूगोविंद, शिवाजी ने

किये जो कारनामे क्या कभी मन से पढ़ा हमने ?

 

उन्हें पढ़, भाव श्रद्धा से है झुकता सिर जवानी का

नमन करते हैं सब उनको औं उनकी हर कहानी का।

 

जो बच्चे आज हैं, वे ही वतन के हैं युवा कल के

उन्हें ही देश का नेतृत्व करना दो कदम चल के।

 

समझता है उन्हें दायित्व अपना सावधानी से

वतन, परिवार, घर को वे सहारा दें जवानी से ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 174 – हाक धरतीची ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 174 – हाक धरतीची  ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

हाक धरतीची

ऐक रे माणसा।

वन संवर्धन

हाती घेई वसा।

 

कूपनलिकांची

केलीस तू जाळी।

रेखा विनाशाची

कोरलीस भाळी।

 

 विकासाकारणे

झोपले डोंगर ।

नदी नाले आणि

दुषीत सागर।

 

पर्यावरणाचा

थांबवावा ऱ्हास।

होऊ दे मोकळा

कोंडलेला श्वास।

 

सुगंधीत व्हावी

धरेची ओंजळ।

सुख समृद्धीचे

वाहू दे ओहळ।

 

घुमू देत कानी।

पाखरांची गाणी

पाचूच्या शालूत

खुलू दे धरणी।

 

धरतीची आस

हिरवा निसर्ग ।

देव चराचरी

नि धरेचा स्वर्ग ।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #204 ☆ औरत की नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख औरत की नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 204 ☆

☆ औरत की नियति 

‘दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुज़र गई/ रात की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र गई/ जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं/ मेरी सारी उम्र उस घर को सजाने में गुज़र गई।’ जी हां! यह पंक्तियां हैं अतुल ओबरॉय की,जिसने महिलाओं के दर्द को आत्मसात् किया; उनके दु:ख को समझा ही नहीं,अनुभव किया और उनके कोमल हृदय से यह पंक्तियां प्रस्फुटित हो गयीं; जो हर औरत के जीवन का सत्य व कटु यथार्थ हैं। वैसे तो यदि हम ‘औरत’ शब्द को परिभाषित करें तो उसका शाब्दिक अर्थ जो मैंने समझा है– ‘औरत’ औ+रत अर्थात् जो औरों की सेवा में रत रहे; जो अपने अरमानों का खून कर दूसरों के लिए जिए और उनके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर प्रसन्नता का अनुभव करे।

यदि हम ‘नारी’ शब्द को परिभाषित करें, तो उसका अर्थ भी यही है– ना+अरि, जिसका कोई शत्रु न हो; जो केवल समझौता करने में विश्वास रखती हो; जिसमें अहं का भाव न हो और वह दूसरों के प्रति समर्पित हो। वैसे तो समाज में यही भावना बलवती होती है कि संसार में उसी व्यक्ति का मान-सम्मान होता है,जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए हों और औरत इसका अपवाद है। जीवन संघर्ष का पर्याय है। परंतु उसे तो जन्म लेने से पूर्व ही संघर्ष करना पड़ता है,क्योंकि लोग भ्रूण-हत्या कराते हुए डरते नहीं–भले ही हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को कुम्भीपाक नरक प्राप्त होता है। दुर्भाग्यवश यदि वह जन्म लेने में सफल हो जाती है; घर में उसे पग-पग पर असमानता-विषमता का सामना करना पड़ता है और उसे बचपन में ही समझा दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं है और वह वहां चंद दिनों की मेहमान है। तत्पश्चात् उसे स्वेच्छा से उस घर को छोड़कर जाना है और विवाहोपरांत पति का घर ही उसका घर होगा। बचपन से ऐसे शब्द-दंश झेलते हुए वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाती। पति के घर में भी उसे कहाँ मिलता है स्नेह व सम्मान,जिसकी अपेक्षा वह करती है। तदोपरांत यदि वह संतान को जन्म देने में समर्थ होती है तो ठीक है अन्यथा वह बाँझ कहलाती है और परिवारजन उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। उसका जीवन साथी मौन रह कर कठपुतली की भांति उस अप्रत्याशित हादसे को देखता रहता है, क्योंकि उसकी मंशा से ही उसे अंजाम दिया जाता है। इतना ही नहीं,वह मन ही मन नववधु के स्वप्न संजोने लगता है।

सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देने के पश्चात् उसे जननी व माता का दर्जा प्राप्त होता है और वह अपनी संतान की अच्छी परवरिश हित स्वयं को मिटा डालती है। उसके दिन-रात कैसे गुज़र जाते हैं; वह सोच भी नहीं पाती।  वास्तव में दिन की रोशनी तो ख़्वाबों को सजाने व रातों की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र जाती है। उसे आत्मावलोकन करने तक का समय ही नहीं मिलता। परंतु वह खुली आंखों से स्वप्न देखती है कि बच्चे बड़े होकर उसका सहारा बनेंगे। सो! उसका सारा जीवन इसी उधेड़बुन में गुज़र जाता है। दिन भर वह घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती है और परिवारजनों के इतर कुछ भी सोच ही नहीं पाती। उसकी ज़िंदगी ता-उम्र घर की चारदीवारी तक सिमट कर रह जाती है। परंतु जिस घर को अपना समझ वह सजाने-संवारने में लिप्त होकर अपने सुखों को तिलांजलि दे देती है; उस घर में उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं मिलती तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है और वह सोचने पर विवश हो जाती है कि ‘जिस घर में उसकी उसके नाम की तख्ती भी नहीं; उसकी सारी उम्र उस घर को सजाने-संवारने में गुज़र गयी।’

वास्तव में यही नियति है औरत की– ‘उसका कोई घर नहीं होता और वह सदैव परायी समझी जाती है। उन विषम परिस्थितियों में वह विधाता से प्रार्थना करती है कि ऐ मालिक! किसी को दो घर देकर उसका मज़ाक मत उड़ाना। पिता का घर उसका होता नहीं और पति के घर में वह अजनबी समझी जाती है। सो! न तो पति उसका हो पाता है; न ही पुत्र।’ अंतकाल में कफ़न भी उसके मायके से आता है और मृत्यु-भोज भी उनके द्वारा–यह देखकर हृदय चीत्कार कर उठता है कि क्या पति व पुत्र उसके लिए दो गज़ कफ़न जुटाने में अक्षम हैं? जिस घर के लिए उसने अपने अरमानों का खून कर दिया; अपने सुखों को तिलांजलि दे दी; उसे सजाया-संवारा– उस घर में उसे आजीवन अजनबी अर्थात् बाहर से आयी हुई समझा जाता है।

मुझे स्मरण हो रही हैं मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियां ‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी/ आँचल में है दूध और आँखों में पानी।’ इक्कीसवीं सदी में भी नब्बे प्रतिशत महिलाओं के जीवन का यही कटु यथार्थ है। वे मुखौटा लगा समाज में खुश रहने का स्वाँग करती हैं। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार बन जाते हैं और उसे आजीवन उस अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ती है; जो उसने किया ही नहीं होता। इतना ही नहीं,उसे तो जिरह करने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता,जो हर अपराधी को कोर्ट-कचहरी में प्राप्त होता है– अपना पक्ष रखने का अधिकार।

धैर्य एक ऐसा पौधा होता है,जो होता तो कड़वा है,परंतु फल मीठे देता है। बचपन से उसे हर पल यह सीख जाती है कि उसे सहना है, कहना नहीं और न ही किसी बात पर प्रतिक्रिया देनी है,क्योंकि मौन सर्वोत्तम साधना है और सहनशीलता मानव का अनमोल गुण। परंतु जब निर्दोष होने पर भी उस पर इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा किया जाता है, वह अपने दिल पर धैर्य रूपी पत्थर रख चिन्तन करती है कि मौन रहना ही श्रेयस्कर है,क्योंकि उसके परिणाम भी मनोहारी होते है। शायद! इसलिए ही लड़कियों को

प्रतिक्रिया न देने की सीख दी जाती है और वे मासूम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आजीवन कोसों दूर रहती हैं। बचपन में वे पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे तथा विवाहोपरांत पति व पुत्र के अंकुश में रहती हैं और अपनी व्यथा-कथा को अपने हृदय में दफ़न किए इस बेदर्द जहान से रुख़्सत हो जाती हैं। नारी से सदैव यह उम्मीद की जाती है कि वह निष्काम कर्म करे और किसी से अपेक्षा न करें।

परंतु अब ज़माना बदल रहा है। शिक्षित महिलाएं सशक्त व समर्थ हो रही हैं; परंतु उनकी संख्या नगण्य है। हां! उनके दायित्व अवश्य दुगुन्ने हो गए हैं। नौकरी के साथ उन्हें पारिवारिक दायित्वों का भी वहन पूर्ववत् करना पड़ रहा है और घर में भी उनके साथ वैसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता है। फलत: उन्हें मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है।

परंतु संविधान ने महिलाओं के पक्ष में कुछ ऐसे कानून बनाए गए हैं, जिनके द्वारा वर पक्ष का उत्पीड़न हो रहा है। विवाहिता की दहेज व घरेलू-हिंसा की शिकायत पर उसके पति व परिवारजनों को जेल की सीखचों के पीछे डाल दिया जाता है; जहाँ उन्हें अकारण ज़लालत व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए लड़के आजकल विवाह संस्था को भी नकारने लगे हैं और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प कर लेते हैं। इसे हवा देने में ‘लिव इन व मी टू’ का भी भरपूर योगदान है। लोग महिलाओं की कारस्तानियों से आजकल त्रस्त हैं और अकेले रहना उनकी प्राथमिकता व नियति बन गई है। सो! वे अपना व अपने परिजनों का भविष्य दाँव पर लगाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते।

‘अपने लिए जिए तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल! ज़माने के लिए।’ यह पंक्तियां औरत को हरपल ऊर्जस्वित करती हैं और साधना,सेवा व समर्पण भाव को अपने जीवन में संबल बना जीने को प्रेरित करती हैं।’ यही है औरत की नियति,जो वैदिक काल से आज तक न बदली है, न बदलेगी। सहसा मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियां ‘चुपचाप सहते रहो तो आप अच्छे हो; अगर बोल पड़ो,तो आप से बुरा कोई नहीं।’ यही है औरत के जीवन के भीतर का कटु सत्य कि जब तक वह मौन रहकर ज़ुल्म सहती रहती है; तब तक सब उसे अच्छा कहते हैं और जिस दिन वह अपने अधिकारों की मांग करती है या अपने आक्रोश को व्यक्त करती है, तो सब उस पर कटाक्ष करते हैं; उसे बुरा-भला कहते हैं। परंतु ध्यातव्य है कि रिश्तों की अलग-अलग सीमाएं होती हैं,लेकिन जब बात आत्म-सम्मान की हो; वहाँ रिश्ता समाप्त कर देना ही उचित है,क्योंकि आत्मसम्मान से समझौता करना मानव के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। परंतु नारी को आजीवन संघर्ष ही नहीं; समझौता करना पड़ता है–यही उसकी नियति है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #204 ☆ तुम हो तो… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना तुम हो तो…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 203 – साहित्य निकुंज ☆

☆ तुम हो तो…   डॉ भावना शुक्ल ☆

तुम हो मेरा जहान

तुम हो मेरी जान

तुम से ही मेरी पहचान

तुम हो तो… 

 

तुम हो मेरे प्रणेता

तुम हो चहेता

तुम हो मेरी कविता

तुम हो तो …

 

तुम हो मेरा दर्शन

तुम हो मेरा मार्गदर्शन

तुम हो मेरा दिग्दर्शन

तुम हो तो… 

 

तुम हो मेरे प्रतिमान

तुम हो मेरा अभिमान

तुम हो मेरा सम्मान

तुम हो तो…

 

तुम हो मेरा आकर्षण

तुम हो मेरा समर्पण

तुमको सब  अर्पण

तुम हो तो …

 

तुम हो जीवन का सार

तुम हो मेरा संसार

तुम हो मेरा अधिकार

तुम हो तो …तुम।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #188 ☆ दो मुक्तक… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपके दो मुक्तक…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 188 ☆

☆ दो मुक्तक☆ श्री संतोष नेमा ☆

[1]

उनके बगैर अपना गुजारा ना हो सका

हम उसके हो गये वो हमारा न हो सका

हम उनसे वफ़ा की उम्मीद क्या करें

जो कभी किसी का सहारा न हो सका

[2]

दुनिया  की भीड़  से जरा हट कर चलो

अपने  मुकाम  पर  जरा  डट कर चलो

दुनिया की मुश्किलों से कभी डरना नहीं

बस गुनाहों  से सदा जरा बच  कर चलो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #194 ☆ पुर्णान्न भाकर…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 194 – विजय साहित्य ?

पुर्णान्न भाकर…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

आग पोटाची शमवी

अशी पुर्णान्न भाकर

शाळू,नाचणी,तांदूळ

पोट भरीतो चाकर…! १

 

हातावर पोट ज्यांचे

भाजी भाकरी मिळावी

शिळी किंवा ताजी असो

सुख शांती मेळवावी…! २

 

भुक अन्नाची भागते

कोरभर भाकरीत

राबे अहोरात्र कुणी

कष्टमय चाकरीत…!३

 

जात्यावरी घरघर

पीठ भाकरीचे येई

चुलीवर शेकताना

घरादारा अन्न देई…! ४

 

भाकरीच्या चंद्रासाठी

हात आईच जळालं

दारीद्रयाचं दुःख मोठं

दारी मागल्या पळालं..! ५

 

भाजी चटणीची जोड

कधी दुधातला काला

खरपूस भाकरीचा

असे हरी रखवाला….! ६

 

बाल तरूण वार्धक्य

होई वेळेला‌ हजर

औक्षवंत लेकरांची 

काढे भाकरी नजर…! ७

 

अशी भाकरी भाकरी

जेवणात रोज हवी

रूचकर स्वादातून

देई ताकद ती नवी..! ८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – अध्याय पहिला – (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय पहिला — भाग पहिला – (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे৷৷३१৷৷

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।

किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥३२॥

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ৷৷३३৷৷

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥३४॥

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ৷৷३५৷৷

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।

पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः৷৷३६৷৷

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३७॥

यद्यपेते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे य पातकम् ॥३८॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ৷৷३९৷৷

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥४०॥

मराठी भावानुवाद !!!!!

सगे सोयरे माझे वधुनी काय व्हायचे कल्याण

मना माझिया खचित जाणवे कृष्णा हे अवलक्षण ॥३१॥

इच्छा नाही विजयाची नको भोगण्या राज्यसुख

स्वजनांचा करूनी निःपात नको राज्य ना आयुख ॥३२॥

ज्यांच्याकरिता राज्याकांक्षा आशा सुख भोगायाची

प्राण-धनाची इच्छा सोडुन उर्मी त्यांना लढण्याची ॥३३॥

गुरुजन पुत्र पितरांसह अमुचे पितामह

मातुल  श्वशुर पौत्र मेहुणे  सगे सोयरे सकल ॥३४॥

शस्त्र तयांनी जरी मारले यांना ना वधिन

त्रैलोक्याचे राज्य नको मज पृथ्वीचे शासन ॥३५॥

हत्या करुनी कौरवांची या काय भले होइल

स्वजना वधुनी अविवेकाने पाप मला लागेल ॥३६॥

नच वधीन मी या स्वजनांना कदापि हे माधवा

कुटिल जरी ते तयासि वधणे दुरापास्त तेधवा ॥३७॥

धार्तराष्ट्र्यांची बुद्धी नष्ट झाली मोहाने

कुलक्षयाचे द्रोहाचे पाप न त्यांच्या दृष्टीने ॥३८॥

कुलक्षयाचा दोष जाणतो आम्ही अंतर्यामी

विन्मुख खचित व्हावे ऐश्या पापापासुन आम्ही ॥३९॥

कुलक्षयाच्या नाशाने कुलधर्माचा हो अस्त

नाशाने धर्माच्या बुडते समस्त कुल अधर्मात ॥४०॥

– क्रमशः भाग पहिला 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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