हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 170 ☆ ओ चिंता की पहली रेखा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “ओ चिंता की पहली रेखा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 170 ☆

☆ ओ चिंता की पहली रेखा… ☆

बिना परिवर्तन के जीवन सुखद  हो ही नहीं सकता है। जब व्यक्ति के स्वभाव में अन्तर आता है, तो उसकी झलक बोली में दिखायी देती है।

आज हम बात करेंगे, जनरेशन गैप की, जो हर बुजुर्ग को सुनना ही पड़ता है जैसे ही बच्चों के साथ तारतम्य न मिले तो वे कह देते आप क्या जानो या समय के साथ बदल जाइये अन्यथा अकेले रह जायेंगे।

क्या इतना बदलाव हमारी संस्कृति के अनुरूप है कि कल तक जो उँगली पकड़ कर चलता था आज वो एक नयी राह बना आपको ही चलना सिखा दे।  खैर ये तो सदियों से चला आ रहा है, मानव भी तो  जंगल के जीवन से उत्तरोत्तर उन्नति कर आज आकाशीय ग्रहों में बसेरा करने  की योजना बना रहा है, परिवर्तन सत्य है, समय  के अनुरूप स्वयं को बदलते रहें, ये मत भूलें हम सबसे ही समाज है जो देर सवेर ही सही भावी पीढ़ी को सौंपना  होगा। अतः हँसते हुए विचारों का हस्तांतरण करें खुद भी सुखी रहें उनको भी सुखी रहने का आशीर्वाद  देकर।

भले ही कम बोलें पर शब्द सार्थक हों जिससे किसी को ठेस न लगे, जिस तरह नेहिल शब्दों से अपनत्व का बोध होता है उसी तरह कटु शब्द विषैले तीर से भी घातक हो, सामने वाले को दुःखी कर देते हैं।  लोगों की नजर में जो अपशब्द बोलता है, उसके लिए इज्जत कम हो जाती है। जो कुछ है वो वर्तमान है, कल न किसी ने देखा है न देखेगा जैसे ही  कल में पहुँचते हैं वो आज बन जाता है। ये सब तर्क शक्ति के अनुसार  तो सही है पर इतिहास गवाह है कि बिना अच्छी योजना कोई भी सफल  नहीं हुआ, वर्तमान में जिसने भी श्रम किया उसे भविष्य ने पूजा व सराहा।

जितने लोग उतनी विचारधारा हो सकती है, सभी अपने – अपने अनुसार सही भी होते हैं परन्तु जिससे जन कल्याण हो वही कार्य करें जिससे मानव का जन्म सफल हो। ज्योतिषी अपनी खगोलीय गणना द्वारा हमारा  भूत, वर्तमान व भविष्य सब कुछ बता देते हैं।  ये भी एक बड़ा सत्य है दरसल भविष्य शब्द भाव से बना है जो भाव को जीते हैं ईश्वर उनका सदैव  साथ  देता है जिससे भविष्य दिनों दिन निखरता जाता है  कर्म करते रहें बिना फल  की लालसा क्योंकि वृक्ष भी फल समय आने पर ही देता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 151 – “आलोक पुराणिक-व्यंग्य का ATM” – संपादन अनूप शुक्ल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अनूप शुक्ल जी द्वारा संपादित पुस्तक – “आलोक पुराणिक-व्यंग्य का ATM” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 151 ☆

☆ “आलोक पुराणिक-व्यंग्य का ATM” – संपादन अनूप शुक्ल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कृति चर्चा

पुस्तक – आलोक पुराणिक व्यंग्य का ATM

संपादन – श्री अनूप शुक्ल

प्रकाशक – रुझान पब्लिकेशंस, जयपुर

मूल्य  – १७५ रु

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ आलोक पुराणिक व्यंग्य का एटीएम … विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

हास्य एवं व्यंग्य समय की अत्यंत लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित होता जा रहा है । आलोक पुराणिक हिंदी ब्लॉगिंग के प्रारंभ से ही सक्रिय व्यंगकार हैं । प्रायः सभी समाचार पत्रों में उनके व्यंग्य पढ़ने को मिलते हैं। देश के लगभग 32 प्रसिद्ध व्यंग्यकारों ने अपने मंतव्य आलोक पुराणिक जी के विषय में इस कृति में संकलित किए हैं। साथ ही आलोक पुराणिक की 16 लोकप्रिय व्यंग कृतिया भी किताब में संकलित है । संपादक अनूप शुक्ल जी ने विभिन्न विषयों पर आलोक पुराणिक से साक्षात्कार लेकर उसे भी प्रश्न उत्तर के रूप में किताब में संग्रहित किया है ।इस किताVब को पढ़ने से आलोक पुराणिक की रचना प्रक्रिया उन के व्यंग के सफ़र के विषय में ऐसी जानकारी मिलती है जिससे नए व्यंग्यकार प्रेरणा ले सकते हैं। किताब मनोरंजक है और पढ़ने योग्य है। ईबुक के रूप मे भी पुस्तक किंडल पर सुलभ है ।
समीक्षक।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #153 – लघुकथा – “विकल्प” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  विकल्प)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 153 ☆

 ☆ लघुकथा – “विकल्प” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

दिसंबर की ठण्डी रात को अचानक पानी बरसने पर मां की नींद खुल गई, “तूझे कहा था गेहूं धो कर छत पर मत सुखा, पर, तू मानती कहा हैं।”

” तो क्या करती? इस में धनेरिये पड़ गए थे।” 

“अब सारे गेहूं गीले हो रहे हैं।”

” तो मैं क्या करूं?” बेटी खींज कर बोली, “मेरा कोई काम आप को पसंद नहीं आता। ऐसा क्यों नहीं करते- मेरा गला घोट दो। आप को शांति मिल जाएगी।”

” तुझ से बहस करना ही बेकार है,” मां जोर से बोली। तभी पिता की नींद खुल गई, “अरे भाग्यवान! क्या हुआ ? रात को भी….”

” पानी बरस रहा है। छत पर गेहूं गीले हो रहे है। इस को कहा था- गेहूं धो कर मत सुखा, पर यह माने तब ना,” कहते हुए माँ ने वापस अपनी बेटी की बुराई करना शुरू कर दिया। 

मगर पिता चुपचाप उठे। बोले, “चल ‘बेटी’! उठ। छत पर चलते हैं,” कहते हुए पिता ने छाता उठा कर खोल लिया।

छाता खुलते ही मां-बेटी की जुबानी जंग बंद हो गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-12-21

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #20 ☆ कविता – “राह…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 20 ☆

☆ कविता ☆ “एक दिन…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

ये ना समझो

कि हम भूल गए

ये समझो कि

बस लम्हें ही निकल गए

 

भला पानी को कभी प्यास

भूल सकती है क्या?

या दिन से कभी रात

जुदा हो सकती है क्या?

 

बस दायरे बढ़ गए हैं 

दरारें नहीं

बस वर्तमान सिमट गया है

भूत और भविष्य नहीं

 

शीशे की ये दीवारें

दुनिया ने खड़ी जो की हैं 

इस तरफ भी और उस तरफ भी

इससे बस धूप ही आती है

 

मगर एक दिन

शीशे ये टूटेंगे दिल नहीं

फिर बस प्यार ही खिलेगा

इन लफ्जों की जरूरत नहीं

 

वो दिन आएगा

हम वो लाएंगे

मरते दम तक दीवारों पे

इन लफ्जों के पत्थर मारेंगे

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 180 ☆ बालगीत – झिलमिल – झिलमिल पंख सलोने  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 180 ☆

☆ बालगीत – झिलमिल – झिलमिल पंख सलोने ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

 

बालगीत – झिलमिल – झिलमिल पंख सलोने

—————————– 

हम बनकर परी घूमती हैं

     बाग- बगीचे सुंदर वन – वन।

झिलमिल – झिलमिल पंख सलोने

   खिला फूल – सा अपना तन – मन।।

      

 चंदा की ज्योति है शीतल।

        बातें करते उनसे पल – पल।

तारे टिम – टिम चमक रहे हैं,

        हैं सुंदर मोहक  नवल – नवल।

 

सोए धरती के सब प्राणी

       मन रखते अपना मस्त – मगन।

हम बनकर परी घूमती हैं

       बाग- बगीचे सुंदर वन – वन।।

 

हीरे –  पन्ने मोती माणिक

       जन – जन को हम बाँट रही हैं।

निर्धन के भी महल बनाकर

         हर मुश्किल को छाँट रही हैं।

 

सबकी बुद्धि ज्ञान बढ़ाकर

     हम श्रम को करतीं नमन – नमन।

हम बनकर परी घूमती हैं

     बाग  –  बगीचे सुंदर वन –  वन।।

 

संग – साथ हैं कई सहेली,

     सब बच्चों की वे हमजोली।

सबको नए दिखातीं सपने

      रोज बनातीं नई रँगोली।।

 

बढ़िया चीजें उन्हें खिलातीं

  बच्चों को दिखातीं खूब सपन।।

हम बनकर परी घूमतीं हैं

     बाग- बगीचे सुंदर वन- वन।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #176 ☆ संत कबीर… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 176 ☆ संत कबीर☆ श्री सुजित कदम ☆

सत्य कर्म सिद्धांताचे

संत कबीर द्योतक

पुरोगामी संत कवी

दोहा अभंग जनक…! १

 

ज्येष्ठ पौर्णिमेचा दिन

कबिरांचा जन्म दिन

देव आहे बंधु सखा

जपू नाते रात्रंदिन….! २

 

कर्म सिद्धांताचे बीज

संत कबीरांची वाणी

धर्म भाषा प्रांतापार

निर्मियली बोलगाणी….! ३

 

सांगे कबिराचे दोहे

सोडा साथ अज्ञानाची

भाषा संस्कृती अभ्यास

शिकवण विज्ञानाची…! ४

 

बोली भाषा शिकोनीया

साधलासे सुसंवाद

अनुभवी विचारांना

व्यक्त केले निर्विवाद…! ५

 

एकमत एकजूट

दूर केला भेदभाव

सामाजिक भेदभाव

शोषणाचे नाही नाव…! ६

 

समाजाचे अवगुण

परखड सांगितले

जसा प्रांत तशी भाषा

तत्त्वज्ञान वर्णियले…! ७

 

राजस्थानी नी पंजाबी

खडी बोली ब्रजभाषा

कधी अवधी परबी

प्रेममयी ज्ञान दिशा…! ८

 

ग्रंथ बीजक प्रसिद्ध

कबीरांची शब्दावली

जीवनाचे तत्त्वज्ञान

प्रेममय ग्रंथावली…! ९

 

नाथ संप्रदाय आणि

सुफी गीत परंपरा

सत्य अहिंसा पुजा

प्रेम देई नयवरा…! १०

 

संत कबीर प्रवास

चारीधाम भारतात

काशीमधे कार्यरत

दोहा समाज मनात…! ११

 

आहे प्रयत्नात मश

मनोमनी रूजविले

कर्ममेळ रामभक्ती

जगा निर्भय ठेविले…! १२

 

हिंदू मुस्लिम ऐक्याचा

केला नित्य पुरस्कार

साखी सबद रमैनी

सधुक्कडी आविष्कार…! १३

 

बाबा साहेबांनी केले

संत कबीरांना गुरू

कबीरांचे उपदेश

वाट कल्याणाची सुरू…! १४

 

काशीतले विणकर

वस्त्र विणले रेशमी

संत कबीर महात्मा

ज्ञान संचय बेगमी…! १५

 

सुख दुःख केला शेला

हाती चरखा घेऊन

जरतारी रामनाम

दिलें काळीज विणून…! १६

 

संत्यमार्ग चालण्याची

दिली जनास प्रेरणा

प्रेम वाटा जनलोकी

दिली नवी संकल्पना…! १७

 

मगहर तीर्थक्षेत्री

झाला जीवनाचा अंत

साधा भोळा विणकर

अलौकिक कवी संत…! १८

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #203 – कविता – ☆ तीन मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “तीन मुक्तक…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #203 ☆

☆ तीन मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

[1] 

अपेक्षायें…

अपेक्षाएँ ये

दुखों की खान हैं

अपेक्षाएँ

हवाई मिष्ठान्न हैं

बीज इसमें हैं

निराशा के छिपे,

छीन लेती ये

स्वयं का मान हैं।

☆ ☆

[2]

 बँटे हुए हम लोग…

मजहब, धर्म-पंथ,

अगड़े,पिछड़े में बँटे हुए हम लोग

भिन्न-भिन्न जातियाँ,

एक दूजे से कटे हुए हम लोग

वोटों की विषभरी

राजनीति ने सब को अलग किया

कहाँ देश से प्रेम,

कुर्सियों से अब सटे हुए हम लोग।

☆ ☆

[3]

निष्कर्ष 

है कहाँ सिद्धांत नीति, अब कहाँ आदर्श है

चल रहा है झूठ का ही, झूठ से संघर्ष है

ओढ़ सच का आवरण, है ध्येय केवल एक ही

बस हमीं हम ही रहें, यह एक ही निष्कर्ष है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 28 ☆ धरती और साँस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “धरती और साँस…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 28 ☆ धरती और साँस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मुझमें फैला है

सारा आकाश

धरती हर साँस में बसी।

 

छूते हैं विषय मुझे

जब भी मन घिरता है

पानी की लहरें बन

तिनकों सा तिरता है

 

मुझमें पलता है

श्रम का अहसास

धड़कन से ज़िंदगी कसी।

 

बहुत कुछ कहा जाना

अब भी तो बाक़ी है

उजियारी भोर पहन

सूरज बेबाक़ी है

 

उजले पल-छिन में

जीवित मधुमास

होंठों पर थिरकती हँसी।

 

आँख में उदासी के

नित नए सपन जागें

स्वर्णिम इतिहास लिए

यादें बन मृग भागें

 

पोथियों पुराणों में

ठहरा विश्वास

साँसत में जान है फँसी।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शायरी कोई भी अच्छी बुरी नहीं होती… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “शायरी कोई भी अच्छी बुरी नहीं होती“)

✍ शायरी कोई भी अच्छी बुरी नहीं होती… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

क़द्र घर  में न किसी भी बशर की होती है

और की नजरों में कीमत हुनर की होती है

फूल माला न गलीचों से  खैर मक़दम हो

भूमिका खास समझ ले नजर की होती है

चोट खाके भी हमें जो अता समर करता

आदमी की नहीं फ़ितरत शज़र की होती है

सात तालों में वो महफ़ूज रखने बंद करे

जिस किसी के लिए कीमत गुहर की होती है

शायरी कोई भी अच्छी बुरी नहीं होती

बात बस उंसके दिलों  पर असर की होती है

जब भी डूबी है कोई नाँव बीच दरिया में

इसमें साज़िश रची अकसर भँवर की होती है

कौन फैला रहा नफरत पड़ोसियों में अरुण

ये शरारत न इधर की उधर की होती है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 87 – प्रमोशन… भाग –5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 87 – प्रमोशन… भाग –5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अंततः written test की date आ ही गई और इस शाखा से पात्रतानुसार पांच प्रत्याशी उस नगर की ओर रवाना होने के लिये रिलीव हुये जहाँ परीक्षा केंद्र भी था और आंचलिक कार्यालय भी. जाने के लिये बस की सुविधा थी और रेल की भी. बाकी चार तो टैक्सी तय करके मनमुताबिक stoppage और गति के साथ चलने का प्लान बना चुके थे पर मिस्टर 100% इनसे अलग जाने की और रुकने की व्यवस्था कर चुके थे. अतः उन्होंने ये टैक्सी द्वारा जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया और रेल से प्रस्थान करने का निश्चय भी बतला दिया. दरअसल उनके पिताश्री भारतीय रेलवे विभाग में अधिकारी थे और उन्होंने परीक्षा केंद्र के निकट ही, अपने कार्यालयीन संबंधो का उपयोग कर रेल्वे के अधिकारी विश्राम गृह में रुकने की व्यवस्था भी कर दी थी. उनका सोचना था इस तरह की एकला चलो यात्रा और एकाकी प्रवास निर्विघ्न पढ़ने की भी सुविधा देता है. साथी सब समझ गये और चूंकि इनके “अकेला ही काफी है ” स्वभाव से वाकिफ थे, अतः इनके वहिष्कार से एक बेहतर मनोरंजक यात्रा का लाभ पाया. ये चारों आधुनिक काल के वो बैंकर्स बंधु थे जो मि. 100% का साथ पाने के बजाय, उनसे सुरक्षित दूरी बनाकर रखना ज्यादा पसंद करते थे. मि. 100% शाखा में समझे जाने वाले सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी थे, trainee officer (प्रशिक्षु अधिकारी) का written test पास कर इंटरव्यू दे चुके थे पर रिजल्ट किसी लीगल प्रक्रिया {legally stayed} के कारण अटका हुआ था. चूंकि इस दौरान काफी समय बीत चुका था तो लोग भी और वो भी भूल गये थे कि ऐसा कोई टेस्ट उन्होंने दिया है.

खैर दूसरे दिन सुबह 08:00 पर सभी परीक्षा केंद्र पहुंच गये और जहाँ बाकी लोग अपने मित्रों से मिलने में व्यस्त थे, मि. 100% कैंपस में ही एकांत स्थान चुनकर प्रबल संभावित प्रश्नों के उत्तरों पर आखिरी नजर मारने में लगे रहे. तयशुदा समय पर लिखित परीक्षा प्रारंभ हुई और सबसे अंत में उत्तरपुस्तिका जमा करने वाले यही थे. इसका कारण अनिश्चितता थी या हरेक मिनट का पूरा उपयोग, पता नहीं पर 100% जी का पूरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ प्रश्न पत्र पर ही केंद्रित रहा. अगर यात्रा तनावपूर्ण हो तो फिर इस यात्रा में कुछ बहुत अच्छे, रमणीक, रिफ्रेशिंग, प्राकृतिक दृश्य छूट जाते हैं, प्रकृति का स्वभाव निश्चिंतता, उन्मुक्तता और निरंतरता होता है और वही लोग इसका आनंद उठा पाते हैं जो स्वयं “पाने की लालसा” से भयभीत होने तक की उत्कंठा के शिकार नहीं बनते.

परीक्षा केंद्र से शाखा में वापसी भी उसी तरह अलग अलग साधनों से हुई जैसी आने के वक्त अपनाई गई थी. बाकी चार परीक्षार्थी, जहाँ परीक्षा के रिजल्ट से बेपरवाह अपने मित्रों से मुलाकात और यात्रा के अन्य प्रसंगों की चर्चाओं का आनंद ले रहे थे, वहीं मि. 100% ने रिजल्ट के तनाव से गुजरना प्रारंभ कर दिया था. अनावश्यक रूप से टेंशन लेना व्यक्तित्व की बड़ी कमजोरी ही मानी जाती है जो निर्णय और रिस्क लेने की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करती है पर इनका ये खानदानी स्वभाव बदलना मुश्किल था.

 

लौटने पर जैसा कि होता है कि “कैसा रहा पेपर” और इसका स्टेंडर्ड जवाब भी यही होता है कि ठीक रहा. ये ऐतिहासिक सवाल स्कूल से ही लगातार पूछा जाता रहा है और आदिकाल से ही हर परीक्षार्थी यही जवाब देता आया है. अब सब लोग वापस अपने अपने काम में लग गये और रिजल्ट का इंतजार करने लगे. वो ज्यादा कर रहे थे जो इस मैटर में क्रिकेट के समान चुपचाप शर्त लगा कर बैठे थे. कितने होंगे और किसका नहीं होगा, दो बातों पर शर्त लगी थी और मि. 100% पर किसी ने शर्त नहीं लगाई थी क्योंकि सब जानते थे कि इनका तो हो ही जाना है.

Written test के रिजल्ट और आगे की प्रक्रिया को मनोरंजन नामक रैपर में लपेटकर अगले अंक में प्रस्तुत किया जायेगा. बैंकर्स के जीवन में written test बहुत समय तक साथ चलता है. शुक्र है कि रिटायरमेंट और पेंशन पाने की पात्रता के लिये कोई रिटनटेस्ट नहीं होता वरना क्या होता, कल्पना कीजिए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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