हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 156 – “|| अभिनवगीत : जिंदगी ||” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  || अभिनवगीत : जिंदगी ||)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 156 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “|| अभिनवगीत : जिंदगी ||” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

जिंदगी  :  मुट्ठी

में बंद प्यास |

या घर की सीढ़ी

पर,बैठी हो

उम्र की कपास ||

 

या झुकती

कोई हो डाल

या कोई

छोटा संथाल 

 

या कोई बदली 

का घाम

या कोई धुँधली

उजास ||

 

याकोई रंग

गंध हीन

परत कोई जिस्म

पर महीन 

 

फिसल गई

बस अपने आप 

हिरदय से

जैसे निःस्वास ||

 

या कोई महल

छुपा राह  में

जैसे कि खड़ा हो

उछाह में

 

या जैसे फिर

दबंग  बैठा हो

ड्योढ़ी पर

यों बदहवास ||

 

या कोई तितली

यों मौन पर

या कोई महिला

मालथौन* पर

 

बैठी देखे

बस की वाट

गोद में लिए

कल की आस ||

 

या कोई वेदना

छिपी  कोने

फर्क कर रही

होने न होने-

 

में,  जैसे

पथरीली भूमि

पर उगने को

कोई घास ||

 

या गीली

परतों में तंग 

पुरुष धर्म

कोई बहिरंग 

 

या सीपी में

होने बंद

मोती का चूका

इतिहास ||

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-05-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 207 ☆ लघुकथा – “डमी कैमरा…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – डमी कैमरा)

☆ लघुकथा – ‘डमी कैमरा’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

दीपावली में सब लोग मिलने मिलाने एक दूसरे के घर आया- जाया करते हैं, जो घर आता है उसे लोग अपनी हैसियत से खिलाते पिलाते भी हैं।  

दीवाली के दूसरे दिन मैं अपने एक मित्र के यहां गया, उसने ड्राइफ्रुट से भरी एक ट्रे लाकर मेरे सामने रख दी। थोड़ी देर बातचीत हुई, हैप्पी दिवाली, बधाई, शुभकामनाएं आदि की औपचारिकता के बाद वो चाय लेने अंदर चला गया तभी मैंने मुठ्ठा भरकर पिस्ते खाने के लिए उठाया ही था कि मेरी नजर सामने लगे CCTV कैमरे पर गई और फिर मैंने कैमरे को गाली देते हुए एक ही पिस्ता खाया।

जब चाय लेकर मित्र आया तो उससे पूछा कि ये कैमरे कितने में लगाए हो तो उसने हंसते हुए बताया कि ये तो डमी कैमरा है, हर साल दिपावली पर इस ड्राइंग रूम में लगा देता हूँ… आप तो जानते ही हैं कि दुनिया में तरह तरह के लोग होते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 148 ☆ # बेबंदशाही… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# बेबंदशाही… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 148 ☆

☆ # बेबंदशाही#

गरीबी निर्धन को कितना रूलाती है

जीवन ओर मृत्यु के बीच झुलाती है

झूठे वादों, खोखले आश्वासनों के झूले में

भूखे को खाली पेट सुलाती है

 

यह हमने कैसी व्यवस्था बनाई है

अमीर-गरीब के बीच खाई है

भूखे रोटी के लिए लड़ रहे हैं

अमीरों ने विश्व स्तर पर छलांग लगाई है

 

कुछ सूरमा नफरत का अस्त्र घोंप रहे हैं 

अपनी विचारधारा दूसरे पर थोप रहे हैं 

रक्तरंजित हो गई सामाजिक व्यवस्था

बुद्धिजीवी हतप्रभ बस सोच रहे हैं

 

गली गली में हो रही जंग है

दिवालों पर पुता लाल रंग है

भाईचारा, प्रेम, सद्भाव भस्म हो गया

आम आदमी देखकर दंग है

 

उद्दंडता सारी सीमाएं तोड़ रही हैं 

न्याय को अपने पक्ष में मोड़ रही हैं 

जो कह दे, वहीं सत्य है

कायदे, कानून पीछे छोड़ रही है

 

यह एक जुर्म है, जीवन मूल्यों की तबाही है

कैसा समय है, झूठ की वाहवाही है

हम सब है जिम्मेदार इसके लिए

क्योंकि,

यह तो एक बेबंदशाही है /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 144 ☆ निर्मळ… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 144 ? 

☆ निर्मळ…

मनाची औदार्यता असावी

मनाची सौंदर्यता जपावी

मन उदार करून सहज

स्नेहाची उधळण करावी…!!

 

स्नेहाची उधळण करावी

सहिष्णूता, जपावी

वाट्यातील वाटा देतांना

अहंकाराची झालर नसावी…!!

 

अहंकाराची झालर नसावी

सहजतेने मुक्त व्हावे

क्षणभंगूर जीवनात आपुल्या

काहीतरी निर्मळ कार्य करावे…!!

 

काहीतरी निर्मळ कार्य करावे

कीर्ती गंध पसरवून द्यावा

शेवटी काय राहते भूव-री

याचा विचार स्वतः करावा…!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 210 ☆ कहानी – दावत — ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी ‘दावत—‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 210 ☆
☆ कहानी – दावत- 

नन्दू के कमरे में कुछ दिनों से रौनक है। लोगों का आना-जाना बना रहता है। बाहर बोर्ड लटक रहा है— ‘जयकुमार फैंस क्लब’। जयकुमार मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी है और नन्दू स्थानीय जयकुमार फैंस क्लब का अध्यक्ष है। एक तरह से वह क्लब का आजीवन अध्यक्ष है क्योंकि क्लब का सूत्रधार वही है। जयकुमार के लिए उसकी दीवानगी इंतहा से परे है। टीवी पर जयकुमार के दर्शन से ही वह धन्य हो जाता है।

कमरे में घुसते ही सब तरफ जयकुमार की बहार दिखती है। सब तरफ विभिन्न मुद्राओं में जय कुमार के फोटो हैं। चार फोटो नन्दू के साथ हैं जिनमें नन्दू गद्गद दिखायी पड़ता है। जयकुमार का एक लंबा-चौड़ा पोस्टर ठीक नन्दू की कुर्सी के पीछे है। दफ्तर में घुसने पर सबसे पहले नन्दू पोस्टर को प्रणाम करता है, फिर अगरबत्ती जलाकर उसके चारों तरफ घुमाता है। इसके बाद ही दफ्तर का कामकाज शुरू होता है। उसके क्लब में पन्द्रह बीस सदस्य हैं जो उसी की तरह क्रिकेट के दीवाने हैं। जयकुमार का मैच देश में कहीं भी हो, नन्दू दो चार दोस्तों के साथ ज़रूर देखने पहुँचता है। जयकुमार के क्रिकेट के सारे रिकॉर्ड उसकी ज़बान पर हैं। पूछने पर कंप्यूटर की तरह फटाफट आँकड़े फेंकता है।

जयकुमार फैंस क्लब हर साल धूमधाम से अपने हीरो का जन्मदिन मनाता है। कोई और जगह नहीं मिलती तो नन्दू के मकान की छत पर ही इन्तज़ाम हो जाता है। गाने-बजाने के अलावा पास की झोपड़पट्टी के पचीस-तीस लड़कों को भोजन कराया जाता है। नन्दू सदस्यों के अलावा आसपास के लोगों से कुछ चन्दा बटोर लेता है। शहर में क्रिकेट-प्रेमियों की संख्या अच्छी ख़ासी है, उनसे भी सहयोग मिल जाता है।

अभी आठ दिन बाद जयकुमार का जन्मदिन है, इसलिए दफ्तर में चहल-पहल है। नन्दू बेहद व्यस्त है। कार्यक्रम बनाने के अलावा दावत में बुलाये जाने वाले लड़कों को सूचित करना है। अखबारों में इस आयोजन की सूचना देनी है। आयोजन के बाद फिर फोटो और रिपोर्ट छपवानी होगी, जिसकी एक कॉपी जयकुमार को भेजी जाएगी। यह सब ठीक से निपटाने के लिए अखबारों के रिपोर्टरों को बुलाना होगा।

नन्दू के लिए झोपड़पट्टी के लड़कों को बुलाना मुश्किल काम है। एक बुलाओ तो दस लपकते हैं। इसलिए उसने झोपड़पट्टी में अपना ठेकेदार नियुक्त कर दिया है जो पलक झपकते लड़कों का इन्तज़ाम कर देता है और कोई हल्ला- गुल्ला या बदइंतज़ामी नहीं हो पाती।

ठेकेदार दम्मू है। अभी लड़का ही है। आठवीं तक किसी तरह स्कूल में सिर मारने के बाद घर में बैठ गया है। लेकिन है चन्ट, इसलिए लोगों के संकट-निवारण के पचासों काम हाथ में लिये रहता है। आदमी अक्लमंद हो तो काम और दाम की कमी नहीं रहती। चुनाव के वक्त दम्मू की व्यस्तता बढ़ जाती है। हर चुनाव में वह अच्छी कमाई कर लेता है।

दम्मू के पास झोपड़पट्टी के लड़कों की लिस्ट है जो उसके बुलाने पर हाज़िर हो जाते हैं, चाहे वह कहीं ड्यूटी करने का काम हो या भोजन करने का। जयकुमार के जन्मदिन की खबर फैलते ही लड़के दम्मू के आसपास मंडराने लगे हैं और दम्मू का रुतबा बढ़ गया है। वह अपनी छोटी सी नोटबुक में लड़कों के नाम जोड़ता-काटता रहता है। अक्सर किसी लड़के को सुनने को मिलता है— ‘अपनी शकल देखी है आइने में? कितने दिन से नहीं नहाया? वहाँ सबके सामने मेरी नाक कटवायेगा? बालों और कपड़ों की हालत देखो। कल बाल कटवा कर और ढंग के कपड़े पहन कर आना, तब सोचूँगा।’ लड़का शर्मिन्दा होकर खिसक लेता है। चौबीस घंटे बाद कपड़े-लत्ते ठीक कर फिर इंटरव्यू के लिए हाज़िर हो जाता है।

झोपड़पट्टी में सुरिन्दर भी रहता है। बारहवीं का छात्र है। पढ़ाई-लिखाई में अच्छा है। दम्मू उस पर मेहरबान रहता है। कहीं भोजन- पानी का जुगाड़ हो तो लिस्ट में सुरिन्दर को ज़रूर शामिल कर लेता है। सुरिन्दर को भी मज़ा आता है। घर में जो भोजन नसीब नहीं हो पाता वह बाहर मिल जाता है।

सुरिन्दर के पिता प्राइवेट फैक्टरी में मुलाज़िम हैं। तनख्वाह इतनी कि किसी तरह गुज़र-बसर हो जाती है। बाज़ार की चमकती हुई चीजों को बच्चों तक पहुँचाना उनके लिए कठिन है। हीनता और असमर्थता की भावना हमेशा जकड़े रहती है। उन्हें पसन्द नहीं कि उनका बेटा खाने-पीने के लिए इधर-उधर जाए, लेकिन सुरिन्दर उन्हें निरुत्तर कर देता है। कहता है, ‘पापा, इसमें हर्ज क्या है? सब तरह की चीजें खाने को मिल जाती हैं—पिज़्ज़ा, बर्गर,चाइनीज़ और चाहे जितनी आइसक्रीम। नो लिमिट। घर में तो ज्यादा से ज्यादा पराठा-सब्जी। खाते खाते बोर हो जाते हैं।’

पिता को जवाब नहीं सूझता। बाज़ार में भोजन की चीज़ों की विविधता बढ़ने के साथ निर्बल पिताओं की मुसीबत भी बढ़ रही है। घर का सामान्य भोजन अखाद्य हो गया है।

जन्मदिन की शाम दम्मू लड़कों की लिस्ट के साथ नन्दू के घर पर डट गया। कहीं कोई अवांछित लड़का शामिल न हो जाए। लड़कों का नाम बुलाकर नोटबुक में टिक लगाया जाता है। एक तरफ उन लड़कों का छोटा सा झुंड है जो दम्मू की लिस्ट में नहीं हैं। उनकी आँखों में उम्मीद है कि शायद लिस्ट का कोई लड़का हाज़िर न हो और उनकी किस्मत खुल जाए।

नन्दू का घर रंग-बिरंगे बल्बों से सजा है। कार्यक्रम ऊपर छत पर है। क्रिकेट के एक पुराने खिलाड़ी मुख्य अतिथि हैं। मुहल्ले के तीन चार गणमान्य लोग भी हैं। बाकी क्लब के सदस्य हैं।

कार्यक्रम शुरू होता है तो जन्मदिन का केक कटता है। सामने जयकुमार का फोटो है। ‘हैपी बर्थडे टु यू’ गाया जाता है। एक लोकल आर्केस्ट्रा भी बुलाया गया है।

क्लब के सचिव के प्रतिवेतन के बाद मुख्य अतिथि का भाषण हुआ। मुख्य अतिथि क्रिकेट के अपने दिनों की यादों में खो गये। भाषण लंबा खिंचा तो भोजन करने आये लड़के कसमसाने लगे। मुख्य अतिथि के भाषण के बाद अन्य अतिथियों के द्वारा क्लब को आशीर्वाद और शुभकामना देने का सिलसिला चला। फिर क्लब के अध्यक्ष के द्वारा कृतज्ञता-ज्ञापन। इसके बाद आर्केस्ट्रा शुरू हो गया जो एक घंटे तक चला। भोजनातुर लड़कों का धीरज छूट गया। आर्केस्ट्रा की धुनें कर्कश लगने लगीं। जैसे तैसे भोजन की नौबत आयी,लेकिन भोजन सामग्री की विविधता और प्रचुरता ने सारे गिले-शिकवे दूर कर दिये।

सुरिन्दर लौटकर घर में घुसा तो पिता सामने ही बैठे थे। उसे देखकर व्यंग्य से बोले, ‘हो गया मुफ्त का भोजन? मज़ा आया?’

सुरिन्दर सोफे पर पसर कर पेट पर हाथ फेरता हुआ बोला, ‘बहुत मजा आया पापा।’ फिर थोड़ी देर आँखें मूँदे रहने के बाद बोला, ‘पापा, दरअसल अब हमारा स्टैंडर्ड ऊँचा हो गया है। पिज़्ज़ा बर्गर के सिवा कुछ अच्छा लगता ही नहीं। ऐसे ही बीच-बीच में दावतें मिलती रहें तो काम चलता रहेगा।’

पिता उसके मुँह की तरफ देखते बैठे रहे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 210 ☆ उड़ जाएगा हंस अकेला..! श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 210 ☆ उड़ जाएगा हंस अकेला..! ?

आनंदलोक में विचरण कर रहा हूँ। पंडित कुमार गंधर्व का सारस्वत कंठ हो और दार्शनिक संत कबीर का शारदीय दर्शन तो इहलोक, आनंदलोक में परिवर्तित हो जाता है। बाबा कबीर के शब्द चैतन्य बनकर पंडित जी के स्वर में प्रवाहित हो रहे हैं,

उड़ जाएगा हंस अकेला

जग दर्शन का मेला…!

आनंद, चिंतन को पुकारता है। चिंतन की अंगुली पकड़कर विचार हौले-हौले चलने लगता है। यह यात्रा कहती है कि ‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है, फिर लौट जाता है अपने निवास। लौटना ही पड़ता है क्योंकि मेला किसीका निवास नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं।

विचार अब चलना सीख चुका। उसका यौवनकाल है। उसकी गति अमाप है। पलक झपकते जिज्ञासा के द्वार पर आ पहुँचा है।  जिज्ञासा पूछती है कि महात्मा कबीर ने ‘हंस’ शब्द का ही उपयोग क्यों किया? वे किसी भी पखेरू के नाम का उपयोग कर सकते थे फिर हंस ही क्यों? चिंतन, मनन समयबद्ध प्रक्रिया नहीं हैं। मनीषी अविरत चिंतन में डूबे होते हैं। समष्टि के हित का भाव ऐसा, सात्विकता ऐसी कि वे मुमुक्षा से भी ऊपर उठ जाते हैं। फलत: जो कुछ वे कहते हैं, वही विचार बन जाता है। अपने शब्दों की बुनावट से उपरोक्त रचना में द्रष्टा कबीर एक अद्वितीय विचार दे जाते हैं।

विचार कीजिएगा कि हंस सामान्य पक्षियों में नहीं है। हंस श्वेत है, शांत वृत्ति का है। वह सुंदर काया का स्वामी है। आत्मा भी ऐसी ही है, सुंदर, श्वेत, शांत, निर्विकार। हंस गहरे पानी में तैरता है तो हज़ारों फीट ऊँची उड़ान भी भरता है। आकाशमार्ग की यात्रा हो अथवा वैतरणी पार करनी हो, उड़ना और तैरना दोनों में कुशलता वांछनीय है।

हंस पवित्रता का प्रतीक है। शास्त्रों में हंस की हत्या, पिता, गुरु या देवता की हत्या के तुल्य मानी गई है।

हंस विवेकी है। लोकमान्यता है कि दूध में जल मिलाकर हंस के सामने रखा जाए तो वह दूध और जल का पृथक्करण कर लेता है। संभवत:  ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ मुहावरा इसी संदर्भ में अस्तित्व में आया। हंस के नीर-क्षीर विवेक का भावार्थ है कि स्वार्थ, सुविधा या लाभ की दृष्टि से नहीं अपितु अपनी बुद्धि, मेधा, विचारशक्ति के माध्यम से उचित, अनुचित को समझना। मनुष्य जब भी कुछ अनुचित करना चाहता है तो उसे चेताने के लिए उसके भीतर से ही एक स्वर उठता है। यह स्वर नीर-क्षीर विवेक का है, यह स्वर हंस का है। हंस को माँ सरस्वती के वाहन के रूप में मिली मान्यता अकारण नहीं है।

कारणमीमांसा से उपजे अर्थ का कुछ और विस्तार करते हैं। दिखने में हंस और बगुला दोनों श्वेत हैं। मनुष्य योनि हंस होने की संभावना है। विडंबना है कि इस संभावना को हमने गौण कर दिया है।  हम में से अधिकांश बगुला भगत बने जीवन बिता रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में बगुला भगतों की भरमार है। हंस होने की संभावना रखते हुए भी भी बगुले जैसा जीना, जीवन की शोकांतिका है।

मनुष्य को बुद्धि का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते ही वह नीर-क्षीर विवेक का स्वामी है। विवेक होते हुए भी अपनी सुविधा के चलते ढुलमुल मत रहो। स्पष्ट रहो। सत्य-असत्य के पृथक्करण का साहस रखो। यह साहस तुम्हें अपने भीतर पनपते बगुले से मुक्ति दिलाएगा, तुम्हारा हंसत्व निखरता जाएगा। जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी कहते हैं कि महर्षि वेदव्यास जब महाभारत का वर्णन करते हैं तो पांडवों का उदात्त चरित्र उभरता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे पांडवों के प्रवक्ता हैं। सनद रहे कि महर्षि वेदव्यास सत्य के प्रवक्ता हैं।

अपनी एक कविता स्मृति में कौंध रही है,

मेरे भीतर फुफकारता है

काला एक नाग,

चोरी छिपे जिसे रोज़ दूध पिलाता हूँ,

ओढ़कर चोला राजहंस का

फिर मैं सार्वजनिक हो जाता हूँ…!

दिखावटी चोले के लिए नहीं अपितु उजला जीवन जिओ अपने भीतर के हंस के लिए। स्मरण रहे, वह समय भी आएगा जब हंस को उड़ना होगा सदा-सर्वदा के लिए। इस जन्म की अंतिम उड़ान से पहले अपने हंस होने को सिद्ध कर सको तो जन्म सफल है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माधव साधना सम्पन्न हुई। आपको अगली साधना की जानकारी शीघ्र दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 157 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 157 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 157) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 157 ?

☆☆☆☆☆

 ☆ Self-Review First…

 ☆

Someone said that

If you judge others

Then first

place a mirror in

front of you…

Hence, that being so…

Make a comment

on yourself first

Then waste your

time on others…

 ☆

किसी ने फरमाया कि

दूसरों पर अगर

तब्सिरा कीजिए तो 

पहले सामने आईना

रख लिए करिए

इसीलिए …

इक तब्सिरा अपने

आप पर कीजिए

फिर औरों पर वक्त

जाया किया करिए …

 ☆

Matrix of Love

Love has a different

calculations altogether,

It just happens in a moment,

but lasts for a lifetime..!

 ☆

इश्क़ का भी एक

अलग ही हिसाब है,

फलभर में हो जाता है,

उम्र भर के लिए…!

 ☆

 ☆ Untrue Dreams 

 ☆

Dreams may be false  

But at least

they make me meet

you every day…!

 ☆

ख़्वाब झूठे ही सही

मगर कम से कम 

तुमसे  मुलाक़ात  तो

रोज़ करवाते हैं…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 155 ☆ भारत का भाषा गीत… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है – भारत का भाषा गीत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 155 ☆

☆ भारत का भाषा गीत ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की

अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की

नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम

जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की

संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,

कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,

मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू

पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली

​’सलिल’ पचेली, सिंधी व्यवहार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,

अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,

राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,

भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,

परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी

कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,

सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,

जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,

मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम

हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़

शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़

गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर

समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़

‘सलिल’ विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम

हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-८-२०१६, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ टीचर (जर्मनी)… ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम ☆

📖 वाचताना वेचलेले 📖

☆ टीचर (जर्मनी) ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम

‘वऱ्हाड निघालंय लंडनला’ या नाटकाने प्रसिद्धीस आलेले प्रख्यात नाट्यकलावंत डॉ. लक्ष्मण देशपांडे यांचा एक किस्सा आज तुमच्यासोबत शेअर करतोय. ते व त्यांची पत्नी विजया जर्मनीला नाटकाच्या दौऱ्यानिमित्त गेले होते. दौरा आटोपून पुढच्या शहरात जाण्यासाठी ते फ्रँकफुर्ट विमानतळावर आले. तेथून त्यांना पुढच्या प्रवासाला जायचे होते. नेमका गडबडीत त्यांचा पासपोर्ट बॅगमध्ये सापडत नव्हता. खूप शोधाशोध सुरु होती. दोन-तीन वेळेस अनाउन्समेंट झाली. शेवटी विमानतळाचे काही अधिकारी त्यांना तुम्हाला जाता येणार नाही, असे म्हणू लागले.

त्यांच्यातील एका अधिकाऱ्याने त्यांना एक फॉर्म भरायला दिला. जर तुम्ही खोटा प्रवास केला असे सिद्ध झाले, तर तुमच्याकडून दंड वसूल केला जाईल, अशा आशयाचा तो फॉर्म होता. त्या फॉर्मवर तुमच्या व्यवसायाचे स्वरूप लिहायचे होते. त्या जागी त्यांनी ‘Teacher’ असा उल्लेख केला.

तो पाहताच क्षणार्धात तेथील वातावरण बदलले. तो अधिकारी कमरेत वाकून म्हणाला, “We Germans, Believe in two things. One is God..Another is Teacher! ते दोघेही खोटं बोलत नसतात.. मी परमेश्वराला दुखावले आहे. तुम्ही तुमच्या वतीने माझ्यासाठी प्रार्थना करा. म्हणजे मी पापमुक्त होईन…” अशी अॅपॉलॉजी व्यक्त करीत त्या अधिकाऱ्याने देशपांडे दाम्पत्याला थेट विमानात नेऊन बसविले.

प्रवासाच्या शेवटी देशपांडे दाम्पत्य मुंबईत आले. विमानतळावरील ग्रीन बेल्टमधून बाहेर पडण्यासाठी त्यांची धडपड सुरू होती. तेव्हा एका अधिकाऱ्याने त्यांना टोकले. तर दुसऱ्या अधिकाऱ्याने ते काय करतात, त्यांना विचार, असे फर्मान हाताखालच्या अधिकाऱ्यावर बजावले. यांच्या मनात टीचरची प्रतिमा उजळ झाली होती. त्यांनी ताठ मानेने आम्ही टीचर आहोत, असे सांगितले. त्याच्या दुसऱ्याच क्षणाला तो वरिष्ठ अधिकारी ओरडून म्हणाला, ‘अरे वो फटिचर के पास क्या होगा? जाने दो उसे…’ वऱ्हाडकरांचे टीचर नावाचे विमान झटक्यात जमिनीवर आले.

कालांतराने ते औरंगाबादला गेले. काही दिवसांनी त्यांच्या घरी फ्रैंकफर्ट एअरपोर्टवरून एक टपाल आले. ज्यात आपण टीचर असतानाही आम्ही आपल्याला त्रास दिला, त्याबद्दल दिलगिरी व्यक्त करणारे पत्र होते. देशपांडे यांना ते पाहून हसावे की रडावे ते कळेना.

संग्राहिका : सौ. दीप्ती गौतम

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #207 – 93 – “इश्क़ के सौदे में मोल भाव जायज़ नहीं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “इश्क़ के सौदे में मोल भाव जायज़ नहीं…”)

? ग़ज़ल # 93 – “इश्क़ के सौदे में मोल भाव जायज़ नहीं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हमने राज़े मुहब्बत छुपा कर देख लिया,

दिलवर से दिल भी लगा कर देख लिया। 

इश्क़ के सौदे में मोल भाव जायज़ नहीं,

मुहब्बत में दिल भी ठगा कर देख लिया।

हम दुनियावी लेनदेन में हमेशा कच्चे रहे,

हमने ग़मों का हिसाब लगाकर देख लिया।

बस एक ही  मुदावा बचा बीमार के पास,

चुप को उसने  गले लगा कर देख लिया।

दिलजोई में  जो थे  हमारे हमराज़ कभी,

उन्हें भी हमने ग़ैर  बना कर देख लिया।

आँसू बचा कर क्या हुआ हासिल ‘आतिश’

सबने तुम्हें भी खूब रुला कर देख लिया। 

दिल की हमारी झोली रही ख़ाली की ख़ाली,

खुद को ग़म समुंदर में डुबा कर देख लिया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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