हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 236 ☆ लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 236 ☆

? लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर ?

काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की नीली शर्ट, गले में गहरी नीली टाई, कंधे पर लैप टाप का काला बैग, और हाथ में मोबाइल… जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है. मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता, सातों दिन पूरे महीने, टारगेट के बोझ तले. एटीकेट्स के बंधनो में, लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार, बातचीत के दौरान सेलिंग स्ट्रैटजी के अंतर्गत देश दुनिया, मौसम की बाते भी करनी पड़ती, यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है, उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता. डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता. डील के बाद वही “ब्रांड एम्बेसडर” कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता. बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता, उस एक दिन के बादशाह पर. उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है, अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू टर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है. अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है, घर घर.

इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है, अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है,

आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर, झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की भूरी शर्ट, गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये… वह पहले ही जाँच परख चुका था कार, पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे, तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई.. पत्नी और बच्चे “ब्रांड एम्बेसडर” बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे.. निर्णय लिया जा चुका था, सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी. डील फाइनल हो गई. सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे. बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे. आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये, वह एटीकेट्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर. . आज वह “ब्रांड एम्बेसडर” जो था.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 171 – मूरत में ममता – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित अप्रतिम कल्पना से परिपूर्ण एक लघुकथा “मूरत में ममता🙏”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 171 ☆

☆ लघुकथा – 🌷 मूरत में ममता 🙏. 

भरी कालोनी में सजा हुआ दुर्गा मैया का पंडाल। अद्भुत साज सज्जा जो भी देख रहा था मन प्रसन्नता से भर उठता था। दुर्गा जी की प्रतिमा ऐसी की अभी बोल पड़े। गहनों से सजा हुआ शृंगार, नारी शक्ति की गरिमा, दुष्ट महिषासुर का वध करते दिखाई दे रही थी।     

आलोक कालोनी में एक फ्लैट, जिसमे सुंदर छोटा सा परिवार। धर्म पत्नी बड़ी ही होनहार सहनशील और ममता की मूरत। दो बच्चों की किलकारी घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।

आलोक प्राइवेट कंपनी में जाब करता था। परंतु कहते हैं ना कि सब कुछ संपन्न होने के बाद कहीं ना कहीं कुछ रह ही जाता है। उसे शक या वहम की बीमारी थी। इस कारण सभी से कटा- कटा सा रहता था।

पत्नी कल्पना भी किसी से मेल मिलाप नहीं कर पाती थी, क्योंकि यदि बात भी कर ले तो… क्यों आया? कैसे आया? किस लिए आया? कहां से आया? और सवाल ऊपर सवाल करते? दो से चार हाथों की झड़ी भी लग जाती थी।

मोटी-मोटी आँसू की बूँदें लिए कभी कल्पना चुपचाप रहती, कभी सिसकी लेते हुए रोती दिखाई देती थी।

परंतु उसमें अपने पति से लड़ने या बहस कर उसे सच्चाई बताने की ताकत नहीं थी। क्योंकि वह एक गरीब परिवार से ब्याह कर आई। एक बेचारी बनकर रह गई थी।

आज कालोनी में बताया गया की दुर्गा मैया का आज विशेष शृंगार होगा। सभी महिलाएं खुश थी अपने-अपने तरीके से सभी शृंगार सामग्री ले जा रही थी। परंतु कल्पना बस कल्पना करके रह गई।

उसे न जाने का न मन था और न ही उसे कुछ खरीदने की चाहत थी। आलोक के डर के कारण वह जाना भी नहीं चाह रही थी। बच्चों की जिद्द की वजह से आलोक अपने दोनों बच्चों को लेकर माता के पंडाल पर गया।

भजन, आरती और गरबा सभी कुछ हो रहे थे। परंतु आलोक का मन शांत नहीं था। एक दोस्त ने पूछा… क्यों भाई इतनी सुंदर माता की मूरत और आयोजन हो रहा है। आप खुश क्यों नहीं हो।

आलोक ने हिम्मत करके उसे एक कोने में ले जाकर पूछा…. भाई जरा बताना क्या? तुम्हें दुर्गा माता की आँखों से गिरते आँसू दिखाई दे रहे हैं।

उसने जवाब दिया क्या बेवकूफी भरी बातें कर रहा है इतनी प्रसन्नता पूर्वक ममता में माता भला क्यों आँसू गिरायेगी। फिर वह एक दूसरे से पूछा क्या तुम्हें दुर्गा माता के आँसू दिखाई दे रहे हैं। उसने जवाब दिया मुझे तो सिर्फ ममतामयी वरदानी और अपने बच्चों के लिए हँसती हुई प्यार बांँटने वाली दिखाई दे रही है।

वह बारी-बारी से कई लोगों को पूछा सभी ने जवाब में दिया कि भला माता क्यों रोएगी। अब तो उसके सब्र का बाँध टूट गया।

बच्चों को पंडाल में सुरक्षित जगह पर बिठाकर। वह दौड़कर अपने घर की ओर भागा। जैसे ही दरवाजा खुला लाल साड़ी से सजी उसकी कल्पना आँसुओं की धार बहते दरवाजा खोलते दिखाई दे गई।

बस फिर क्या था वह कसकर उससे लिपट गया और कहने लगा मैं आज तक समझ नहीं सका तुमको मुझे माफ कर दो। चाहो तो मुझे कोई भी सजा दे सकती हो परंतु मुझे कभी छोड़कर नहीं जाना।

कल्पना इससे पहले कुछ कह पाती वह झट से अलमारी खोल लाल चुनरी निकाल लिया और कल्पना के सिर पर डाल कर उसके मुखड़े को देखने लगा।

आज मूरत में जो ममता और करुणा नजर आया था। वह कल्पना के मुखड़े पर साकार देखा और देखता  ही जा रहा था। बस उसकी आँखों से पश्चाताप अंश्रु धार बहने लगी। कल्पना सब बातों से अनभिज्ञ थी। पर उसे आज अच्छा लगा।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 56 – देश-परदेश – आज का मक्खन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 56 ☆ देश-परदेश – आज का मक्खन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज सांय रेडियो पर एक गीत “ओ मेरे मखना मेरी सोनिए” बज रहा था, तो मक्खन शब्द पर मन में अनेक विचार आने लगे। हमारे परिवार में एक बुजुर्ग भी “मक्खन लाल” के नाम से जाने जाते थे। जब नौकरी आरंभ हुई तो वरिष्ठ साथी कहने लगे मक्खन लगाना सीख लो, तभी ऊंचाई तक पहुंच पाओगे।

अब तो नाश्ते में भी “ब्रैड बटर” को प्रमुखता दी जाती हैं।

विगत दो दशकों से “ढाबा” संस्कृति का चलन बहुत अधिक हो गया हैं। घर का भोजन छोड़ बाहर के भोजन को प्राथमिकता दी जाने लगी है। आजकल किसी भी ढाबे पर जाओ मक्खन दिल खोल कर खिला रहा है। खाने के साथ कटोरी में या परांठों के ऊपर मक्खन के बड़े से क्यूब रख दिए जाते हैं या फिर इस मक्खन को दाल और सब्जियों के ऊपर गार्निश की तरह डाल दिया जाता है।  

खाने वाले गदगद हो जाते हैं कि देखो क्या कमाल का होटल है पूरा पैसा वसूल करवा रहा है।

ये मक्खन नहीं सबसे घटिया पाम आयल से बनी मार्जरीन है।

बटर टोस्ट, दाल मखनी, बटर ऑमलेट, परांठे, पाव भाजी, अमृतसरी कुल्चे, शाही पनीर, बटर चिकन और ना जाने कितने ही व्यंजनों में इसे डेयरी बटर की जगह इस्तेमाल किया जा रहा है और आपसे दाम वसूले जा रहे हैं डेयरी बटर के।

कुछ लोगों को ढाबे पर दाल में मक्खन का तड़का लगवाने और रोटियों को मक्खन से चुपड़वा कर खाने की आदत होती है। उनकी तड़का दाल और बटर रोटी में भी यही घटिया मार्जरीन होती है।    

लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए इसे जीरो कोलेस्ट्रॉल का खिताब भी हासिल है। क्योंकि मेडिकल लॉबी ने लोगों के दिमाग में ठूंस दिया है कि बैड कोलेस्ट्रॉल ह्रदय आघात का प्रमुख कारण है। इसीलिये आजकल जिस भी चीज पर जीरो कोलेस्ट्रॉल लिखा होता है जनता उसे तुरंत खरीद लेती है। इस प्रकार के उत्पाद जो किसी असली चीज का भ्रम देते हैं उनपर सरकार को कोई ठोस नियम बनाना चाहिए।

सरकार को चाहिये इस मार्जरीन का रंग डेयरी बटर के रंग सफ़ेद और हल्के पीले के स्थान पर भूरा आदि करने का नियम बनाये जिससे लोगों को इस उत्पाद को पहचानने में सुविधा हो ताकि उन्हें मक्खन के नाम पर कोई मार्जरीन ना खिला सके… आप मार्जरीन के बारे मे और अधिक गूगल पर सर्च कर सकते है यह मक्खन नहीं है।

इसलिए बाज़ार के मक्खन का उपयोग दूसरों को लगाने में ही करें। आपके अटके हुए कार्य इत्यादि जल्द पूरे हो जाएंगे। यदि मक्खन खाना है, तो घर में बनाया हुआ ही खाए और स्वस्थ रहें।

मदनगंज किशनगढ़ (राजस्थान) में “पहाड़िया” के मक्खन वड़े बहुत प्रसिद्ध होते हैं। कहते हैं, सबके साथ खाने से जल्दी हजम हो जाते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #210 ☆ हरला नाही… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 210 ?

☆ हरला नाही… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

भात्यामधला बाणच त्याच्या सुटला नाही

जखमी झाले कशी जरी तो भिडला नाही

मला न कळले कधी निशाणा धरला त्याने

नेम बरोबर बर्मी बसला चुकला नाही

माहिर होता अशा सोंगट्या टाकायाचा

डाव कुणाला कधीच त्याचा कळला नाही

बऱ्याच वेळा चुका जाहल्या होत्या माझ्या

तरी कधीही माझ्यावरती  चिडला नाही

गुन्हास नसते माफी आहे सत्य अबाधित

कधीच थारा अपराधाला दिधला नाही

जुनाट वाटा किती चकाचक झाल्या आता

कधी चुकीच्या वाटेवरती वळला नाही

गुलाम होता राजा झाला तो कष्टाने 

काळासोबत युद्ध छेडले हरला नाही

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 161 – गीत – मूरत रखकर मन मंदिर में… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – मूरत रखकर मन मंदिर में।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 161 – गीत – मूरत रखकर मन मंदिर में…  ✍

मूरत रखकर मन मंदिर में

पूजा किया करूँगा

हाजिर नहीं रहूँगा

 

भीड़ भरा है तीरथ तेरा

अविरल यात्री आते

आँखों के इस घटाटोप में

तेरा चेहरा देख न पाते

धक्का मुक्की के ये करतब, मैं तो नहीं करूँगा।

 

सब दर्शन की खातिर आते

पर पूजन का ढोंग रचाते

तेरा रूप चुराने वाले

गढ़ लेते हैं रिश्ते नाते

रिश्तों की इस भागदौड़ में मैं तो नहीं पडूंगा।

 

सिर्फ हाजिरी से क्या होता

असली चीज समर्पण होती

अपनी अपनी प्रेम पिपासा

अपना अपना दर्पण होती

यह जीवन तुमको ही अर्पित क्या उपयोग करूँगा।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 211 ☆ “कमी नहीं है कद्रता की…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका संस्मरण – “कमी नहीं है कद्रता की…)

☆ संस्मरण – “कमी नहीं है कद्रता की…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

देखा जाए तो संघर्ष का नाम ही जीवन है, इस दुनिया में हम खाली हाथ आते हैं और खाली हाथ जाते हैं, बीच का समय होता है और इस बीच के समय में जिसने संघर्ष से नजर मिला ली उसने जीवन जीत लिया।

यदि मन में हो संकल्प और इरादे हों मजबूत तो कोई भी इंसान मेहनत कर अपनी मंजिल हासिल कर सकता। उमरिया जिले के बियाबान जंगल के बीच बसे पिछड़े आदिवासी गांव का प्रताप गौड़ जब घिटकते घिसटते स्टेशन रोड स्थित ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आरसेटी) उमरिया के आफिस पहुंचा तो उसकी आंखों में चमक थी, उसके अंदर जुनून की ज्वाला भभक रही थी उसके अंदर कुछ सीखने की ललक अंगड़ाई ले रही थी, उसने बताया कि वह चंदिया के पास एक गांव का रहने वाला है,गौंड़ जाति का है उसका नाम गरीबी रेखा में है और वह आठवीं पास है,दो दिन बाद आरसेटी में ड्रेस डिजाइन का प्रशिक्षण चालू होने की खबर से वह तीस चालीस किलोमीटर दूर गांव से घिसटते घिसटते आया था, उसके दोनों पैर पोलियो से बचपन मे खराब हो गए थे और वह चल फिर नहीं सकता था दोनों हाथ ही उसके दो पैर का भी काम करते थे, उसको देखकर दया आई, पर उसके जुनून और कुछ करने की तमन्ना को देखते हुए हमने ड्रेस डिजाइन के पचीस दिवसीय प्रशिक्षण में उसका एडमिशन कर लिया। चौबीस और प्रशिक्षणार्थियों को शामिल किया गया जो उमरिया जिले के अलग-अलग गांवों से आए हुए थे। आवासीय प्रशिक्षण में एडमिशन पाकर प्रताप खुश था। उसकी दिनचर्या अन्य बच्चों से अधिक आदर्श थी सुबह जल्दी उठकर नहा-धोकर पूजा पाठ करता समय पर तैयार हो जाता। हर काम करने में अव्वल रहता।  पच्चीस दिनों में उसने अपना एक अलग इम्प्रेसन बना लिया था। अब वह कुछ करना चाहता था। गांव में गरीबी थी, पिता बीमार रहते थे बहुत गरीब थे घर में एक जून की रोटी मिल जाए ये भी भाग्य की बात होती थी। प्रताप को रोजगार से लगाने की चिंता सभी को हुई। जिला उद्योग केन्द्र से उसका रोजगार योजना का केस बनवाया गया। केस उसके गांव के पास की स्टेट बैंक की चंदिया शाखा भिजवाया गया। फिर ड्रेस डिजाईन व्यवसाय को अपना कर एक अच्छी जिंदगी की शुरुआत करने की तमन्ना लेकर विकलांग बालक प्रताप सिंह गोँड के जीवन मे उम्मीद की किरण भारतीय स्टेट बैंक चँदिया शाखा के वित्त पोषण से हुई ।

उसने एसबीआई आर सेटी उमरिया से ड्रेस डिजाईन का प्रशिक्षण प्राप्त किया जिला उद्योग व्यापार  केंद्र ने रानी दुर्गावती योजना मे  उसका  ऋण प्रकरण बनाया और चँदिया शाखा से उसका  ऋण स्वीकृत हो गया । एक कार्यक्रम के दौरान हमारी उपस्थिति में परसाई शाखा प्रबंधक एवं अन्य गणमान्य नागरिकों के बीच प्रताप सिंह को सिलाई मशीन, इंटरलॉक मशीन, अलमारी, और कपड़े खरीदने हेतु चेक का वितरण एसबीआई आर सेटी उमरिया के माध्यम से किया गया। प्रताप सिंह गोँड ने इस अवसर पर बताया की स्टेट बैंक चँदिया ने उसे नया जीवन प्रदान किया और बैंक द्वारा दिये गए समान से यह अपनी बेरोजगारी एवं गरीबी को ख़त्म करके रहेगा। उसने अपने गांव में एक छोटी सी दुकान खोली और अपने हुनर से आसपास के गांव से उसके पास सिलाई कढ़ाई के काम आने लगे, व्यवहार, समयबद्धता और अपने काम से उसके पास भीड़ लगने लगी।  फिर उसने एक दो दोस्तों को काम सिखा कर उन्हें भी रोजगार दे दिया, बैंक की हर किश्त हर महीने की पांच तारीख को जमा होती बैंक वाले भी आश्चर्यचकित कि उन्हें ऐसा पहला ग्राहक मिला जो हर पांच तारीख को किश्त चुकाता है जबकि बैंक का बीसों साल का रिकॉर्ड था कि शासकीय योजनाओं में लोग पांच पांच साल किश्त नहीं चुकाते।

एक दिन मोबाइल में किसी मित्र का मोबाइल नंबर ढूंढते हुए अचानक प्रताप के गांव के सरपंच का नंबर दिख गया। प्रताप गौंड़ की याद आ गई, फिर सरपंच ने प्रताप का मोबाइल नंबर दिया।  प्रताप के नंबर को मिलाया, वहां से एक ताजगी भरी आवाज आयी एक छोटी बच्ची पूंछ रही थी अंकल आप किससे बात करना चाहते हैं, मैंने प्रताप गौंड़ का नाम बताया। उसकी फोन पर आवाज आयी पापा किसी अंकल का फोन है। मुझे बेहद खुशी हुई।  प्रताप आत्मनिर्भर होकर बाल बच्चे वाला हो गया है।  प्रताप से पता चला कि उसने रेडीमेड गारमेंट का कारखाना खोल लिया था और ऊपर वाले की कृपा से अब सब कुछ है हमारे पास…. आपने और बैंक ने हमें इस काबिल बनाया कि हमारे सब दुख दूर हो गये और अब हम ईमानदारी से इन्कम टैक्स भरने लगे हैं। आज ग्यारह साल हो गए इस बात को…  जब प्रताप घिसटते घिसटते मेरे आफिस के बाहर मुझे कातर निगाहों से देख रहा था। मुझे लगा वो सारे लोग जो हमारे आसपास अनन्त सम्भावनाओं से भरे होते हैं पर कई बार अवसरों के अभाव में, तो कई बार जानकारी और संसाधनों के अभाव में अपनी क्षमताओं का भरपूर उपयोग नहीं कर पाते उनके लिए उनके कहे बिना कुछ ऐसा कर कर देना जिससे उनका वर्तमान और भविष्य बेहतर बन जाए कितनी सुन्दर बात है ना…।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 152 ☆ # काले कौए # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# काले कौए #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 152 ☆

☆ # काले कौए #

हमारे एक मित्र ने पूछा –

भाई!

आजकल पितृपक्ष में

काले कौए क्यूं नहीं

दिखाईं देते हैं ?

मैंने कहा –

क्योंकि, 

हम साल भर उनकी

सुध नहीं लेते हैं

ना दाना

ना पानी

देते है

वो बोला –

पर यार

पितृपक्ष में

हम उनको

श्रद्धा से बुलाते हैं

अपने पूर्वजों की तरह पूजते हैं

पितरों को जल अर्पित कर

पंच पकवान थाली में रखते हैं

मै बोला, भाई –

तुम्हारे यह टोटके

पुराने हो गए हैं

वो भी नये जमाने में

सयाने हो गए हैं

पहले मुंडेर पर

कौए बैठा करते थे

जब हम छोटे

हुआ करते थे

अब ना तो गांव रहे

ना पेड़ पर

कांव कांव रहे

जो बचे हैं

वो भी अकड़ में

रहते हैं

अपनी मर्ज़ी से आयेंगे

कहते हैं

आजकल शहर में

सफेद बगुलों की

संख्या कितनी बढ़ गई है

इसलिए कौओं की मति भी

थोड़ी चढ़ गई है

भाई, जब-तक सफेद बगुलों पर

नियंत्रण नही लगाओगे ?

तब तक काले कौओं को

बचा नही पाओगे?

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 147 ☆ सत्यपरिस्थिती ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 147 ? 

☆ सत्यपरिस्थिती… 

अध्याय माझा संपेल

मी रुद्र भूमीत असेल 

घरी पेटतील चुली

सडा सारवण होईल 

 

 जेवायला बसतील सर्व

अश्रू डोळ्यांचे थांबतील 

माझ्याच घरातील सर्व

भोजनाचा स्वाद घेतील… 

 

 स्वाद घेत घेत भोजनाचा

आग्रह एकमेकांना होईल 

रुदन संपेल त्या क्षणाला

कामाला हात लागतील…

 

 हे जीवन क्षणभंगुर

इथे कुणाचे स्थिर ते काय 

आला त्याला जावे लागणार

यात आश्चर्य नाय…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 214 ☆ कथा कहानी – सवारी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी ‘सवारी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 214 ☆

☆ कहानी – सवारी 

जग्गू अपना रिक्शा लेकर सुबह पाँच बजे स्टेशन पहुँच गया। ट्रेन साढ़े पाँच बजे आती है। कई बार लेट भी हो जाती है। सर्दियों में यह ट्रेन तकलीफ देती है। पाँच बजे पहुँचने के लिए चार बजे उठना पड़ता है। एक तरफ अँधेरे और दूसरी तरफ ठंड से जूझना पड़ता है। गनीमत यह है कि स्टेशन छोटा होने की वजह से उसे सब जानते हैं, इसलिए रेलवे के साहब लोग अगर किसी कोने में अलाव जलाकर तापते मिल गये तो वहीं धीरे से घुस जाता है। उसकी पूछ-कदर इसलिए भी है कि स्टेशन पर दो ही रिक्शे हैं, इसलिए बाबुओं को अटके-बूझे उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन ट्रेन आने पर रिक्शे पर रहना ही सुरक्षित होता है क्योंकि सवारी सीधे रिक्शे पर पहुंचकर उसकी घंटी टुनटुनाती है।

उसके अलावा दूसरा रिक्शा रघुवीर का है। उन दोनों को छोड़कर कोई तीन किलोमीटर दूर गाँव में जाना चाहे तो पाँवगाड़ी इस्तेमाल करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।

स्टेशन के बाहर गुलाब का स्टोव भर्र-भर्र जल रहा है। गुलाब सवेरे साढ़े चार बजे तक दूकान में जम जाता है। सोता भी दूकान में ही है। दोपहर से शाम तक मदद करने के लिए एक लड़का आ जाता है जिसे उसने असिस्टेंट के तौर पर रख लिया है। गुलाब की दूकान अच्छी चल जाती है। गाँव के लड़कों और बूढ़ों को करने धरने को कुछ होता नहीं, इसलिए जब जिसका मुँह उठा, स्टेशन चला आता है। कुछ ऐसे हैं जो दिन भर गुलाब की बेंच पर जमे रहते हैं। भूख लगने पर कागज़ पर नमकीन लेकर खाया, ऊपर से एक ‘कट’ चाय। घर में सोने से तो भला, स्टेशन पर कुछ चहल-पहल रहती है। ट्रेनों की खिड़कियों से झाँकते बहुत से नये चेहरे दिख जाते हैं, जिन्हें देखकर ज़िन्दगी में थोड़ी रौनक आ जाती है। गाँव के युवक ट्रेनें आने पर उनके सामने जा खड़े होते हैं, फिर उनके चले जाने पर वापस दूकानों की बेंचों पर आ जमते हैं।
उस दिन ट्रेन रुकी तो जग्गू उम्मीद से सवारियों की तरफ देखता रहा। अचानक उसकी आँखें चमकीं। साफ-सफेद कुर्ते धोती में एक सयाने, गोल-मटोल सज्जन छोटा सूटकेस लिये बाहर निकल रहे थे। शरीर के रख-रखाव, सुनहरे फ्रेम वाले चश्मे, घड़ी की चेन और हाथ की अँगूठियों से ज़ाहिर था कि आदमी ऊँचे तबके का, सुख-सुविधा संपन्न है। जग्गू ने देखा उनका चेहरा मक्खन से तराशा हुआ लगता था, हाथों की हथेलियाँ गुलाबी और मुलायम। उसके जैसी खुरदरी और गुट्ठल वाली नहीं।

जग्गू ने बढ़कर उनके हाथ से सूटकेस ले लिया। बोला, ‘आइए बाबूजी, कहाँ जाएँगे?’

वे सज्जन धोती के छोर से चेहरा पोंछते हुए बोले, ‘चतुर्वेदी जी के यहाँ जाना है। आज उनकी तेरही है। जानते हो?’

जग्गू बोला, ‘गाँव में सब को एक दूसरे के घर की गमी और खुसी का पता रहता है। चौबे जी का घर हमें मालूम है। चौबाइन के साथ अकेले तो रहते थे। अभी तो खूब भीड़-भाड़ है। सब लोग आये हैं।’

वे सज्जन थोड़ा सावधान हुए, बोले, ‘पैसे कितने होंगे?’

जग्गू बोला, ‘तीस रुपया होगा। बँधा बँधाया रेट है। यही मिलता है।’

सज्जन ने अपने शहरी चातुर्य को जग्गू की ग्रामीण व्यवहारिकता से भिड़ाया, बोले, “ज्यादा है। वह तो गाँव दिखता है।’

जग्गू बोला, ‘दिखता तो है, पर रास्ता बहुत खराब है। बहुत मसक्कत करनी पड़ती है। टाइम भी ज्यादा लगता है।’

सज्जन बोले, ‘बीस रुपये में चलना हो तो चलो।’

जग्गू ने हाथ जोड़े, कहा, ‘नहीं होगा साहब। बहुत कम है।’

सज्जन ने थोड़ी दूर पर खड़े दूसरे रिक्शे पर नज़र डाली। बोले, ‘दूसरे रिक्शेवाले से भी पूछ लेते हैं।’

जग्गू हँसा, बोला, ‘कोई फायदा नहीं है बाबूजी। रघुवीर का बाप सवेरे पाँच बजे उसे ढकेल कर  घर से बाहर कर देता है। वह यहाँ आकर रिक्शे में सो जाता है। आप कोसिस कर लीजिए, वह उठेगा नहीं। थोड़ी देर बाद उठकर चाय पियेगा, फिर बीड़ी के सुट्टे लगाएगा। उसके बाद ही किसी सवारी को बैठने देगा।’

सज्जन ने पैंतरा बदला, बोले, ‘अच्छा, चौबे जी के लड़के जो कहेंगे वह दे देंगे।’

जग्गू ऐसे लोगों को जानता है। वे गरीबों का पेट मारने के बहुत तरीके जानते हैं। ठंडी आवाज़ में बोला, ‘तीस रुपये से कम नहीं होगा बाबूजी। सोच लें।’

सज्जन हार गये। झुँझलाकर बोले, ‘ठीक है, चलो। अकेले होने का फायदा उठा रहे हो।’

जग्गू ने कोई जवाब नहीं दिया। उसका काम हो गया था। अब फालतू की झिकझिक करने से क्या फायदा?

सज्जन आकर रिक्शे के बगल में खड़े हो गये। जग्गू ने दो बार सीट पर हाथ मार कर उसकी धूल झाड़ी, फिर कहा, ‘आइए, बैठिए।’

लेकिन उन सज्जन के लिए बैठना आसान नहीं था। सीट की पुश्त और सामने लगी पट्टी को पकड़कर वह बड़ी मुश्किल से सीट की ऊँचाई तक अपने को उठा सके। सीट पर बैठ जाने तक उनके हाथ और पाँव थरथर काँपते रहे। ज़ाहिर था कि उन्हें रिक्शे में बैठने का अभ्यास नहीं था। सीट पर बैठ कर उन्होंने फिर मुँह पोंछा, साथ ही बुदबुदाये— ‘क्या सवारी है!’

जग्गू ने घुमा कर रिक्शा पुलिया से बाहर निकाला और कीचड़, गढ्ढों और गोबर से बचाता चल दिया। गढ्ढों से बचाने के उपक्रम में रिक्शा सर्पाकार चल रहा था और वे सज्जन आलू के बोरे की तरह दाहिने बाएँ हिल रहे थे। आखिरकार जब उनकी बर्दाश्त से बाहर हो गया तो गुर्राये, ‘जरा ठीक से चलो। पेट की अँतड़ियाँ हिली जा रही हैं।’
जग्गू को ऐसी नकचढ़ी सवारियों से चिढ़ होती है। वह मौजी आदमी है। दिन भर रिक्शा चलाने के बाद शाम से इधर-उधर कीर्तन- भजन की बैठकों में मस्त रहता है। उस वक्त कोई रिक्शा खींचने के लिए बुलाये तो उसे भारी चिढ़ लगती है। लिहाज न हो तो कितना बुलाने पर भी नहीं जाता। दिवाली के टाइम आठ दस दिन की पक्की छुट्टी लेता है। ‘मौनियाँ ‘ के दल के साथ कमर में कौड़ियों की करधनी पहने, हाथ में मोरपंख लिये गाँव-गाँव घूमता और नाचता है। नाच के कपड़ों पर तीन चार सौ खर्च करने में उसे कोई तकलीफ नहीं होती।

उन सज्जन के चेहरे पर अरुचि और तकलीफ का भाव साफ झलक रहा था। गाँव की सड़क शुरू हो गयी थी। तीन चार साल पहले बनी थी, लेकिन बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों और ट्रकों के चलने के कारण बिल्कुल चौपट हो गयी थी। अब तो रिक्शे को एक एक कदम सँभाल कर ले जाना पड़ता है। कई जगह उतर कर खींचना पड़ता है। बस पैदल आदमी ही सुकून से चल सकता है।

जग्गू का मन हुआ रास्ता काटने के लिए कोई तान छेड़े। एक रोमांटिक गाना ‘साढ़े तीन बजे मुन्नी जरूर मिलना’ उसका प्रिय है। अक्सर उसी को छेड़ता है। लेकिन सवारी के चेहरे पर साच्छात सनीचर बैठा देख उसकी उमंग को लकवा लग गया। भगवान ऐसी मनहूस सवारी न भेजे।

गाँव की राह पर आने के बाद उन सज्जन का जबड़ा खुलता है। लगता है उन्हें भी ज्यादा देर चुप रहने की आदत नहीं है। जैसे अपने आप से कहते हैं—‘ पंद्रह साल बाद रिक्शे पर बैठा हूँगा। जरूरत ही नहीं पड़ती। घर में दो कारें हैं, ड्राइवर है। थोड़ी दूर भी जाना हो तो कार से जाते हैं।’

जग्गू मुँह फेरकर ‘अच्छा’ कहता है, लेकिन वह जान जाता है कि रिक्शे पर बैठना सवारी को भाया नहीं। उसका मन खट्टा हो जाता है।

कारन यह है जग्गू को अपने रिक्शे पर बड़ा नाज़ है। बैंक से लोन ले कर लिया है। गाँव में सिर्फ दो रिक्शे होने से वैसे भी वह अपने को विशिष्ट समझता है। धर्मी-कर्मी आदमी है, इसलिए जैसे शरीर को साफ-सुथरा रखता है, वैसे ही रिक्शे को भी धो-पोंछ कर रखता है। रिक्शे के बारे में कोई ऊटपटाँग टिप्पणी कर दे तो उसका मन आहत हो जाता है।

वे सज्जन आगे बोल रहे थे— ‘चतुर्वेदी जी हमारे समधी होते थे। अभी दो साल पहले रिटायर होने पर यहाँ आ बसे थे। इसीलिए हमारा यहाँ कभी आना नहीं हुआ।’
जग्गू ने फिर मुँह फेर कर ‘हाँआँ ‘ कहा।

वे कुछ और बोलने जा रहे थे, तभी रिक्शे के गढ्ढे में फँसने से उनकी देह पूरी हिल गयी।जग्गू के रिक्शे की सीट आगे की तरफ थोड़ा ढालू थी। कोई गढ्ढा आ जाए तो शरीर आगे की तरफ भागता था, और आदमी सावधान न हो तो घुटने आगे पटिये में टकराते थे। यही उन सज्जन के साथ हुआ। वे ज़ोर से चिल्लाये, ‘क्या करता है? देख के चल। घुटने टूटे जा रहे हैं।’

जग्गू का मन बुझ गया। गाँव के लोग उसके रिक्शे पर बैठना सौभाग्य समझते हैं। चिरौरी कर कर के बैठते हैं। गाँव के लालता बनिया का लड़का तो चाहे जब आ बैठता है और रिक्शा खाली हो तो घंटों घूमता है। कहता है, ‘बहुत मजा आता है।’ उसे घुमाने में जग्गू को भी मज़ा आता है क्योंकि उसके मुँह से तारीफ सुनकर जग्गू गदगद हो जाता है। रिक्शे ने गाँव में जग्गू की पोजीशन बना दी है। रोज दो चार लोग उसकी खुशामद करते हैं। और एक यह सवारी है जो उसे कोसे जा रही है।

गढ्ढे से बाहर निकले तो उन सज्जन ने घड़ी देखी, बोले, ‘सात आठ मिनट तो हो गये।कहाँ है तुम्हारा गाँव?’

जग्गू चिढ़कर बोला, ‘गाँव जहाँ है वहीं है, बाबूजी। रास्ता खराब है इसलिए देर हो रही है।’

रिक्शा फिर रास्ते के हिसाब से डगमग होता चल दिया।

सज्जन थोड़ी देर में बोले, ‘दो-चार दिन यहाँ रिक्शे पर बैठेंगे तो हड्डियों का चूरा हो जाएगा। महीना भर अस्पताल सेना पड़ेगा।’

जग्गू का मन बिलकुल बुझ गया। ऐसी सवारी मिल जाए तो पूरा दिन खराब हो जाता है। यह आदमी पन्द्रह मिनट से उसकी रोजी को कोस रहा है।

उसने धीरे से कहा, ‘कार से ही आ जाते बाबूजी।’

बाबूजी उसके व्यंग्य को नहीं समझ पाये। दुखी भाव से बोले, ‘कार से इतनी दूर कहाँ आएँगे? सब तरफ सड़कों की हालत खस्ता है।’

जग्गू मन में बोला, तो फिर गाँव की सड़क और उसके रिक्शे को क्यों कोस रहे हो? प्रकट बोला, ‘चौबे जी के यहाँ खबर करके गाड़ी बुलवा लेते। वहाँ तो दो तीन गाड़ियाँ खड़ी थीं।’

सज्जन फिर दुखी भाव से बोले, ‘दो तीन बार फोन लगाया, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। लगता है सब सो रहे हैं।’

रिक्शा खींचते खींचते जग्गू को हाँफी  चढ़ रही थी। रास्ते में एक घर के सामने चाँपाकल के पास रिक्शा रोक दिया,बोला, ‘ एक मिनट जरा पानी पी लूँ।’

सज्जन और चिढ़ गये, बोले, ‘हाँ हाँ, जरूर पियो। बीड़ी वीड़ी भी पी लो। क्या जल्दी है?’

जग्गू खिसिया कर बोला, ‘बीड़ी वीड़ी हम नहीं पीते। गला सूख रहा है इसलिए थोड़ा पानी पी लेते हैं।’

सज्जन ने भी पिछले स्टेशन से खरीदी बोतल से दो घूँट पानी पिया। रास्ते में कहीं पानी नहीं पिया जा सकता। यहाँ बीमार पड़ जाएँ तो तीमारदारी के लिए डॉक्टर भी नहीं मिलेगा।

रिक्शा फिर किसी आर्थ्राइटिस के मरीज़ जैसा दाहिने बायें झूमता आगे बढ़ा। सज्जन का चेहरा तकलीफ और आक्रोश से विकृत हो रहा था। थोड़ा आगे बढ़ने पर वे बोले,

‘यहाँ कम से कम एक ऑटो होना चाहिए। रिक्शे में तो हाथ-पाँव टूटना है।’

जग्गू को और चिढ़ लगी। एक तो ढो कर ले जा रहे हैं, ऊपर से बार-बार गाली दे रहा है। बोला, ‘यहाँ ऑटो खरीदने के लिए पैसा किसके पास है? आप जैसे बड़े आदमी ही खरीद सकते हैं। फिर ऑटो के लायक कमाई भी तो होना चाहिए।’   

सज्जन कुछ नहीं बोले। अगली चढ़ाई चढ़ते ही झुटपुटे में आधा ढँका गाँव सामने आ गया। सज्जन के चेहरे पर राहत का भाव आया।

अचानक गाँव के बीच से एक कार ‘पें पें ‘ हॉर्न बजाती, धूल उड़ाती, रिक्शे के सामने आकर रुक गयी। कार में से दो युवक उतरे। सज्जन के पाँव छूकर बोले, ‘आ गये, बाबूजी? माफ करें, हमें निकलने में थोड़ी देर हो गयी। रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई?’

सज्जन का चेहरा अब बिलकुल तनावमुक्त हो गया था। जग्गू की तरफ देख कर बोले, ‘तकलीफ तो बहुत हुई, लेकिन अब तुम लोग आ गये हो तो सब ठीक है। बाकी यहाँ रिक्शे पर चढ़ना सजा जैसा है।’

युवकों ने उनका सूटकेस उठाकर कार में रख लिया। वे पैसे देने लगे तो युवकों ने उन्हें बरज दिया। जग्गू से बोले, ‘घर से ले लेना।’

सज्जन ने कार में बैठकर ज़ोर की साँस ली, बोले, ‘चलो भैया, मुक्ति मिली।’

कार मुड़कर गाँव की तरफ बढ़ी तो धूल का ग़ुबार आकर जग्गू के शरीर और रिक्शे पर बैठ गया। वह अँगौछे से मुँह पोंछता कभी दूर जाती कार और कभी अपने रिक्शे को देखता रहा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 213 – सार्थक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 213 सार्थक ?

जीवन मानो एक दौड़ है। जिस किसी से पूछो, कहता है; वह दौड़ना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है। फिर बताता है कि अब तक जीवन में कितना आगे बढ़ चुका है। अलबत्ता कभी विचार किया कि आगे यानी किस ओर बढ़ रहे हैं? मनुष्य प्रतिप्रश्न दागता है कि यह कैसा निरर्थक विचार है? स्वाभाविक है कि जीवन की ओर बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि प्रश्न तो सार्थक ही था पर मनुष्य का उत्तर नादानी भरा है। जीवन की ओर नहीं बल्कि मनुष्य मृत्यु की ओर बढ़ रहा होता है।

भयभीत या अशांत होने के बजाय शांत भाव से तार्किक विचार अवश्य करना चाहिए। मनुष्य चाहे न चाहे, कदम बढ़ाए, न बढ़ाए, पहुँचेगा तो मृत्यु के पास ही। मनुष्य के वश में यदि पीछे लौटना होता तो वह बार-बार लौटता, अनेक बार लौटता, मृत्यु तक जाता ही नहीं, फिर लौट आता, चिरंजीवी होने का प्रयास करता रहता।

स्मरण रखना, मृत्यु का कोई एक गंतव्य नहीं है,  बल्कि यात्रा का हर चरण मृत्यु का स्थान हो सकता है, मृत्यु का अधिष्ठान हो सकता है। विधाता जानता है मनुष्य की वृत्ति, यही कारण है कि कितना ही कर ले जीव, पीछे लौट ही नहीं सकता। जिज्ञासा पूछती है कि लौट नहीं सकते तो विकल्प क्या है? विकल्प है, यात्रा को सार्थक करना।

सार्थक जीने का कोई समय विशेष नहीं होता। मनुष्य जब अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य होता है, फिर वह अवस्था का कोई भी पड़ाव हो, उसी समय से जीवन सार्थक होने लगता है।

एक बात और, यदि जीवन में कभी भी, किसी भी पड़ाव पर मृत्यु आ सकती है तो किसी भी पड़ाव पर जीवन आरंभ क्यों नहीं हो सकता? इसीलिए कहा है,

कदम उठे,

यात्रा बनी,

साँसें खर्च हुईं

अनुभव संचित हुआ,

कुछ दिया, कुछ पाया

अर्द्धचक्र पूर्ण हुआ,

भूमिकाएँ बदलीं-

शेष साँसों को

पाथेय कर सको

तो संचय सार्थक है

अन्यथा

श्वासोच्छवास व्यर्थ है..!

ध्यान रहे, जीवन में वर्ष तो हरेक जोड़ता है पर वर्षों में जीवन बिरला ही फूँकता है। आपका बिरलापन प्रस्फुटन के लिए प्रतीक्षारत है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज  दि. 15 अक्टूबर 2023 से नवरात्रि साधना आरंभ होगी। इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

🕉️ 💥 देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे। अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे। सदा की भाँति आत्म-परिष्कार तथा ध्यानसाधना तो चलेंगी ही। मंगल भव। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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