(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत – “अपना भारत…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ बाल गीतिका से – “अपना भारत” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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अपना भारत है सबसे पुराना दुनिया का एक अद्भुत खजाना
पेड़, पर्वत, नदी और नाले, खेत, खलिहान वन सब निराले
यहीं गंगा है औ’ वह हिमालय जिसको दुनिया ने बेजोड़ माना ॥
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इसकी धरती उगलती है सोना, कला हाथों का मानो खिलौना
आज नई रोशनी में भी दिखता इसका इतिहास सदियों पुराना ॥
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जो विदेशों से भी यहाँ आये, वे भी बस गये, रहे न पराये
लोगों में है मोहब्बत कुछ ऐसी, जानते सबको अपना बनाना ॥
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गाँवों में आज भी है सरलता, नगरों में तो है नव युग मचलता ।
बढ़ते – विज्ञान को भी हमें ही प्रेम का रास्ता है दिखाना
गाँधी-नेहरू का जैसा था सपना, बनाना वैसा भारत है अपना ।
हमें मिल जुल के बढ़ना है आगे, देखकर के बदलता जमाना ॥
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं और तुम का झमेला। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 199 ☆
☆ मैं और तुम का झमेला☆
‘जिंदगी मैं और तुम का झमेला है/ जबकि सत्य यह है/ कि यह जग चौरासी का फेरा है/ और यहां कुछ भी ना तेरा, ना मेरा है/ संसार मिथ्या, देह नश्वर/ समझ ना पाया इंसान/ यहाँ सिर्फ़ मैं, मैं और मैं का डेरा है।” जी हाँ– यही है सत्य ज़िंदगी का। इंसान जन्म-जन्मांतर तक ‘तेरा-मेरा’ और ‘मैं और तुम’ के विषैले चक्रव्यूह में उलझा रहता है, जिसका मूल कारण है अहं– जो हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। इसके इर्द-गिर्द हमारी ज़िंदगी चक्करघिन्नी की भांति निरंतर घूमती रहती है।
‘मैं’ अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव उक्त भेद-विभेद का मूल कारण है। यह मानव को एक-दूसरे से अलग-थलग करता है। हमारे अंतर्मन में कटुता व क्रोध के भावों का बीजवपन करता है; स्व-पर व राग-द्वेष की सोच को हवा देता है –जो सभी रोगों का जनक है। ‘मैं ‘ के कारण पारस्परिक स्नेह व सौहार्द के भावों का अस्तित्व नहीं रहता, क्योंकि यह उन्हें लील जाता है, जिसके एवज़ में हृदय में ईर्ष्या-द्वेष के भाव पनपने लगते हैं और मानव इस मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है; जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है। इतना ही नहीं, हम उसे सहर्ष धरोहर-सम सहेज-संजोकर रखते हैं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी सत्ता काबिज़ किए रहता है। इसका खामियाज़ा आगामी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है, जबकि इसमें उनका लेशमात्र भी योगदान नहीं होता।
‘दादा बोये, पोता खाय’ आपने यह मुहावरा तो सुना ही होगा और आप इसके सकारात्मक पक्ष के प्रभाव से भी अवगत होंगे कि यदि हम एक पेड़ लगाते हैं, तो वह लंबे समय तक फल प्रदान करता है और उसकी कई पीढ़ियां उसके फलों को ग्रहण कर आह्लादित व आनंदित होती हैं। सो! मानव के अच्छे कर्म अपना प्रभाव अवश्य दर्शाते हैं, जिसका फल हमारे आत्मजों को अवश्य प्राप्त होता है। इसके विपरीत यदि आप किसी ग़लत काम में लिप्त पाए जाते हैं, तो आपके माता-पिता ही नहीं; आपके दोस्त, सुहृद, परिजनों आदि सबको इसका परिणाम भुगतना पड़ता है और उसके बच्चों तक तो उस मानसिक यंत्रणा को झेलना पड़ता है। उसके संबंधी व परिवारजन समाज के आरोप-प्रत्यारोपों व कटु आक्षेपों से मुक्त नहीं हो पाते, बल्कि वे तो हर पल स्वयं को सवालों के कटघरे में खड़ा पाते हैं। परिणामत: संसार के लोग उन्हें हेय दृष्टि व हिक़ारत भरी नज़रों से देखते हैं।
‘कोयला होई ना ऊजरा, सौ मन साबुन लाई’ कबीरदास जी का यह दोहा उन पर सही घटित होता है, जो ग़लत संगति में पड़ जाते हैं। वे अभागे निरंतर दलदल में धंसते चले जाते हैं और लाख चाहने पर भी उससे मुक्त नहीं पाते, जैसे कोयले को घिस-घिस कर धोने पर भी उसका रंग सफेद नहीं होता। उसी प्रकार मानव के चरित्र पर एक बार दाग़ लग जाने के पश्चात् उसे आजीवन आरोप-आक्षेप व व्यंग्य-बाणों से आहत होना पड़ता है। वैसे तो जहाँ धुआँ होता है, वहाँ चिंगारी का होना निश्चित् है और अक्सर यह तथ्य स्वीकारा जाता है कि उसने जीवन में पाप-कर्म किए होंगे, जिनकी सज़ा वह भुगत रहा है। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’ से तात्पर्य है कि लोगों के पास कुछ तो वजह होती है। परंतु कई बार उनकी बातों का सिर-पैर नहीं होता, वे बेवजह होती हैं, परंतु वे उनके जीवन में सुनामी लाने में कारग़र सिद्ध होती हैं और मानव के लिए उनसे मुक्ति पाना असंभव होता है। इसलिए मानव को अहंनिष्ठता के भाव को तज सदैव समभाव से जीना चाहिए।
‘अगुणहि सगुणहि नहीं कछु भेदा’ अर्थात् निर्गुण व सगुण ब्रह्म के दो रूप हैं, परंतु उनमें भेद नहीं है। प्रभु ने सबको समान बनाया है–फिर यह भेदभाव व ऊँच-नीच क्यों? वास्तव में इसी में निहित है– मैं और तुम का भाव। यही है मैं अर्थात् अहंभाव, जो मानव को अर्श से फ़र्श पर ले आता है। यह मानवता का विरोधी है और सृष्टि में तहलक़ा मचाने का सामर्थ्य रखता है। कबीरदास जी का दोहा ‘नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहे लेहुं/ ना हौं देखूं और को, ना तुझ देखन देहुं’ में परमात्म-दर्शन पाने के पश्चात् मैं और तुम का द्वैतभाव समाप्त हो जाता है और तादात्म्य हो जाता है। जहाँ ‘मैं’ नहीं, वहाँ प्रभु होता है और जहाँ प्रभु होता है, वहाँ ‘मैं’ नहीं होता अर्थात् वे दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते। सो! उसे हर जगह सृष्टि-नियंता की झलक दिखाई पड़ती है। इसलिए हमें हर कार्य स्वांत: सुखाय करना चाहिए। आत्म-संतोष के लिए किया गया कार्य सर्व-हिताय व सर्व-स्वीकार्य होता है। इसका अपेक्षा-उपेक्षा से कोई सरोकार नहीं होता और वह सबसे सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि व सर्वमान्य होता है। उसमें न तो आत्मश्लाघा होती है; न ही परनिंदा का स्थान होता है और वह राग-द्वेष से भी कोसों दूर होता है। ऐसी स्थिति में नानक की भांति मानव में केवल तेरा-तेरा का भाव शेष रह जाता है, जहाँ केवल आत्म- समर्पण होता है; अहंनिष्ठता नहीं। सो! शरणागति में ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का भाव व्याप्त होता है, जो उन सब झमेलों से श्रेष्ठ होता है। दूसरे शब्दों में यही समर्पण भाव है और सुख-शांति पाने की राह है।
नश्वर संसार में सभी संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। इसलिए यहां स्पर्द्धा नहीं, ईर्ष्या व राग-द्वेष का साम्राज्य है। मानव को काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार को त्यागने का संदेश दिया गया है। यह मानव के सबसे बड़े शत्रु हैं, जो उसे चैन की साँस नहीं लेने देते। इस आपाधापी भरे युग में मानव आजीवन सुक़ून की तलाश में मृग-सम इत-उत भटकता रहता है, परंतु उसकी तलाश सदैव अधूरी रहती है, क्योंकि कस्तूरी तो उसकी नाभि में निहित होती है और वह बावरा उसे पाने के लिए भागते-भागते अपने प्राणों की बलि चढ़ा देता है।
‘जीओ और जीने दो’ महात्मा बुद्ध के इस सिद्धांत को आत्मसात् करते हुए हम अपने हृदय में प्राणी मात्र के प्रति करुणा भाव जाग्रत करें। करुणा संवेदनशीलता का पर्याय है, जो हमें प्रकृति के प्राणी जगत् से अलग करता है। जब मानव इस तथ्य से अवगत हो जाता है कि ‘यह किराये का मकान है, कौन कब तक ठहर पाएगा’ अर्थात् वह इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौट जाना है। इसलिए मानव के लिए संसार में धन-दौलत का संचय व संग्रह करना बेमानी है। उसे देने में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि जो हम देते हैं, वही लौटकर हमारे पास आता है। सो! उसे विवाद में नहीं, संवाद में विश्वास रखना चाहिए और जीवन में मतभेद भले हों, मनभेद होने वाज़िब नहीं हैं, क्योंकि यह ऐसी दीवार व दरारें हैं, जिन्हें पाटना अकल्पनीय है; सर्वथा असंभव है।
यदि हम समर्पण व त्याग में विश्वास रखते हैं, तो जीवन में कभी भी कोई समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती। एक साँस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है, इसलिए संचय करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? इसका स्पष्ट प्रमाण है कि ‘कफ़न में भी जेब नहीं होती।’ यह शाश्वत् सत्य है कि सत्कर्म ही जन्म-जन्मांतर तक मानव का पीछा करते हैं और ‘शुभ कर्मण ते कबहुँ न टरौं’ भी उक्त भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’, वरना वह लख चौरासी के भँवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएगा। इस मिथ्या संसार से मुक्ति पाने का एकमात्र साधन उस परमात्म-सत्ता में विश्वास रखना है। ‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘कब रे! मिलोगे राम/ यह दिल पुकारे तुम्हें सुबहोशाम’ आदि स्वरचित गीतों में अगाध विश्वास व आत्म-समर्पण का भाव ही है, जो मैं और तुम के भाव को मिटाने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम साधन है। यह मानव को जीते जी मुक्ति पाने की राह पर अग्रसर करता है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी माताश्री डॉ गायत्री तिवारी जी के लिए आपकी शब्दांजलि।)
💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से गुरुमाता डॉ गायत्री तिवारी जी को सादर नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि 💐
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 198 – साहित्य निकुंज ☆
☆ स्मृति शेष डॉ गायत्री तिवारी विशेष – दो कविताएं [1] शतरुपा माँ [2] यादें – डॉ भावना शुक्ल ☆
(8 सितंबर पूज्य माँ डॉ गायत्री तिवारी की पुण्य तिथि पर विशेष)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – “सावन”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘आग ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 125 ☆
☆ लघुकथा – आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मेरी नजर उसके पैरों पर थी। तपती धूप में वह नंगे पैर कॉलेज आता था । एक नोटबुक हाथ में लिए चुपचाप आकर क्लास में पीछे बैठ जाता। क्लास खत्म होते ही सबसे पहले बाहर निकल जाता।
‘पैसेवाले घरों की लड़कियां गर्मी में सिर पर छाता लेकर चल रही हैं और इसके पैरों में चप्पल भी नहीं।‘ एक दिन वह सामने पड़ा तो मैंने उससे कुछ पूछे बिना चप्पल खरीदने के लिए पैसे दे दिए। उसने चुपचाप जेब में रख लिए। दूसरे दिन वह फिर बिना चप्पल के दिखाई दिया। ‘अरे! पैर नहीं जलते क्या तुम्हारे? चप्पल क्यों नहीं खरीदी?’ मैंने पूछा। बहुत धीरे से उसने कहा – ‘पेट की आग ज्यादा जला रही थी मैडम!’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “खिसका धूप – छाँव का आँचल…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 166 ☆
☆ खिसका धूप – छाँव का आँचल… ☆
लोकलाज का आँचल जब सरकता है तो अनजाने ही बहुत से विवाद खड़े होने लगते हैं। विरोध का स्तर धीरे -धीरे गिरने लगता है। सारी मर्यादाओं को त्यागकर व्यक्ति कुछ भी बोल देता है, और मजे की बात जोड़ -तोड़ की उपज से चयनित व्यक्ति इस पर सही का साथ देने के बजाय टालमटोली करते हुए नजर आते हैं। सब कुछ देख सुनकर ऐसा लगता है मानो वैचारिक आजादी को गिरवी रखकर एकजुटता का पाठ पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। जहाँ विचार ही अलग हों वहाँ कब तक एकसुर का राग अलापते रहेंगे।
माना कि आप क्षितिज बनने का स्वप्न देख रहे हैं किंतु धरती आकाश का मिलन आपकी किस्मत में नहीं है। परिश्रमी लोग जिनमें लक्ष्य के प्रति जुझारूपन हो उसे तो सब मिल जाता है लेकिन जो केवल मंचासीन होने को ही अपनी उपलब्धियों में शामिल करना चाहते हों उनकी केवल जग हँसाई ही होती है।
माना मिक्स वेज सभी को पसंद है किंतु इसमें भी मनमानी नहीं चलती। ऐसी सब्जियों का चयन होता है जो स्वादिष्ट होने के साथ ही लोगों को रुचिकर हो। संतुलित मात्रा में संयोजन होने पर ही तारीफ होती है। साथ ही पनीर और मलाई से स्वाद दोगुना हो जाता है।
ये सही है कि धूप और छाँव आपको मजबूत बनाते हैं। पर ये तभी मिलेंगे जब सूरज की तपिश और वृक्षों की हरियाली उपलब्ध हो।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है शिक्षक दिवस पर एक विशेष कविता – प्रणाम गुरू जी !)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 229 ☆
जन्माष्टमी विशेष ☆ नाटक – कालिका का मदमर्दन…
कालिका का मदमर्दन… नदियो में जल प्रदूषण के विरुद्ध पौराणिक संदेश
नांदी पाठ … नेपथ्य से
पुरुष स्वर .. दुनिया की अधिकांश सभ्यतायें नदी तटों पर विकसित हुईं हैं . प्रायः बड़े शहर आज भी किसी न किसी नदी या जल स्त्रोत के तट पर ही स्थित हैं . औद्योगिकीकरण का दुष्परिणाम यह हुआ है कि नदियो को हम कल कारखानो के अपशिष्ट से प्रदूषित कर रहे हैं .कृष्ण की यमुना की जो दुर्दशा आज हमने औद्योगिक प्रदूषण से कर डाली है वह चिंतनीय है . यमुना में कालिया नाग का प्रसंग वर्तमान संदर्भो में नदियो में प्रदूषण का प्रतीक है .
स्त्री स्वर .. कृष्ण लीला में कालिया नाग के अंत का कथानक है जिसे नाट्य रूप में आपके लिये प्रस्तुत किया जा रहा है . कालिया नाग यमुना को विष वमन कर प्रदूषित करता है , जिससे यमुना के जलचर व तटो के वनस्पति व प्राणियो पर कुप्रभाव पड़ता है . बाल कृष्ण कालिका नाग का अंत करते हैं . यह दृष्टांत वर्तमान संदर्भो में नदियो में हो रहे प्रदूषण के अंत हेतु किये जा रहे प्रयासो को लेकर प्रासंगिक है .
मंच पर सतरंगे वस्त्रो में सूत्रधार का प्रवेश ..
सूत्रधार .. कालिया नाग जिस कुण्ड में यमुना में रहता था, उसका जल उसके विष की गर्मी से खौलता रहता था. उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी तक झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे. विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके जब वायु का प्रवाह होता तो नदी तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि असमय काल कवलित हो जाते थे. यह स्थिति चिंताजनक थी . एक दिन गेंद खेलते हुए बाल कृष्ण ने अपने सखा श्रीदामा की गेंद यमुना में फेंक दी. श्रीदामा गेंद वापस लाने के लिए कृष्ण से जिद करने लगे . बाल कृष्ण यमुना में कूद पड़े . वे उछलकर कालिया के फनों पर चढ़ गए और उस पर पैरों से प्रहार करने लगे , और जल प्रदूषण के प्रतीक कालिया पर विजय प्राप्त कर ली . वृंदावन के नर-नारियों ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण के एक हाथ में बाँसुरी थी और दूसरे हाथ में वह गेंद थी, जिसे लेने का बहाना बनाकर वे यमुना में कूदने की लीला कर रहे थे .
दृश्य ..
श्रीदामा … हे कृष्ण ! तुमने मेरी गेंद यमुना जी में क्यों फेंक दी , मुझे मेरी गेंद वापस लाकर दो .
बाल कृष्ण .. हे मित्र , यमुना में प्रवाह बहुत है , देखो जल भी कितना प्रदूषित है . वहां विषधर कालिया नाग का वास है . मैने जान बूझकर थोड़े ही गेंद यमुना जी में फेंकी है , वह तो खेलते हुये जल में चली गई . तुम घर चलो मैं तुम्हें दूसरी गेंद दे दूंगा .
श्रीदामा … नहीं नहीं कृष्ण ! मुझे दूसरी गेंद नहीं चाहिये , तुम मुझे अभी ही मेरी वही गेंद लाकर दो . मुझे अपनी वह गेंद अति प्रिय है .
बाल कृष्ण .. अच्छा श्रीदामा ! तुम नही मानते हो तो मैं तुम्हारी वही गेंद लाने का यत्न करता हूं . कृष्ण धीरे धीरे यमुना जी में प्रवेश कर जाते हैं ..
कृष्ण का यमुना में प्रवेश का प्रतीकात्मक अभिनय ..
संगीत अंतराल … मंच पर रोशनी कम की जावेगी .. पुनः धीरे धीरे प्रकाश बढ़ाया जावेगा
किनारे खड़े बाल सखा … इतनी देर हो गई कृष्ण कहां गये … अरे श्रीदामा तुमने ही हमारे कृष्ण को जबरदस्ती यमुना जी में भेजा है .
दूसरा सखा .. वह भी केवल एक गेंद के लिये .
एक गोपी … रोते सुबकते हुये .. श्रीदामा ! मेरे कृष्ण को वापस लाओ , मैं कुछ नही जानती . जोर से आवाज लगाते हुये … हे कृष्ण जल्दी वापस आ आओ .
श्रीदामा .. रोते हुये .. नदी की ओर उस तरफ देखते हुये जहां से कृष्ण ने नदी में प्रवेश किया था .. अच्छा कृष्ण , तुम लौट आओ , मुझे गेंद नहीं चाहिये .
धीरे धीरे बृंदावन के नर नारी एकत्रित हो जाते हैं
नर नारियो का समूह .. सभी पुकारने लगते हैं , हे कन्हैया ! तुम कहां हो ! लौट आओ …
प्रकाश मध्दिम होता है और … पुनः प्रकाश बढ़ता है , बैकग्राउंड में पर्दे पर नदी का दृश्य .. कृष्ण कालिका नाग के फन पर सवार मुरली बजाते हुये दिखते हैं …
नर नारियो की भीड़ .उल्लास से .. हमारे कृष्ण कालिका पर सवार होकर नृत्य कर रहे हैं , उन्होंने कालिका का मद मर्दन कर दिया है .नर नारी हर्ष से नृत्य करते हैं .
पार्श्व संगीत …
काले नाग के नथैया
अपने प्यारे कृष्ण कन्हैया
जय कृष्ण .. जय कृष्ण ..
फन पर हुये सवार भैया
अपने प्यारे कृष्ण कन्हैया
जय कृष्ण .. जय कृष्ण ..
बांसुरी की धुन के नाद के साथ परदा गिरता है .
नेपथ्य स्वर … हे कृष्ण , द्वापर में तो आपने कालिका का मद मर्दन कर यमुना को बचा लिया था। आज फिर यमुना ही नहीं सारी की सारी नदियां प्रदूषण से दुखी हैं। आइए प्रभु नव रूप में पधारिए और हमारे जल स्रोतों की प्रदूषण मुक्ति के लिए हमे राह दिखाइए।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख –“संयम का महत्व”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 149 ☆
☆ आलेख – “संयम का महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
संयम एक ऐसा गुण है जिसे आमतौर पर एक सकारात्मक गुण माना जाता है। यह किसी भी चीज़ का अत्यधिक सेवन करने या किसी भी चीज़ को करने से बचने की क्षमता है। संयम के कई फायदे हैं, जैसे कि बेहतर स्वास्थ्य, अधिक खुशी और सफलता।
आम नागरिक के जीवन में संयम का महत्व निम्नलिखित है:
बेहतर स्वास्थ्य: संयम हमारे स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। यह हमें स्वस्थ आहार खाने, नियमित रूप से व्यायाम करने और धूम्रपान, शराब पीने और नशीली दवाओं के सेवन से बचने में मदद कर सकता है। इन सभी आदतों से हमारे स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है।
अधिक खुशी: संयम हमें अधिक खुश रहने में भी मदद कर सकता है। यह हमें अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने और तनाव को कम करने में मदद कर सकता है। जब हम संयम रखते हैं, तो हम अधिक संतोषजनक और सकारात्मक जीवन जीते हैं।
सफलता: संयम हमें सफलता प्राप्त करने में भी मदद कर सकता है। यह हमें अपने लक्ष्यों को निर्धारित करने और उन तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत करने में मदद कर सकता है। जब हम संयम रखते हैं, तो हम अधिक उत्पादक और सफल होते हैं।
संयम के कई प्रयोग हैं जो इसके परिणामों को दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, एक अध्ययन में पाया गया कि जो लोग संयम रखते हैं, उनमें स्वस्थ आहार खाने, नियमित रूप से व्यायाम करने और धूम्रपान, शराब पीने और नशीली दवाओं के सेवन से बचने की अधिक संभावना होती है। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि जो लोग संयम रखते हैं, उनमें अधिक खुश और संतोषजनक जीवन जीने की संभावना होती है। एक तीसरे अध्ययन में पाया गया कि जो लोग संयम रखते हैं, उनमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और सफल होने की अधिक संभावना होती है।
संयम एक महत्वपूर्ण गुण है जो आम नागरिक के जीवन में कई लाभ प्रदान कर सकता है। यह हमें स्वस्थ, खुश और सफल रहने में मदद कर सकता है।
यहां कुछ अनुभवजन्य विचार दिए गए हैं जो सुधी पाठकों ने संयम के महत्व पर व्यक्त किए हैं:
“मुझे लगता है कि संयम जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और अधिक संतोषजनक जीवन जीने में मदद कर सकता है।”
“मुझे लगता है कि संयम एक सुखद जीवन के लिए आवश्यक है। यह हमें तनाव और चिंता को कम करने में मदद कर सकता है।”
“मुझे लगता है कि संयम एक सफल जीवन के लिए आवश्यक है। यह हमें कड़ी मेहनत करने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है।”
संयम एक ऐसा गुण है जिसे हम सभी अभ्यास कर सकते हैं। यह हमारे जीवन को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है।