हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #187 ☆ कर्म ही हैं हमारी विरासत… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना कर्म ही हैं हमारी विरासत…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 187 ☆

☆ कर्म ही हैं हमारी विरासत☆ श्री संतोष नेमा ☆

कभी  हमें  भी आजमा  कर  देख

दर्द  दिल  के  हमें  बता  कर  देख

इश्क़ होता है कैसा समझ जाओगे

दिल  हम  से  जरा  लगा  कर देख

वक्त ने हमको सताया है बहुत

दर्द गमों  का पिलाया  है बहुत

हम  गैरों   की  बात  क्या  करें

अपनों ने ही हमें रुलाया है बहुत

हम उनके तलबगार होकर रह गए

बिन उनके बे-करार होकर रह गये

वो समझ सके ना रवायत इश्क की

हम  फूल थे  अंगार  होकर  रह गए

मैं सब  के लिए  प्यार  लाया हूं

प्रेम की  शीतल  बहार लाया हूँ

कभी दिल  से मुझे  समझियेगा

प्रकृति का सुंदर उपहार लाया हूं

एक दिन दुनिया से गुजर जाएंगे

न  जाने  किसे  कब याद आएंगे

कर्म ही हैं हमारी विरासत संतोष

जो  सबको  हमारी याद दिलाएंगे

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #193 ☆ जपणूक.. ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 193 – विजय साहित्य ?

☆ जपणूक.. !  ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

येता‌ पालवी वयात

पान झाडाचे पिकते

सोने‌ होता आयुष्याचे

जग हिरवे दिसते.. ! १

ज्येष्ठ‌ होता आप्त कुणी

नका करू अवमान

स्वभावाचे गुणदोष

जाणा माणूस महान.. ! २

घाला‌‌ स्वभावा‌ मुरड

टाळा विक्षिप्त वागणे

नव्या डहाळीच्या‌ कानी

गूज‌ मनीचे सांगणे.. ! ३

आरोग्याचे ताळतंत्र

संयमाची धन्वंतरी

योग्य आहार विहार

औषधांची मात्रा खरी.. ! ४

तपासणी नियमित

तन मन जपताना

नातवांची जपू साय

ज्येष्ठपर्वी रमताना.. ! ५

अनुभव सफलता

सुख‌ समाधान शांती

नको वृद्धाश्रमी धन

जपू ज्येष्ठांना धामांती.. ! ६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – अध्याय पहिला – ( श्लोक २१ ते ३०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय पहिला — भाग पहिला – ( श्लोक २१ ते ३०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अर्जुन उवाचः

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ৷৷२१৷৷

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌ ।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ৷৷२२৷৷

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ৷৷२३৷৷

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌ ৷৷२४৷৷

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌ ।

उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति ||२५||

तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌ ।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ||२६||

श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌ ||२७||

दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ৷৷२८৷৷

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।

वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ৷৷२९৷৷

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ৷৷३०৷৷

मराठी भावानुवाद :: 

कथिले अर्जुनाने..

श्रोकृष्णासी तेव्हा कथिता झाला पार्थ

दो सैन्यांच्या मध्ये घेउनी जाई माझा रथ ॥२१॥

कोण उपस्थित झाले येथे करावयासी युद्ध 

अवलोकन मी करीन त्यांचे होण्यापूर्वी  सिद्ध

दुर्योधनासी त्या अधमासी साथ कोण करतो 

कोणासी लढणे मज प्राप्त निरखुनिया पाहतो ॥२२, २३॥

कथिले संजयाने 

धनंजयाने असे बोलता श्रीकृष्णाला धृतराष्ट्रा

मधुसूदनाने नेले दोन्ही सैन्यांमध्ये उत्तम शकटा ||२४||

अवलोकी हे पार्था तुझ्या शत्रूंच्या  श्रेष्ठ योद्ध्यांना 

भीष्म द्रोणासवे ठाकल्या महावीर बलवानांना ||२५||

अपुल्या आणिक शत्रूच्या सैन्यावरती नजर फेकली पार्थाने 

विद्ध जाहला मनोमनी तो अपुल्याच सग्यांच्या दर्शनाने ||२६||

शस्त्रे अपुली सोयऱ्यांवरी विचार येउनी मनी 

विषण्ण झाला कणव जागुनी अतोनात मनी

अयोग्य अपुले कर्म जाणुनी  पाहुनी स्वजनांना 

खिन्न होऊनी वदला अर्जुन मग त्या श्रीकृष्णा ||

युद्धाकरिता सगेसोयरे शस्त्रसज्ज पाहुनिया ॥ २७, २८॥

गलितगात्र मी झालो जिव्हेला ये शुष्कता

देह जाहला कंपायमान कायेवरती काटा ॥२९॥

गळून पडले गाण्डीव दाह देहाचा  होई

त्राण सरले पायांमधले भ्रमीत माझे मन होई ॥३०॥

– क्रमशः… 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 128 ☆ पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पेट की दौड़’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 128 ☆

☆ लघुकथा – पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘ दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं। अब ई कइसी मशीन है? ‘ उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू – पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ‘ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो?

‘काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा’ – दीदी हँसते हुए बोली।

 ‘पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? ’ — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – ‘दीदी! एही पेट के खातिर हमार जिंदगी एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग काम करत – करत कट जात है। कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात- दिन दौड़त रह जात हैं।‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 234 ☆ आलेख – यात्राओं का साहित्यिक अवदान… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख  – यात्राओं का साहित्यिक अवदान)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 234 ☆

? आलेख – यात्राओं का साहित्यिक अवदान ?

बालीवुड ने बाम्बे टू गोवा, एन इवनिंग इन पेरिस, लव इन टोकियो, बाम्बे टू बैंकाक, एट्टी देज एराउन्ड दि वर्ल्ड, आदि अनेक यात्रा केंद्रित फिल्में बनाई हैं.

शिक्षा में नवाचार के समर्थक विद्वान यात्रा के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कहते हैं कि पुस्तकों में ज्ञान मिलता है पर उसे समझने के लिये शैक्षणिक यात्राये पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिये. मिडिल स्कूल तक के बच्चों को शिक्षक या अभिवावकों को समय समय पर पोस्ट आफिस, रेल्वे रिजर्वेशन, पोलिस थाना, बैंक, संस्थान, आसपास के उद्योग, आदि का भ्रमण करवाने से वे इन संस्थानों से प्रायोगिक रूप से परिचित हो पाते हैं. यह परिचय उन्हें इनके जीवन में अति उपयोगी  होता है. विज्ञान के वर्तमान युग में जब हम घर बैठे ही टी वी पर दुनिया भर की खबरें देख सकते हैं, तब भी उस वर्चुअल वर्ल्ड की अपेक्षा वास्तविक पर्यटन प्रासंगिक बना हुआ है.  टूरिज्म, चाहे वह स्पोर्टस को लेकर हो, कार्निवल्स पर केंद्रित हो, बुक फेयर, एम्यूजमेंट पार्क, नेशनल फारेस्ट पर आधारित हो  या अन्य विभिन्न कारणों से हो, बढ़ता  जा रहा है.

यात्राओं का साहित्यिक अवदान भी बहुत है.  

यात्रावृत्त एक प्रकार का मानवीय इतिहास है, जिसमें घटनाओं के साथ-साथ व्यक्तिचेतना, संस्कार, सांस्कृतिक जीवन, सामाजिक और आर्थिक क्रियाएँ, राजनीतिक और भौगोलिक स्थितियाँ, विचार तथा धारणायें समाहित होती हैं. ‘कालिदास’ और ‘बाणभट्ट’ के साहित्य में भी आंशिक रूप से यात्रा वर्णन मिलता है.

एक विधा के रूप में यात्रा वर्णन स्थापित हो चुका है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #152 – आलेख – “सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 152 ☆

 ☆ आलेख – “सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जीवन में सफलता और असफलता दोनों आती है। सफलता का आनंद लेना और असफलता से सीखना दोनों ही महत्वपूर्ण है। लेकिन, सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखना सबसे महत्वपूर्ण है।

हंसना एक शक्तिशाली दवा है। यह तनाव को कम करने, मूड को बेहतर बनाने और प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाने में मदद कर सकता है। हंसना हमें कठिन परिस्थितियों में भी अनुकूल होने में मदद कर सकता है।

सफलता में हंसकर जीना सीखने से हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और जीवन का अधिक आनंद लेने में मदद मिल सकती है। जब हम सफल होते हैं, तो हम अक्सर खुश और उत्साहित महसूस करते हैं। लेकिन, अगर हम अपने सफलता को बहुत गंभीरता से लेते हैं, तो हम जल्दी ही आराम कर सकते हैं और आगे बढ़ना बंद कर सकते हैं। हंसकर जीना हमें अपने सफलता का जश्न मनाने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

असफलता में हंसकर जीना सीखने से हमें कठिन परिस्थितियों से उबरने और मजबूत होने में मदद मिल सकती है। जब हम असफल होते हैं, तो हम अक्सर निराश और हताश महसूस करते हैं। लेकिन, अगर हम अपने असफलता को बहुत गंभीरता से लेते हैं, तो हम जल्दी ही हार मान सकते हैं। हंसकर जीना हमें अपने असफलता से सीखने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखने के कुछ तरीके निम्नलिखित हैं:

अपने दृष्टिकोण को बदलें। सफलता और असफलता को एक पैमाने के दो छोर के रूप में देखें। सफलता केवल एक मंच है, असफलता केवल एक कदम पीछे है।

अपने आप को माफ़ करना सीखें। हर कोई गलतियाँ करता है। अपनी गलतियों से सीखें और आगे बढ़ें।

दूसरों की मदद करें। दूसरों की मदद करने से आपको अपनी त्रासदी को भूलने में मदद मिल सकती है।

अपने जीवन का आनंद लें। सफलता और असफलता दोनों जीवन का एक हिस्सा हैं। इन दोनों का आनंद लें और आगे बढ़ते रहें।

सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखने से हम एक अधिक संतुलित और खुशहाल जीवन जी सकते हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-09-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #19 ☆ कविता – “राह…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 19 ☆

☆ कविता ☆ “राह…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

ना मैं इनका हूँ 

ना मैं उनका हूँ 

जिनमें जितनी अच्छाई

उतना मैं उनका हूँ 

 

किसी की चाहत

किसी का करार है

किसी का दर्द भी

अच्छाई की निशानी है

 

सदियों से बना रहें

कहीं सूंखी कहीं गीली

जिसकी सड़क जहां पक्की

राह मेरी वहीं है

 

शिकायतों के मुकाम हैं

मगर समय बहुत कम है

राहें बदलना समझदारी है

जब मंज़िल अपनी तय है

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 179 ☆ बाल कविता – माँ का चंदा राजदुलारा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 179 ☆

बाल कविता – माँ का चंदा राजदुलारा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

 खिल- खिल हँसता बालक प्यारा

       कहाँ गरीबी से वह हारा।।

 

माँ का चंदा राजदुलारा।

       जीवन का बस यही सहारा।।

 

ये निश्छल आँखों का तारा।

      नजर बचाए टीका कारा।।

 

माँ बेटा दोनों ही हैं खुश ।

       माता के आँचल का है कुश।।

 

कोरोना से जंग न हारे।

       जीवन जीते श्रमिक बिचारे।।

 

हर मुश्किल में खुश जो रहते।

      वे ही नदियों – से हैं बहते ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #176 ☆ संत सेना महाराज… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 176 ☆ संत सेना महाराज…☆ श्री सुजित कदम ☆

 उच्च विचारसरणी

संत सेना महाराज

वैशाखात द्वितीयेला

जन्मा आले संतराज…! १

 

न्हावी समाजाचे संत

भक्ती रस अभंगात

व्यवसाय करताना

दंग सदा पुजनात…! २

 

बुद्धी चौकस चंचल

समतेचा पुरस्कार

हिंदी मराठी भाषेत

केल्या रचना साकार….! ३

 

महाराष्ट्र पंजाबात

दोहे अभंग रचले

विठ्ठलाच्या चिंतनात

सारे आयुष्य वेचले…! ४

 

हजामत करताना

मुखी विठ्ठलाचे नाम

वारकरी चळवळ

भक्तीभाव निजधाम…! ५

 

हिंदी मराठी काव्याचा

केला मुक्त अंगीकार

संकीर्तन प्रवचनी

केला अध्यात्म प्रसार…! ६

 

नाम पर उपदेश

पाखंड्यांचे निर्दालन

गुरू ग्रंथ साहेबात

दोहा अभंग लेखन…! ७

 

सुख वाटतसे जीवा

जाता पंढरीसी कोणी

साध्या सोप्या रचनेत

शब्द धन वाही गोणी…! ८

 

दाढी करताना दिसेल

राजालाही भगवंत

संत सेना महाराज

प्रादेशिक कलावंत…! ९

 

दीर्घ काळ पंढरीत

सेना न्हावी करी सेवा

हरिभक्ती पारायण

दिला अभंगांचा ठेवा…! १०

 

श्रावणाची द्वादशी ही

पुण्यतिथी महोत्सव

संत सेना महाराज

करी  अभंग उत्सव…! ११

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ बकुळ ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक  

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? बकुळ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

रंग पांढरा पिवळसर

तारकाकृती पाकळी, 

जन्मजात हृदयी छिद्र 

सडा पडे सांजवेळी !

वृक्ष माझा घुमटाकार

घनदाट त्याची छाया,

कारागीर वापरती खोड

वर नक्षीकाम कराया !

रस माझा येई कामा 

सुगंध देण्या अत्तरास, 

जखम बरी करण्या 

साल येते उपयोगास !  

ओवून केळीच्या सोपात 

गजरा माळती ललना,

कोणी रसिक ठेवीतसे,

मज पुस्तकांच्या पाना !

आयुष्य थोड्या दिसांचे

सुकले तरी देते सुवास, 

थोडावेळ ठेवता जलात 

परत ताजी होते खास !

परत ताजी होते खास !

ब कु ळ !

© प्रमोद वामन वर्तक

सिंगापूर,  मो +६५८१७७५६१९ 

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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