(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “वृन्त से झर कर कुसुम…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 165 ☆
☆ वृन्त से झर कर कुसुम… ☆
हार तो हार होती है, पर यदि सही चिंतन किया जाय तो ये हार हार में बदल कर आपके गले की शोभा बनेगी। आवश्यकता है, तो केवल सकारात्मक दृष्टिकोण की अपनी असफलताओं से विचलित होने के बजाए ये सोचना चाहिए कि हम किस बिंदु पर कमजोर हैं, कहाँ सुधार किया जाना चाहिए।
हार से उदास होकर या जीत से खुश होकर जो लोग चुपचाप बैठे जाते हैं, उनकी सफलता का ग्राफ वहीं रुक जाता है। अतः जिस तरह दिन- रात का क्रम अनवरत चलता रहता है, ठीक उसी प्रकार आपकी कर्म गति भी निरंतर चलती रहनी चाहिए। सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण प्रकृति के चक्र का एक हिस्सा हैं, पर ये कभी दिन- रात की प्रक्रिया में बाधक नहीं बनते। पूरे दृढ़ निश्चय के साथ अपने कार्यों को करते रहें एक न एक दिन मंजिल आपके कदमों में होगी और लक्ष्य आपके माथे का गौरव बन आपके उज्ज्वल भविष्य की राह प्रशस्त करेगा।
हिम्मत से करना सदा, जीवन में सब काज।
राहें गर हों सत्य की, मुश्किल नहीं सुकाज। ।
अक्सर ऐसा होता है, आप किसी के लिए लड़ रहे होते हैं परन्तु लोग आपको ही दोषी बना देते हैं, यहाँ तक कि उस व्यक्ति के भी आप अपराधी बन जाते हैं, तो इस स्थिति में क्या हम नेकी करना छोड़ दें, जो सच है उसका साथ न दें, देखकर भी अनजान बने, स्वविवेक को भूल केवल नजरें झुका कर अपना दायित्व निर्वाह करें…?
ये सब बहुत ही साधारण से प्रश्न हैं जिनसे लगभग सभी व्यक्तियों को आये दिन गुजरना पड़ता है, कुछ तो टूट कर राह बदल लेते हैं, कुछ मौन हो अपना कार्य करते रहते हैं, कुछ अपमान की आग में जलते हुए बदला लेने की फ़िराक में रहते हैं।
इनमें से आप कौन हैं ?ये तय करें फिर पूरी दृढ़ता से अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्धता रखते हुए सफलता की सीढ़ी को देखें और लोग क्या कहेंगे, करेंगे या सोचेंगे इसे भूल कर अपना अस्तित्व तलाशें, इस मानव जन्म को सार्थक करें। अपने भविष्य के निर्माता आप स्वयं हैं इसलिए केवल लक्ष्य देखें मान अपमान से परे जाकर।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता – प्रतिबिंब…।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है “रक्षाबंधन पर्व पर कुछ दोहे…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #198 ☆
☆ रक्षाबंधन पर्व पर कुछ दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “रोशनी की आस…” ।)
हिमाचल एवं उत्तराखंड की त्रासदी पर…
जय प्रकाश के नवगीत # 22 ☆ रोशनी की आस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जब गए ग़ालिब मियाँ लंबे सफ़र के वासते…“)
जब गए ग़ालिब मियाँ लंबे सफ़र के वासते… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 81 – पानीपत… भाग – 11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
देवउठनी एकादशी के बाद और शाखा में आने के पश्चात स्वाभाविक था कि कुछ दिनों तक मुख्य प्रबंधक जी का मन शाखा में नहीं लगा. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि वे अपने स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति के आवेदन को चुपचाप अग्रेषित कर चुके थे. वैसे इस मामले में यह उनकी ईमानदारी से अपनी अक्षमता को स्वीकार करना और फिर ऐसा दुस्साहसी निर्णय लेने का अद्वितीय उदाहरण था. उन्होंने शाखा के बेहतर संचालन और स्वंय के भावी अहित हो जाने की संभावना के मद्देनजर यह निर्णय लिया जिसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की जानी चाहिए. ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी अक्षमताओं के साथ कुर्सी से चिपके रहते हैं, संस्था का अहित करते रहते हैं और इस जुगाड़ में लगे रहते हैं कि ऐसे कठिन असाइनमेंट से छुटकारा पाया जाये और आरामदायक व सुरक्षित पोस्टिंग मिल जाये. ऐसा होने के बाद भी शेखी बघारने के उदाहरण भी बहुत मिलते हैं.
अगला दौर कोरबैंकिंग के अल्पकालिक प्रशिक्षण का था जो ऐसी सभी शाखाओं के स्टाफ को दिया जा रहा था. तो उन्होंने भी ऐसे मौके को गंवाना उचित नहीं समझा बल्कि शाखास्तरीय समस्याओं से दूर होने का पेड अवकाश ही माना. शाखा का कोर बैंकीय असमायोजित प्रविष्टियों का पहाड़ भी उन्हें रोक नहीं पाया और वे मुख्यालय पहुंच गये. नोटिस अवधि के तीन माह किसी न किसी तरह तो बिताने ही थे तो यह प्रशिक्षण अटेंड करना भी बेहतर आइडिया था. उनको यह नहीं मालूम था कि सब कुछ हर बार उनके प्लान के अनुसार नहीं हो पाता. प्रशिक्षण के दौरान ही बैंक के मुखिया जब असमायोजित प्रविष्टियों के मॉनीटरिंग रिपोर्ट चार्ट का अवलोकन कर रहे थे तो इस शाखा का माउंट एवरेस्ट उनकी तीक्ष्ण नजरों से ओझल न हो सका. बाद में जब उन्हें ज्ञात हुआ कि शाखा के मुख्य प्रबंधक पास ही प्रशिक्षण ले रहे हैं तो उन्होंने उसी दिन शाम को बुला भेजा. मुख्य प्रबंधक को लगा कि ये मुलाकात उनकी फरियाद सुनने के लिये है. याने दोनों महानुभावों की सोच अलग अलग दिशा में चल रही थी. अंततः जब उन्होंने दबाव बढ़ाया तो इन्होंने भी आखिर कह ही दिया कि सर, ये शाखा मेरे बस की नहीं है और मैंने अपना वालिंटियर रिटायरमेंट का आवेदन थ्रू प्रापर चैनल भेज दिया है. बड़े साहब इस इम्प्रापर उत्तर से पहले स्तब्ध हुये और फिर नाराज भी. स्वयं जमीन से जुड़े अति वरिष्ठ अधिकारी थे जो महत्वपूर्ण और क्रिटिकल शाखाओं के प्रबंधकों से डायरेक्ट बात करते रहते थे. उनके कार्यक्षमताओं और समर्पित नेतृत्व के मापदंड बहुत उच्चस्तरीय और अभूतपूर्व थे. उनका सामना इस तरह के प्रबंधन से शायद पहली बार हुआ हो. पर उनके दीर्घकालिक अनुभव को यह निर्णय लेने में बिल्कुल भी देर नहीं की कि “ये मुख्य प्रबंधक जितने दिन शाखा में रहेंगे, शाखा का नुकसान ही करेंगे. ” बैंक को ऐसे त्वरित पर सटीक निर्णय लेने वाले सूबे के नायक बहुत कम ही मिलते हैं. उनके व्यक्तित्व में सादगी, उच्च कोटि की बुद्धिमत्ता और जटिल शाखाओं और जटिल परिस्थितियों पर नियंत्रण का पर्याप्त अनुभव साफ नजर आता था. तो उन्होंने अब अनुवर्तन या समझाइश की जगह मुख्य प्रबंधक को सीधे और स्पष्ट निर्देश दिये कि “ठीक है, अब आपको शाखा वापस जाने की जरूरत नहीं है, सीधे घर जाइये. नोटिस पीरियड के बाद हम आपका एक्जिट आवेदन स्वीकार कर लेंगे. अब ये शाखा हमारी जिम्मेदारी है, आपकी नहीं. अंधा क्या चाहे दो आंखें, तो फिर वहाँ से सीधे घरवापसी हुई जो नौकरी की कीमत पर थी. ऐसे कितने लोग हैं जो यह “हाराकीरी” कर सकते हैं???
यहाँ शाखा में “आये ना बालम का करूँ सजनी” चल रहा था. जब फोन से पता किया गया तो पता चला कि कृष्ण के गीताज्ञान देने के बावजूद अर्जुन कुरुक्षेत्र छोड़कर, ‘रणछोड़दास’ बन चुके थे. “तेरा जाना बनके तकदीरों का मिट जाना” जैसी स्थिति बन चुकी थी. ये शतरंज की बाजी नहीं थी जहाँ राजा को शह के बाद मात मिलने से बाजी खत्म हो जाती है. जाहिर है जो योद्धा शेष थे, उन्हीं के हिस्से में इस युद्ध को लड़ना आया था. बैलगाड़ी को खींचने वालों में एक संख्या कम हो चुकी थी.