हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 164 ☆ आतम ज्ञान बिना सब सूना… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आतम ज्ञान बिना सब सूना…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 164 ☆

☆ आतम ज्ञान बिना सब सूना… ☆

बिना परिश्रम कुछ भी नहीं मिलता, सही दिशा में कार्य करते रहें। यह मेरे एक परिचित जिन्हें ज्ञान बांटने की आदत है, उन्होंने अभी कुछ देर पहले कही और पूरी राम कहानी सुना दी।

दरसअल उनको किसी ने ब्लॉक कर दिया यह कहते हुए कि इतना ज्ञान सहन करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं। अब बेचारे ज्ञानचंद्र तो परेशान होकर घूमने लगे तभी ध्यानचंद्र जी ने कहा मुझे सुनाते रहें , जब जी आए टैग भी करें क्योंकि मैं सात्विक विचारों का हूँ, सकारात्मक चिंतन मेरी विशेषता है। अनावश्यक बातों को एक कान से सुन दूसरे से निकालता जाता हूँ। आँखें मेरी बटन के समान हैं जो केवल फायदे में ही कायदा ढूढ़ती हैं।

पर ज्ञानचंद्र को तो एक ही बात खाये जा रही थी कि लोग सकारात्मकता को तो ब्लॉक कर रहे हैं, जबकि नकारात्मक लोगों के नजदीक जाकर ज्ञानार्जन करने की वकालत करने से नहीं चूकते हैं। और तो और उनका सम्मान कर रहें हैं, अरे भई निंदक की महिमा वर्णित है पर बिना साबुन और पानी के मुफ्त में कब तक मन को स्नान कराते रहोगे, अभी भी वक्त है, सचेत हो अन्यथा किसी और को ज्ञान बटेगा आप इसी तरह ब्लॉक करो बिना ये जाने की लाभ किसमें है। फेसबुक और व्हाट्सएप का बन्दीकरण तो सुखद हो सकता है पर दिमाग में लगा ताला अंधकार तक पहुँचाकर ही मानेगा।

कोई क्षमायाचना को अपना औजार बनाकर भरपूर जिंदगी जिए जा रहा है तो कोई क्षमा को धारण कर सबको माफ करने में अपना धर्म देखता है। कहते हैं क्षमा वीर आभूषण होता है, बात तो सही है, आगे बढ़ने के लिए पुरानी बातों पर मिट्टी डालनी चाहिए। जब मंजिल नजदीक हो तो परेशानियों से दो- चार होना पड़ता है। बस लक्ष्य को साधते हुए माफी का लेनदेन करने से नहीं चूकना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #148 – आलेख – “सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना यानी अपनी रचनात्मकता को खत्म करना” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  “सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना यानी अपनी रचनात्मकता को खत्म करना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 148 ☆

 ☆ आलेख – “सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना यानी अपनी रचनात्मकता को खत्म करना” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जो हमें दुनिया भर के लोगों से जुड़ने, जानकारी साझा करने और अपनी राय रखने की अनुमति देता है. यह एक शक्तिशाली उपकरण है जिसका उपयोग अच्छे और बुरे दोनों के लिए किया जा सकता है. हालांकि, सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग हमारी रचनात्मकता को खत्म कर सकता है.

सोशल मीडिया पर हम हर समय नई चीजें देख रहे होते हैं. हम दूसरों की पोस्ट देख रहे होते हैं, हम उनके विचारों और राय पढ़ रहे होते हैं, और हम उनसे जुड़ने की कोशिश कर रहे होते हैं. यह सब इतना अधिक हो सकता है कि हमें खुद के विचारों और राय उत्पन्न करने का समय नहीं मिलता है. हम दूसरों के विचारों से इतना प्रभावित हो जाते हैं कि हम अपनी रचनात्मकता को खो देते हैं.

सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग हमारी एकाग्रता को भी प्रभावित करता है. जब हम सोशल मीडिया पर होते हैं, तो हम लगातार नए अपडेट देखने के लिए स्क्रॉल करते रहते हैं. इससे हमारा ध्यान भंग होता है और हम अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं. यह हमारी रचनात्मकता को भी प्रभावित करता है क्योंकि हम नए विचारों को उत्पन्न करने में सक्षम नहीं होते हैं.

यदि आप अपनी रचनात्मकता को बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको सोशल मीडिया का उपयोग सीमित करने की आवश्यकता है. आपको अपने समय को उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो आपको रचनात्मक बनाती हैं, जैसे कि पढ़ना, लिखना, चित्र बनाना, या संगीत सुनना. आपको सोशल मीडिया पर केवल उन समयों पर जाना चाहिए जब आपको वास्तव में इसकी आवश्यकता हो.

यहां कुछ उदाहरण दिए गए हैं कि कैसे सोशल मीडिया आपकी रचनात्मकता को खत्म कर सकता है:

जब आप सोशल मीडिया पर होते हैं, तो आप लगातार नए अपडेट देखने के लिए स्क्रॉल करते रहते हैं. इससे आपका ध्यान भंग होता है और आप अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं.

सोशल मीडिया पर आप हर समय नई चीजें देख रहे होते हैं. आप दूसरों की पोस्ट देख रहे होते हैं, आप उनके विचारों और राय पढ़ रहे होते हैं, और आप उनसे जुड़ने की कोशिश कर रहे होते हैं. यह सब इतना अधिक हो सकता है कि आपको खुद के विचारों और राय उत्पन्न करने का समय नहीं मिलता है. आप दूसरों के विचारों से इतना प्रभावित हो जाते हैं कि आप अपनी रचनात्मकता को खो देते हैं.

सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग आपके तनाव और चिंता को भी बढ़ा सकता है. जब आप सोशल मीडिया पर होते हैं, तो आप लगातार दूसरों की तुलना कर रहे होते हैं. आप देख रहे होते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, वे क्या खरीद रहे हैं, और वे कहां जा रहे हैं. यह आपको असुरक्षित और तनावग्रस्त महसूस करा सकता है.

यदि आप अपनी रचनात्मकता को बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको सोशल मीडिया का उपयोग सीमित करने की आवश्यकता है. आपको अपने समय को उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो आपको रचनात्मक बनाती हैं, जैसे कि पढ़ना, लिखना, चित्र बनाना, या संगीत सुनना. आपको सोशल मीडिया पर केवल उन समयों पर जाना चाहिए जब आपको वास्तव में इसकी आवश्यकता हो.

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 173 ☆ बाल कविता – बिल्ली रानी बड़ी कमाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 173  ☆

☆ बाल कविता – बिल्ली रानी बड़ी कमाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

कान खड़े हैं, झबरे बाल।

      बिल्ली रानी बड़ी कमाल।।

सैर को निकली है जंगल में

       सोच रही कुछ खाऊँ माल।।

 

भूरी मूँछें, पीली आँखें

      रँग है उसका शेर सरीखा।

कटहल के फल पर है बैठी

       ढूँढा उसने नया तरीका।।

 

माल मिला नहीं कुछ खाने को

         सुबह से हो गई शाम।

शेर दहाड़ा जब जंगल में

        बिल्ली बोली हाय राम ।।

 

बिल्ली ने जब देखा शेरू

      चढ़ी पेड़ के वह ऊपर।

नूपुर हिला – हिला वह बोली

         बड़की हूँ तुझसे  शूटर।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #13 ☆ कविता – “यारा तेरी याद आवे…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 13 ☆

☆ कविता ☆ “यारा तेरी याद आवे…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

यारा तेरी याद आवे

गिरे पतझड़ रास्ते आवे

चलते चलते उन पे

क्यूँ दिल ये दुखावे

 

होवे समय सियाही

चल दे कागज उत्थे

कल होवे जल यू

दर्पण आज भिगोवे क्यूँ

 

यारा तेरी याद आवे

है गुल खिले हुए

मन बने भवरा यू

इतना सा ही शहद क्यूँ

 

होवे रात ज्यादा काली

जुल्फों की चादर ओढ़े

माप लू धागे धागे यू

मुझसे इतनी दूरी क्यूँ

 

यारा तेरी याद आवे

घायल मन पायल सुनावे

घड़ी घड़ी समय यू

खाली हात क्यूँ आवे…

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – वृक्षराज…– ☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

सौ. विद्या पराडकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– वृक्षराज… – ? ☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

हे वृक्षराज,

तुज सगुण म्हणू की निर्गुण

तुज जीवनदाता म्हणू की ,जीवन

ज्ञानदाता तू की ज्ञानदास

कर्मयोगी तू की कर्मदास !

 

आपुले नाते‌ युगायुगाचे

शिष्यत्वाचे, गुरुत्वाचे

दीपस्तंभ तू  आदर्शाचे

लेणे असे तू बहुमोलाचे !

 

तन मनाने तू श्रीमंत

पाहुनी वैभव चकित आसमंत

गुण पाहून ‌तुझे दाटे उर

कृतज्ञतेने येई नयना पूर !

 

वृक्षवल्ली आम्हा सगेसोयरी

बोलली तुकारामाची वैखरी

वृक्षराज तू छत्र माऊली

लेकरांवर करी  मायेची सावली !

© सौ. विद्या पराडकर

वारजे  पुणे.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #196 – कविता – कई स्वजन हैं मेरे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “कई स्वजन हैं मेरे…” । )

☆ तन्मय साहित्य  #196 ☆

☆ कई स्वजन हैं मेरे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कैसे कह दूँ अपने में,

केवल बस मैं हूँ

मेरे भीतर – बाहर,

कई स्वजन हैं मेरे ।

 

आत्मरूप परमात्मभाव

परिजन प्रिय प्यारे

जीवन पथ पर,

रहे सहायक साथ हमारे

प्रेम परस्पर भाई बहन

माँ-पिता, पुत्र का

पुत्रवधू, पुत्रियाँ,

भाव निश्छल सुविचारें,

जन्मजात संबंध रक्त के

भेदभाव नहीं मेरे तेरे।

मेरे भीतर बाहर कई स्वजन हैं मेरे।

 

बचपन में माँ पिता

बहन भाई सँग खेले

बड़े हुए तो लगे

युवा मित्रों के मेले

फिर पत्नी, पत्नी के परिजन

हुए निकटतम

धूप-छाँव के स्वप्न

विचित्र सुखद अलबेले,

प्रेमसूत्र में बँधे,

शक्ति-सामर्थ्य और सुख हैं बहुतेरे।

मेरे भीतर बाहर कई स्वजन है मेरे।

 

माँ से लाड़ – दुलार,

स्नेह संसार मिला

प्राप्त पिता से जीवन,

जग-व्यवहार कला

भाई-बहनों से सम्बन्ध,

समन्वय सीख

संतानों से मन-उपवन

है खिला-खिला,

स्वाभाविक ही जीवन में

सुख-दुख के भी रहते हैं फेरे

मेरे भीतर बाहर कई स्वजन है मेरे।

 

परिजन रहित,

अकेला जीवन तो है खाली

बगिया में ज्यों,

बिन फूलों के रहता माली

हो कृतज्ञ मन,

एक दूजे से प्रीत निभाएँ

तभी मनेगी  राखी,

होली, ईद,  दिवाली,

बिन परिजन अभिमन्यु तोड़

सका नहीं चक्रव्यूह के घेरे।

मेरे भीतर बाहर कई स्वजन हैं मेरे।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 21 ☆ हमारी आस्थाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “हमारी आस्थाएँ…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 21 ☆ हमारी आस्थाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हल नहीं मिलता

किसी भी प्रश्न का

हो गईं बहरी हमारी आस्थाएँ।

 

दिन उगा सूरज लिए

शाम को फिर ढल गया

और अपनी अस्मिता को

कोई आकर छल गया

 

डूबते तिनके

मिले हर बार ही

चुक गईं या मर गईं संभावनाएँ।

 

हो रहे गहरे अँधेरे

साँस हर पल जागती है

रात के अंधे कुए में

भोर उजली चाहती है

 

मौन पीती

आँख अश्रु से भरीं

निरर्थक सब हो गईं हैं प्रार्थनाएँ ।

 

टेरते ही रह गए हम

भागते से अवसरों को

वक्त के हाथों पिटे

देखा किए बाजीगरों को

 

खेल के मोहरे

ही बनकर रह गए

दफ़्न होकर रह गईं सब कामनाएँ ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अपनों ने ही मेरी खातिर साज़िश की… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अपनों ने ही मेरी खातिर साज़िश की“)

✍ अपनों ने ही मेरी खातिर साज़िश की… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

दिल से जब भी कुछ पाने की कोशिश  की

सबने दिल को बहलाने की कोशिश की

जब से सर पे खुशियों का साया आया

अपनों ने ही मेरी खातिर साज़िश की

मातम सी मायूसी छाई महफ़िल में

कौन आया है जिसने आकर ताबिश की

आपस का राजीनामा कर लो अच्छा

वर्षों पेशी करना है जो नालिश की

वो बनता फ़नकार बड़ा सबसे हटकर

जिसने फ़न की अपने खूब नुमाइश की

नजराना ही बदला करता है नजरें

बेज़ा जाती खाली दोस्त गुजारिश की

महदूद अरुण को इल्म अदब का था यारो

उसकी रहमत मानो जो है दानिश की

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 80 – पानीपत… भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 80 – पानीपत… भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बैंक्स को नेटवर्किंग जिसे कोर बैंकिंग भी कहा गया, उसी तरह अटपटा लगा जैसे हायर सेकेंडरी तक हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के बाद महाविद्यालयीन शिक्षा अंग्रेजी में हो और समझने वाले और समझाने वाले अलग अलग पादान पर खड़े हों. इसी को “सर के ऊपर से निकलना” भी कहा जाता है. बदलते समय के साथ आधुनिकता को अपनाना हमेशा वाणिज्यिक अनिवार्यता रही है और इस परिवर्तन को सुगमतापूर्वक लागू करना भी उतना ही आवश्यक है. यहाँ कम्फर्ट ज़ोन में रहने का मतलब पाषाण युग में रहने जैसा पिछड़ापन माना जाता है. अगर रुक जायेंगे तो बदलाव आपको अकेला छोड़कर आगे बढ़ जायेंगे और यह अयोग्यता की पहचान बन जायेगी. कोर बैंकिंग प्रणाली को लागू करना बड़ी और जटिल शाखाओं के लिये उससे भी बड़ी और अनवरत चलने वाली जटिलताएं लेकर आया. इसे विशेषज्ञों की भाषा में “teething problems” कहा जाता है. विडंबना है कि जो इस तकलीफ से गुजरते हैं वो इस टर्मिनालाजी को नहीं समझ पाते और जो समझ पाते हैं, वे जटिलता किस चिड़िया का नाम है, ये समझ नहीं पाते. तो जो कुछ नहीं जानते थे और जिनके सर पर ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं थी, उनके लिये ये आम बात थी पर जिन्हें इस प्रणाली को शाखाओं में लागू करना था, उनके लिये ये भी एक तरह का पानीपत था. दिन हो या रात, जिस तरह बेटी के विवाह में पिता को कन्या के अलावा भी बहुत कुछ दान करना पड़ता है, छोड़ना पड़ता है, उसी तरह बेहाल थे वे सारे प्रबंधक जो इन जटिल शाखाओं के सिरमौर थे. उनकी हालत हाइवे या फ्लाईओवर से सटे घर के निवासी समान था जहाँ गुजरनेवाली हर बस हर ट्रक लगता है सीने पर से ही गुजर रही है.

पानीपत शाखा में भी यही जटिलता नजर आने लगी थी. नये सिस्टम को जानना और समझना शाखा के हर स्टाफ की इच्छा थी जो वक्त के साथ धीरे धीरे क्षमता में वृद्धि कर ही देता. पर कस्टमर्स की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप हर काम का होना धीरे धीरे ही संभव था, त्वरित निदान सपना था. शुरुआत में ऐसा ही लगा कि पहले से कच्चे रास्तों पर चलने वाली गाड़ी, रेतीले पथ पर चल कम और घिसट ज्यादा रही है.

दशहरा-दीपावली का अंतराल दैनिक कामों के अलावा फेस्टिवल बोनांजा भी लेकर आता है जो वाहन ऋणों के बजट को आसानी से पाने में मदद करता है. ये ऐसा समय भी होता है जब प्रवासी स्टाफ ये फेस्टिवल अपने परिवार के साथ मनाने के लिये अवकाश मांगता है. हमारे मुख्य प्रबंधक इन सबकी जिम्मेदारी अपने अधीनस्थ प्रबंधकों को सौंपकर, उनके कालातीत होने वाली यात्रा अवकाश सुविधा युक्त यात्रा पर रवाना हो चुके थे. कुरुक्षेत्र का युद्ध ऑफीशियेटिंग कर रहे योद्धाओं द्वारा लड़ा जा रहा था. शायद ये आत्मा की गहराइयों तक पहुंच रहे “स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति” के संकल्प का नतीजा था कि संस्था से विरक्ति की भावना उन्हें उत्तरदायित्व निर्वहन की चिंताओं से भी मुक्त कर रही थी. आई. सी. यू. से वेंटिलेटर की यात्रा का रिटर्न टिकट प्रबल जिजीविषा के बिना मिलता नहीं है. अंतत:वही हुआ जो ऐसी स्थिति में होता है. अर्जुन को गीता का ज्ञान देने वाले कृष्ण इस कुरुक्षेत्र में नहीं थे जो उन्हें रणभूमि के योद्धाओं के कर्तव्य और रणभूमि नहीं त्यागने की मजबूरी समझा पाते. पलायन दशहरे से दीपावली पर्व तक का अंतराल ले चुका था और देवउठनी एकादशी के साथ ही पानीपत के देव भी उठकर, मंद गति और तनाव से ध्वस्त मनोबल के साथ अवतरित हुए. अवकाश से वापसी, व्यक्तित्व में जोश, ताजगी और क्षमता में वृद्धि लेकर होती है जो यहाँ नदारद थी.

पुनः यह लिखना आवश्यक है कि इस श्रंखला का किसी व्यक्ति विशेष से कोई संबध नहीं है. पानीपत का सामना करना असाइनमेंट की अनिवार्यता होती है जो व्यक्ति पर ही निर्भर करती है. श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 196 ☆ गझल – प्रीती… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 196 ?

☆ गझल – प्रीती… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

त्या कालच्या क्षणांचा केला विचार आहे

सांजावता असे का मन बेकरार आहे

अव्यक्त तू जरासा,मी ही मुकीच होते

वाचाळ वेदनाही आता फरार आहे

माझे मला कळेना घडले असेच काही

तो जेवढा मिळाला तितकाच फार आहे

नावे नकाच देऊ नात्यास त्या कधीही

होईल या पुढे जे त्याला तयार आहे

गेले म्हणून कोणी  “वर्षाव ‘तो’ पडो ही”

लाभे क्षणैक प्रीती ती बेसुमार आहे

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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