(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२१ ☆ श्री सुरेश पटवा
हम लोग जैसे-जैसे सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे थे, पसीना से तरबतर होते जा रहे थे। अंत में तीखी चढ़ाई पर पेड़ों की मौजूदगी भी कम होती जा रही थी। तक़रीबन सौ-सवा सौ सीढ़ियाँ बची होंगी। वहाँ सीधी चढ़ाई पर भारी भीड़ अटी थी। चढ़ने वाले और उतरने वाले दोनों आमने-सामने अड़े थे। उनमें ध्यानु-ज्ञानु बकरों का विवेक नहीं था कि एक दूसरे को राह देकर निकल जाएँ। सीढ़ियों के आजूबाजू बहुत बड़े पत्थरों के ढेर थे। जिन पर बंदरों का हुजूम था। एक बंदर ने बच्चे के हाथ से कोल्ड ड्रिंक की बोतल छुड़ा, ढक्कन खोल गटागट पीना शुरू किया तो लोगों ने फोटो निकालना शुरू कर दिया। मानों पुरखों की पेप्सी पसंदगी को सहेजना चाहते हों। भीड़ इंच भर भी नहीं खिसक रही थी। ऊपर आंजनेय पहाड़ी पर जय हनुमान के जयकारे के साथ घंटों की टंकार ध्वनि गूँज रही थी। एक लाउड स्पीकर पर हनुमान-चालीसा चल रहा था। भक्त भी उसकी ध्वनि में ध्वनि मिला रहे थे कि शायद इस मुश्किल से मुक्ति मिल जाए।
एक प्रश्न मन में आया कि हम लोग तो हनुमान-चालीसा पढ़-सुन कर कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की राह देखते हैं। जब हनुमान जी पर मुश्किल आती थी तो वे बुद्धि-विवेक से राह तलाशते थे। जब बुद्धि-विवेक से संजीवनी बूटी सूझ नहीं पड़ी तो समूचा पर्वत उठा लाए थे। भूखी-प्यासी भीड़ निजात की राह तलाशते खड़ी थी। तभी उतरती भीड़ के कुछ युवक चट्टानों के बीच से रास्ता बना नीचे की तरफ़ उतरने लगे। हमने भी इसी तरह की कोशिश सोची। बाईं तरफ जूते-चप्पलों का एक छोटा सा ढेर दिखा। कई भक्त शनिवार को दर्शन करने आते हैं तो अपने जूतों के साथ शनि की बुरी दशा को भी उतार कर फेंक जाते हैं।
शनिदेव से जुड़ी से जुड़ी एक और परिपाटी है कि शनिदेव को तेल का दान करने से शनि के बुरे प्रभाव से मुक्ति मिलती है। जो लोग ये उपाय नियमित रूप से करते हैं, उन्हें साढ़ेसाती और अढय्या से भी मुक्ति मिलती है। लेकिन शनिदेव तेल चढ़ाने से क्यों प्रसन्न होते हैं।
ऐसी मान्यता है कि रावण की क़ैद में शनिदेव काफी जख्मी हो गए थे, तब हनुमान जी ने शनिदेव के शरीर पर तेल लगाया था जिससे उन्हें पीड़ा से छुटकारा मिला था। उसी समय शनि देव ने कहा था कि जो भी व्यक्ति श्रद्धा भक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा उसे सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। तभी से शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परंपरा शुरू हो गई। इसको लेकर कथा प्रचलित है कि रावण ने सभी नौ ग्रहों को बंदी बना रखा था। शनिदेव को उल्टा लिटा कर उनकी पीठ पर पैर रख सिंहासन पर बैठता था। शनिदेव ने रावण से विनती की “हे राजन, मुझे चित लिटा कर मेरे ऊपर पैर रखकर बैठिए, मैं कम से कम आपके मुखारबिंद का दर्शन लाभ प्राप्त करता रहूँगा। विनाशकाले विपरीत बुद्धि कहावत चरितार्थ करते रावण ने शनिदेव को चित लिटा लिया। शनिदेव की वक्रदृष्टि रावण के चेहरे पर पड़ती रही। यहीं से रावण के अंत की शुरुआत होती है।
हनुमान द्वारा मुक्ति के समय शनिदेव ने कहा था कि जो भी व्यक्ति श्रद्धा भक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा उस पर मेरी वक्रदृष्टि नहीं पड़ेगी। उसे सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। एक साथी ने उत्कंठा वश जानना चाहा, क्या ऐसा होता है।
हमने कहा- एक चीज होती है- श्रद्धा और दूसरी चीज उसी से उपजती है- विश्वास। जब आपको हनुमान जी पर श्रद्धा है तो उनके कार्यों पर विश्वास भी होगा ही। नहीं तो विकलांग श्रृद्धा किसी काम की नहीं होती। पूरे भारत में शनिवार को शनिदेव पर तेल चढ़ाया जाता है। यह इसी पौराणिक आख्यान में विश्वास का द्योतक है और इन्ही विश्वासों से किसी देश की संस्कृति जन्म लेती है। आधुनिक मनोविज्ञान मानता है कि मुश्किलों से पार पाने में आत्म-विश्वास बड़े काम की चीज होता है।
हमने भी आत्म-विश्वास पूर्वक जूतों के ढेर पर से चलते हुए सीढ़ियों से हटकर रास्ता बनाया। पंद्रह मिनट में पर्वत की चोटी पर थे। दो साथी भी उसी तरीक़े से ऊपर पहुँच गए। ऊपर से नीचे सीढ़ियों की तरफ़ देखा तो हमारा दल बुरी तरह गसी भीड़ में पैवस्त था। किसी भी तरफ़ निकल नहीं सकता था। उन्हें भीड़ के साथ ही चींटी चाल से खिसक कर चढ़ना था।
हमको भूख लगी थी। एक जगह नारियल से नट्टी निकालने का उपक्रम चल रहा था। कुछ महिलाएं भक्तों का नारियल पत्थरों से कूट कर निकाल एक हिस्सा अपने पास रख बाकी भक्तों को दे देती थीं। हम उनके नज़दीक उनके नारियल निकालने की कला को देखते बैठ गए। एक भक्त हमको भी नारियल से नट्टी निकालने को देने लगे तो हमने तनिक देर सोचा, और नारियल लेकर पत्थरों की दो चोट से गूदा बाहर करके एक हिस्सा उन्हें पकड़ा दिया। दूसरा नीचे रख लिया। फिर तीन-चार भक्त और आ गए। करीब दसेक मिनट यह धंधा चला। भूख मिटाने योग्य नारियल को नल के पानी से धोया और चबाते रहे। कुछ भक्त प्रसाद में मीठी चिरौंजी दे गए। नारियल और चिरौंजी के ग्लूकोस से प्रफुल्लित हो, दल के साथियों के आने तक पहाड़ी से नीचे तुंगभद्रा नदी के आलिंगन में बसे हनुमानहल्ली गांव के साथ सुंदर दृश्यावली का आनंद लिया।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “कविता – परीक्षाओं से डर मत मन…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 220 ☆
☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – परीक्षाओं से डर मत मन… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सोSहम् शिवोSहम्। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 271 ☆
☆ सोSहम् शिवोSहम्… ☆
Sहम् शिवोSहम्…जिस दिन आप यह समझ जाएंगे कि ‘मैं कौन हूं’ फिर जानने के लिए कुछ शेष नहीं रहेगा। इस मिथ्या संसार में मृगतृष्णा से ग्रसित मानव दौड़ता चला जाता है और उन इच्छाओं को पूर्ण कर लेना चाहता है, जो उससे बहुत दूर हैं। इसलिए वे मात्र स्वप्न बन कर रह जाती हैं और उसकी दशा तृषा से आकुल-व्याकुल उस मृग के समान हो जाती है, जो रेत पर विकीर्ण सूर्य की किरणों को जल समझ भागता चला जाता है और अंत में अपने प्राण त्याग देता है। यही दशा आधुनिक मानव की है, जो अधिकाधिक सुख-संपदा पाने का हर संभव प्रयासरत रहता है; राह में आने वाली आपदाओं व दुश्वारियों की परवाह तक नहीं करता और संबंधों को नकारता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। इस स्थिति में उसे दिन-रात में कोई अंतर नहीं भासता। वह अहर्निश कर्मशील रहता है और एक अंतराल के पश्चात् बच्चों के मान-मनुहार, पत्नी व परिजनों के सान्निध्य से वंचित रह जाता है। वह उसी भ्रम में रहता है कि पैसा व सुख-सुविधाएं स्नेह व प्रेम का विकल्प हैं। परंतु बच्चों को आवश्यकता होती है…माता के स्नेह, प्यार-दुलार व सानिध्य-साहचर्य की, पिता के सुरक्षा-दायरे की, जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं और माता-पिता के संरक्षण में वे ख़ुद को किसी बादशाह से कम नहीं समझते। परंतु आजकल बच्चों व बुज़ुर्गों को एकांत की त्रासदी से जूझना पड़ रहा है, जिसके परिणाम-स्वरूप बच्चे ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाते हैं और टी• वी•, मोबाइल व मीडिया की गिरफ़्त में रहते हुए कब अपराध-जगत् में प्रवेश कर जाते हैं; जिसका ज्ञान उनके माता-पिता को बहुत देरी से होता है। घर के बड़े-बुज़ुर्ग भी अक्सर स्वयं को असुरक्षित अनुभव करते हैं। वे आंख, कान व मुंह बंद कर के जीने को विवश होते हैं, क्योंकि कोई भी माता-पिता अपने व अपने बच्चों के बारे में, एक वाक्य भी सुन कर हज़म नहीं कर पाते। इतना ही नहीं, यदि वे बच्चों के हित में भी कोई सुझाव देते हैं, तो उन्हें उसी पल उनकी औक़ात का अहसास दिला दिया जाता है। अपने अंतर्मन में उठते भावोद्वेलन से जूझते हुए, वे मासूम बच्चे अवसाद के शिकार हो जाते हैं और बच्चों के माता-पिता भी आत्मावलोकन करने को विवश हो जाते हैं; जिसका ठीकरा वे एक-दूसरे पर फेंक कर अर्थात् दोषारोपण कर निज़ात पाना चाहते हैं। परंतु यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। अक्सर ऐसी स्थिति में वे अलगाव की स्थिति तक पहुंच जाते हैं।
संसार में मानव के दु:खों का सबसे बड़ा कारण है… विश्व के बारे में पोथियों से ज्ञान प्राप्त करना, क्योंकि यह भौतिक ज्ञान हमें मशीन बना कर रख देता है और हम अपनी हर हसरत को पूरा कर लेना चाहते हैं – चाहे हमें उसके लिए बड़ी से बड़ी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े तथा बड़े से बड़ा त्याग ही क्यों न देना पड़े। यह मानव-जीवन की त्रासदी है कि हम अंधाधुंध बेतहाशा दौड़ते चले जाते हैं, जबकि हम अपने जीवन के लक्ष्य से भी अवगत नहीं होते। सो! यह सब तो अंधेरे में तीर चलाने जैसा होता है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि ‘मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और मेरे जीवन का प्रयोजन क्या है?’
वास्तव में इस आपाधापी के युग में, यह सब सोचने का समय ही कहां मिलता है… जब हम अपने बारे में ही नहीं जानते, तो जीव-जगत् को समझने का प्रश्न ही कहां उठता है? आदि-गुरु शंकराचार्य पांच वर्ष की आयु में घर छोड़ कर चले गए थे… इस तलाश में कि ‘मैं कौन हूं’ और उन्होंने ही सबसे पहले अद्वैत दर्शन अर्थात् परमात्मा की सत्यता से अवगत कराया कि ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है। संसार में जो कुछ भी है…माया के कारण सत्य भासता है और ब्रह्म सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। केवल वह ही सत्य है, निराकार है, सर्वव्यापक है, अनादि है, अनश्वर है। परंतु समय अबाध गति से निरंतर चलता रहता है, कभी रुकता नहीं। प्रकृति के विभिन्न उपादान सूर्य, चंद्रमा, तारे व पृथ्वी आदि सभी निरंतर क्रियाशील रहते हैं। इसलिए सब कुछ निश्चित है; समयानुसार निरंतर घटित हो रहा है और वे सब नि:स्वार्थ व निष्काम भाव से दूसरों के हित में कार्यरत हैं। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते; जल व वायु प्राणदायक हैं…अपने तत्वों का उपयोग व उपभोग स्वयं नहीं करते। श्री परमहंस योगानंद जी का यह सारगर्भित वाक्य ‘खुद के लिए जीने वाले की ओर कोई ध्यान नहीं देता; परंतु जब आप दूसरों के लिए जीना सीख लेते हैं, तो वे आपके लिए जीते हैं’ बहुत सार्थक संदेश देता है। ‘आप जैसा करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है।’ नि:स्वार्थ भाव से किया गया कर्म सर्वोत्तम होता है। गीता के निष्काम कर्म का संदेश मानवतावादी भावनाओं से ओत-प्रोत व आप्लावित है।
स्वामी विवेकानंद जी का यह वाक्य हमें ऊर्जस्वित करता है कि ‘किस्मत के भरोसे न बैठें, बल्कि पुरुषार्थ यानि मेहनत के दम पर ख़ुद की किस्मत बनाइए।’ परमात्मा में श्रद्धा, आस्था व विश्वास रखना तो ठीक है, परंतु हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाने का औचित्य नहीं है। अब्दुल कलाम जी के विचार विवेकानंद जी के उक्त भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘जो लोग परिश्रम नहीं करते और भाग्य के सहारे प्रतीक्षारत रहते हैं, तो उन्हें जीवन में उन बचे हुए फलों की प्राप्ति होती है, क्योंकि पुरुषार्थी व्यक्ति तो अपने अथक परिश्रम से यथासमय उत्तम फल प्राप्त कर ही लेते हैं।’ सो! आलसी लोगों को मन-चाहा फल कभी भी प्राप्त नहीं होता।
‘अपने सपनों को साकार करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि आप जाग जाएं’— पाल वैलेरी का यह कथन बहुत सार्थक है और अब्दुल कलाम जी भी मानव को यह संदेश देते हैं कि ‘खुली आंखों से सपने देखो, अर्थात् यदि आप सोते रहोगे, तो परिश्रमी, पुरूषार्थी लोग आप से आगे बढ़कर वांछित फल प्राप्त कर लेंगे और आप हाथ मलते रह जायेंगे।’ समय बहुत अनमोल है, लौट कर कभी नहीं आता। सो! हर पल की कीमत समझो। ‘स्वयं को जानो और पहचानो।’ जिस दिन आप समय की महत्ता को अनुभव कर स्वयं को पहचान जाओगे…अपनी बलवती इच्छा से वैसे ही बन जाओगे। सो! आवश्यकता है–अपने अंतर्मन में निहित सुप्त- शक्तियों को जानने की, पहचानने की, क्योंकि पुरुषार्थी लोगों के सम्मुख, तो बाधाएं भी खड़ा रहने का साहस नहीं जुटा पातीं…इसलिए अच्छे लोगों की संगति करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि उस स्थिति में बुरा वक्त आएगा ही नहीं। जब आपके विचार अच्छे होंगे, तो आपकी सोच भी सकारात्मक होगी और आप सत्य के निकट होंगे। सत्य सदैव कल्याणकारी होता है, शुभ होता है, सुंदर होता है और सबका प्रिय होता है। दूसरी ओर सकारात्मक सोच आपको निराशा रूपी गहन अंधकार में भी भटकने नहीं देती। आप सदैव प्रसन्न रहते हैं और खुश-मिज़ाज लोगों की संगति सबको प्रिय होती है। इसलिए ही रॉय गुडमैन के शब्दों में ‘हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि खुशी जीवन की यात्रा का एक तरीका है, न कि जीवन की मंज़िल’ अर्थात् खुशी जीने की राह है; अंदाज़ है, जिसके आधार पर आप अपनी मंज़िल पर सहजता से पहुंच सकते हैं।
मानव व प्रकृति का निर्माण पंच-तत्वों से हुआ है… पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और अंत में मानव इनमें ही विलीन हो जाता है। परंतु दुर्भाग्यवश, वह आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के द्वंद्व से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता तथा इसी ऊहापोह में उलझा रहता है। हमारे वेद, उपनिषद्, शास्त्र, तीर्थ-स्थल व अन्य धार्मिक – ग्रंथ समय-समय पर हमारा ध्यान जीवन के अंतिम लक्ष्य की ओर दिलाते हैं… जिसका प्रभाव स्थायी होता है। कुछ समय के लिए तो मानव निर्वेद अथवा निरपेक्ष भाव से इनकी ओर आकर्षित होता है, परंतु फिर माया के वशीभूत होने के पश्चात् सब कुछ भुला बैठता है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है कि वह उसका नाम-सिमरन व ध्यान करना चाहता है, परंतु उस स्थिति में पांचों कर्मेंद्रियां आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा उसके नियंत्रण में नहीं होतीं। उसका शरीर शिथिल हो जाता है, बुद्धि कमज़ोर पड़ जाती है तथा नादान मानव सबसे अलग-थलग पड़ जाता है, क्योंकि वह अहंनिष्ठ स्वयं को आजीवन सर्वश्रेष्ठ समझता रहा। आत्मचिंतन करने पर ही उसे अपनी ग़लतियों का ज्ञान होता है और वह उस स्थिति में प्रायश्चित करना चाहता है। परंतु उसके परिवार-जन भी अब उससे कन्नी काटने लग जाते हैं। कुछ समय गुज़र जाने के पश्चात् उन्हें उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती और वे सब उसे नकार देते हैं। सो! अब उसे अपना जीवन रूपी बोझ स्वयं अकेले ही ढोना पड़ता है।
बेंजामिन फ्रैंकलिन का यह कथन ‘बुद्धिमान लोगों को सलाह की आवश्यकता नहीं होती और मूर्ख लोग इसे स्वीकार नहीं करते’ विचारणीय है। इसके माध्यम से मानव में आत्मविश्वास की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। यदि वह बुद्धिमान है, तो शेष जीवन का एक-एक पल स्वयं को जानने-पहचानने में लगा देता है… और प्रभु का नाम-स्मरण करने में रत रहता है। ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ अर्थात् प्रभु की सत्ता व महिमा अपरंपार है। मानव चाह कर भी उसका पार नहीं पा सकता। उस स्थिति में उसे प्रभु-कथा सत्य और शेष सब जग-व्यथा प्रतीत होती है। सो! मानव सदैव मौन रहना अधिक पसंद करता है और वह निंदा-स्तुति, स्व-पर व राग-द्वेष से बहुत ऊपर उठ जाता है। उसे किसी से कोई शिक़वा व शिकायत नहीं रहती, क्योंकि उसकी भौतिक इच्छाओं का तो पहले ही शमन हो चुका होता है। इसलिए वह सदैव संतुष्ट रहता है… स्वयं में स्थित रहता है और प्रभु को प्राप्त कर लेता है। वह कबीर की भांति संसार में उस सृष्टि-नियंता की छवि के अतिरिक्त किसी अन्य को देखना नहीं चाहता…’नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं/ न हौं देखूं और को, न तुझ देखन देहुं’ अर्थात् वह प्रभु को देखने के पश्चात् नेत्र बंद कर लेता है, ताकि वह उसके सानिध्य में रह सके। यह है प्रेम की पराकाष्ठा व तादात्म्य की स्थिति…जहां आत्मा-परमात्मा में भेद समाप्त हो जाता है। सूरदास जी की गोपियों का कृष्ण को दिया गया उपालंभ भी इसी तथ्य को दर्शाता है कि ‘भले ही तुम नेत्रों से तो ओझल हो गए हो और गोकुल से मथुरा में जाकर बस गए हो, परंतु उनके हृदय से दूर जाकर दिखलाओ, तो मानें’ गोपियों के प्रगाढ़ प्रेम व अगाध विश्वास को दर्शाता है। ‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय’ अर्थात् प्रेम की तंग गली में उसी प्रकार दो नहीं समा सकते, जैसे एक म्यान में दो तलवार। अत: जब तक आत्मा-परमात्मा का मिलन नहीं हो जाता, तब तक वह कैवल्य की स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक मानव विषय-वासनाओं…काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार का त्याग कर, ‘मैं और तुम’ की स्थिति से ऊपर नहीं उठ जाता…वह ‘लख चौरासी अर्थात् जन्म- जन्मांतर तक आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।’
अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि सोSहम् शिवोSहम् अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूं और सम्पूर्ण प्राणी-जगत् सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की भावनाओं से ओत-प्रोत है। सो! उस सृष्टि-नियंता की सत्ता को जानना-पहचानना ही मानव का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। मानव जब स्वयं को जान जाता है…समस्त सांसारिक बंधन व भौतिक सुख- सुविधाएं उसे त्याज्य प्रतीत होती हैं। वह पल भर भी उस प्रभु से अलग रहना नहीं चाहता। उसकी यही कामना, उत्कट इच्छा व प्रबल आकांक्षा होती है कि एक भी सांस बिना प्रभु-सिमरन के व्यर्थ न जाए और स्व-पर व आत्मा-परमात्मा का भेद समाप्त हो जाए। यही है–मानव जीवन का प्रयोजन व अंतिम लक्ष्य… सोSहम् शिवोSहम्– जिसे प्राप्त करने में मानव को जन्म-जन्मांतर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – प्रेम रंग डालें कान्हा…।
रचना संसार # 44 – गीत – प्रेम रंग डालें कान्हा… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के मुक्तक – नारी ।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
आई मी आता मोठा झालोय बघ.. करून येऊ दे कि मला एकट्याने जंगलची सफर… घेऊ दे कि मला शिकारीचा अनुभव… कळू दे इतर प्राण्यांना या छोट्या युवराजची काय आहे ती ताकद… जंगल राजांच्या दरबारात मलाही जायचं राजांना मुजरा करायला… आलो आहे आता तर सामिल करुन घ्या मला तुमच्या सैनिक दलात.. मी लहान कि मोठा याचा फारसा करू नका विचार तुम्ही खोलात… बऱ्या बोलानं जे तुमचा हुकूम पाळणार नाहीत… त्यांची काही मी खैर ठेवणार नाही.. जो जो जाईल विरोधात या राजाच्या त्याचा त्याचा करीन मी फडशा फडशा… मग तो कुणी का असेना दिन दुबळा वा बलवान… त्याला राजा पुढे तुकवावी लागेलच आपली मान… राजाच्या पदरी मुलुखगिरीचा होईन मी शिपाईगडी.. स्वारीला जाऊन लोळवीन ना एकेका शत्रूची चामडी.. गाजवीन आपली मर्दुमकी मग खूष होऊन राजे देतीलच मला सरदारकी… मग दूर नाही तो दिवस चढेल माझ्या अंगावरती झुल सरसेनापतीची.. बघ आई असा असेल तुझ्या लेकराचा दरारा… भितील सारी जनाता कुणीच धजणार नाही माझ्या वाऱ्याला उभा राहायला.. मिळेल मला मग सोन्या रूप्याची माणिक मोत्यांची नि लाख होनांची जहागिरी.. जी माॅ साहेब म्हणतील तुला सदानकदा कुणबिणी वाड्यात करताना चाकरी… ते दिवस नसतील कि फार दूरवर बघ यशाचे आनंदाचे नि सुखाचे आपले दारी गज झुलती.. आई मी आता मोठा झालोय बघ करू दे कि मला राजाची चाकरी… “
“अरे तू अजून शेंबडं पोरं आहेस.. अजूनही तुझं तुला धुवायचं कळतं तरी का रे… नाही ना.. मग आपण नसत्या उचापतींच्या भानगडी मध्ये नाक खुपसू नये समजलं… आपला जन्म गुलामगिरी करण्यासाठी झालेला नाही.. ताठ मानेने नि स्वतंत्र बाण्याने जगणारं रे आपलं आहे कुळ… जीवो जीवस्य जीवनम हाच आहे आपल्या जगण्याचा मुलमंत्र… पण म्हणून काही उठसुठ विनाकारण आपण दीनदुबळ्यांची शिकार करत नाही… जगा आणि जगू द्या हाच निर्सागाचा नियम आपण पाळत असतो… आणि अत्याचार कुणी करत असेल इथे तर त्याला सोडत नसतो.. पण जे काही करतो ते स्वबळावर… कुणाच्या चाकरीच्या दावणीला बांधून गुलामगिरीचं जिणं कधीच जगत नाही… त्यांनी म्हटलं पाहिजे असा कनवाळू राजा दुसरा आम्ही कधी पाहीलाच नाही… असा ठेवलाय आपण प्रेमाचा दरारा सगळ्या जंगलाच्या वावरात… म्हणून तर आजही आपलं आदरानं नावं घेतलं जात घराघरात… तुला व्हायचं ना मोठं मग हे स्वप्न तू बाळगं आपल्या उराशी… राज्यं असलं काय नि नसलं काय काही फरकच पडत नसतो आपल्याला असल्या टुकार, लबाड, विचाराशी… आपणच आपल्याला कधी राजे म्हणवून घ्यायचंय नाही ते रयतेने विनयाने, आदराने म्हणत असतात ते पहा ते निघालेले दिसताहेत ना ते आमचे राजे आहेत… समजलं…
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सत्यवाद का स्कूल।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 47 – सत्यवाद का स्कूल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
गांव के बीचों-बीच एक पुराना पीपल का पेड़ था। उसी के नीचे सत्यवाद का स्कूल खुला था। नाम था – “अखिल भारतीय झूठ सत्यापन संस्थान।” बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था – “यहां केवल सत्य की जांच होती है, कृपया झूठ लेकर आएं।” गांव के लोग इसे ‘झूठ स्कूल’ कहते थे। गांववालों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका था।
गांव के प्रधान, रामभरोसे, उद्घाटन में बोले, “झूठ बोलना तो पुरानी कला है। मगर आजकल झूठ की गुणवत्ता गिर गई है। कोई ऐसा झूठ नहीं बोलता जिसे सुनकर दिल में कुछ हलचल हो। इसलिए यह स्कूल खुला है। यहाँ झूठ को परखकर ही उसे प्रामाणिक माना जाएगा।”
सत्यवाद का स्कूल जल्द ही लोकप्रिय हो गया। यहां गांव के हर व्यक्ति का कोई न कोई झूठ पहुंचता। मंगू काका सबसे ज्यादा चाव से आते थे। उनका एक मशहूर झूठ था, “मेरी गाय दूध देती है, मगर गोबर नहीं करती। उसे गंदगी पसंद नहीं।” हर बार जब मंगू काका यह बयान देते, स्कूल के सत्यापक ‘बूटी बाबू’ उनकी बात पर गहरी सोच में पड़ जाते। सत्यापन का झंडा लेकर वे काका की गाय के पीछे कई दिन तक दौड़ते, लेकिन फिर भी गोबर का एक निशान न मिलता।
गांव के साहूकार हरिराम का सबसे बड़ा झूठ था, “मैं गरीब हूं।” जब उन्होंने यह झूठ पेश किया, बूटी बाबू ने उनके घर की तलाशी ली। घर के अंदर सोने-चांदी के बर्तन, पैसे से भरे संदूक और गहनों का ढेर था। फिर भी हरिराम साहूकार रोते हुए कहता, “मेरे पास जो है, वो सब उधार का है। असली गरीब तो मैं हूं।” स्कूल ने इसे ‘ध्यान खींचने वाला झूठ’ की श्रेणी में डाल दिया।
फिर, गांव की चंडाल चौकड़ी आई। उनका झूठ था, “हम चोरी नहीं करते। हम ईमानदार लोग हैं।” बूटी बाबू ने उनकी गुप्त ‘सामान संग्रह कुटिया’ देखी, जहाँ उनके सारे चुराए हुए सामान सहेजे हुए थे। मगर सत्यापन के बाद यह तय हुआ कि चोरों का दावा सच था—वे चोरी को ‘सामाजिक सेवा’ मानते थे।
स्कूल के सबसे सम्मानित सदस्य थे पंडित जी, जो झूठ को सत्य की चादर में लपेटकर पेश करते। उनका एक बयान था, “मैं रोज चार घंटे पूजा करता हूं और आधे घंटे उपदेश देता हूं।” बूटी बाबू ने जांच की तो पाया कि पंडित जी पूजा के नाम पर मेवे खा रहे थे और उपदेश के नाम पर सपने देख रहे थे। सत्यवाद स्कूल ने इसे ‘सपनों की पूजा’ के तहत प्रमाणित किया।
फिर आई बारी सरकार की। तहसीलदार साहब ने एक झूठ भेजा, “हमारी योजनाएं लोगों की भलाई के लिए हैं।” सत्यवाद स्कूल के अध्यापक बूटी बाबू ने महीनों तक योजना के दस्तावेजों की जांच की। उन्होंने पाया कि योजना का फंड ‘लाल किले के रंगाई-पुताई’ में खर्च हो चुका था। मगर सत्यवाद स्कूल ने इसे ‘लाल झंडे वाला झूठ’ घोषित कर दिया।
झूठों की इस अद्भुत प्रदर्शनी ने सत्यवाद स्कूल को इतने प्रसिद्ध कर दिया कि अखबारों में खबरें छपने लगीं। एक दिन एक विदेशी पत्रकार गांव में आया और पूछा, “आपके गांव में झूठ बोलने की कला इतनी अद्भुत कैसे है?” बूटी बाबू ने उत्तर दिया, “हमारे गांव में झूठ बोलने को कला माना जाता है। सच तो हर कोई कहता है, मगर झूठ बोलना मेहनत का काम है। इसे रचने में कल्पनाशक्ति चाहिए, तर्क चाहिए और थोड़ा-सा पागलपन भी।”
पत्रकार ने यह सुनकर गांव को ‘झूठों का वैश्विक केंद्र’ का नाम दे दिया। सत्यवाद का स्कूल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हो गया। लेकिन बूटी बाबू ने अंत में घोषणा की, “झूठ बोलना कला है, मगर सच सुनना साधना। झूठ की सीमाओं को समझना और सत्य के प्रकाश को ग्रहण करना ही हमारी अंतिम शिक्षा है।”
और इसी शिक्षा के साथ, सत्यवाद का स्कूल एक परंपरा बन गया। गांववालों ने झूठ को कला माना, मगर सच को जीवन का आधार। इस हास्य और व्यंग्य के बीच, हरिशंकर परसाई की शैली में यह कथा बताती है कि सत्य और झूठ के बीच का सफर, इंसान की आदतों और समाज की विडंबनाओं का खूबसूरत आईना है।