हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – वह हँसती बहुत है – कवयित्री – सुश्री स्वरांगी साने — ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 21 ?

?ह हँसती बहुत है  — कवयित्री – सुश्री स्वरांगी साने  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- वह हँसती बहुत है

विधा- कविता

कवयित्री- सुश्री स्वरांगी साने

? स्त्रीत्व का वामन अवतार- ‘वह हँसती बहुत है।’  श्री संजय भारद्वाज ?

कविता और संवेदना का चोली-दामन का साथ है। अनुभूति कविता का प्राणतत्व है। जैसा अनुभव करेंगे, वैसा जियेंगे। जैसा जियेंगे वैसी ढलेगी, बहेगी कविता। यह अखंड जीना किसी को कवि या कवयित्री बना देता है। कवयित्री स्वरांगी साने इस जीने को स्त्री जीवन के अमर पक्ष अर्थात पीहर तक ले जाती हैं। यहीं से उनकी कविता में सदाहरी बेल पनपने लगती है-

कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है..*

‘वह हँसती बहुत है’ संग्रह की कविताएँ स्त्री जीवन के विविध आयामों को अभिव्यक्त करती हैं। प्रेम, जीवन का डीएनए है‌। यही प्रेम प्राय: दोराहे पर ला खड़ा करता है।  एक राह मिलन के बाद की टूटन और दूसरी ना मिल पाने की कसक अथवा बिछुड़न। दूसरी राह शाश्वत है। ये शाश्वत की कविताएँ हैं। इस शाश्वत की बानगी ‘मेडिकल टर्म्स’ में देखिए-

धुंधला दिख रहा है/ सब कह रहे हैं मोतियाबिंद हो गया है/ पर वह जानती है/ ठहर गए हैं सालों साल के आँसू /आँखों में आकर..*

आह और वाह को एक साथ जन्म देती शाश्वत की यह अभिव्यक्ति जितनी कोमल है, उतनी ही प्रखर भी। यह शाश्वत ‘धोखा’, ‘ऐसे करना प्रेम’,  ‘मीरा के लिए’, ‘ललक’, ‘पार हो जाती’, ‘तुमने कहा था’, ‘चाहत’, ‘रसोई’, ‘यात्रा’, ‘जो बना रहा’  जैसी अन्यान्य कविताओं के माध्यम से इस संग्रह में यत्र, तत्र, सर्वत्र दिखाई देता है। शाश्वत प्रेम की एक हृदयस्पर्शी बानगी ‘फेसबुक’ कविता से,

फेसबुक पर तुम्हारे नाम के पास/  ले जाती हूँ कर्सर/ लगता है/  तुम्हें छू कर लौटी हूँ…*

बिछुड़न का कारण और निवारण, गहरे से निकलता है, पाठक को गहरे तक भिगो देता है,

उसकी संजीवनी बूटी हो तुम/  जो नहीं हो उसके पास… * 

प्रेम कोमल अनुभूति है पर प्रेम चीर देता है। प्रेम टीस देता है, व्याकुलता और विकलता देता है लेकिन यही प्रेम संबल और बल भी देता है। खंडित होकर अखंड होने का संकल्प और ऊर्जा भी देता है। कवयित्री प्रेम की मखमली अभिव्यक्ति से आगे बढ़ती हैं और सांसारिक यथार्थ को निरखती, परखती और उससे लोहा लेती हैं,

मैंने बंद कर दिया है तुमसे अपना वार्तालाप/ अब शुरू हुआ है मेरा खुद से संवाद..*

समय के थपेड़े व्यक्ति पर पाषाण कठोरता का आवरण चढ़ा देते हैं,

बाहर से वह कठोर दिखती है/  इतनी कि लोग उसे अहिल्या कहते हैं..*

पत्थर के भीतर भी स्त्री बची रहती है पर स्त्री  की देह उसे डरने के लिए विवश भी करती है,

कछुआ नहीं लड़की है वह/  और तभी वह समझ गई यह भी कि/  सुरक्षित नहीं है वह/  फिर सिमट गई अपनी खोल में..*

खोल या आवरण को तोड़कर बाहर लाती है शिक्षा। शिक्षा अर्थात पढ़ना। पढ़ना अर्थात केवल साक्षर होना नहीं। पढ़ना अर्थात देखना, पढ़ना अर्थात गुनना, पढ़ना अर्थात समझना। पढ़ना अर्थात विचार करना, पढ़ना अर्थात विचार को अभिव्यक्त करना।  समाज स्त्रीत्व की खोल से बाहर आती स्त्री को देखकर, उसके चिंतन को समझ कर चिंतित होने लगता है, 

खतरा तो तब मंडराता है/ पढ़ने लगती है/ औरत कोई किताब..*

औरत पढ़ने लगती है किताब। औरत लिखने लगती है किताब। स्त्री जीवन का अनंत विस्तार  सिमटकर उसकी कलम की स्याही में उतर आता है,

किसी तरह चुरा लेनी है/  मेहंदी की गंध और उसका रंग भी/ तो बेटियां निकल सकती हैं/  इस तिलिस्म से बाहर/ सच अभी इतनी भी देर नहीं हुई..*

………

इतिहास कहता है/ वह वैशाली की नगरवधू थी/ इतिहास में नहीं कहा कि/ वह एक स्त्री थी..*

‘सौरमंडल’, ‘हँसी’, ‘नर्तकी’ और ऐसी अनेक कविताओं में स्त्री के ब्रह्मांड का मंथन है। ‘प्याज़’ नामक कविता इसका क्लासिक उदाहरण है। 

बहुत सारा प्याज़/ काटने बैठ जाती थी माँ/ कहती थी मसाला भूनना है/ तब समझ नहीं पाती थी/ इतना अच्छा क्या है प्याज़ काटने में/ आज पूछती है बेटी/ क्या हुआ?/ और वह कह देती है/ कुछ नहीं/ प्याज़ काट रही हूँ..*

अपनी जिंदगी अपनी तरह से नहीं जी पाने की निराशा अपनी तरह से मरने की आज़ादी का शंख फूँकती है।

उसे मरने का कॉपीराइट चाहिए..*

‘वह हँसती बहुत है’ संग्रह की कविताएँ स्त्रीत्व का वामन अवतार हैं। इस संग्रह की कविताएँ स्त्री जीवन की विराटता को अल्प शब्दों में जीने का सामर्थ्य रखती हैं, यथा-

एक कदम में लांघा माँ का घर/ दूसरे में पहुँच गई ससुराल/ विराट होने की ज़रूरत ही नहीं रही/और उसने नाप ली दुनिया..* 

इस संग्रह की रचनाएँ स्त्री जीवन की विसंगत स्थितियों का वर्णन अवश्य करती हैं पर अपना स्त्रीत्व नहीं छोड़तीं। यह स्त्रीत्व है जिजीविषा का, सपने देखने का, सपना टूटने पर फिर सपना देखने का। सदाहरी विस्तार पाती है,  और शब्द फूटते हैं,

खुली आँखों से सपना देखती/ सपने को टूटता देखती/ खुद को अकेला देखती/  फिर भी वह सपना देखती..*

कवयित्री के सपने फलीभूत हों, कवयित्री निरंतर लिखती रहें।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #29 – गीत – आहत स्वप्न हुए सारे हैं… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतआहत स्वप्न हुए सारे हैं

? रचना संसार # 29 – गीत – आहत स्वप्न हुए सारे हैं…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

(मात्रा भार 16/14)

☆ 

सन्नाटा गलियों में पसरा,

बाँध धैर्य का टूट गया।

सकल विश्व में संकट छाया,

देख लुटेरा लूट गया।।

 *

गंगा तट लाशों का डेरा,

पड़ी भँवर जीवन नैया।

सस्ती देखो मौत हुई है,

छिपे कहाँ थाम खिवैया।।

धीरज अब  पंथी ने खोया,

सारा तन ये कूट गया।।

 *

नित्य हलाहल धरती पीती,

नील गगन खामोश खड़ा।

जीवन राग द्वेष में बीता,

पिँजरे में तन कैद पड़ा।।

बैठे किस्मत  को कोसें सब,

घड़ा पाप का फूट गया।

 *

आज सृजन भी मौन हुआ है,

भाव शब्द का रूठ रहा।

मानवता की बात करो मत,

हरा वृक्ष भी ठूँठ कहा।।

बना शिकारी देख मनुज है,

सँग अपनों का छूट गया।

 *

आहत स्वप्न हुए सारे हैं,

अपनों ने हैं घाव दिए ।

घोर तिमिर की छाया है अब,

उजियारे हैं होंठ सिए।।

टूटी हर मर्यादाएँ अब,

छोड़ धरा रँगरूट गया।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #256 ☆ भावना के दोहे – गुड़िया, फूल और तितली☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 256 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  – गुड़िया, फूल और तितली ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

फूलों पर मंडरा रही, तितली रानी खूब।

बैठी हो चुपचाप क्यों, नहीं लगी क्या ऊब।।

*

 फूलों का रस चूसती, खुश हो जाते फूल।

साथ फूल का मिल रहा, उसको यही कबूल।।

*

उड़ती तितली देखती, पकडूँ उसको हाथ।

मन तो उसका कर रहा, खेलूँ उसके साथ।।

*

सौरभ की बगिया में, लगी झूमती खूब।

हरियाली की हरितिमा, देख रही है डूब।।

*

तितली देखें राह में, गुड़िया रानी पास।

मंद-मंद मुस्कान है, बस छूने की आस।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #238 ☆ आज लुटेरे घूम रहे हैं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  आपकी रचना आज लुटेरे घूम रहे हैं…  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 238 ☆

☆आज लुटेरे घूम रहे हैं☆ श्री संतोष नेमा ☆

भीड़ भाड़ से बच  कर रहना

जेब कटे तो फिर  ना कहना

रखते नजर जेब पर आपकी

पर्स  संभालो  अपनी  बहना

साथ वक्त के तुम भी ढहना

पहनो मत स्वर्ण  के  गहना

आज   लुटेरे   घूम   रहे  हैं

गड़ा के अपने लोभी  नयना

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 237 ☆ पैसा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 237 – विजय साहित्य ?

☆ पैसा…! ☆

दाम करी काम। म्हण झाली खरी ।

लक्ष्मी घरोघरी। वास करी ।। 1।।

*

मिळविण्या तिला। झटे रंक राव।

पैशाचेच नाव। चराचरी ।। 2।।

*

पैसा दुःख मूळ। पैसाच जीवन।

हरवले मन। पैशासाठी ।। 3।।

*

जे जे हवे ते ते। पैसा देतो सारे ।

पैशाचेच वारे। आसमंती ।। 4 ।।

*

पैशावर आता। जन्म मृत्यू तोल ।

षडरिपू बोल। पैशातून।। 5 ।।

*

पैसा जातो म्हणे। पैसे वाल्याकडे।

गरीबाचे रडे। निर्वासित ।। 6 ।।

*

धनिकांचे मढे। फुलांचेच हार ।

द्रव्य अपहार। लेकरात ।। 7 ।।

*

माणसाच्या साठी। पैसा आहे माया।

स्वार्थ लोभी छाया। अपकारी ।। 8 ।।

*

गरजेला जेव्हा। तनाचा बाजार ।

पैशाचा आजार। बळावतो ।। 9 ।।

*

जगविण्या देह। श्वाच्छोश्वास जसा।

पैसा हवा तसा। निरंकारी ।। 10 ।।

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १६ — दैवासुरसम्पद्विभागयोगः— (श्लोक ११ ते २३) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १६ — दैवासुरसम्पद्विभागयोगः— (श्लोक ११ ते २३) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः । 

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥ ११ ॥

*

चिंता अपरिमित जन्मभराची ओझे वाहत जगती

विषयभोग आनंद श्रेष्ठतम मानुनि जीवन जगती ॥११॥

*

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः । 

ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्‌ ॥ १२ ॥

*

पाशांनी आशांच्या बद्ध बाधा कामक्रोधाची

अर्थसंग्रह करित अन्याये तृष्णा विषयभोगाची ॥१२॥

*

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌ । 

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌ ॥ १३ ॥

*

प्राप्त जाहले जे मजला करण्या मनोरथ पूर्ती

धनी मी विपुल धनाचा होईल पुनरपि धनप्राप्ती ॥१३॥

*

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि । 

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ १४ ॥

*

वधिले शत्रूंना मी माझ्या आणखीनही वधेन मी

सिद्धीप्राप्त ईश्वर भोक्ता बलदंड मी सदा सुखी मी ॥१४॥

*

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया । 

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ १५ ॥ 

*

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः । 

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ १६ ॥

*

धनवान मी कुलवान मी मजसम ना येथे कोणी

यज्ञ करूनी दाना देइन जीवन जगेन आनंदानी

मोहाच्या या जाळ्यात अडकले अज्ञानाने भ्रांतचित्ती

कामाच्या भोगात गुंतुती महाऽपवित्र नरकात गती ॥१५, १६॥

*

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । 

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌ ॥ १७ ॥

*

धनमान मदाने होउनी गर्विष्ठ उन्मत्त

पाखंडी शास्त्रविधीहीन यज्ञासी करतात ॥१७॥

*

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः । 

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १८ ॥

*

अहंकार बल दर्प कामना संतापाने ग्रस्त

परनिंदेच्या आनंदात दंग होउनी स्वस्थ

देहस्थ आपुल्या इतरांच्या माझी ना जाण

सदैव माझा द्वेष करती धनञ्जया तू जाण ॥१८॥ 

*

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌ । 

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १९ ॥

*

क्रूर द्वेषी त्या पाप्यांना कृपा माझी ना लाभे 

माझ्याकरवी संसारीं त्यां योनी आसुरी लाभे ॥१९॥ 

*

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । 

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌ ॥ २० ॥

*

ऐशा मूढा मी न प्राप्त हो जन्मोजन्मांतरी

प्रतिजन्मी त्यां जन्म लाभतो योनी आसूरी 

सदैव त्यांना अधःपात होउनिया नीचगती

घोर नरक त्यांच्या वाटे जाणी रे तनयकुंती ॥२०॥ 

*

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । 

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌ ॥ २१ ॥

*

काम-क्रोध-लोभाची त्रिविध द्वारे नरकाला

नाश करूनी अधोगतीला नेती आत्म्याला

प्राप्त करण्यासी सद्गती विवेक जागवुनी

त्याग करा या तिन्ही गुणांचा सद्गुण जोपासुनी ॥२१॥

*

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः । 

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌ ॥ २२ ॥

*

नरक कवाडे मुक्त जाहला कल्याणाच्या आचरणे

प्राप्त तयासी परम गती ममस्वरूपी विलीन होणे ॥२२॥

*

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । 

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ॥ २३ ॥

*

स्वैर जयांचे असे आचरण शास्त्रविधी त्यागुनी

सुखही नाही सिद्धी नाही परमगती ना कोठुनी ॥२३॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसंपद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६॥

*

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी दैवासुरसंपद्विभागयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित षोडशोऽध्याय संपूर्ण ॥१६॥

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 220 ☆ पर्यावरण से जुड़ाव… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना पर्यावरण से जुड़ाव। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 220 ☆ पर्यावरण से जुड़ाव

कार्तिक मास जीवन को प्रकाशित करने का, देवउठनी का, जगमग दीपमाला का, अन्नकूट का प्रतीक है। केवल स्वयं तक सीमित न रहकर चारों खुशियों को बिखेरने का मार्ग। आँवला, तुलसी, गन्ना, सिंघाड़ा, सीताफल, चनाभाजी, फली, काचरिया साथ ही सभी सब्जियाँ। इनका पूजन सनातनी पूरे मास किसी न किसी रुप में करते हैं। खील- बताशे संग मिठाइयों को एक दूसरे के साथ बाँटकर कर खाना।

इस मास उपहार में मेवा मिष्ठान के साथ फलों की टोकरी भी उपहार में देने का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है। देने का भाव जहाँ एक ओर आपमें उम्मीद जगाता हैं वहीं दूसरी ओर प्रकृति आपको इसे कई गुना करके लौटाती है। इससे सकारात्मकता व प्रसन्नता का भाव बढ़ता है।

आइए मिलकर तुलसी आराधना करें…

हरी भरी तुलसी से, आँगन महकता है

वास्तु दोष दूर होते, आप भी लगाइए।

*

श्याम जी को प्यारी लगे, मस्तक विराज रही

घर -घर शोभा बढ़े, इसको सजाइए।।

*

गीत सभी भाव भरे, भक्ति मन शक्ति जगे

ज्योति हो उम्मीद वाली, उसको बढ़ाइए।

*

रोग सारे दूर होते, तुलसी सेवन करें

हरि की प्रिया कहाती, भजन सुनाइए।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 28 – आदर्शलोक का असली चेहरा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 28 – आदर्शलोक का असली चेहरा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

आदर्शलोक की कहानी आज से कुछ साल पहले की है। एक दिन, वहाँ के राजमहल के मुख्य दरवाज़े पर एक नोटिस टांगा गया – “नया राजा चुना जाएगा। जो भी राजा बनना चाहता है, उसे बिना झूठ बोले, बिना चोरी किए, और बिना रिश्वत लिए पाँच साल तक इस राज्य को चलाना होगा।”

लोगों ने पढ़ा और हँस दिए। क्योंकि यहाँ तो हर कोई जानता था कि बिना इन तीनों के कोई भी राजा बन ही नहीं सकता। खैर, एक दिन एक महात्मा जी आए, जिनका नाम था सत्यानंद। उन्होंने कहा, “मैं ये चुनौती स्वीकार करता हूँ। मुझे राजा बनाइए, और देखिए कैसे मैं आदर्शलोक को सच में आदर्श बनाऊँगा।”

सत्यानंद जी राजा बने। पहले ही दिन उन्होंने मंत्रियों की सभा बुलाई और कहा, “अब से कोई भी झूठ नहीं बोलेगा। सभी लोग सच्चाई के साथ चलेंगे।”

मंत्री हक्का-बक्का रह गए। “महाराज,” एक ने कहा, “झूठ तो हमारी सरकारी नीतियों का आधार है। अगर हम सच्चाई बोलने लगे तो जनता जान जाएगी कि हम कुछ काम नहीं करते। फिर तो हमें कुर्सी से हाथ धोना पड़ेगा।”

“तो धो लो,” सत्यानंद ने आदेश दिया।

अब झूठ बंद हो गया, और राज्य की सच्चाई सामने आ गई। किसान बोले, “हमारी फसलें सूख गई हैं, और सरकारी मदद कागजों में ही मिल रही है।” व्यापारी बोले, “टैक्स इतना ज्यादा है कि हमें चोरी करनी पड़ती है।” अफसर बोले, “हमारी तनख्वाह में भ्रष्टाचार शामिल है, बिना रिश्वत के हम गुजारा नहीं कर सकते।”

राज्य में हड़कंप मच गया। जनता सड़कों पर आ गई। सभी अपनी सच्चाई बयां करने लगे। सत्यानंद जी ने सोचा कि अब कुछ और सुधार करना चाहिए। उन्होंने आदेश दिया, “अब से कोई चोरी नहीं करेगा।”

मंत्रियों ने माथा पकड़ा, “महाराज, अगर चोरी बंद हो गई, तो हम क्या खाएँगे?”

“सचाई से पेट भरो,” सत्यानंद ने फिर आदेश दिया।

अब बिना चोरी के मंत्री और अफसर भूखे मरने लगे। उन्हें याद आने लगा कि पहले के राजा कितने समझदार थे, जो चोरी को अनकहा अधिकार मानते थे। एक मंत्री ने कहा, “महाराज, जनता तो खुश है, लेकिन हम क्या करें? हमारे घरों में चूल्हा तक नहीं जल रहा।”

सत्यानंद बोले, “भ्रष्टाचार भी बंद करना पड़ेगा।”

यह सुनते ही पूरे दरबार में चुप्पी छा गई। भ्रष्टाचार बंद! मंत्रियों की आत्माएँ काँप उठीं। एक ने हिम्मत जुटाकर कहा, “महाराज, अगर रिश्वत लेना बंद कर दिया, तो हम राजमहल तक पहुँचेंगे कैसे? हमारी गाड़ियाँ तो जनता के पैसों से चलती हैं।”

“पैदल चलो, स्वास्थ्य अच्छा रहेगा,” सत्यानंद ने हंसते हुए कहा।

अब मंत्री और अफसर पैदल चलने लगे। राज्य की सड़कों पर उन्हें देखकर लोग हँसते और कहते, “देखो, ये हैं हमारे राजा के सुधार।”

आखिरकार, पाँच साल बाद चुनाव का समय आया। सत्यानंद ने अपने कार्यकाल की उपलब्धियाँ गिनाईं – “राज्य में सच्चाई है, कोई चोरी नहीं करता, और रिश्वतखोरी खत्म हो गई है।”

लेकिन जनता का धैर्य अब टूट चुका था। किसान, व्यापारी, मजदूर सब भूखों मर रहे थे। राजमहल के गेट पर भीड़ जमा हो गई और नारे लगे, “हमें हमारा पुराना राजा वापस चाहिए!”

सत्यानंद जी का आदर्शलोक अब स्वप्नलोक बन चुका था। लोग हंसते हुए बोले, “राजा का आदर्शवाद हमारे पेट नहीं भर सकता। हम मिलावटी दूध पीने वाले शुद्ध दूध खाक पचायेंगे?”

अगले चुनाव में एक नया राजा चुना गया। उसने आते ही घोषणा की, “मैं फिर से सबकुछ वैसे ही करूँगा, जैसा पहले था। झूठ, चोरी, और रिश्वत का राज वापस आएगा। और हम फिर से खुशहाल होंगे।”

आदर्शलोक वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया। लोग खुश थे, मंत्री अमीर थे, और अफसर फिर से मोटी गाड़ियों में घूमने लगे।

और सत्यानंद? वह राज्य छोड़कर जंगल में ध्यान करने चले गए। कहते हैं, अब वो भी झूठ बोलते हैं कि “आदर्शलोक एक दिन आएगा।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 314 ☆ आलेख – “भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆

?  आलेख – भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

घर-आंगन में आग लग रही। सुलग रहे वन -उपवन,

दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर- छाजन।

तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन-जीवन,

एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बंधन।

दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला,

देश हमारा जल रहा है, कौन बुझानेवाला  

 – डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन

विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है। आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं। इंटरनेट और मोबाइल दूरी व समय की सीमाओं को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं। इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं। दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है। रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं। लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं। बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याओ का आधार तैयार किया है। दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था – ”अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए”। बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है। एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाओ को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुओ के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाओ से प्रेरित होता है। औद्योगिक कचरे को बढ़ाता है ! ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देता है। पर्यावरण प्रदूषण की ऐसी आग को जन्म देता है जिसे बुझाने वाला सचमुच कोई नहीं है।

भोपाल गैस त्रासदी को वर्षौं हो गए हैं। वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में रिस कर प्रति वर्ष क्षेत्र को और अधिक जहरीला बना रहा है। कंपनी को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिये कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे। परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के भस्मकों में इसे जला कर इस औद्योगिक कचरे को नष्ट करना चाहती है।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण के खतरे बढ़ रहे है।

एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है। इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा।  

प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं। इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन,  रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने,  फ्लोरेसेंट ट्यूब, बल्ब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें आदि भी बेकार हो जाती हैं। जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा औद्योगिक कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है। कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी।  

इनमें धातुओ व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है। लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं। अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है। इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्चे होते हैं। इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है।

मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से आजीविका कमाने की बनी हुई है।

 उर्जा उत्पादन हेतु ताप विद्युत संयंत्र, बड़े बाँध, प्रत्यक्ष, परोक्ष बहुत अधिक मात्रा में औद्योगिक कचरा फैला रहे हैं . सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं। राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं। सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है। इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें। परमाणु ऊर्जा के निमा्रण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी.

एशियन डेवलपमेट बैक ने हाल ही गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है। गंगा के किनारे के नगरों की पानी, ससवीरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि व्यापक औद्योगिक कचरे,  भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से जलवायु परिवर्तन हो रहा है . मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है। रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक संतुलन,  कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने आदि से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है। इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं। औद्योगिक अपशिष्ट से दिल्ली की जीवन धारा यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही ‘यमुना एक्शन प्लान’ जैसी कई योजनाओ द्वारा सफाई अभियान चला रही है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं । किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए ‘इको सिस्टम’ की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता।

 पर्यटन जनित डिस्पोजेबल प्लास्टिक कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है, जिस पर त्वरित नियंत्रण जरूरी है .सरकार ने रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है। केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है। २५ माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों काकचरा डालने पर रोक रहेगी। नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे। पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है। इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है। इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है। कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती हे जो वायु प्रदूषण फैलाती है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है। गाय बैल आदि जानवर पालिथिन में चिपके खाद्य पदार्थ खाने के प्रलोभन में पतली पालीथिन की पन्नियां भी गुटक जाते हैं जो उनके पेट में फँस कर रह जाती हैं एवं उनकी मृत्यु हो जाती है। अतः पालीथिन पर प्रभावी नियंत्रण जरूरी है।

कहा जा सकता है कि औद्योगिक कचरा प्रगति का दूसरा पहलू है जिससे बचना मुश्किल है, पर उसके समुचित तरीके से डिस्पोजल से ही हम मानव जीवन और प्रगति के बीच तादात्म्य बना कर विज्ञान के वरदान को अभिशाप बनने से रोक सकते हैं।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 227 ☆ बाल गीत – बमचक-बमचक करें गिलहरीं… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 227 ☆ 

बाल गीत – बमचक-बमचक करें गिलहरीं  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

एक नहीं हैं , सात गिलहरीं।

 *

इधर-उधर को भागा करतीं।

बदन फुला गुड़िया-सी दिखतीं।

बाल हैं कोमल लगतीं बहरी।

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

 *

पौधों से ये करें दुश्मनी।

तुलसी नौचतीं, प्लांट मनी।

पहुँच गाँव से हो गईं शहरी।

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

 *

 अपनी धुन में मस्त मगन हैं।

फल,दाना इनका भोजन है।

चिड़ियों की शत्रु हैं गहरी।

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

तीन तिरंगी पट्टी ओढ़े।

इतराएँ यह बदन को मोड़े।

बच्चों की रक्षक हैं प्रहरी।

बमचक-बमचक करें गिलहरीं।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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