हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिचर्चा # 193 ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – आमने-सामने – भाग-1 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर श्री जयशंकर प्रसाद जी से किए गए सवाल जवाब दो भागों में परिचर्चा – “आमने-सामने…”)

☆ परिचर्चा — हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – आमने-सामने – भाग-1 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

देश के जाने-माने व्यंग्यकारों ने विगत दिनों व्यंंग्यकार जय प्रकाश पाण्डेय से सवाल जबाव किए, आमने-सामने में प्रस्तुत हैं, आनलाइन बातचीत के अंश 

व्यंंग्यकार श्री मुकेश राठौर (खरगौन)

प्रश्न – १ – आप परसाई जी की नगरी से आते है| परसाई जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं में तत्कालीन राजनेताओं, राजनैतिक दलों और जातिसूचक शब्दों का भरपूर उपयोग किया | क्या आज व्यंग्यलेखक के लिए यह सम्भव है  या फ़िर कोई बीच का रास्ता है?ऐसा तब जबकि रचना की डिमांड हो सीधे-सीधे किसी राजनैतिक दल,राजनेता या जाति विशेष के नामोल्लेख की।

प्रश्न- २ – कथा के माध्यम से किसी सामाजिक,राजनैतिक विसंगति की परतें उधेड़ना |बग़ैर पंच, विट, ह्यूमर के ऐसी रचना कथा मानी जायेगी या व्यंग्य?

जय प्रकाश पाण्डेय –

उत्तर (१) – मुकेश भाई, व्यंग्य लेखन जोखिम भरा गंभीर कर्म है, व्यंग्य बाबा कहता है जो घर फूंके आपनो, चले हमारे संग। व्यंग्य लेखन में सुविधाजनक रास्तों की कल्पना भी नहीं करना चाहिए, लेखक के लिखने के पीछे समाज की बेहतरी का उद्देश्य रहता है। परसाई जी जन-जीवन के संघर्ष से जुड़े रहे,लेखन से जीवन भर पेट पालते रहे,सच सच लिखकर टांग तुड़वाई,पर समझौते नहीं किए, बिलकुल डरे नहीं। पिटने के बाद उन्हें खूब लोकप्रियता मिली, उनकी व्यंग्य लिखने की दृष्टि और बढ़ी।लेखन के चक्कर में अनेक नौकरी गंवाई। व्यंंग्य तो उन्हीं पर किया जाएगा जो समाज में झूठ, पाखंड,अन्याय, भ्रष्टाचार फैलाते हैं, व्यंग्यकार तटस्थ तो नहीं रहेगा न, जो जीवन से तटस्थ है वह व्यंंग्यकार नहीं ‘जोकर’ है। यदि आज का व्यंग्य लेखक तत्कालीन भ्रष्ट अफसर या नेता या दल का नाम लेने में डरता है तो वह अपने साथ अन्याय करता है। आपने अपने सवाल में अन्य कोई बीच के रास्ते निकाले जाने की बात की है, तो उसके लिए मुकेश भाई ऐसा है कि यदि ज्यादा डर लग रहा है तो उस अफसर या नेता की प्रवृत्ति से मिलते-जुलते प्रतीक या बिम्बों का सहारा लीजिए, ताकि पाठक को पढ़ते समय समझ आ जाए। जैसे आप अपने व्यंग्य में सफेद दाढ़ी वाला पात्र लाते हैं तो पाठक को अच्छे दिन भी याद आ सकते हैं।पर आपके कहने का ढंग ऐसा हो,कि ऐसी स्थिति न आया…

रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सरग-पताल।

आप तो कह भीतर गई, जूती खात कपाल।

उत्तर (२) – मुकेश जी, व्यंग्य वस्तुत:कथन की प्रकृति है कथ्य की नहीं।कथ्य तो हर रचना की आकृति देने के लिए आ जाता है। आपके प्रश्न के अनुसार यदि कथा के ऊपर कथन की प्रकृति मंडराएंगी तो वह व्यंग्यात्मक कथा का रुप ले लेगी।

व्यंंग्यकारश्री प्रभाशंकर उपाध्याय (गंगानगर)

आपने अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर किया। बैंक की अफसरी की। आपकी अभिरूचि व्यंग्य लेखन, काव्य और नाट्य में है। आपको निरंतर ‘ई-अभिव्यक्ति’ में पढता रहता हूँ। आपके संकलन- डांस इंडिया डांस के आवरण पृष्ठ पर एक बिजूका खेत में खड़ा हुआ चित्रित है। कोने में एक किसान अग्नि पर कुछ पका रहा है। इसे देखकर रंगमंच की प्रतीति होती है।  इसके बरबक्स, मेरी जिज्ञासा ‘चुटका’ के बारे में जानने की है, तनिक बताइए ?

जय प्रकाश पाण्डेय – पंडित प्रभाशंकर उपाध्याय जी ने अपने प्रश्न के माध्यम से पन्द्रह साल पहले का जूनूनी प्रसंग छेड़ दिया,प्रश्न के उत्तर की गहराई में जाने के लिए आपको चुटका परमाणु बिजली घर की लम्बी दास्तान पढ़ना पड़ेगी। जो इस प्रकार है…

पन्द्रह साल पहले मैं स्टेट बैंक की नारायणगंज (जिला – मण्डला) म. प्र. में शाखा प्रबंधक था। बैंक रिकवरी के सिलसिले में बियाबान जंगलों के बीच बसे चुटका गांव में जाना हुआ था। आजीवन कुंआरी कलकल बहती नर्मदा के किनारे बसे छोटे से गांव चुटका में फैली गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता देखकर मन द्रवित हुआ । चुटका गांव की आंगन में रोटी सेंकती गरीब छोटी सी बालिका ने ऐसी प्रेरणा दी कि हमारे दिल दिमाग पर चुटका के लिए कुछ करने का भूत सवार हो गया। उस गरीब बेटी के एक वाक्य ने चुटका परमाणु बिजली घर बनाने के द्वार खोल दिए।

बैंक वसूली प्रयास ने इस करुण कहानी को जन्म दिया…

आफिस से रोज पत्र मिल रहे थे,… रिकवरी हेतु भारी भरकम टार्गेट दिया गया था । कहते है – ” वसूली केम्प गाँव -गाँव में लगाएं, तहसीलदार के दस्तखत वाला वसूली नोटिस भेजें… कुर्की करवाएं… और दिन -रात वसूली हेतु गाँव-गाँव के चक्कर लगाएं,… हर वीक वसूली के फिगर भेजें,… और ‘रिकवरी -प्रयास ‘ के नित -नए तरीके आजमाएँ…। बड़े साहब टूर में जब-जब आते है… तो कहते है – ”तुम्हारे एरिया में २६ गाँव है, और रिकवरी फिगर २६ रूपये भी नहीं है, धमकी जैसे देते है… कुछ नहीं सुनते है, कहते है – कि पूरे देश में सूखा है … पूरे देश में ओले पड़े है… पूरे देश में गरीबी है… हर जगह बीमारी है पर हर तरफ से वसूली के अच्छे आंकड़े मिल रहे है और आप बहानेबाजी के आंकड़े पस्तुत कर रहे है, कह रहे है की आदिवासी इलाका है गरीबी खूब है… कुल मिलाकर आप लगता है की प्रयास ही नहीं कर रहे है… आखें तरेर कर न जाने क्या -क्या धमकी…।

तो उसको समझ में यही आया की वसूली हेतु बहुत प्रेशर है और अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा… सो उसने चपरासी से वसूली से संबधित सभी रजिस्टर निकलवाये,  … नोटिस बनवाये… कोटवारों और सरपंचों की बैठक बुलाकर बैंक की चिंता बताई । बैठक में शहर से मग्वाया हुआ रसीला -मीठा, कुरकुरे नमकीन, ‘फास्ट-फ़ूड’ आदि का भरपूर इंतजाम करवाया ताकि सरपंच एवम कोटवार खुश हो जाएँ … बैठक में उसने निवेदन किया की अपने इलाका का रिकवरी का फिगर बहुत ख़राब है कृपया मदद करवाएं , बैठक में दो पार्टी के सरपंच थे …आपसी -बहस ….थोड़ी खुचड़ और विरोध तो होना ही था, सभी का कहना था की पूरे २६ गाँव जंगलों के पथरीले इलाके के आदिवासी गरीब गाँव है, घर -घर में गरीबी पसरी है फसलों को ओलों की मर पडी है… मलेरिया बुखार ने गाँव-गाँव में डेरा दल रखा है,.. जान बचाने के चक्कर में सब पैसे डॉक्टर और दवाई की दुकान में जा रहा है …ऐसे में किसान मजदूर कहाँ से पैसे लायें… चुनाव भी आस पास नहीं है कि चुनाव के बहाने इधर-उधर से पैसा मिले… सब ने खाया पिया और ”जय राम जी की ” कह के चल दिए और हम देखते ही रह गए…।

दूसरे दिन उसने सोचा -सबने डट के खाया पिया है तो खाये पिए का कुछ तो असर होगा ,थोड़ी बहुत वसूली तो आयेगी… यदि हर गाँव से एक आदमी भी हर वीक आया तो महीने भर में करीब १०४ लोगों से वसूली तो आयेगी ऐसा सोचते हुए वह रोमांचित हो गया… उसने अपने आपको शाबासी दी,और उत्साहित होकर उसने मोटर सायकिल निकाली और ”रिकवरी प्रयास ” हेतु वह चल पड़ा गाँव की ओर… जंगल के कंकड़ पत्थरों से टकराती… घाट-घाट कूदती फांदती… टेडी-मेढी पगडंडियों में भूलती – भटकती मोटर साईकिल किसी तरह पहुची एक गाँव तक…।

 सोचा कोई जाना पहचाना चेहरा दिखेगा तो रोब मारते हुए ” रिकवरी धमकी ” दे मारूंगा , सो मोटर साईकिल रोक कर वह थोडा देर खड़ा रहा , फिर गली के ओर-छोर तक चक्कर लगाया… वसूली रजिस्टर निकलकर नाम पड़े… कुछ बुदबुदाया… उसे साहब की याद आयी… फिर गरीबी को उसने गालियाँ बकी… पलट कर फिर इधर-उधर देखा… कोई नहीं दिखा । गाँव की गलियों में अजीब तरह का सन्नाटा और डरावनी खामोशी फैली पडी थी , कोई दूर दूर तक नहीं दिख रहा था।

कोई नहीं दिखा तो सामने वाले घर में खांसते – खखारते हुए वह घुस गया ,अन्दर जा कर उसने देखा… दस-बारह साल की लडकी आँगन के चूल्हे में रोटी पका रही है , रोटी पकाते निरीह… अनगढ़ हाथ और अधपकी रोटी पर नजर पड़ते ही उसने ” धमकी ” स्टाइल में लडकी को दम दी… ऐ लडकी ! तुमने रोटी तवे पर एक ही तरफ सेंकी है , कच्ची रह जायेगी? … लडकी के हाथ रुक गए… पलट कर देखा , सहमी सहमी सी बोल उठी… बाबूजी रोटी दोनों तरफ सेंकती तो जल्दी पक जायेगी और जल्दी पक जायेगी तो… जल्दी पच जायेगी… फिर और आटा कहाँ से पाएंगे…?

वह अपराध बोध से भर गया… ऑंखें नम होती देख उसने लडकी के हाथ में आटा खरीदने के लिए १००/ का नोट पकडाया…और मोटर सायकिल चालू कर वापस बैंक की तरफ चल पड़ा…

रास्ते में नर्मदा के किनारे अलग अलग साइज के गढ्ढे खुदे दिखे तो जिज्ञासा हुई कि नर्मदा के किनारे ये गढ्ढे क्यों  ? गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि सन् 1983 में यहां एक उड़न खटोले से चार-पांच लोग उतरे थे गढ्ढे खुदवाये और गढ्ढों के भीतर से पानी मिट्टी और थोड़े पत्थर ले गए थे और जाते-जाते कह गए थे कि यहां आगे चलकर बिजली घर बनेगा। बात आयी और गई और सन् 2006 तक कुछ नहीं हुआ हमने शाखा लौटकर इन्टरनेट पर बहुत खोज की चुटका परमाणु बिजली घर के बारे में पर सन् 2005 तक कुछ जानकारी नहीं मिली। चुटका के लिए कुछ करने का हमारे अंदर जुनून सवार हो गया था जिला कार्यालय से छुटपुट जानकारी के आधार पर हमने सम्पादक के नाम पत्र लिखे जो हिन्दुस्तान टाइम्स, एमपी क्रोनिकल, नवभारत आदि में छपे। इन्टरनेट पर पत्र डाला सबने देखा सबसे ज्यादा पढ़ा गया… लोग चौकन्ने हुए। 

हमने नारायणगंज में “चुटका जागृति मंच” का निर्माण किया और इस नाम से इंटरनेट पर ब्लॉग बनाकर चुटका में बिजली घर बनाए जाने की मांग उठाई। चालीस गांव के लोगों से ऊर्जा विभाग को पोस्ट कार्ड लिख लिख भिजवाए। तीन हजार स्टिकर छपवाकर बसों ट्रेनों और सभी जगह के सार्वजनिक स्थलों पर लगवाए। चुटका में परमाणु घर बनाने की मांग सबंधी बच्चों की प्रभात फेरी लगवायी, म. प्र. के मुख्य मंत्री के नाम पंजीकृत डाक से पत्र भेजे। पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखे। इस प्रकार पांच साल ये विभिन्न प्रकार के अभियान चलाये गये। 

जबलपुर विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ काकोड़कर आये तो चुटका जागृति मंच की ओर से उन्हें ज्ञापन सौंपा और व्यक्तिगत चर्चा की उन्होंने आश्वासन दिया तब उम्मीदें बढ़ीं। डॉ काकोड़कर ने बताया कि वे भी मध्यप्रदेश के गांव के निवासी हैं और इस योजना का पता कर कोशिश करेंगे कि उनके रिटायर होने के पहले बिजलीघर बनाने की सरकार घोषणा कर दे और वही हुआ लगातार हमारे प्रयास रंग लाये और मध्य भारत के प्रथम परमाणु बिजली घर को चुटका में बनाए जाने की घोषणा हुई।

मन में गुबार बनके उठा जुनून हवा में कुलांचे भर गया। सच्चे मन से किए गए प्रयासों को निश्चित सफलता मिलती है इसका ज्ञान हुआ। बाद में भले राजनैतिक पार्टियों के जनप्रतिनिधियों ने अपने अपने तरीके से श्रेय लेने की पब्लिसिटी करवाई पर ये भी शतप्रतिशत सही है कि जब इस अभियान का श्रीगणेश किया गया था तो इस योजना की जानकारी जिले के किसी भी जनप्रतिनिधि को नहीं थी और जब हमने ये अभियान चलाया था तो ये लोग हंसी उड़ा रहे थे। पर चुटका के आंगन में कच्ची रोटी सेंकती वो सात-आठ साल की गरीब बेटी ने अपने एक वाक्य के उत्तर से ऐसी पीड़ा छोड़ दी थी कि जुनून बनकर चुटका में परमाणु बिजली घर बनने का रास्ता प्रशस्त हुआ। वह चुटका जहां बिजली के तार नहीं पहुंचे थे आवागमन के कोई साधन नहीं थे, जहां कोई प्राण छोड़ देता था तो कफन का टुकड़ा लेने तीस मील पैदल जाना पड़ता था। मंथर गति से चुटका में परमाणु बिजली घर बनाने का कार्य चल रहा है। प्रत्येक गरीब के घर से एक व्यक्ति को रोजगार देने कहा गया है जमीनों के उचित दाम गरीबों के देने के वादे हुए हैं,जमीन के कंपनसेशन देने की कार्यवाही हो गई है। चुटका से बनी बिजली से मध्य भारत के जगमगाने की उम्मीदें पूरी होने की तैयारियां चल रहीं हैं।

धन्यवाद उपाध्याय जी,इस बहाने आपने पुरानी यादों को हमसे संस्मरण रूप में लिखवा लिया। आपकी गहराई से पड़ताल और अपडेट जानकारियों के लिए हम आश्चर्य चकित हैं।आदरणीय उपाध्याय जी आपके पास सूक्ष्म दृष्टि और तिरछी नजर है,आप चीजों को सही नाम से बुलाते हैं एवं सही ढंग से पकड़ते हैं। आपने अपने विस्तृत फलक लिए प्रश्न में बहुत सी चीजें सही पकड़ी है, बैंक की नौकरी करते हुए हमने पच्चीसों साल सामाजिक सेवा कार्यों से जुड़े रहे। लम्बे समय तक एसबीआई आरसेटी के डायरेक्टर के रूप में कार्य करते हुए नक्सल प्रभावित पिछड़े आदिवासी जिले के सुदूर अंचलों के ग़रीबी रेखा से नीचे के करीब 3500-4000 युवक युवतियों का हार्ड स्किल डेवलपमेंट एवं साफ्ट स्किल डेवलपमेंट करके उन्हें रोजगार से लगाकर एक अच्छे नागरिक बनने में सहयोग किया।देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच के मेनेजर रहते हुए म.प्र.के अनेक जिलों की 90 हजार गरीब महिलाओं को स्वसहायता समूहों के मार्फत वित्त पोषित कर महिला सशक्तिकरण के लिए कार्य किया, ऐसे अनेक उल्लेखनीय कार्य की लंबी लिस्ट है,पर आपने चूंकि अपने प्रश्न के मार्फत छेड़ दिया इसीलिए थोड़ा सा लिखना पड़ा। अन्य भाई इसको पढ़कर आत्मप्रशंसा न मानें, ऐसा निवेदन है।

क्रमशः… शेष भाग अगले सोमवार केअंक में…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 75 ⇒ दिल ने फिर याद किया… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिल ने फिर याद किया।)  

? अभी अभी # 75 ⇒ दिल ने फिर याद किया? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

वैसे तो हम सबके पास अपना दिल है, क्योंकि दिल है तो हमारी जान है, और दिल है तो ये जहान है, फिर भी इस दिल की दुकान बड़ी इल्मी और फिल्मी है, शायरी भी इसी दिल पर होती है, और छुरियां भी इसी दिल पर चलती है, दिल धड़के तो समस्या, नहीं धड़के तो आफत। दिल के बीमार भी और दिल के आशिक भी।

दिल शीर्षक से जितनी फिल्में बनी हैं, और जितने गीत बने हैं, अगर उनकी बात छिड़ जाए, तो दिल ही जाने यह सिलसिला कब तक चला करे। इसलिए हमने अपना दायरा बहुत संकुचित कर लिया है और हम सिर्फ एक ही फिल्म, दिल ने फिर याद किया, का आज जिक्र करेंगे। ।

सन् १९६६ में प्रदर्शित निर्देशक सी. एल.रावल और धर्मेंद्र नूतन अभिनीत इस फिल्म में दस गीत थे, और जिसका संगीत एकदम एक नई अनसुनी संगीतकार जोड़ी सोनिक और ओमी ने तैयार किया था। मोहम्मद रफी के तीन खूबसूरत गीत, कलियों ने घूंघट खोले, हर फूल पे भंवरा डोले, लो चेहरा सुर्ख गुलाब हुआ और यूं चाल चलो ना मतवाली, मुकेश का दर्द भरा नगमा, ये दिल है मोहब्बत का प्यासा, इस दिल का धड़कना क्या कहिए और लता का दर्द भरा गीत, आजा रे, प्यार पुकारे, नैना तो रो रो हारे !

भारतीय श्रोता को अच्छे बुरे संगीत और गीत की बहुत बारीक पकड़ है। कोई भी अच्छा गाना, अच्छी धुन, उससे बच ही नहीं सकती। फिर धर्मेंद्र, नूतन, रहमान और जीवन जैसे मंजे हुए कलाकार। यह वह जमाना था, जब औसत फिल्में भी अच्छे गीत और संगीत के बल पर चल निकलती थी। कौन थे कलाकार फिल्म पारसमणि और दोस्ती के। ।

एक तरफ रफी साहब की आवाज पर कलियों ने घूंघट खोले तो दूसरी ओर मुकेश का ये दिल मोहब्बत का प्यासा, इस दिल का तड़फना क्या कहिए। एक फड़कता गीत तो दूसरा मुकेश के चाहने वालों का दर्द भरा गीत। आ जाओ हमारी बांहों में, हाय ये है कैसी मजबूरी। लगा किसी नए संगीतकार की नहीं, रोशन साहब की धुन है।

फिल्म में मन्ना डे और कोरस की एक कव्वाली थी, हमने जलवा दिखाया तो जल जाओगे, रुख से पर्दा हटाया तो, पछताओगे। फिल्म दिल ही तो है की कव्वाली की याद दिला गई। इतना ही काफी नहीं, फिल्म टाइटल सॉंग जिसे एक नहीं तीन तीन गायकों ने अपना स्वर देकर अमर कर दिया। दिल ने फिर याद किया, बर्क सी लहराई है। फिर कोई चोट, मुहब्बत की उभर आई है। आपको जानकर आश्चर्य होगा, इस गीत के तीन वर्शन जिन्हें बारी बारी से मोहम्मद रफी, सुमन कल्याणपुर और मुकेश जी ने अपना स्वर दिया है। इन गीतों को सिर्फ सुना जा सकता है, इनकी आपस में तुलना नहीं की जा सकती। ।

एक महान कलाकार भी आम आदमी ही होता है। हमें कहां इतनी सुर, ताल, संगीत और गीतों के बोल की समझ, हमने बर्क शब्द पहले कभी सुना नहीं, हम तो इक बर्फ सी लहराई है, ही गाते रहे कुछ वक्त तक।

अगर रफी साहब वाला इस गीत का वर्शन ध्यान से सुनें, तो बर्फ ही सुनाई देता है। लेकिन अपनी आवाज से बर्फ तो क्या, इंसानों के दिलों को पिघलाने वाले रफी साहब ने यह बर्फ भी इतनी खूबसूरती से गाया, कि संगीत निर्देशकों की हिम्मत ही नहीं हुई, कि उसका री- टेक करवा लें, और बर्फ को बर्क करवा लें। शब्दों को जमाना और पिघलाना कोई रफी साहब से सीखे। ।

हर कलाकार अपने जीवन का श्रेष्ठ या तो जीवन काल के प्रारंभ में ही दे जाता है, अथवा फिर उसे कई वक्त तक इंतजार करना पड़ता है। उषा खन्ना (पहली फिल्म दिल दे के देखो) और सोनिक ओमी, उन भाग्यशाली संगीतकारों में से हैं, जिनकी पहली ही फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए।

आगे का सफर इनका कैसा रहा, संगीत प्रेमी अच्छी तरह से जानते हैं। यूं ही आज दिल ने फिर याद कर लिया, इस महान संगीतकार को, शायद कुछ बर्क सी लहराई हो, वैसे बिना किसी कलेजे की चोट के कहां ऐसे कालजयी गीत और संगीत की रचना हो पाती है।

कोई मौका नहीं, कोई दस्तूर नहीं, बस यूं ही, दिल ने फिर याद किया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 135 ☆ # बेबस… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बेबस… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 135 ☆

☆ # बेबस… #

कैसा जमाना आ गया है

माहौल गरमा गया है

धारा प्रवाह झूठ बोलते है लोग

जैसे झूठ इनके रूह में समा गया है

 

दावा करते हैं कि

वो सच के रखवाले हैं

उनके कपड़े उजले हैं

बाकी सबके काले हैं

 

जर, जमीन और आसमां पर

आज उन्हीं का राज है

सर झुकाती है प्रजा

सर पर उनके ताज है

 

कौन सच बोलेगा अब

मुंह के ताले खुलेंगे कब

जीर्ण-शीर्ण होकर

जब सब मिट जायेंगे तब

 

यहां किसी शिकायत का कोई

मतलब नहीं है

सब झूठ है

कोई गफलत नहीं है

बेवजह की है यह शिकायतें

ये पब्लिसिटी स्टंट है

हकीकत नहीं है

 

कल तक जो आंखों के तारे थे

सारे देश को प्यारे थे

आज अचानक बदनाम हो गये

जो आंखों के उजियारे थे

 

आज-

सच और झूठ के बीच

कशमकश है

दोनों के बीच

यह पुरानी रंजिश है

हैरान है सारा जमाना

सदियों से और आज भी

इन्साफ कितना बेबस है /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 136 ☆ पहिला पावसाळा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 136 ? 

पहिला पावसाळा… ☆

पहिला पावसाळा, सुचते कविता कुणाला

पहिला पावसाळा, चिंता पडते कुणाला.!!

 

पहिला पावसाळा, गळणारे छत आठवते

पहिला पावसाळा, राहते घर प्रश्न विचारते.!!

 

पहिला पावसाळा, शेतकरी लागतो कामाला

पहिला पावसाळा, चातकाचा आवाज घुमला.!!

 

पहिला पावसाळा, नदी नाले सज्ज वाहण्या

पहिला पावसाळा, झरे आसूसले कूप भरण्या.!!

 

पाहिला पावसाळा, थंड होय धरा संपूर्ण

पहिला पावसाळा, इच्छा होवोत सर्व पूर्ण.!!

 

पहिला पावसाळा, शालू हिरवा प्राची पांघरेल

पहिला पावसाळा, चहू बाजू निसर्ग बहरेल.!!

 

पहिला पावसाळा, छत्री भिजेल अमर्याद भोळी

पहिला पावसाळा, पिकेल शिवार, मिळेल पोळी.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-12… ☆भावानुवाद- सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-12…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

या आपुल्या भेटीद्वारे अरूप

तुज दाविले तव आत्मस्वरूप

निजप्रकाशे पाही दीप स्वरूप

तैसे पाही तू तव ब्रम्हस्वरूप॥५६॥

 

उघडी तव अंतःचक्षु चांगया

कार्यकारण जाण भेटी या॥५७॥

 

महाप्रलयी पाणी जैसे दावी

सर्वात्म एकरूपता एकार्णवी

उगम, प्रवाह, संगम न उरे

न राहती नामे, रूपे, आकारे

एकरूप होती एकमेकांशी

तसेच हो समरूप अर्णवांशी

तसाच तूही उगम तुझा गिळुनि

तद्रूप हो अज्ञान सर्व सांडुनि॥५८॥

 

नाम रूपा वेगळे आत्मस्वरूप

हो सुखी जाणुनि स्वानंद रूप॥५९॥

 

नश्वर देह, रूप, मन, बुद्धी

सांडुनि, जाण आत्मसिद्धी

अंतःकरणी येता ही ज्ञानसंपत्ती

ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान न राही त्रिपुटी

सच्चिदानंद पदी आरूढ होवा

सांगे ज्ञानया तुजप्रती चांगदेवा॥६०॥

 

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #197 ☆ कथा-कहानी – ‘जीवन-राग’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसंवेदनशील एवं विचारणीय कहानी ‘जीवन-राग’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 197 ☆

☆ कथा कहानी ☆ ‘जीवन-राग’

अंततः अविनाश का मकान पूरा हो गया। मकान का निर्माण शुरू होने से पहले ठेकेदार एक बूढ़े को चौकीदारी के लिए ले आया था। बूढ़े की उम्र काफी थी। निम्न वर्ग के लोग इस उम्र में पूर्णतया अप्रासंगिक हो जाते हैं, पूरी तरह बेटे- बहुओं पर निर्भर। घर की देखभाल के लिए रखे गये चौकीदारों की स्थिति दिलचस्प होती है। शुरू में उनका पूरे मकान पर अधिकार होता है, कहीं भी रहें, कहीं भी सोयें, कहीं भी भोजन बनायें। फिर जैसे-जैसे मकान की ‘फिनिशिंग’ होती जाती है, वे कमरा-दर-कमरा बाहर होते जाते हैं। फिर होता यह है कि उनका मकान में प्रवेश लगभग निषिद्ध हो जाता है और उनकी दिनचर्या मकान और उसकी चारदीवारी के बीच की जगह में महदूद हो जाती है, वह भी अनेक प्रतिबंधों के साथ।

बूढ़े का शरीर जर्जर हो गया था। चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी और कपड़ों की गंदगी उसके लिए ध्यान देने की बातें नहीं रह गयी थीं। आँख से भी उसे कम दिखायी देता था, लेकिन शायद आँख का इलाज या ऑपरेशन उसके बूते के बाहर था। सर पर एक पटका लपेटे वह अक्सर नंगे पाँव ही घूमता दिखता था। शाम को वह कंधे पर कहीं पड़ी लकड़ियों की बोरी लादे मकान की तरफ लौटता दिख जाता था। उससे मिलने कोई परिचित नहीं आता था। उसकी ज़िन्दगी तनहा थी, अविनाश की कॉलोनी में उसे पूछने वाला कोई नहीं था। सहज जिज्ञासा होती थी कि वह किस गाँव या परिवार से टूट कर यहाँ अकेला अपनी बाकी ज़िन्दगी गुज़ार रहा है।

अविनाश के गृह-प्रवेश के बाद बूढ़ा स्वतः सेवामुक्त हो गया। लेकिन उसने घर छोड़ा नहीं। वह अब भी गेट के आसपास बैठा दिख जाता था। उसकी गठरी- मुटरी भी वहीं एक कोने में रखी थी। प्रवेश के दो-तीन दिन बाद एक सवेरे अविनाश ने मुलायम स्वर में बूढ़े से कहा, ‘दादा, अब यहाँ का आपका काम तो खतम हो गया। अब कहीं और काम देख लो। गाँव लौटना हो तो लौट जाओ।’

बूढ़ा बोला, ‘काम ही देखना पड़ेगा। गाँव में बैठे बैठे रोटी कौन देगा?’

अविनाश ने कहा, ‘बेटे बहू तो होंगे?’

बूढ़ा बोला, ‘हैं, लेकिन उन्हें और उनके बाल-बच्चों को ही पूरा नहीं पड़ता, हमें बैठे-बैठे कौन खिलाएगा? वे खुद ही काम की तलाश में जगह-जगह डोलते फिरते हैं।’

अविनाश बोला, ‘ठीक है, दो-चार दिन में कहीं काम देख लो।’

बूढ़े को मकान छोड़ने का नोटिस मिल गया था। वह समझ गया था कि अब इस जगह पर वह अवांछित था।

दो दिन बाद बूढ़ा अविनाश के सामने आकर खड़ा हो गया। करुण स्वर में बोला, ‘बाबू जी, काम मिलना तो मुश्किल है। लोग मेरा बुढ़ापा देखकर दूर भागते हैं। मजदूरी करने लायक शरीर नहीं है। आप कहो तो कुछ दिन और यहीं पड़ा रहूँ। यहाँ पौधे लगा दूँगा, उनकी देखभाल करूँगा। बाहर की साफ-सफाई कर दूँगा। जो पैसे आप देंगे, ले लूँगा। अकेले का खर्चा ही कितना है!’

अविनाश की समझ में नहीं आया क्या कहे। उसने पत्नी की राय ली। विचार हुआ कि बूढ़ा अब निर्बल है, जीवन अधिक नहीं है। कभी भी दुनिया से विदा होने की स्थिति बन सकती है। एक तरह से आखिरी वक्त काटने की बात है। शहर से बाहर अविनाश का एक छोटा सा फार्म- हाउस था। तय हुआ कि बूढ़े को वहाँ रख दिया जाए। वही बनाता-खाता रहेगा, देख-भाल भी होती रहेगी। अभी वहाँ कोई नहीं रहता। कुछ पैसे दे देंगे तो बूढ़े की गुज़र-बसर होती रहेगी।

सुनकर बूढ़ा खुश हो गया। बोला, ‘ठीक है। वहीं अकेले में भगवान का नाम लूँगा और आप के फारम की देखभाल करूँगा। जो आप ठीक समझें दे दीजिएगा। अब जिन्दगी कितने दिन की है?’

अविनाश ने उसे फार्म-हाउस पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर बूढ़ा प्रसन्न हो गया क्योंकि उसे लगा यहाँ वह बिना किसी नियंत्रण या टोका- टाकी के निश्चिंत रह सकेगा। मकान की चौकीदारी में जो बाद में एक एक फुट की बेदखली होती जाती है, वह यहाँ नहीं होगी। जब शरीर बिलकुल लाचार हो जाए तभी यहाँ से छुट्टी की नौबत आएगी। तब तक यहाँ चैन की नींद सो सकता है। यहाँ शक्ति से ज्यादा काम करने की कोई विवशता भी नहीं होगी।

फार्म-हाउस पहुँचाने से पहले अविनाश ने बूढ़े के बेटों के नाम, गाँव का पता वगैरः नोट कर लिया। कभी बूढ़ा अचानक चल बसे या ज़्यादा बीमार हो जाए तो परिजनों को सूचित करना ज़रूरी होगा।

उसे छोड़ने के तीन-चार दिन बाद अविनाश फार्म-हाउस पहुँचा तो वहाँ की बदली हालत को देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पहले सारे फार्म-हाउस में फुटों गहरे सूखे पत्ते फैले हुए थे, सब तरफ बेतरतीबी थी। बूढ़े ने तीन चार दिन में ही सारे पत्ते बुहार कर ज़मीन साफ कर दी थी। बाहर पड़ी सारी चीज़ें है करीने से लग गयी थीं।

अविनाश यह आशंका लेकर आया था कि बूढ़ा वहाँ पहुँचकर कहीं बीमार न हो गया हो, क्योंकि वहाँ न कोई उसकी सुध लेने वाला था, न खबर देने वाला। लेकिन वहाँ पहुँचकर उसने आश्चर्य से देखा कि बूढ़ा नीम के पेड़ पर चढ़ा दातुन तोड़ रहा था। उसे देखकर वह ‘झप’ से पेड़ से कूदा।

अविनाश ने अचंभे से कहा, ‘पेड़ पर क्यों चढ़े दादा? गिरोगे तो बुढ़ापे में हाथ पाँव टूट जाएँगे। यहाँ कोई खबर देने वाला भी नहीं है। अकेले पड़े रहोगे।’

बूढ़ा अपने टूटे दाँत दिखा कर हँसा, बोला, ‘बाबू जी, पेड़ों पर चढ़ते जिन्दगी कट गयी। यह तो छोटा सा पेड़ है। इससे क्या गिरेंगे? आप फिकर न करें।’

अविनाश वहाँ थोड़ी देर रहा। बूढ़े ने वहाँ अपनी उपस्थिति की छाप छोड़ दी थी। चलते वक्त उसने अविनाश को पौधों की लिस्ट बनवा दी जो वह वहाँ लगाना चाहता था। फूलों वाले पौधों की लिस्ट अलग बनवा दी। लगा वह फार्म-हाउस की कायापलट में लगा था। उसकी अपनी आयु भले ही शेष हो रही हो, वह चिरजीवी वृक्षों को रोपने और उस स्थान में फूलों की खूबसूरती बिखेरने के लिए कमर कसे था।

अगली बार अविनाश आया तो बूढ़ा गेट पर ताला लगा कर गायब था। दरयाफ्त करने पर मालूम हुआ कि वह आगे मोड़ पर चाय के टपरे में जमा है। अविनाश ने आगे बढ़कर देखा तो पाया कि वह चार छः स्थानीय लोगों के बीच में चाय की चुस्कियों के साथ गपबाज़ी में मशगूल है। अविनाश को देखकर उठ आया, बोला, ‘अकेले में कभी-कभी तबियत घबराती है तो उधर जाकर बैठ जाता हूँ। दो चार लोग बात करने को मिल जाते हैं। थोड़ी देर के लिए मन बहल जाता है।’

अविनाश ने गौर किया कि फार्म हाउस पर आकर बूढ़ा चुस्त हो गया था। अब उसके कपड़े भी पहले से ज़्यादा साफ रहते थे। शायद कारण यह हो कि यहाँ पर्याप्त पानी और जगह मिल जाती थी। कॉलोनी में वह मुरझाया रहता था। अविनाश ने उसे यहाँ भेजते वक्त सोचा था कि अब वह निरंतर कमज़ोर ही होगा, लेकिन यहाँ आकर वह टनमन हो गया था।

अविनाश ने देखा कि यहाँ आकर बूढ़े के संबंधों का दायरा बढ़ गया है। जैसे यहाँ आकर वह खुल गया है। गेट के पास से निकलने वालों से उसकी राम-राम होती रहती है। वहीं से वह निकलने वालों की कुशल-क्षेम लेता रहता है। कभी कोई सब्ज़ी या फल बेचने वाली स्त्री सहज रूप से गेट के भीतर आकर टोकरी उतारकर सुस्ताने और बूढ़े से घर-गृहस्थी की बातें करने बैठ जाती है। बूढ़ा जैसे अपने जैसे लोगों से बात करने को अकुलाता रहता है।

उस दिन उसने उसने अविनाश से दो दिन की छुट्टी माँगी। बोला, ‘कल सहजपुर में मेला लगेगा। हर साल जाता हूँ। अच्छा लगता है। गाँव के लोग भी मिल जाएँगे। वहाँ से एक दिन के लिए गाँव चला जाऊँगा। बहुत दिन से नाती-नातिनों को नहीं देखा। उनकी याद आती है। थोड़े टॉफी- बिस्कुट लेता जाऊँगा तो खुश हो जाएँगे।’

अविनाश ने कहा, ‘वे तो कभी तुम्हें पूछते नहीं। कोई देखने भी नहीं आता। क्यों उनका मोह पाले हो?’

बूढ़ा दाँत निकाल कर बोला, ‘बच्चों की ममता तो लगती ही है। उनके माँ-बाप दो जून की रोटी के जुगाड़ में लगे रहते हैं, हमारी फिकर कहाँ से करेंगे? उनके बाल-बच्चे पलते रहें यही बहुत है।’

दो दिन की छुट्टी काट कर बूढ़ा लौटा तो उसने अविनाश को खबर भिजवा दी कि लौट कर आ गया है। अविनाश आया तो देखा आठ दस साल के दो लड़के वहाँ धमाचौकड़ी मचाये हैं और बूढ़ा खुशी में मगन उनकी क्रीड़ा देख रहा है। अविनाश को देखकर बोला, ‘नाती हैं, मँझले बेटे के बच्चे। आने लगा तो साथ चिपक गये। सोचते हैं मेरे पास बहुत पैसे हैं, खूब टॉफी- बिस्कुट खिलाऊँगा। हम से जो बनेगा कर देंगे। दो तीन दिन में बाप आकर ले जाएगा।’

कुछ दिन बाद दीवाली का पर्व आया। अविनाश ने रात को फार्म-हाउस पर सपरिवार आकर पूजा की। बूढ़ा तत्परता से उसकी मदद को हाज़िर था। दूसरे दिन अविनाश सामान वापस ले जाने आया तो जगह-जगह ‘मौनियाँ ‘ की टोलियाँ नाचती गाती घूम रही थीं। रंग-बिरंगे कपड़े, कमर में घंटियों की माला और हाथ में मोरपंख। सिर में बहुत सारा चमकता हुआ तेल। टोली का एक आदमी एक कान पर हाथ रखकर कवित्त कहता और नर्तक कवित्त के छोर पर हुंकार भर कर नर्तन शुरू कर देते। वे ऐसे ही दिन भर गाँव-गाँव घूमते थे।

नर्तकों की एक टोली अविनाश के गेट के पास जमी थी। उसने देखा बूढ़ा भी, बहुत उत्साहित, दर्शकों की टोली के पीछे खड़ा था। अचानक गायक ने कवित्त शुरू किया और उसका छोर पकड़ कर नर्तकों ने हुंकार भर कर, उछल कर, मोर पंख नचाते हुए मृदंग की थाप पर नर्तन शुरू कर दिया। अविनाश ने विस्मय से  देखा, टोली के पीछे बूढ़ा भी दोनों हाथ उठाकर, आँखें बन्द किये, पैरों को दाहिने बायें फेंककर नाचने में मशगूल हो गया है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 144 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 144 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 144) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 144 ?

☆☆☆☆☆

कुछ वक्त खामोश

रह  कर  देखा,

लोग सच  में

भूल  जाते  हैं…!

☆☆

Kept silent for

some  time,

People  really

do forget you…!

☆☆☆☆☆ 

एक नस्ल लोगों की

वो  भी  होती  है,

जिनका होना या ना

होना  बराबर  है..!

☆☆

There is also such a

breed of people,

Whose presence or absence

is  meaningless..!

☆☆☆☆☆

जितनी  कड़क  होगी,

उतनी ही लजीज़ होगी

जिंदगी  भी  कुछ-कुछ 

चाय  जैसी  ही  है..!

☆☆

As much stronger it is,

That much tastier will it be

Life  too  is  also

somewhat like tea only..!

☆☆☆☆☆

निकाले गए मायने

इसके  हजार,

एक अजब चीज थी

ये मेरी खामोशी…!

☆☆

A thousand meanings

were extracted,

My silence was such

a strange thing..!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 195 – बेसुरा होना कठिन है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 195 बेसुरा होना कठिन है ?

एक संगीतमय आध्यात्मिक आयोजन से लौट रहे थे। वृंद के एक युवा गायक ने किसी संदर्भ में एकाएक कहा, “गुरुजी, बेसुरा गाना बहुत कठिन है।” उसके इस वाक्य पर पूरे वृंद में एक ठहाका उठा। कुछ क्षण तो मैं भी उस ठहाके में सम्मिलित रहा पर बाद में ठहाका अंतर्चेतना तक ले गया और चिंतन में बदल गया। इतनी सरलता से कितनी बड़ी बात कह गया यह होनहार युवक कि बेसुरा होना कठिन है।

जीवन जीने के लिए मिला है। जीने का अर्थ हर श्वास में एक जीवन उत्पन्न करना और उस श्वास को जी भर जीना है। श्वास और उच्छवास भी मिलकर एक लय उत्पन्न करते हैं, अर्थात साँसों में भी सुर है। सुर का बेसुरा होना स्वाभाविक नहीं है। वस्तुत:  ‘बेसुरा होना कठिन है’, इस वाक्य में अद्भुत जीवन-दर्शन छिपा है।  इस दर्शन का स्पष्ट उद्घोष है कि जीवन सकारात्मकता के लिए है।

स्मरण आता है कि जयपुर से वृंदावन की यात्रा में एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश से न्यायप्रणाली की विसंगतियों को लेकर संवाद हुआ था। उन्होंने बताया कि न्यायालय में आया हर व्यक्ति प्रथमदृष्टया न्यायदेवता के लिए निर्दोष है। उसे दोषी सिद्ध करने का काम पुलिस का है, व्यवस्था का है ।

महत्वपूर्ण बात है कि न्यायदेवता हरेक को पहले निर्दोष मानता है। इसका एक अर्थ यह भी है कि मनुष्य का मूल सज्जनता है। यह हम ही हैं जो भीतर के सज्जन को दुर्जन करने के अभियान में लगे होते हैं।

जीवन का अभियान सुरीला है, जीवन गाने के लिए है। नदी को सुनो, लगातार कलकल गा रही है। समीर को सुनो, निरंतर सरसर बह रहा है। पत्तों को सुनो, खड़खड़ाहट, एक स्वर, एक लय, एक ताल में गूँज रही है। बूँदों की टपटप सुनो, जो बरसात के साथ जब नीचे उतरती हैं तो एक अलौकिक संगीत उत्पन्न होता है। बादल की गड़गड़ाहट हो या बिजली की कड़कड़ाहट, संगीत का रौद्र रस अवतरित होता है। कभी रात्रि के नीरव में रागिनी का दायित्व उठाने वाले कीटकों के स्वर सुनो। बरसात में मेंढ़क की टर्र-टर्र सुनो।  कोयल की ‘कुहू’ सुनो, मोर की ‘मेहू’ सुनो। प्रकृति में जो कुछ सुनोगे वह संगीत बनकर कानों में समाएगा। शून्य में, निर्वात में जो कुछ अनुभव हो रहा है, वह संगीत है। तुम्हारे मन में जो गूँज रहा है, उसकी अनुगूँज भी संगीत है। हर तरफ राग है, हर तरफ रागिनी सुनाई पड़ रही है। यह कल्लोल है, यह नाद है, यही निनाद है।

इन सुरों को हम भूल गए। हमारे कान आधुनिकता और शहरीकरण के प्रदूषण से ऐसे बंद हुए कि प्रकृति का संगीत ही विस्मृत हो चला। हमने जीवन में प्रदूषण उत्पन्न किया, हमने जीवन में कर्कशता उत्पन्न की, हमने जीवन में कलह उत्पन्न किया, हमने जीवन में असंतोष उत्पन्न किया, हमने जीवन में अनावश्यक संघर्ष उत्पन्न किया। इन सबके चलते सुरीले से बेसुरे होने की होड़-सी लग गई।

कभी विचार किया कि इस होड़ में क्या-क्या खोना पड़ा?  परिवार छूटा, आपसी संबंध छूटे, संतोष छूटा, नींद छूटी, स्वास्थ्य का नाश हुआ। इतना सब खोकर कुछ पाया भी तो क्या पाया,…बेसुरा होना!.. सचमुच बेसुरा होना कठिन है।

संसार सुरीला है। जीवन के सुरीलेपन की ओर लौटो। तुम्हारा जन्म सुरीलेपन के लिए हुआ है।  सुरमयी संसार में सुरीले बनो। यही तुम्हारा मूल है, यही तुम्हारी प्रकृति है, यही तुम्हारी संस्कृति है।

स्मरण रहे, सुरीला होना प्राकृतिक है, सुरीला होना सहज है, सुरीला होना सरल है, बेसुरा होना बहुत कठिन है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 142 ☆ नवगीत – नेकी कर… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका नवगीत “नेकी कर”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 142 ☆ 

☆ नवगीत – नेकी कर… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

‘नेकी कर

दरिया में डालो’

कह गये पुरखे

.

याद न जिसको

रही नीति यह

खुद से खाता रहा

भीती वह

देकर चाहा

वापिस ले ले

हारा बाजी

गँवा प्रीति वह

कुछ भी कर

आफत को टालो

कह गये पुरखे

.

जीत-हार

जो हो, होने दो

भाईचारा

मत खोने दो

कुर्सी आएगी

जाएगी

जनहित की

फसलें बोने दो

लोकतंत्र की

नींव बनो रे!

कह गए पुरखे

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२६-५-२०२३, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “वैचारिक स्वावलंबन…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “वैचारिक स्वावलंबन…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

लोकरंग च्या पुरवणी मधील एक खूप मस्त आणि मुख्य म्हणजे खरोखरीच विचारात पाडणारा लेख शनिवारी  चतुरंग ह्या पुरवणीत वाचनात आला. हा लेख “वळणबिंदू” ह्या सदराखाली डॉ. अंजली जोशी लिखीत “वैचारिक स्वावलंबन” ह्या नावाचा.  विशेषतः पालकत्वाची सुरुवात होतांना पासून हातपाय थकल्यावर देखील तेवढ्याच सुरसुरीनं पालकत्व निभावणा-या पालकांसाठी तर खास भेटच.

“स्पून फिडींग” ,पाल्याची अतिरिक्त टोकाच्या भूमिकेतून घेतलेली काळजी पाल्यांना कुठलाही अवयव बाद न होता कसे पंगू करुन सोडते हे परखड सत्य ह्या लेखातून चटकन उमगतं, आणि मग खोलवर विचार केल्यानंतर त्यातील दाहकता जाणवते.

खरोखरीच मुलं ह्या जगातल्या तलावात पोहोचतांना त्यांना बुडू नये म्हणून पालकत्वाचं रबरी टायर न चुकता बांधून द्या व लांबून काठावरुन त्यांच्याकडे काळजीपूर्वक बघतांना त्यांचे त्यांना पोहू द्या, कधी गटांगळ्या खाऊ द्या, अगदी काही वेळा थोडं नाकातोंडात पाणी जावून जीव घाबरु द्या, पण हे होऊ  देतांना एक गोष्ट नक्की …. आपला पाल्य हा तावूनसुलाखून, अनुभव गाठीशी बांधून पैलतीर हा यशस्वीपणे गाठणारच, आणि मग तो विजयाचा आनंद  तुम्हाला आणि तुमच्या पाल्यांना कितीतरी पट सुखं देऊन सुवर्णक्षणांची अनुभूती देऊन जातो. 

आणखी एक महत्वाची गोष्ट म्हणजे – प्रसंगी अपत्यांच्या कुबड्या बनण्यापेक्षा त्याच्या मनाला उभारी देणारी संजीवनी पुरवा.

मी तर सांगेन हा लेख नीट विचारपूर्वक वाचल्यानंतर प्रत्येक व्यक्तीने स्वतःच स्वतः ला प्रश्न विचारायचा की … ड्रेस कुठल्या रंगाचा घालू ह्या अगदी साध्या प्रश्नापासून, ते लग्नासाठी आपल्याला नेमका जोडीदार कसा हवायं ह्या गहन प्रश्नापर्यंत, आपण आपल्या मनाने, स्वतंत्र विचारशक्तीने किती निर्णय घेतलेत ? त्यापैकी किती निर्णय तडीस नेलेत ? ह्या तडीस नेलेल्या आपल्या स्वतंत्र मतांमुळे, किंवा तडीस न नेता केवळ दुसऱ्यांच्या ओंजळीने कायम पाणी प्यायल्यामुळे, आपले नेमके नुकसान झाले की फायदा झाला ? .. आणि तो नेमका किती झाला ? …..  ह्या प्रश्नांची उत्तरे मिळाल्यानंतर आपल्याला नेमक्या वस्तुस्थितीची जाणीव होईल आणि मग अभ्यास वा विचारांनी बनवलेली स्वतंत्र स्वमतं, स्वकृती किती महत्त्वाची असते आणि ती आपल्या जीवनात किती चांगला आमुलाग्र बदल करते हे पण कळून येईल. 

तेव्हा डॉ अंजली जोशी ह्यांचा चतुरंग पुरवणीमधील “वैचारिक स्वावलंबन” हा लेख तुम्हाला मिळाला तर जरूर स्वतः आधी वाचा आणि मग आपल्या पाल्यांना पण वाचायला सांगा.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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