हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 82 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 82 – मनोज के दोहे…

 

1 साक्षी

सनकी प्रेमी दे गया, सबके मन को दाह।

दृश्य-कैमरा सामने, साक्षी बनी गवाह।

2 शृंगार

नारी मन शृंगार का, पौरुष पुरुष प्रधान।

दोनों के ही मेल से, रिश्तों का सम्मान।।

3 पाणिग्रहण

संस्कृति में पाणिग्रहण,नव जीवन अध्याय।

शुभाशीष देते सभी, होते देव सहाय।।

4 वेदी

अग्निहोत्र वेदी सजी, करें हवन मिल लोग।

ईश्वर को नैवेद्य फिर, सबको मिलता भोग।।

5 विवाह

मौसम दिखे विवाह का, सज-धज निकलें लोग।

मंगलकारी कामना, उपहारों का योग ।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 11 ☆ मसाईमारा की रोमांचक यात्रा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…मसाईमारा की रोमांचक यात्रा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 11 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… मसाईमारा की रोमांचक यात्रा ?

नेशनल जॉग्राफ़ी और एनीमल प्लैनेट पर हमेशा ही जानवरों को देखना और उनके बारे में जानकारी हासिल करते रहना मेरा पुराना शौक है। फिर कहीं मन में एक उत्साह था कि किसी दिन इन्हें अपनी नजरों से भी देखें। वैसे तो जब चाहो इन पशुओं के दर्शन चिड़ियाघर में तो कभी भी हो सकते हैं पर मेरी तमन्ना थी कि इन प्राणियों को प्राकृतिक खुले स्थान में ही इन्हें देखूँ। और यह इच्छा ईश्वर ने बहुत जल्दी पूर्ण भी कर दी।

सितंबर का महीना सवाना में माइग्रेशन मन्त कहलाता है। हमने इसी कालावधि के दौरान कीनिया जाने का निर्णय लिया।

कीनिया, तानजेनिया , आदीसाबाबा या किसी भी अफ्रीकन देशों में यात्रा करने से पूर्व पर्यटकों को yellow fever से बचाव करने के लिए इंजेक्शन लेने की बाध्यता होती है। यह इंजेक्शन सरकारी अस्पताल से लेनी पड़ती है। इसके बाद जो प्रमाणपत्र सरकार की ओर से मिलता है उसे यात्रा के दौरान अपने साथ रखने की आवश्यकता भी होती है। उन दिनों इस इंजेक्शन के लिए मुम्बई जाना पड़ता था। इस इंजेक्शन की अवधि दस वर्ष की होती है। आजकल बड़े शहरों में यह सुविधा उपलब्ध है।

सन 2012 सितंबर हम मुम्बई से इथियोपिया के लिए रवाना हुए। आदिसाबाबा वहाँ की राजधानी है। हम पहले वहाँ उतरे, बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों को देखकर अच्छा लगा कि अपने देश में सब प्रकार के काम वे ही संभाल रहे हैं। हँसमुख, मिलनसार तथा विदेशियों के साथ आतिथ्यपूर्ण उनका व्यवहार हमें अच्छा लगा। दो घंटे के हॉल्ट के बाद हम मोम्बासा के लिए रवाना हुए।

इथियोपिया से जब हवाई जहाज़ ने उड़ान भरी तो कुछ समय बाद ही पायलट ने अनाउंस किया कि हम किलमिनजारो के पास से गुज़रते हुए जाएँगे अतः सभी यात्री अपने -अपने कैमरे संभाल लें। साथ ही वे जानकारी भी दे रहे थे कि अफ्रीका का यह सबसे ऊँचा पर्वत है जहाँ बर्फ भी पड़ती है। जलवायु परिवर्तन के कारण अब इसके ऊपर से बर्फ की मात्रा कम होती जा रही है। कीबो मावेनज़ी और शीरा ये किलमिनज़ारो के तीन मुख्य ज्वालामुखीय मुख हैं। इस पर्वत की ऊँचाई 5895 मीटर है और यह संसार का एकमात्र ऐसा पर्वत है जो केवल एक मात्र चोटी के साथ खड़ा है। यह पर्वत तानज़ेनिया के भूभाग पर है। हमने जानकारी के साथ -साथ खूब तस्वीरें भी खींची। यह इस यात्रा के दौरान मिला हुआ पहला बोनस था जिसकी हमने अपेक्षा भी नहीं की थी।

मोम्बासा में उतरने से पूर्व ही हमने अपने फोन में वहाँ के सिमकार्ड डाल लिए थे। यह सिमकार्ड हमें अपने देश के ही ट्रैवेल एजेंट से मिला था। इस सुविधा के कारण एयरपोर्ट पर उतरते ही साथ वहाँ के ट्रैवेल एजेंट ने हमें फोन किया और एक्जिट गेट के पास हमारे नाम का प्लैकार्ड लिए वे स्वागत के लिए तैनात मिले। हँसमुख, मिलनसार जाति। स्त्री-पुरुष में कोई भेद न रखनेवाली जाति।

हम खाली हाथ ही एक्जिट गेट पर पहुँचे क्योंकि हमारे दो सूटकेस दूसरे फ्लाइट में चले गए थे जो दूसरे दिन शाम तक पहुँचने वाले थे। हम हमेशा अपनी दवाइयाँ और दो जोड़े कपड़े अपने हैंडबैग में लेकर ही चलते हैं। ऐसे समय पर ये अनुभव बड़े काम आते हैं।

हमारे रहने के लिए एक अत्यंत सुंदर होटल में व्यवस्था थी यह सारी व्यवस्था ऑनलाइन एजेंट द्वारा ही की गई थी। ये सारी ऑनलाइन बुकिंग बलबीर कई वर्षों से करते आ रहे हैं जिस कारण हम आराम से अपनी इच्छानुसार विश्वभ्रमण कर पाते हैं।

यहाँ के होटल का मैनेजर मूल रूप से भारतीय था जो चार पीढ़ी पहले गुजरात से युगांडा में रहने आया था। इदियामीन के भय से पलायन कर अब इनका परिवार मोम्बासा में आ बसा था।

दूसरे दिन हमें अपने सूटकेस के मोम्बासा पहुँचने का संदेश मिला,जिसे लेने के लिए हमें एयरपोर्ट जाना पड़ा। एयरपोर्ट शहर से बहुत दूर था। हमने होटल के मैनेजर से कोई गाड़ी मँगवाने के लिए कहा। होटल के मैनेजर ने गाड़ी मँगवाई। हमने दाम देना चाहा तो उसने कहा, अपने देशवासी आज मेरे इस देश में मेरे मेहमान हैं , इसे हमारी तरफ से सहायतार्थ योगदान समझें। उसने हाथ जोड़कर कहा तो हम मना न कर सके। यहाँ यह कहना ज़रूरी समझती हूँ कि कीनिया एक ग़रीब देश है फिर भी मेहमाननवाज़ी में वे पीछे नहीं रहते।

यह इस यात्रा के दौरान मिला हुआ दूसरा बोनस था।

तीसरे दिन प्रातः पाँच बजे हम होटल से रवाना हुए और एक लोकल एयरपोर्ट पहुँचे। वहाँ से हम एक छोटे – से 6 सीटर विमान द्वारा मसाईमारा सवाना के लिए रवाना हुए। यह विमान 17000 फुट की ऊंँचाई से अधिक ऊपर उड़ नहीं सकता इसलिए जब हम सवाना की तरफ पहुँचे तो हमें मारा रिवर में दरियाई घोड़े और मुँह खोलकर अपने शरीर को धूप में सेंकते हुए ढेर सारे मगरमच्छ नज़र आए। मन आनंदित हुआ, अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था ! मानो आँखें सपना देख रही थीं। विमान थोड़ा और नीचे उतरा तो खुले मैदान में हमें ज़ीब्रा और विल्डरबीस्ट घास चरते हुए दिखाई दिए। कुछ हाथियों के झुंड भी हमें पेड़ों की शाखाओं को तोड़ते और पत्तों को खाते हुए दिखाई दिए।

अचानक विमान नीचे उतरा। ना कोई एयरपोर्ट और न ही कोई रनवे ! मैदान के बीचोबीच!!

हमें विमान से नीचे उतारा गया। कुछ दूरी पर हिरणों के झुंड निर्विकार चित्त से घास चर रहे थे। मनुष्य को देखने का उन्हें कोई उत्साह नहीं था। अचानक खुले मैदान पर हमें उतारकर विमान जैसे अचानक उतरा था वैसे ही अचानक चार यात्रियों को लेकर उड़ान भरकर निकल गया।

मन में क्षण भर के लिए घबराहट- भी हुई कि कहीं हम पर शेरों ने आक्रमण कर दिया तो ? पर यह डर मनुष्य के हृदय का डर था। शेर अधिकतर अंधकार होने पर ही शिकार करते हैं। दिन में अठारह घंटे वे सोते हैं। एक और सच्चाई तो यह है कि पशु अकारण किसी पर हमला नहीं करते और मनुष्य उनके भोजन की सूची में भी नहीं हैं।

खैर ,हमारे स्वागत में चारों तरफ से खुली हुई लाल कपड़े से ढकी सीटों वाली जीप और चालक हमें लेने के लिए तैयार खड़े थे। यह उस रिसोर्ट द्वारा भेजा गया था जहाँ पर हम पाँच दिन रहने जा रहे थे। हमारे साथ एक फ्रेंच परिवार भी था। जीप का चालक मसाई जाति का था। वहीं का निवासी था। कामचलाऊ अंग्रेजी बोल लेता था। उसने हमें ऊपर से मारा नदी में खड़े दरियाई घोड़े और मगरमच्छों का दर्शन कराया। वे नीचे पानी में और पास की कीचड़ वाली जगह पर थे। और हम काफी ऊपर खड़े थे ताकि हम आराम से उन्हें देख सकें वरना दरियाई घोड़े आक्रमण करने में बहुत होशियार होते हैं। यह दर्शन हमारे लिए तीसरा बोनस साबित हुआ।

हम अपने होटल की ओर रवाना हुए। जाते समय कई विल्डरबीस्ट और ज़ीब्रा हमें नज़र आए। हमें देख कर भी उन्होंने हमें अनदेखा कर दिया। हमें उनमें रुचि थी, उन्हें हममें नहीं। कुछ दूरी पर हमें जिराफ़ का परिवार नजर आया और इन सब के बीच में दौड़ते हुए बबून भी दिखाई दिए।

एक अलग प्रकार के भयमिश्रित रोमांच के साथ हम अपने रिसोर्ट पहुंँचे। हमें जीप चालक ने जानकारी देते हुए बताया कि लाल कपड़े मसाई जाति के लोगों का वस्त्र है। वे गाय पालते हैं और उन्हें चराने के लिए खुले मैदानों पर ले जाते हैं। उनके पास अपनी सुरक्षा के लिए तीर- धनुष्य और भाला होता है। किसी समय वे जानवरों का शिकार करते थे। पर अब नहीं क्योंकि उन जानवरों को देखने के लिए हज़ारों की संख्या में पर्यटक आते हैं और मसाई लोगों को जीविका मिलती है। जंगली पशु उन लाल कपडे़वालों से दूर रहते हैं। पर्यटकों की सुरक्षा हेतु गाड़ी में भी इसीलिए लाल कपड़े रखे जाते हैं। उसने हमें दस फीट की दूरी से शेर के झुंड का दर्शन करवाने का आश्वासन दिया और कहा कि न तो हम उन्हें देखकर शोर मचाएँ न गाड़ी से नीचे उतरने का प्रयास ही करें। यह स्थान उन जानवरों के लिए है। वे अपनी टेरिटरी में किसी और का हस्तक्षेप बिल्कुल सहन नहीं करते। हम सबने चालक की हर बात गाँठ बाँध ली।

हमारा सामान हमारे लिए आरक्षित कमरे में ले जाया गया। यह मारा नदी से काफी ऊपर बनाए गए आवासीय व्यवस्था थी। लकड़ी से बने एक – एक विशाल प्लेटफार्म पर भारी भरकम सख्त – मजबूत टेंट लगाए गए थे। टेंट के भीतर सभी असबाब मजबूत लकड़ी से बने थे। टेंट के भीतर एक अलमारी, एक विशाल पलंग, मेज़- कुर्सी, तथा स्वच्छता गृह बनाया हुआ था। टेंट को बंद करने के लिए मोटे ज़िप लगे थे। और उस पर एक और मोटा कपड़ा लगाया हुआ था। टेंट के भीतर हवा के लिए जालीदार खिड़की सी बनी हुई थी। किसी पशु के लिए सीढ़ी चढ़कर टेंट तक आना सहज न था। इसलिए सारे टेंट ऊँचे प्लेटफार्म पर ही बनाए हुए थे। टेंट के सामने खुली जगह थी जहाँ से नदी में डुबकी लिए हुए आलसी दरियाईघोड़ों की आँखें दिखाई दे रही थीं।

हमें बताया गया था कि रात के नौ के बाद बिजली बंद कर दी जाती है क्योंकि दरियाई घोड़े रात होने पर अँधेरे में टेंट के आसपास घास खाने आते हैं। कई बार वे अपनी पीठ रगड़ने के लिए टेंट लगाए गए भारी भरकम खंभों का उपयोग करते हैं। घास खाते हैं तो खूब आवाज़ करते हैं। मुँह खोलते हैं तो दो बड़े नुकीले दाँत दिखाई देते हैं। भयंकर से दिखते हैं।

हर यात्री को सुरक्षा के लिए टॉर्च दिया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर टेंट के भीतर बने झरोखों से टॉर्च दिखाए जाने पर पास ही सुरक्षा के लिए तैनात मसाई मदद के लिए पहुँच जाते हैं।

दोपहर के समय खुले मैदान पर एक बबूल के वृक्ष के नीचे अस्थाई रसोई की व्यवस्था के तहत हमें भोजन खिलाया गया। हम छह लोग थे। कई प्रकार के फल, सलाद, उबले आलू, तथा मांसाहारी पदार्थ परोसे गए।

यह सितंबर का महीना था। वर्षा समाप्त हो चुकी थी और सवाना हरा-भरा था। एक जिराफ़ पास के एक विशाल बबूल के वृक्ष के पत्ते इत्मीनान से सूँथ-सूँथकर खा रहा था। पास ही कुछ छोटे -बड़े बबून घूम रहे थे। हमें बताया गया था कि हम उन्हें किसी प्रकार का कोई भोजन न डालें। हमारा भोजन उनका भोजन न था।

हम सभी जानवरों के क्रियाकलापों को नज़दीक से देखना चाहते थे इसलिए

भोजन करते ही साथ कई जीप उन्हें देखने के लिए तीन बजे के क़रीब निकल पड़ीं।

हर जीपचालक के पास वॉकी- टॉकी था। वे एक दूसरे को जानवरों का पता बताते चलते रहे। एक पेड़ पर हमें जिराफ का मृत शावक दिखाई दिया। उसकी निचली टहनी पर एक बड़ा तेंदुआ सोया हुआ था। ये पशु अपने शिकार को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें मारने के बाद पेड़ पर टाँग देते हैं। फिर फुर्सत से खाते रहते हैं। ऐसा दृश्य एनिमल प्लेनेट में टी वी पर अवश्य देखा था पर आज साक्षात सामने ही अपनी आँखों से देख रहे थे।

इसके तुरंत बाद किसी ने हमारे चालक को सिंह के एक झुंड की खबर दी। हम उत्साहपूर्वक उन्हें देखने गए। एक विल्डरबीस्ट का शिकार कर दल का लीडर एक सिंह उसका पूरा आनंद ले रहा था और दस – बारह सिंहनियाँ पास में ही मांस खाने के लिए प्रतीक्षा कर रही थीं। हमने खुले में दस फीट की दूरी से इन हिंस्र पशुओं को देखने का आनंद लिया। हमसे स्पष्ट कहा गया था कि हम न तो ऊँची आवाज़ में बोलेंगे न गाड़ी से नीचे उतरेंगे। हम सबने आलस में अंगड़ाई लेती शेरनियाँ देखीं। शेर महाराज को भोजन का अकेले में आनंद लेते हुए देख हम सब रोमांचित हो उठे। सच में एक राजा के समान!

इतने में हमारे चालक को खबर दी गई कि कहीं दो चीते भी नज़र आए हैं। हमारे चालक ने गाड़ी घुमाई और हम उस दिशा में चल पड़े। काफी दूर जाने पर एक ऊँची चट्टान पर हमें दो चीते दिखाई दिए। वे एक दूसरे को प्यार से चाट रहे थे। तेंदुए और चीते में फर्क है। चीते की आँखों के नीचे दो धारियां होती हैं।

हमें लौटते हुए विलंब हो रहा था, सूर्यास्त भी हो रहा था। एक जगह पर चालक ने गाड़ी रोक दी और कहा सामने देखिए। मैदान में हमें ज़मीन में बनाए गए बिलों में से लकड़बग्घे निकलते हुए दिखे। ये पूरा कुनबा साथ रहता है। एक वयस्क मादा बच्चों को संभालती है। खुले मैदान के बीचोबीच जीप रुकी और हमने लकड़बग्घों के झुंड को देखा।

दूसरे दिन सुबह- सुबह हम रवाना हुए मारा रिवर देखने के लिए जहांँ पर नदी के इस पार से उस पार पशु जाया करते हैं। इसे वे माइग्रेशन कहते हैं। यह माइग्रेशन हर साल होता है जब भारी वर्षा के पश्चात मारा रिवर एकदम उफनती हुई दिखाई देती है , तब नदी के इस पार से उस पार पशु जाते हैं। यह माइग्रेशन मौसम के अनुसार घास चरने और नवजात शावकों को जन्म देने का मौसम होता है।

हम बड़े उत्साह से नदी किनारे पहुंँचे। कुछ दूरी से हमने देखा कि बड़ी संख्या में विल्डर बीस्ट खड़े थे और धीरे-धीरे कवायद करती हुई उनकी बढ़ती संख्या नदी के किनारे जमा हो रही थी। हमें जीप चालक ने बताया कि जब हजारों की संख्या में विल्डरबीस्ट जमा हो जाते हैं तब वे एक साथ नदी को पार करने का कार्य करते हैं। नीचे नदी में काफी सारे मगरमच्छ घूम रहे थे। यह उनका ब्रेकफास्ट टाइम था। वे पशुओं के माइग्रेशन की ताक में रहते हैं।

विल्डरबीस्ट अभी पानी में छलाँग मारने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। उधर बड़ी संख्या में दौड़ते हुए और कई विल्डरबीस्ट जमा हो रहे थे। सारा वातावरण पशुओं के दौड़ने के कारण धूल से भरता जा रहा था। उन सबके रंभाने की आवाज़ से वातावरण गुंजायमान हो रहा था। हम कुछ दूरी पर अपने कैमरे संभालकर दिल थाम कर बैठे थे कि कब वह अद्भुत दृश्य देखने को मिलेगा। दूसरी तरफ बड़ी संख्या में ज़ीब्रा दिखाई दे रहे थे जो पानी पीने के लिए नदी पर आना चाहते थे लेकिन मगरमच्छों को देखकर भयभीत हो रहे थे।

फिर अचानक एक अद्भुत घटना घटी। हमने देखा एक विल्डर बिस्ट ने पानी में छलाँंग लगाई , उसके छलांँग लगाने के एक मिनिट बाद ही हजारों की संख्या में अनेकों विल्डरबीस्टों ने भी नदी में छलाँग लगाई परंतु उस एक मिनट के अंतर में पहला विल्डरबीस्ट भूखे मगरमच्छों का शिकार हो गया। पानी लाल – सा हो गया और मगरमच्छों में माँस के लोथड़े छीनने की स्पर्धा शुरू हो गई।

उधर अपने योग्य भोजन पाकर मगरमच्छ व्यस्त हो गए ,इधर अन्य विल्डरबीस्ट मौका पाकर नदी पार कर गए। समस्त वातावरण में भयंकर कोलाहल मचा था, पानी की छींटे ऊपर तक आ रही थीं, ऐसा लग रहा था मानो महायुद्ध छिड़ा हो। घंटे भर बाद सारे विल्डरबीस्ट और उनके बाद ज़ीब्रा नदी पार कर गए। अब नदी शांत हो गई। मगरमच्छ भरपेट भोजन कर अब धूप सेंकने तट पर आ गए और अपना जबड़ा खोलकर बैठ गए।

दरियाई घोड़े अपने पूरे शरीर को पानी में डुबोकर केवल अपनी आँखों को पानी के ऊपर रखकर सारे दृश्य का अवलोकन करने लगे। यहाँ एक और नई बात की जानकारी मिली कि अब घास खानेवाले दरियाई घोड़ा मांसाहारी होने लगे हैं। वे भी मौका पाकर माइग्रेट करनेवाले पशुओं के मांस का बड़े मज़े से स्वाद लेते हैं। वे अत्यंत आक्रामक और भयंकर प्राणी हैं।

तीसरे दिन हम मसाई विलेज देखने गए। उस गाँव की मुखिया एक वृद्धा स्त्री थी। हमारे आने की खबर मिलते ही साथ वे गीत गाने लगीं। शब्द तो हम पकड़ न पाए पर संयुक्त स्वर में उत्साह था,आतिथ्य की झलक थी और थी गीत में मिठास। हमें इस तरह का अद्भुत स्वागत बहुत भाया। मुखिया के दो बेटों ने गाँव के द्वार पर ऊँची -ऊँची छलाँग लगाकर हमारा स्वागत किया। यही उनकी प्रथा और संस्कृति है।

बीस से चालीस परिवार गोलाई में मिट्टी और लकड़ी से घर बनाते हैं। हर घर में जानवरों की चौड़ी चमड़ी लगी हुई है जिसपर वे सब सोते हैं। घर के भीतरी हिस्से में बुजुर्ग सोते हैं और बच्चों को लेकर युवा दरवाज़े की ओर वाले कमरे में सोते हैं।

गाँव के मुखिया के घर में प्रातः दो पत्थरों को घिसकर आग जलाई जाती है फिर यही आग लकड़ी की सहायता से दूसरे घरों तक पहुँचाई जाती है। यह प्रतिष्ठा , प्रभुत्व और एकता का प्रतीक माना जाता है।

भोजन में वे भूना मांस और गाय का कच्चा दूध पीते हैं। घर के भीतर लकड़ी और मिट्टी के कुछ पात्र रखे हुए दिखाई दिए। गाँव की युवा स्त्रियाँ लकड़ी से पशुओं की तराश कर मूर्ति बनाते हैं। वृद्धा पशुओं की खाल से वस्त्र और हड्डियों से माला बनाती हैं। पास की छोटी क्यारियों में औषधीय वनस्पतियाँ उगाती हैं। गाँव के पुरुष मवेशियों को चराने के लिए ले जाते हैं। प्यास लगने पर गाय के गले में तीर से छेद कर थोड़ा खून निकालकर पीते हैं। फिर उस स्थान पर वनस्पतियाँ हाथ से मसलकर लगा देते हैं। ऐसा करने पर रक्त का प्रवाह थम जाता है और घाव नहीं होता। इसके बारे में टीवी पर जानकारी मिली थी अब साक्षात देखने को भी मिला। गाँव की मुखिया ने मेरे गले में अपने गले का हार डाला इसका अर्थ उनकी प्रसन्नता व्यक्त करना है ऐसा हमें बताया गया। मुझे मसाई महिलाओं के साथ नृत्य करने का अद्भुत मौका मिला। यह इस यात्रा के दौरान मिला चौथा बोनस था।

मसाई में वैसे तो गर्मी के मौसम में पानी की कमी होती है, पर भारी वर्षा के बाद नदी भर उठती है। तब प्राणियों के प्रजनन की भी तैयारी शुरू होती है। मसाई की महिलाएँ भी गाढ़े लाल रंग के वस्त्र पहनती हैं। घुटने के नीचे का हिस्सा खुला रहता है। बाकी शरीर एक बड़े वस्त्र से ढका रहता है। वे अपने घर के आसपास जो औषधीय पौधे उगाती हैं उन्हें सुखाकर धुआँ निर्माण करते हैं और उससे अपने घुंघराले बाल और शरीर को स्नान कराने जैसे धुएँ से भर देते हैं। इन पौधों के जलने से एक सुगंध उत्पन्न होती है इसके कारण उनके शरीर स्वच्छ हो जाते हैं। सिर के घुंघराले बालों में जूँ नहीं पड़ते।

मसाई गाँव के बच्चे पास के कनाडियन स्कूल में पढ़ने जाते हैं। यहाँ कनाडा सरकार ने मसाई जनता को सिविलाइज्ड बनाने की जिम्मेदारी ली है साथ ही उनके बच्चों को पौष्टिक भोजन, औषधि आदि भी दी जाती है। साथ ही साथ प्रकृति की पूजा करने वाली यह मसाई जाति की अगली पीढ़ी अंग्रेज़ी तो सीख ही रही है साथ में ईसाई धर्म में परिवर्तित भी होती जा रही है। अगर देखा जाए तो वे अपनी जड़ों से ,मूल संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं।

चौथे दिन दिन हम गैंडे देखने गए। अफ्रीकी गैंडों की नाक के ऊपर दो खड्गनुमा सींग होते हैं। ये वास्तव में बाल हैं और इसमें औषधीय गुण होते हैं। इसी कारण चोरी -छिपे इन पशुओं का शिकार किया जाता है। गैंडे घासखोर प्राणी हैं इसलिए जहाँ ऊँची घास होती है वे उसी इलाके में पाए जाते हैं। वन सुरक्षा या रेंजर गैंडे प्रजाति की सुरक्षा में सतर्कता से तैनात रहते हैं। उस दिन केवल हम दोनों ही थे। हम सुबह पाँच बजे ही निकल गए। हमारे साथ पैक्ड नाश्ता और फ्लास्क में भरकर गर्म कॉफी की व्यवस्था दी गई थी। साथ ही कुछ फल, तश्तरियाँ ,पानी की बोतलें, काँटे -चम्मच,छुरी, बटर, सॉफ्ट ड्रिंक के टेट्रापैक एक बड़े से थर्मोकोल के बक्से में पैक कर के दिया गया।

काफी यात्रा के बाद जीप चालक हमें ऐसे स्थान पर ले गया जहाँ नज़दीक से हम गेंडों को देख सकें। गेंडे भी आक्रमक होते हैं। वे अकेले ही घूमते हैं। मादा गैंडा अपने बच्चे के साथ दिखाई देती है। नर मादा केवल तब साथ होते हैं जब प्रजनन या मैथुन क्रीड़ा का मौसम होता है।

हमने दो गर्भवती मादाएँ देखीं जो सुरक्षा के घेरे में रखी गई थीं। हम उन्हें गाड़ी से उतरकर पास जाकर देख सके क्योंकि उनका सेवक उनके साथ ही था। यह एक अद्भुत रोमांचक और अविस्मरणीय अनुभव था हमारे लिए। गेंडे की गर्भावस्था पंद्रह से सोलह माह तक चलती है। शिशु के जन्म के बाद वह तुरंत खड़ा हो जाता है और माँ का ही दूध पीता है। माँ अपने शावक को दो वर्ष तक दूध पिलाती है।

इतनी नज़दीक से गैंडों को देखना इस यात्रा के दौरान मिला पाँचवा बोनस था। लौटते समय दस बज चुके थे। हम एक ऊँची चट्टान के ऊपर जा बैठे। चालक ने दरी बिछाई, फिर साथ लाए गए थर्मोकोल के बक्से से निकालकर हम तीनों ने नाश्ता खाया। चालक ने मसाई लोगों के जीवन के बारे में कई जानकारियाँ दीं। जैसे एक कबीले के लोग अपने कबीले की लड़की से विवाह नहीं कर सकते। दूसरे दूर गाँव की लड़की ब्याहकर लाई जाती है। लड़की अपने साथ दहेज़ के रूप में गायें लाती हैं। नई दुल्हन का कबीले में स्वागत होता है और कई दिनों तक उत्सव मनाया जाता है। उसने यह भी कहा कि आजकल लड़के पढ़ लिखकर , अंग्रेज़ी सीखकर कंप्यूटर पर काम करना सीखने लगे हैं। पर पढ़े लिखे लड़के कबीला छोड़कर अलग शहरों में पक्का घर बनाकर रहते हैं तथा नौकरी करते हैं। इस कारण अब मसाई कबीले घटते जा रहे हैं।

अब हम रिसोर्ट की ओर लौटने लगे, इतने में चालक को वॉकी -टॉकी में एक कॉल आया। उसने तुरंत गाड़ी घुमाई और हमें ऊँचे ऊँचे वृक्षों के बीच ले गया। वहाँ कुछ वृक्षों पर और कुछ नीचे मैदान पर विशाल गिद्धों का झुंड दिखाई दिया जो तीव्र गति से किसी मरे ज़ीब्रा के बचे- खुचे मांस नोचकर खा रहे थे। अद्भुत दृश्य था। आपस में लड़ भी रहे थे और खाते जा रहे थे। यह हमारी यात्रा के दौरान मिला छठवाँ बोनस था।

पाँचवे दिन हम सभी को दोपहर के भोजन के बाद मसाई के विशाल मैदान का चक्कर लगाने के लिए ले जाया गया। बड़ी संख्या में हाथी के झुंड, जिराफ़ उनके बच्चे , ज़ीब्रा दिखाई दिए। दोपहर को तेज़ धूप थी। एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला अधिकतर ज़ीब्रा जोड़े में दिखाई दिए और दोनों दो दिशाओं में मुख किए खड़े थे। चालक ने समझाया कि जब ज़ीब्रा एक जगह पर खड़े होते हैं तब आगे और पीछे से किसी आक्रमण से बचने के लिए वे इस तरह खड़े होते हैं। ऐसा करके वे अपने को सुरक्षित कर लेते हैं मुश्किल पड़े दो दौड़ने लगते हैं। हम जब आवास की ओर लौटने लगे तो हमें बड़ी संख्या में शुतुरमुर्ग के झुंड दिखाई दिए। वे तीव्र गति से बस दौड़ रहे थे। जीपचालक ने उनके पीछे जीप दौड़ाई तो उन्होंने अपनी गति बढ़ा दी। हमने ही फिर चालक को उनका पीछा करने से मना किया। हमें यह अनुचित लगा।

हम अब अपने आवास की ओर लौटने लगे। भारी संख्या में विशाल मोटे सींगवाले जंगली भैंस जुगाली करते हुए बैठे थे। उनका आकार विशाल ,तगड़े और भयंकर दिख रहे थे। भोजन के बाद वे सब बैठ जाते हैं और जुगाली करते हैं। वे भी सब झुंड में रहते हैं।

उस दिन शाम को सभी पर्यटकों के लिए शुतुरमुर्ग नृत्य का आयोजन किया गया था। यह नृत्य मसाई जाति के पुरुष ही दिखाते हैं। साथ ही मसाई जाति के नृत्य संगीत आदि का आयोजन भी था।

छठवें दिन ही सुबह को आठ बजे हम उसी स्थान पर लौटकर आए जहाँ हम उतरे थे। कुछ ही समय में विमान आया और हमने अपनी आँखों में अति मनमोहक वन्य जीवन के सुखद दृश्य को सदा के लिए समाहित कर नई ऊर्जा ,नए दृष्टिकोण, नई जानकारी लिए अपनी उड़ान भरी!!

माइग्रेशन के इस दृश्य को देखकर तीन बातें मैंने अपने जीवन में सीखी –

  1. अपने जीवन में कुछ कठिन निर्णय स्वयं को ही लेने पड़ते हैं।
  2. समाज में रहने के लिए कभी – कभी भय को पीछे छोड़कर अगुआ भी बनना पड़ता है जो दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है।
  3. अपने कौम, अपने देश के लिए शहीद भी होना पड़ता है।

मनुष्य के जीवन में साधारण से महान बनने की यह यात्रा कठिन अवश्य होती है पर सुखदाई भी।

आज कैमरे में कैद तस्वीरें आनंद दे जाते हैं।

© सुश्री ऋता सिंह

27/9/2012, 1.25 am, मोम्बासा

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 216 ☆ आलेख – व्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखव्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 216 ☆  

? आलेख – व्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं?

व्यंग्य का प्रहार दोषी व्यक्ति को आत्म चिंतन के लिये मजबूर करता है. जिस पर व्यंग्य किया जाता है, उससे न रोते बनता है, न ही हंसते बनता है. मन ही मन व्यंग्य को समझकर स्वयं में सुधार करना ही एक मात्र सभ्य विकल्प होता है. पर यह भी सत्य है कि कबीर कटाक्ष करते ही रह गये, जिन्हें नहीं सुधरना वे वैसे ही बेशर्मी की चादर ओढ़े मुखौटे लगाये तब भी बने रहे आज भी बने हुये हैं. किन्तु इस व्यवहारिक जटिलता के कारण व्यंग्य विधा को नकारात्मक लेखन कतई नही कहा जा सकता.

व्यंग्य बिल्कुल भी नकारात्मक लेखन नहीं है. बल्कि इसे यूं कहें तो उपयुक्त होगा कि जिस तरह कांटे को कांटा ही निकालता है, व्यंग्य ठीक उसी तरह का कार्य करता है. आशय यह है कि व्यंग्य लेखन का उद्देश्य हमेशा सकारात्मक होता है. जब सीधे सीधे अमिधा में कहना कठिन होता है, तब इशारों इशारों में कमियां उजागर करने के लिये व्यंग्य का सहारा लिया जाता है. ये नितांत अलग बात है कि आज समाज इतना ढ़ीठ हो चला है कि राजनेता या अन्य विसंगतियो के धारक वे लोग जिन पर व्यंग्यकार व्यंग्य करता है वे व्यंग्य को समझकर प्रवृत्ति में सुधार करने की अपेक्षा उसे अनदेखा कर रहे हैं. व्यंग्य को परिहास में उड़ाकर वे सोचते हैं कि वे ही सही हैं. चोर की ढ़ाढ़ी के तिनके को देखकर व्यंग्यकार इस तरह कटाक्ष करता है कि यदि चाहे तो चोर समय रहते स्वयं में सुधार कर ले तो वह एक्सपोज होने से बच सकता है. किन्तु आज निर्लज्ज चोर, चोरी करके भी सीना जोरी करते दिखते हें. व्यंग्य के प्रहार उन्हें आहत नही करते. वे क्लीन शेव करके फिर फिर से नये रूप में आ जाते हैं. लकड़ी की काठी भी अब बारंबार चढ़ाई जा रही है. बिना पोलिस और कोर्ट के डंडे के आज लोगों में सुधार होते नहीं दिखता. इसलिये पानीदार लोगों को इशारों में शर्मसार करने की विधा व्यंग्य को ही नकारात्मक लेखन कहने की कुचेष्टा की जा रही है. यदि सभी के द्वारा सामाजिक मर्यादाओ के स्वअनुशासन का पालन किया जाये तो व्यंग्य से अधिक सकारात्मक लेखन कुछ हो ही नहीं सकता.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 37 – देश-परदेश – उल्टा समय☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 37 ☆ देश-परदेश – उल्टा समय ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कुछ दिनों से प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे विज्ञापनों की बाढ़ आ गई है, जो उधार लेकर बिना आवश्यकता के सामान खरीदने के लिए आकर्षित ही नहीं बाध्य कर रहे हैं।

हमारी संस्कृति या सामाजिक व्यवस्था में उधार लेना बुरी बात मानी जाती हैं।

बाजारू ताकतें हमारी अदातें बदल कर हमें मजबूर कर रही हैं। बैंक और अन्य वाणिज्यिक संस्थाएं भी खजाने खोल कर बैठी हैं, लोन देने के लिए। आप बस कोरे कागज़ात पर हस्ताक्षर करने के लिए हामी भर देवें।

उपरोक्त विज्ञापन कह रहा है “आज उधार :कल नगद”  जबकि हमारे यहां तो व्यापारिक संस्थानों में इसका उल्टा “आज नगद: कल उधार” की सूचना लिखी रहती थी। विज्ञापन में ये भी लिखा था “नगद देकर शर्मिंदा ना करें” जबकि ये मूलतः उधार मांग कर शर्मिंदा ना करें था। “नौ नगद ना तेरह उधार” के सिद्धांत पर ही सदियों से हमारी अर्थव्यवस्था चल रही थी। तो अब ये क्या बातें हो रही है, कि खपत बढ़ानी चाहिए तभी हमारी अर्थव्यवस्था चल सकती है।

हम तो बचत कर क्रय करने की परंपरा वाले समाज से आते हैं, उल्टी गंगा बहाई जा रही हैं। अनावश्यक सामान या पूरे वर्ष में खपत होने वाली जिंसो को लेकर घर भर लो, ताकि खपत भी बढ़ जाए और बड़े उद्योगपतियों की पौ बारह हो जाए।

उधार प्रेम की कैंची है, जैसे शब्द प्राय सभी फुटकर विक्रतों के यहां लिखे हुए देखे जाते थे, जो अब नादरत हो चुके हैं। पहले हमारी फिल्मों में गांव के महाजन/ सेठ हीरो की मां कंगन रख कर कठिन समय में पैसे उधार लेती थी, और फिर उनके अत्याचार सहती थी। अब ये बड़े बड़े कॉर्पोरेट/ निर्माता उधार पर सामान देकर बाद में वसूली करते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #191 ☆ खडावा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 191 ?

☆ खडावा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

एकेक शब्द माझा भक्तीरसात न्हावा

हृदयात नांदतो रे कान्हा तुझाच पावा 

वारीत चालताना म्हणतात पाउले ही

देहात विठ्ठलाचा संचार साठवावा

रामास भरत म्हणतो सत्ता नकोय मजला

तू फक्त दे मला रे पायातल्या खडावा

पंडीत ज्या शिळेला पाषाण म्हणुन पाही

पाथरवटास त्यातच ईश्वर उभा दिसावा

काळ्याच चादरीवर आकाश पांघरोनी

झाडात भर दुपारी घेतोय कृष विसावा

ब्रह्मास्त्र काल होते अणुबॉम्ब आज आहे

युद्धामधील जहरी संहार थांबवावा

चातुर्य वापरावे उद्धारण्यास जीवन

भोंदूपणास कुठल्या थारा इथे नसावा

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆– रक्तामध्ये ओढ मातीची…– कवयित्री : श्रीमती इंदिरा संत ☆ संग्रहिका : सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर ☆

सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

 वाचताना वेचलेले 

☆ – रक्तामध्ये ओढ मातीची– कवयित्री : श्रीमती इंदिरा संत ☆ संग्रहिका : सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर ☆

(काल साजऱ्या झालेल्या जागतिक पर्यावरण दिनाच्या अनुषंगाने ..कवयित्री इंदिरा संत यांची एक सुंदर कविता. सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर यांनी या कवितेला सुरेख स्वरसाज चढवून ती सादर केलेली आहे)

५ जून, जागतिक पर्यावरण दिन…… आपला सभोवताल नयनरम्य करणार्‍या पर्यावरणातून आपण अनेक गोष्टी शिकतो, मनमुराद आनंद घेतो, आणि त्यावर मनापासून प्रेमही करतो….या पर्यावरणाशिवाय आपलं अस्तित्त्व नाही.. 

याच पर्यावरणाबद्दल वाटणारी कृतज्ञता जेष्ठ कवयित्री इंदिरा संत यांनी त्यांच्या खालील कवितेतून व्यक्त केली आहे… त्या मातीचा एक भाग आपणही आहोत, याचं भान आपल्याला सतत असायला हवं आणि म्हणून पर्यावरणाचं संवर्धन आपण करायला हवं, हो ना !

रक्तामध्ये ओढ मातीची, 

मनास मातीचें ताजेपण,

मातींतुन मी आलें वरती, 

मातीचे मम अधुरें जीवन…..  

कोसळतांना वर्षा अविरत, 

स्नान समाधीमधे डुबावें; 

दंवात भिजल्या प्राजक्तापरी

ओल्या शरदामधि निथळावें; ….. 

हेमंताचा ओढुन शेला 

हळूच ओलें अंग टिपावें;

वसंतातले फुलाफुलांचें, 

छापिल उंची पातळ ल्यावें;….. 

ग्रीष्माची नाजूक टोपली,

उदवावा कचभार तिच्यावर;

जर्द विजेचा मत्त केवडा

तिरकस माळावा वेणीवर; ….. 

आणिक तुझिया लाख स्मृतींचे

खेळवीत पदरांत काजवे, 

उभें राहुनी असें अधांतरिं

तुजला ध्यावें, तुजला ध्यावें….

कवयित्री : श्रीमती इंदिरा संत

संग्रहिका : पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – कुष्ठरोग नाही भोग…– ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– कुष्ठरोग नाही भोग…– ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

कुष्ठरोग्याचे जीवन,

समाजाकडून सारखी उपेक्षा !

झडलेल्या हातांनाही असते,

मेहंदीने रंगण्याची अपेक्षा !

कोणी हिणवे तयास,

झालाय देवाचा कोप !

कोणी म्हणे गतजन्माच्या 

पापाचे आले आहे रोप !

समाजात जगताना,

पदोपदी भोगतात यातना !

हद्दपारीचे जीवन नशिबी,

वाळीत टाकल्याची भावना !

कोणी एक महात्मा येई ,

तयांच्या उद्धारासाठी !

बाबा आमटेंचे महात्म्य,

अधोरेखित या जगजेठी !

आनंदवनात चालू आहे,

अविरत सेवेचे महान कार्य !

पाहून जुळती कर दोन्हीही,

माणसातल्या देवाचे औदार्य !

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 142 – कहने दो बस कहने दो… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कहने दो बस कहने दो।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 142 – कहने दो बस कहने दो…  ✍

सम्बोधन की डोर न बाँधो, मुझे मुक्त ही रहने दो।

जो कुछ मन में उमड़ रहा है, कहने दो बस कहने दो।

 

अनायास मिल गये सफर में

जैसे कथा कहानी

भूली बिसरी यादें उभरी

जैसे बहता पानी

मत तोड़ो तुम नींदे मेरी, अभी खुमारी रहने दो।

 

बात बात में हँसी तुम्हारी

झलके रूप शिवाला

अलकें ऐसी लगतीं जैसे

पाया देश निकाला

रूप तुम्हारा जलती लौ सा, अभी और कुछ दहने दो।

 

कहाँ रूप पाया है रूपसि

करता जो मदमाता

कितना गहरा हृदय तुम्हारा

कोई थाह न पाता

अभी न बाँधों सम्बन्धों में, स्वप्न नदी में बहने दो।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 141 – “द्युति की यह अनिंद्या…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  द्युति की यह अनिंद्या)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 141 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

द्युति की यह अनिंद्या 

मत सहेजो

स्मृतिपट की

सलवटें

आओ तो

सुलझा सका गर

मुख पटल बिखरी

लटें

 

ग्रीष्म के

श्रृंगार पर

बहता पसीना

आयु पर भारी

रहा किंचित महीना

 

जून का,

आतप

कुँआरी देह पर

कुछ

तप रहा

अपनत्व का

कोई नगीना

 

नाभि तट पर

आ रुके रोमांच को

मत समेटो

अब

हार्दिक होती हुई

यह द्वितीया की

प्रियंका

करवटें

 

उक्ति होती हुई

द्युति की यह अनिंद्या

शांत सुरभित

छुईमुई सी

शुभासंध्या

 

पाटवस्त्रों में

सम्हाले

लग रही हो क्षीण सी

उत्कला, विंध्या

 

विद्ध क्षण से

उभरते

इस समय के मुख

मत उकेरो

स्वयं को

वनस्पतियाँ लख

तुम्हें न

मर मिटें

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-06-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 191 ☆ “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण – महान चित्रकार आशीष स्वामी…”)

☆ संस्मरण — “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए।  कोरोना उन्हें लील गया। मैंने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान उमरिया में तीन साल से अधिक डायरेक्टर के रूप में काम किया। मेरे कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। भारत सरकार ने उमरिया आरसेटी के डायरेक्टर को दिल्ली में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड से सम्मानित भी किया था।  

आरसेटी में ट्रेनिंग लेने आये बच्चों में सकारात्मक सोच भरने और उनकी संस्कृति की अलख जगाने में श्री आशीष स्वामी बड़ी मेहनत करते थे। नये नये आइडिया देकर उन्हें कुछ नया काम करने की प्रेरणा देते थे। क्या भूलूं? क्या याद करूं?

हां एक खास इवेंट आप वीडियो में देखिए,जो हम लोगों ने जनगण तस्वीर खाना लोढ़ा में आयोजित किया था, यूट्यूब में दुनिया भर के लोगों ने जब इस वीडियो को देखा तो दंग रह गए। ऐसा दुनिया में पहली बार हुआ था लोढ़ा में।

जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था, दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।

यूं तोआरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे। उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया। फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था। दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ। आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है। इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन किसानों के लिए अलग अलग तरह के मुफ्त के पहरेदार कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण तस्वीरखाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ,सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप उपरोक्त वीडिओ देखकर बताईए, आपको कैसा लगा। और महान कलाकार आशीष स्वामी जी को दीजिए श्रद्धांजलि…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares