मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 155 – गुरूकृपा योग ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 155 – गुरूकृपा योग ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

सौभाग्ये लाभला।

गुरूकृपा योग।

सरतील भोग।

जन्मांतरी।।१।।

 

प्रेमे बाळकडू।

पाजते माऊली।

संस्कार सावली।

आद्यगुरू।।२।।

 

जीवनाचा वारू।

सावरण्या दृष्टी।

संगे प्रेमवृष्टी।

पितृछत्र।।३।।

 

ज्ञान विज्ञानाची।

उजळली ज्योत।

ज्ञानमयी स्रोत।

गुरूजन।।४।।

 

बहुव्यासंगी ते।

माझे गुरूजन।

ठेवा ज्ञानधन।

दिधलासे।।५।।

 

ज्ञान मकरंद।

असे चराचरी।

मधुमक्षी परी।

ध्येय हवे।।६।।

 

अनंत स्वरुपे।

गुरू माऊलीची।

वाट प्रकाशाची।

नित्य दावी।।७।।

 

गुरूपदी हवी।

श्रद्धा भक्ती खरी।

तेव्हा मुक्ती चारी

साधतील।।८।।

 

गुरूकृपा योग।

परीस दुर्लभ।

जीवन सुलभ।

सर्वार्थाने।।९।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #185 ☆ चिन्ता बनाम पूजा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख चिन्ता बनाम पूजा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 185 ☆

☆ चिन्ता बनाम पूजा 

‘जब आप अपनी चिन्ता को पूजा, आराधना व उपासना में बदल देते हैं, तो संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाता है।’ चिन्ता तनाव की जनक व आत्मकेंद्रितता की प्रतीक है, जो हमारे हृदय में अलगाव की स्थिति उत्पन्न करती है। इसके कारण ज़माने भर की ख़ुशियाँ हमें अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं और उसके परिणाम-स्वरूप हम घिर जाते हैं– चिन्ता, तनाव व अवसाद के घने अंधकार में–जहां हमें मंज़िल तक पहुंचाने वाली कोई भी राह नज़र नहीं आती।’

वैसे भी चिन्ता को चिता समान कहा गया है, जो हमें कहीं का नहीं छोड़ती और हम नितांत अकेले रह जाते हैं। कोई भी हमसे बात तक करना पसंद नहीं करता, क्योंकि सब सुख के साथी होते हैं और दु:ख में तो अपना साया तक भी साथ नहीं देता। सुख और दु:ख एक-दूसरे के विरोधी हैं; शत्रु हैं। एक की अनुपस्थिति में ही दूसरा दस्तक देने का साहस जुटा पाता है…तो क्यों न इन दोनों का स्वागत किया जाए? ‘अतिथि देवो भव:’ हमारी संस्कृति है, हमारी परंपरा है, आस्था है, विश्वास है, जो सुसंस्कारों से पल्लवित व पोषित होती है। आस्था व श्रद्धा से तो धन्ना भगत ने पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर दिया था। हाँ! जब हम चिन्ता को पूजा में परिवर्तित कर लेते हैं अर्थात् सम्पूर्ण समर्पण कर देते हैं, तो वह प्रभु की चिन्ता बन जाती है, क्योंकि वे हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानते हैं। सो आइए! अपनी चिन्ताओं को सृष्टि-नियंता को समर्पित कर सुक़ून से ज़िंदगी बसर करें।

‘बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय’ इस उक्ति से तो आप सब परिचित होंगे कि जिस मनुष्य पर प्रभु का वरद्हस्त रहता है, उसे कोई लेशमात्र भी हानि नहीं पहुँचा सकता; उसका अहित नहीं कर सकता। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं कि अब तो सब कुछ प्रभु ही करेगा। जो भाग्य में लिखा है; अवश्य होकर अर्थात् मिल कर रहेगा क्योंकि ‘कर्म गति टारै नहीं टरै।’ गीता मेंं भी भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म का संदेश दिया है तथा उसे ‘सार्थक कर्म’ की संज्ञा दी है। उसके साथ ही वे परोपकार का संदेश हुए मानव-मात्र के हितों का ख्याल रखने को कहते हैं। दूसरे शब्दों में वे हाशिये के उस पार के नि:सहाय लोगों के लिए मंगल-कामना करते हैं, ताकि समाज में सामंजस्यता व समरसता की स्थापना हो सके। वास्तव में यही है–सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम राह, जिस पर चल कर हम कैवल्य की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।

संघर्ष को दुआओं में बदलने की स्थिति जीवन में तभी आती है, जब आपके संघर्ष करने से दूसरों का हित होता है और असहाय व पराश्रित लोग अभिभूत हो आप पर दुआओं की वर्षा करनी प्रारंभ कर देते हैं। दुआ दवा से भी अधिक श्रेयस्कर व कारग़र होती है, जो मीलों का फ़ासला पल-भर में तय कर प्रार्थी तक पहुँच अपना करिश्मा दिखा देती है तथा उसका प्रभाव अक्षुण्ण होता है…रेकी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आजकल तो वैज्ञानिक भी गायत्री मंत्र के अलौकिक प्रभाव देख कर अचंभित हैं। वे इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं कि दुआओं व वैदिक मंत्रों में विलक्षण व अलौकिक शक्ति होती है। मुझे स्मरण हो रही हैं– स्वरचित मुक्तक-संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की चंद पंक्तियां… जो जीवन मे एहसासों की महत्ता व प्रभुता को दर्शाती हैं– ‘एहसास से रोशन होती है ज़िंदगी की शमा/ एहसास कभी ग़म, कभी खुशी दे जाता है/ एहसास की धरोहर को सदा संजोए रखना/ एहसास ही इंसान को बुलंदियों पर पहुँचाता है।’ एहसास व मन के भावों में असीम शक्ति है, जो असंभव को संभव बनाने की क्षमता रखते हैं।

उक्त संग्रह की यह पंक्तियां सर्वस्व समर्पण के भाव को अभिव्यक्त करती है…’मैं मन को मंदिर कर लूं / देह को मैं चंदन कर लूं / तुम आन बसो मेरे मन में / मैं हर पल तेरा वंदन कर लूं’…जी हाँ! यह है समर्पण व मानसिक उपासना की स्थिति… जहां मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है और मन मंदिर हो जाता है। भक्त को प्रभु को तलाशने के लिए मंदिर-मस्जिद व अन्य धार्मिक-स्थलों में माथा रगड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। उसकी देह चंदन-सम हो जाती है, जिसे घिस-घिस कर अर्थात् जीवन को साधना में लगा कर वह प्रभु के चरणों में स्थान प्राप्त करना चाहता है। उसकी एकमात्र उत्कट इच्छा यही होती है कि परमात्मा उसके मन में रच-बस जाएं और वह हर पल उनका वंदन करता रहे अर्थात् एक भी सांस बिना सिमरन के व्यर्थ न जाए। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है–महाभारत का वह प्रसंग, जब भीष्म पितामह शर-शैय्या पर लेटे थे। दुर्योधन पहले आकर उनके शीश की ओर स्थान प्राप्त कर स्वयं को गर्वित व हर्षित महसूसता है और कृष्ण उनके चरणों में बैठ कर संतोष का अनुभव करते हैं। सो! वह कृष्ण से प्रसन्नता का कारण पूछता है और अपने प्रश्न का उत्तर पाकर हतप्रभ रह जाता है कि ‘मानव की दृष्टि सबसे पहले सामने वाले अर्थात् चरणों की ओर बैठे व्यक्ति पर पड़ती है, शीश की ओर बैठे व्यक्ति पर नहीं।’ भीष्म पितामह भी पहले कृष्ण से संवाद करते हैं और दुर्योधन से कहते हैं कि मेरी दृष्टि तो पहले वासुदेव कृष्ण पर पड़ी है। इससे संदेश मिलता है कि यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो, तो अहं को त्याग, विनम्र बन कर रहो, क्योंकि जो व्यक्ति ज़मीन से जुड़कर रहता है; फलदार वृक्ष की भांति झुक कर रहता है… सदैव उन्नति के शिखर पर पहुंच सूक़ून व प्रसिद्धि पाता है।’

सो! प्रभु का कृपा-प्रसाद पाने के लिए उनकी चरण-वंदना करनी चाहिए… जो इस कथन को सार्थकता प्रदान करता है कि ‘यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो अथवा उन्नति के शिखर को छूना चाहते हो, तो किसी काम को छोटा मत समझो। जीवन में खूब परिश्रम करके सदैव नंबर ‘वन’ पर बने रहो और उस कार्य को इतनी एकाग्रता व तल्लीनता से करो कि तुम से श्रेष्ठ कोई कर ही न सके। सदैव विनम्रता का दामन थामे रखो, क्योंकि फलदार वृक्ष व सुसंस्कृत मानव सदैव झुक कर रहता है।’ सो! अहं मिटाने के पश्चात् ही आपको करुणा-सागर के निज़ाम में प्रवेश पाने का सुअवसर प्राप्त होगा। अहंनिष्ठ  मानव का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय होते हैं। वह कहीं का भी नहीं रहता और न वह इस लोक में सबका प्रिय बन पाता है; न ही उसका भविष्य संवर सकता है अर्थात् उसे कहीं भी सुख-चैन की प्राप्ति नहीं होती।

इसलिए भारतीय संस्कृति में नमन को महत्व दिया गया है अर्थात् अपने मन से नत अथवा झुक कर रहिए, क्योंकि अहं को विगलित करने के पश्चात् ही मानव के लिए प्रभु के चरणों में स्थान पाना संभव है। नमन व मनन दोनों का संबंध मन से होता है। नमन में मन से पहले न लगा देने से और मनन में मन के पश्चात् न लगा देने से मनन बन जाता है। दोनों स्थितियों का प्रभाव अद्भुत व विलक्षण होता है, जो मानव को कैवल्य की ओर ले जाती हैं। सो! नमन व मनन वही व्यक्ति कर पाता है, जिसमें अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव विगलित हो जाता है और वह विनम्र प्राणी निरहंकार की  स्थिति में आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रखता है।

‘यदि मानव में प्रेम, प्रार्थना व क्षमा भाव व्याप्त हैं, तो उसमें शक्ति, साहस व सामर्थ्य स्वत: प्रकट हो जाते हैं, जो जीवन को उज्ज्वल बनाने में सक्षम हैं।’ इसलिए मानव में सब से प्रेम करने से सहयोग व सौहार्द बना रहेगा और उसके हृदय में प्रार्थना भाव जाग्रत हो जायेगा … वह मानव-मात्र के हित व मंगल की कामना करना प्रारंभ कर देगा। इस स्थिति में अहं व क्रोध का भाव विलीन हो जाने पर करुणा भाव का जाग्रत हो जाना स्वाभाविक है। महात्मा बुद्ध ने भी प्रेम, करुणा व क्षमा को सर्वोत्तम भाव स्वीकारते हुए उसे क्रोध पर नियंत्रित पाने के अचूक साधन व उपाय के रूप में प्रतिष्ठापित किया है। इन परिस्थितियों में मानव शक्ति व साहस के होते हुए भी अपने क्रोध पर नियंत्रण कर निर्बल पर वीरता का प्रदर्शन नहीं करता, क्योंकि वह ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् वह बड़ों में क्षमा भाव की उपयोगिता, आवश्यकता, सार्थकता व महत्ता को समझता-स्वीकारता है। महात्मा बुद्ध भी प्रेम व करुणा का संदेश देते हुए स्पष्ट करते हैं कि वास्तव में ‘जब आप शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल पर प्रहार नहीं करते– श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है।’ इसके विपरीत यदि आप में शत्रु का सामना करने की सामर्थ्य व शक्ति ही नहीं है, तो चुप रहना आप की विवशता है, मजबूरी है; करुणा नहीं। मुझे स्मरण हो रहा है, शिशुपाल प्रसंग …जब शिशुपाल ने क्रोधित होकर भगवान कृष्ण को 99 बार गालियां दीं और वे शांत भाव से मुस्कराते रहे। परंतु उसके 100वीं बार वही सब दोहराने पर, उन्होंने उसके दुष्कर्मों की सज़ा देकर उसके अस्तित्व को मिटा डाला।

सो! कृष्ण की भांति क्षमाशील बनिए। विषम व असामान्य परिस्थितियों में धैर्य का दामन थामे रखें, क्योंकि तुरंत प्रतिक्रिया देने से जीवन में केवल तनाव की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती, बल्कि ज्वालामुखी पर्वत की भांति विस्फोट होने की संभावना बनी रहती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी जीवन में सुनामी जीवन की समस्त खुशियों को लील जाता है। इसलिए थोड़ी देर के लिए उस स्थान को त्यागना श्रेयस्कर है, क्योंकि क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति पूर्ण वेग से आता है और पल-भर में शांत हो जाता है। सो! जीवन में अहं का प्रवेश निषिद्घ कर दीजिए, क्रोध अपना ठिकाना स्वत: बदल लेगा।

वास्तव में दो वस्तुओं के द्वंद्व अर्थात् अहं के टकराने से संघर्ष का जन्म होता है। सो! पारिवारिक सौहार्द बनाए रखने के लिए अहं का त्याग अपेक्षित है, क्योंकि संघर्ष व पारस्परिक टकराव से पति-पत्नी के मध्य अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसका ख़ामियाज़ा बच्चों को एकांत की त्रासदी के दंश रूप में झेलना पड़ता है। सो! संयुक्त परिवार-व्यवस्था के पुन: प्रचलन से जीवन में खुशहाली छा जाएगी। सत्संग, सेवा व सिमरन का भाव पुन: जाग्रत हो जाएगा अर्थात् जहां सत्संगति है, सहयोग व सेवा भाव अवश्य होगा, जिसका उद्गम-स्थल समर्पण है। सो! जहां समर्पण है, वहां अहं नहीं और जहां अहं नहीं, वहां क्रोध व द्वंद्व नहीं– टकराव नहीं, संघर्ष नहीं, क्योंकि द्वंद्व ही संघर्ष का जनक है। यह स्नेह, प्रेम, सौहार्द, त्याग, विश्वास, सहनशीलता व सहानुभूति के दैवीय भावों को लील जाता है और मानव चिन्ता, तनाव व अवसाद के मकड़जाल में फंस कर रह जाता है… जो उसे जीते-जी नरक के द्वार तक ले जाते हैं। आइए! चिंता को त्याग व अहं भाव को मिटा कर संपूर्ण समर्पण करें, ताकि संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाए और जीते-जी मुक्ति प्राप्त करने की राह सहज व सुगम हो जाए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #184 ☆ भावना की कुंडलियाँ… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना की कुंडलियाँ…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 184 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना की कुंडलियाँ… ☆

मन की आंखों में बसा, बस तेरा ही प्यार।

देख तुझे पढ़ने लगे, आँखों का अखबार।।

आँखों का अखबार, पढ़ें फिर तुमको जानें।

मन ही मन में ठान, बात दिल की पहचानें।।

कहे भावना बात, सुनी बातें सब जन की।

तुम हो मेरी जान, बात कहता हूँ मन की।।

दिल से ही कहने लगी, धड़कन  दिल का हाल।

मन बेकाबू हो रहा, मिलने को तत्काल।।

मिलने को तत्काल, सनम तुम  आओ कैसे।

लिया तुम्हें है जान, नहीं हो  सपने जैसे।।

कहे भावना बात, रोज ये दिल की तुमसे ।

मन की मन से जान, बात कहते हैं दिलसे।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #170 ☆ “एक पूर्णिका … बेटा” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – एक पूर्णिका … बेटा”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 170 ☆

 ☆ “एक पूर्णिका … बेटा☆ श्री संतोष नेमा ☆

बात  हमारी  मान  लो  बेटा

लोगों कों  पहचान लो  बेटा

कौन है अपना कौन  पराया

अपने  से  ही जान लो  बेटा

बड़े- बूढ़ों की बात सुनो  तुम

गाँठ  बड़ी  सी बाँध लो  बेटा

राह  धर्म  की  चलना  हरदम

दिल में अब यह ठान लो बेटा

काम-क्रोध मद लोभ से बचना

अपने  मन  में  आन  लो  बेटा

सोच-समझ  कर बोलो हमेशा

मुख  में  मीठी  जुवान लो बेटा

खूब  करो  माँ-बाप  की   सेवा

कर्मों    पर   संज्ञान   लो   बेटा

सपने  सभी  साकार  करो  तुम

ऐसी   ऊँची   उड़ान   लो   बेटा

पाना   यदि   “संतोष”. तुम्हें   है

हाथ  में  काम  महान  लो   बेटा

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #177 ☆ मनास वाचूया… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 177 – विजय साहित्य ?

 

☆ मनास वाचूया… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

चला लेखणी देखणी करूया

शब्द दर्पणी मनास वाचूया ||धृ ||

अनुभूतीचा रंग मनोहर

भाव भावना शब्द सरोवर

मनांगणीचे विश्व सजवूया… ||१||

वास्तवतेची, शब्द बांधणी

कल्पकतेची, कला अग्रणी

प्रतिभा शक्ती, अक्षर लिहूया… ||२||

कविता आहे, फुल बकुळीचे

अक्षय लेणे, गुलाब कळीचे

कथा, कविता, साहित्य निर्मूया…. ||३||

साहित्यातील , नवीन वळणे

शब्द संपदा, माणूस कळणे

नात्यामधले, बंधन जपूया… ||४||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ दुभंगलेले पाणी… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

 

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ दुभंगलेले पाणी… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

… ” तुला हजार वेळा बजावून देखील का येतेस या विहिरीवर पाणी भरण्यासाठी… या विहिरीवर फक्त गावातल्या उच्च जमातीच्या लोकांना पाणी भरण्याचा हक्क आहे… तुमच्या सारख्या कनिष्ठ जमातीला हिथं पाण्याचा थेंब देखील मिळणार नाही… आणि हे सांगुन देखील तू इथं रोजच सकाळ पासून उभी असतेस… तुझी सावली या विहिरीवर पडली तर त्यातले पाणी विटाळले गेले तर आम्हाला पाणी कसे बरे मिळेल… तुला इथचं उभी राहण्याची हौस जर असेल तर जरा या विहिरी पासून दूर उभी राहा कि जरा… आमच्या घरी कडक सोवळं ओवळं पाळलं जातं म्हटलं… गावाच्या कोसोदूर असलेल्या या विहिरीवरून पाणी न्यायची तंगडतोड करावी तेव्हा कुठे घरातले आम्हाला दोन वेळेचं खाऊ पिऊ घालतात घरात ठेवून घेतात…तुझ्या सारखं नाही.. सकाळीच तुला त्यांनी इथं पाण्यासाठी पिटाळली कि बसले ते दिवसभर चकाट्या पिटायला घराच्या ओट्यावर.. संध्याकाळ पर्यंत पाण्याचा एखादा माठ भरून घरी नेलास तरी तुझं किती कौतुक करत बसतात… आणि आमच्या घरी आम्हाला मात्र जरा उशीर होण्याचा अवकाश लाखोली वाहत असतात.. तोंड दाबून बुक्क्यांचा मार सहन करावा लागतो आम्हाला… जा जा दुसरीकडे कुठे विहीर शोध जा.. इथं बिलकुल थांबू नकोस.. “

… ” ताई आपल्या गावात हिच एक विहीर आहे हे तुम्हा सगळ्यांना ठाऊक आहे… तुमची उच्च जमातीच्या घरांपेक्षा आमची कनिष्ठ जमातीची घरं हाताच्या बोटावर मोजता येणारी.. या वैराण वाळवंटात  शेकडो मैल दूरवर गाव नि वस्ती आहेत.. तिथं देखील एखादं दुसऱ्या विहिरींना पाणी आहे.. आता आपल्या गावाची हिच विहीर गावकुसाबाहेर कोसांवर असल्यानं तुम्हाला पाणी नेण्यासाठी किती सायास करावे लागतात मगं आमची काय कथा… तुमचं सगळयांच भरून झालं  कि द्याल आम्हाला प्रत्येकाला निदान दोन दोन घागरी.. एक पिण्याला नि दुसरी स्वयंपाकाला… भागवून घेऊ आम्ही कसंतरी… पण तुम्ही नाही म्हणू नका.. पाणी देण्याचं पुण्य तेव्हढं तुम्हाला नक्कीच मिळेल… माणसांसारखी माणसचं आहोत आपण एकाच आकाराच्या देहाची, जन्माने उच्च निच्च माणसात भेदभाव जरी झाला तरी माणुसकी मात्र अभेद्य असते कि… तहान भूक जशी तुम्हाला तशीच ती आम्हालाही आहेच कि.. त्यांना कुठे असतो भेदभाव… तुमचे माठ मातीचे आणि आमचेही त्याच मातीपासून बनलेले.. प्रत्येक माठामाठात भरलेले पाणी  हे त्या विहिरीतलेच एकच आहे.. ते तुमच्या माठातले सोवळयाचे नि आमच्या ओवळयातले हा भेदभाव पाणी कुठं करते.. त्याला फक्त तहानलेल्याची तृष्णा भागविणे एव्हढेच ठाऊक असते… आपला स्त्री जन्मच मुळी अभागी आहे बघाना.. तुम्हाला तुमच्या घरी दासीचं जिणं जगावं लागतयं तेच आमच्या घरी सुद्धा चुकलेलं नाही.. या पुरुषसत्ताक परंपरेत स्त्रियांच्यावर अन्याय होत आलेत आणि आपण सगळ्या आपापल्या कोषात राहून मूकपणे सहन करत आहोत.. आपण आपापसातील दरी जर मिटवली नाही तर या अन्यायाचं परिमार्जन कसं करणारं… एक स्त्रीचं दुसऱ्या स्त्रीचं दुख समजू शकते.. कारण स्त्रीच्या हृदयात प्रेमाचा झरा अखंडपणे स्त्रवत असतो…माझी हि बडबड कदाचित तुम्हाला आवडणार नाही.. पण तो दिवस दूर नाही…स्त्रीचं समाजाचं नव्यानं परिवर्तन घडवून नक्की आणेल… पाण्यात काठी मारुन भेद होत नसतो… हेही लवकरच लक्षात आल्याशिवाय राहणार नाही… “

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 119 ☆ लघुकथा – सच से दो- दो हाथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सच से दो- दो हाथ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 119 ☆

☆ लघुकथा – सच से दो- दो हाथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सूरज की किरणें उसके कमरे की खिड़की से छनकर भीतर आ रही हैं। उसने लेटे- लेटे ही गहरी साँस ली – ‘ सवेरा हो गया फिर एक नया दिन,पर मन इजाजत ही नहीं दे रहा बिस्तर से उठने की। करे भी क्या उठकर? उसके जीवन में कुछ बदलने वाला थोड़े – ही है? वही-वही बातें, उसके शरीर को स्कैन करती निगाहें, मन में काई-सी जमी घुटन, जो न चुप रहने देती है, न चीखने। उसके शरीर का सच और घरवालों की आँखों को दिखता सच! दो पाटों के बीच वह घुन -सा पिस रहा है। कैसे समझाए उन्हें कि आँखों देखा हमेशा सच नहीं होता। ओफ्! —-‘

तब तो अपना सच उसकी समझ से भी परे था। छोटा ही था, स्कूल – रेस में भाग लिया था। उसने दौड़ना शुरू किया ही था कि सुनाई दिया – ‘अरे! महेश को देखो, कैसे लड़की की तरह दौड़ रहा है।‘ गति पकड़े कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो। वह वहीं खड़ा हो गया, बड़ी मुश्किल से सिर झुकाकर धीरे-धीरे चलता हुआ सब के बीच वापस आ खड़ा हुआ। क्लास में आने के बाद भी बच्चे उसे बहुत देर तक ‘लड़की-लड़की‘ कहकर चिढ़ाते रहे। तब से वह कभी दौड़ ही नहीं सका, चलता तो भी कहीं से कानों में आवाज गूँजती – ‘लड़की है, लड़की।‘ वह ठिठक जाता।

 ‘महेश! उठ कब तक सोता रहेगा?‘ – माँ ने आवाज लगाई। ‘ कॉलोनी के सब लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं, तू क्यों नहीं खेलता उनके साथ? कितनी बार कहा है लड़कों के साथ खेला कर। घर में घुसकर बैठा रहता है लड़कियों की तरह।‘

‘मुझे अच्छा नहीं लगता क्रिकेट खेलना‘ – उसने गुस्से से कहा।

माँ के ज्यादा कहने पर वह साईकिल लेकर निकल पड़ा और पैडल पर गुस्सा उतारता रहा। सारा दिन शहर में घूमता रहा बेवजह इधर – उधर। साईकिल के पैडल के साथ ही विचार भी बेकाबू थे – ‘ बचपन से लेकर बड़ा होने तक लोगों के ताने ही तो सुनता आया है। आखिर कब तक चलेगा यह लुका छिपी का खेल ? ‘

घर पहुँचकर उसने साईकिल खड़ी की, कमरे में जाकर अपनी पसंद का शॉल निकाला और उसे दुप्पटे की तरह ओढ़कर सबके बीच में आकर बैठ गया।

सूरज की किरणों ने आकाश पर अधिकार जमा लिया था।  

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 151 ☆ अकिंचन की शक्ति… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना अकिंचन की शक्ति। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 151 ☆

☆  अकिंचन की शक्ति…

लक्ष्य साधते हुए सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ते जाने के लिए दृढ़ निश्चयी होना बहुत आवश्यक होता है। अधिकांश लोग आया राम गया राम की तरह केवल समय पास करना जानते हैं। उन्हें कुछ करना- धरना नहीं रहता वो तो हो हल्ला करते हुए हल्ला बोल में शामिल होकर अपनी पहचान को बनाए रखने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। वैचारिक दृष्टिकोण के बिना जब कोई भी तथ्य प्रस्तुत करो तो वो प्रभावी नहीं होता है। आजकल एंकर भी मजे लेते हुए बात को जिस बिंदु से शुरू करते हैं उसी पर बिना निष्कर्ष निकाले समाप्त करना चाहते हैं, जिससे उनका नियमित कार्यक्रम सुचारू रूप से चलता रहे। एक मुद्दे पर एक दिन तो क्या एक वर्ष तक खींचा जा सकता है। घोषणा पत्र महज घोषणा बन कर रह जाए तभी तो सफलता है। नीतियों के साथ चलना कोई नयी बात नहीं होती किन्तु बिना सिर- पैर की बातों से भी अपने आपको चर्चा का बिंदु बनाए रखना कोई आसान कार्य नहीं है। माना एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। पर खोटे सिक्के का क्या किया जाए। इनसे जेब में खनखनाहट होगी या नहीं ये तो भुक्तभोगी ही बता सकता है।

ऐसे लोग जिनको साफ तौर पर कह दिया जाता है, जाओ यहाँ से…। अपना मुह बंद रखो, तुम्हें कोई सुनना नहीं चाहता। वही आगे चलकर खींचतान करते हुए नए- नए विचार रखते हैं जिन्हें अमलीजामा पहनाने वाला विजेता का ताज धारण कर लेता है।

भले ही बाल की खाल क्यों न निकालनी पड़े, बिना मतलब की बातों पर चर्चा होते रहनी चाहिए।लोगों को केवल मनोरंजन से मतलब रहता है। जब देश में पूछ परख कम हो तो विदेशों की यात्रा करें, वहाँ सब कुछ चलेगा, भाषा की भी कोई बाध्यता नहीं रहती, इसी बहाने आपको देश में मीडिया कव्हरेज मिलने लगती है। अब तो अधिकांश लोग धरना प्रदर्शन की जगह  सात समंदर पार जाकर ढूंढ रहे हैं।

खैर ये सब तो चलता रहेगा, अपना अस्तित्व किसी भी तरीके से बना रहे, इसका ध्यान अवश्य रखिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 215 ☆ व्यंग्य – भोजन वैविध्य… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भोजन वैविध्य

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 215 ☆  

? व्यंग्य – भोजन वैविध्य?

इस देश में लोग चारा खा चुके हैं. दो प्रतिशत कमीशन ने पुल, नहरे और बांध के टुकड़े खाने वाले इंजीनियर बनाए हैं । सर्कस में ट्यूब लाइट और कांच, आलपीन खाते मिल ही जाते हैं । रेलवे स्टेशन पर बच्चे नशे के लिए पंचर जोड़ने का सॉल्यूशन चाव से खाते हैं ।

मंत्री, अफसर बाबू रुपए खाते हैं ।

किसी सह भोज में लोगो की प्लेट देख लें, लगता ही नहीं की ये अपने खुद के पेट में खा रहे हैं, और पेट की कोई सीमा भी होती है ।

घर जाकर एसिडिटी से भले निपटना पड़े पर सहभोज का आनंद तो ओवर डोज से ही मिलता है। बाद में हाजमोला प्रायः लोगो को लेना होता होगा ऐसा मेरा अनुमान है। मेरे जैसे दाल रोटी खाने वाले भी रसगुल्ला तो 2 पीस ले ही लेते हैं।

पीने के भी उदाहरण तरह तरह के मिलते हैं । लोग पार्टियों में जबरदस्ती पिलाने को शिष्टाचार मानते हैं । पिएं और होश में रहें तो मजा नहीं आता । हर बरस जहरीले मद्य पान से सैकड़ों जानें जाती हैं । पुरानी शराब का सुरूर गज़ल लिखवा सकता है।

आशय यह की खाने पीने की विविधता अजीबो गरीब है ।

कोई मांसाहारी हैं तो कोई शाकाहारी, कोई केवल अंडे खाने वाला सामिष भोजन लेता है तो कोई मंगलवार, शनिवार छोड़कर बाकी दिन नानवेज खा सकता है। नानवेज न खाने वाले भी डंके की चोट पर नानवेज चुटकुले सुनते सुनाते हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #140 – “यात्रा वृतांत – दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 140 ☆

 ☆ “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जैसे ही मिट्ठू मियां को मालूम हुआ कि मैं, मेरी पत्नी और पुत्री प्रियंका पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर और एलोरा की तर्ज पर बना मंदिर धर्मराजेश्वर देखने जा रहे हैं वैसे ही उसने मुझसे कहा, “मालिक! मैं भी चलूंगा।”

मगर मेरा मूड उसे ले जाने का नहीं था। मैंने स्पष्ट मना कर दिया, “मिट्ठू मियां! मैं इस बार तुम्हें नहीं ले जाऊंगा।”

मिट्ठू मियां कब मानने वाला था। मुझसे कहा, “मुझे पता है नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर देखने जाते वक्त बहुत परेशानी हुई थी।” यह कह कर उसने मेरी ओर देखा।

मैं कुछ नहीं बोला तो उसने कहा, “मैं कैसे भूल सकता हूं कि आप हवाई अड्डे के अंदर कैसे मुझे ले गए थे। वह तरकीब मुझे याद है,” उसने कहा, “हवाई जहाज में आप मुझे हैण्डबैग में भरकर ले गए थे। वहां मेरा जी बहुत घबराया था। मगर मैं चुप रहा। मुझे हवाई जहाज की यात्रा करना थी।”

“हां मुझे मालूम है,” मैंने कहा तो मिट्ठू मियां बोला, “इस बार मैं चुप रहूंगा। आप जैसा कहोगे वैसा करूंगा। मगर आपके साथ जरूर चलूंगा,” उसने तब तक बहुत आग्रह किया जब तक हम जीप लेकर चल न दिए।

मैं उसका आग्रह टाल न सका। झट से ‘हां’ में गर्दन हिला कर सहमति दे दी।

तब खुश होकर मिट्ठू मियां हमारी जीप में सवार हो गया। मगर, उसे जीप बहुत धीरे-धीरे चलती हुई लग रही थी। वह बोला, “आप जीप थोड़ी तेज चलाइए। मैं आपकी जीप के साथ उड़ता हूं। देखते हैं कि कौन तेज चलता है?” कह कर मिट्ठू मियां उड़ गया।

मैंने उसकी बात मान ली और जीप तेज चला दी। मगर मिट्ठू बहुत तेज उड़ रहा था। वह जीप से कहीं आगे निकल गया। इस तरह हम नीमच से निकलकर 55 किलोमीटर दूर मंदसौर यानी दशपुर पहुंच गए।

यहां शिवना नदी के किनारे पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है। जिसके अंदर चमकते हुए तांबे की उग्र चट्टान को तराश कर बनाई गई अष्टमुखी शिव प्रतिमा के हमने दर्शन किए। यह मूर्ति 11.25 फीट ऊंची तथा 64065 किलो 525 ग्राम वजनी पत्थर से निर्मित है। इसमें जीवन की आठों दिशाओं को शिव के मुखमंडल द्वारा दर्शाया गया है।

इस अद्भुत मूर्ति को देखकर मिट्ठू मियां के मुंह से निकल पड़ा, “मालिक! यह तो नेपाल के पशुपतिनाथ की चार मुखी मूर्ति से बहुत बड़ी व अद्भुत मूर्ति है।”

मैं भी चकित था, “वाकई! बहुत अद्भुत मूर्ति हैं,” कहते हुए मैंने मिट्ठू मियां को कैमरा दिया। वह उसे लेकर ऊंचा उड़ गया। उसने मंदसौर के पशुपतिनाथ के 111 फीट ऊंचे मंदिर का बहुत ऊंचाई से हमें दर्शन करा दिए।

इस अद्भुत मंदिर को देखकर मैं, मेरी पत्नी और बेटी- हम सब बहुत खुश हुए। हम कई फोटो लिए। वे बहुत ही सुंदर आए थे।

चूंकि हमें यहां से 122 किलोमीटर दूर चंदवासा जाना था। यह मंदसौर जिले की शामगढ़ तहसील में स्थित है। यहीं से धमनार और वहां की गुफाएं 3 किलोमीटर दूर पड़ती है। यह स्थान शामगढ से मंदिर 22 किलोमीटर दूर है। इस कारण हमने जीप स्टार्ट की ओर चल दिए। ताकि समय से हम दर्शनीय स्थान पर पहुंच सकें।

मिट्ठू मियां को उड़ने की आदत थी। वह जीप के साथ-साथ उड़ता जा रहा था। वह हमसे रेस लगा रहा था। मगर हर बार हम हार जाते थे। क्योंकि मिट्ठू मियां हवा में सीधा उड़ रहा था। हम भीड़ भरे रास्ते और सड़क पर चल रहे थे। इस कारण हम उससे पीछे रह जाते।

इस तरह मिट्ठू मियां से रेस लगाते हुए हम जैसे ही शामगढ़ से चंदवासा पहुंचे मिट्ठू मिया ने उड़ते-उड़ते ही कहा, “मालिक! मुझे धर्मराजेश्वर का अद्भुत मंदिर दिखाई दे रहा है।”

मैंने मिट्ठू मियां को बुलाकर उसे कैमरा पकड़ा दिया। वह ड्रोन कैमरे की तरह कैमरा लेकर उड़ पड़ा। जैसे हम धमनार पहुंचे वैसे ही धर्मराजेश्वर मंदिर को देखकर चकित रह गए।

चंदन गिरी की पहाड़ियों की एक चट्टान को तराश कर यह शिव मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर को 104 गुणा 67 फीट लंबाई-चौड़ाई और 30 मीटर की गहराई को एक चट्टान को तराश कर यानी खोद कर बनाया गया था। यह दृश्य ऊंचाई से बहुत अद्भुत लग रहा था।

किसी चट्टान को ऊपर से तराश कर खोदते जाना, साथ ही उसे मुख्य मंदिर के साथ साथ-साथ सात लघु मंदिर की शक्ल में उभारना, अद्भुत कला कौशल का काम है। इस तरह एक चट्टान को तराश कर बनाए जाने वाले मंदिर या गुफा को शैल उत्कीर्ण शैली या शैल वास्तुकला कहते हैं। यह बहुत ही वैज्ञानिक और बुद्धिमत्ता का काम है।

मिट्ठू मियां इस मंदिर के ऊपर उड़ते हुए बोला, “वाह! यह मंदिर एलोरा के कैलाश मंदिर की तरह तराश कर बनाया गया अद्भुत मंदिर है।”

तब अचानक मेरे मुंह से निकल गया, “इस मंदिर व एलोरा के कैलाश मंदिर में कुछ तो अंतर होगा?” मेरे यह कहते ही मिट्ठू मियां एक शिलालेख के पास पहुंच गया।

वहां पर जो शिलालेख उत्कीर्ण था, उससे पता चला कि एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली से निर्मित वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। वही दशपुर का धर्मराजेश्वर का यह शिव मंदिर उत्तर भारतीय नागरी शैली का उत्कृष्ट नमूना है। दोनों ही मंदिरों में बारीक पच्चीकारी, भित्ति चित्र, भित्ति पर उकेरी गई मूर्तियां तथा द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्धमंडप, गर्भगृह, कलात्मक शिखर, मुख्य द्वार पर निर्मित भैरव व भवानी की प्रतिमा के अद्भुत दर्शन होते हैं।

अरावली की पहाड़ियों के पास स्थित चंदन गिरी की पहाड़ियों पर यत्र तत्र बिखरी पड़ी इन भारतीय संस्कृति की विरासत और अद्भुत वास्तुकला के नमूनों को देखकर हम चकित थे। तभी मिट्ठू मियां ने हमें चेताया, “मलिक, इस मंदिर को ही देखते रहोगे या यहां की बौद्ध धर्म की अद्भुत गुफाओं के भी दर्शन करोगे।”

समय तेजी से भाग रहा था। मैंने कहा, “क्यों नहीं।” यह कहते हुए हम मंदिर से झट से बाहर निकलें। इंडियन रॉक कट आर्किटेक्चर के अद्भुत नमूने की गुफाएं देखने चल दिए। 

जैसे ही टिकट लेकर हम अंदर गए वैसे ही मिट्ठू मिया ने हमें उस अद्भुत तथ्य से मुझे अवगत करा दिया। जिसकी जानकारी हमें नहीं थी।

“मालिक! एलोरा में 34 गुफाएं हैं। जिसने 5 जैन गुफाएं, 12 बौद्ध गुफाएं और 17 हिन्दू गुफाएं उल्लेखित हैं। इस तरह 34 गुफाएं बनी हुई है। मगर यहां तो 51 गुफाएं तो संरक्षित की गई है।”

“वाह!” मेरे साथ-साथ सभी ने कहा, “इसका मतलब यहां एलोरा और अजंता से ज्यादा गुफाएं बनी हुई हैं।” यह कहते हुए मैं एक गुफा के अंदर घुसा। वहां सभा मंडप, चैत्य, विहार आदि अनेक कक्ष व प्रार्थना स्थल बने हुए थे। इसके साथ अनेक कक्ष निर्मित थे। जिनमें प्राचीन समय की व्यापारी, बौद्ध भिक्षु आदि आहार-विहार के साथ देश विदेश में धर्म का प्रचार व शिक्षा-दीक्षा का कार्य किया करते थे।

इसके साथ साथ हमने अनेक गुफाओं के दर्शन किए।

चूंकि समय ज्यादा हो गया था, यह स्थान चंबल अभ्यारण्य के अंतर्गत आता है, यहां खाने-पीने व ठहरने के लिए कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है। अतः हमें शीघ्र वापस लौट जाना पड़ा।

मगर वापस लौटते-लौटते मिट्ठू मियां ने एक अद्भुत दृश्य हमारे कैमरे में कैद करवा दिया। जिसके द्वारा हमें मालूम हुआ कि यहां तो 235 से अधिक गुफाएं बनी हुई है। मगर समय के थपेड़े व दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के लोप हो जाने की वजह से ये सभी गुफाएं जंगली जानवरों की शरण स्थली बन गई थी। इस कारण कई स्थानों पर इस तरह बनी हुई गुफाओं को बाघ गुफाएं कहते हैं।

यह याद करते हुए मिट्ठू मियां हम वापस अपने घर लौट पड़े। मगर इस बार की हमारे यात्रा बहुत अद्भुत व यादगार रही थी। हमारे साथ-साथ मिट्ठू मियां और हम सभी बहुत खुश थे। कारण, सभी की गर्मी की छुट्टियाँ बहुत ही आनंददायक पर्यटन की सैर के साथ बीती थीं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-05-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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