मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ प्रति बिंब स्वत:च्या… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? प्रति बिंब स्वत:च्या… ? ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल

दंड थोपटूनी असे का आज

वृक्ष वृक्षापुढे उभे ठाकले

दंडच त्यांना ठोकला पाहिजे

का माणसासम वागू लागले॥

डोळे उघडून पहावे जरा

हे हात हातात घेत आहेत

डोळेझाक तू करू नकोस रे

तुला छान धडा देत आहेत॥

छत्र तुझ्या घरावरचे डोले

सावली करण्या उन्हेही झेले

छत्र जणू वडिलधार्‍ंयांचे हे

डोई हात फिरवत राहिले॥

कर  निश्चय झाडे लावण्याचा

प्राणवायू प्रमाण जपण्याचा

कर चैतन्याचे फिरती पाठी

घ्यावा मंत्र निरोगी आयुष्याचा॥

प्रति आयुष्याच्या व्हावे कृतज्ञ

सांजेस अंतरंगी डोकवावे

प्रति बिंब स्वत:च्या सत्कर्माचे

त्यात स्वच्छ नी सुंदर दिसावे॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #187 – 73 – “ख़याल ज़माने से छुपा कर ख़ुश हूँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ख़याल ज़माने से छुपा कर ख़ुश हूँ…”)

? ग़ज़ल # 73 – “ख़याल ज़माने से छुपा कर ख़ुश हूँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

इश्क़ की शम्मा जला कर ख़ुश हूँ,

मैं दिल में दर्द बसा कर ख़ुश हूँ।

 दिल जो धड़कता ज़िंदगी के लिए,

महबूब से दिल लगा कर ख़ुश हूँ।

जिस नाम से भर आती थी आँख,

अब उससे नज़रें बचा कर ख़ुश हूँ।

गीत ग़ज़ल में झूमता फिरता जो,

ख़याल ज़माने से छुपा कर ख़ुश हूँ।

तोड़ नहीं पाया रिवायत की जंजीरें,

पिंजरा खोल परिंदा उड़ा कर ख़ुश हूँ।

मिट्टी महकती अगर उसे सींचो तो,

मुहब्बत में आंसू बहा कर ख़ुश हूँ।

तुम भी देखते रहो आतिश छुप कर,

मैं भी मासूम को हंसा कर ख़ुश हूँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 65 ☆ ।।इसी जन्म में हर करनी का हिसाब होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।इसी जन्म में हर करनी का हिसाब होता है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 65 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।इसी जन्म में हर करनी का हिसाब होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हमेशा खुश रहो ख्वाबों  और ख्यालों में।

जिंदगी के हर  जवाब और सवालों में।।

हर हालात में मोड़  लीजिए जिंदगी ऐसे।

खुश ही रहो तर  और सूखे निवालों में।।

[2]

चार दिन की यह जिंदगी हंस कर निभाना है।

थोड़ा थोड़ा रोज़ खुद कोअच्छा  बनाना है।।

एक मूरत की तरह ही रोज़ गढो खुद को।

फिर पूरी तरह खुद को संवार कर लाना है।।

[3]

तन से सुंदर नहीं पर मन से भी सुंदर बनना है।

अपने को दूसरों लिए उपयोगी सिद्ध करना है।।

गर उड़ना तो क्या कद देखना आसमान का।

परों से नहीं हौसलों से ऊंची उड़ान भरना है।।

[4]

बबूल की तरह नहीं आम की तरह उगना है।

फल लगे पेड़ सा  औरों के लिए झुकना है।।

हर दिल के कोने में  जगह बनानी है अपनी।

हर परमार्थ कार्य के लिए जीवन में रुकना है।।

[5]

तेरी वाणीऔर काम से ही नामो खिताब होता है।

प्रभु पास खुला तेरा हर खाता किताब होता है।।

बस अच्छे कर्म अच्छी  यादें जायेंगी साथ तेरे।

इसी जन्म में हर करनी   का हिसाब होता है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 129 ☆ “श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित ग़ज़ल – “श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #129 ☆ ग़ज़ल – “श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

परिवर्तन की आँधी आई, धुंध छाई अँधियार हो गया

जड़ से उखड़े मूल्य पुराने, तार-तार परिवार हो गया।

उड़ी मान मर्यादायें सब मिट गई सब लक्ष्मण रेखायें

कंचनमृग के आकर्षण में, सीता का संसार खो गया।

श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं, बढ़ीं होड की परम्परायें

भारतीय संस्कारों के घर पश्चिम का अधिकार हो गया।

पूजा और भक्ति की मालाओं के मनके बिखरे ऐसे

लेन-देन की व्याकुलता में जीवन बस बाजार हो गया।

गांवों-खेतों के परिवेशों में रहते संतोष बहुत था

दुखी बहुत मन, राजमहल का जब से जुनू संवार हो गया।

मन की तन की सब पावनता युगधारा में बरबस बह गई

अनाचार जब से इस नई संस्कृति का शिष्टाचार हो गया।

उथले सोच विचारों में फँस  मन मंदिर की शांति खो गई

प्रीति प्यार सब रहन रखा गये, जीना भी दुश्वार  हो गया।

रच एकल परिवार अलग सब भटक रहे है मारे-मारे

जब से सबसे मिल सकने को बंद घरों का द्वार हो गया।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “हनुमानजी पर दोहे” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

हनुमानजी पर दोहे☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

राम सिया के भक्त हैं, पवनपुत्र हनुमान।

 हैं बेहद ही दिव्य जो, सच में बहुत महान।।

 संकट को हरते सदा, रामदूत हनुमान।

राम काज करते सदा,  हैं बेहद बलवान।। ंंंं

सब अनिष्ट हों दूर नित, आये कभी न आंच।

हनुमत की ताक़त ‘शरद’, कौन सका है बांच।।

बजरंगी जीतें सदा, पराभूत हो पाप।

हनुमत की महती दया, दूर रहें संताप।।

रामभक्त हैं देव वे, फैलाते आलोक।

हर युग में हनुमान जी, परे करें हर शोक।।

बलवीरा हनुमान जी, व्यापक रखें विवेक।

मंगल करते नित्य ही, काम करें नित नेक।।

हनुमत दयानिधान हैं, कर लो उनका जाप।

जीवन हो सुखमय सदा, परे हटे हर शाप।।

कलियुग में है आसरा, परमवीर कपिराज।

करें दया तब ही बजे, अमन-चैन का साज़।।

पवनपुत्र की जय करो, जो हैं बल के धाम।

देवों के हैं देव जो, सदा सुपावन नाम।।

कलियुग में वरदान हैं, हनुमत दयानिधान।

 करते हैं जो भक्त की, सदा सुरक्षित आन।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 150 – हा मार्ग संकटांचा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 150 – हा मार्ग संकटांचा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

हा मार्ग संकटांचा, अंधार दाटलेला।

शोधूकसा निवारा, जगी दंभ दाटलेला।धृ।।

हे मोहपाश सारे, अन् बंध भावानांचे।

मी दाखवू कुणाला, आभास वेदनांचे।

प्रेमात ही आताशा, हा स्वार्थ साठलेला।।१।।

लाखोत लागे बोली, व्यापार दो जिवांचा।

हुंड्या पुढे अडावा, घोडा तो भावनांचा ।

आवाज प्रेमिकांचा, नात्यात गोठलेला।।२।।

ही लागता चाहूल, अंकूर बालिकेचा।

सासूच भासते का, अवतार कालिकेचा।

खुडण्यास कळीला, हा बाप पेटलेला।।३।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘अष्टदीप’ – श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – डॉ मीना श्रीवास्तव ☆

डॉ मीना श्रीवास्तव

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ ‘अष्टदीप’ – श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – डॉ मीना श्रीवास्तव ☆ 

पुस्तक – ‘अष्टदीप’

लेखक- श्री विश्वास देशपांडे, चाळीसगाव

प्रकाशक – विश्वकर्मा पब्लिकेशन्स

पृष्ठसंख्या – ३०० पाने

पुस्तकाचे मूल्य – ४२५ रुपये

पुस्तक परीक्षण- डॉ. मीना श्रीवास्तव, ठाणे

देशपांडे सरांनी लिहिलेले “अष्टदीप” हे अत्यंत प्रेरणादायी आणि मनोवेधक पुस्तक वाचले. एका विशिष्ट वयोगटाची अर्थात विद्यार्थ्यांची मानसिकता बदलण्याच्या उदात्त हेतूने कांही निवडक भारतरत्न पुरस्कार विजेत्यांचे चरित्र असलेले हे पुस्तक असावे असा माझा समज होता. किंबहुना पुस्तकाचे मुखपृष्ठ बघून मला तसे वाटले, मात्र पुस्तकाचे अंतरंग कळल्याबरोबर हा समज निव्वळ गैरसमज होता असे कळले! हे पुस्तक सर्व वयोगटाच्या भारतीयच नव्हे तर अशा प्रत्येक व्यक्तीसाठी आहे, ज्यांना भारताचे अंतरंग जाणून घ्यायचे आहे! या देशाच्या परमपवित्र मातीतून अस्सल मोती कसे जन्माला येतात हे या पुस्तकाच्या वाचनातून कळते. यातील व्यक्ती कुणा एका प्रांताचे, भाषेचे, व्यवसायाचे किंवा आर्थिक दर्जाचे नाहीत. विविधतेत एकता हा भारताचा एकमेकाद्वितीय सद्गुण या पुस्तकात प्रकर्षाने जाणवतो. किंबहुना प्रत्येकाचे वैशिष्टय नजरेत ठळकपणाने भरावे, हाच लेखकाचा हेतू दिसतो. भारतमातेच्या चरणी विविध रंगांची व विविध गंधांची सुमने अर्पण करावीत, हा अनवट विचार या पुस्तकाच्या देशभक्तीने भारलेल्या लेखकाच्या विचारात असावा.

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

चारित्र्यवान व्यक्तींचे चरित्र लेखन लिहिणे कांही नवीन नाही पण सर्वोच्य नागरी पुरस्कार मिळालेल्या भारतातील आठ गौरवान्वित व्यक्तींविषयी लेखन करणे विश्वास सरांसारख्या सिद्धहस्त लेखकाला शक्य आहे. तारीखवार जन्म, मृत्यू, इतर सन्मान आणि असाच कागदी गोषवारा म्हणजे चरित्र नव्हेच, किंबहुना त्यापलीकडे जाऊन अतिसामान्य कौटुंबिक परिस्थिती, आर्थिक विपन्नता, पारंपारिक बंधने, सामाजिक विरोध इत्यादी प्रतिरोधांवर मात करीत या लोकोत्तर व्यक्तींनी मळलेल्या वाटा सोडून आपल्या लक्ष्याकडे जाणारा काटेरी मार्ग कसा पादाक्रांत केला हे महत्वाचे आहे. या सर्व मुद्द्यांचे त्या त्या व्यक्तीच्या चरित्र लेखनात प्रतिबिंब असायला हवे. बहुतेक वेळी आपल्यास त्या व्यक्तींचा खडतर प्रवास माहित नसतो, दिसते ते फक्त त्यांच्या प्रसिद्धी आणि सन्मानाने लखलखणारे तेजःपुंज प्रकाशाचे वलय! परंतु या प्रकाशाच्या वाटा त्यांना सहज गावल्या नाहीत, तिथवर पोचायला खाचाखळग्यांनी आणि काटेरी निवडुंगांनी भरलेली वाट चालतांना त्यांचे पाय रक्तबंबाळ नक्कीच झाले असणार. या आठ सन्मानित व्यक्तींच्या खडतर प्रवासाचे विस्तारित चित्रण या पुस्तकाचे मुख्य वैशिष्ट्य आहे.

लेखन स्वातंत्र्याचे निकष लावून ही या जगप्रसिद्ध व्यक्तींच्या प्रतिमेला कुठेही तडा जाऊ नये, मात्र त्या व्यक्तीच्या जीवनातील वादग्रस्त बाबी, गैरसमज, जनमानसात रुजलेल्या कल्पना यांचाही परामर्श लेखकाने घेतलेला आहे, तेही सप्रमाण लेखन करून! माणूस जितका प्रसिद्ध, तितकी त्याच्या विरोधात सामग्री उपलब्ध असणारच. यात लेखकाचा खरा कस लागतो. या आठ व्यक्तींचा कालखंड बघता, हे काम लेखकाने अत्यंत निगुतीने केले आहे असे वाटते. प्रत्येक लेखाच्या शेवटी दिलेली संदर्भांची यादी लेखनाची पारदर्शकता दर्शवते. मात्र लेखकाने या संदर्भापलीकडे जाऊन त्या व्यक्तींच्या मनातले गूज ओळखले कसे आणि पुस्तकात चितारले कसे हा प्रश्न मला पडला! कांही ठिकाणी तर आपण त्या व्यक्तीची प्रकट मुलाखतच बघतोय असे जाणवत होते. ही लेखकाची कल्पनेची भरारी नसून, हे अत्यंत मेहनतीने, विचारपूर्वक आणि मुद्देसूद लिहिलेले रसाळ वाङ्मय आहे.

आजवर भारतरत्न या पुरस्काराने सन्मानित ४८ व्यक्तींमधून नेमक्या त्याच आठ व्यक्ती कां निवडल्या याचे उत्तर लेखकाने देणे मला तरी अपेक्षित नाही, मात्र ज्या व्यक्ती त्यांनी निवडल्या, त्यांच्या चरित्रलेखनात त्यांनी यत्किंचितही कुसूर केला नाही, उलट याच व्यक्ती कां, याचे उत्तर त्यांचे चरित्र वाचूनच सापडते. लेखकाच्या व्यक्तिस्वातंत्र्याचा मुद्दा आहेच, पण माझे मत आहे की भविष्यात सरांनी टप्याटप्याने या सर्वांचेच व्यक्तिचित्रण लिहावे आणि अष्टदीप या पुस्तकाच्या पुढील मालिका लिहाव्यात.

या पुस्तकात जी अष्टरत्ने आहेत त्यांची नांवेच किती आदरणीय आहेत बघा. मंडळी, त्यांच्या नांवाच्या आधी लागलेली बिरुदावली आणि अर्थवाही शब्द (अनुक्रमणिकेत आहेत तसेच) म्हणजे त्यांची अविभाज्य मानाची पदवी आणि त्यांच्या व्यक्तिमत्वाची अति संक्षिप्त रूपरेखा समजावी. निश्चयाचा महामेरू महर्षी धोंडो केशव कर्वे, द्रष्टा अभियंता सर विश्वेश्वरैया, लोहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल, द्रष्टा उद्योगपती जे. आर. डी. टाटा, निर्मळ चारित्र्याचे धनी (साधी राहणी, उच्च विचारसरणी असलेला नेता) लालबहादूर शास्त्री, अजातशत्रू नेता अटलबिहारी बाजपेयी, आनंदघन लता मंगेशकर आणि उज्ज्वल भारताचे स्वप्न पाहणारा द्रष्टा वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कलाम.

या आठही व्यक्तींमधील मला जाणवलेला समसमान गुण म्हणजे देशभक्ती, आपल्या भारतभूमीला सर्वस्व वाहून टाकायची जबरदस्त उर्मी! त्यासाठी कितीही कष्ट, वेदना, मेहनत आणि जिवापाड प्रयत्न करण्याची दुर्दम्य आकांक्षा. ‘भारत माझा देश आहे, त्यासाठी मी हे करणार आणि ते करणार’ या वल्गना करणाऱ्या आजच्या वाचाळवीरांच्या पार्श्वभूमीवर, या व्यक्तींचे बावनकशी सोन्याहून पिवळे असे व्यक्तिमत्व उजळून दिसते. त्या लखलखीत प्रकाशात न्हाऊन निघण्याचा आणि नवचैतन्याने बहरून येण्याचा अनन्यसाधारण अनुभव घ्यायचा असेल तर हे पुस्तक आधी वाचावे, नंतर त्याचे मनन आणि चिंतन करून या व्यक्तींचे विचार प्रत्यक्षात जगणे, या पायऱ्या जमेल तशा आणि जमेल तितक्या चढाव्या! असे केल्यास लेखकाच्या या चरित्रलेखनाला न्याय मिळेल असे मला वाटते.

प्रत्येक व्यक्तीची शिकवण न्यारी अन निराळी, महर्षी कर्व्यांनी विधवांचे केलेले सामाजिक पुनरुत्थान व स्त्रीशिक्षणाचा रोवलेला पाया हे महाराष्ट्राच्या सीमा भेदून अखिल देशात फैलावले.सर विश्वेश्वरैयांनी निर्माण केलेली बांधकामाची आधुनिक तीर्थक्षेत्रे आजही दिमाखात उभी आहेत आणि आजच्या तकलादू बांधकामांना आव्हान देताहेत. लोहाला प्रतिष्ठा मिळवून देणारे लोहपुरुष म्हणजे भारताच्या अखंड साम्राज्याचे निर्मातेच! सत्तेचा माज आणि स्वायत्ततेचे विखारी स्वप्न बाळगणारे आणि भारताचा लचका तोडायच्या हेतूने आटोकाट स्वार्थी प्रयत्न करणारे तब्बल ५६५ संस्थानिक एका छत्राखाली आणणारे सरदारांचेही एकमेव सरदार वल्लभभाई पटेल! ऐश्वर्यसंपन्न असूनही निरलस आणि निरभिमानी, समाजकार्यात नंबर एक असे जे. आर. डी. टाटा, ‘बस नाम ही काफी है’, असा ब्रँड! साधी राहणी आणि उच्च विचारांचे धनी, आजच्या जगातल्या राजकारण्यांच्या संदर्भात आणि चौकटीत न बसणारे असे एकमेव पंतप्रधान लालबहादूर शास्त्री, सर्वपक्षीयांची निष्ठा अन आदर ज्यांना प्राप्त होता असे कविमनाचे हळवे पण तितकेच खंबीर पंतप्रधान अटलजी आणि वेगळ्या जडणघडणीतले सर्वप्रिय वैज्ञानिक अब्दुल कलाम यांसारख्या रत्नांचे चरित्रलेखन या पुस्तकात केलेले आहे.

शेवटी अति आदराने उल्लेख करते तिचा, जी आहे आपल्या सर्वांची लाडकी स्वरमाऊली लता मंगेशकर! तिचे चरित्र वाचावे, तिची स्वर्गीय गाणी ऐकावी हे ठीकच, पण ती ‘लता’ म्हणून घडली कशी याचे सांगोपांग वर्णन म्हणजे माळेत जसे मोती ओवतात आणि शेवटी मध्यभागी मेरुमणी जोडतात, तद्वतच लेखकाने या पुस्तकात लता दीदींची प्रदीर्घ कारकीर्द वर्णन केली आहे. यात जणू भारतीय सिनेसंगीताचाच सांगीतिक प्रवास आपण करतोय असे वाटते. लेखकाची संगीताची उत्तम जाण आणि लतादीदींवरील अपार भक्ती या भागात अधोरेखित झाली आहे. माझ्यासारख्या लताभक्तांसाठी ही खास पर्वणीच आहे. मित्रांनो, लेखकाने या आठ व्यक्तिरेखांचा शोध घेता घेता आदर्श विचारांचे लक्ष लक्ष दीप उजळून टाकलेत, असा अनुपमेय अनुभव मला हे पुस्तक वाचतांना आला.

श्री विश्वास देशपांडे, चाळीसगाव. आ. बं. हायस्कूलचे सेवानिवृत्त मुख्याध्यापक आहेत. आजवर त्यांची सात पुस्तके प्रकाशित झाली आहेत. समाजमाध्यमांवर उगवतीचे रंग, प्रभात पुष्प, थोडं मनातलं, ही त्यांची सदरे वाचकप्रिय आहेत. रेडिओ विश्वासवर ‘आनंदघन लता’, ‘या सुखांनो या’ आणि ‘राम कथेवर बोलू कांही’ या कार्यक्रमांच्या मालिका अतिशय लोकप्रिय आहेत. त्यांचे स्वतंत्र यू ट्यूब चॅनल देखील आहे.

‘पुस्तक विश्व, पुणे’ मध्ये हे पुस्तक ‘बेस्ट सेलर’ च्या यादीत आले आहे. जुलै २०२२ मध्ये प्रकाशित झालेले हे पुस्तक संग्रही ठेवावे आणि इतरांना देखील वाचायला प्रेरित करावे असे वाटते.

पुस्तक परीक्षण – डॉ. मीना श्रीवास्तव

दिनांक- २८ मार्च २०२३

ठाणे, फोन नंबर – ९९२०१६७२११

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #180 ☆ वक्त और उलझनें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 180 ☆

☆ वक्त और उलझनें 

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता; भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है; उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो केवल संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए; जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है, जो ‘देखते ही छिप जाएगा, जैसे तारे प्रभात काल में अस्त हो जाते हैं। इसलिए आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो! आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण-अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में ऐसे लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल-कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें आपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। इस स्थिति में आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं। दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि वह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #178 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 178 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … ☆

आभार

नाम लिया है आपने,  मान रहे आभार

शब्द नहीं हैं कोश में,  करो प्रेम स्वीकार।।

ज्वार

ज्वार बाजरा खा रहे, है सेहत का राज।

ताकत अब बढ़ने लगी, बोझ न लगता काज।।

पुलकन

मन पुलकित अब हो गया, आई मेरे द्वार।

पुलकन मन की जान लो, तुम ही मेरा प्यार।।

सुकुमार

लिखा प्रकृति पर पंत ने, कवि-मन है सुकुमार

शब्द -शब्द से झाँकता, पर्यावरण अपार।।

चितवन

चितवन तेरी देखकर, मन है हुआ अधीर।

बढ़ी मिलन की प्यास है, होती मन में पीर।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #165 ☆ “संतोष के दोहे… घड़े पर दोहे” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे घड़े पर दोहे. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 165 ☆

☆ “संतोष के दोहे …घड़े पर दोहे☆ श्री संतोष नेमा ☆

गर्मी आते ही मुझे, खूब चाहते लोग

प्यास बुझाता आपकी, जो करते उपयोग

मिट्टी से रुँधा गया, हूँ मिट्टी का लाल

मुझसे परहित सीखिए, खा ठोकर बन ढाल

अहम करे किस बात का, हे मूरख इंसान

मिट्टी का तन बाबरे, फिर झूठी क्यों शान

बार बार मिलती नहीं, यह मानव की  देह

कहे घड़ा शीतल रहो, करो सभी से नेह

घट-पानी सेवन करें, जो भी सज्जन लोग

मिले उन्हे “संतोष” भी, दूर भगें बहु रोग

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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