(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – चातक व्रत का वरण किया है…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 85 – दाग दामन में ऐसा लगाकर गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपके “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – संस्कार।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 39 – लघुकथा – संस्कार
“भाभी आपके कॉलेज की सहेलियाँ आपसे मिलने आईं हैं।” शुभ्रा ने अपनी भाभी तृषा से कहा।
तृषा अपनी सास के साथ बैठी थी।आजकल दिन भर कोई न कोई मिलने आया करता था।अभी कुछ दिन ही तो हुए थे उसके ससुर जी का देहांत हुआ था। वह आजकल सप्ताह भर छुट्टी पर थी।वह तुरंत ड्राइंग रूम की तरफ़ चलने को उद्यत हुई।
सास ने कहा ” बेटा पानी तो पूछ लेना।अब समय बदल गया है।” “जी माँ।” कहकर तृषा सहेलियों के बीच आ गई।
पहले सभी एक एक कर उसके गले लगीं और शोक व्यक्त किया। नेहा तृषा की करीबी सखी थी।उसने अचानक यह सब कैसे हो गया पूछा तो तृषा रोने लगी और आँसू पोंछती हुई ससुर जी के अचानक गुज़र जाने का वृतांत सुनाने लगी।
नेहा ने उसके कंधे पर हाथ रखकर ढाढ़स बँधाया और कहा,” अब कुछ समय वर्क फ्रॉम होम कर ले।सासू माँ को सहारा हो जाएगा।”
“हाँ , ऐसा ही कुछ सोच रहे हैं। हम तीनों मिलकर ही वर्क फ्रॉम होम करेंगे तो माँ के पास हमेशा ही कोई न कोई होगा।”
“दो-तीन महीने में संभल जाएँगी वे। खाना बना रही हो तुम लोग?” सुमन ने पूछा।
“नहीं रे, मम्मी के घर से तीनों टाइम का भोजन आता है। मम्मी पापा शाम का खाना लेकर स्वयं माँ से मिलने आते हैं। कभी बुआ जी आती हैं तो वे भोजन लेकर आती हैं।कभी छोटे चाचू और चाची आते हैं। दिन भर लोगों का आना जाना लगा रहता है।” तृषा बोली।
“तेरा सारा परिवार इसी शहर में है तो सब मिलकर संभाल लेते हैं। यही तो फायदा होता है साथ रहने से ।” एक सहेली बोली
तृषा ने चाय के लिए पूछा तो सबने मना किया। अब वे आपस में बातें करने लगीं। इतने में नेहा ने कहा- तृषा इस महीने में तेरी किट्टी है। अब तो गेट टूगेदर न हो पाएगा घर पर। क्या करना है बता।”
एक सखी बोली- अपने पापा के घर जा रही है कहकर कुछ घंटों के लिए निकल जाना, फिर किसी होटल में पार्टी कर लेंगे।”
तृषा अवाक सी उसकी ओर देखकर बोली- मैं ऐसा नहीं कर सकती। मेरे ससुर जी मेरे भी पिता थे। उनके निधन पर मुझे भी उतना ही दुख है जितना शेखर और शुभ्रा को है। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी। इस बार की किट्टी कोई और उठा ले यह ग्रुप में बता दो।
नेहा ने कहा -“ठीक है यही सही है। अपना ध्यान रख। याद रख तेरे भीतर भी एक प्राण पल रहा है।ह र समय उदास रहना उसके लिए भी ठीक नहीं।”
सखियाँ चली गईं। शुभ्रा कमरे के भीतर से सभी सहेलियों की बात सुन रही थी। उसने माँ से जाकर सहेलियों की आपसी चर्चा का ज़िक्र किया।
माँ बोली, ” सुसंस्कृत घर की बेटियाँ दोनों घरों को जोड़े रखतीहैं। केवल पढ़ लिख लेना पर्याप्त नहीं होता। यही तो संस्कार है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “काउंटर गर्ल” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 322 ☆
लघुकथा – काउंटर गर्ल… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
उसने बचपन से ही पढ़ा था रंग, रूप, धर्म, भाषा, क्षेत्र के भेदभाव के बिना सभी नागरिकों के सभी अधिकार समान होते हैं । सिद्धांत के अनुसार नौकरी में चयन का आधार योग्यता मात्र होती है।
किन्तु आज जब इस बड़े से चमकदार शो रूम में उसका चयन काउंटर गर्ल के रूप में हुआ तो ज्वाइनिंग के लिए जाते हुए उसे अहसास था कि उसकी योग्यता में उसका रंग रूप, सुंदरता, यौवन ही पहला क्राइटेरिया था । यह ठीक है कि उसका मृदु भाषी होना, और प्रभावी व्यक्तित्व भी उसकी बड़ी योग्यता थी, पर वह समझ रही थी कि अलिखित योग्यता उसकी सुंदरता ही है। वह सोच रही थी, एयर होस्टेस, एस्कार्ट, निजी सहायक कितने ही पद ऐसे होते हैं जिनमें यह अलिखित योग्यता ही चयन की सर्वाधिक प्रभावी, मानक क्षमता है।
काले टाइडी लिबास में धवल काउंटर पर बैठी वह सोच रही थी नारी को प्रकृति प्रदत्त कोमलता तथा पुरुष को प्रदत्त ही मैन कैरेक्टर को स्वीकार करने में आखिर गलत क्या है ?
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 113 ☆ देश-परदेश – न्यौता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
न्यौता, आमंत्रण, बुलावा…
इन्विटेशन ये एक ऐसी क्रिया है, जो किसी भी पारिवारिक, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, निज़ी आयोजनों का पहला कदम होता है।
बचपन में भी पिताजी को इस प्रकार के आमंत्रण आते थे। कभी वो कहते मैं अकेला ही जाऊंगा क्योंकि आमंत्रण सिर्फ मेरे नाम से है। परिवार सहित आमंत्रण आने पर हम सब भाई बहन भी कार्यक्रमों में भाग लेते थे।
शनै शनै न्यौता की परिभाषा समझ में आने लगी थी। जब कभी हमारे परिवार में कोई आयोजन होता तो भी “जैसे को तैसा” वाला फॉर्मूला लगा कर ही आमंत्रित किया जाता था। जिसने हमे परिवार सहित बुलाया उसको हम भी परिवार सहित बुलाते थे।
दूर दराज के शहर में रहने वाले रिश्तेदारों को पोस्ट कार्ड द्वारा अग्रिम सूचना प्रेषित की जाती थी। आयोजन से कुछ दिन पूर्व आमंत्रण पत्र भी भेजा जाता था। राजा महाराजा अपने दूत और कभी कभी तो कबूतर पक्षी से भी आमंत्रण भिजवाते थे। बहन और बेटी को तो निजी रूप में उसके शहर में जाकर पूरी इज्जत और आदर से आग्रह किया जाता था। लेकिन फिर भी फूफा कई बार नाराज़ हो जाते थे।
सदी के महानायक बिग बी ने जब अपने पुत्र के विवाह में कुछ मित्रों को आमंत्रित नहीं किया था, तो फिल्म उद्योग के नामी नाम दिलीप साहब, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे लोगों ने विवाह की मिठाई भी लेने से सार्वजनिक रूप से इन्कार कर दिया था।
“न्यौता में घोचा” ये किसी भी आयोजन में होना स्वाभाविक है। आज कल तो फोन, व्हाट्स ऐप, कार्ड आदि का प्रयोग होता हैं। आयोजन कर्ता के लिए ये सब से कठिन कार्य होता है।
नाराज़ तो लोग इस बात से भी हो जाते है, की फलां ने व्हाट्स ऐप का नया ग्रुप बनाया है, लेकिन हमें उसमें नहीं जोड़ा। हमने तो उसे अपने ग्रुप में सबसे पहले सदस्य बनाया था।
सेवानिवृत साथी भी कार्यरत साथियों के न्योते की बाट जोहते रहते हैं। फिर जब निमंत्रण नहीं आता तो कहते है, हमने तो उनको परिवार सहित बुलाया था, लेकिन वो अब भूल गए। सेवानिवृत साथी ये भूल जाते है, कि जब उन्होंने बुलाया था, तो दोनों सहकर्मी थे। अब दोनों की परिस्थितियां भिन्न हैं।
बिन बुलाए मेहमान बनने भी कोई बुराई नहीं हैं। समाज में ऐसे लोगों को ठसयीएल की संज्ञा दी गई हैं। सभ्य लोग तो इसको “मान ना मान मैं तेरा मेहमान” कह देते हैं। बचपन में कुछ मित्रों के साथ हमने भी बिना बुलाए बहुत सारे कार्यक्रमों में खूब मॉल उड़ाया था। अब आने वाले नए वर्ष की दावतों में ऐसे प्रयास करने पड़ेंगे। क्योंकि उम्र दराज लोगों को कम ही इस प्रकार के न्योते मिलते हैं।