(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)
☆ उत्तर प्रदेश पत्रिका का मन्नू भंडारी विशेषांक ☆
मन्नू भंडारी की याद किसे नहीं और कौन भूल सकता है इन्हें ? ‘रजनीगंधा’ फिल्म की याद है ? यह उन्हीं की कहानी पर आधारित थी । ‘रजनी’ जैसा लोकप्रिय धारावाहिक मन्नू भंडारी ने लिखा । ‘महाभोज’ और ‘आपका बंटी’ जैसे उपन्यास भी इनके खूब चर्चित रहे । ‘आपका बंटी’ उपन्यास प्रसिद्ध लेखक मोहन राकेश के जीवन पर आधारित है और वे भी कुछ न कह सके ! राजेंद्र यादव के साथ बरसों रहने के बाद जीवन के आखिरी दौर में अलग होने का साहस दिखाया । छह गज साड़ी और लाल बिंदी से दूर से ही पहचानी जाती थीं । बेटी रचना यादव ने आखिर अपनी मां पर स॔स्मरण लिखा – छह गज का अनंत विस्तार ! ये सब पढ़ने को मिलेगा उत्तर प्रदेश नामक पत्रिका में जिसका मन्नू भंडारी विशेषांक आया है । सुधा अरोड़ा जैसी वरिष्ठ कथाकार ने एक प्रकार से ठान लिया था कि यह विशेषांक बिना रचना यादव के संस्मरण के नहीं जायेगा । और वे सफल रहीं क्योंकि मौसी जो हैं रचना की ! सुधा अरोड़ा की कवितायें भी खूब है मन्नू भंडारी पर । दोनों कोलकाता से हैं लेकिन मज़ेदार बात कि कभी कोलकाता में नहीं मिलीं । दिल्ली में मिलीं । दोनों में जो प्रेम और समर्पण है वह आज लेखक बिरादरी में देखने को नहीं मिलता । वैसे इस अंक में ममता कालिया का संस्मरण भी बहुत खूबसूरत है- मन्नू भंडारी ने अपने शीर्ष रचनात्मक वर्षों में कमतर और कमज़ोर लेखिकाओं को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व पर हावी होते देखा । कम दवा से कोई नहीं मरता, कम प्रेम से जरूर मर जाता है । यह बहुत बड़ा सच लिख दिया ममता कालिया ने ! सुधा अरोड़ा का संसमरण – मेरी डायरी के पन्नों में मन्नू दी भी बहुत शानदार है । यह अंक सचमुच पठनीय है । संग्रहणीय है । जिसने भी मुझे यह भेजा उसको दिल से आभार।
हिमालय मंच : हिमाचल की सीमाओं से बाहर तक फैले हैं कथाकार एस आर हरनोट । शिमला जब भी इन वर्षों में जाना हुआ, हरनोट से मुलाकात और विचार विमर्श जरूर हुआ । किताबों का आदान प्रदान भी । बुक कैफे के बंद होने पर भी खूब आंदोलन किया । वे हिमालय साहित्य मंच नाम से पिछले बारह वर्षों से जैसे एक आंदोलन ही चले रहे हैं । कभी रेल साहित्य यात्रा से तो कभी गेयटी थियेटर में तो कभी रोटरी हाॅल में ! कभी विनोद गुप्ता के साथ ! कुछ न कुछ क्रियेटिव करते रहते हैं । सचमुच आज हिंदी साहित्य को ऐसे एक्टिविस्ट चाहिएं जो न सिर्फ लिखें बल्कि नयी पीढ़ी को भी आगे बढ़ाने में सहयोग दें । हरनोट यह काम बहुत खूबसूरती से कर रहे हैं । शुभकामनाएं।
हरियाणा साहित्य व सांस्कृतिक अकादमी :डाॅ कुलदीप अग्निहोत्री को हरियाणा साहित्य व संस्कृतिक अकादमी का कार्यकारी उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है और उन्होंने कार्यभार भी संभाल लिया । वे इससे पहले केंद्रीय विद्यालय, धर्मशाला के कुलपति व पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं । पंजाब के नवांशहर के गांव मुकंदपुर के मूल निवासी डां अग्निहोत्री एक समाचार एजेंसी के प्रमुख भी रहे । पत्रकारिता और साहित्य से जुडे व्यक्तित्व । बधाई ।
भिवानी में नाटयोत्सव :मीरा कल्चरल सोसायटी की ओर से विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर तीन दिवसीय नाट्योत्सव आयोजित किया गया । तीनों दिन नाटक तो मंचित हूए और एक एक व्यक्तित्व को सम्मानित भी किया गया जिसमें खुशकिस्मती से मैं भी एक रहा और दूसरे रहे महेश वाशिष्ठ व जगबीर राठी । सोनू रोंझिया की कोशिश को सलाम । कोरोना के बाद यह आयोजन कर पाये और आगे जारी रखने की घोषणा की है । पार्क और रामसजीवनकी प्रेम कथा जैसे नाटक मंचित किये गये । खुद सोनू ने रामसजीवन की प्रेम कथा का निर्देशन किया । कुरूक्षेत्र के विकास शर्मा ने पहले दिन पार्क का मंचन किया । इस तरह हिसार के बाद भिवानी का नाटयोत्सव भी खूब चर्चा में है ।
राजगढ़ में लघुकथा सम्मेलन: राजस्थान के राजगढ़ जैसे छोटे से शहर में राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से दो दिवसीय राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है । देश भर से सक्रिय लघुकथाकार आमंत्रित हैं । देखिये कैसा आयोजन होता है । फिलहाल तो शुभकामनायें !
साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी
(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “कई सुखनवर कहते हैं…”।)
ग़ज़ल # 70 – “कई सुखनवर कहते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।अगर चमकना है तो सूरज सा जलना सीख लो।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 62 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।।अगर चमकना है तो सूरज सा जलना सीख लो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “हनुमान स्तुति…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #126 ☆ “हनुमान स्तुति…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆
संकट मोचन दुख भंजन हनुमान तुम्हारी जय होवे
बल बुद्धि शक्ति साहस श्रम के अभिमान तुम्हारी जय होवे
☆
दुनिया के माया मोह जाल में फंसे सिसकते प्राणों को
मिलती तुमसे नई चेतनता और गति निश्छल पाषाण को
☆
दुख में डूबे जग से ऊबे हम शरण तुम्हारी हैं भगवन
संकट में तुमसे संरक्षण पाने को आतुर है यह मन
☆
तुम दुखहर्ता नित सुखकर्ता अभिराम तुम्हारी जय होवे
हे करुणा के आगार सतत निष्काम तुम्हारी जय होवे
☆
सर्वत्र गम्य, सर्वज्ञ , सर्वसाधक प्रभु अंतर्यामी तुम
जिस ने जब मन से याद किया आए उसके बन स्वामी तुम
☆
देता सबको आनंद नवल निज नाथ तुम्हारा संकीर्तन
होता इससे ही ग्राम नगर हर घर में तव वंदन अर्चन
☆
संकट कट जाते लेते ही तव नाम तुम्हारी जय होवे
तव चरणों में मिलता मन को विश्राम तुम्हारी जय होवे
☆
संतप्त वेदनाओ से मन उलझन में सुलझी आस लिए
गीले नैनों में स्वप्न लिए, अंतर में गहरी प्यास लिए
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 19 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥
अन्त काल रघुबर पुर जा, जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥
अर्थ :– आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।
अपने अंतिम समय में आपकी शरण में जो जाता है वह मृत्यु के बाद भगवान श्री राम के धाम यानि बैकुंठ को जाता है और हरि भक्त कहलाता है। इसलिए सभी सुखों के द्वार केवल आपके नाम जपने से ही खुल जाते है।
भावार्थ:- भजन का अर्थ होता है ईश्वर की स्तुति करना। भजन सकाम भी हो सकता है और निष्काम भी। हनुमान जी और उन के माध्यम से श्री रामचंद्र जी को प्राप्त करने के लिए निष्काम भक्ति आवश्यक है। भजन कामनाओं से परे होना चाहिए। अगर आप कामनाओं से रहित निस्वार्थ रह कर हनुमान जी या श्री रामचंद्र जी का भजन करेंगे तो वे आपको निश्चित रूप से प्राप्त होंगे।
अगर आप उपरोक्त अनुसार भजन करेंगे मृत्यु के उपरांत रघुवर पुर अर्थात बैकुंठ या अयोध्या पहुंचेंगे और वहां पर आपको हरि भक्त कहा जाएगा। यहां पर गोस्वामी जी ने रघुवरपुर कहां है यह नहीं बताया है। रघुवरपुर बैकुंठ भी हो सकता है और अयोध्या भी। दोनों स्थलों में से किसी जगह पर मृत्यु के बाद पहुंचना एक वरदान है।
संदेश:- जीवन में अच्छे कर्म करो, अच्छी चीजों को स्मरण करों। इससे व्यक्ति का अंतिम समय आने पर उसे किसी भी बात का पछतावा नहीं रहता है और उसे रघुनाथ जी के धाम में शरण मिलती है।
इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
1-तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥
2-अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥
इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से हनुमत कृपा प्राप्त होती है। यह सभी दुखों का नाश करती है और आपका बुढ़ापा और परलोक दोनो सुधारती है।
विवेचना:-
पहली चौपाई है “तुम्हारे भजन राम को पावै,जनम जनम के दुख विसरावें”।।
इस चौपाई का अर्थ है आपका भजन करने से श्रीरामजी प्राप्त होते हैं और जन्म जन्म के दुख समाप्त हो जाते हैं। पहली बात तो यह है की भजन क्या होता है और दूसरी बात यह है कि हनुमान जी का भजन कैसे किया जाए जिससे हमें श्री राम चंद्र जी प्राप्त हो जाए।
भजन संगीत की एक विशेष विधा है। इस समय दो तरह के संगीत भारत में प्रचलित है। पहला पश्चिमी संगीत और दूसरा भारतीय संगीत। सनातन धर्म के भजन भारतीय संगीत के अंतर्गत आते हैं। भारतीय संगीत के तीन मुख्य भेद हैं शास्त्रीय संगीत,सुगम संगीत और लोक संगीत।भजन का आधार इन तीनों में से कोई एक हो सकता है। देवी और देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गाए जाने वाले गीतों को भजन कहते हैं।
अगर संगीत बहुत अच्छा है तो सामान्यतः उसको अच्छा भजन कहेंगे। परंतु भगवान के लिए इस संगीत का महत्व नहीं है। उनके लिए संगीत से ज्यादा आपके भाव महत्वपूर्ण हैं। संगीत, वादन, स्वर इनका जो माधुर्य होगा उससे श्रोता व गायक खुश होंगे, भगवान खुश नहीं होंगे।
श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठे अध्याय के पहले श्लोक में प्रहलाद जी द्वारा असुर बालकों को उपदेश दिया गया है:-
प्रह्लाद उवाच
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १ ॥
प्रह्लादजीने कहा—मित्रो ! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार समस्त योनियों में से केवल मानव योनि ही ऐसी है जोकि परमात्मा के पास पहुंच सकती है। यह योनि अत्यंत दुर्लभ है।
परमात्मा तक पहुंचने के लिए नियम संयम और भजन का उपयोग करना पड़ता है। आपका जीवन पवित्र होना चाहिए। पवित्र का अर्थ स्वच्छता नहीं है। मानव जीवन का मूल आत्मा है। आत्मा ने इस शरीर को धारण किया हुआ है। यह शरीर कितना साफ सुथरा है इससे आत्मा की पवित्रता पर कोई असर नहीं पड़ता है। अगर कोई भी व्यभिचारी दुराचारी साफ-सुथरे कपड़े पहन ले तो उसको हम स्वच्छ नहीं कहेंगे। हमारी मां के कपड़े अगर घर के काम करते समय गंदे भी हैं तो भी वे कपड़े हमारे लिए सबसे ज्यादा साफ कपड़े हैं। किसी भी दुराचारी के कपड़ों से ज्यादा साफ है। मां के कपड़ों में हमारी श्रद्धा है। हम उस कपड़ों को सहेज कर रखेंगे। मां के बच्चे के लिए यह कपड़ा पवित्र है। भगवान की दृष्टि में यह जीव पवित्र कब बनेगा? जीव जब धर्म के मार्ग पर चलेगा और निष्काम भक्ति रखेगा तब वह भगवान की दृष्टि से मैं पवित्र होगा।
संगीत के सात सुर हैं। सा रे ग म प ध नि सा इन्हीं सात सुरों पर पूरा संगीत टिका हुआ है। सा और रे यानी स्रोत। ग से अर्थ है हमारा गांव। अर्थात सा रे गा संगीत के तीन स्वर गांव की निश्चल धरती पर ही पाए जाएंगे। शहर की भीड़ भाड़ में जहां पर पैसे की दुकान चल रही है वहां पर संगीत के निश्चल स्वर हमें प्राप्त नहीं होंगे।
इन तीन सुरों के बाद अगला सुर “म” है। “म” का अर्थ है मानव। अब हम मनुष्य हो गए। गांव की निश्चल धरती पर संगीत के स्वर प्राप्त करने लायक हो गए। परंतु अब हमें “प” यानी पवित्र और पराक्रमी बनना है। पवित्र होने के बाद हम अब अपने देवता हनुमान जी को जानने के लायक हो गए। अगर आप “ध” धन के चक्कर में फंसे तो आप फंस गए। आप गांव के निश्चल मानव नहीं रहे। आपको तो कोई भी खरीद सकता है। थोड़ा सा वेतन, थोड़ी ज्यादा लालच देकर कोई भी आपके हृदय में परिवर्तन कर सकता है। अगर आपको ऋषियों के दिखाए हुए मार्ग से चलकर पवित्र बनना है तो आपको धन से बचना है और दूसरे “ध” यानी धर्म को अपनाना है। आपको अपना धर्म और जीवात्मा का धर्म दोनों धर्म को निभाना है। आपका अपना धर्म जैसे कि अगर आप पुत्र हैं तो पिता की आज्ञा को मानना,अगर आप सैनिक हैं तो अपने कमांडर की बात को मानना आपका धर्म है। आपके जीवात्मा का धर्म है पवित्र रास्ते पर चलकर परमात्मा से एकाकार होना।
परंतु यह कैसे होगा। आपको पवित्र रास्ते पर चलने के “नि” अर्थात नियमों को मानना पड़ेगा। पवित्र रास्ते के अंत में हमारा हनुमान बैठा हुआ है। अब हम अपने हनुमान से “सा” साक्षात्कार कर सकते हैं।
हे पवन पुत्र अब मैं आपका हूं। मैं आपके साथ जुडा हुआ हूँ। आपका हूँ अतः माँगना हो तो आप से ही माँगूँगा। अगर परिवार का कोई भी व्यक्ति पडोसी के पास माँगने जाता है तो पातकी कहलाता है और घर की बेआबरु होती है। आप तो सीताराम के दास हैं। अब श्रीराम से कुछ भी मांगना आपका काम है। मुझे कुछ भी दिलाना आपका काम है। इस प्रकार अपने को और हनुमान जी को पहचानकर जीव सब बंधनों से मुक्त होता है। इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है :-
‘तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दु:ख बिसरावै।’
पवित्र संगीत की एक बहुत अच्छी कहानी है। अकबर के दरबार में तानसेन जो एक महान संगीतज्ञ थे,रहा करते थे। एक बार उन्होंने अकबर को एक बहुत सुंदर तान सुनाई। इस तान को सुनकर अकबर अत्यंत प्रसन्न हो गया। उसने कहा तानसेन जी आप विश्व के सबसे बड़े संगीतज्ञ हो। तानसेन ने उत्तर दिया कि जी नहीं, मेरे गुरु जी मुझसे अत्यंत उच्च कोटि के संगीतकार हैं। अकबर इस बात को मानने को तैयार नहीं था।अकबर ने कहा अपने गुरु जी को मेरे पास बुलाओ। तानसेन ने जवाब दिया यह संभव नहीं है। मेरे गुरु जी अपने कुटिया को छोड़कर और कहीं नहीं जाते हैं। अगर आपको उनका संगीत सुनना है तो उनके पास जाना पड़ेगा और इस बात का इंतजार करना होगा कि कब उनकी इच्छा संगीत सुनाने को होती है। अकबर तैयार हो गया।
अकबर और तानसेन दोनो वेष बदलकर गए। वहां पर जाकर इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि गुरुदेव कब अपना संगीत सुनाते हैं। एक दिन प्रात:काल के समय सूर्य भगवान का उदय हो रहा था। सूर्य भगवान अपनी लालीमा बिखेर रहे थे। पक्षियों की किलबिलाहट चल रही थी और गुरुजी भगवान गोपालकृष्ण के मंदिर में, भगवान को रिझाने के लिए तान छेड दिए थे। शुद्ध आध्यात्मिक संगीत बज रहा था। तानसेन और अकबर दोनो छुपकर गुरुजी के संगीत का आनंद लिया। बादशहा अकबर गुरुजी का संगीत सुनकर मंत्रमुग्ध हो गया। उसने तानसेन से कहा कि आप बिल्कुल सही कह रहे थे। गुरुदेव का संगीत सुनने के उपरांत आपका संगीत थोड़ा कच्चा लग रहा है। अकबर ने तानसेन से पूछा इतना अच्छा गुरु मिलने के बाद भी आपके संगीत में कमी क्यों है।
तानसेन ने जो जवाब दिया वह सुनने लायक है। उसने कहा बादशाह, “मेरा जो संगीत है वह दिल्ली के बादशहा को खुश करने के लिए है, और गुरुदेव का जो संगीत है वह इस जगत के बादशाह (भगवान ) को प्रसन्न करने के लिए है। इसीलिए यह फर्क है।” अतः भजन सामने बैठी जनता की प्रसन्नता के लिए नहीं गाना चाहिए।अगर आपको हनुमान जी से लो लगाना है तो आप को पवित्र होकर हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए भजन गाना चाहिए।
इसके बाद इस चौपाई के आखरी कुछ शब्द हैं “जनम जनम के दुख विसरावें” जन्म जन्म को पुनर्जन्म भी कहते हैं।
पुनर्जन्म एक भारतीय सिद्धांत है जिसमें जीवात्मा के वर्तमान शरीर के समाप्त होने के बाद उसके पुनः जन्म लेने की बात की जाती है। इसमें मृत्यु के बाद पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित किया गया है। विश्व के सब से प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर वेद, दर्शनशास्त्र, पुराण, गीता, योग आदि ग्रंथों में पूर्वजन्म की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार शरीर का मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है परंतु जन्म जन्मांतर की श्रृंखला है। 84 लाख या 84 लाख प्रकार की योनियों में जीवात्मा जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगता है। आत्मज्ञान होने के बाद जन्म की श्रृंखला रुकती है; फिर भी आत्मा स्वयं के निर्णय, लोकसेवा, संसारी जीवों को मुक्त कराने की उदात्त भावना से भी जन्म धारण करता है। इन ग्रंथों में ईश्वर के अवतारों का भी वर्णन किया गया है। पुराण से लेकर आधुनिक समय में भी पुनर्जन्म के विविध प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के कर्म योग में भगवान श्री कृष्ण भगवान ने पूर्व जन्म के संबंध में विस्तृत विवेचना की है। कर्म योग का ज्ञान देते समय भगवान श्री कृष्ण ने,अर्जुन से कहा, “तुमसे पहले यह ज्ञान मैंने सृष्टि के प्रारंभ में केवल सूर्य को दिया है और आज तुम्हें दे रहा हूं।” अर्जुन आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने कहा कि आपका जन्म अभी कुछ वर्ष पहले हुआ है। सूर्य देव तो सृष्टि के प्रारंभ से हैं। आप उस समय जब पैदा ही नहीं हुए थे तो सूर्य देव को यह ज्ञान कैसे दे सकते हैं। कृष्ण ने कहा कि, ‘तेरे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, तुम भूल चुके हो किन्तु मुझे याद है। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा :-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५ ॥
अर्थात:- श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप ! तू (उन्हें) नहीं जानता।
गीता का यह श्लोक तो निश्चित रूप से आप सभी को मालूम ही होगा :-
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
-श्रीभगवद्गीता 2.22
जैसे मनुष्य जगत में पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नवीन शरीरों को प्राप्त करती है।
अब हम इस जन्म में जो कुछ भोग रहे हैं वह केवल आपकी इसी जन्म के कर्मों का फल नहीं है। आत्मा ने जो पिछले जन्म में कर्म किए हैं उनकी फल भी इस जन्म में भी आत्मा को प्राप्त होते हैं। हम यह देखते हैं कि कुछ लोग अत्यंत निंदनीय कार्य करते हैं परंतु उनको फल बहुत अच्छे अच्छे मिलते हैं। इसका क्या कारण है। ज्योतिष में इसको राजयोग बोला जाता है। यह भी देखा गया है किसी व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान नहीं है। वह कई कॉलेजों के गवर्निंग बॉडी में चेयरमैन। जिस को विज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं है वह विज्ञान के संस्थानों का नियंत्रक होता है। यह क्या है ? इसी को पूर्व जन्म का का फल कहते हैं। अब अगर आप यह चाहते हैं कि पूर्व जन्मों मैं आप द्वारा किए गए कुकर्मों का फल आपको इस जन्म में ना मिले तो आपको शुद्ध चित्त से महावीर दयालु हनुमान जी का भजन करना होगा। इस भजन के लिए आपके कंठ का बहुत अच्छा होना आवश्यक नहीं है। भाषा का अद्भुत ज्ञान होना आवश्यक नहीं है। आवश्यक है तो तो सिर्फ यह कि आप पूरे एकाग्र होकर मन वचन ध्यान से हनुमान जी का भजन गाएं। हनुमान जी और राम जी की कृपा आप पर हो और पूर्व जन्म के पाप से आप बच सके।
अगली लाइन में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है “अन्त काल रघुबर पुर जाई | जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ||”
यह लाइन पूरी तरह से इसके पहले की लाइन तुम्हारे भजन राम को पावै जनम जनम के दुख विसरावें” से जुड़ी हुई है।
अगर कोई व्यक्ति एकाग्र होकर मन क्रम वचन से हनुमान जी की आराधना करेगा तो उस व्यक्ति के जनम जनम के दुख समाप्त हो जाएंगे। इसके ही आगे हैं की अंत में वह रघुवर पुर में पहुंचेगा वहां उसको हरि का भक्त कहा जाएगा। इस प्रकार मानव का मुख्य कार्य हनुमान जी का एकाग्र होकर भजन करना है। तभी उसके दुख समाप्त होंगे।जन्मों का बंधन समाप्त होगा। अंत काल में रघुवरपुर पहुंचेंगा और वहां पर उनको हरि भक्त का दर्जा मिलेगा। यहां पर समझने लायक बात यह है रघुवरपुर और हरिभक्त का पद क्या है।
अक्सर लोग इस बात को कहते हैं कि मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मुझे ऊपर जाकर जवाब देना होगा। ऊपर जाकर जवाब देने वाली बात क्या है ? हिंदू धर्म के अनुसार तो आप जो भी गलत या सही करते हैं उसका पूरा हिसाब होता है। आपकी आत्मा जब यमलोक पहुंचती है तो वहां पर आपके कर्मों का हिसाब किताब होता है। मृत्यु के 13 दिन के उपरांत आप पुनः कोई दूसरा शरीर पाते हैं या हरिपद मिलता है। आप के जितने अच्छे काम या खराब काम होते हैं उसके हिसाब से आपको पृथ्वी पर नए शरीर में प्रवेश मिलता है। अगर आपके कार्य अत्यधिक अच्छे हैं,जैसा कि पुराने ऋषि मुनियों का है,तो आपको गोलोक या रघुवरपुर में हरिपद मिलेगा। हमारे यहां ऊपर जाकर आपको जवाब नहीं देना है। रघुवर पुर को तुलसीदास जी ने स्पष्ट नहीं किया है। रघुवर पुर बैकुंठ लोक को भी कहा जा सकता और अयोध्या को भी। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने बैकुंठ और अयोध्या जी दोनों को प्रतिष्ठित माना है।
रामचरितमानस में अयोध्या जी का वर्णन करते हुए कहा गया है:-
बंदउ अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।
यद्यपि सब बैकुंठ बखाना, वेद-पुराण विदित जग जाना।।
इस प्रकार अयोध्या जी को वैकुंठ से श्रेष्ठ कहा गया है। अगले स्थान पर अयोध्या जी में रहने वालों को भी सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।
अति प्रिय मोहि इहां के बासी, मम धामदा पुरी सुख रासी।।
भगवान श्रीराम भी कहते हैं कि अवधपुरी के समान मुझे अन्य कोई भी नगरी प्रिय नहीं है। यहां के वासी मुझे अति प्रिय हैं।
इस प्रकार रामचंद्र जी ने अयोध्या जी को बैकुंठ से भी श्रेष्ठ बताया है। अतः राम भक्तों के लिए मृत्यु के बाद अयोध्या में वापस जन्म लेना और हरि भक्त कहलाना सबसे बड़ा वरदान है।
अब्राहम धर्म जिसमें ईसाई धर्म और मुस्लिम धर्म आदि आते हैं इनमें मृत्यु के बाद शव को जमीन के अंदर कब्र में दफन किया जाता है। ईसाई धर्म के धर्मगुरु कहते हैं कि Last Judgment Day के दिन God हर किसी से उसके द्वारा किए गए गलत कामों का उत्तर मांगेगा। इसी प्रकार मुस्लिम धर्मगुरु कहते हैं कि कयामत के दिन यह सभी मुर्दे कब्र के बाहर आएंगे और उनसे अल्लाह मियां उनके द्वारा किए गए कामों का कारण पूछेगा।
बाइबल के अनुसार Last Judgment Day या आखिरी दिन सभी मरे हुए ज़िंदा किए जाएँगे। उनकी आत्माएं फिर से उन्हीं शरीरों से मिल जाएंगी जो मरने से पहले उनके पास थीं। बुरा काम करने वालों को खराब शरीर दिया जाएगा और अच्छे काम करने वालों को अच्छे शरीर दिए जाएंगे। अच्छे काम करने वालों की उस दिन तारीफ होगी और बुरे काम करने वालों को दंड मिलेगा।
लेकिन हिंदू धर्म में स्थिति भिन्न है। मृत्यु के 13 दिन बाद आत्मा दूसरे शरीर को धारण करती है। यह शरीर उसको उसके पहले के जन्म में किए गए कार्यों के आधार पर मिलता है। जैसे कि उसने अच्छा काम किया है उसको सुंदर शरीर जिसने खराब काम किया है उसको बदसूरत शरीर जिसने अच्छा काम किया है उसको अमीर शरीर जिसने खराब काम किया है उसको गरीब शरीर आदि आदि।
इस प्रकार यह सब कुछ आप पर निर्भर है। आप इस जन्म में कितनी एकाग्रता के साथ मन क्रम वचन से हनुमान जी की विनती करते हैं, उनका भजन करते हैं,उनका पूजन करते हैं। उसी हिसाब से आपका अगला जन्म निर्धारित होगा।
प्रेमाची परिभाषा…प्रेम , विरह, वेड आणि युद्ध यांची एक अतिशय हृदयस्पर्शी कहाणी..” द कोड ऑफ लव्ह ” या इंग्रजी पुस्तकाचा मराठी अनुवाद मेघना जोशी यांनी सहज सोप्या हळूवार शब्दांमध्ये आणला आहे. या पुस्तकाचे मूळ लेखक अँड्रो लिंकलेटर यांनी ही सत्यकथा अतिशय कौशल्याने आणि संवेदनशीलतेने लिहिली आहे. असे हे पुस्तक माझ्या वाचनात आले..
1939 सालचा वसंत ऋतू…सुंदर तरुणी पामेला किराज व देखणा पायलट डोनाल्ड हिल याला भेटते व पाहताच क्षणी कलिजा खलास झाला या उक्तीनुसार ते दोघे एकमेकांच्या प्रेमात पडतात. पण दुस-या महायुद्धामुळे त्यांचा विवाह लांबणीवर पडतो. आनंद, दुःख, नैराश्य, चैतन्य अश्या अनेक रूपांमधून तिने प्रेमाचा अनुभव घेतला. पण हे प्रेम मात्रं तिला सहजासहजी मिळाले नाही. पण तिच्या या प्रेमावरच्या एकनिष्ठेनेच त्या एकमेव बंधनाला एक खोली आणि उत्कटता प्राप्त करून दिली. महायुद्धाने त्यांना परस्परांपासून वेगळे केले. त्यांचे युद्धा नंतर परत येणे हेच एवढे वेगळे होते की नंतरच्या पिढीमध्ये अश्या प्रकारचा वेगळेपणा सापडणे केवळ अशक्यच होते. हे स्पष्ट पुस्तक वाचताना जाणवते.
डोनाल्डची नेमणूक हाँगकाँगला होते आणि तेथे भविष्यातला संभाव्य धोका लक्षात घेऊन तो डायरी लिहायला सुरुवात करतो. डायरी मधील सुरुवातीच्या शब्दांमध्येच त्याने स्पष्ट लिहिले आहे की त्याला त्या क्षणांपासून सर्व घटनांची नोंद का ठेवावीशी वाटली? पण त्याने त्यातला मजकूर मात्रं सांकेतिक भाषेत लिहिला आणि ती भाषा मात्र रहस्यमय आकड्यांची असते. डायरी मधील पहिल्याच ओळीमधून डायरी लिहिणा-याची दूरदृष्टी दिसून येते. डोनाल्डचा दृष्टीकोन मात्रं वेगळा होता. त्याच्या बाबतीत जे काही घडेल त्याच्या तो नोंदी ठेवायचा. त्याच्या स्वभावाची आणखी एक खासियत होती ती म्हणजे काही घटना गोष्टी लपवण्याकरता सांकेतिक भाषेची मदत घेतली होती. सुरूवातीला त्याने गुपिते लिहिण्याकरता शाॅर्टहँडचा वापर केला पण काहीच महिन्यानंतर त्याला आपला मजकूर वाचली जाण्याची भीती वाटू लागली तेव्हा त्याने त्यावर सांकेतिक शब्दांचे वेष्टण चढवले व मजकूरा भोवती एक गूढ वलयं निर्माण केलं त्यामुळे तो खूपच गुंतागुंतीचा बनला. फक्त त्याला एकट्यालाच तो वाचणे शक्य होते. पण त्याचे शेवटचे शब्द हे तिच्या नावाभोवतीच गुंफले होते…तर ती होती फक्त आणि फक्तच पामेला..!! ती डायरी म्हणजे त्याचे गुपित..
हाँगकाँगचे युद्ध अश्या प्रकारे सुरू झाले होते की ते फार काळापर्यंत टिकणारेही नव्हते. त्याचे दूरगामी परिणाम डोनाल्डच्या उभ्या आयुष्यावर कायमचे झाले. त्याला प्रत्यक्ष युद्धानंतर युद्ध कैद्यांच्या छावणी मध्ये नेण्यात आले. आणि हा माणूस सर्वच बाबतीत कायमचा आणि पूर्णपणेबदलून गेला. युद्धा पूर्वीचा आणि युद्धा नंतरचा डोनाल्ड यामध्ये एक महत्त्वाचा दुवा होता तो म्हणजे त्याची ती डायरी आणि त्याचे पामेलावरचे प्रेम….या दोन गोष्टी मरेपर्यंत त्याच्या जवळ होत्या..
डोनाल्ड युद्धाहून परत येतो पण युद्ध कैदी असताना त्याचा अतोनात शारीरिक व मानसिक छळ झालेला असतो. त्याचा परिणाम त्याच्या मनावर व आयुष्यावरही होतो. त्या आठवणी आयुष्यभर त्याचा पिच्छा पुरवतात…पामेलाला मनापासून वाटते की डोनाल्डला समजून घेण्यासाठी त्याच्या डायरीतील रहस्ये समजून घेतली पाहिजे. हे रहस्यमय आकडे पामेलाला उलगडता येतील? त्याची सांकेतिक भाषा तिला जाणून घेता येईल?..
आपल्या प्रेमाला जाणून घेण्याची एका शोधाची ही सत्यकथा…त्याच्या या डायरीचे रहस्य त्याच्या मृत्युनंतरही काही वर्षे तसेच होते…!!
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 177 ☆
☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द☆
‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… एहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।
‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।
‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’… अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।
‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं… आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।
‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।
आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण… कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।
‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।
मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे …”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर बाल गीत – “चलो वक्त के साथ चलो…”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 162 ☆
☆ एक पूर्णिका – “चलो वक्त के साथ चलो…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆