हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 123 ☆ # सत्यमेव जयते… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सत्यमेव जयते… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 123 ☆

☆ # सत्यमेव जयते… # ☆ 

मै एक पहाड़ी के चोटी पर खड़ा हूँ 

हाथ जोड़कर आंखें मूंदा पड़ा हूँ

चारों तरफ घंटियां बज रहीं हैं

आरतियां प्रार्थना की सज रही है

रंग बिरंगे परिधानों में

धरती और आसमानों में

रून-झुन पांव चल रहे हैं

संग संग गांव चल रहे हैं

आंखों में एक आस है

मन में कुछ पानें की प्यास है

भीनी भीनी सुगंध है

पवन चल रही मंद मंद है

थाल रखा जब मूर्ति के आगे

उसको लगा भाग है जागें

भक्ति मे लीन वो अनंत में खो गई

अपनें आराध्य के हृदय में सो गई

तंद्रा टूटी और वो जागी

अकेली खड़ी थी वो अभागी

वो सीढ़ियां चढ़ कर पहाड़ी पर आई

मुझको प्रसाद देकर मुस्कुराई

मुझसे पूछा –

क्या मांगा आपने?

क्या चाहा आपने?

मैं बोला –

मांगने तो तुम गई थी

अपने मन की बात तुमने कही थी

मै तो निसर्ग के सौंदर्य में मगन था

फैली सुंदरता का  मन में लगन था

वो बोली –

मैंने तो अपने लिए मांगा सब कुछ

मेरे जीवन में ना आए कोई दुःख

और तुमने –

मैंने कहा –

प्रेम ही जीवन है

जीवन में प्रेम की लगन हो

धीमे धीमे तपिश दे

ऐसी मधुर अगन हो

बस प्रभु –

झूठ  कभी ना सर चढ़ पाए 

असत्य कभी सत्य से ना लढ़  पाए 

झूठ, पाखंड, मक्कारी के युग में

असत्य कोई इतिहास ना गढ़ पाए 

आखरी सांस के रहते तक

हम सब कहे,

सत्यमेव जयते, सत्यमेव जयते/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 124 ☆ प्रश्न बहु, गांभीर्याचा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 124 ? 

प्रश्न बहु, गांभीर्याचा

(स्त्रीच्या मनाची वेदना..)

स्त्रीच्या मनाची वेदना

मौन्य असते ललना

कशा मांडाव्या वेदना

शब्द तिज सापडेना.!!

 

स्त्रीच्या मनाची वेदना

प्रश्न बहु, गांभीर्याचा

जरी आहे महत्वाचा

कुणी बरे मांडायचा.!!

 

स्त्रीच्या मनाची वेदना

हर्ष तिज नसे कधी

पूर्ण आयु, कष्टी दुःखी

साहे तिची, तिचं व्याधी.!!

 

स्त्रीच्या मनाची वेदना

सल सलत राहते

वर अंगरखा छान

आत जखम असते.!!

 

स्त्रीच्या मनाची वेदना

प्रेम तिजला मिळावे

पोट मारून जगते

स्नेह भाष्य असावे.!!

 

स्त्रीच्या मनाची वेदना

राज माझे उक्त केले

शब्द प्रपंच उद्योग

ऐसे हे, लिखाण झाले.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #186 ☆ व्यंग्य – जानवरों की बेअदबी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  ‘जानवरों की बेअदबी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 186 ☆

☆ व्यंग्य ☆ जानवरों की बेअदबी

कहीं पढ़ा कि एक राज्य में कुछ समझदार लोगों ने ‘हलाल मीट’ के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए माँग की कि बाज़ार में ‘हलाल मीट’ की जगह ‘झटका मीट’ ही बेचा जाना चाहिए। यानी जानवर को एक झटके में ही इस दुनिया से रुखसत किया जाए, वध के तरीके में कोई मज़हबी कर्मकांड न हो।

उल्लेखनीय है कि आदमी के जन्म से ही अनेक पशु-पक्षी और समुद्री-जीव उसके ज़ायके के लिए खुशी-खुशी अपनी जान की कुर्बानी देते रहे हैं। मनुष्य- जाति का इतिहास लिखते समय पशुओं की इस कुर्बानी को स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए।

सभी धर्मग्रंथ मानते हैं कि हर जीव का जन्म और मृत्यु पूर्वनियत है। शायद इसीलिए पशुओं का वध करते समय आदमी को हिचक नहीं होती। जब सब कुछ पूर्व निश्चित है तो आदमी को केवल ऊपर वाले की इच्छा की पूर्ति का निमित्त ही माना जा सकता है। इस हिसाब से देखें तो आदमी की हत्या पर मिलने वाला दंड भी अटपटा लगता है। कुछ लोग इतने ‘पशु-प्रेमी’ होते हैं कि, बिना माँस के, निवाला उनके हलक से नीचे नहीं उतरता।

ऊपर बताए गये वाकये में जब हल्ला- गुल्ला ज़्यादा बढ़ा तो अधिकारी हरकत में आये और हलाल और झटका के तरफदारों को अलग-अलग समझाइश देने की कोशिश शुरू हुई, लेकिन बहुत मगजमारी के बाद भी पशु-वध के किसी एक तरीके पर दोनों पक्षों की सहमति नहीं बन सकी। तभी एक अधिकारी, जिन्हें उनकी न्यायप्रियता और संवेदनशीलता के कारण सनकी माना जाता था, ने एक नूतन प्रस्ताव पेश किया। उन्होंने सुझाव रखा कि बेहतर होगा कि इस मामले पर प्रभावित पक्ष यानी मुर्गो और बकरों की रायशुमारी करा ली जाए कि वे किस तरीके से स्वर्ग जाना पसन्द करेंगे।

अधिकारी के इस प्रस्ताव पर सभी पक्षों की सहमति बन गयी और प्रस्ताव पेश करने वाले अधिकारी को ही रायशुमारी की ज़िम्मेदारी सौंप दी गयी। अधिकारी ने तुरन्त वोटिंग-मशीन का इन्तज़ाम किया जिस पर पाँव से बटन दबाकर अपनी पसन्द अंकित की जा सकती थी। तीन विकल्प रखे गए— झटका, हलाल और नोटा, यानी ‘इनमें से कोई नहीं’।

नगर के बकरों-मुर्गों को इकट्ठा करके उनका वोट डलवाया गया। जब परिणाम सामने आया तो सभी पक्ष ठगे से रह गये क्योंकि सभी पशुओं ने ‘नोटा’ का बटन दबाया था, यानी वे फिलहाल इस दुनिया से रुखसत नहीं होना चाहते थे।

देखकर अधिकारियों के मुँह का ज़ायका बिगड़ गया। ऐसी बेअदबी! दिस इज़ ओपिन डिफाएंस ऑफ अथॉरिटी। ‘हमने उन्हें अपनी बात रखने का मौका दिया और वे हमारा ज़ायका बिगाड़ने पर तुल गये! इतने दिन तक दाना-पानी देने का ये सिला!’ कुछ लोगों ने रायशुमारी कराने वाले अधिकारी की लानत-मलामत की क्योंकि उन्होंने ‘नोटा’ का विकल्प शामिल किया था।

अन्त में निष्कर्ष निकला कि अधिकारियों ने पशुओं को उनकी किस्मत का फैसला करने का मौका दिया, लेकिन उन्होंने उसका गलत फायदा उठाया। इसलिए इस मामले में आगे उनसे कोई राय न ली जाए। अब एक तीन-सदस्यीय समिति गठित की जाएगी जो दो महीने के भीतर मनुष्य-जाति के दोनों पक्षों से बात कर सहमति बनाने की कोशिश करेगी। तब तक पशुओं को रुखसत करने के लिए वर्तमान तरीके ही अपनाये  जाएंगे।

 © डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 133 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 133 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 133) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 133 ?

☆☆☆☆☆

Friendship 

बेपरवाह वक्त तो चलता रहा,

पर जिंदगी सिमटती गई

दोस्त तो तमाम बढ़ते गए,

पर दोस्ती घटती गई… !

☆☆ 

Unheeding time kept on moving

But the life kept shrinking…

Though friends kept on increasing,

But friendship kept decreasing.

☆☆☆☆☆

बस निभाने वाले ही तो

नहीं मिलते हैं, साहब,

चाहने वाले तो हर

एक मोड पर खड़े हैं…!

☆☆

Those who can fulfill promises

are just not found, Sire…

While adorers are waiting at

every nook and corner…!

☆☆☆☆☆

इन संगदिल चलते-फिरते बुतों  को

भला क्यों कर कोई इंसान माने

इंसान तो वो ही कहलाता है

जिसके जिस्म में एक जिंदा रूह हो…!

☆☆  

Why must these heartless statues

be considered as human beings,

They only deserve to be humans,

Who’ve a live soul in their body…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 184 ☆ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 184 सुगंध ?

सिग्नल खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। एक व्यक्ति गुलाब के पुष्पगुच्छ और पंखुड़ियों की माला बेच रहा है। सौदा लेकर मेरे पास भी आता है। खरीदने का कोई कारण नहीं है तथापि चिंता और चिंतन का कारण अवश्य है। माला हो या पुष्पगुच्छ, दोनों में से किसी तरह की कोई सुगंध नहीं आ रही। एकाएक नथुने लगभग चार दशक पीछे लौटते हैं और तन-मन सुगंधित हो उठते हैं।

स्मरण आता है कि उन दिनों महाविद्यालय में कोई युवक किसी युवती को देने के लिए अपने बैग में छिपाकर गुलाब का एक पुष्प ले आता तो सारी कक्षा महक उठती। पुष्प किसके लिए लाया गया, यह तो पता नहीं चलता पर कक्षा में किसीके पास गुलाब है, इसकी जानकारी हर एक को हो जाती। गुलाब की गंध ही उसका सबसे बड़ा परिचय थी।

तब और अब का मंथन हुआ, विचार जन्मा। पिछले कुछ दशकों से पुष्पों की भाँति ही जीवन से भी सुगंध कहीं दूर हो चली है। सारे हाइब्रीड पुष्प अब एक जैसे, बड़े आकार के और अधिक सुंदर दिखने लगे हैं। विचार की परिधि में मनुष्य भी आया। पैसे और पद के अहंकार से हाइब्रीड-सा एलिट मनुष्य पर भीतर से सद्गुणों को डिलीट कर चुका मनुष्य। प्रदर्शन के भाव का मारा मनुष्य, भीतरी सुगंध के अभाव से हारा मनुष्य।

प्रदर्शन के समय में दर्शन की बात करना बहुधा हास्यास्पद हो सकता है किंतु विचारणीय है कि प्रदर्शन में मूल शब्द दर्शन ही है। दर्शन बचा रहेगा तो अन्य संभावनाएँ भी बची रहेंगी। मूल नष्ट हुआ तो अन्य सभी के नष्ट होने की आशंका भी बनी रहेगी।

संत कबीर लिखते हैं,

शीलवंत सबसे बड़ा, सब रत्नन की खान।

तीन लोक की संपदा, रही शील में आन।।

शील अर्थात सद्गुण ही सबसे बड़ी सम्पदा और रत्नों की खान है। शील में ही तीनों लोकों की संपत्ति अंतर्निहित है।

भौतिक संपदा के साथ-साथ यह आंतरिक त्रिलोकी भी व्यक्ति पा ले तो व्यक्तित्व को सुगंधित होने में समय नहीं लगेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 132 ☆ – गीत – नदी मर रही है… – ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  गीत “~ नदी मर रही है… ~”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 132 ☆ 

~ गीत ~ नदी मर रही है ~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,

नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी

नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-

भुलाया है हमने नदी माँ हमारी

नदी ही मनुज का

सदा घर रही है।

नदी मर रही है

*

नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी

दी ही पिलाती बिना मोल पानी,

नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-

नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी

नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है

नदी मर रही है

*

नदी है तो जल है, जल है तो कल है

नदी में नहाता जो वो बेअकल है

नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा

नदी में बहाता मनुज मैल-मल है

नदी अब सलिल का नहीं घर रही है

नदी मर रही है

*

नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ

नदी के किनारे सघन वन लगाओ

नदी को नदी से मिला जल बचाओ

नदी का न पानी निरर्थक बहाओ

नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है

नदी मर रही है

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.३.२०१८, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – आनंदाचे फुटती झरे… – ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? आनंदाचे फुटती झरे  ? ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

खाली वाटा,वरती लाटा

धुक्यातूनी उठती

दूर बोगदा जया अंतरी

अंधाराची वस्ती

जरी एकटा, जाईन चालत

भेदून अंधाराला

दिसेल कैसा प्रकाश त्याला

तमात जो गुरफटला

पार करावी सगळी वळणे

सोडून सारे भले-बुरे

जगणे झाले फत्तर तरीही

आनंदाचे फुटती झरे

© सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #183 – 69 – “वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर …”)

? ग़ज़ल # 69 – “वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी खुशनुमा है जब दिल से दिल मिलता है,

जमाने में किसी को कहाँ सच्चा दिल मिलता है।

वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर आशियाने की,

एक घर में रहकर नहीं कोई हिलमिल मिलता है।

मुहब्बत में गुमसुम लोगों से क्या हाल पूछते हो,

ढूँढते माशूक़ पता उन्हें साँप का बिल मिलता है।

दोस्ती का खेल भी खूब खेला जा रहा आजकल,

काम निकला फिर कब दोस्त से दिल मिलता है।

रिश्ते नाते दिखावटी नुमाइश बनकर रह गए हैं,

आतिश को हाथ में नहीं कुछ हासिल मिलता है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 61 ☆ ।।प्रेम से परिवार बनता स्वर्ग समान है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।प्रेम से परिवार बनता स्वर्ग समान है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 61 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।प्रेम से परिवार बनता स्वर्ग समान है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

परिवार छोटी सी   दुनिया,   प्यार का संसार है।

एक अदृश्य स्नेह प्रेम का अद्धभुत सा आधार है।।

है बसा प्रेम तो स्वर्ग सा घर,अपना बन जाता।

कभी बन्धन रिश्तों का,  कभी मीठी तकरार है।।

[2]

सुख दुख आँसू मुस्कान, बाँटने का परिवार है नाम।

मात पिता आदर से परिवार,बनता है चारों धाम।।

आशीर्वाद,स्नेह, प्रेम,त्याग,डोरी से बंधे हैं सब।

प्रेम गृह छत तले परिवार, होता है स्वर्ग समान।।

[3]

तेरा मेरा नहीं हम  सबका, होता है परिवार में।

परस्पर सदभावना बसती है,यहाँ हर किरदार में।।

नफरत ईर्ष्या का कोई,स्थान नहीं घर के भीतर।

प्रभु स्वयं ही आ बसते, बन प्रेम मूरत घर संसार में।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 125 ☆ ग़ज़ल – “जग तो मेला है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गावव ग़ज़ल  – “जग तो मेला है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #125 ☆  गजल – “जग तो मेला है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अकेला चाहे भला हो आदमी संसार में

जिंदगी पर काटनी पड़ती सदा दो चार में।

 

कट के दुनियां से कहीं कटती नहीं हैं जिंदगी

सुख कहीं मिलता तो, मिलता है वो सबके प्यार में।

 

भुलाने की लाख कोई कोशिश करे पर हमेशा 

याद आते अपने हर एक तीज औ’ त्यौहार में।

 

जहाँ होते चार बरतन खनकते तो है कभी

अलग होते ही हैं सब रूचि सोच और विचारा में।

 

मन में जो भी पाल लेते मैल वे घुटते ही है

क्योंकि रहता नहीं स्थित भाव कोई बाजार में।

 

जो जहाँ जैसे भी हो सब खुश रहे फूलें-फलें

समय पर मिलते रहें, क्या रखा है तकरार में।

 

चार दिन की जिंदगी है, कुछ समय का साथ हैं

एक दिन खो जाना सबकों एक घने अंधियार में

 

है समझदारी यही, सबकों निभा सबसे निभें

जग तो मेला है जिसे उठ जाना है दिन चार में।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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