संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “एक गीत – लाल किले पर खड़ा तिरंगा…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 73 – एक गीत – लाल किले पर खड़ा तिरंगा… ☆
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है डा संजीव कुमार जी की पुस्तक “इदम् न मम्” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 132 ☆
☆ “इदम् न मम्” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
इदम् न मम्
हिंदी साहित्यकारों से मानक साक्षात्कार
संपादक संजीव कुमार
प्रकाशक इंडिया नेटबुक्स
पृष्ठ 348, मूल्य 475रु
चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
हिंदी साहित्य में शोध, इतिहास, आलोचना में साक्षात्कार, पत्र, संस्मरण का महत्व निर्विवाद है । शोधार्थी इसके आधार पर अपने निष्कर्ष और मंतव्य प्रतिपादित करते आए हैं। भिन्न-भिन्न प्रश्नों के माध्यम से अलग अलग साहित्यकारों से किये गए अनेक साक्षात्कार चर्चित रहे हैं ।
डा संजीव कुमार न केवल एक अच्छे लेखक और कवि हैं वे एक मिलनसार साहित्यिक पत्रकार भी हैं । उनके ढेरों साहित्यकारों से आत्मीय संबंध हैं । उन्होंने प्रस्तुत किताब में अनूठा प्रयोग किया । एक शोधार्थी की तरह उन्होंने रचनाकारों के जीवन, लेखन, अभिव्यक्ति को लेकर एक प्रश्नावली बनाई,और उसी प्रश्नावली से वीडियो तथा लिखित साक्षात्कार शताधिक समकालीन साहित्य में सक्रिय भागीदारी कर रहे लोगों से लिए हैं । इन साक्षात्कारों को यू ट्यूब पर भी सुना देखा जा सकता है । प्रस्तुत किताब में ये 102 साहित्यिक साक्षात्कार संकलित हैं। रचनाकारों के तुलनात्मक अध्ययन और शोध हेतु ये पुस्तक महत्वपूर्ण बन गई है ।
पाठक अपने सुपरिचित साहित्यकार के बारे में और उनकी विचारधारा के बारे में इस किताब के जरिए जान सकते हैं।
इस अध्ययन में जो मानक प्रश्नावली बनाई गई उसके कुछ सवाल इस तरह हैं, साहित्य सृजन में आपकी रुचि कैसे उत्पन्न हुई? किस साहित्यकार से आपको लिखने की प्रेरणा मिली? आपकी पहली रचना क्या थी और कब प्रकाशित हुई थी? साहित्य की किस किस विधा में आपने काम किया है? और किस विधा में आपकी रुचि सर्वाधिक है? आपने कविता या कहानी में चुनाव कैसे किया? आदि आदि
जिन रचनाकारों से साक्षात्कार इस किताब में शामिल हैं उनमें दिविक रमेश, माधव सक्सेना, हरीश कुमार सिंह ,किशोर दिवसे, लता तेजेश्वर रेणुका, प्रभात गोस्वामी, रमाकांत शर्मां, संदीप तोमर, सीमा असीम, कमलेश भारतीय, सी. कोमलावा, स्नेहलता पाठक, हरिसुमन विष्ट, रंगनाथ द्विवेदी, सरस दरबारी, श्यामसखा श्याम, विवेक रंजन श्रीवास्तव,सुरेश कुमार मिश्रा, रमाकांत ताम्रकार,अनिता कपूर चन्द्रकांता, अजय शर्मा, गीतू गर्ग,किशोर श्रीवास्तव,मनोज ठाकुर, समीक्षा तेलांग, सविता चड्डा,सुनील जैन राही, प्रो राजेश कुमार, प्रबोध कुमार गोविल, धर्मपाल महेंद्र जैन, नीरज दईया, अरविंद तिवारी, ममता कालिया जैसे कई नाम हैं ।आशा है यह अनूठा संकलन साहित्य के अध्येताओं को पसंद आएगा और बहु उपयोगी होगा ।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय,स्त्री विमर्श एवं रंगपंचमी पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “रंगों की कशमकश”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 152 ☆
🌹 लघुकथा 🌹 रंगों की कशमकश ❤️
मिनी का घर – भरा पूरा परिवार चाचा – चाची, बुआ – फूफा, दादा-दादी और ढेर सारे बच्चे। आज मिनी फिर होली – रंग पंचमी पर मिले-जुले सभी रंगों से मैच करते परिवार के साथ होली का टाईटिल बना रही थी।
होली खेलने के बाद पूरा परिवार मिनी के यहाँ एकत्रित होता और सभी को उनके स्वभाव और व्यवहार को देखते हुए उन्हीं के अनुसार रंगो का टाईटिल दिया जाता था।
मिनी को याद है उनकी एक बड़ी मम्मी जो बरसों पहले शायद मिनी पैदा भी नहीं हुई थी, अचानक बड़े पापा के देहांत के बाद, घर वाले सभी उसे मनहूस कहकर आश्रम में छोड़ आए थे। यदा-कदा उसे जरूरत का सामान दे देते। दादा – दादी भी लगभग भूलते जा रहे थे।
मिनी यह बातें अक्सर घर में सुना करती थी। उसके मन में अनेकों विचार आते, परंतु वह कुछ कर नहीं पाती थी। थोड़ी बड़ी होने लगी और अक्सर अपने स्कूल कॉलेज से समय निकाल कर आश्रम जाने लगी। कभी-कभी वह अपनी बड़ी मम्मी की आँखों में बेबसी और निरपराध भाव को पढ व्याकुल हो जाती।
उसके मन में विचार आने लगे कि क्यों न… बड़ी मम्मी को घर लाया जाए।
आज रंग पंचमी थी। घर के सभी बच्चे टाईटिल बना रहे थे। मिनी की बातों से सभी सहमत थे। निश्चित समय पर रंगों का खेल शुरू हुआ सभी रंगों की प्रशंसा होती रही और टाईटिल मिलते गए। सभी खुश थे अचानक मिनी ने कहा… “सारे रंग तो बहुत अच्छे लग रहे हैं, पर फीके से लग रहे। चमक तो हैं पर सफेद रंग के बिना सब कुछ अधूरा सा लग रहा है और समझ नहीं आ रहा है, यह सफेद रंग का टाईटिल किसे दिया जाए।”
सभी एक-दूसरे का मुँह ताँकने लगे तभी दादी बोल उठी… “यह सफेद रंग तो हमारी बड़ी बहू बरसों से निभा रही है। इसकी हकदार तो वही है।” यही तो सब सुनना चाह रहे थे।
दरवाजे पर अचानक ढोल बजने लगा। बच्चों के बीच खड़ी सफेद साड़ी में बड़ी बहू आज रंग बिरंगे रंगों से सरोबार होती हुई घर में प्रवेश कर रही थी।
यही तो सब चाहते थे । खुशी से सभी की आँखें नम हो चली। रंगों की इस कशमकश से सारी दूरियाँ मिट चुकी थी। सभी रंग बिरंगी गुलाल उड़ाते नजर आ रहे थे। मिनी अपनी बड़ी मम्मी की बाहों में लिपटी दोनों हाथों से रंग उछाल रही थी।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 25 – तिरंगा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश में सब तरफ तिरंगे की चर्चा हो रही है, होनी भी चाहिए। देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव जो मना रहा है।
यहां विदेश का झंडा भी तीन रंग का है। अमेरिका भी अंग्रेजों के चंगुल से स्वतंत्र हुआ था और हमारा देश भी पहले मुगल बादशाहों के नियंत्रण में था और अंत में अंग्रेजों से ही मुक्त हुआ था।
विगत दिन एक स्थानीय नागरिक से अमरीकी तिरंगे के बाबत बातचीत हुई थी। झंडे में लगे हुए पचास सितारे देश के पचास राज्यों के प्रतीक है। यहां के एक पुराने किले में अमरीकी झंडे में तेरह सितारे दर्शाए हुए थे। समय-समय पर इसके प्रारूप में परिवर्तन होते रहे । एक समय अतिरिक्त राज्य की मांग होने पर झंडे में इक्यावन वाँ सितारा लगा कर मांग की गई थी, परंतु वह अस्वीकार हो गई थी। यहां पर अनेक घरों में हमेशा विभिन्न आकार के झंडे लगे रहते हैं। कुछ तो जमीन से मात्र आधा फूट की ऊंचाई पर होते हैं। सब के सम्मान करने के अपने-अपने नियम होते हैं। यहां की केंद्रीय सरकार को “फेडरल“ के नाम से जाना जाता है। राज्यों के पास बहुत अधिकार भी होते हैं। प्रत्येक शहर और कस्बे की अपनी पुलिस व्यवस्था होती है। इसके अलावा राज्य पुलिस होती है। वैसे अमेरिका पूरी दुनिया में अपना रौब बनाए रखने और पूंजीवाद के विस्तार के लिए अनेक देशों में अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग करने में अग्रणी रहता है।
हमारे देश से यहां चार गुनी अधिक भूमि हैं और जनसंख्या एक चौथाई है। शायद, इस देश की संपन्ता का ये ही कारण हो सकता हैं।
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – जयपुर से – डॉ निशा अग्रवाल
भारत नेपाल साहित्य महोत्सव आयोजित
भारत के पड़ोसी देश नेपाल के विराटनगर शहर में भारत और नेपाल के चुनिंदा साहित्यकारों का कुंभ भारत नेपाल साहित्य महोत्सव 17 से 19 मार्च तक लगातार चौथे वर्ष आयोजित किया जा रहा है।
इस कार्यक्रम में जयपुर (राजस्थान) से राव शिवराज पाल सिंह और डॉ श्रीमती निशा अग्रवाल को अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया है। ज्ञातत्व है कि राजस्थान से पहली बार दो साहित्यकारों को साहित्य के इस विशाल कुंभ में आमंत्रित किया गया है। राव शिवराज पाल सिंह बेहद बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। ये जाने माने कवि, गद्यकार, कॉलम लेखक, राजपूताने इतिहास के अध्येता और विरासत सरंक्षण में विशेषज्ञ हैं। डॉ निशा अग्रवाल बाड़ी निवासी श्री जगदीश प्रसाद मंगल (पिपरैट वाले) की सुपुत्री हैं। ये शिक्षाविद होने के साथ साथ लेखिका, कवयित्री, स्क्रिप्ट राइटर और एंकर भी हैं। कला, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में ये देश में ही नहीं अपितु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशेष पहचान बना रही हैं। डॉ निशा शिक्षा विषय से पीएचडी हैं। वर्ष 2022 में अल्जीरिया से डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित हैं। डॉ निशा की संस्कृति एवं साहित्य के प्रति समर्पण की भावना बेहद सराहनीय एवं प्रशंसनीय है।
किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था विशेष द्वारा भारत की इन दोनों बहुमुखी प्रतिभाओं का अंतरराष्ट्रीय मंच पर सम्मान गौरवपूर्ण कार्य है। आपको बता दें कि नेपाल -भारत साहित्य महोत्सव में देश के कुछ ही चुनिंदा साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया है। भारतीय हिंदी साहित्य के प्रतिनिधि के रूप में इनका सम्मान भी किया जायेगा। राव शिवराज और डॉ निशा ने बताया कि देश से बाहर हिंदी का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्हें बेहद गौरव की अनुभूति हो रही है और हमारा प्रयास रहेगा कि हिंदी को विश्व पटल पर सम्मानजनक स्थान मिले।
साभार – डॉ निशा अग्रवाल
जयपुर ,राजस्थान
☆ (ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका) ☆ एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री ☆
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
नवरा बायको, दोन मुलं वा एक मूल अशी साधारण कुटुंबाची हल्ली रचना आढळते. संयुक्त कुटुंब पद्धती आता कमी होऊ लागली आहे. या आगोदर कोणत्याही कारणाने जोडीदाराचा मृत्यू झाला तर त्या बाईला आणि तिच्या मुलांना सर्वस्वी सासरच्या किंवा माहेरच्या लोकांवर अवलंबून राहावे लागत असे. एका बाजूला तिची ते त्यांच्या परीने जबाबदारी उचलताना दिसत होते. दूसऱ्या बाजूला तिला कुणाकडूनही मदत न मिळाल्याने तिची खूप वाईट अवस्था होत असे. आता ही काही ठिकाणी हे पाहावयास मिळत आहे. सावित्रीजोतीबांनी शाळेची सुरुवात केली त्या काळात जे स्त्रीयांचे हाल होते ते आता कमी झाले आहे. तेव्हा पेक्षा बराच बदल झालेला आहे. त्यावेळी मुलींचे शिक्षण खूपच कमी असायचे अगदी वाचायला येण्या इतपतच होते. हल्ली मुलींचे माध्यमिक तसेत उच्च माध्यमिक शिक्षणाचे प्रमाण चांगले आहे. त्यांचे स्वाभिमान, आत्मभान जागृत होताना दिसत आहे. अडथळे कमी झालेले नाहीत वा पुरुषसत्ताक/ पितृसत्ताक व्यवस्थेत खूप काही अफलातून बदल झालेले दिसून येत नाहीत, तरीही शिक्षणाने इच्छाशक्ती व आत्मविश्वास वाढला आहे असे म्हणता येईल. सावित्रीजोतीबांच्या आणि बाबासाहेबांच्या योगदानाचे हे फलित आहे. हे विसरुन चालणार नाही. कुणावरही अवलंबून न राहता स्वावलंबी होण्याची इच्छा प्रबळ होताना दिसते आहे. त्या प्रबळ ईच्छाशक्तीला सहकार्याची जोड म्हणावी तशी मिळत नाही. सगळेच अलबेला आहे असे नाही पण जात्यापासून काॕम्पुटर, स्मार्ट फोन पर्यंतचा तिचा प्रवास अनेक अडथळ्यांच्या शर्यतीतही उठावदार झाला आहे.
बायका स्वबळावर कुणाचाही आधार नसताना खूप घडपडताना दिसतात. यात सुशिक्षित आणि अशिक्षित असा भेद होऊ शकत नाही. करुच नये. प्रत्येक स्त्री स्वतःच्या कौशल्याचा कुटुंबासाठी हातभार लावण्याचा प्रयत्न करीत आहे.
जोडीदाराचा अचानक मृत्यू झाल्यावर अथवा शेतकरी कुटुंबात व इतर व्यवसायात जोडीदाराने अनेक अडचणींना तोंड देताना आलेल्या मानसिक तणावाने स्वतःचे जीवन संपवलेले असले तरी या महिला हिंमतीने जगणं उभे करताना दिसतात. कोविडच्या काळात अनेक जणींनी जोडीदार गमावला. अशा एकल स्त्रीया न खचता पुर्णांगीनी होऊन आई व बापाची भूमिका निभावताना दिसतात. अजूनही पुनर्रविवाह म्हणावे इतके होत नाही. शिवाय विधूर पुनर्विवाहासाठी कुमारीच शोधताना दिसतात. विधवांच्या पर्यायाचा विचार पुनर्विवाहासाठी विधूर करीत नसतील तर त्यांना त्या अगोदरच्या आपत्यासहित स्विकारणे तर दूरची गोष्ट. अगदीच अपवाद म्हणून कुठेतरी हाताच्या बोटावर मोजण्या इतके आपत्यासहित विधवेशी लग्न करणारे दिसतात. फुलेंनी त्यांच्या काळात सुरु केलेले विधवा पुनर्रविवाह अजूनही प्रत्यक्षात उतरताना दिसत नाही. पण विधवा बायका स्वबळावर ताठ मानेने जगताना दिसतात. किंवा काही महिला लग्न न करता अथवा लग्न राहून गेलेल्या स्वतःच्या हिंमतीवर जगताना दिसतात. हे चित्र माणूस म्हणून आनंदादायी आहे. अशांनाच मला पूर्णांगिनी म्हणायचे आहे.
माझ्या मते कर्तव्यतत्पर, निस्पृह, निष्कपट, निःस्वार्थी, परोपकारी, धेय्याला समर्पित, जगण्याची आस असलेले, मृदू पण तितकेच कठोर आणि कणखर ते नेहमी सुंदर…!
माझ्या आयुष्यात खऱ्या अर्थाने सुंदर असलेल्या अशा अनेक स्त्रिया आहेत. यांचे जोडीदार तसे नावापुरतेच जोडीला होते. काही करकोळ गोष्टी सोडल्या तर मुलं जन्माला घालण्यातच जोडीदाराचा काय तो सहभाग. अन्यथा संसाराचा गाडा या माऊलींनीच पुढे ओढत नेला. जोडीदार सोडून गेल्यावरही कोणत्याही प्रसंगाला बळी न पडता, सामाजिक व्यवस्थेला शरण न जाता, प्रामाणिक आणि तत्वनिष्ठ जगण्यावर त्यांनी मनापासून प्रेम केले. अतिशय कष्टाने, परिश्रमाने जीवनाची वाट चालत त्या जगण्यावर स्वार झाल्या. माणूस म्हणून अनेक प्रसंगाशी दोन हात करत स्वतःला जिंकत आल्या. अशा सखींचा मला खूप अभिमान आहे..! त्या खऱ्या अर्थाने पूर्णांगिनी आहेत. असे मला वाटते.
खरंतर शेतीचा शोध लावणारी, मातृत्व पेलणारी, संगोपन करणारी, समर्पणाने मानवी मुल्ये पेरणारी, शिवबा घडवणारी, वेळप्रसंगी युद्धात लढणारी, आणि युद्धापेक्षा बुद्ध मानणारी ती कधीच दुर्बल नव्हती. पण व्यवस्थेने तिला एकीकडे देवीचा दर्जा दिला त्याचवेळी तिला अबला, दुर्बल, दुय्यम ठरविले आणि तिच्यावर अन्याय होत गेला. सत्ता संपत्तीला खूप महत्त्व आले. क्रांती प्रतिक्रांती आणि परत क्रांती होत महिला सबलीकरण सुरु झाले. आता प्रत्येक जण महिलांना सक्षम करण्यात गर्क आहे. पण या सक्षम झालेल्या महिलांशी पुरुषांनी योग्य रीतीने वागावे यासाठी त्यांची मानसिकता घडविण्यासाठी प्रयत्न होताना दिसत नाही. ही आजची खंत आहे. म्हणून पुरुष सबलिकरणाची गरज भासू लागली आहे.
आज प्रत्येक क्षेत्रात स्त्री सक्षमपणे उभी आहे. तिच्या शिवाय जन्मच नाही. पण तिची तारेवरची कसरत चालू आहे. मदतीचा हात तिला कुणाकडून मिळत नाही. तिच्या मनात दाटलेले काळे ढग कुणाला दिसतील का? तिने पापण्यांपर्यंत आडविलेला पाऊस कुणाला जाणवेल का ? वादळातही मन सावरुन इतरांसाठी झटणारी ती कधी कुणाला उमगेल का ? आशा, आकांक्षा जपण्यासाठी तिला वेळीच साथ मिळेल का ? का तिने सोडून द्यावे त्याग, समर्पण सारे? मुक्त वावरावे अनिर्बध, स्वतःला शोधण्यासाठी?…..
ती म्हणेल कधीतरी तळमळून “नकोच बाईपण, ओझ्याने थकलेले आईपण.” मग काय कराल ? माणूसपणाच्या सागरात तिलाही डुंबायचे आहे. त्यामुळे वेळीच आवरा, माणूस म्हणून सावरा नाहीतर विपरीत घडेल ! आई, आईपण दोन्ही गोठून जाईल !
ग्रामीण भागातील सखी तर कुणी कितीही पसरो, ती मुकाट्याने आवरत असते. काबाड कष्ट करून मुलांना वाढवते. जगण्याच्या शोधात कामानिमित्त रानोरान भटकते. अनेक संकटांना निमूटपणे सहन करते. मध्येच जोडीदाराचा साथ सुटला तरी हिंमतीनं पोटच्या मुलांसाठी झटते. मुलांच्या शिक्षणासाठी जीवाचं रान करताना दिसते. वेळप्रसंगी अनेकांच्या समोर पदर पसरते. पण हार मानत नाही. मनातली घुसमट कोंबून ठेवते. ठेच लागली तरी एकाचवेळी डोक्यावरील घागर आणि कडेवरचं तान्हुलं बाळ अलगद सावरताना दिसते. अनेक वेदना घेऊन हसणं जपून ठेवते. तिच्या समर्पणाची, कष्टाची, आणि सहनशीलतेची कला कुणाला कधीच जमणार नाही, असे मला वाटते. अशा माणसातील पूर्णांगिनी आईला मी मनापासून मनापासून सलाम् करते. शेवटी जाताजाता माझ्याच कवितेतून मला एवढेच म्हणावेसे वाटते की ……
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण गीत – आकुल है मन…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 130 – आकुल है मन…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “सूरज की किरणों को पकडे त्र-टतु… ”)