हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 81 ☆ तेरी तक़रीर है झूठी तेरे वादे झूठे… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “तेरी तक़रीर है झूठी तेरे वादे झूठे“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 82 ☆

✍ तेरी तक़रीर है झूठी तेरे वादे झूठे… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

वक़्त का क्या है ये लम्हे नहीं आने वाले

मुड़के इक बार जरा देख तो जाने वाले

हम बने लोहे के कागज़ के न समझ लेना

खाक़ हो जाएगें खुद हमको जलाने वाले

 *

बच्चे तक सिर पे कफ़न बाँध के   घूमें इसके

जड़ से मिट जाए ये भारत को मिटाने वाले

 *

तुम वफ़ा का कभी अपनी भी तो मीज़ान करो

बेवफा होने का इल्ज़ाम लगाने वाले

 *

वोट को फिर से भिखारी से फिरोगे दर दर

सुन रिआया की लो सरकार चलाने वाले

 *

सामने कीजिये जाहिर या इशारों से बता

अपने जज़्बातों को दिल में ही दबाने वाले

 *

हम फरेबों में तेरे खूब पड़े हैं अब तक

बाज़ आ हमको महज़ ख़्वाब दिखाने वाले

 *

तेरी तक़रीर है झूठी तेरे वादे झूठे

शर्म खा अपने फ़क़त गाल बजाने वाले

 *

तेरे खाने के दिखाने के अलग दाँत रहे

ताड हमने लिया ओ हमको लड़ाने वाले

 *

पट्टिका में है अरुण नाम वज़ीरों का बस

याद आये न पसीने को बहाने वाले

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 46 – वॉशरूम…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – वॉशरूम।)

☆ लघुकथा # 45 – वॉशरूम श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रूबी का ससुराल में पहला दिन था सभी लोग बहुत खुश लग रहे थे कहीं जाने की तैयारी चल रही थी।

रूबी को आकर उसकी सास ने कहा कि – “बहू जल्दी से तैयार हो जाओ। हमारे यहां का रिवाज है कि हमारे यहां बहू बेटों को शादी के बाद शीतला देवी मंदिर जाते  हैं, जो कि यहां से 40 किलोमीटर दूर है ।”

“वहां पर सत्यनारायण की कथा होगी।”

मेरी कुछ सहेलियां भी वहां पर पहुंचेंगे और तुम्हारी ननद अनु भी रहेगी ।

“यह जेवर और यह साड़ी पहन लेना।

मेरी नाक मत कटाना अच्छे से तैयार होना।”

“रूबी मां यह बहुत भारी जेवर और साड़ी है इतने भारी जेवर आज के जमाने में कौन पहनता है।”

“बकवास मत करो जैसा  कह रही हूं वैसा ही करो।”

“वह चुपचाप तैयार हुई और उसने अपने पति रोहित से कहा -“कि क्या इसी दिन के लिए मैंने डॉक्टरी की पढ़ाई की थी।”

“अब तुम्हारे साथ शादी करके क्या मुझे यह सब नौटंकी भी झेलनी पड़ेगी।”

रोहित – “बस आज की बात है माता के मंदिर जाना है और हमारे सारे रिश्तेदार बुआ और बहन लोग आ रही हैं” इसलिए मैंने तुमसे ऐसा कहा है।

वे सब लोग मंदिर में पहुंचे पंडित जी भी पहुंचे और पूजा शुरू हो गई पूजा 3 घंटे तक चली।

रूबी – ‘रोहित मुझे वॉशरूम जाना है।” 

कमला जी रूबी की जो सास है, उन्होंने कहा –

“यह सब नौटंकी या यहां नहीं चलेगी चुपचाप थोड़ी देर बिना बात किए बैठ नहीं सकते हो तुम दोनों।”

रूबी से बैठा नहीं जा रहा था और उसकी तकलीफ कोई नहीं समझ पा रहा था ।

” मेरी मति मारी गई और मैंने यह शादी की।”

तभी उसकी   (ननद) जो अनु दूर खड़े हो कर देख रही थी, उसको यह बात समझ में आ गई । और अपनी भाभी से कहा कि चलो।

अनु उसे मंदिर के वॉशरूम के सामने ले जाकर छोड़ दी ,वह  वॉशरूम से बाहर आते ही अपनी अनु के गले लग गई ।

अनु ने कहा कि भाभी कोई बात नहीं अब… “चलो जल्दी से हम लोग मंदिर चलते हैं ।”

मां कुछ नहीं बोलेगी?

वह बार-बार अनु को देख रही थी और उसकी आंखों ने सब कुछ बोल दिया।

रूबी की सास ने बोला कहां ले गई “अपनी भाभी को अनु”।

अनु बोली -“मां मैं भाभी को मंदिर का सिंदूर दिलाने के लिए लेकर गई थी “

“तुम्हारी बहू डॉक्टर है, इसे यह सब बातें तो नहीं पता होगी”

आप मां पूजा में व्यस्त थी ,इसीलिए मैं भाभी को लेकर चली गई…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 248 ☆ सावित्री… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 248 ?

सावित्री ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

तो — अगदी लहान असल्यापासून

पाहिलेला,

चाळीशीचा तरूण,

कळलं तो शेजारच्या इस्पितळात येतो–‐-

डायलिसीस साठी!

 

मानवी शरीराला,

खूप जपूनही,

कधी काय होईल,

सांगता येत नाही !

 

आम्ही उभयता खूपच,

हळवे झालो होतो…..

त्याला भेटायला गेल्यावर!

सोबत असलेली त्याची पत्नी,

चेहर्‍यावर काळजी, पण—

ठामपणे त्याच्या पाठीशी उभी !

आणि घेत ही होती,

तितक्यात निष्ठेने—

त्याची काळजीही !

 

नंतर समजलं,

त्याच्या शस्त्रक्रियेविषयी….

त्याची पत्नीच देणार होती,

स्वतःची एक किडनी !

 

नतमस्तकच,

त्या तरूणीसमोर!

सावित्री अजूनही—

जन्मते या इथेच,

विज्ञानाची कास धरून,

आणि स्वतःच्या जीवावर,

उदार होऊन,

 घडवते नवऱ्याचा पुनर्जन्म,

याच जन्मी !

कुण्या यमाची याचना न करता,

आपल्या शरीरातला—

एक नाजूक अवयव,

करते बहाल,

पतिप्रेमासाठी!

 

ही सावित्री मला “त्या”

सावित्रीपेक्षाही खूपच

महान वाटते–

जीवच ओवाळून टाकते–

जोडीदारावर,

नातं निभावत रहाते आयुष्यभर !!

☆  

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 77 – व्यर्थ मोती न लुटाया कीजे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – व्यर्थ मोती न लुटाया कीजे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 77 – व्यर्थ मोती न लुटाया कीजे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

व्यर्थ मोती न लुटाया कीजे 

कौन है हंस, यह पता कीजे

 *

आप पूनम हैं, लोग कहते हैं 

मेरे दिल में भी उजाला कीजे

 *

तुम जो आते हो, फूल खिलते हैं 

इनको, हर रोज हँसाया कीजे

 *

याद के हैं, यहाँ पले जुगनू

रोशनी से, न डराया कीजे

 *

आपके बिन, अगर जिया तो क्या 

मेरे जीने की, मत दुआ कीजे

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 150 – दीपावली पर दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपके “दीपावली पर दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 150 – दीपावली पर दोहे…  ☆

ज्योतिपुंज दीपावली, खुशियों की सौगात।

रोशन करती जगत को, तम को देती मात।।

*

दीपक का संदेश यह, दिल में भरें उजास।

घोर तिमिर का नाश हो, रहे न विश्व उदास।।

*

रिद्धि-सिद्धी और संपदा, लक्ष्मी का वरदान ।

दीवाली में पूजते, हम सब करते ध्यान।।

*

सदियों से दीपक जला, फैलाया उजियार ।

अंधकार का नाश कर, मानव पर उपकार ।।

*

हर मुश्किल की राह में, चलता सीना तान ।

राह दिखाता है सदा,जो पथ से अनजान ।।

*

दीवाली में दीप का, होता बड़ा महत्त्व ।

हर पूजा औ पाठ में, शामिल है यह तत्व।।

*

लक्ष्मी और गणेश जी, धन-बुद्धि का साथ।

दोनों के ही योग से, जग का झुकता माथ।।

*

राम अयोध्या आगमन, खुशियों का यह पर्व।

मुक्ति-मिली दानव-दलन, जनता को था गर्व।।

*

मानवता की ज्योत से, नव प्रकाश की पूर्ति।

सबके अन्तर्मन जगे, मंगल-दीपक-मूर्ति।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 32 – कच्छ उत्सव – भाग – 3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – कच्छ उत्सव )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 32 – कच्छ उत्सव – भाग – 3 ?

(2017)

आज उत्सव में हमारा चौथा दिन था। सुबह नाश्ते के बाद हम उत्सव के बाहरी हिस्से के बाज़ार में खरीदारी करने गए। इस बाज़ार में वे लोग अपनी दुकान सजाए हुए थे जो उत्सव के भीतर बड़ी राशि देकर दुकान किराए पर न ले सके। वास्तव में इस बाज़ार में बड़ी मात्रा में हमें  चीज़ें मिलीं। खरीदारी करने के बाद हम उत्सव के भीतरी अहाते में आर्ट ऐंड क्राफ्ट की दुकानों में सैर करते रहे।

शाम पाँच बजे  हमें काला डूंगर नामक स्थान पर ले जाया गया। यह कच्छ का सर्वोच्च स्थान है। यहीँ से पाकिस्तान की सीमा स्पष्ट दिखाई देती है। यहाँ ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर से  सीढ़ियाँ तो बनी हैं पर वह भी थोड़ी ऊबड़ -खाबड़ हैं। सैनिकों का चेक पोस्ट भी बना हुआ है। ऊपर से सूर्यास्त देखने का आनंद बहुत ही निराला होता है। आकाश में रंग बदलता रहता है। सूर्यास्त के ठीक पहले आकाश में लालीमा -सी छा जाती है। सूरज अपनी किरणों को समेट लेता है और आसमान में एक विशाल लाल गेंद सा दिखाई देता है। कुछ ही क्षण में तीव्र गति से सूर्य ग़ायब सा हो जाता है।

वहाँ से निकलकर हम गांधी नु ग्राम आर्ट विलेज पहुँचे। यहाँ छोटी-छोटी झोंपड़ीनुमा दुकानें बनी हुई हैं। महिलाएँ काँच लगाकर चादरें काढ़ती हुई दिखाई दीं। हाथ से बनाई गई दरियाँ

थैले, जैकेट, दुपट्टे, बाँदनी के कपड़े, लाख की चूड़ियाँ बनाती वृद्धा महिलाएँ दिखीं। वनस्पतियों के  रंगों से ब्लॉक प्रिंट किए गए सूती थान, चादरें और कई  विविध प्रकार की वस्तुएँ वहाँ बनती हुई दिखीं। हमें न केवल आनंद मिला बल्कि कई जानकारियाँ भी मिलीं।

दिखने में अत्यंत साधारण कच्छी लोग इतने हुनरमंद हैं कि जितना भी गुणगान करें कम ही है।

हमने उत्सव में रहने के लिए चार ही दिन रखे थे और पाँचवे दिन सुबह नाश्ता खाकर हमें निकलना था। हम इसके आगे भुज में आसपास की जगहों का दर्शन करना चाहते थे।

पाठकों से निवेदन है कि वे जब उत्सव के लिए जाएँ तो अवश्य ही छह दिनों का कार्यक्रम बनाकर जाएँ। दिन कम होने के कारण हम आशापुरा मंदिर और कोटेश्वर मंदिर न देख पाए इसका हमें आज भी दुख है।

हम अपनी गाड़ी अर्थात जिस इनोवा से भुज स्टेशन से उत्सव तक गए थे अब उसमें  ही बैठकर भुज आए। हमारे रहने की व्यवस्था बहुत अच्छी थी। दोपहर का भोजन खाकर हम चार बजे के करीब स्वामी नारायण मंदिर देखने गए। यह मंदिर न केवल विशाल और सुंदर है बल्कि इसपर जो नक्काशियाँ हैं वह देखने लायक है।

शाम को हम पास के ही एक संग्रहालय में गए। यह संग्रहालय शाम के सात बजे तक खुला रहता है। छोटी -छोटी मिट्टी से बनी कुटिया में प्रदर्शन के लिए विविध वस्तुएँ रखी गई  हैं। यहाँ की वस्तुओं को देखकर कच्छी लोगों के जीवन का परिचय मिलता है। वे न केवल कठोर परिश्रमी हैं बल्कि वे अत्यंत साधारण जीवन यापन करते हैं। प्रकृति के प्रति अत्यंत सजग भी हैं।

उस रात हमने रात के भोजन के लिए  कच्छी  थाली मँगवाई। विशाल थाली में दस कटोरियाँ लगाई गई  थीं। छाछ से प्रारंभ कर कई प्रकार की चटनियाँ, बाजरे की रोटियाँ वह भी घी में डूबी हुई, कई प्रकार की सब्ज़ियाँ थाली में परोसी गई और खूब प्रेम से भोजन करवाया गया।

दूसरे दिन हम लखपत के लिए रवाना हुए।

लखपत में एक गुरुद्वारा है। इस गुरद्वारे में गुरुनानक देव साहेब की पादुका है और पालकी है। हमने यहाँ दर्शन किए। यहीं से मक्का की यात्रा नानक जी ने की थी।

अगली सुबह हम धोलावीरा के लिए निकले। यह सिंधु घाटी सभ्यता की निशानी है। यह भुज से दूर है। पर सुबह सुबह अगर पर्यटक निकल जाएँ तो देर शाम तक लौटकर आ सकते हैं। मार्ग में ऊँटों के झुंड दिखे साथ में काले वस्त्र धारी म। इलाएँ दिखीं जो चाँदी के आभूषणों और माथे पर टिकली से सुसज्जित थीं।

धोलावीरा में चार हज़ार वर्ष पूर्व बसे र के खंडहर देखने को मिले। भरपूर पानी की व्यवस्था  हुआ करथी थी जहाँ वर्षा का जल जमा किया जाता था। शहर के चारों ओर नालियों की व्यवस्था थी। यह हड़प्पा शहर के नाम से जाना जाता है।

मैं पहली बार 2005 में इस स्थान का दर्शन करने गई  थी। तब केवल एक विशाल प्रवेश द्वार सा बना था। अब 2017  में यहाँ एक संग्रहालय भी देखने को मिला। इस संग्रहालय में उत्खनन के दौरान मिली वस्तुएँ रखी गई  हैं। कई  प्रकार के बर्तन दिखे जो मिट्टी से बने हैं। उस समय जो ज़ेवर पहने जाते थे वे भी दिखे। बच्चों के लिए खिलौने आदि दिखाई दिए।

मार्ग में नमक बनते तालाब दिखाई दिए। छोटे छोटे गड्ढों में पानी जमा दिखा और उसके चारों ओर नमक बनता दिखा। पानी की सतह चमकदार काँच के समान दिख रही थी। यातायात के लिए बनी सड़कें अत्यंत मुलायम और साफ़ हैं।

अगले दिन भुज रेलवे स्टेशन से हम सब  मुंबई लौट आए। मुम्बई  से पुणे लौटने के लिए इनोवा की व्यवस्था रखी गई थी। हम सब यायावर दल के सदस्य आराम से सुंदर व सुखद स्मृतियों के साथ अपने घर लौट आए।

हमारे देश में इतनी विविधताएँ हैं और दर्शनीय स्थान हैं कि हम आजीवन भी भ्रमण करते रहे तो पर्याप्त न होगा।

हर भारतीय को चाहिए कि वह अपने देश के हर राज्य का भ्रमण करे तभी अपनी संस्कृति से हम परिचित होंगे।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 311 ☆ व्यंग्य – “गधे और हाथी की लड़ाई…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 311 ☆

?  व्यंग्य – गधे और हाथी की लड़ाई  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

अमेरिका में गधे और हाथी की रेस चल रही है। डेमोक्रेट्स का चुनाव चिन्ह गधा, और रिपब्लिकन का हाथी है।

चुनावो के समय अपने देश मे भी अचानक रुपयो की गड्डियां बाजार से गायब होने की खबर आती है, मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा होता हूं कि हरे गुलाबी नोट धीरे धीरे काले हो रहे हैं।

अखबार में पढ़ा था, गुजरात के माननीय १० ढ़ोकलों में बिके। सुनते हैं महाराष्ट्र में पेटी और खोको में बिकते हैं। राजस्थान में ऊंटों में सौदे होते हैं।

सोती हुई अंतर आत्मायें एक साथ जाग जाती हैं और चिल्ला चिल्लाकर माननीयो को सोने नही देती। माननीयो ने दिलों का चैनल बदल लिया , किसी स्टेशन से खरखराहट भरी आवाजें आ रही हैं तो किसी एफ एम से दिल को सुकून देने वाला मधुर संगीत बज रहा है, सारे जन प्रतिनिधियो ने दल बल सहित वही मधुर स्टेशन ट्यून कर लिया। लगता है अब क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दल से बड़े होते हैं। सरकारो के लोकतांत्रिक तख्ता पलट, नित नये दल बदल, इस्तीफे,के किस्से अखबारो की सुर्खियां बन रहे हैं। हार्स ट्रेडिंग सुर्खियों में है। यानी घोड़ो के सौदे भी राजनीतिक हैं।

रेस कोर्स के पास अस्तबल में घोड़ों की बड़े गुस्से, रोष और तैश में बातें हो रहीं थी। चर्चा का मुद्दा था हार्स ट्रेडिंग ! घोड़ो का कहना था कि कथित माननीयो की क्रय विक्रय प्रक्रिया को हार्स ट्रेडिंग कहना घोड़ो का सरासर अपमान है। घोड़ो का अपना एक गौरव शाली इतिहास है। चेतक ने महाराणा प्रताप के लिये अपनी जान दे दी,टीपू सुल्तान, महारानी लक्ष्मीबाई की घोड़े के साथ प्रतिमाये हमेशा प्रेरणा देती है। अर्जुन के रथ पर सारथी बने कृष्ण के इशारो पर हवा से बातें करते घोड़े, बादल, राजा, पवन, सारंगी, जाने कितने ही घोड़े इतिहास में अपने स्वर्णिम पृष्ठ संजोये हुये हैं। धर्मवीर भारती ने तो अपनी किताब का नाम ही सूरज का सातवां घोड़ा रखा। अश्व शक्ति ही आज भी मशीनी मोटरो की ताकत नापने की इकाई है। राष्ट्रपति भवन हो या गणतंत्र दिवस की परेड तरह तरह की गाड़ियो के इस युग में भी, जब राष्ट्रीय आयोजनो में अश्वारोही दल शान से निकलता है तो दर्शको की तालियां थमती नही हैं। बारात में सही पर जीवन में कम से कम एक बार हर व्यक्ति घोड़े की सवारी जरूर करता है। यही नही आज भी हर रेस कोर्स में करोड़ो की बाजियां घोड़ो की ही दौड़ पर लगी होती हैं। फिल्मो में तो अंतिम दृश्यो में घोड़ो की दौड़ जैसे विलेन की हार के लिये जरूरी ही होती है, फिर चाहे वह हालीवुड की फिल्म हो या बालीवुड की। शोले की धन्नो और बसंती के संवाद तो जैसे अमर ही हो गये हैं। एक स्वर में सभी घोड़े हिनहिनाते हुये बोले ये माननीय जो भी हों घोड़े तो बिल्कुल नहीं हैं। घोड़े अपने मालिक के प्रति सदैव पूरे वफादार होते हैं जबकि प्रायः नेता जी की वफादारी उस आम आदमी के लिये तक नही दिखती जो उसे चुनकर नेता बना देता है।

अपने वाक्जाल से जनता को उसूलो की बाते बताकर उल्लू बनाने की तकनीक नेता जी बखूबी जानते हैं। अंतर्आत्मा की आवाज वगैरह वे घिसे पिटे जुमले होते हैं जिनके समय समय पर अपने तरीके से इस्तेमाल करते हुये वे नितांत स्वयं के हित में जन प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने किये गलत को सही साबित करने के लिये शब्दों का इतना कुशल इस्तेमाल करते हैं कि हम लेखक शर्मा जाएं। भ्रष्टाचार या अन्य मजबूरी में नेताजी बिदा होते हैं तो उनकी धर्म पत्नी या पुत्र कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं। पार्टी अदलते बदलते रहते हैं पर नेताजी टिके रहते हैं। गठबंधन तो उसे कहते हैं जो सात फेरो के समय पत्नी के साथ मेरा, आपका हुआ था। कोई ट्रेडिंग इस गठबंधन को नही तोड़ पाती। यही कामना है कि हमारे माननीय भी हार्स ट्रेडिंग के शिकार न हों आखिर घोड़े कहां वो तो “वो” ही हैं ! वो उल्लू होते हैं, और उल्लू लक्ष्मी प्रिय हैं, वे रात रात जागते हैं, और सोती हुईं गाय सी जनता के काम पर लगे रहते हैं। इसलिए गधे हाथी लड़ते रहें अपना नारा है, उल्लू जिंदाबाद।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 106 – देश-परदेश – चल मेरी ढोलक☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 106 ☆ देश-परदेश – चल मेरी ढोलक ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में खरगोश की ढोलक द्वारा ननिहाल की यात्रा की कहानी आज भी जहन में हैं। उपरोक्त फोटो में भी ढोलक नुमा ड्रम (प्लास्टिक कंटेनर) देख खरगोश वाली कहानी याद आ गई।

त्यौहार के समय मुम्बई से अपने गांव की रेल यात्रा के लिए जाते हुए लोगों को रेलवे ने इस प्रकार के ड्रम के साथ यात्रा करने की अनुमति नहीं दी थी। यात्रियों को कहा गया कि अपना सामान दूसरे साधनों का उपयोग कर ले सकते हैं। परेशान/ हैरान यात्रियों ने जल्दी जल्दी बड़े कपड़े के बैग्स में भर कर ही गाड़ी में बैठ पाए। ड्रम आदि वहीं छोड़ दिए गए।

प्रश्न ये उठता है, कि ये ड्रम के साथ यात्रा क्यों हो रही थी? अधिकतर यात्री मेहनत कश होते है, और किसी उद्योग/ कारखाने में कार्य करते हैं। उद्योग में लगने वाला कच्चा मॉल इन्हीं ड्रम में आता है। वहां कार्य करने वाले मजदूरों को फैक्ट्री से ये ड्रम मुफ्त में या कुछ न्यूनतम राशि में ये ड्रम मिल जाते होंगे।

गांव में अपने परिजनों के उपयोग के लिए ये ड्रम देश की आर्थिक राजधानी से मीलों दूर गरीब के घर के एसेट्स बन जाते हैं। रईसों की बेकार वस्तुएं, गरीबों की शान बन जाती हैं।

एशियन पेंट के खाली डिब्बों की असीमित मांग रहती हैं। एक बार हमारे पड़ोसी ने हमें एक पेंट की दुकान पर खड़ा हुआ क्या देखा? दूसरे दिन घर आकर बोला जब पेंट के डिब्बे खाली हो जाएं तो सबसे पहले मुझे देना “पड़ोसी पहले”।

हमारे देश के लोग तो अमेरिका जैसे देश में समान के लिए कपड़े के थैले भर कर  ले जाते हैं। एक बार एयरपोर्ट पर अमेरिका के लिए चेक इन के समय एक व्यक्ति दो बड़े बड़े कपड़े के बैग में यात्रा कर रहा था। उत्सुकता वश हमने पूछ लिया कि इन बैग्स का क्या लाभ है? उसने बताया दस हज़ार वाले सूटकेस से ये पांच सौ वाला बैग, वापिस आकर फोल्ड कर रख सकते हैं। बड़े तेईस किलो तक सामान वाले सूटकेस के साथ तो अंतरराज्यीय यात्रा भी नहीं हो सकती हैं। कपड़े के बैग का वज़न भी सूटकेस से कम होता है, मतलब आप अधिक सामान ले जा सकते हैं।

बैंक की नौकरी समय नब्बे के दशक में कैश के लिए आर बी आई  द्वारा लकड़ी के बक्से उपयोग होते थे। हमने भी ट्रांसफर के समय टीवी सेट को सुरक्षित ले जाने के लिए उन्हीं लकड़ी के बॉक्स से एक टीवी सेट के माप का डिब्बा दो दशकों तक उपयोग किया था। घर में उस डिब्बे के ऊपर चादर डालकर बैठने के लिए भी खूब उपयोग किया। वो तो बाद में एल ई डी टीवी आ जाने से उसकी उपयोगिता समाप्त हो गई थीं।

हमारे देशवासियों की सस्ता, सुंदर और टिकाऊ साधनों का उपयोग करने की आदत है। वर्षों से सीमित संसाधनों और अभाव में जीवन यापन करने से मानसिकता भी वैसी ही बन जाती है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #260 ☆ नाही घाई… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 260 ?

☆ नाही घाई ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

प्रीती सुमने नंतर दाखव नाही घाई

हळू प्रीतिचा वनवा पेटव नाही घाई

*

गुलाब आहे टवटवीत हा ओठी धरला

थोडा थोडा मधही चाटव नाही घाई

*

ओंजळीतुनी फुले आणतो आणि उधळतो

कधीतरी तू गजरा मागव नाही घाई

*

तुझीच इच्छा पूर्ण कराया येइल तेव्हा

मन भरल्यावर मजला पाठव नाही घाई

*

मातीवरती प्रेम कराया शिकून घ्ये तू

मग मातीवर डोके टेकव नाही घाई

*

देहाचे या वस्त्र मळाया नकोच आधी

त्या आधी तू शालू नेसव नाही घाई

*

ओठांवरती तुझ्या जेवढी आहे गोडी

त्या गोडीला मजला भेटव नाही घाई

 

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 212 – युग – सत्य… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – युग – सत्य।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 212 – युग – सत्य… ✍

शब्दों की सजीवता की बात

सुनी थी,

आज देखता हूँ।

 

देखता हूँ: रक्तपात।

देखता हूँ : गर्भपात।

 

लगता है

इन शब्दों में

युग-सती संश्लिष्ट है।

 

शायद,

शब्दों का क्रिया बोध

इस युग का इष्ट है।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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