श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण नवगीत – “दूर जड़ों से हो कर……”।)
☆ तन्मय साहित्य #171 ☆
☆ नवगीत – दूर जड़ों से हो कर… ☆
घर छूटा, परिजन छूटे
रोटी के खातिर
एक बार निकले
नहीं हुआ लौटना फिर।
वैसे जो हैं वहाँ
उन्हें भी भूख सताती
उदरपूर्ति उनकी भी
तो पूरी हो जाती,
घी चुपड़ी के लिए नहीं
वे हुए अधीर….।
दूर जड़ों से होकर
लगा सूखने स्नेहन
सिमट गए खुद में
है लुप्त हृदय संवेदन,
चमक-दमक में भटके
बन कर के फकीर….।
गाँवों सा साहज्य,
सरलता यहाँ कहाँ
बहती रहती है विषाक्त
संक्रमित हवा,
गुजरा सर्प, पीटने को
अब बची लकीर….।
भीड़ भरे मेले में
एक अकेला पाएँ
गड़ी जहाँ है गर्भनाल
कैसे जुड़ पाएँ,
बहुत दूर है गाँव
सुनाएँ किसको पीर…।
© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈