हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 127 – “तर्कशीला.. जैसे नहीं रही…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “तर्कशीला जैसे नहीं रही)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 127 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

तर्कशीला… जैसे नहीं रही

सुबह सुबह फोन पर

कहा मेरे बॉस ने-

” नीम फूल आये

पड़ौस में

 

देख लेना !

बदल कर चश्मे

वर्तमान मौसम

के करिश्मे

 

दिन ऐसे

लगते जैसे

गाये गये

मालकोंस में

 

धानी सी सूरत

जो हुई

शाख शाख

जैसे छुई मुई

 

है न आश्चर्य

जो आ ठहरा

साहब की

धौंस में

 

कंचनी काया

कमनीय है

पत्ती पत्ती

वंदनीय है

 

तर्कशीला

जैसे नहीं रही

सहजिन

अफसोस में

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

28-02-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 176 ☆ “पुस्तक मेले में चिलमची लेखक…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक  व्यंग्य – पुस्तक मेले में चिलमची लेखक…”)

व्यंग्य  # 176 ☆ चिन्तन – “पुस्तक मेले में चिलमची लेखक…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

भैया जी चिलम प्रेमी हैं, ‘संगत गुनन अनेक फल….’ सो गंगू चिलम भरना एवं चिलम खींचना भैया जी से सीख रहा है। भैया जी चिलम खींचकर अंट-संट बकने लगते हैं और पेन कागज हाथ लग जाए तो कालजयी रचनाएं भी लिख देते हैं। सुट्टा खींचने के बाद गंगू भी साहित्यकार बनने की जुगत में रहता, पड़ोसियों के किस्से कहानी बता बताकर हंसता हंसाता।

भैया जी की घर में नहीं बनती और गंगू की भी घरवाली से नहीं पटती। दोनों साथ-साथ सुट्टा खींचते और हमेशा घर से भागने केे चक्कर में रहते। भैया जी हर बार पुस्तक मेला जाते हैं पर इस बार जाने का जुगाड़ नहीं बन रहा इसलिए दुखी हैं चिलम खींचकर भावुक होकर गाने लगे…….

“चलो चलिए

यमुना जी के पार

जहां पे मेला लगो”

गंगू सुनके नाचने लगा। गंगू को क्या मालुम कि यमुना किनारे बसी दिल्ली में मेला भी लगता है… हामी भर दी, कहन लगे चलो… अभी ही चलो… नहीं तो कल चलो। झूला भी झूल लेंगे और बरेली के बाजार वाली का नाच भी देख लेंगे। बरेली के बाजार वाली का झुमका गिरा तो ढूंढ के ला भी देंगे। भैया जी नशे में और गंगू भी नशे में… हर बात पर हामी भरते।

भैया जी बड़े नामी-गिरामी लेखक हैं। बड़ी बड़ी पत्रिकाओं में फोटो सहित छपते रहे हैं, घर में इज्ज़त नहीं है क्योंकि घर का कोई काम – धाम नहीं करते। बात बात में पत्नी से झगड़ते जरूर हैं। सुबह सुबह चाय नहीं मिलने पर पत्नी से उलझ गए। जब हार गए तो चड्डी बनियान और कुर्ता पेजामा थैले में धर के घर से निकल गये और गंगू के साथ दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ गए।

दिल्ली पहुंचे तो पेट कुलबुला के कूं – कूं करने लगा… गर्मागर्म छोले भटूरे देखे तो लार टपक गई।  तुंरत दोनों ने पेट भर छोले भटूरे पेल कर खाये। नहा – धोकर मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो से उतरकर मेले की गेट के तरफ बढ़ने लगे तो रास्ते में मस्त सुंदर गोरी महिला ने रोक लिया और दोनों की शर्ट में तिरंगा झंडा चिपका दिया बोली – इससे आपके अंदर देशभक्ति पैदा होगी। आगे बढ़ने लगे तो रंगदारी से रास्ता रोककर वसूली पर उतर आईं कहने लगी – पैसा नहीं दोगे तो अभी मीटू में फंसा दूंगी नहीं तो झंडा चोरी के इल्जाम में अंदर करा दूंगी। बेचारे भैया जी और गंगू डर के मारे कांपने लगे। थोड़ा दे-ले के आगे बढ़े तो टिकिट की लाइन में फटे जीन्स वाली लड़की ने ठग लिया कहने लगी – अंकल आप लाइन में काहे को लगते हो पैसे दे दो और उधर चैन से बैठो हम टिकिट लाकर वहीं दे देंगे। पैसा भी ले गई और लौटी भी नहीं…

क्या करते फिर लाइन में लगे, टिकिट ली, जब तक गंगू बोर हो चुका था बार बार चिलम चढ़ाने की मांग करता रहा फिर झुंझलाते हुए बोला – भैया जी आप हमें झटका मार के मेला घुमाने के चक्कर में घसीट लाए, इधर झूला – ऊला कुछ दिख नहीं रहा है।

धक्का – मुक्की के साथ आगे बढ़े तो गंगू को जोर से पेशाब लग गई। प्रोस्टेट ग्रन्थि का पुराना मरीज था। गंगू पेजामे की जेब में हाथ डालकर कूंदा – फांदी करने लगा। एक प्रकाशक से पूछा – पेशाब कहां करें तो झट उसने इशारे से सामने तरफ ऊंगली दिखा दी। वहां व्ही आई पी लिखा था घुसने लगे तो गार्ड ने रोक लिया कहने लगा – यहाँ सिर्फ व्ही आई पी ही पेशाब कर सकते हैं। भैया जी को डर लग रहा था कि कहीं गंगू पैजामा न गीला कर दे। गंगू बोला – जे व्ही आई पी क्या होता है, व्ही आई पी क्या अलग तरह से व्ही आई पी पेशाब करता है और क्या उसकी पेशाब से सोना बनाया जाता है। गार्ड को धक्का मारकर गंगू अंदर घुस गया। गार्ड ने पुलिस बुला ली। पुलिस गंगू को पकड़ कर ले गई, भैया जी देखते रह गए।

उसी समय एक लेखक भैया जी का हाथ पकड़ कर घसीटने लगा कहने लगा – आप जरूर बड़े लेखक होंगे फलां पत्रिका में आपकी रचना छपी थी, इसलिए हमारी पुस्तक का फिरी में विमोचन करिये। पुस्तक का विमोचन नहीं करोगे तो हाथ पैर तुड़वा दिये जाएंगे, लठैत भी साथ आये हैं, और सरेआम बेइज्जत कर देंगे।  सबके सामने बोल देंगे कि विमोचन करने के नाम पर दो हजार पहले से ले लिए और अब विमोचन में आनाकानी कर रहे हैं।

परेशानी बता के नहीं आती और जब आती है तो एक साथ बारात लेकर आती है। भीड़ की धक्का मुक्की, चारों तरफ चल रहे विमोचन की बाढ़ तथा लगातार मिल रही धमकियों से गला सूख रहा था, प्यास बढ़ गई थी, पानी का कहीं जुगाड़ नहीं दिख रहा था और गंगू की चिंता खाये जा रही थी।

अचानक मोबाइल बजा… उधर से पत्नी चिल्ला रही थी ‘किचिन से हमारा पैसा चुरा कर कहां घूम रहे हो ?

भैया जी बोले – दिल्ली के मेले में विमोचन महोत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया है तो आ गये। दिल्ली का नाम सुनकर लाड़ भरी आवाज में पत्नी बोली – मेरे लिए दिल्ली से क्या ला रहे हो?

भैया जी बोले – पुस्तक मेले में सिर्फ पुस्तकें मिलतीं हैं और पुस्तकों से तुम्हें चिढ़ है। इसलिए कनाटप्लेस से शुद्ध चमड़े का जूता ला रहा हूँ, पहनने के काम आयेगा और वक्त जरूरत में ओवरटाइम भी कर सकता है। तुम्हारा मुंह भी तो खूब चलता है।

पत्नी बौखला गई बोली – तुम नहीं सुधरोगे, फोन पर भी बदतमीजी करते हो, अपने आप को बड़ा लेखक कहते हो, नारी सशक्तीकरण पर लेख लिखते हो। हां, तो सुनो आज रद्दी पेपर वाला आया था कह रहा था कि कई दिनों से कहीं से रद्दी नहीं मिली। घर में खाने को एक दाना नहीं है ,दो दिन से भूखा हूँ तो मुझे उस पर दया आ गई, इसलिए तुम्हारी सभी अलमारियों की साहित्य की पूरी किताबें सस्ते में रद्दी वाले को तौलकर बेच दीं हैं और उन पैसों से ठंड में कुकरते टाॅमी के लिए कपड़े ले लिए हैं।

भैया जी का मोबाइल नीचे गिर गया, काटो तो खून नहीं… फफक फफक कर रोने लगे और चक्कर खाकर गिर गए। लोग इकठ्ठे हो गए, किसी ने पानी का छींटा मारा, किसी ने जूते सुघांये… होश नहीं आया तो कई लोगों ने शराबी समझकर लातें मारी। पुलिस आयी और स्ट्रेचर में उठा कर ले गई।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 118 ☆ # परीक्षा की यह कठिन घड़ी है… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# परीक्षा की यह कठिन घड़ी है … #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 118 ☆

☆ # परीक्षा की यह कठिन घड़ी है… # ☆ 

सब बच्चों की रंगत उड़ी है

परीक्षा की यह कठिन घड़ी है

 

यह छोटू, यह मोटू

यह गुड्डू, यह गुड़िया

यह मुन्ना, यह मुनिया

यह सन्नी,  यह हनी

यह जॉन, यह जेनी

यह बंटी, यह बबलू

यह वसीम, यह वहीदा

यह अब्दुल, यह रशीदा 

यह करतार, यह कौर

यह धम्म दीप, यह उपासिका

यह  अरण्यक, बहुत सारे और

सब पर आफत आन पड़ी है

यह परीक्षा की कठिन घड़ी है

 

परीक्षा नहीं इतनी आसान

मम्मी पापा है परेशान

पढ़ाते हैं बच्चों को दिन रात

सूझती नहीं और कोई बात

बच्चों के पीछे भागते है

दिन रात बस जागते हैं

प्रतिस्पर्धा बहुत कड़ी है

परीक्षा की यह कठिन घड़ी है

 

बच्चों से है सब का मान

परिणाम देख ना टूटे सम्मान

लगे हुए हैं बच्चों को मनाने

शिक्षा का मतलब समझाने

टाॅफी, पिज्जा, लालीपाप

हाजिर है जो बोलो आप

रट जाओ तुम टेबल सारे

गणित में अव्वल आओगे प्यारे

कितनी सरल यह बाराखड़ी है

परीक्षा की यह कठिन घड़ी है

 

जो लायेंगे  अच्छे नंबर

कालोनी में होंगे सिकंदर

हर कोई प्यार करेगा

सर आंखों पर धरेगा

आदी अगली क्लास चढ़ेगा

मम्मी पापा का रुतबा बढ़ेगा

 

गोल्डी क्लास में अव्वल आया

दादा-दादी से साइकिल  पाया

झूम उठे मम्मी-पापा, दादा-दादी

हीरो बन गया (गोल्डी) आदी

गोल्डी ने अपनी किस्मत गढ़ी है

परीक्षा की यह कठिन घड़ी है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 119 ☆ मलाच मी विसरलो… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 119 ? 

☆ मलाच मी विसरलो…

(अंत्य-ओळ काव्य…)

गालावरची तुझ्या खळी

कोडे पडले सखी मला

स्वप्न सुद्धा पडतांना

त्रास देते खळी मला…

 

त्रास देते खळी मला

मी बेचैन जाहलो

तुझ्या खळीच्या नादात

मलाच मी विसरलो…

 

मलाच मी विसरलो

नाही काही आता उरले

तुला भेटण्यासाठी

मनाने पक्के बघ ठरवले…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 58 – ग्रीनएकर ची रिलीजस कॉन्फरन्स ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 58 – ग्रीनएकर ची रिलीजस कॉन्फरन्स ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

नव्या सूर्याच्या चैतन्याने विवेकानंद पुन्हा ताजेतवाने झाले. उदात्त जीवनाकडे घेऊन जाणारे विचार व्याख्यानातून ते मांडतच होते. परिचित व्यक्तींच्या आग्रहाखातर त्यांचे वेगवेगळ्या व्यक्तींकडे वास्तव्य होत होते. शिकागोहून ते आता ग्युएर्न्सी यांच्याकडे न्यूयॉर्कला आले. एव्हढ्या या विचारांच्या लढाईत विवेकानंद यांना आपल्या हिंदू धर्माबद्दल कुणी काहीही चांगले लिहिलेले कुठे दिसले, तर ते अत्यंत आनंदी होत असत. त्यांच्या वाचनात एक ख्रिस्त धर्मीय व्यासंगी, संस्कृत भाषेचा अभ्यास असलेले डॉ.मोनियर विल्यम्स यांना हिंदू धर्म कसा दिसतो ते वाचायला मिळाले. ते त्यांनी पत्रातून मिसेस हेल यांना कळविले आहे. त्यात आहे, “हिंदूधर्माचा विशेष असा आहे की त्याला कोणाही परधर्मीयाला आपल्या धर्मात आणण्याची गरज वाटत नाही आणि तसा कोणताही प्रयत्न तो करीत नाही, हिंदू धर्म सर्वांचा स्वीकार करणारा, सर्वांना जवळ घेणारा आणि सर्व आपल्या ठायी सामावून घेण्याइतका व्यापक आहे. सर्व प्रकारच्या मन:प्रवृत्तीच्या माणसांना मानवेल असे काहीतरी देण्यासारखे या हिंदू धर्माजवळ आहे. मानवी मन, त्याचे स्वरूप आणि प्रवृत्ती यामध्ये जी अमर्याद विविधता आढळते तिच्याशी जुळवून घेण्याची तेव्हढीच अमर्याद अशी जी क्षमता आहे ते त्याचे खरे खुरे सामर्थ्य आहे”. विल्यम पुढे म्हणतात, “नेमके बोलायचे झाले तर, स्पिनोझाचा (डच फिलॉसॉफर,जन्म १६३२ मृत्यू १६७७) जन्म होण्याआधी दोन हजार वर्षे हे हिंदू, स्पिनोझाच्या विचारांचे पुरस्कर्ते होते. डार्विनच्या(जन्म १८०९ मृत्यू १८८२, इव्होल्यूशन सिद्धांत मांडला) जन्माआधी अनेक शतके त्याच्या सिद्धांताचा स्वीकार करणारे होते आणि आताच्या आपल्या काळातील हक्सले (बायोलोजिस्ट -जन्म-१८२५ मृत्यू-१८९५) यांचे विचार मान्य करणार्‍यांच्या शेकडो वर्षे आधी हे हिंदू, उत्क्रांतीवादी होऊन गेले होते किंवा त्यांनी तसे केले त्यावेळी उत्क्रांती या शब्दातील अर्थ व्यक्त करणारा शब्द देखील जगातील कोणत्याही भाषेत नव्हता”. असे सगळे वर्णन वाचून विवेकानंद यांना डॉ. मोनियर विल्यम्स यांच्या सूक्ष्म निरीक्षण शक्तीचे कौतुक वाटले. कारण एका प्रज्ञावंताचे ते निरीक्षण होते. हा आनंद झाला म्हणूनच त्यांनी हेल यांना हे पत्र लिहून कळवलं.

आता विवेकानंद न्यू यॉर्क जवळच्याच फिशिकल येथील हडसन नदीच्या काठावर असलेल्या ग्युएर्न्सी यांच्या निवासस्थानी राहायला आले होते. इथे त्यांना मन:शान्ती मिळाली होती. याच काळात एक दखल घेण्यासारखी घटना घडली. आपले गाव सोडून आपण परक्या शहरात किंवा गावात गेलो असू आणि तिथे कुणी आपल्या गावचे भेटले तर आपल्याला जो आनंद होतो तो अवर्णनीय असतो. त्याच्या बद्दल आपल्याला आपुलकी आणि जिव्हाळा वाटतो. सर्वधर्म परिषदेत विवेकानंद यांना एक नरसिंहाचारी म्हणून भारतीय तरुण भेटला होता. तिथे तो वाईट संगतीत राहून भरकटला होता. अधून मधून तो विवेकानंद यांना भेटत असे आणि काही मदत मागत असे. पण हे सर्व बघून विवेकानंद फार दुखी झाले. त्याला आपल्या देशात- भारतात- परत पाठवणे योग्य आहे असा विचार स्वामीजींनी केला. मग त्यांनी अलसिंगा यांना पत्र लिहून कळवले आणि त्याच्या कुटुंबाची चौकशी करायला सांगितली. त्यांच्याशी संपर्क साधला आणि त्याची घरी जाण्याची व्यवस्था केली. तो भारतात सुखरूप पोहोचला, हे सर्व श्रेय विवेकानंद यांचेच. एक भारतीय तरुण परदेशात भुकेला आणि अनाथ राहू नये असे विवेकानंद यांना वाटले होते.

विवेकानंद यांची पुढची भेट इंग्लंडला व्हावी असे एकाने सुचविले होते पण जगन्मातेचा आदेश आल्याशिवाय स्वामीजी थोडेच जाणार? पण सर्वत्र व्याख्याने दौरे, संभाषणे चर्चा मुलाखती असे भरपूर होत होते. आता विवेकानंद यांना वाटत होतं की, प्रत्यक्ष काहीतरी काम इथे सुरू व्हायला हवे. न्यूयॉर्क संस्थानात मिस फिलिप्स यांची कुठेतरी रम्य अशी जागा आहे, असे त्यांना कळले होते आणि तिथे आपण हिमालय उभा करू आणि आश्रमाची स्थापना करू असा विचारही त्यांच्या मनात आला होता. मनात असा विषय येणं ही सकारात्मकता निर्माण झाली होती ती मनस्थिती ठीक झाल्यामुळेच .

याच दरम्यान  ग्रीनएकर इथले एक आमंत्रण मिळाले. एक वेगळ्या प्रकारचा मेळावा आयोजित केला गेला होता. २७ जुलैला  विवेकानंद ग्रीनएकर इथे मेळाव्यासाठी पोहोचले. दोन दिवस आधी मनात जी आश्रमाची कल्पना आली होती तसाच रम्य परिसर इथे योगायोगाने होता. फार्मर यांच्या मालकीची ग्रीन एकर मेन संस्थानात इलीयटजवळ खूप मोठी जमीन होती.  

इथे असे नव्या नव्या कल्पना त्यांना पाहायला आणि अनुभवायला मिळत होत्या. सर्व धर्म परिषद असो, कोलंबियन औद्योगिक प्रदर्शन कल्पना असो, आता हा ग्रीनएकरचा मेळावा सुद्धा एक वेगळीच संकल्पना होती. एखादी कल्पना मनात आली की ती प्रत्यक्षात यशस्वी करण्यासाठी आवश्यक कष्ट घेऊन नियोजन करणे हे पाश्चात्यांचं वैशिष्ट्य स्वामीजींना फार फार भावल होतं. सर्वधर्म परिषदेच्या धर्तीवर वर्षभरातच हा मेळावा आयोजित केला होता. ही कल्पना होती मिस सारा जे.फार्मर यांची. सर्व धर्म परिषद ही औपचारिक होती. तिथे व्याख्याने देऊन सर्व जण आपापल्या स्थानी परत गेले होते. पण आता तसे नव्हते. धर्माची निरनिराळी मते असणार्‍या सर्व व्यक्तींनी पंधरा दिवस एकत्र राहावे, कुठलीही कार्यक्रमाची चौकट असू नये. मुक्त संवाद व्हावा, मोकळेपणाने संभाषण व्हावे आणि सर्वांना मुक्त प्रवेश. सारा फार्मर यांची अशी अभिनव कल्पना स्वामीजींना आवडलीच.

फार्मर यांच्या मालकीची मोठी जागा होती तिथे हिरवेगार शेत, जवळच वाहणारी नदी, सुसज्ज विश्रामगृह, छोटी छोटी स्वतंत्र निवासस्थाने, बाजूलाच पाईन वृक्षाचे जंगल असा शांत आणि निसर्गरम्य परिसर . शिवाय परिसरात तंबू, त्याला नाव होते हॉल ऑफ पीस /शांतिमंदिरउभे केलेले. कोणी कुठेही रहा, इथे कुठलीही मूर्तिपूजा नव्हती फक्त वैचारिक कार्यक्रम होणार होता. परस्परांना समजून घ्यावे, एकमेकांशी बोलावे, सामूहिक चर्चा करावी, गप्पा गोष्टी माराव्यात, इच्छा असेल तर शांत व निवांत बसावे, असा एकूण विषय होता. सतत औपचारिक व्याख्याने देऊन स्वामी विवेकानंद कंटाळले असताना अशी निसर्गात शांत राहण्याची संधी मिळाली म्हणून ते प्रसन्न झाले होते. इथे ग्रीनएकर मध्ये ख्रिस्त धर्मातील विविध पंथाचे प्रतिनिधी, बुद्धिमंत व विचारवंत सहभागी झाले होते.

डॉ. एडवर्ड एव्हरेट हेल, मिस जोसेफाईन लॉक, अर्नेस्ट  एफ.फेनोलेसा, फ्रॅंकलिन बी. सॅनबोर्न, मिसेस आर्थर स्मिथ, मिसेस ओली बुल, गायिका मिस एम्मा थर्स्बी, हे उपस्थित होते. रोज सकाळचे प्रमुख भाषण झाले की जो तो आपल्याला हव्या त्या विषयाकडे वळे, वक्ता आणि श्रोता यांच्यात अनौपचारिक नाते असे. पाईन वृक्षाखाली व्याख्याने चालत. विवेकानंद याच्या भोवती खूप जण गोळा होत आणि त्यांचे आध्यात्मिक विचार तन्मयतेने ऐकत असत. इथे श्रोत्यांना वेदान्त विचारांचा लाभ होत असे. सर्व धर्म सामावून घेणारा धर्मनिरपेक्ष हिंदू धर्म ते सांगत असत. त्यासाठी ते उपनिषद, भगवतगीता, अवधूतगीता, भतृहरी, संत मीराबाई, शंकराचार्यांचे निर्वाणषटक यातील दाखले देत असत. सर्व श्रोते एकरूप होऊन जात आणि विवेकानंद त्यांच्याकडून चिदानंदरूप: शिवोहम!  शिवोहम!  हे चरण आळवून घेत, हे म्हणत म्हणतच श्रोते आपल्या स्थानी परतत असत. जिथे बसून पाईन वृक्षाखाली विवेकानंद यांनी व्याख्यान दिले होते तो पाईन वृक्ष पुढे विवेकानंद यांच्या नावाने ओळखला जाऊ लागला. हा ग्रीन एकरचा उपक्रम पुढे काही वर्ष चालू होता. नंतर याच वृक्षाखाली बसून सारदानंद आणि अभेदानंद यांनी तिथे प्रवचन दिले होते.

‘हॉल ऑफ पीस’ मध्ये म्हणजे तंबू मध्ये विवेकानंद यांचे स्वतंत्र व्याख्यान झाले होते. त्याला मिसेस बुल उपस्थित होत्या. विवेकानंद यांनी मुख्य धडा दिला की, “सर्व धर्माच्या प्रेषितांचा आपण मान ठेवला पाहिजे. त्यांच्या शिकवणुकीचा आदरपूर्वक अभ्यास केला पाहिजे, त्या त्या धर्माच्या अनुयायांनी हे जपले पाहिजे की, आपल्या वर्तनामुळे,आपल्या महापुरुषांनी दाखवून दिलेल्या ईश्वर प्राप्तीच्या मार्गात कोणतेही किल्मिष मिसळले जाऊ नये. प्रत्येक धर्मातील दोष उणिवा आणि काही ठिकाणी भयानक असलेले भाग आपल्याला आढळतील ते भाग बाजूला ठेवावेत आणि मानवाच्या आत्मिक विकासासाठी पोषक असणारे असे एक ईश्वर, आत्म्याचे अमरत्व, सारे प्रेषित आदरार्ह आणि सारे धर्म विचारात घेण्यासारखे आहेत. या गोष्टींवर भर द्यावा. जसे एखाद्या कुटुंबात प्रत्येकाला कामे वाटून दिलेली असतात, तसेच मानव जातीच्या या कुटुंबात प्रत्येक धर्माकडे काही कामगिरी सोपविली आहे. सर्व मानवांना देण्यासारखा सत्याचा काही अंश प्रत्येक धर्माजवळ आहे त्याचा स्वीकार करा आणि तशी दृष्टी धारण करा. हीच सर्वधर्म समन्वयाची दिशा ठरेल. तिचा खरा उपयोग आहे”. अशी स्पष्ट आणि रेखीव मांडणी विवेकानंद यांनी केली असल्याचा बुल यांनी म्हटलं आहे.

ग्रीनएकरला स्वामी विवेकानंद सात-सात, आठ-आठ तास बोलत असत. असे नवे नवे आयाम विवेकानंद यांना कळत जात होते तस तसे त्यांना अमेरिकेतल्या पुढच्या कार्याची दिशा ठरवायला मदत होत होती. अशा प्रकारे ग्रीनएकरचा  कार्यक्रम छान पार पडला. आता विवेकानंद १३ ऑगस्टला ग्रीनएकरहून प्लायमाउथ आले, तिथे फ्री रिलीजस असोसिएशनच्या वार्षिक कार्यक्रमासाठी कर्नल थॉमस वेंटवर्थ हिगिन्सन यांनी निमंत्रण दिले होते. केव्हढी मानाची गोष्ट होती की, अशा वार्षिक कार्यक्रमांना प्रमुख अतिथि म्हणून स्वामीजींना बोलवले जात होते. एव्हढा लौकिक त्यांना मिळाला होता. रामकृष्ण परमहंस यांनी महासामद्धी घेऊन आता आठ वर्षांचा काळ लोटला होता. त्यांनी सांगितलेल्या कामाच्या शोधात स्वामीजी भारतात फिरल्या नंतर आता ते अमेरिकेत आले होते. त्यांनी इथवरच्या प्रवासात अनेक अनुभव घेतले, अनेक घटना घडल्या, पण त्यांचे अंतर्मन नव्या दिशेचा शोध घेतच होते. ग्रीनएकरचा त्यांचा अनुभव खूप चांगला होता. याचवेळी त्यांना, आपण आपल्या धर्माबद्दल काही लिहावे असे वाटले होते. त्यासाठी  शांतता हवी आणि वेळ सुद्धा. असे त्यांनी अलसिंगा यांना पत्रात म्हटले आहे की, “ ज्या दिवसात व्याख्याने नसतात तेंव्हा हातात लेखणी घ्यावी असे मनात आहे”. हेच त्यांनी मिसेस स्मिथ यांनाही पत्रात कळवले आणि ते सारा बुल यांच्या कानावर गेले आणि त्यांनी विवेकानंद यांना लगेच आपल्या घरी केंब्रिजला बोलावले. त्याप्रमाणे ते ऑक्टोबर मध्ये सारा बुल यांच्याकडे गेले. सारा बुल यांचे घर असलेले केंब्रिज अतिशय शांत, गर्दी नाही असे होते. तिथे त्यांनी विवेकानंद यांना स्वस्थपणे राहता येईल अशी व्यवस्था केली. सारा चॅपमन बुल. कोण होत्या त्या?… 

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 50 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 50 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

९२.

माझ्या डोळ्यावर अखेरचा पडदा पडेल,

या पृथ्वीवरील दृश्य दिसेनासं होईल,

जीवन शांतपणं रजा घेईल.

तो दिवस येणार हे मला ठाऊक आहे.

 

रात्री चांदण्यांचा पहारा असेल,

नेहमीप्रमाणे सकाळ उगवेल आणि

सागराच्या लाटाप्रममाणं सुख – दुःखावर

कालक्रमण होत राहील.

 

जेव्हा माझ्या अखेरच्या क्षणाचा

विचार मनात येतो,

तेव्हा क्षणाचं बंधन तुटतं आणि मृत्यूच्या

प्रकाशात तुझं अस्ताव्यस्त वैभव मला दिसतं .

तिथं सर्वात कमी दर्जाचं आसन

अगदी क्वचितच असतं,

जीवनातील क्षुद्रताही अगदी क्वचितच असते.

 

ज्या गोष्टीची निरर्थक वासना मी धरली होती,

आणि ज्या गोष्टी मला प्राप्त झाल्या होत्या,

त्या सर्व किती निरर्थक आहेत

हे आता मला समजतं.

ज्यांच्याकडं मी दुर्लक्ष केलं आणि

त्या लाथाडल्या त्यांचं मोल आता मला कळतं.

 

९४.

माझी सुटका झाली. बंधूंनो! मला निरोप द्या.

नमस्कार! आम्ही जातो!

या माझ्या घराच्या किल्ल्या! माझ्या घरावरील

सर्व हक्क मी तुमच्या स्वाधीन करतो.

मधुर शब्दांत तुम्ही निरोप द्यावा एवढीच माझी इच्छा!

फार पूर्वीपासूनचे आपण शेजारी -शेजारी!

मी तुम्हाला जे देऊ शकलो

त्याहून अधिकच मला मिळालं.

 

दिवस उजाडलाय.

माझा काळोखी कोपरा प्रकाशणारा दिवा

आता विझला आहे.

 

बोलावणे आले आहे.

प्रवासाला जायची माझी तयारी झाली आहे.

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #181 ☆ व्यंग्य – भए प्रगट कृपाला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय व्यंग्य ‘भए प्रगट कृपाला’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 181 ☆

☆ व्यंग्य ☆ भए प्रगट कृपाला

अब वे ज्ञानी मुँह छिपाते फिर रहे हैं जो कहते थे कि कलयुग में चमत्कार नहीं होते। अब उनके मुँह पर थप्पड़ पड़ रहे हैं। धाम में दिन भर चमत्कार हो रहे हैं। हर दुख की दवा मिल रही है। बाबा उनके दरबार में हाज़िर होने वाले हर व्यक्ति के मुँह खोलने से पहले उसका भूत, वर्तमान, भविष्य लिख देते हैं और हर मर्ज़ को दूर करने का वसीला भी बता देते हैं। बाबा से आदमी का कोई राज़ और कोई रोग पोशीदा नहीं रहता। यहाँ हर समस्या का निदान है, चाहे वह गृह-कलह हो, या नौकरी-रोज़गार की फिक्र, या कोई कठिन रोग। बाबा के आशीर्वाद से आई.ए.एस. या विधायक बनना भी असंभव नहीं।

बाबा के दरबार में प्रेत-पीड़ित व्यक्तियों का भी इलाज होता है। उनके हाथ हिलाते ही प्रेत- बाधा से ग्रस्त आदमी ज़मीन पर लोटने लगता है, अपने मुँह और सिर पर थप्पड़ मारने लगता है, जो वस्तुतः उस पर काबिज़ भूत की पिटाई होती है। दरबार में कई स्त्री और पुरुष पागलों की तरह चीख़ते-चिल्लाते और बाल नोचते दिखायी पड़ते हैं। लेकिन बाबा का दावा है कि वे अंधविश्वास नहीं फैलाते। अब वक्त आ गया है कि देश के वैज्ञानिक भूत-प्रेतों के अस्तित्व को स्वीकार कर लें, अन्यथा हो सकता है कोई भूत नाराज़ होकर उनके पीछे पड़ जाए। तब उनके सामने धाम जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति यदि चुनौती देती है तो धमकियाँ मिलने लगती हैं। स्थितियों को देखते हुए चुप रहना ही समझदारी की बात है। धाम की किस्मत चमक गयी है। दूकानदारों की चाँदी हो गयी है। वी.आई.पी. दरबार में पहुँचने लगे हैं, इसलिए चमचमाती सड़क बन गयी है। बाकी सुविधाएँ भी विकसित हो रही हैं।

बड़े-बड़े मंत्री स्वामी जी के दरबार में पहुँचकर उनकी स्तुति कर रहे हैं। नेताओं के धर्मगुरु के दरबार में पहुंचने से गुरू जी को प्रामाणिकता मिलती है। फिर गुरूजी से कुछ ऊँच-नीच हो जाए तो अधिकारी उन पर हाथ डालने से हिचकते हैं। नेताओं का स्वार्थ यह होता है कि गुरूजी के पीछे खड़ी भीड़ उनकी भक्ति को देखकर चुनाव के समय उन पर कृपालु हो सकती है। दरबार में उनकी हाज़िरी से जनता किस प्रकार भ्रमित होगी इसकी फिक्र नेता जी को नहीं होती। नेता हमेशा ही धर्मगुरुओं के सामने नतमस्तक होते रहे हैं, भले ही बाद में गुरूजी जेल की शोभा बनें। फिर भी बाबा राम रहीम जैसे कुछ संतो की भक्तों का हित करने की भावना इतनी प्रबल होती है कि वे ‘पैरोल’ पर बाहर आकर भी ऑनलाइन प्रवचन के लिए समय निकाल लेते हैं। संतों के ऐसे ही त्याग के कारण हमारा देश महान बना हुआ है।

एक चमत्कारी बाबा दक्षिण के नित्यानंद थे। वे भी जब  मुँह पर चुल्लू बनाकर फूँक मारते थे तो उनके भक्त उछलने लगते थे। दुर्भाग्य से उन पर कुछ बेसिरपैर के आरोप लग गये और वे अपने भक्तों को बेसहारा छोड़कर विदेश चले गये। उन्होंने त्रिनिदाद के पास एक द्वीप ख़रीद लिया जहाँ उन्होंने ‘कैलाशा’ नाम का नया देश बना लिया। उनके हिसाब से ‘कैलाशा’ एकमात्र हिन्दू राष्ट्र होगा। अगर महाराज भी अपनी घोषणा के अनुसार भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने में सफल हुए तो वह दूसरा हिन्दू राष्ट्र हो सकता है। निश्चय ही इन संतों का हिन्दू राष्ट्र मँहगाई, बेरोज़गारी जैसी घटिया समस्याओं से पूरी तरह मुक्त होगा।

बाबाजी का उदय निश्चय ही सत्ता के लिए बड़ा राहत देने वाला होगा। देश में इस वक्त सत्ता के लिए सबसे बड़ा सरदर्द रोज़गार को लेकर है। अगर सब बेरोज़गार सरकार के दरवाज़े पर सिर मारने के बजाय बाबाजी के आशीर्वाद के लिए लाइन लगाने लगें तो सरकार का बड़ा संकट टल जाएगा। बाबाजी से आश्वासन पाकर आदमी घर आकर निश्चिंत सो जाएगा और सपने में आई.ए.एस. हो जाने का सुख प्राप्त करेगा। इसीलिए अगर मंत्री बाबाजी की चौखट पर माथा टेकते हैं तो क्या आश्चर्य?

देश के लिए नये-नये बाबाओं का उदय बड़ा कल्याणकारी होता है। कलयुग में भगवान तो अवतार लेते नहीं, इसलिए पीड़ित जनता को उनके स्वघोषित प्रतिनिधियों के ही चरण पकड़ने पड़ते हैं। भारत में विज्ञान की लंबी उड़ान के बावजूद अशिक्षा और अंधविश्वास व्यापक हैं और विज्ञान की पहुँच सीमित है, इसलिए बाबाओं के लिए यहाँ असीम संभावनाओं वाला ‘मार्केट’ उपलब्ध है। बाबाओं के दर पर ठाठें मारती भीड़ को देखकर अंदाज़ होता है कि देश में वैज्ञानिक सोच और समझ की क्या स्थिति है।

किसी भी तरक्की पसंद सरकार को अंधविश्वास की इन खुले आम चलती दूकानों पर रोक लगाना चाहिए। लेकिन वह इन्हें जानबूझकर अनदेखा करती है क्योंकि इन्हीं दूकानों से उसके लिए वोट निकलते हैं। जनता जितनी अज्ञानी, अंधविश्वासी और निर्बल रहे उतनी ही राजनीतिक दलों के लिए फायदेमंद होती है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 129 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 129 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 129) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 129 ?

☆☆☆☆☆

“मैँ अपने खिलाफ बातें    

 ख़ामोशी से सुन लेता हूँ,

 मैंने जवाब देने का हक़

 वक़्त को दे रखा है..!”

☆☆

I listen to the things

 against me quietly,

 I have given the right

 to answer to the time..!

☆☆☆☆☆ 

“बहुत ही आसान है, ज़मीं पर…

 आलीशान मकान बना लेना…”

 दिल में जगह बनाने में …

 ज़िन्दगी गुज़र जाया करती है..!

☆☆

It’s  very  easy  to  make a

 grand  house  on  the  land…

 Whole  life passes in making

 place  in  someone’s  heart…!

☆☆☆☆☆

मजबूरियाँ ओढ़ के निकलता हूँ

 घर  से  आजकल  मैं,

 वरना शौक तो आज भी है

 बारिशों में भीगने का…!

☆☆

Clad with  compulsions, I come

 out  of  the house, these  days

 Otherwise, I am  still fond  of

 getting drenched in the rains…

☆☆☆☆☆

  शर्तों में कब बांधा है,

 तुझे  ऐ  ज़िंदगी…

 ये उम्मीद के धागे हैं,

 कभी हैं, तो कभी नहीं…

☆☆ 

O’ life, when  have  I ever  tied

You up in terms and conditions

These are threads of expectations

Sometimes there, sometimes not

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 177 ☆ शिवोऽहम्… (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 177 शिवोऽहम्… (2) ?

शिवोऽहम् के संदर्भ में आज  निर्वाण षटकम् के दूसरे श्लोक पर विचार करेंगे।

न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः

न वा सप्तधातुः न वा पंचकोशः।

न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पंचप्राणों में से कोई हूँ। न मैं सप्त धातुओं में से कोई हूँ, न ही पंचकोशों में से कोई । न मैं वाणी, हाथ, अथवा पैर हूँ, न मैं जननेंद्रिय या मलद्वार हूँ।  मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ , मैं शिव हूँ।

वैदिक दर्शन में प्राण को ही प्रज्ञा भी कहा गया। शाखायन आरण्यक का उद्घोष है,

यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः

अर्थात जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।

प्राण, वायु के माध्यम से शरीर में संचरित होता है। संचरण करने वाली वायु पाँच स्थानों पर मुख्यत: स्थित होती है। इन्हें पंचवायु कहा गया है। पंचवायु में प्राण, अपान, समान, व्यान, और उदान समाविष्ट हैं।

स्थूल रूप से समझें तो प्राणवायु का स्थान नासिका का अग्रभाग माना गया है। यह सामने की ओर गति करने वाली है। प्राणवायु देह तथा प्राण की अधिष्ठात्री है। अपान का अर्थ है नीचे जाने वाली। अपान वायु गुदा भाग में होती है। मूत्र, मल, शुक्र आदि को शरीर के निचले भाग की ओर ले जाना इसका कार्य होता है। समान वायु संतुलन बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसका स्थान आमाशय बताया गया है। भोजन का समुचित पाचन इसका दायित्व है। व्यान वायु शरीर में सर्वत्र विचरण करती है। इसका स्थान हृदय माना गया है। रक्त के संचार में इसकी विशेष भूमिका होती है। उदान का अर्थ ऊपर ले जाने वाली वायु है। अपने उर्ध्वगामी स्वभाव के कारण यह कंठ, उर, और नाभि में स्थित होती है। वाकशक्ति मूलरूप से इस पर निर्भर है। 

इसी तरह त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि एवं मज्जा, शरीर की सप्तधातुएँ हैं। इनमें से किसी एक के अभाव में मानवशरीर की रचना  दुष्कर है। शरीर में इनका संतुलन बिगड़ने पर अनेक प्रकार के विकार जन्म लेते हैं।

अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय, शरीर के पंचकोश हैं। हर कोश का नामकरण ही उसे परिभाषित करने में सक्षम है। विभिन्न कोशों द्वारा चेतन, अवचेतन एवं अचेतन की अनुभूति होती है।

जगद्गुरु उपरोक्त श्लोक के माध्यम से अस्तित्व का विस्तार प्राण, पंचवायु, सप्तधातु, पंचकोश से आगे ले जाते हैं। तीसरी पंक्ति में वर्णित वाणी, हाथ, पैर, जननेंद्रिय अथवा गुदा तक, स्थूल या सूक्ष्म तक आत्मस्वरूप को सीमित रखना भी हाथी के जितने भाग को स्पर्श किया, उतना भर मानना है।

विवेचन करें तो मनुष्य को ज्ञात सारे आयामों से आगे हैं शिव। शिव का एक अर्थ कल्याण होता है। चिदानंदरूप शिव होना मनुष्यता की पराकाष्ठा है। इस पराकाष्ठा को प्राप्त करना, हर जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जाएगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 128 ☆ सॉनेट – नदी – ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  सॉनेट “~ नदी ~”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 128 ☆ 

सॉनेट ~ नदी ~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

नदी नहीं है सिर्फ नदी।

जीवन-मृत्यु किनारे इसके।

सपने पलें सहारे इसके।।

देख नदी में अगिन सदी।।

मरु को मधुवन नदी बनाती।

मिले मेघ से जितना पानी।

सागर को जा देती दानी।।

जीवन को जीना सिखलाती।।

गर्मी-सर्दी, धूप-छाँव में।

पर्वत-जंगल नगर गाँव में।

बहती रुके न एक ठाँव में।।

जननी जन्मे, विहँस पालती।

काम न किंचित कभी टालती।

नव आशा का दीप बालती।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२१-२-२०२२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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