☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २८ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
राणी सातपुड्याची आणि राणी जंगलची
जबलपूरहून कान्हाला जाण्याआधी थोडी वाट वाकडी करून घुघुआ येथील जीवाश्म राष्ट्रीय उद्यान पाहिले. इथल्या म्युझियममध्ये वनस्पती व प्राणी यांचे जीवाश्म ठेवले आहेत. प्राणी अथवा वनस्पती मृत झाल्यानंतर सर्वसाधारण परिस्थितीमध्ये त्यांचे विघटन होते पण एखाद्या आकस्मिक घटनेमध्ये उदाहरणार्थ भूकंप, ज्वालामुखीचा उद्रेक, अशा वेळी झाडे, प्राणी क्षणार्धात गाडली जातात. त्यावेळी ऑक्सिजन व जीवजंतूंच्या अभावी कुजण्याची क्रिया न होता त्या मृत अवशेषांमध्ये हळूहळू खनिज कण भरले जातात. कालांतराने तो जीव, वनस्पती यांचे दगडामध्ये परिवर्तन होते. यालाच जीवाश्म असे म्हणतात अशी माहिती तिथे लिहिली होती. येथील जीवाश्मांचा शास्त्रशुद्ध अभ्यास करण्यात आला आहे. म्युझियममध्ये अशी दगडी झाडे, डायनासोरचे अंडे, इतर शास्त्रीय माहिती, नकाशे आहेत. बाहेरील विस्तीर्ण वनामध्ये रुद्राक्ष, निलगिरी, फणस, आंबा, जांभूळ, आवळा, रानकेळी या वृक्षांचे जीवाश्म बनलेले बघायला मिळाले. संशोधनामध्ये या जीवाश्मांचे वय साडेसहा कोटी वर्षे आहे असा निष्कर्ष निघाला आहे. काही कोटी वर्षांपूर्वी आफ्रिका, भारतीय द्विपखंड, ऑस्ट्रेलिया हे सर्व एकमेकांना जोडलेले होते व हा भाग गोंडवन म्हणून ओळखला जात असे. कालांतराने हे भाग विलग झाले. बहुरत्ना वसुंधरा राणीचा हा अद्भुत खजिना पाहून कान्हाकडे निघालो.
प्रवासाच्या आधी जवळजवळ चार महिने आम्ही मुंबईहून बुकिंग केले होते. त्यामुळे प्रत्यक्ष कान्हाच्या अरण्यातील मध्यप्रदेश पर्यटन मंडळाचे किसली येथील गेस्ट हाऊस राहण्यासाठी मिळाले होते. दिवसभर प्रवास करून कान्हाला पोहोचलो तर जंगलातला निःशब्द अंधार दाट, गूढ झाला होता. गेस्ट हाऊस थोडे उंचावर होते. पुढ्यातल्या लांब- रुंद अंगणाला छोट्या उंचीचा कठडा होता. त्यापलीकडील मोकळ्या जंगलात जाण्यास प्रवाशांना मनाई होती कारण वन्य जीवांच्या जाण्या- येण्याचा तो मार्ग होता. जेवून अंगणात खुर्च्या टाकून बसलो. रात्रीच्या निरभ्र आकाशात तेजस्वी गुरू चमकत होता. थोड्याच वेळात झाडांच्या फांद्यांमागून चांदीच्या ताटलीसारखा चंद्रमा वर आला. उंच वृक्षांच्या काळोख्या शेंड्यांना चांदीची किनार लाभली.
दुसऱ्या दिवशी सकाळी सहा वाजता जंगल सफारीला निघालो तेव्हा पिवळसर चंद्र मावळत होता आणि शुक्राची चांदणी चमचमच होती. तिथल्या शांततेचा भंग न करता भोवतालचे घनदाट विशुद्ध जंगल बघंत जीपमधून चारी दिशा न्याहाळत होतो. साल, साग, करंजा, सिल्वर ओक, महानिंब, ओक, पाईन अशा प्रकारचे अनेक वृक्ष होते. ‘भुतांची झाडं'(ghost trees) होती. या झाडांचे बुंधे सरळसोट व पांढरे स्वच्छ असतात. काळोखात ते बुंधे चमकतात. म्हणून त्यांना ‘घोस्ट ट्रिज’ असे म्हणतात. तेंदू पत्ता, शिसम, महुआ, मोठमोठ्या बांबूंची दाट वने आणि उंच गवताळ सपाट प्रदेश, वेगवेगळे जलाशय यांनी हे जंगल समृद्ध आहे. कळपांनी फिरणाऱ्या, पांढऱ्या ठिपक्यांच्या सोनेरी हरिणांचा मुक्त वावर होता. मोर भरपूर होते. लांडगा दिसला. गवा होता. झाडाच्या फांद्यांसारखी प्रत्येक बाजूला सहा सहा शिंगे असलेला बारशिंगा होता. निळकंठ, सुतार , पॅरकिट असे पक्षी होते. एका झाडाच्या ढोलीत घुबडाची दोन छोटी गोजिरवाणी, वाटोळ्या डोळ्यांची पिल्ले स्तब्ध बसलेली दिसली. मुख्य प्रतीक्षा होती ती वाघोबांची! वनराजांचा माग काढत जीप जंगलातल्या खोलवर गेलेल्या वाटा धुंडाळत होती. अचानक सात- आठ जंगली कुत्रे दिसले. सभोवती चरत असलेला हरिणांचा कळप उंच कमानीसारख्या उड्या मारत विद्युत् वेगाने तिथून दूर निघून गेला. जीवाच्या आकांताने केकाटत मोरांनी उंच उड्या मारून झाडांचा आसरा घेतला. आणि एक बिचारे भेदरलेले हरिणाचे पिल्लू उंच गवतात आसरा घेऊ बघत होते तोपर्यंत त्या जंगली कुत्र्यांनी त्याला घेरले. आठ दहा मिनिटात त्या हरिण बाळाचा फक्त सांगाडा शिल्लक राहिला. कावळे आणि गिधाडे वरती घिरट्या घालू लागले. कुत्र्यांची टोळी आणखी सावज शोधायला निघून गेली. सृष्टीचा ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ हा कायदा अनुभवून आम्ही तिथून निघालो.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे… ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री कुमार सुरेश जी द्वारा लिखी कृति “व्यंग्य राग” पर चर्चा।
“मैं इन्हीं औरतों की कड़ी हूँ। मुझमें मोहब्बत और भय समुचित मात्रा में है। मैं आज़ाद होना चाहती हूँ, इस शरीर से, इस मन से, मैं सिर्फ़ मैं बनना चाहती हूँ, अपनी मर्जी की मालिक, अपने फ़ैसले लेने की अधिकारी, चाहे ग़लत हो सही, अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे। किसी में टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती। मैं सिर्फ़ औरत रहना चाहती हूँ, जीवन शालीनता से जीना चाहती हूँ, दूसरों को दिलदारी और समझ देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि किसी से मुझे शिक्षा मिले, नौकरी मिले, बस में सीट मिले, क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले। मैं देवी नहीं बनना चाहती, त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती, अबला बेचारी नहीं रहना चाहती। मैं जैसा पोरस ने सिकन्दर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो” के जवाब में कहा था, “वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है, ” बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी आकांक्षाओं में है, जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है, जैसे एक इनसान किसी दूसरे इनसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है। मैं दिन-रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। मैं दिन-रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोजहद में नहीं गुजारना चाहती। मैं अपना जीवन सार्थक तरीक़े से अपने लिए बिताना चाहती हूँ, एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा ख़ुद के अन्तरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो, कि जब अन्त आए तो लगे कि समय जाया नहीं किया, कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की, कि जीवन जिया। मैं प्रगतिशील कहलाने के लिए पश्चिमी कपड़े पहनूँ, गाड़ी चलाऊँ, सिगरेट शराब पियूं देर रत आवारागर्दी करुं ऐसे स्टीरियो टाइप में नहीं फसंना चाहती।“
… पारा पारा से ही न्यूयार्क में भारतीय एम्बेसी में प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन और झिलमिल-अमेरिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अनूप भार्गव जी के सौजन्य से पारा पारा की लेखिका प्रत्यक्षा जी से साक्षात्कार करने का सुअवसर मिला। नव प्रकाशित पारा पारा पर केंद्रित आयोजन था. पारा पारा पर तो बातचीत हुई ही ब्लॉगिंग के प्रारम्भिक दिनो से शुरू हो कर प्रत्यक्षा के कविता लेखन, चित्रकारी, कहानियों और उनके पिछले उपन्यासो पर भी चर्चा की।
समीक्षा के लिए प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन के सौजन्य से पारा पारा की प्रति प्राप्त हुई। मैनें पूरी किताब पढ़ने का मजा लिया। मजा इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि प्रत्यक्षा की भाषा में कविता है। उनके वाक्य विन्यास, गद्य व्याकरण की परिधि से मुक्त हैं। स्त्री विमर्श पर मैं लम्बे समय से लिख पढ़ रहा हूँ, पारा पारा में लेखिका ने शताब्दियों का नारी विमर्श, इतिहास, भूगोल, सामाजिक सन्दर्भ, वैज्ञानिकता, आधुनिकता, हस्त लिखित चिट्ठियो से ईमेल तक सब कुछ काव्य की तरह सीमित शब्दों में समेटने में सफलता पाई है। उनका अध्ययन, अनुभव, ज्ञान परिपक्व है। वे विदेश भ्रमण के संस्मरण, संस्कृत, संस्कृति, अंग्रेजी, साहित्य, कला सब कुछ मिला जुला अपनी ही स्टाइल में पन्ने दर पन्ने बुनती चलती हैं।
उपन्यास के कथानक तथा कथ्य मे पाठक वैचारिक स्तर पर कुछ इस तरह घूमता, डूबता उतरता रहता है, मानो हेलोवीन में घर के सामने सजाये गए मकड़ी के जाले में फंसी मकड़ी हो। उपन्यास का भाषाई प्रवाह, कविता की ठंडी हवा के थपेड़े देता पाठक के सारे बौद्धिक वैचारिक द्वन्द को पात्रों के साथ सोचने समझने को उलझाता भी है तो धूप का एक टुकड़ा नई वैचारिक रौशनी देता है, जिसमे स्त्री वस्तु नहीं बनना चाहती, वह आरक्षण की कृपा नहीं चाहती, वह सिर्फ स्त्री होना चाहती है । स्त्री विमर्श पर पारा पारा एक सशक्त उपन्यास बन पड़ा है। यह उपन्यास एक वैश्विक परिदृश्य उपस्थित करता है। इसमें १८७४ का वर्णन है तो आज के ईमेल वाले ज़माने का भी। स्त्री की निजता के सामान टेम्पून का वर्णन है तो रायबहादुर की लीलावती के जमाने और बालिका वधु नन्ना का भी। रचना में कथा, उपकथा, कथ्य,वर्णन, चरित्र, हीरो, हीरोइन, रचना विन्यास, आदि उपन्यास के सारे तत्व प्रखरता से मौजूद मिलते हैं। प्रयोगधर्मिता है, शैली में और अभिव्यक्ति में, लेखन की स्टाइल में भाषा और बुनावट में ।
मैंने उपन्यास पढ़ते हुए कुछ अंश अपने पाठको के लिए अंडरलाइन किये हैं जिन्हें यथावत नीचे उदृत कर रहा हूँ।
“….. और इस तरह वो माँ पहले बनीं, बीवी बनने की बारी तो बहुत बाद में आई । विवाह के तुरंत बाद किसी ज़रूरी मुहिम पर राय बहादुर निकल गए थे। किसी बड़ी ने बताया था किस तरह रोता बालक बहू की गोद में चुपा गया था। इस बात की आश्वस्ति पर तसल्ली कर वो निकल पड़े थे। घर में मालकिन है इस बात की तसल्ली।”
“…… एक बार उसने मुझे कहा था-
“To take a photograph is to align the head, the eye and the heart. It’s a way of life.” वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं। तस्वीरों में नहीं।
अच्छी तस्वीर लेना उम्दा ज़िन्दगी जीने जैसा है दिल-दिमाग़ और आँख सब एक सुर में…वो सपने में ऐसे ही दिखते हैं। हँसते हुए भी नहीं, उदास भी नहीं और थोड़ा गहरे सोचने पर, शायद मुस्कुराते हुए भी नहीं । “
इन पैराग्राफ्स मे आप देख सकते हैं कि प्रत्यक्षा के वाक्य गद्य कविता हैं। उनकी अभिव्यक्ति में नाटकीयता है , लेखन हिंदी अंग्रेजी सम्मिश्रित है।
इसी तरह ये अंश पढ़िए। …
“ मैं निपट अकेली अपने भारी-भरकम बड़े सूटकेस और डफल बैग के साथ सुनसान स्टेशन पर अकेली रह गई थी, हिचकिचाहट दुविधा और घबड़ाहट में।
लम्बी फ़्लाइट ने मुझे थका डाला था और रात के ग्यारह बज रहे थे। सामान मेरे पैरों के सामने पड़ा था और मुझे आगे क्या करना है की कोई ख़बर न थी। मैं जैसे गुम गई थी। अनजान जगह, अनजान भाषा किस शिद्दत से अपने घर होना चाहती थी अपने कमरे में। एक पल को मैंने आँखें मूँद ली थीं। अफ्रीकी मूल के दो लड़के मिनियेचर एफिल टावर बेच रहे थे, की-रिंग और बॉटल ओपनर और तमाम ऐसी अल्लम-गल्लम चीजें जो टूरिस्ट न चाहते हुए भी यादगारी के लिए ख़रीद लेते हैं। अचानक मुझे किसी दोस्त की चेतावनी याद आई, ऐसे और वैसे लोगों से दूर रहना, ठग ली जाओगी। या रास्ते की जानकारियाँ सिर्फ़ बूढ़ी औरतों से पूछना और अपने वॉलेट और पासपोर्ट को पाउच में कपड़ों में छुपाकर चलना । मैं यहाँ अनाथ थी। कोई अपना न था, मेरे सर पर कोई छत न थी। “
भले ही प्रत्यक्षा ने पारा पारा को हीरा, तारा, लीलावती, कुसुमलता, भुवन, जितेन, निर्मल, तारिक, नैन, अनुसूया वगैरह कई कई पात्रों के माध्यम से बुना है, और हीरा उपनयास की मुख्य पात्र हैं। पर जितना मैंने प्रत्यक्षा को थोड़ा बहुत समझा है मुझे लगता है कि यह उनकी स्वयं की कहानी भले ही न हो पर पात्रों की अभिव्यक्ति मे वे खुद पूरी तरह अधिरोपित हैं। उनके व्यक्तिगत अनुभव् ही उपन्यास के पात्रों के माध्यम से सफलता पूर्वक सार्वजनिक हुए हैं। लेखिका के विचारों का, उनके अंतरमन का ऐसा साहित्यिक लोकव्यापीकरण ही रचनाकार की सफलता है.
उपन्यास के चैप्टर्स पात्रों के अनुभव विशेष पर हैं। मसलन “दुनिया टेढ़ी खड़ी और मैं बस उसे सीधा करना चाहती थी। .. हीरा “ या “ नील रतन नीलांजना.. नैन“. स्वाभाविक है कि उपन्यास कई सिटिग में रचा गया होगा, जो गहराई से पढ़ने पर समझ आता है।
पुराने समय मे ग्रामीण परिवेश में खटमल, बिच्छू, जोंक, वगैरह प्राणी उसी तरह घरों में मिल जाते थे जैसे आज मच्छर या मख्खी, एक प्रसंग में वे लिखती हैं “तुम्हारे पापा का नसीब अच्छा था, बिच्छू पाजामें से फिसलता जमीं पर आ गिरा “ यह उदृत करने का आशय मात्र इतना है की प्रत्यक्षा का आब्जर्वेशन और उसे उपन्यास के हिस्से के रूप मे पुनर्प्रस्तुत करने का उनका सामर्थ्य परिपक्वता से मुखरित हुआ है। १९९२ के बावरी विध्वंस पर लिखते हुये एक ऐतिहासिक चूक लेखिका से हुई है वे लिखती हैं कि हजारों लोग इस हिंसा की बलि चढ़ गए जबकि यह आन रिकार्ड है की बावरी विध्वंस के दौरान १७ लोग मारे गए थे, हजारों तो कतई नहीं।
मैं उपन्यास का कथा सार बिलकुल उजागर नहीं करूंगा, बल्कि मैं चाहूंगा कि आप पारा पारा खरीदें और स्वयं पढ़ें। मुझे भरोसा है एक बार मन लगा तो आप समूचा उपन्यास पढ़कर ही दम लेंगे, प्रेम त्रिकोण में नारी मन की मुखरता से नए वैचारिक सूत्र खोजिये। नारी विमर्श पर बेहतरीन किताब बड़े दिनों में आई है और इसे आपको पढ़ना चाहिए।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 11 – तहज़ीब ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे लखनऊ की तहज़ीब “पहले आप, पहले आप” का उदाहरण पूरे देश में दिया जाता हैं। विगत दिनों विदेश प्रवास के समय जब पैदल कुछ गलियों के चौराहों को पार कर रहे थे, तो हर बार चमचमाती हुई कारों के चालक ने रुककर हमें पहले जाने का आंख या हथेली से संकेत किया। आरंभ में हमे ऐसा प्रतीत हुआ, किसी परिचित ने गाड़ी रोककर सम्मान दिया हैं। अर्ध ग्रामीण केंद्र पर शाखा प्रबंधक की पद स्थापना के समय अवश्य कुछ ग्राहक अपनी बाइक रोककर गंतव्य स्थान तक छोड़ने का आग्रह अवश्य करते थे। लेकिन परदेश में तो कोई जानकार है ही नहीं! इसको समझने में कुछ समय लग गया, हम ये भूल गए थे कि हम अब सेवानिवृत हो चुके हैं।
जब भी पदयात्रा पर कहीं जाते हैं, तो निर्धारित स्थान पर वाहन चालक हमसे पहले जाने की उम्मीद करते हैं। शायद इनको भी बचपन से लखनवी तहज़ीब का ज्ञान दिया गया होगा। कट मारकर तेजी से अपना वाहन ओवर टेक करना हमारे देश में गतिशील बने रहने का हुनर माना जाता है।
हमारे देश में तो अभिनेता और नेता आपको सड़क पर ही कुचल कर आगे निकल जाते हैं। कानून भी ऐसे मौकों पर आँखें मूंदे हुए रहता है। ये भी हो सकता है, यहां पर कानून की आँखें हमेशा खुली रहती हों।
जिन भवनों/ प्रतिष्ठानों के स्वचालित दरवाजे में प्रवेश करने के समय आपके आगे चलने वाला व्यक्ति भी सम्मान में दरवाजा पकड़ कर आपको प्रवेश करने में सहजता से अपनी तहज़ीब का परिचय दे देता है।
कुल मिलाकर यहां के निवासी आतुर नहीं हैं, क्योंकि उनको हमारे देश के लोगों के समान व्हाट्सएप जैसे अन्य सामाजिक मीडिया में घुसे रहने की लत जो नहीं है।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण गीत – एक लहर कह रही है कूल से।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 114 – गीत – एक लहर कह रही है कूल से
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “पक्ष में होंगी…”।)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य – “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू”।)
☆ व्यंग्य # 163 ☆ “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं । हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)
गांव के खपरैल मकान की गोबर लिपी खुरदुरी जमीन पर जब हम रात तीन बजे उतरे, तो नाइन ने लालटेन की रोशनी में सब्जी काटने की चाकू से नरा काट दिया था और शरीर को उल्टा पुल्टा कर के नाम ढूंढा था पर शरीर में कहीं भी नाम लिखा नहीं आया था। नाइन को शरीर में ऐसा क्या कुछ दिखा कि उसने नवजात शिशु का नाम ‘लड़का’ रख दिया। नाम की शुरुआत यहीं से हो गई।
सुबह गांव के चौपाल में लड़का होने की बात हुई और ये भी बात हुई कि आज से मुगलसराय का नाम बदल गया ।कुछ दिन बाद मालिश करते हुए नाइन बड़बड़ाई कि लो अब इलाहाबाद और हबीबगंज भी हाथ से गया ।
मालिश के प्रताप से लड़के के शरीर में चर्बी फैलने लगी तो कोई कहता क्यूट बेबी, कोई कहता वाह रे लल्ला, कोई कहता मुन्ना रे मुन्ना, कोई कहता होनूलुलु…… न जाने किस किस नाम से रोज पुकारा गया। दिन में पांच सात बार नाम बदलते रहे। दशरथ के पुत्र बड़े भाग्यवान थे कि जब ठुमक के पहली बार चले तो पूरी दुनिया गाने लगी……
“ठुमक चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियां”
इस प्रकार धरती पर पहली बार ठुमक के चलने से उनको स्थायी नाम मिल गया। इधर हमारे गरीब परिवार के अधिकांश बच्चों को स्थायी नाम स्कूल का हेड मास्टर ही मजबूरी में दे पाता है।
जिनका नाम नहीं होता वह इंसान नहीं होता, इसलिए पुराने जमाने में पत्नी अपने पति का नाम नहीं लेती थी, पति को पप्पू के पापा कहके पुकारती थी।
नाम रखने में बड़े चोचले होते हैं, नाइन कुछ नाम लेकर आती है, नानी कुछ नाम और भेजती है, आजा – आजी कुछ और नाम रखना चाहते हैं, नाम रखने की प्रतियोगिता होती है फिर नाम रखने में ईगो टकराते हैं और नाम रखने के चक्कर में बाप-महतारी लड़ पड़ते हैं इस प्रकार नाम रखने का काम टलता जाता है। पांच साल लल्ला- मुन्ना जैसे टेम्प्ररी नाम से काम चलता रहता है। प्रापर नाम नहीं मिलने से घर में ऊधम जब बढ़ जाता है तो ऊधम करने वाले की हेड मास्टर के सामने पेशी हो जाती है। हेड मास्टर बोला स्कूल में ये लल्ला – मुन्ना नहीं चलेगा कोई परमानेन्ट नाम देना पड़ेगा, ऐसा नाम जिसको रिकार्ड करना पड़ेगा और वही नाम भविष्य में समाज, शासन, आधार कार्ड, वोटर कार्ड और अंत में श्मशान में काम आयेगा।
शहरों, स्मारक, स्टेशन के नाम परिवर्तन को लेकर कालेज की वाद विवाद प्रतियोगिता में विवाद की स्थिति पैदा हो गई। राम के नाम पर भी विवाद हो गया। जिस नाम को सामाजिक मान्यता मिल जाती है उसको बदलने से आक्रोश पैदा होता है। पक्ष और विपक्ष में टकराव होता है, राज पथ का नाम अब कर्तव्य पथ हो रहा है। इतिहास को खोद कर नये विवाद पैदा किये जाते हैं। नियति के बदलने से नाम बदलने का जुनून सवार हो जाता है।
नाम बदलने के कई छुपे हुए कारण है कुछ होता-जाता नहीं है तो नई चाल खेली जाती है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन में जिस शहर का नाम सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में आ जाता है उन शहरों के नाम बदल के सूची से नाम दूर हो जाता है और यदि अकबर से बदला लेने का मूड बन गया तो इलाहाबाद को प्रयाग राज कर दिया जाता है जिससे नाम परिवर्तन करने वाले का इतिहास में नाम दर्ज हो जाता है।
स्वीटी है कि अपनी जिद पर अड़ी है कहती है – नाम-वाम में कुछ नहीं रखा है काम से मतलब है काम करोगे तो नाम होगा, स्वीटी की बात सुनकर किसी ने कहा – ‘नाम गुम जाएगा…. चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान है….. और यदि आवाज भी खराब हो गई तो आधार तो है आधार से काम चल जाएगा उसमें नाम मिल ही जाएगा। देखो भाई, सीधी सी बात ये है कि नाम में क्या रखा है काम से नाम होता है।
दशरथ के पुत्र राम का नाम उनके काम से हुआ, वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाए, तभी तो सब कहते हैं…….
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है…#”)