(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय एवं स्त्री विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी एवं भावप्रवण लघुकथा “ रोज डे”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 150 ☆
🌹 लघुकथा 🌹 रोज डे 🌹
एक ही शहर में एक जगह रमाकांत बाबू अपनी पत्नी और बेटी के साथ फ्लैट में रहते थे और उसी शहर में उनका बेटा निवेश और बहू नित्या रहते थे।
पहले घर का वातावरण इतना अच्छा नहीं था। रमाकांत ने अपनी छोटी सी नौकरी से दोनों बच्चों को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाया। समाज के उच्च वर्ग से निवेश की शादी नित्या के साथ विधि-विधान से संपन्न कराए। कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य चलता रहा परंतु बड़े घर की बेटी और नाज – नखरो से पली नित्या को उनका छोटा सा फ्लैट रास नहीं आया।
रोज-रोज की कहासुनी से तंग आकर निवेश ने अपने ऑफिस के पास ही प्राइवेट रूम ले लिया। जो रमाकांत के घर से बहुत दूरी पर था। शायद रोज-रोज जाना नहीं होता और अब तो महीनों आना-जाना नहीं होता।
दिन बीतते गए पहले तो फोन कॉल आ जाता था, परंतु अब कभी कभार ही फोन आता था। माँ बेचारी चुपचाप अपनी बेटी की शादी की चिंता और घर की परेशानी को देख चुप रहना ही उचित समझ रही थी।
उसे याद है अक्सर जब भी वैलेंटाइन सप्ताह होता था रोज डे की शुरुआत भले ही नित्या अपने तरीके से करती थी परंतु निवेश अपने मम्मी पापा को बहुत खुश रखना चाहता था उन्हें दुखी नहीं करना चाहता था। इसलिए वह इसे कहता सब अंग्रेजी पद्धति है। हमारे संस्कार थोड़े ही हैं, परंतु नित्या इसे अपना स्टेटस मानती थी, और एक एक गुलाब का फूल मम्मी – पापा को दिया करती थे।
आज फिर रोज डे था मम्मी को किचन में उदास देख बेटी से रहा नहीं गया। वह पापा का हाथ पकड़ कर ले आई….. “देखो मम्मी भैया भाभी नहीं है। तो क्या मैं अपने और आपके साथ रोज डे बनाऊंगी और मैं कभी नहीं जाने वाली।” आँखों से अश्रु धार बह चली। तभी डोर बेल बजी। मम्मी ने दरवाजा खोला। कई महीनों बाद आज बेटा बहू को हाथ में गुलाब का फूल लिए देख एक किनारे होते हुए बोली… “आओ हम रोज डे मना ही रहे थे।” यह कहते हुए वह बिटिया का लाया हुआ फूल अपने बेटा बहू की ओर बढ़ाते हुए बोली…. “बेटा हम ठहरे बूढ़े और यह सब हम नहीं जानते।
परंतु क्या रोज डे की तरह तुम रोज ही आकर एक बार हम सभी से मिलोगे।” यह कह कर वह फफक पड़ी और रोने लगी। निवेश के हाथों से रोज नीचे गिर चुका था, और माँ के गले लग वह कहने लगा “हाँ माँ मैं रोज डे आपके साथ रोज मना लूंगा। अब हम रोज ही रोज मिलने का डे मनाएंगे।”
पापा जो दूर खड़े थे पास आकर गले लग लिए। आज इस रोज डे का मतलब कुछ और ही समझ आ रहा था। भाव की अभिव्यक्ति जाहिर कर माँ ने अपने परिवार को सहज शब्दों में समेट लिया।
तभी बहू बोल उठी….” अब हम सब मिलकर वैलेंटाइन डे मनाएंगे” सभी एक बार खिलखिला कर हंस पड़े।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण गीत – बजी राग की रणभेरी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 124 – गीत – बजी राग की रणभेरी…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी – “॥ गजल ॥”)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित माइक्रो व्यंग्य – “दास्ताने दर्द…”।)
☆ व्यंग्य # 173 ☆ “दास्ताने दर्द…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
दास्ताने दर्द…
डाक्टर, अस्पताल, दवाई और ठगी, लुटाई शब्दों के गठबंधन ने सांस लेना दूभर कर दिया है दूरदराज गांव के अपढ़ गरीब डाक्टर, अस्पताल और दवाओं से त्रस्त हैं। पेट खोलकर पैसे का तकाजा करना। लाश को कई दिनों तक वेंटिलेटर में रखकर बिल बढाना, बिल जमा होने पर ही लाश देना ऐसे अनगिनत कितने हादसों की लम्बी कतार है। एक गांव के गरीब मरीज के वेदनामय स्वर को हम इस व्यंग्यकथा के रुप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो एक गांव के गरीब मरीज की दर्द भरी दास्तान है।
“गांव के गरीब मरीज के हंसते हुए वेदनामय स्वर”
दुनिया रंगमंच जैसी है, खूब अभिनय भी कराती है, रुलाती भी है…. खुद पर शाबासी भी दे देती है। किस पर विश्वास कर लें।
सूरज आज भी निकला है। हवाएं बह रहीं हैं तेज… बेशर्म के हजारों फूल खिलखिलाकर हंस रहे हैं। नदिया के किनारे काले पत्थर में बैठकर नहाने – धोने की बात सोचते – सोचते फिर पेट में दर्द का इतिहास उखड़ गया है। गांव के नाड़ी वैद्य को दिखाया था तो पेट पकड़ कर बोले थे – शीत वात पित्त का लफड़ा है तुम्हारे पेट में तीनों इकठ्ठे होकर राजनीति कर रहे हैं आपस में दलबदल कर रहे हैं जब पित्त दलबदल कर शीत बन जाता है तो वात पेट में मरोड़ लाता है। दो महीने चूर्ण खाना, दो जनेऊ पहन लेना फिर चुनाव के बाद देखते हैं। बड़ी गजब बात है कि गांव के लिए डॉक्टर बनाए जाते हैं और गांव में कोई पढ़ा लिखा डाक्टर आने तैयार नहीं होता। सुना है कि कहीं जुगाड़ नहीं बैठा तो एक कोटे वाली डाक्टरनी पिछले हफ्ते आयी है गांव। सो हम नहाए भी खूब और धोए भी खूब फिर डाक्टरनी बाई को दिखाने चल दिए, डाक्टरनी ने दो पाइप दोनों कान में डाले और चिटी धप्प जैसी चीज पेट में रख दी… गुदगुदी हुई तो डाक्टरनी बोली – “पांव भारी हैं…. जुड़वे लग रहे हैं। गांव भर में हवा फैल गई कि हमारे पांव भारी हैं, गांव की महिलाएं गर्म भजिया और खट्टी चटनी खिलाकर पुण्य कमाने के चक्कर में थीं। पड़ोसन ने खट्टे आम टोकनी भर भिजवा दिये। हम कहीं मुंह दिखाने काबिल नहीं रहे तुरंत जनेऊ उतार के फेंक दिया। घरवाली भी शक की निगाह से देखने लगी…. एक तो पेट में दर्द और ऊपर से लांछन पे लांछन…. ।तंग आ गये पैर तरफ नजर डाली तो पैरों में खूब सारी सूजन और अब सचमुच पैर भारी लगने लगे। पत्नी बोली – चलो पास के शहर में दिखा लेते हैं, हो सकता है कि डाक्टरनी झूठ बोल रही हो क्योंकि आजकल झूठ बोलने का फैशन बढ़ गया है, कुछ मालूम नहीं तो झूठ बोल कर टाल दो…. झूठ की अपनी महत्ता अपनी उपयोगिता और अपना इतिहास है यूं तो झूठ का ‘विकास’ मानव सभ्यता के साथ हुआ पर इन दिनों झूठ – झटका और विकास का बोलबाला है। वे “झूठ बोले कौआ काटे….” वाला गाना सुनकर खूब झूठ बोलते हैं झटके मारते हैं पर कौआ उनको नहीं काटता इसलिए वे फेंकू उस्ताद कहलाते हैं। झूठे अच्छे दिन आने वाले हैं। बड़ा गजब है झूठ बोलने वाला होशियारी और दिलेरी से सफेद झूठ बोलता है और सुनने वाला उसे पूरी सच्चाई से सुनकर मान लेता है…… पत्नी लगातार बड़बड़ाये जा रही है। पत्नी जब बड़बड़ा रही हो तो बीच में बोलने से फटाके जैसे फट पड़ती है इसलिए उस समय चुप रहने से सुरक्षा बनी रहती है सो हमने चुप रहना ज्यादा ठीक समझा, चुप रहने का भी इतिहास है जनेऊ कान में लगाने से चुप रहने की कला सीख सकते हैं।
चुपचाप कपड़े – लत्ते रखके बस में बैठ गए, शहर पहुंचे तो डॉक्टर बोला – पैर में सूजन मतलब किडनी में गड़बड़ी…… तुरत-फुरत डाक्टर ने कहीं फोन लगाया “किडनी आ गई है”। भर्ती किया सब टेस्ट कराए आपरेशन कर दिया हम का जाने कि आजकल किडनी की चोरी भी होत है। कुछ दिन में छुट्टी हुई बोला – दो महीने बाद दिखाना। दो महीने बाद गये तो पैरों की सूजन और बढ़ गई है डाक्टर बोला – दिल का मामला है हार्ट वाले को दिखाओ, हमने अपना काम कर लिया है।
हार्ट वाला डाक्टर बोला – ‘ब्लॉकेज ही ब्लॉकेज हैं’ तभी तो पैर भारी लग रहे हैं पैरों में भरपूर सूजन है, एंजियोगराफी, एंजियोप्लास्टी और न जाने क्या क्या करके पत्नी के गहने और घर बिकवा दिया, बोला – जी है तो जहान् है…… ।पत्नी फिर बड़बड़ाने लगी – ये सब झूठे हैं, ठगने के बहाने डराते हैं, साले सब परजीवी हैं, गरीबों पर दया नहीं करते, एक किडनी चुरा ली, अब दिल चुराने में लगे हैं, कोई पांव भारी हैं कहता है कोई दिल की नाली चोक की बात करता है,………. हमने फिर पत्नी को टोंका – भागवान थोड़ा चुप रहो डाक्टर सुन लेगा तो बिल बढ़ा देगा…… बिल बढ़ने के नाम पर पत्नी थोड़ा चुप हो गई।
आठ महीने बीत गए थे कुछ हो नहीं रहा था नौवें महीने की शुरुआत हो चुकी थी पेट में उथल-पुथल मची गई, पीड़ा का इतिहास पर्वत बन रहा था पेट और पांव की सूजन इतिहास बनाने के लिए दोंदरा मचा रही है।
कोई ने कहा – बराट को दिखाओ पुराना डाक्टर है मर्ज पकड़ लेता है, सो एक दिन बराट के दवाखाने चले गए। डाक्टर ने लिटाया और पूछा – कैसा लगता है ?
हमें गुस्सा आ गया हम बोले – “का कैसो लगत है” सब डाक्टर परजीवी जैसे लगते हैं, कभी पत्नी भी परजीवी लगती है बच्चे होते तो वे भी परजीवी लगते, सब कुछ परजीवी लगता है कभी पड़ोसी तो कभी मेहमान भी परजीवी लगते हैं। कभी कभी लगता है एक भारत माता है और उसकी आंतों में बड़े बड़े परजीवी मंत्री, नेता अफसर, डाक्टर सब चिपक कर खून चूस रहे हैं फिर कभी लगता है कि 140 करोड़ आबादी अच्छे दिन ले के आओ कह के चिल्ला रही है और उनकी आवाज दबाने हर क्षेत्र में नये-नये परजीवी पैदा हो रहे हैं जिन्होंने देश को भाषा धर्म और जाति के आधार पर बांट रखा है कुछ परजीवी बनकर कुर्सियों में चिपके हैं और भ्रष्टाचार फैला रहे हैं……. ज्यादा मुंह चलता देख डाक्टर ने ऐसा पेट दबाया कि हमारा मुंह बंद हो गया……….
डाक्टर बोला – जिन परजीवियों की बात कर रहे हो सब तो तुम्हारे पेट में भरे हैं बहुत से जुड़वा भरे हैं। सुन के हम डर गये, बड़ी मुश्किल है कि हमने कुछ किया ही नहीं तो इतने सारे कहां से भर गये, घबराके भागने लगे तो डाक्टर ने पकड़ लिया…. ढाढस बंधाया बोला – “आपरेशन नहीं करुंगा…. गोली से निकाल दूंगा।
हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था सो हम अब हर बात पर हां… हां करते हुए बैठ गए।
डाक्टर ने तीन गोली एक साथ खिलाई। रात भर सोये, सुबह रेल पटरी के किनारे खुले में शौच करने बैठे तो भलभला के निकलने चालू हो गये….
पहले दो निकले आधे निकले और फंस गए तो हमने खींच के निकाला, फिर दो और निकल आए, दो – दो करते निकलते रहे, हम खींचतान करके निकालते रहे। लाईन लगा के निकलते रहे। इतिहास रच डाला। फिर हमने सबको धोया – पोंछा और पत्नी को दिखाया…. पत्नी की जीभ निकल आयी बोली – अरे…. ये तो पटार हैं पटार पेट में पाया जाने वाला एक्स्ट्रा लार्ज परजीवी कृमि है परजीवी बनके चूस डाला। पांव भारी करके बदनामी करायी, इनके चक्कर में किडनी चोरी हुई, दिल का दिवाला निकल गया। जाओ नाली में फेंक दो इनको…….. ।
पेट से निकले पटारों को देख देख कर अंदर से बड़ी आत्मीयता और ममता फूट रही है क्यों न फूटे…. नौ महीने से पेट में पले बढ़े हैं नौ महीनों से इन्होंने भी भूख प्यास, सुख दुख सब कुछ मेरे साथ सहा है, और पेट में ही रहे आये इधर उधर भगे नहीं, इन्होंने नयी-नयी देशभक्ति जैसी निभाई चूसते भले रहे पर आधार को लिंक करने की मांग नहीं उठाई। जीव हत्या का पाप डाक्टर को लगेगा पर हमें इन पर दया आ रही है ये जो लम्बे लम्बे तंदुरुस्त से पड़े हैं। इन बेचारों ने डाक्टरों के इतिहास के काले पन्ने पढ़ने का मौका दे दिया। पटार महराज ने हमें इतिहास लिखना सिखा दिया।
गिला किसी से नहीं……. शिकायत किसी से नहीं…. दर्द अपनी जगह था पर अपना अपना इतिहास में हमारे पटार महराज का इतिहास निखालिस कहलाएगा, हालांकि इतिहास विवाद का विषय बनता जा रहा है इन दिनों, इतिहास से राजनीति गरमा जाती है, इतिहास से दंगा फसाद का डर हो गया इन दिनों। नाक कटने का डर….. गला काटने के फरमान। इतिहास पर फतवे……. राम… राम ।खेल खतरनाक हो रहा है पर गीता पर हाथ रखकर हम कह रहे हैं कि पटार प्रकरण इतिहास सत्य है और सत्य के अलावा कुछ नहीं है और न ही इस इतिहास में कोई खतरे हैं।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# चलो इक बार…#”)
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
शिकागो मध्ये मत्सराग्नि भडकलेला होता. मिशनरी तर विरोधात गेले होतेच पण बोस्टनला जेंव्हा स्वामीजी महाविद्यालयात व्याख्यान द्यायला गेले होते त्यावेळी च्या व्याख्यानाने विद्यार्थी भारावून गेले होते. इतके की,त्या दोन दिवसांच्या भेटीमुळे म्हणा किंवा स्वामींच्या दर्शनाने वा ऐकलेल्या विचाराने म्हणा, भविष्यात काहींचे जीवनच प्रभावित झाले होते. त्यातालीच एक विद्यार्थिनी होती, मार्था ब्राऊन फिंके. त्या दोन दिवसांच्या आठवणीवर मार्था तिचे आयुष्य बदलवू शकली.
मार्था ज्या कॉलेजमध्ये शिक्षण घेत होती ते स्मिथ कॉलेज म्हणून ओळखलं जात होतं.स्त्रियांच्या उच्च शिक्षणासाठी १८७५ मध्ये सोफाया स्मिथ यांनी हे महाविद्यालय स्थापन केले होते. हे कॉलेज एक वैचारिक केंद्र म्हणून प्रसिद्ध होतं. न्यू यॉर्क आणि बॉस्टन च्या बरोबर मध्यावर नॉर्थअॅम्प्टन हे मॅसॅच्युसेटस राज्यातले टुमदार गाव होतं. त्या गावात हे कॉलेज होतं. मार्थाचं घर थोडं जुन्या वळणाचं होतं. जुन्या संस्काराच होतं. प्रोटेस्टंट ख्रिश्चन होते ते. त्यामुळे कॉलेजला बाहेर पाठवताना तिच्या आईवडिलांना तिची काळजी वाटत होती.बाहेर पडलेल्या मुली मुक्त विचारांच्या होतात असा सर्वांचा समज होता. कॉलेजला गेलेल्या मुली धर्म वगैरे मानत नाहीत असा अनुभव काहींचा होता.तिथे वसतिगृहात मुली राहत असत. वसतिगृहात जागा शिल्लक नसल्याने मार्था कॉलेज परिसरातच भाड्याने राहत होती.
ज्यांच्या घरात राहत होती ती घरमालकिण स्वभावाने कडक होती. पण चांगली होती. त्या कॉलेजमध्ये अधून मधून विचारवंत भेटी देत असत. असेच एकदा स्वामी विवेकानंद यांची नोहेंबर मध्ये दोन व्याख्याने असल्याचे तिथल्या सूचना फलकावर लिहिले होते. ते एक हिंदू साधू आहेत एव्हढेच त्यांच्या बद्दल आम्हाला माहिती होते असे मार्थाने तिच्या आठवणीत म्हटले आहे.ते एव्हढे मोठे आहेत हे माहिती नव्हते. त्यांची सर्व धर्म परिषदेतील किर्ति यांच्या पर्यन्त पोहोचलेलीही नव्हती.पण कुठून तरी कानावर आल की हे हिंदू साधू, मार्था राहत असलेल्या घरमालकिणी कडेच उतरणार आहेत आणि त्यांच्या बरोबर या मुलींचे जेवण पण असणार आहे. त्यांच्या बरोबर आम्ही मुली चर्चा पण करू शकणार होतो याचे तिला फार अप्रूप वाटले होते.त्यामुळे सर्वजनि घरमालकिणीवर जाम खुश होत्या. त्यांनी आपल्या या मालकिणीला उदार मतवादी म्हटले आहे कारण आपल्याकडे एका काळ्या माणसाची राहण्याची सोय करायची म्हणजे त्याला काळी हिम्मतच असावी लागते असे त्यांना वाटत होते.बहुतेक गावातील हॉटेलांनी त्यांना प्रवेश नाकारला असेल असेही त्यांना वाटलं.
मार्था म्हणते, आम्ही लहानपणापासूनच भारताचे नाव ऐकतं होतो कारण माझी आईसुद्धा हिंदुस्थानात जाणार्या मिशनर्याशी लग्न करणार होती.आमच्या चर्चमधून दरवर्षी भारतीय स्त्रियांसाठी मदतीची एक भली मोठी पेटी पाठवली जात असे. शिवाय त्यान काळात भारतबद्दल इतर माहिती अशी होती की, भारत हा एक उष्ण देश आहे. तिथे सगळीकडे साप फिरत असतात. तिथले लोक इतके अडाणी आहेत की, दगडा समोर किंवा लाकडासमोर डोके टेकवतात.बापरे . मारथाचे वचन चांगले होते तरी सुद्धा तिला भरता बद्दल फारशी माहिती नव्हती. ख्रिश्चन धर्मियांच्या दृष्टीकोणातून लिहिलेली भारताची माहिती फक्त तिला माहिती होती. एखादा भारतीय भेटून त्याच्याशी बोलायला कधी संधी नव्हती मिळाली.
त्यामुळे मार्था च्या घरमालकिण बाईंकडे विवेकानंद हे हिंदू साधू उतरणार तो दिवस आला. त्या दिवशी पाहिलेले स्वामी विवेकानंद कसे होते याचं तिने वर्णन केलय की, ‘ते उतरणार ती खोली तयार करण्यात आली. भारदस्त व्यक्तिमत्व,एक कला प्रिन्स अल्बर्ट कोट,काली पॅंट ,डोक्यावर डौलदार फेटा घातलेला अलौकिक चेहर्याचा, डोळ्यात विलक्षण चमक असलेला,असा हिंदू साधू ! घरी आल्यावर सर्व जानी भारावून गेल्या. मार्था म्हणते, मला तर तोंडून काही शब्दच फुटत नव्हते.इतकी भक्तिभावाने ती हे व्यक्तिमत्व बघत होती. संध्याकाळी व्याख्यान झाले त्यानंतर प्रश्नोत्तरे.
घरी त्यांना भेटायाला तत्वज्ञानाची प्राध्यापक मंडळी, चर्चचे धर्माधिकारी, प्रसिद्ध लेखक, आले होते. चर्चा सुरू होती. सर्व मुली एका कोपर्यात बसून ऐकत होत्या. विषय होता, ख्रिश्चन धर्म – खरा धर्म. हा विषय स्वामीजींनी नव्हता निवडला, आलेल्या विचारवंत मंडळींनी निवडला होता. ते सर्व स्वामीजींना आव्हान देत होते. त्यांच्या त्यांच्या धर्माची माहिती असलेले मर्मज्ञ विषय मांडित. मार्थाला वाटले होते की स्वामीजी तर हिंदू त्यांना काय इकडचे कळणार व त्यावर कसे तोंड देणार? पण उलटेच झाले होते. स्वामी विवेकानंद आपली बाजू मांडताना, प्रती उत्तर देताना बायबल, इंग्रजी तत्वज्ञान, धर्मज्ञान, वर्डस्वर्थ, व थॉमस ग्रे यांचे काव्य संदर्भ देऊन बोलत होते. ठामपणे बोलत होते. स्वामीजींनी त्यांच्या बोलण्यातून धर्माच्या कक्षा अशा रुंद केल्या की त्यात सर्व मानवजात सामील झाली आणि वातावरण बदलून गेले. मुक्त विचारांनी दिवाणखान्यातील वातावरण भारावून गेले.या हिंदू साधुनेच बाजी मारली. त्यामुळे मी पण उल्हसित झाले असे मार्था ने लिहून ठेवले आहे. मार्था म्हणते आमच्या कॉलेज मधली मंडळी धर्माच्या बाबतीत फार संकुचित विचारांची होती. स्वतालाच ती शहाणी समजत. या बौद्धिक पातळीवरील चर्चेत स्वामीजींचा झालेला विजय मार्था च्या कायम लक्षात राहिला होता.
मार्थाने आणखी एक विशेष आठवण सांगितली आहे. तिथल्या वास्तव्यात दुसर्या दिवशी सकाळी, बाथरूममधून पाण्याचा आवाज व त्याबरोबर अनोळखी भाषेतले स्तोत्रपठण ऐकू येत होते. ते ऐकण्यासाठी सर्व मुली घोळक्याने दाराबाहेर उभ्या राहिल्या. एकत्र ब्रेकफास्ट च्या वेळी मुलींनी या स्तोत्राचा अर्थ स्वामीजींना विचारला.त्यांनी उत्तर दिलं, “प्रथम मी डोक्यावर पाणी ओततो . नंतर अंगाखांद्यावर. प्रत्येक वेळी सर्व प्राणिमात्रांचे कल्याण व्हावे म्हणून मी ते स्तोत्र म्हणतो”. हे ऐकून मार्था आणि मुली भारावून गेल्या. मार्था म्हणते, “मीही प्रार्थना करत असे पण ती स्वतसाठी आणि नंतर कुटुंबासाठी. समस्त मानवजातीसाठी व प्राणिमात्रासाठी आपलेच कुटुंब आहे असे समजून प्रार्थना करावी असे कधीच मनात आले नव्हते आमच्या”.
ब्रेक फास्ट नंतर स्वामीजी म्हणाले चला बाहेर फिरून येऊन थोडं, म्हणून आम्ही चार मुली त्यांच्या बरोबर गेलो . गप्पा मारत चाललो होतो, माला एव्हढेच आठवते की, ख्रिस्ताचे रक्त हा शब्दप्रयोग वारंवार केला जातो. हे शब्द मला कसेचेच वाटतात असे ते म्हणाले होते.यावर मीही विचार करू लागले. मलाही हे उल्लेख आवडत नव्हते. पण चर्चच्या तत्वांच्या विरुद्ध उघडपणे बोलायचे धैर्य हवे. पण इथेच माझ्यातील स्वच्छंद आत्म्याने मुक्त चिंतांनाचा स्त्रोत त्या क्षणी खुला केला आणि मी कायमची मुक्तचिंतक झाले. विषय बदलून मी त्यांना वेदांबद्दल विचारले कारण त्यांनी आपल्या भाषणात वेदांचा उल्लेख केला होता. मी वेद मुळातून वाचावेत असे त्यांनी माला सांगितले. मी त्याच क्षणी संस्कृत शिकण्याचे ठरविले . पण ते शक्य झाले नाही पुढे.
यावरून एक गोष्ट गमतीची आठवली. उन्हाळ्यात आमच्याकडे नवीन गुर्नसी पारडू पाळीव प्राण्यांमध्ये समाविष्ट झाले. माझ्या वडिलांनी तो माझ्याकडे सोपविला. त्याचे नाव मी वेद ठेवले. दुर्दैवाने ते वासरू लवकरच मेले. माझे वडील गमतीने म्हणाले की तू त्याचे नाव वेद ठेवले म्हणूनच ते गेले.
नंतर स्वामीजी परत एकदा अमेरिकेत येऊन गेले, ते कळले नाही. मग काहीच संबंध नाही आला. पण त्या दोन दिवसात स्वामीजींच्या विचाराने मार्था चे जीवनच उजळून गेले असे ती म्हणते. तिने वडिलांना पत्र लिहून हा वृत्तान्त कळवला तर ते घाबरून गेले. आपल्या घराण्याचा धर्म सोडून ही स्वामीजींबरोबर त्यांची शिष्या होऊन निघून जाते की काय अशी त्यांना भीती वाटली.
मार्था ने तिचे हे स्वतंत्र विचार तिच्यापुरतेच मर्यादित ठेवले. तिच्या मते मी लगेच हे अमलात आणले असते तर, जीवनात मला लगेच त्याचा उपयोग झाला असता. खूप वेळ वाया गेला. पण ती निराश नाही झाली. आतापर्यंत जरी चाचपडली असली तरी विचार पेरले गेले आहेत ते उगवणारच असा तिला विश्वास होता. स्वामीजींनी सांगितलेला वैश्विक धर्म तिच्या अंतकरणात जाऊन बसला होता. ती १९३५ मध्ये जवळ जवळ ४२ वर्षानी, भारतात पहिल्यांदा कलकत्त्यात आली तेंव्हा, प्रथम ती एक प्रवासी म्हणून तिचा प्रवास सुरू झाला तर भारतात पोहोचल्यावर गंगेच्या काठावरील बेलुर मठात स्वामी विवेकानंदांच्या पवित्र स्मृतीचे, समाधीचे दर्शन घेतल्यावर आपण एक विश्वधर्माचे यात्रेकरू आहोत याची मनोमन खात्री झाली. तिथेच आत्मिक आणि मानसिक उन्नतीची ओढ असणार्या मार्था ने या आठवणी सगळ्यांच्या आग्रहाखातर सांगितल्या आहेत. मार्था जर दोन दिवसांच्या विचाराने एव्हढी प्रभावित झाली असेल तर आपल्याकडे हे तत्वज्ञान बारा महीने चोवीस तास उपलब्ध आहे विचार करण्याची गोष्ट आहे .
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य ‘बल्लू की परेशानी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 178 ☆
☆ व्यंग्य ☆ बल्लू की परेशानी ☆
बल्लू कई दिन से ग़ायब है। पहले रोज़ कॉफी-हाउस में पहुँचकर दो-तीन घंटे बहस-मुबाहिसे में बिताना उसका प्रिय शग़ल था। अब वह गूलर का फूल हो गया है और हम उसे तलाशते फिरते हैं।
धीरज चुका तो हम उसके घर पहुँच गये। बुलाने पर निकलकर ड्राइंग-रूम में आया। अचानक ग़ायब हो जाने का कारण पूछने पर उँगलियाँ मरोड़ता धीरे-धीरे बोला, ‘तबियत ठीक नहीं रहती। डिप्रेशन का असर है।’
मैंने पूछा, ‘हे भाई, तू सर्व प्रकार से सुख में है, फिर डिप्रेशन की वजह क्या है?’
बल्लू बोला, ‘भाई, मैं बहुत दिनों से जुमला-वायरस से परेशान हूँ जो मुझे कोरोना वायरस से भी ज़्यादा डराता है। ये वायरस बार-बार हमला करता है। एक जुमला जाता है तो दूसरा उसकी जगह खड़ा हो जाता है। चैन से रहने नहीं देता।’
मैंने पूछा, ‘भाई, तू कौन से जुमलों की बात करता है जो तेरे लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं?’
बल्लू बोला, ‘पता तो तुम सभी को है, लेकिन तुम लोग फिक्र नहीं करते। मैं कुछ ज़्यादा सोचता हूँ, इसलिए ज़्यादा परेशान होता हूँ।
‘जुमले अब टिड्डियों जैसे हमला कर रहे हैं। पहले जब कुछ लेखकों-कवियों ने अपने पुरस्कार लौटाये तो ‘अवार्ड वापसी गैंग’ का जुमला आया। मैंने उसकी फिक्र नहीं की क्योंकि अपने पास तो लौटाने को कोई पुरस्कार था ही नहीं। इसके बाद जे.एन.यू. वाला ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का जुमला आया। उससे भी अपन को कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि अपन को जे.एन.यू. से क्या लेना देना? लेकिन जब ‘देशद्रोही’ वाला जुमला आया तो अपन को डर लगा क्योंकि देशद्रोही की कोई मुकम्मल परिभाषा नहीं थी। किसी को भी इस में लपेट लेना मुश्किल नहीं था।
‘फिर ‘बुद्धिजीवी’, ‘लिबरल’ और ‘स्यूडो सेकुलर’ यानी ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ जैसे जुमले आये। मैंने तत्काल अपने को बुद्धिजीवी कहना बन्द किया और बुद्धिजीवियों की सोहबत में उठना-बैठना बन्द कर दिया। ‘लिबरल’ के ठप्पे से बचने के लिए पोंगापंथी और अंधविश्वास पर टिप्पणी करना बन्द कर दिया, और ‘स्यूडो सेकुलर’ की चिप्पी से बचने के लिए दूसरे धर्मों की तारीफ करने से परहेज़ करने लगा।
‘इसके बाद एक जुमला ‘अर्बन नक्सल’ आया जो काफी ख़तरनाक था। इससे बचने के लिए अपन ने समाज-सेवा और आदिवासी-कल्याण जैसे मंसूबे अपने दिमाग़ से निकाल फेंके।
‘फिर नयी परेशानी तब हुई जब एक मंत्री ने गद्दारों को गोली मारने का नारा लगवाया। मुझे डर इसलिए लगा क्योंकि ‘गद्दार’ की कोई ‘डेफिनीशन’ ज़ारी नहीं हुई। यह स्पष्ट नहीं किया गया कि डेफिनीशन ऊपर से आएगी या गोली मारने वाले अपने हिसाब से गद्दारों को चिन्हित करेंगे। आदमी को विरोधी विचारों वाले सब गद्दार ही लगते हैं।
‘अब ‘सनातनी’ और ‘गैर-सनातनी’ वाले जुमले हवा में तैर रहे हैं और मैं ‘सनातनी’ का मतलब समझने के लिए किताबों से मगजमारी कर रहा हूँ।
‘कुल मिलाकर मैं बहुत परेशान हूँ और बार-बार डिप्रेशन का शिकार होता हूँ।’