हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 179 ☆ व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू   ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू  ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 179 ☆  

? व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू  ?

हर कोई  अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घर-वर देखकर शादी करता है, पर जल्दी ही, वह  कहने लगता हैं- तुमसे शादी करके तो मेरी किस्मत ही फूट गई है। या फिर तुमने आज तक मुझे दिया ही क्या है।  प्रत्येक पति को अपनी पत्नी `सुमुखी` से जल्दी ही सूरजमुखी लगने लगती है। लड़के के घर वालों को तो बारात के वापस लौटते-लौटते ही अपने ठगे जाने का अहसास होने लगता है। जबकि आज के इण्टरनेटी युग मे पत्र-पत्रिकाओं,रिश्तेदारों, इण्टरनेट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती हैं, वहीं रिश्ता किया गया होता हैं यह असंतोष तरह तरह प्रगट होता है । कहीं बहू जला दी जाती हैं, कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती हैं पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उनसे कहीं बेहतर ही हैं, जिनमें लड़की पर तरह तरह के लांछन लगाकर, उसे तिल तिल होम होने पर मजबूर किया जाता हैं।

नवयुगल फिल्मों के हीरो-हीरोइन से उत्श्रंखल हो पायें इससे बहुत पहले ननद, सास की एंट्री हो जाती है। स्टोरी ट्रेजिक बन जाती है और विवाह जो बड़े उत्साह से दो अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और दो परिवारों के मिलन का संस्कार हैं,एक ट्रेजडी बन कर रह जाता है। घुटन के साथ, एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यन्त यह ढ़ोया जाता है। ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरो दम्पत्ति अलग अलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पायेंगे कि विवाह को लेकर अगर-मगर, एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में हैं।

 यदि दामाद को दसवां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वर-वधू की मार्केटिंग सुधारी जावें, तो स्थिति सुधर सकती है। विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लेवें कि उन्हें इससे बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है। वधू की कुण्डली लड़के के साथसाथ भावी सासू मां से भी मिलवा ली जावे। वर यह तय कर ले कि जिदंगी भर ससुर को चूसने वाले पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत्, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन हैं, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकते है।

 वर वधू की एक्सलेरेटेड मार्केटिंग हो।  मेरा प्रस्ताव है ब्राण्डेड वर, वधू सुलभ कराये । यूं तो शादी डॉट कॉम जैसी कई अंर्तराष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं।  एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को लेकर चला था। अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाये सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं। किसी राज्य  मे मामा  तो किसी सरकार में मुख्यमंत्री गरीबो के विवाह रचकर वोट बटोरने की कोशिश कर रहे हैं।  लगभग प्रत्येक अखबार, पत्रिकायें वैवाहिक विज्ञापन दे रहें है,पर मेरा सुझाव कुछ हटकर है।

यूं तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, पर जब से ब्राण्डेड` हीरा है सदा के लिये´ आया हैं, एक गारण्टी हैं, शुद्धता की। रिटर्न वैल्यू है। रिलायबिलिटी है। आई एस ओ प्रमाण पत्र का जमाना है साहब। ये और बात है कि ब्रांडेड हीरा बेचने वाले खुद ही बैंको के रूपये दबाकर विदेशी जेलों में रफूचक्कर हो गए हैं।

बहरहाल आज खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं एगमार्क देखने के आदि हैं, पैकेजिंग की डेट, और एक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़कर हम , कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीदकर खुश होने की क्षमता रखते है। अब आई एस आई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता हम ग्लौबलाईजेशन के इस युग में आई एस ओ प्रमाण पत्र की उपलब्धि देखते है।अब तो  स्कूलों को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिलता है, यानि सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, पर यदि आई एस ओ प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस करके मुआवजा तो पा ही सकते हैं।  मुझे एक  आई एस ओ प्राप्त ट्रेन में  सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत ट्रेन का शौचालय यथावत था जहां विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाये गये थे , मैं सब कुछ समझ गया। खैर विषयातिरेक न हो, इसलिये पुन: ब्राण्डेड वर वधू पर आते हैं-! आशय यह है कि ब्राण्डेड खरीदी से हममें एक कान्फीडेंस रहता है। शादी एक अहम मसला है। लोग विवाह में करोड़ो खर्च कर देते है। कोई हवा में विवाह रचाता है,तो कोई समुद्र में। एक जोड़े ने ट्रेकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिये, एक चैनल ने बकायदा इसे लाइव दिखाया। विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं , उधार लेकर भी बडे  शान शौकत से बहू लाते हैं , विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुये मेरा अनुमान है कि ब्राण्डेड वर वधू अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केट किये जा सकेगें। वर वधु को ब्राण्डेड बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी सफल विवाह की  कोचिंग देगी। मेडिकल परीक्षण करेगी। खून की जांच होगी। वधुओं को सासों से निपटने के गुर सिखायेगी।लड़कियो को विवाह से पहले खाना बनाने से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि ललित कलाओ का प्रशिक्षण दिया जावेगा . भावी पति को बच्चे खिलाने से लेकर खाना बनाने तक के तरीके बतायेगी, जिससे पत्नी इन गुणों के आधार पर पति को ब्लेकमेल न कर सके। विवाह का बीमा होगा। इसी तरह के छोटे-बड़े कई प्रयोग हमारे एम बी ए पढ़े लड़के ब्राण्डेड दूल्हे-दुल्हन सर्टिफाइड करने से पहले कर सकते है। कहीं ऐसा न हो कि दुल्हन के साथ साली फ्री का लुभावना आफर ही व्यवसायिक प्रतियोगी कम्पनी प्रस्तुत कर दें। अस्तु! मैं इंतजार में हूं कि सुदंर गिफ्ट पैक में लेबल लगे, आई एस ओ प्रमाणित दूल्हे-दुल्हन मिलने लगेंगे, और हम प्रसन्नता पूर्वक उनकी खरीदी करेगें, विवाह एक सुखमय, चिर स्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा। सात जन्म का साथ निभाने की कामना के साथ,स्त्री समानता के इस युग मे पत्नी हीं नहीं, पति भी हरतालिका और करवा चौथ के व्रत रखेगें। अपनी तो पिताजी की कराई शादी में गुजर बसर हो गई है नाती पोतो का विवाह शायद ब्रांडेड वर वधुओ के चयन से हो।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 134 ☆ हम बच्चों की शान तिरंगा… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 134 ☆

☆ बाल गीत – हम बच्चों की शान तिरंगा… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

हम बच्चों की शान तिरंगा

भारत नया बनाएँ हम।

मना महोत्सव आजादी का

जीवन को महकाएँ हम।।

 

व्यर्थ न खोएँ आजादी को

वीरों ने बलिदान दिया है।

उस माता पर गर्व करें हम

जिसके सुत ने प्राण दिया है।

 

कर्तव्यों को करें देश हित

मिलकर पर्व मनाएँ हम।

हम बच्चों की शान तिरंगा

भारत नया बनाएँ हम।।

 

पढ़ें – लिखें हम सदा लगन से

खेल – कूद में अव्वल आएँ।

जीवन अनुशासन की कुंजी

तन को अपने सबल बनाएँ।

 

समय कीमती अपना होता

हरदम ज्ञान बढ़ाएँ हम।

हम बच्चों की शान तिरंगा

भारत नया बनाएँ हम।।

 

हर अनीति , छोड़ें कुरीतियाँ

सत पथ को हम अपनाएँ।

धरती पर हम पौधे रोपें

योग , भ्रमण कर मुस्काएँ।।

 

प्रेम , दया , सेवा है उत्तम

गौरव सदा  बढ़ाएँ हम।

हम बच्चों की शान तिरंगा

भारत नया बनाएँ हम।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #134 ☆ हे श्री गुरु दत्तात्रेया…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 134 ☆ हे श्री गुरु दत्तात्रेया …! ☆ श्री सुजित कदम ☆

हा प्रत्येक श्वास माझा दत्तात्रेय गात आहे

दर्शनास गुरुदत्ता आतुरला जिव आहे…!

 

हे श्री गुरु दत्तात्रेया तू आहे चराचरात

भक्तास तारावयाला तू येतो कसा क्षणात …!

 

घेतसे मिटून डोळे मी तुझ्या दर्शनासाठी

चरणी ठेवतो माथा तुलाच पाहण्यासाठी…!

 

हे श्री गुरु दत्तात्रेया दे दर्शन तू मजला

गाणगापूरी आलो मी दत्ता तुला भेटण्याला…!

 

दिगंबरा दिगंबरा जयघोष होत आहे

तू दर्शन देता देवा आनंदला जिव आहे…!

 

दत्तात्रेया कृपा तुझी जन्माचे सार्थक झाले

जाहले दर्शन आणि आयुष्याचे सोने झाले…!

 

ह्या देहास माझ्या आता सेवा तुझीच घडावी

चरणावरीच तुझिया प्राण ज्योत ही विझावी…!

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#156 ☆ कविता – नारद व्यथा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता नारद व्यथा…)

☆  तन्मय साहित्य # 156 ☆

☆ नारद व्यथा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एक बार नारद जी व्याकुल हो

बोले भगवान से

मुझे बचा लो हे नारायण

धरती के इंसान से।

 

अब तो हमें लगे हैं डर

विचरण करते आकाश में

चश्मा दूरबीन नहीं

न पैराशूट हमारे पास में

शोर मचाते हुए विमान

भटकते रहते इधर-उधर

कब वे टकरा जाए हमसे

मन में शंका खास है

डर है वीणा टूट न जाए

मानव वायुयान से

हमें बचा लो हे नारायण….

 

धरती पर जाऊँ तो

वन-पेड़ों का नाम निशान नहीं

सूख गए तालाब सरोवर

नदी कुओं में जान नहीं

कहाँ करूँ विश्राम घड़ी भर

किस पनघट जलपान करूं

पिज्जा बर्गर की पीढ़ी में

राम नहीं रहमान नहीं

देव! न भिक्षा मिलती है

अब नारायण के गान से

मुझे बचा लो हे नारायण ….

 

लोहे कंक्रीट और सीमेंट से

जनता सब बेहाल है

कृषि भूमि पर सड़क भवन

बाजार दमकते मॉल है

हे प्रभु तुम्हीं बताओ

कैसे पृथ्वी पर में भ्रमण करूं

जितने खतरे हैं ऊपर

उतने नीचे भ्रम जाल हैं

कब तक आँखें मूँदे बैठें

नव विकसित विज्ञान से

मुझे बचा लो हे नारायण….

 

बड़े-बड़े घोटाले होते

इंसानों के देश में

डाकू और अय्याश घूमें

फ़क़ीर संतो के वेश में

जिसकी लाठी भैंस उसी की

यही न्याय अब होता है

रहा नहीं विश्वास परस्पर

इस बदले परिवेश में

अब तो यूँ लगता है भगवन

छूटा तीर कमान से

मुझे बचा लो हे नारायण

धरती के इंसान से।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 46 ☆ गीत – गीत गुनगुनाऐंगे… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत गीत गुनगुनाऐंगे…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 45 ✒️

? गीत – गीत गुनगुनाऐंगे…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

शब्द थरथराऐंगे ,

भाव जाग जाएंगे ।

डूब के हम अश्कों में ,

गीत – गुनगुनाऐंगे ।।

 

तुमको मान देवता ,

पूजा किए हैं उम्र भर ,

पत्थरों के बुत पे हम ,

अब ना सिर झुका आएंगे ।।

शब्द…

 

सेज पर बिछी कली ,

तुम ना चैन पाओगे ।

पक्षी अर्धरात्रि को ,

मिलकर चहचहाऐंगे ।।

शब्द…

 

अध खुली आंखों के ,

स्वप्न टूट जाए ना ।

वहीं घरोंदे रेत पर ,

फ़िर से हम बनाएंगे ।।

शब्द…

 

लौट आओ एक बार ,

तुम मेरी पुकार पर ।

ले लो आज इम्तहां ,

ना कभी सताएंगे ।।

शब्द…

 

खींच कर ले आएगी ,

सलमा प्यार की लगन ।

उन हसीन लम्हों में ,

मिलकर मुस्कुराएंगे ।‌।

शब्द…

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये बैंक में प्रमोशन और फिर ट्रांसफर का किस्सा है, हकीकत भी तो यही है. किसी शहर मे रहने के जब आप आदतन मुजरिम बन जाते हैं, आपके अपने टेस्ट के हिसाब से दोस्त बन जाते है, पत्नी की सहेलियां बन जाती हैं और किटी पार्टियां अपने शबाब पर होती हैं, बच्चे उनके स्कूल से और दोस्तों से हिलमिल जाते हैं. आप ये जान जाते हैं कि डाक्टर कौन से अच्छे हैं, रेस्टारेंट कौन सा बढ़िया है, चाट कौन अच्छी बनाता है और आप समझदार हैं कि बाकी चीज़ें कंहा कहां अच्छी मिलती हैं, डिटेल में जाने की जरूरत नहीं है, तब बैंक प्रमोशन टेस्ट की घोषणा कर देता है. मंद मंद गति से बहती, हवा और चलती ट्रेन रुक जाती है. कई तरह की प्रतिक्रियायें होना शुरु हो जाता है.

शायद यह शाश्वत सत्य है कि प्रमोशन का अविष्कार पत्नियों ने किया है. ईमानदारी की बात तो ये भी है कि कोई भी समझदार पर विवाहित पुरुष प्रमोशन चाहता नहीं है क्योंकि बाद में होने वाली  खौफनाक पोस्टिंग से उसको भी डर लगता है पर पत्नी जी का क्या? और अगर आप किसी बैंक कालोनी में रह रहे हैं तो जाहिर है कि कैसे कैसे ताने, उलाहने, चुनोतियों का सामना करना पड़ता है. “देखिये जी ! इस बार अच्छे से तैयारी करना, फेल मत हो जाना हर बार की तरह, वरना आपका क्या आप तो हो ही बेशरम, मुझे तो कालोनी में सबको फेस करना पड़ता है, या तो अच्छे से पढ़कर पास होना वरना फिर मकान बदल लेना. आप करते क्या हो बैंक में. सबसे पहले बैंक जाते हो, सबसे बाद में आते हो फिर आपका क्यों नहीं होता प्रमोशन. वो देखिये, शर्मा जी अभी दो साल पहले तो आये थे और फिर प्रमोट होकर जा रहे हैं. आप भी कुछ सीखो, भोले भंडारी बने बैठे हो. काम करने से कुछ नहीं होता, बॉस को भी खुश रखना पड़ता है. याने बैंक में काम करने वाले पतियों से बेहतर उनकी पत्नियों को मालुम रहता है कि बैंक में प्रमोशन कैसे लिया जाता है. “

प्रमोशन प्रक्रिया में पहले लिखित परीक्षा होती है. पहले तो स्केल 5 तक के लिये written test होते थे. हमारे बैंक में लोग परीक्षा के लिये पढ़ाई करते थे तो दूसरे बैंक इस cooling period में नये बिजनेस एकाउंट कैप्चर कर लेते थे. समझ से बाहर था कि बीस साल की नौकरी के बाद भी साबित करो कि आप बैंकिंग जानते हो. खैर बाद में ये सुधार हुआ और बैंक ने बिज़नेस को priority दी. प्रमोशन होने के बाद और पोस्टिंग के पहले के दिन उसी तरह तनाव मुक्त होते हैं जैसे शादी के बाद और गौने के पहले वाले दिन. ब्रांच में आपको भी काबिल मान लिया जाता है हालांकि पीठ पीछे की कहानी अलग होती है. ” कैसे हो गया यार, आजकल कोई भी हो जाता है, मुकद्दर की बात है वरना अच्छे अच्छे लोग रह गये और इनकी लाटरी निकल गई, कोई बात नहीं, हम तो कहते हैं अच्छा ही हुआ, कम से कम ब्रांच से तो जायेगा. इस सबसे बेखबर खुशी में मिठाई बांटी जाती हैं, दो तीन तरह की पार्टियां दी जाती हैं. फिर आता है पोस्टिंग का टाईम और फिर शुरु होता है जुगाड़ या फरियाद का दौर. यूनियन, ऐसोसियेशन, मैनेजमेंट हर तरफ कोशिश की जाने लगती है. ऐसे नाज़ुक वक्त पर सबसे ज्यादा मजे लेते हैं HR वाले केकयी बनकर. उनके डायलाग, “देखो इंटर माड्यूल की तो पालिसी है, प्रमोटी तो रायपुर ही जाते हैं और फिर वहां से बस्तर रीज़न”, आप निराश होकर और बस्तर को अपना राज्याभिषेक के बाद अपना वनवास मानकर फिर फरियाद जब करते हैं कि आप की तो वहां पहचान है कुछ ठीक ठाक पोस्टिंग करवा दीजिये तो मंथरा की मुस्कान के साथ आश्वस्त करते हैं कि यार 300 किलोमीटर के बाद तो सर्किल ही बदल जाता है, उससे आगे तो चाहेंगे तो भी नहीं कर पायेंगे. फिर तो लगने लगता है कि बैंक में हैं या Border Security Force में. जबलपुर के सदर के इंडियन काफी हाउस में वेज़ कटलेट और फिल्टर काफी का सेवन करने वाला बंदा सुकमा या बीजापुर पोस्टिंग के शुरुआती दौर में वहां भी इंडियन काफी हाउस ढूंढता है, फिर कुछ वहां के स्टाफ के समझाने से ये समझ पाकर कि इंडियन तो हर जगह हैं, काफी बाजार से खरीद कर अपने जनता आवास में खुद बनाकर पीता है और किशोर कुमार का ये गाना बार बार सुनता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन”.

जारी रहेगा…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 156 ☆ लावणी – 1 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 156 ?

☆ लावणी – 1 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

कार्तिकातली थंडी गुलाबी अंगावर काटा आला

अन् राया मला प्रीतीचं पांघरुण घाला ॥

 

सुना गेला दिवाळी सण

कानी आली अशी कुणकुण

अटकाव झालाय चहूबाजूनं

सणासुदीला नाही आला

माझा शिणगार वाया गेला ॥

 

हाती हिरवीगार कांकणं

पायी रूणझुणते पैंजण

मी हिरकण तुम्ही कोंदण

जीव वेडापिसा हा झाला

धाडला सांगावा तरी नाही आला ॥

 

लाखमोलाचं तुमचं येणं

माझं एवढंच एक सांगणं

नाही शोभत असं वागणं

मी पैठणी अन तुम्ही शेला

गाठ बांधलेली विसरून गेला ॥

 

काय नातं तुमचं नी माझं

तुम्ही तुमच्या मनाचं राजं

येण होईल का आजच्या आज?

जणू गुन्हाच की हो घडला

हा जीव तुम्हावरी जडला ॥

 

कार्तिकातली थंडी गुलाबी अंगावर काटा आला

अन राया मला प्रीतीचं पांघरुण घाला ॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक२८ – भाग १ – राणी सातपुड्याची आणि राणी जंगलची ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २८ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ राणी सातपुड्याची आणि राणी जंगलची  ✈️

मध्यप्रदेश म्हणजे भारताचे हृदयस्थान! विविधतेने नटलेला आपला भारत हा एक संपन्न देश आहे. नद्या, पर्वत, जंगले, समुद्र यांचे नैसर्गिक सौंदर्य आणि शिल्पकला, चित्रकला, लोककला, हस्तकला यांचा प्राचीन, संपन्न सांस्कृतिक वारसा आपल्याला लाभला आहे. मध्यप्रदेशमध्ये नर्मदा, शोण, चंबळ यासारख्या महानद्या, सातपुडा, विंध्य यांच्या पर्वतरांगा, हिरवीगार जंगले आणि भरपूर खनिज संपत्ती आहे.इथे आदिमानवाच्या काळातील गुहेतील चित्रकलेपासून खजुराहो, बेतवापर्यंतची अप्रतिम शिल्पकला अशा साऱ्यांचा संगम अनुभवता येतो.

सातपुडा पर्वतरांगांच्या कणखर सिंहासनावर राणीप्रमाणे आरुढ झालेले ठिकाण म्हणजे पंचमढी! भोपाळपासून पंचमढी साधारण दोनशे किलोमीटरवर आहे. तर पिपारीया रेल्वे स्टेशनला उतरून पंचमढीला जाण्यासाठी पन्नास किलोमीटरचा वळणावळणांचा सुंदर घाटरस्ता आहे. दुतर्फा असलेल्या साग,साल,महुआ, आवळा, जांभूळ अशा घनदाट वृक्षराजीतून जाणारी ही वाट आपल्याला अलगद पंचमढीला पोचवते.

ब्रिटिश कॅप्टन फॉरसिथ यांना १८५७ साली पंचमढीचा शोध लागला. कोरकू नावाची आदिवासी जमात हे इथले मूळ रहिवासी होते. ब्रिटिशांनी या थंड हवेच्या ठिकाणाचा काही काळ उन्हाळी राजधानी म्हणूनही उपयोग केला. त्यामुळे इथल्या इमारती, चर्चेस यावर तत्कालीन ब्रिटिश स्थापत्यशैलीचा प्रभाव आहे. सुंदर, स्वच्छ रस्त्यांवरून, स्थानिक छोट्या टुरिस्ट गाडीने आपल्याला तिथल्या वेगवेगळ्या ठिकाणी जाता येते. मुख्य रस्त्यापासून ‘जमुना प्रपात’कडे जाणारा रस्ता उतरणीचा, खडबडीत दगड- गोट्यांचा आहे. दिवाळीच्या सुट्टीमुळे शाळेच्या सहली व इतर अनेक प्रवासी तिथे होते. पाण्याच्या एका वाहत्या प्रवाहात काहीजण डुंबण्याचा आनंद घेत होते . एक अगदी छोटा मुलगा प्रवाहाच्या काठावर बसून एकाग्रतेने हाताच्या ओंजळीत तिथले छोटे मासे येतात का ते पहात होता. प्रवाहावरील लाकडी साकव ओलांडून गेल्यावर पुढ्यात उंच डोंगरकडे व खोल दरी आली. तिथल्या प्रेक्षक गॅलरीतून एक हजार फूट खाली कोसळणाऱ्या धबधब्याच्या, उन्हात चमकणाऱ्या रुपेरी धारा नजर खिळवून ठेवतात.  अनेक उत्साही तरुण-तरुणी दुसऱ्या छोट्या अवघड वाटेने उतरून, धबधब्याच्या तळाशी पोचून मनसोक्त भिजण्याचा  आनंद घेत होते. उन्हाळ्यामध्ये इथल्या दगडी कपारीत मधमाशा मोठमोठी पोळी बांधतात म्हणून या धबधब्याला ‘बी फॉल (Bee Fall)’ असेही म्हणतात.

तिथून पांडव उद्यान बघायला गेलो. एका छोट्याशा टेकडीवर सॅ॑डस्टोनमधील बौद्धकालीन गुंफा आहेत. वनवासाच्या काळात पाच पांडवांनी इथे वस्ती केली होती व त्यावरून या ठिकाणाचे नाव पंचमढी असे पडल्याचे सांगतात. टेकडीभोवतीचे उद्यान विस्तीर्ण आणि अतिशय सुरेख ठेवले आहे.  नाना रंगगंधांची गुलाबाची बाग नजरेत भरत होती. हिरवळीवर निळ्या, केशरी, लाल, पिवळ्या फुलांचे ताटवे फुलले होते. कडेचे वृक्ष त्यांच्यावर चढविलेल्या रंगीत बोगन वेली, पिवळी कर्णफुले यांनी शोभत होते.

दुसऱ्या दिवशी सकाळी ‘हंडी खो’ येथे गेलो. हे ठिकाण म्हणजे सरळसोट कातळांची खोलवर उतरलेली निबीड दरी आहे. नुसते वरून पाहूनच दरीचे रौद्रभीषण सौंदर्य डोळे फिरवीत होते. या ठिकाणी ‘हंडी’ नावाचा ब्रिटिश रेंजर दरीच्या तळाचा ठाव घ्यायला म्हणून गेला तो परतलाच नाही म्हणून या ठिकाणाला ‘हंडी खो’ म्हणजे हंडी साहेब खो गये असे नाव पडले आहे.

तिथून गुप्त महादेव बघायला गेलो. तिथल्या एका सरळसोट उंच वृक्षावरून तशाच दुसऱ्या उंच वृक्षावर शेकरू खारी उड्या मारत होत्या. शेकरू खारी आपल्या नेहमीच्या खारींपेक्षा आकाराने खूप मोठ्या व लांब झुबकेदार शेपूट असलेल्या असतात. आपल्याकडे भीमाशंकरला अशा शेकरू बघायला मिळतात. शेकरू खार महाराष्ट्राचा ‘राज्य प्राणी’ आहे. एका दगडी लांबट गुहेत एका वेळी जेमतेम दोन-तीन माणसे जाऊ शकतील एवढीच जागा त्या गुप्त महादेव मंदिरात होती. खोलवर शंकराची पिंडी होती. आणि डोंगरातील झऱ्यांचे पाणी त्यावर झिरपून वाहत होते. तिथून जवळ असलेले दुसरे महादेवाचे मंदिरही असेच होते पण ही गुंफा खूप मोठी लांबरुंद होती. मध्ये वाहता झरा होता. दोन्हीकडे खूप मोठमोठी माकडे आपल्या हातातील काहीही खेचून  घ्यायला टपलेली होती. या गुंफेच्या एका कडेला दुसरी गुंफा आहे. या गुहेच्या भिंतीवर आदिमानवाच्या काळातली पशुपक्षी, बिनसारखे वाद्य वाजविणारा माणूस अशी चित्रे कोरलेली आहेत.

४५०० फूट उंच असलेले धूपगड हे सातपुडा पर्वतश्रेणीतील सर्वात उंच शिखर आहे. वळणावळणाच्या रस्त्याने दोन्ही बाजूंच्या उंच  सुळक्यांमधून जीप वर चढत होती. मधल्या ‘नागफणी’ नावाच्या कड्यावर धाडसी तरूण  ट्रेकिंगसाठी जात होते. शिखरमाथ्यावर पोहोचलो तर सूर्यास्त पाहण्यासाठी खूप गर्दी लोटली होती. लांबरुंद दरीकडेच्या पर्वतश्रेणीवरील तरंगत्या ढगांच्या कडा सोनेरी तांबूस झाल्या होत्या. सूर्यदेव डोंगराआड अस्ताला जाण्याच्या तयारीत होते. तेवढ्यात एका दाट राखाडी रंगाच्या मोठ्या ढगाने सूर्यबिंब झाकून टाकले. त्या ढगाच्या कडा सोनेरी तांबूस झाल्या. ढगाआडूनच सूर्यदेवांनी निरोप घेतला. निःस्तब्ध, हुरहुर लावणारी शांतता आसमंतात पसरली.

धूपगडच्या शिखर टोकावरील थोड्या मोकळ्या जागेत एक ब्रिटिशकालीन दणकट बंगला आहे. ब्रिटिशांची जिद्द, धाडसी सौंदर्यदृष्टी याचे काही वेळेला खरंच कौतुक वाटते. मोठमोठे चौकोनी चिरे व उत्तम लाकूड  वापरून बांधलेला हा सुबक बंगला शंभर वर्षांहून अधिक काळ लोटला तरी ऊन, वारा, पाऊस,  थंडी यांना तोंड देत सातपुड्यासारखाच ठाम उभा आहे. आता या बंगल्यात म्युझियम केले आहे. सातपुड्याची माहिती देणारे लेख, नकाशे व तिथल्या निसर्गाच्या विविध विभ्रमांचे उत्तम उत्तम मोठे फोटोग्राफ तिथे आहेत. तसेच स्थानिक कोरकू आदिवासींची माहिती, त्यांच्या प्रथा सांगणारे लेख व फोटोग्राफस् आहेत.

पंचमढीला मिलिटरीची तसेच राज्य पोलीस दलाची खूप मोठी ट्रेनिंग सेंटर्स आहेत. प्रवाशांसाठी पॅरासेलिंग, नौका विहार, सातपुडा नॅशनल पार्क अशी आकर्षणे आहेत. पुरातन अंबामातेच्या देवळाचा सुंदर जिर्णोद्धार केला आहे.  बेगम पॅलेसचे भग्नावशेष शिल्लक आहेत. इथले शंभर वर्षांपूर्वीचे  रोमन कॅथलिक चर्च बघायला गेलो.१८९२ मध्ये बांधलेले  हे सुबक सुंदर चर्च म्हणजे ब्रिटिश व फ्रेंच स्थापत्य शैलीचा नमुना आहे.चर्चच्या खूप उंचावर असलेल्या स्टेन्ड ग्लासच्या खिडक्यांवर लाल, निळ्या, पिवळ्या, जांभळ्या रंगांमध्ये सुंदर नक्षी, कमळे, येशू, मेरी यांची चित्रे आहेत. चर्च शेजारी दुसऱ्या महायुद्धातील इटालियन सैनिकांचे चिरविश्रांती स्थान आहे.

आमच्या भोजनगृहाचे नाव ‘अमलताश’ असे होते. अमलताश म्हणजे बहावा (कॅशिया )  वृक्ष इथे भरपूर आहेत. वैशाख महिन्यात या झाडांवरून सोनपिवळ्या रंगाचे लांबट गुच्छ डुलायला लागतात तेव्हा निसर्गदेवतेच्या कानातल्या झुमक्यांसारखे वाटतात. आपल्याकडेही बऱ्याच ठिकाणी हा वृक्ष दिसतो. तिथल्या मुचकुंदाच्या झाडांवर पोपटाच्या चोचीसारख्या आकाराच्या हिरव्या मोठ्या देठातून केशरी- लाल रंगाच्या पाच भरदार पाकळ्यांची फुले उठून दिसत होती. सतेज, प्रसन्न निसर्गसौंदर्याला कुर्निसात करून सातपुड्याच्या राणीचा निरोप घेतला.

मध्यप्रदेश भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 57 – मनोज के दोहे…. दीप ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  द्वारा आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।

✍ मनोज साहित्य # 57 – मनोज के दोहे…. दीप 

1 रोशनी

दीवाली की रोशनी, बिखराती उजियार।

प्रखर रश्मियाँ दीप की, करे तमस संहार ।।

2 उजियार

हिन्दू-संस्कृति है भली, नहीं किसी से बैर।

फैलाती उजियार जग, माँगे सबकी खैर।।

3 जगमग

जगमग दीवाली रही, देश कनाडा यार।

आतिशबाजी देख कर, लगा भला त्यौहार।।

4 तम

तम घिरता ही जा रहा, सीमा के उस पार।

चीन-पाक आतंक का, कैसे हो उपचार।।

5 दीप

दीप-मालिके कर कृपा, फैला दे उजियार।

सद्भभावों की भोर हो, खुलें प्रगति के द्वार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 141 – अंतिम इच्छा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक स्त्री विमर्श पर आधारित भावपूर्ण लघुकथा “अंतिम इच्छा ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 141 ☆

 🔥लघु कथा – 🌿 अंतिम इच्छा 🌿

अचानक फोन की घंटी बजी। विराज ने फोन उठाया, समझ नहीं आया क्या करें? जो परछाई से भी घृणा करतें हैं आज फोन पर बात।

मन ही मन वह सोच और परेशानी से भर उठा। उसकी अपनी सोनमती चाची। जो कभी भी अपने परिवार को ज्यादा महत्व नहीं देती थी। जो कुछ समझती अपने पति और उसकी अपनी अकेली बिटिया। जेठ जेठानी और उनकी संतान को तलवार की नोक पर रखा करती थी। समय पर परिवार बढ़ा ।

बिटिया विवाह होकर अपने ससुराल चली गई। घर दो टुकड़ों में बंट गया। बेटा विराज अपने चाचा चाची को बहुत प्यार करता था उसका भी अपना परिवार बढ़ा । विराज कहता… “हमारे सिवा उनका कौन है?”

बस इसी बात का फायदा सोनमती उठाती थी। घर से कहीं दूर अलग घर बनवाया था और चाचा चाची बेटी दामाद के साथ रहने लगे।

एक दिन अचानक चाची की तबीयत खराब हो गई। अस्पताल में भर्ती कराया गया। अपने दामाद को पास बुलाकर बोली…” मैं जानती हूं मेरे बचने की उम्मीद नहीं है। परंतु मेरे बुलाने पर विराज को आने नहीं देंगे। यदि मैं नहीं बच सकी तो मेरी अंतिम इच्छा समझना और मेरा क्रिया कर्म मेरे बेटे विराज को ही करने देना।”

दामाद जी उनकी बात को सुनकर दंग रह गये क्योंकि उसको भी पता था कि विराज को कभी भी चाची पसंद नहीं करती थी।

सोनमती चाची अपना शरीर छोड़ चली। दामाद को ढूंढा जा रहा था। फोन मोबाइल सब बंद बता रहा था। गांव का मामला था। मिट्टी ज्यादा देर रखने भी नहीं दिया जा रहा था।

परंतु ये क्या? विराज घर आया और अपनी बहन और चाचा से लिपट कर एक दूसरे को सांत्वना दे रहे थे।

चाचा ने बड़ी हिम्मत से कहा… “दामाद जी का फोन नहीं लग रहा है और आसपास कहीं पता भी नहीं चल रहा है। शायद कहीं बाहर चले गए हैं। उन्हें किसी ने आसपास देखा भी नहीं है। ऐसा करो अंतिम संस्कार विराज ही कर दे।”

सभी ने सहमति जताया। आखिर बेटा ही तो है समझा लेगें।

मन में दुविधा बनी हुई थी कि शायद आएंगे तो कहेंगे.. सवाल जवाब होगा और लड़ाई झगड़े वाली बात होगी। जल्दी जल्दी क्रिया क्रम संपन्न हुआ।

विराज ने देखा कि दमाद आ गए हैं। डबडबाई आंखों से प्रणाम करते हुए कहा… “मुझे बेटे का फर्ज निभाने के लिए प्रेरित करने के लिए आपका धन्यवाद।”

दामाद का शांतभाव, मोबाइल बंद और आसपास ढूंढने से भी पता नहीं लगना और विराज का आना, शायद यह बात चाचा जी समझ गए।

उन्होंने कहा सोनमती ने अपनी अंतिम इच्छा से जाते जाते परिवार को कंचन कर गई।

बहन ने अश्रुं पूरित नयनों से मधुर आवाज लगाई भैया खाना बन गया है। खाकर जाना।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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