(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “अम्बर परियां ” (उपन्यास) – उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆
पुस्तक : अम्बर परियां (उपन्यास)
उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली
अनुवाद : श्री सुभाष नीरव
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली।
मूल्य : 350 रुपये (पेपरबैक)
☆ “विवाह जैसी परंपरा पर सवाल उठाता बलजिंदर नसराली का उपन्यास अम्बर परियां” – कमलेश भारतीय ☆
एक दिन मित्र डाॅ विनोद शाही का फोन आया कि पंजाबी लेखक बलजिंदर नसराली आपको अपना उपन्यास भेजेंगे, आप इसे पढ़कर कुछ लिखना! मज़ेदार बात यह है कि इस वर्ष की शुरुआत डाॅ विनोद शाही के उपन्यास से हुई, फिर कुछ ऐसा मूड बना कि ब्रह्म दत्त शर्मा का लम्बा उपन्यास भी पढ़ डाला और मनोज शर्मा का कविता संग्रह भी यानी यह वर्ष मेरे पढ़ने का वर्ष ज्यादा रहा और लिखने का कम! अरे! मैं तो पाठक बन गया! खैर, बलजिंदर नसराली का उपन्यास आ गया और मेज़ पर पड़ा रहा, फिर एक दिन मेज़ साफ करने की आपाधापी में इधर उधर रखा गया। बलजिंदर का फोन आया कि इसे पढ़कर कुछ न कुछ लिख दीजिये तो जिन खोजा तिन पाइया और उपन्यास ढूंढकर पढ़ना शुरू!
अम्बर परियां बड़ा सादा सा, स्पष्ट सा नाम है कि नायक अम्बर और उसकी ख्वाबों की, ख्यालों की प्रेमिकाओं की कहानी! वह भी उस अम्बर की, जो पहले से विवाहित है, दो प्यारे प्यारे बच्चे भी हैं उसके और उसे अपनी पत्नी किरणजीत कौर से प्यार नहीं, तो नफरत भी नहीं लेकिन जब वह काॅलेज में अपनी खूबसूरत सहयोगी संगीत की प्राध्यापिका अवनीत को देखता है तो वह उसे परी से कम नहीं लगती। इसके बावजूद वह बड़े सधे तरीके से कदम बढ़ाता है जबकि अवनीत की मंगनी हो चुकी होने के बावजूद उसके साथ वह वहीं पहुंच जाती है, जहां अम्बर पेपर पढ़ने के लिए जाता है और दो रात वे इकट्ठे एक ही कमरे में बिताते हैं! परी को इतने पास पाकर सुखद अहसास में भर जाता है अम्बर। जैसे परी आकाश से धरती पर उतर आई हो। अवनीत संगीत की प्राध्यापिका है और मंगेतर से ज्यादा संगीत में स्टार बनना चाहती है और यही होता है। वह संगीत में स्टार बन जाती है, मंगेतर और अम्बर कहीं पीछे छूट जाते हैं! अम्बर खुद टीवी स्टार के साथ साथ अपने छात्रों का स्टार प्राध्यापक है।
फिर अम्बर को जम्मू विश्वविद्यालय के पंजाबी विभाग में नयी जाॅब मिल जाती है और वहां जोया उसके दिल को धीरे धीरे छू जाती है। वह भी किसी परी से कम नहीं। किरणजीत कौर को अम्बर पीएचडी तक पढ़ा कर प्राध्यापिका लगवा देता है और जोया के साथ विवाह करवाना चाहता है। हालांकि किरणजीत यह सोचती है कि जैसे अवनीत के साथ सब चक्कर के बावजूद अम्बर घर ही तो लौट आता था। लेकिन अम्बर किरणजीत पर दबाव बनाता है तलाक देने के लिए और बच्चों का वास्ता देती किरणजीत आखिर मान जाती है लेकिन जोया के बदलते व्यवहार से अम्बर अकेले ही रहना पसंद करता है, वह किरणजीत से तलाक लिये बिना ही आगे बढ़ जाता है!
जो सिर्फ नावल रीडिंग करेंगे, उनके लिए तो उपन्यास इतना ही है लेकिन जो गहरे जायेंगे, वे जानेंगे समझेंगे कि अम्बर उस परिवार से आया जिसका ताया अरजन अविवाहित है, जैसा कि पंजाब के पुराने समय में ज़मीन को आगे बंटने से बचाने के लिए किया जाता था या हो जाता था। ताया रंग का काला है और अम्बर कुछ सांवला सा, ताये व मां के काले अंधेरे में पैदा हुआ बच्चा, जिसे गांव भर में यह सहना पड़ता है ‘ओ अरजन दा’ और वह इससे चिढ़कर सीधे लड़ने दौड़ता है, अम्बर पढ़ाई में अच्छा है और ताया भी चाहता है कि अम्बर पढ़ लिख जाये ताकि आठ खेत बंटे तो चार खेत वाले की शादी कैसे होगी? अम्बर स्कूल में भाषण देने आये निहंग सिंह से किताबों से प्रेम करना सीख जाता है और अपनी सहपाठी चरनी से भी प्रेम करने लगता है और रजिस्ट्री से अपना प्रेम निवेदन भेजता है तब अध्यापिका समझाती है कि इतने गहरे पढ़ने वाला लड़का साधारण सी चरनी पर क्यों मर मिटना चाहता है ?
उपन्यास की शुरुआत भी पुराने स्कूल में प्राध्यापक बन चुके अम्बर के भाषण व यादों से होती है। अम्बर कैसे अपने घर के माहौल से परेशान था बचपन से ही क्योंकि पिता इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि अम्बर उनका बेटा है और मां बाप की कहा सुनी हो जाती, मा़ं कपड़े लत्ते लेकर अपने मायके लेकर चल देती अम्बर को! अम्बर सोचता कि वह अपनी शादी के बाद ऐसा माहौल नहीं रहने देगा लेकिन परियों के आने के बाद वह अम्बर नहीं रह पाता! डगमगाते, उलझन में रहते, अंतर्द्वंद में पहले अवनीत निकट आती है, फिर जोया! ये परियां विवाह परंपरा पर सवाल बन जाती हैं कि क्या शादीशुदा अम्बर को ऐसा करना चाहिए था या किसी भी अवनीत को, जोया को शादीशुदा अम्बर के प्यार में पड़ना चाहिए था ? क्या ये लिव इन की ओर उठते कदम हैं या परियों को पाकर अम्बर की तरह सब कुछ समझते हुए भी बेबस हो जाने की विवशता ? क्या अम्बर सही है? यह सवाल पाठक के लिए छोड़ा गया है! शिक्षा व्यवस्था पर भी यह उपन्यास सवाल उठाता चलता है लगातार!
वैसे इस उपन्यास को देहरादून की एक संस्था द्वारा एक लाख रुपये का पुरस्कार दिया जायेगा और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होने से पहले पंजाबी में इसके अब तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, इसका अंग्रेज़ी संस्करण भी आने वाला है। उपन्यास मूलत: पंजाबी में लिखा गया है और अनुवाद हमारे मित्र सुभाष नीरव ने किया है लेकिन कुछ शब्दों को जानबूझकर कर पंजाबी से ज्यों के त्यों रख दिये जाने से वे खटकते हैं। अगले संस्करण में इन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए उल्था की जगह अनुवाद शब्द आना चाहिए जबकि उल्था ही बार बार लिखा गया। यह थोड़ी जल्दबाजी दिखती है। पर बहुत प्यारा अनुवाद किया है। बधाई दोनों को! अंग्रेज़ी में भी पढ़ेंगे भाई।
भाषा बहुत प्रवाहमयी है। अपनी ओर खींचती लिए चलती है और अम्बर व परियां जैसे हमारे आसपास ही विचरते दिखाई देते हैं! भाषाओं का, जम्मू, डोगरी, पंजाबी सबका स्वाद आता है लगातार! कितने उदाहरण हैं जो अम्बर को श्रेष्ठ प्राध्यापक साबित करते हैं और छात्रों का प्रिय प्राध्यापक भी! वह अपनी इमेज के प्रति सचेत होते होते भी जोया की ओर कदम बढ़ा लेता है पर वह पत्नी किरणजीत को धोखा देने का अहसास भी कमाल है। चिनाव और पहाड़ियों का खूबसूरत चित्रण भी मोह लेता है। बलजिंदर को बहुत बहुत बधाई!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी
इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम:
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “मनुज-मन भावों का एक अनुपम खजाना है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 200 ☆ मनुज-मन भावों का एक अनुपम खजाना है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
सुधा कुलकर्णी या अत्यंत उत्साही तरुणीने टेल्को या कंपनीत पहिली स्त्री इंजिनियर म्हणून नोकरी पत्करून क्रांती घडवली होती. अतिशय बुद्धिमान; पण गंभीर प्रवृत्तीच्या आणि तत्त्वनिष्ठ अशा नारायण मूर्ती या तरुणाशी सुधा कुलकर्णी यांची भेट झाली. ते दोघे एकमेकांच्या प्रेमात पडले. तेथपासून त्यांचा विवाह, दोन मुलांचे पालकत्व ही त्या दोघांच्या कथेची कौटुंबिक बाजू आणि ‘इन्फोसिस’ या कंपनीची स्थापना आणि तिची सुरुवातीची संघर्षमय प्रगती ही व्यावसायिक बाजू अशा दोन्ही बाजूंची अतिशय लक्षवेधक कथा प्रथमच पुस्तकरूपात वाचकांसमोर येते आहे आणि तीही कथाकथनात निपुण अशा चित्रा बॅनर्जी दिवाकरुणी यांनी सांगितलेली !
ही तशी विजोड जोडी एकत्र आली कशी? एकत्रित आयुष्यातील एकटेपणा, अवघड आव्हाने यांना ती दोघे सामोरी गेली कशी ? देशात ‘लायसन्सराज’ सुरू असताना, उद्योगात पडणे हा ‘नसता उद्योग’ मानला जात असताना, नव्या उद्योगांना भांडवल पुरवण्याचा धोका पत्करणाऱ्या कंपन्या अस्तित्वात नसताना त्यांनी नव्या क्षेत्रात नवी कंपनी सुरू केली कशी? एका बाजूला नोकरी, काम, एका बाजूला संसार, मातृत्व आणि एका बाजूला धाडसी उद्योजकाची पत्नी या बहुपेडी भूमिका सुधा मूर्ती यांनी सांभाळल्या कशा? नारायण मूर्ती यांच्या स्वप्नपूर्तीच्या वेडाचे बरे-वाईट परिणाम त्यांनी स्वतः सुधा मूर्ती यांनी आणि त्यांच्या कुटुंबाने सोसले कसे ?
या सर्व प्रश्नांची उत्तरे मूर्ती पती-पत्नी, त्यांचे कुटुंबीय यांच्या मनात शिरून, त्यांच्या हृदयांचा ठाव घेऊन, त्यांच्या भावपूर्ण तसेच तत्त्वनिष्ठ विचारांचा धांडोळा घेऊन चित्रा बॅनर्जी दिवाकरुणी त्यांचे १९७०-८० या काळातील भारतातील कर्नाटक राज्यातील शहरे आणि गावे येथील वास्तव्य हे एक विश्व, त्यांच्या असाधारण कार्याचे एक विश्व आणि त्यांचे प्रत्येकाचे एकेक आणि पतिपत्नींचे एक भावविश्व जिवंत करून आपल्यासमोर ठेवतात.
परिचय : श्री हर्षल सुरेश भानुशाली
पालघर
मो.9619800030
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नीयत और नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 254 ☆
☆ अंतर्मन की शांति… ☆
हम बाहरी दुनिया में शांति नहीं प्राप्त कर सकते, जब तक हम भीतर से शांत न हों–धर्मगुरु दलाईलामा का यह कथन दर्शाता है कि संसार मिथ्या है, मायाजाल है; जो हमें आजीवन उलझा कर रखता है। जब तक हमारा मन शांत नहीं होगा, हम सांसारिक मायाजाल में उलझे रहेंगे। परंतु जब हम एकाग्रचित्त होकर ध्यान-स्मरण करेंगे; हम इस भौतिक संसार से ऊपर उठ जाएंगे। हमें अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ेंगे और अलौकिक आनंदानुभूति होगी। हम उस ध्वनि में इतने लीन हो जाएंगे कि हमें किसी बात की खबर नहीं होगी। मन ऊर्जस्वित रहेगा। इसका दूसरा अर्थ यह है कि जब तक हम सांसारिक विषय-वासनाओं पर विजय नहीं पा लेते; हमारा मन शांत नहीं रह सकता। एक के बाद दूसरी इच्छा सिर उठाए खड़ी रहेगी और हम उस जंजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकेंगे। हमारी यही इच्छाएं ही हमारी सबसे बड़ी शत्रु हैं, जो हमें आजीवन उलझाए रखती हैं।
कठिनाई के समय में कायर बहाना ढूंढते हैं और बहादुर व्यक्ति रास्ता खोजते हैं। सरदार पटेल जी आलसी लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि उनकी दशा ‘नाच ना जाने, आंगन टेढ़ा’ जैसी हो जाती है। उनमें किसी कार्य को अंजाम देने की क्षमता तो होती ही नहीं, वे तो बहाना ढूंढते हैं। परंतु वीर व्यक्ति अपनी राह का निर्माण स्वयं करते हैं, क्योंकि पुरानी, बनी-बनाई लीक पर चलना उन्हें पसंद नहीं होता। सो! वे दुनिया के सामने नया उदाहरण पेश करते हैं। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रही हैं अब्दुल कलाम जी की पंक्तियां ‘जो लोग ज़िम्मेदार, सरल, ईमानदार व मेहनती होते हैं, उन्हें ईश्वर द्वारा विशेष सम्मान मिलता है, क्योंकि वे धरती पर ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना होते हैं।’ जिस कार्य को भी वे प्रारंभ करते हैं, उसे पूरा करने के पश्चात् ही चैन से बैठते हैं। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा संसार में ईमानदार, ज़िम्मेदार व मेहनती इंसानों को ही महत्व प्राप्त होता है। वे बीच राह से लौटने में विश्वास नहीं रखते, क्योंकि वे असफलता को सफलता के मार्ग में श्रेष्ठ कदम स्वीकारते हैं। ऐसे महानुभाव विश्व के लोगों के लिए श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं तथा उनका पथ-प्रदर्शन कर सम्मान पाते हैं।
दार्शनिक जॉन हार्ट को एकांत प्रिय है और वे कहते हैं ‘यह तो आपका भ्रम ही है, जो आप मुझे एकांत में अकेला समझ रहे हैं, मैं तो अब तक अपने साथ था तथा मुझे अपना साथ सदा प्रिय है। मगर आपने आकर मुझे अकेला कर दिया’ अर्थात् मन एकांत में अलौकिक आनंदानुभूति करता है और यदि कोई उसके काम में बाधा बनता है तो वह उसकी ध्यान-समाधि में विक्षेप होता है और उसे बहुत दु:ख होता है। सो! मानव को सदैव अपनी संगति में रहना चाहिए। परंतु ओशो का चिंतन सर्वथा भिन्न है। ‘जब प्यार और नफ़रत दोनों ही ना हों, तो हर चीज़ साफ और स्पष्ट दिखाई देती है।’ यह निर्लेप अवस्था है, जब मानव का मन शून्यावस्था में घृणा व प्रेम से ऊपर उठ जाता है। उस स्थिति में स्व-पर व राग-द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता और ना ही भाव-लहरियां उसके हृदय को उद्वेलित करती हैं। वह परमात्म-सत्ता उसे प्रकृति के कण-कण में दिखाई पड़ती है और वह उसके प्रति श्रद्धा भाव से समर्पित होता है। यह संसार उसे मायाजाल भासता है और मानव उसमें न जाने कितने जन्मों तक उलझा रहता है। इसलिए मानव को सदैव निष्काम कर्म करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि फलासक्ति दु:खों का मूल कारण है। महात्मा बुद्ध ने संसार को दु:खालय कहा है। सुख-दु:ख मेहमान हैं, आते-जाते रहते हैं और इनका चोली दामन का साथ है। वैसे एक के रुख़्सत होने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। तो किसी भी विषम परिस्थिति में घबराना व घुटने टेकना कारग़र नही
‘जो मुसीबत बंदे को रब्ब से दूर कर दे वह सज़ा/ जो ख़ुदा के क़रीब ला दे आज़माइश/ अर्थात् मुसीबतें मानव को प्रभु के क़रीब लाती हैं। इसलिए द्रौपदी ने प्रभु से यह वरदान मांगा था कि तुम मुझे कष्ट देते रहना, ताकि तुम्हारी स्मृति बनी रहे। मानव सुख में सब कुछ भूल जाता है। कबीरदास जी मानव को संदेश देते हुए कहते हैं कि ‘जो सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे को होय।’ तुलसीदास जी विद्या, विनय व विवेक को दु:ख के साथी तथा मानव के सच्चे हितैषी स्वीकारते हैं। वे मानव के प्रेरक हैं; उसका सही मार्गदर्शन करते हैं और सभी आपदाओं से मुक्त कराते हैं। सो! मानव को इनका दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। संबंध व संपत्ति को समान इज़्ज़त दीजिए, क्योंकि दोनों को बनाना अत्यंत कठिन है और खोना आसान है। सो! अच्छे लोगों की संगति कीजिए तथा संबंधों को लंबे समय तक बनाए रखिए, क्योंकि हर कदम पर हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। इसलिए सकारात्मक सोच रखिए। ‘चूम लेता हूं/ हर मुश्किलों को मैं/ अपना मान कर/ ज़िंदगी जैसी भी है/ आखिर है तो मेरी ही’ गुलज़ार की यह पंक्तियां सुख-दु:ख में सम रहने का संदेश देती हैं, क्योंकि मुश्किलें व ज़िंदगी दोनों मेरी स्वयं की हैं। इसलिए इनसे ग़िला-शिक़वा क्यों?
हर मुसीबत अभिशाप नहीं होती, समय के साथ आशीर्वाद सिद्ध होती है। सो! मुसीबतों से घबराना कैसा? ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है’ हमें अपनी सोच को सकारात्मक बनाए रखने का संदेश देता है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार ‘संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ, जो आशाओं का पेट भर सके।’ इसी संदर्भ में यह तथ्य उल्लेखनीय है, ‘एक इच्छा से कुछ नहीं बदलता/ एक निर्णय से थोड़ा कुछ बदलता है/ लेकिन एक निश्चय से सब कुछ बदल जाता है।’ सो! दृढ-निश्चय कीजिए और अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर पदार्पण कीजिए; आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। आप वह सब कुछ कर सकते हैं, जो आप सोच सकते हैं। सो! निरंतर परिश्रम करते रहिए, मंज़िल अवश्य प्राप्त होगी। परंतु इसके लिए एकाग्रचित होने की दरक़ार है। यदि मन शांत होगा; तो आपको मनचाहा प्राप्त होगा। चित्त की एकाग्रता में ईश्वर से तादात्म्य कराने की क्षमता है। शांत रहने से आप अलौकिक आनंदानुभूति करते हैं। सांसारिक विषय-वासनाएं आपका कुछ बिगाड़ नहीं पातीं। आइए! अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा चित्त को एकाग्र करें और अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हों; आत्मा-परमात्मा का भेद मिट जाएगा और पूरी सृष्टि में तू ही तू नज़र आएगा।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज पुनर्पाठ में प्रस्तुत हैं श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ.भावना शुक्ल की वार्ता के अंश…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 246 – साहित्य निकुंज ☆
☆ परिचर्चा ☆ “मीठे जल का झरना है लघुकथा” – श्री बलराम अग्रवाल ☆ डॉ.भावना शुक्ल ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार, लघु कथा के क्षेत्र में नवीन आयाम स्थापित करने वाले, लघुकथा के अतिरिक्त कहानियां, बाल साहित्य, लेख, आलोचना तथा अनुवाद के क्षेत्र में अपनी कलम चलाने वाले, संपादन के क्षेत्र में सिद्धहस्त, जनगाथा, लघुकथा वार्ता ब्लॉग पत्रिका के माध्यम से संपादन करने वाले, अनेक सम्मानों से सम्मानित, बलराम अग्रवाल जी सौम्य और सहज व्यक्तित्व के धनी हैं. श्री बलराम जी से लघुकथा के सन्दर्भ में जानने की जिज्ञासा रही इसी सन्दर्भ में श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश…)
भावना शुक्ल : आपके मन में लघुकथा लिखने के अंकुर कैसे फूटे? क्या घर का वातावरण साहित्यिक था?
बलराम अग्रवाल : नही; घर का वातावरण साहित्यिक नहीं था, धार्मिक था। परिवार के पास सिर्फ मकान अपना था। उसके अलावा न अपनी कोई दुकान थी, न खेत, न चौपाया, न नौकरी। पूँजी भी नहीं थी। रोजाना कमाना और खाना। इस हालत ने गरीबी को जैसे स्थायी-भाव बना दिया था। उसके चलते घर में अखबार मँगाने को जरूरत की चीज नहीं, बड़े लोगों का शौक माना जाता था। नौवीं कक्षा में मेरे आने तक मिट्टी के तेल की डिबिया ही घर में उजाला करती रही। बिजली के बल्ब ने 1967 में हमारा घर देखा। ऐसा नहीं था कि अखबार पढ़ने की फुरसत किसी को न रही हो। सुबह-शाम दो-दो, तीन-तीन घंटे रामचरितमानस और गीता का पाठ करने का समय भी पिताजी निकाला ही करते थे। बाबा को आल्हा, स्वांग आदि की किताबें पढ़ने का शौक था। किस्सा तोता मैना, किस्सा सरवर नीर, किस्सा… किस्सा… लोकगाथाओं की कितनी ही किताबें उनके खजाने में थीं, जो 1965-66 में उनके निधन के बाद चोरी-चोरी मैंने ही पढ़ीं। पिताजी गीताप्रेस गोरखपुर से छ्पी किताबों को ही पढ़ने लायक मानते थे। छोटे चाचा जी पढ़ने के लिए पुरानी पत्रिकाएँ अपने किसी न किसी दोस्त के यहाँ से रद्दी के भाव तुलवा लाते थे। वे उन्हें पढ़ते भी थे और अच्छी रचनाओं/वाक्यों को अपनी डायरी में नोट भी करते थे। उनकी बदौलत ही मुझे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, सरिता, मुक्ता, नवनीत, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के बहुत-से अंकों को पढ़ने का सौभाग्य बचपन में मिला।
लघुकथा को अंकुरित करने का श्रेय 1972 के दौर में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका ‘कात्यायनी’ को जाता है। उसमें छपी लघु आकारीय कथाओं को पढ़कर मैं पहली बार ‘लघुकथा’ शब्द से परिचित हुआ। उन लघु आकारीय कथाओं ने मुझमें रोमांच का संचार किया और यह विश्वास जगाया कि भविष्य में कहानी या कविता की बजाय मैं लघुकथा लेखन पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता हूँ। ‘कात्यायनी’ के ही जून 1972 अंक में मेरी पहली लघुकथा ‘लौकी की बेल’ छपी।
भावना शुक्ल : लघुकथा लिखने का मानदंड क्या है?
बलराम अग्रवाल : अनेक विद्वानों ने लघुकथा लिखने के अनेक मानदंड स्थापित किये हैं। उदाहरण के लिए, कुछेक ने लघुकथा की शब्द-सीमा निर्धारित कर दी है तो कुछेक ने आकार सीमा। हमने मानदंड निर्धारित करने में विश्वास नहीं किया; बल्कि लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिख डालने और कुछ भी छाप देने वालों के लिए कुछ अनुशासन सुझाने की जरूरत अवश्य महसूस की। ‘मानदंड’ शब्द से जिद की गंध आती है, तानाशाही रवैये का भास होता है; ‘अनुशासन’ समय के अनुरूप बदले जा सकते हैं। तात्पर्य यह है कि हमने अनुशासित रहते हुए, लघुकथा लेखन को कड़े शास्त्रीय नियमों से मुक्त रखने की पैरवी की है।
भावना शुक्ल : आपकी दृष्टि में लघुकथा की परिभाषा क्या होनी चाहिए ?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा मानव-मूल्यों के संरक्षण, संवर्द्धन है, न ही गणित जैसा निर्धारित सूत्रपरक विषय है। इसका सम्बन्ध मनुष्य की सांवेदनिक स्थितियों से है, जो पल-पल बदलती रह सकती हैं, बदलती रहती हैं। किसी लघुकथा के रूप, स्वरूप, आकार, प्रकृति और प्रभाव के बारे में जो जो आकलन, जो निर्धारण होता है, जरूरी नहीं कि वही निर्धारण दूसरी लघुकथा पर भी ज्यों का त्यों खरा उतर जाए। इसलिए इसकी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, हो भी नहीं सकती। अपने समय के सरोकारों से जुड़े विषय और प्रस्तुति वैभिन्न्य ही लघुकथा के सौंदर्य और साहित्य में इसकी उपयोगिता को तय करते हैं। इसलिए जाहिर है कि परिभाषाएँ भी तदनुरूप बदल जाती हैं।
भावना शुक्ल : लघुकथा ‘गागर में सागर’ को चरितार्थ करती है; आपका दृष्टिकोण क्या है ?
बलराम अग्रवाल : भावना जी, ‘गागर में सागर’ जैसी बहुत-सी पूर्व-प्रचलित धारणाएँ और मुहावरे रोमांचित ही अधिक करते हैं; सोचने, तर्क करने का मौका वे नहीं देते। ‘गागर में सागर’ समा जाए यानी बहुत कम जगह में कथाकार बहुत बड़ी बात कह जाए, इस अच्छी कारीगरी के लिए उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए; लेकिन सागर के जल की उपयोगिता कितनी है, कभी सोचा है? लगभग शून्य। गागर में भरे सागर के जल से न किसी की प्यास बुझ सकती है, न घाव ही धुल सकता है और न अन्य कोई कार्य सध सकता है। ‘लघुकथा’ ठहरा हुआ खारा पानी तो कतई नहीं है। वह अक्षय स्रोत से निकला मीठे जल का झरना है; नदी के रूप में जिसका विस्तार सागर पर्यंत है। इसलिए समकालीन लघुकथा के संदर्भ में, ‘गागर में सागर’ के औचित्य पर, हमारे विद्वानों को पुनर्विचार करना चाहिए। छठी, सातवीं, आठवीं कक्षा के निबंधों में रटा दी गयी उपमाओं से मुक्त होकर हमें नयी उपमाएँ तलाश करनी चाहिए।
भावना शुक्ल : आपके दृष्टिकोण से लघुकथा और कहानी में आप किसे श्रेष्ठ मानते हैं; और क्यों?
बलराम अग्रवाल : ‘श्रेष्ठ’ मानने, ‘श्रेष्ठ’ बनाने और तय करने की स्पर्द्धा मनुष्य समाज की सबसे घटिया और घातक वृत्ति है। प्रकृति में अनगिनत किस्म के पेड़ झूमते हैं, अनेक किस्म के फूल खिलते हैं, अनेक किस्म के पंछी उड़ते-चहचहाते हैं। सबका अपना स्वतंत्र सौंदर्य है। वे जैसे भी हैं, स्वतंत्र हैं। सबके अपने-अपने रूप, रस, गंध हैं। सब के सब परस्पर श्रेष्ठ होने की स्पर्द्धा से सर्वथा मुक्त हैं। लघुकथा और कहानी भी कथा-साहित्य की दो स्वतंत्र विधाएँ हैं जिनका अपना-अपना स्वतंत्र सौंदर्य है, अपनी-अपनी स्वतंत्र श्रेष्ठता है। नवांकुरों की जिज्ञासाएँ अल्प शिक्षितों जैसी हो सकती हैं। इन्हें स्पर्द्धा में खड़ा करने की आदत से कम से कम प्रबुद्ध साहित्यिकों को तो अवश्य ही बाज आना चाहिए।
भावना शुक्ल : आप हिंदी में लघुकथा का प्रारंभ कब से मानते हैं और आपकी दृष्टि में पहला लघुकथाकार कौन हैं ?
बलराम अग्रवाल : हिंदी में लघुकथा लेखन कब से शुरू हुआ, यह अभी भी शोध का ही विषय अधिक है। मेरे पिछले लेखों और वक्तव्यों में, सन् 1876 से 1880 के बीच प्रकाशित पुस्तिका ‘परिहासिनी’ के लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम का उल्लेख पहले लघुकथाकार के तौर पर हुआ है। इधर, कुछ और भी रचनाएँ देखने में आयी हैं। मसलन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में पहले हिंदी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ से एक ऐसी कथा-रचना उद्धृत की है, जो अपने समय की अभिजात्य क्रूरता को पूरी शिद्दत से पेश करती है। यह रचना लघुकथा के प्रचलित मानदंडों पर लगभग खरी उतरती है। मैं समझता हूँ कि जब तक आगामी शोधों में स्थिति स्पष्ट न हो जाए, तब तक इस रचना को भी हिंदी लघुकथा की शुरुआती लघुकथाओं में गिनने की पैरवी की जा सकती है। ‘उदन्त मार्तण्ड’ की अधिकांश रचनाओं के स्वामी, संपादक और लेखक जुगुल किशोर शुक्ल जी ही थे—अगर यह सिद्ध हो जाता है तो, पहला हिन्दी लघुकथाकार भी उन्हें ही माना जा सकता है।
भावना शुक्ल : आप लघुकथा का क्या भविष्य देखते हैं?
बलराम अग्रवाल : किसी भी रचना-विधा का भविष्य उसके वर्तमान स्वरूप में निहित होता है। लघुकथा के वर्तमान सर्जक अपने समय की अच्छी-बुरी अनुभूतियों को शब्द देने के प्रति जितने सजग, साहसी, निष्कपट, निष्पक्ष, ईमानदार होंगे, उतना ही लघुकथा का भविष्य सुन्दर, सुरक्षित और समाजोपयोगी सिद्ध होगा।
भावना शुक्ल : लघुकथा के प्रारंभिक दौर के 5 और वर्तमान दौर के 5 उन लघुकथाकारों के नाम दीजिए जो आपकी पसंद के हो ?
बलराम अग्रवाल : यह एक मुश्किल सवाल है। सीधे तौर पर नामों को गिनाया जा सकना मुझ जैसे डरपोक के लिए सम्भव नहीं है। हिन्दी में प्रारम्भिक दौर की जो सक्षम लघुकथाएँ हैं, उनमें भारतेंदु की रचनाएँ चुटकुलों आदि के बीच से और प्रेमचंद तथा प्रसाद की रचनाएँ उनकी कहानियों के बीच से छाँट ली गयी हैं। 1916 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’ भी अपनी अन्त:प्रकृति में छोटे आकार की कहानी ही है। उसके लघु आकार से असन्तुष्ट होकर बाद में बख्शी जी ने उसे 4-5 पृष्ठों तक फैलाया और ‘झलमला’ नाम से ही कहानी संग्रह का प्रकाशन कराया। उसी दौर के कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर आदि जिन अन्य कथाकारों के लघुकथा संग्रह सामने आते हैं, उनमें स्वाधीनता प्राप्ति के लिए संघर्ष की आग ‘न’ के बराबर है, लगभग नहीं ही है। किसी रचना में कोई सन्दर्भ अगर है भी, तो वह संस्मराणात्मक रेखाचित्र जैसा है, जिसे ‘लघुकथा’ के नाम पर घसीटा भर जा रहा है। कम से कम मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय रहा है कि स्वाधीनता संघर्ष के उन सघन दिनों में भी, जब पूरा देश ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का नारा लगा रहा था, हमारे लघुकथाकारों ने जुझारुता और संघर्ष से भरी लघुकथाएँ क्यों नहीं दीं। वे ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ ही क्यों बघारते-सिखाते रहे?… और मेरी समझ में इसके दो कारण आते हैं—पहला, सामान्य जीवन में गांधी जी की बुद्ध-आधारित अहिंसा का प्रभाव; और दूसरा, दार्शनिक भावभूमि पर खड़ी खलील जिब्रान की लघुकथाओं का प्रभाव।
लेकिन, ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ के कथ्यों की अधिकता के बावजूद सामाजिकता के एक सिरे पर विष्णु प्रभाकर अपनी जगह बनाते हैं। वे परम्परागत और प्रगतिशील सोच को साथ लेकर चलते हैं। 1947-48 में लेखन में उतरे हरिशंकर परसाई अपने समकालीनों में सबसे अलग ठहरते हैं। उनमें संघर्ष के बीज भी नजर आते हैं और हथियार भी।
अपने समकालीन लघुकथाकारों के बारे में, मेरा मानना है कि हमारी पीढ़ी के कुछ गम्भीर कथाकारों ने लघुकथा को एक सार्थक साहित्यिक दिशा देने की ईमानदार कोशिश की है। लेकिन, उन्होंने अभी कच्चा फर्श ही तैयार किया है, टाइल्स बिछाकर इसे खूबसूरती और मजबूती देने के लिए आगामी पीढ़ी को सामने आना है। लघुकथा में, हमारी पीढ़ी के अनेक लोग गुणात्मक लेखन की बजाय संख्यात्मक लेखन पर जोर देते रहे हैं। लघुकथा संग्रहों और संपादित संकलनों/पत्रिकाओं का, समझ लीजिए कि भूसे का, ढेर लगाते रहे हैं। वे सोच ही नहीं पाये कि भूसे के ढेर से सुई तलाश करने का शौकीन पाठक गुलशन नन्दा और वेद प्रकाश काम्बोज को पढ़ता है। साहित्य के पाठक को सुई के लिए भूसे का ढेर नहीं, सुई का ही पैकेट चाहिए। भूसे का ढेर पाठक को परोसने की लेखकीय वृत्ति ने लघुकथा की विधापरक स्वीकार्यता को ठेस पहुँचायी है, उसे दशकों पीछे ठेला है। जिस कच्चे फर्श को तैयार करने की बात मैं पहले कह चुका हूँ, उसमें अपेक्षा से अधिक समय लगा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बाजारवादी सोच में फँसे नयी पीढ़ी के भी अनेक लेखक ‘संख्यात्मक’ वृद्धि के उनके फार्मूले का अनुसरण कर विधा का अहित कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में… और शायद अनेक प्रबुद्धों की दृष्टि में भी, वास्तविकता यह है कि लघुकथा का विधिवत् अवतरण इन हवाबाजों की वजह से अभी भी प्रतिक्षित है।
भावना शुक्ल : खलील जिब्रान के व्यक्तित्व से आप काफी प्रभावित हैं, क्यों ?
बलराम अग्रवाल : खलील जिब्रान को जब पहली बार पढ़ा, तो लगा—यह आदमी उपदेश नहीं दे रहा, चिंगारी लगा रहा है, मशाल तैयार कर रहा है। कहानियों के अलावा, उन्होंने अधिकतर कथात्मक गद्य कविताएँ लिखी हैं जो हिन्दी में अनुवाद के बाद गद्यकथा बनकर सामने आई हैं, लेकिन उनमें भाषा प्रवाह और सम्प्रेषण काव्य का ही है। खलील जिब्रान के कथ्य, शिल्प और शैली सब की सब प्रभावित करती हैं। उनके कथ्यों में मौलिकता, प्रगतिशीलता और मुक्ति की आकांक्षा है। वे मनुष्य की उन वृत्तियों पर चोट करते हैं जो उसे ‘दास’ और ‘निरीह’ बनाये रखने के लिए जिम्मेदार हैं। वे सामन्ती और पूँजीवादी मानसिकता को ही बेनकाब नहीं करते, बौद्धिकता और दार्शनिकता के मुखौटों को भी नोंचते हैं। उनकी खूबी यह है कि वे ‘विचार’ को दार्शनिक मुद्रा में शुष्क ढंग से पेश करने की बजाय, संवाद के रूप में कथात्मक सौंदर्य प्रदान करने की पहल करते हैं, शुष्कता को रसदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए, उनकी यह रचना देखिए—
वह मुझसे बोले–“किसी गुलाम को सोते देखो, तो जगाओ मत। हो सकता है कि वह आजादी का सपना देख रहा हो।”
“अगर किसी गुलाम को सोते देखो, तो उसे जगाओ और आजादी के बारे में उसे बताओ।” मैंने कहा।
भावना शुक्ल : आपने फिल्म में भी संवाद लिखे हैं। ‘कोख’ फिल्म के बाद किसी और फिल्म में भी संवाद लिखे हैं ?
बलराम अग्रवाल : वह मित्रता का आग्रह था। स्वयं उस ओर जाने की कभी कोशिश नहीं की।
भावना शुक्ल : आज के नवयुवा लघुकथाकारों को कोई सुझाव दीजिये जिससे उनका लेखन और पुष्ट हो सके ?
बलराम अग्रवाल : सबसे पहले तो यह कि वे अपने लेखन की विधा और दिशा निश्चित करें। दूसरे, सम्बन्धित विषय का पहले अध्ययन करें, उस पर मनन करे; जो भी लिखना है, उसके बाद लिखें।
भावना शुक्ला : चलते-चलते, एक लघुकथा की ख्वाहिश पूरी कीजिये जिससे आपकी बेहतरीन लघुकथा से हम सब लाभान्वित हो सकें ………
बलराम अग्रवाल : लघुकथा में अपनी बात को मैं प्रतीक, बिम्ब और कभी-कभी रूपक का प्रयोग करते हुए कहने का पक्षधर हूँ। ऐसी ही लघुकथाओं में से एक… ‘समन्दर:एक प्रेमकथा’ यहाँ पेश है :
समन्दर:एक प्रेमकथा
“उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं…”
दादी ने सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उनकी ओर देखती रही—एकदम निश्चल; गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।
“लम्बे कदम बढ़ाते, करीब-करीब भागते-से, हम एक-दूसरे की ओर बढ़ते… बड़ा रोमांच होता था।”
यों कहकर एक पल को वह चुप हो गयीं और आँखें बंद करके बैठ गयीं।
बच्ची ने पूछा—“फिर?”
“फिर क्या! बीच में समन्दर होता था—गहरा और काला…!”
“समन्दर!”
“हाँ… दिल ठाठें मारता था न, उसी को कह रही हूँ।”
“दिल था, तो गहरा और काला क्यों?”
“चोर रहता था न दिल में… घरवालों से छिपकर निकलते थे!”
“ओ…ऽ… आप भी?”
“…और तेरे दादा भी।”
“फिर?”
“फिर, इधर से मैं समन्दर को पीना शुरू करती थी, उधर से तेरे दादा…! सारा समन्दर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
“सारा समन्दर!! कैसे?”
“कैसे क्या…ऽ… जवान थे भई, एक क्या सात समंदर पी सकते थे!”
“मतलब क्या हुआ इसका?”
“हर बात मैं ही बतलाऊँ! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।” दादी ने हल्की-सी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
मनमंथन : बोलती-बतियाती कहानियाँ☆ श्री संजय भारद्वाज
भावनाओं का इंद्रियों के माध्यम से प्रकटीकरण, जीव में प्राण होने या उसके निष्प्राण होने को परिभाषित करता है। सुनने-सुनाने की वृत्ति सजीव सृष्टि का अनिवार्य गुणधर्म है। वैचारिक अभिव्यंजना की इस तृष्णा ने कहानी को जन्म दिया। विशेषता है कि कहानी ऐसी विधा के रूप में जानी जाती है जो कभी एकांगी नहीं होती। सुनाने वाले (या लेखक) की कामना और सुनने वाले (या पाठक) की जिज्ञासा, दोनों तत्वों का इस विधा में तालमेल होता है। इसके चलते कहानी का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है।
सनातन संस्कृति में वेदों के बाद पुराणों का लेखन दर्शाता है कि गूढ़ ज्ञान को सरल कथाओं के माध्यम से आम आदमी तक पहुँचाया जा सकता है। उपनिषदों की रूपक कथाओं से लेकर बौद्धवाद की जातक कथाएँ इसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। कालांतर में घटित / अघटित कई किंवदतियाँ लोककथाओं के वेश में मनुष्य के चरित्र निर्माण एवं सामाजिक जागृति का माध्यम बनीं।
‘मनमंथन’ कहानी संग्रह का अधिकांश भाग चुनिंदा भारतीय लोककथाओं का आधुनिक संस्करण है। कथाकार ने अपनी प्रस्तावना में इस बात को स्पष्ट भी किया है कि कुछ कथाएँ उसका उसका अपना सृजन है, शेष माँ से सुनी कहानियों का पुनर्लेखन है। लोककथाओं को बालसाहित्य के रूप में प्रकाशित करने का चलन भी है। इस संदर्भ में कहानीकार और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस लीक का अनुसरण नहीं किया। यों भी अनुभवजनित लोककथाएँ मनुष्य वेश के पथिक के लिए हर सोपान पर दिशादर्शक प्रकाशस्तम्भ का काम करती हैं।
संग्रह में समाविष्ट चौदह कहानियों में ‘आत्मसात’ सर्वाधिक प्रभावित करती है। ये ईमानदारी की धरती पर लिखी कथा है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को निर्वाण के चार महाद्वार मानकर समान आदर दिया गया है। संस्कृति की इस उदात्त भावना को समझे बिना ही बाद के समाज ने काम को वासना पूर्ति की परिधि तक सीमित कर दिया। ‘आत्मसात’ इस परिधि का विस्तार करती है। वासना के बेस कैम्प से उपासना के शिखर की यात्रा का मानचित्र तैयार करती है। कथा पूरी सादगी से बिना मुखौटे लगाये, बिना मुलम्मा चढ़ाए चलती है, अत: कहीं अविश्वसनीय नहीं लगती। बुजुर्ग साधु-साध्वी के मन में आजीवन पाले ब्रह्यचर्य के खण्डित होने पर कोई ग्लानिबोध न जगना, परस्पर दोषारोपण न करना, कथा को तार्किक सम्बल प्रदान करता है। कथा प्रत्यक्ष में कोई उपदेश नहीं करती पर परोक्ष में अतंर्निहित संदेश पाठक के मन पर अंकित हो जाता है।
इसके विरुद्ध ‘कुत्ते की पूँछ’ नामक कहानी है जो मात्र किस्सागोई है, किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश नहीं देती। ‘बच्चा किसका’, रात भर अंडा पकाया फिर भी कच्चा रह गया, ‘झूठ के हाथ-पैर नहीं’, इसी श्रेणी की हल्के-फुल्के ढंग से कही गई कथाएँ हैं। ‘दुविधा,’ ‘एक वरदान,’ ‘चने की एक दाल’ विशुद्ध लोक कथाएँ हैं जिनमें विभिन्न मानवीय गुण और काल-पात्र-परिस्थिति के अनुरूप धारण किये जाने वाले धर्म की सूक्ष्म अवधारणा अंतर्निहित है। ‘कल्पना से परे’ और ‘कानाफूसी’ सीधे-सीधे अपना संदेश लेकर आती हैं। ‘नास्तिक के मुख से’ नामक लोककथा लोक में आस्था का बीज रोपने की भूमिका लेकर चलती है। ‘प्रतीक्षा’ में कहानीकार सेना के परिवेश का चित्रण करने में सफल रहा है। ‘गलतफहमी’अतिरंजित लगती है। ‘मरणोपरांत’ एक सैनिक के भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।
संग्रह की विभिन्न कथाओं में समाहित विचारसूत्र चिंतन के लिए पर्याप्त संभावनाओं को अवसर प्रदान करते हैं। कुछ विचारसूत्र उल्लेखनीय हैं। यथा-आँसू पीयूष भी है और हलाहल भी…/ आँसू अंदर रहकर तूफान मचाता है पर बाहर निकलकर मरहम का काम करता है…/ गलतफहमी गांधारी है जिसकी कोख से सौ कौरव पैदा होकर महाभारत रचाएँगे और बाद में बिलखती हुई विधवाओं का रुदन और क्रंदन छोड़ जायेंगे…/ साधन एक अवसर पर साधना में सहयोग देता है तो वही साधन किसी दूसरे समय में व्यवधान उत्पन्न करने लगता है।…
लोकसाहित्य की विशेषता है कि उसके संकेत और प्रतीक रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े होते हैं। फलत: कथ्य तुरंत पाठक तक पहुँचता है। बानगी है- प्यार में दरार आ गई, प्रेम की डोर में गाँठ पड़ गई। बाहर से पता नहीं चलता था परंतु अंदर से खीरे जैसी तीन फाँक ! …
‘मनमंथन’ में मुहावरों और लोकोक्तियों का यथेष्ट प्रयोग हुआ है। कहानियों में प्रयुक्त बिहार की आंचलिक बोली अंचल की माटी की सौंध पाठक तक पहुँचाती है। संग्रह की कथाओं में कम चरित्रों के माध्यम से कथ्य को रखा गया है। अनावश्यक प्रसंग भी ठूँसे नहीं गए हैं। ये इन कहानियों का शक्तिस्थान है।
सेना की पृष्ठभूमि की कहानियाँ अधिक प्रभावी हैं क्योंकि कथाकार के जीवन के 32 वर्ष सेना में बीते हैं। कथाकार से भविष्य में सैनिक परिवेश पर अधिक कहानियों की अपेक्षा की जानी चाहिए। कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियाँ पाठक से बोलती हैं, बतियाती हैं। यह कथाकार आशा जगाता है। उससे लम्बी दौड़ की उम्मीद की जा सकती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – भारी है माथे की बिंदी …।
रचना संसार # 2 – गीत – भारी है माथे की बिंदी… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’