हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 210 ☆ आलेख – महिला व्यंग्यकारों का अवदान… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – महिला व्यंग्यकारों का अवदान…

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 210 ☆  

? आलेख – महिला व्यंग्यकारों का अवदान?

विश्व की आबादी आठ सौ करोड़ पार होने को है, कमोबेश इसमें महिलाओ की संख्या पचास प्रतिशत है. यद्यपि भारत में स्त्री पुरुष के इस अनुपात में स्त्रियों की सँख्या अपेक्षाकृत कम है. पितृसत्तात्मक समाज होने के चलते प्रायः सभी क्षेत्रों में लंबे समय से पुरुष स्त्री पर हावी रहा है.सिमोन द बोउवार का कथन है, “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है”, समाज अपनी आवश्यकता के अनुसार स्त्री को ढालता आया है. उसके सोचने से लेकर उसके जीवन जीने के ढंग को पुरुष नियंत्रित करता रहा है और आज भी करने की कोशिश करता रहता है. किंतु अब महिलाओ को पुरुषों के बराबरी के दर्जे के लिये लगातार संघर्षरत देखा जा रहा है. विश्व में नारी आंदोलन की शुरुवात उन्नीसवीं शताब्दि में हुई. नारी आंदोलन लैंगिक असमानता के स्थान पर मानता है कि स्त्री भी एक मनुष्य है. वह दुनिया की आधी आबादी है. सृष्टि के निर्माण में उसका भी उतना ही सहयोग है जितना कि पुरुष का. स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री विमर्श से जन चेतना जागी हैं. अब जल, थल, नभ, अंतरिक्ष हर कहीं महिलायें पुरुषों से पीछे नहीं रही हैं.

विभिन्न भाषाओ के साहित्य में भी महिला रचनाकारों ने महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया है. अनेक महिला रचनाकारों को नोबल पुरस्कार मिल चुके हैं. 2022 का नोबल फ्रेंच लेखिका एनी एनॉक्स को मिला है. 82 वर्षीय एनॉक्स साहित्य का नोबेल पाने वाली सत्रहवीं महिला हैं.पूरी दुनियां में हर साल आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य की पंक्ति है कि “दिवस कमजोरों के मनाए जाते हैं, मजबूत लोगों के नहीं. “ सशक्त होने का आशय केवल घर से बाहर निकल कर नौकरी करना या पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना भर नहीं है. वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साहित्य और खास कर किसी पर व्यंग्य कर सकने की क्षमता और स्वतंत्रता में निहित है. भारत में ऐसी ढ़ेर विसंगतियां हैं जिनसे सीधे तौर पर महिलायें प्रभावित होती हैं, उदाहरण के लिये सबरीमाला या अन्य धर्म के स्थलों पर महिलाओ के प्रवेश पर रोक, धर्म-जाति के गठजोड़, रूढ़ि व अंधविश्वास ने महिलाओं को लगातार शोषित किया है. इन मसलों पर जिस तीक्ष्णता से एक महिला व्यंग्यकार लिख सकती है पुरुष नहीं. कहा गया है जाके पांव न फटे बिवाई बा क्या जाने पीर पराई. किंतु विडम्बना है कि लम्बे समय तक व्यंग्य पर पुरुषों का एकाधिकार रहा है. यह और बात है कि लोक जीवन और लोकभाषा में व्यंग्य अर्वाचीन है. सास बहू, ननद भौजाई के परस्पर संवाद या, बुन्देलखण्ड, मिथिला, भोजपुरी में बारात की पंगत को सुस्वादु भोजन के साथ हास्य और व्यंग्य से सम्मिश्रित गालियां तक देने की क्षमता महिलाओ में ही रही है. हिमाचल में ये विवाह गीत सीठणी काहे जाते हैं जिनमें यहि भाव भंगिमा और व्यंग्य सजीव होता है. साहित्यिक इतिहास में भक्ति आंदोलन के समय में महिला रचनाकारों ने खूब लिखा, मीरा बाई की रचनाओ में व्यंग्य के संपुट ढ़ूंढ़े भी जा सकते हैं.

आज साहित्य में व्यंग्य स्वतंत्र विधा के रूप में सुस्थापित है. समाज की विसंगतियों, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण अथवा राजनीति के गिरते स्तर की घटनाओं पर अप्रत्यक्ष रूप से तंज किया जाता है. लघु कथा की तरह संक्षेप में घटनाओं पर व्यंग्य होता है, जो हास्य, और आक्रोश भी पैदा करता है. विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल से ही साहित्य में व्यंग्य की उपस्थिति मिलती है. चार्वाक के ‘यावद जीवेत सुखं जीवेत, ॠणं कृत्वा घृतम् पिवेत् ’ के माध्यम से स्थापित मूल्यों के प्रति प्रतिक्रिया को इस दृष्टि से समझा जा सकता है. सर्वाधिक प्रामाणिक व्यंग्य की उपस्थिति कबीर के ‘पात्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार’ तथा ‘ कांकर पाथर जोड़ कर मस्जिद दयी बनाय ता चढि़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा भया खुदाय’ आदि के रूप में देखी जा सकती है. हास्य और व्यंग्य का नाम साथ साथ लिया जाता है पर उनमें व्यापक मौलिक अंतर है. साहित्य की शक्तियों अभिधा, लक्षणा, व्यंजना में हास्य अभिधा, यानी सपाट शब्दों में हास्य की अभिव्यक्ति के द्वारा क्षणिक हंसी तो आ सकती है, लेकिन स्थायी प्रभाव नहीं डाल सकती. व्यंजना के द्वारा प्रतीकों और शब्द-बिम्बों के द्वारा किसी घटना, नेता या विसंगितयों पर प्रतीकात्मक भाषा द्वारा जब व्यंग्य किया जाता है, तो वह अपेक्षकृत दीर्घ कालिक प्रभाव छोड़ता है. श्रेष्ठ साहित्य में व्यंग्य की उपस्थिति महत्वपूर्ण है. व्यंग्य सहृदय पाठक के मन पर संवेदना, आक्रोश एवं संतुष्टि का संचार करता है. स्वतंत्रता पूर्व व्यंग्य लेखन की सुदीर्घ परंपरा मिलती है.

भारतेंदु हरिशचंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट तथा अन्य लेखकों का बड़ा व्यंग्य समूह था, इनमें बाबू बालमुकुंद गुप्त के धारावाहिक ‘शिव शंभू के चिट्ठे’ युगीन व्यंग्य के दिग्दर्शक हैं. वायसराय के स्वागत में उस समय उनका साहस दृष्टव्य है- “माई लार्ड, आपने इस देश में फिर पदार्पण किया, इससे यह भूमि कृतार्थ हुई. विद्वान, बुद्धिमान और विचारशील पुरुषों के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है. आप में उक्त तीन गुणों के सिवा चौथा गुण राज शक्ति का है. अतः आपके श्रीचरण स्पर्श से भारत भूमि तीर्थ से भी कुछ बढ़कर बन गई. भगवान आपका मंगल करे और इस पतित देश के मंगल की इच्छा आपके हृदय में उत्पन्न करे. ऐसी एक भी सनद प्रजा-प्रतिनिधि शिव शंभु के पास नहीं है, तथापि वह इस देश की प्रजा का, यहां के चिथड़ा पोश कंगालों का प्रतिनिधि होने का दावा रखता है. गांव में उसका कोई झोंपड़ा नहीं, जंगल में खेत नहीं…. हे राज प्रतिनिधि, क्या उसकी दो-चार बातें सुनिएगा?”… इसमें अंतर्निहित कटाक्ष व्यंग्य की ताकत हैं. रचना के इस व्यंग्य कौशल को आधुनिक व्यंग्य काल में परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी, शंकर पुणतांबेकर, नरेंद्र कोहली, गोपाल चतुर्वेदी, विष्णुनागर जैसे लेखको ने आगे बढ़ाया है.

डा शैलजा माहेश्वरी ने एक पुस्तक लिखी है ” हिंदी व्यंग्य में नारी” इस किताब की भूमिका सुप्रसिद्ध व्यंग्य लेखक और संपादक यशवंत कोठारी ने लिखी है. इस भूमिका आलेख में उन्होंने आज की सक्रिय महिला व्यंग्यकारो का उल्लेख किया है. डा प्रेम जनमेजय व्यंग्य पर सतत काम कर रहे हैं, उन्होने पत्रिका “व्यंग्य यात्रा” का जनवरी से मार्च २०२३ अंक ही ” हिन्दी व्यंग्य में नारी स्वर ” पर केंद्रित किया है. मैं लंबे समय से पुस्तक चर्चा करता आ रहा हूं और विगत कुछ वर्षो में प्रकाशित व्यंग्य की प्रायः किताबें मेरे पास हैं, इन सीमित संदर्भों को लेकर कम शब्दों में आज सक्रिय व्यंग्य लेखिकाओ के कृतित्व के विषय में लिखने का यत्न है. यद्यपि मेरा मानना है कि व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप और अवदान पर शोध ग्रंथ लिखा जा सकता है. जिन कुछ सतत सक्रिय महिला नामों का लेखन पत्र, पत्रिकाओ, सोशल मीडिया में मिलता रहा है उनकी किताबों के आधार पर संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत करने का प्रयास है.

 स्नेहलता पाठक… शंकर नगर, रायपुर की निवासी स्नेहलता पाठक की व्यंग्य की किताबें ” सच बोले कौआ काटे”, द्रौपदी का सफरनामा, एक दीवार सौ अफसाने, प्रजातंत्र के घाट पर, बाकी सब ठीक है, बेला फूले आधी रात, लोनम् शरणम् गच्छामी, व्यंग्यकार का वसीयतनामा, उन्होने उपन्यास लाल रिबन वाली लड़की भी लिखा है, और “व्यंग्य शिल्पी लतीफ घोंघी” किताब का संपादन भी किया है. उन्हें छत्तीसगढ़ की पहली गद्य व्यंग्य लेखिका सम्मान मिल चुका है. वे निरंतर स्तरीय लेखन में निरत दिखती हैं.

सूर्य बाला जी ने बहुत व्यंग्य लिखे हैं, उनकी व्यंग्य की पुस्तकें ” यह व्यंग्य कौ पन्थ”, ‘अजगर करे न चाकरी’, ‘धृतराष्ट्र टाइम्स’, ‘देशसेवा के अखाड़े में’, ‘भगवान ने कहा था’, ‘झगड़ा निपटारक दफ़तर’, आदि चर्चित हैं. वे बड़ी कहानीकार हैं और इतनी ही ज़िम्मेदारी तथा गम्भीरता से व्यंग्य भी लिखती हैं. कलम के पैनेपन से उन्होंने व्यंग्य को भी तराशा है वे व्यंग्य की सारी शर्तों को, अपनी ही शर्तों पर पूरा करनेवाली मौलिकता का दामन किसी भी व्यंग्य रचना में कभी नहीं छोड़तीं. उनका सफल कहानीकार होना उनको एक अलग ही क़िस्म का व्यंग्य शिल्प औज़ार देता है. व्यंग्य के परम्परागत विषय भी सूर्यबाला के क़लम के प्रकाश में एकदम नये आलोक में दिखाई देने लगते हैं। विशेष तौर पर, तथाकथित महिला विमर्श के चालाक स्वाँग को, लेखिकाओं का इसके झाँसे में आने को तथा स्वयं को लेखन में स्थापित करने के लिए इसका कुटिल इस्तेमाल करने को उन्होंने बेहद बारीकी तथा साफ़गोई से अपनी कई व्यंग्य रचनाओं में अभिव्यक्त किया है.

शांति मेहरोत्रा ने भी काफी लिखा है. वे पिछली सदी के पाँचवें-छठे दशक में सामने आईं कवयित्री, कथाकार, लघुकथा और व्यंग्य की सशक्त हस्ताक्षर रही हैं. ठहरा हुआ पानी उनका नाटक है

सरोजनी प्रीतम की हंसिकाएं काव्य भी खूब पढ़ी गयीं. लौट के बुद्धू घर को आये, श्रेष्ठ व्यंग्य, सारे बगुले संत हो गये आदि उनकी चर्चित पुस्तके हैं.

समीक्षा तैलंग.. मुझे स्मरण है तब मैं अपने पहले वैश्विक व्यंग्य संग्रह ” मिली भगत” पर काम कर रहा था. इंटरनेट के जरिये अबूधाबी में समीक्षा तैलंग से संपर्क हुआ. फिर जब उन्होंने उनकी पहली किताब छपवाने के लिये पान्डुलिपि तैयार की तो ” जीभ अनशन पर है ” यह नामकरण करने का श्रेय मुझे ही मिला, इस किताब में मेरी टीप उन्होने फ्लैप पर भी ली है. उसके बाद उनकी दूसरी किताब व्यंग्य का एपीसेंटर, संस्मरण की किताब कबूतर का केटवाक आदि आई हैं. वे निरंतर उत्तम लिख रही हैं.

मीना अरोड़ा हल्द्वानी से हैं. उन्होने पुत्तल का पुष्प बटुक व्यंग्य उपन्यास लिखा है, जिसकी चर्चा करते हुये मैने लिखा है कि “पुत्तल का पुष्प वटुक ” बिना चैप्टर्स के विराम के एक लम्बी कहानी है.जो ग्रामीण परिवेश, गांव के मुखिया के इर्द गिर्द बुनी हुई कथा में व्यंग्य के संपुट लिये हुये है. उनकी कविताओ की किताबें “शेल्फ पर पड़ी किताब” तथा ” दुर्योधन एवं अन्य कवितायें ” पूर्व प्रकाशित तथा पुरस्कृत हैं. मीना अरोड़ा की लेखनी का मूल स्वर स्त्री विमर्श है.

डा अलका अग्रवाल सिंग्तिया, का “मेरी तेरी सबकी” व्यंग्य संग्रह प्रकाशित है, इसके सिवा अनेक सहयोगी संग्रहों में उन्होने शिरकत की है, उनका उल्लेख इस दृष्टि से महत्व रखता है कि उन्होने हाल ही परसाई पर पी एच डी मुम्बई विश्व विद्यालय से की है.

अनिला चारक जम्मू कश्मीर से हैं. जम्मू कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी ने इनके कविता संग्रह ‘नंगे पांव ज़िन्दगी’ को बेस्ट बुक के अवार्ड से सम्मानित किया है. इनकी व्यंग्य की पुस्तक ‘मास्क के पीछे क्या है’ प्रकाशित हुई है.

अनीता यादव का व्यंग्य संग्रह ” बस इतना सा ख्वाब है ” आ चुका है, इसके सिवा कई संग्रहो मे सहभागी हैं तथा फ्री लांस लिखती हैं.

चेतना भाटी – साहित्य की विभिन्न विधाओ व्यंग्य – लघुकथा – कहानी – उपन्यास, कविता में लिखने वाली श्रीमती चेतना भाटी की अब तक कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं. जिनमें व्यंग्य संग्रह – दिल है हिंदुस्तानी, दुनिया एक सरकारी मकान है, विक्रम – बेताल का ई – मेल संवाद प्रमुख हैं. इसके सिवाय कहानी संग्रह – एक सदी का सफरनामा, नए समीकरण, जब तक यहाँ रहना है, ट्रेडमिल पर जिंदगी, एवं लघुकथा संग्रह – उल्टी गिनती, सुनामी सड़क, खारी बूँदें और उपन्यास – चल, आ चल जिंदगी, चंद्रदीप, बिग बॉस सीजन कोरोना प्रकाशित है.

सुनीता शानू…एक व्यंग्य संग्रह. “फिर आया मौसम चुनाव का(प्रभात प्रकाशन-1915)”, एक कविता संग्रह…मन पखेरू फिर उड़ चला (हिंद युग्म-1913), कई सांझा कविता एवं व्यंग्य संग्रह, वे पुरानी हिन्दी ब्लागर हैं.

डा नीरज सुधांशु.. आप वनिका प्रकाशन की संस्थापिका हैं. लिखी तो व्यथा कही तो लघुकथा आदि उनकी कृतियां हैं, मूलतः लघुकथा लिखती हैं जिनमें व्यंग्य के संपुट पढ़ने मिलते हैं. वे पेशे से डाक्टर हैं.

सीमा राय मधुरिमा का व्यंग्य संग्रह ” खरी मसखरी”, ” ब्लाटिंग पेपर” डायरी लेखन और कविता संग्रह मुखर मौन तथा मैं चुनुंगी प्रेम आ चुके हैं.

डा शशि पाण्डे,किताबें हैं चौपट नगरी अंधेर राजा (संग्रह), मेरी व्यंग्य यात्रा (संग्रह), व्यंग्य की बलाएं (संपादन), बकैती गंज ( हास्य साक्षात्कार संपादन)

नीलम कुलश्रेष्ठ.. महिला चटपटी बतकहियाँ (व्यंग्य संग्रह) के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं.

कीर्ति काले का संग्रह “ओत्तेरेकी” तैंतीस व्यंग्य लेखों का संकलन है. वे व्यंग्य जगत में जानी पहचानी लेखिका हैं.

वीणा वत्सल सिंह प्रतिलिपि डाट काम पर जाना पहचाना सक्रिय नाम हैं वे कहानियां लिखती हैं और अपने लेखन में व्यंग्य प्रयोग करती हैं.

नुपुर अशोक… पचहत्तर वाली भिंडी उनका व्यंग्य संग्रह है और मेरे मन का शहर उनकी कविता की प्रकाशित पुस्तकें हैं.

आरिफा एविस अपने व्यंग्य उपन्यास नाकाबन्दी के संदर्भ में लिखती हैं ” पिछले दिनों कश्मीर में जो हुआ उसे लेकर भारतीय मीडिया की अलग-अलग राय है. ऐसे में कश्मीर के जमीनी हालात को करीब से देखना, जहाँ फोन नेटवर्क बंद हो, कर्फ्यू लगा हुआ हो एक मुश्किल काम था. मैं कश्मीर की मौजूदा स्थिति पर लेख, व्यंग्य, कहानी लिखने की सोच रही थी लेकिन उपरोक्त माध्यमों से पूरी बात कहना बड़ा ही मुश्किल था. इसलिए मैंने कश्मीर के नये हालात और उनसे उपजी कश्मीर की राजनीतिक, आर्थिक और मनोस्थिति बयान दर्ज करते हुए इसे उपन्यास की शक्ल में लिखा है. मास्टर प्लान उनका एक और उपन्यास है. राजनीतिक होली, जांच जारी है उनके व्यंग्य संग्रह हैं.

अनीता श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह – बचते- बचते प्रेमालाप, कविता संग्रह- जीवन वीणा, कहानी संग्रह- तिड़क कर टूटना, बालगीत संग्रह- बंदर संग सेल्फी छप चुके हैं. वे संभावनाशील व्यंग्यकार हैं.

अंशु प्रधान का व्यंग्य संग्रह हुक्काम को क्या काम, उपन्यास रक्कासा और कहानी संग्रह कफस प्रकाशित है.

इंद्रजीत कौर का संग्रह ” चुप्पी की चतुराई” प्रकाशित है, मठाधीशी और कठमुल्लापन के विरोध में लिखना साहस पूर्ण होता है. वे स्वयं सिक्ख धर्म से होते हुये भी अपने ही धर्म की कमियों पर बहुत साहस के साथ पंजाबी पत्रिका ‘पंजाबी सुमन ‘ में स्तम्भ लिखती रहीं हैं. उन्होंने एक अन्य व्यंग्य संग्रह ईमानदारी का सीजन, तथा पंचतंत्र की कथायें भी लिखे हैं.

अनामिका तिवारी जबलपुर से हैं…उन का प्रकाशित व्यंग्य संग्रह एक ही है ‘ दरार बिना घर सूना ‘ 2005 में दिल्ली शिल्पायन से प्रकाशित हुआ था. नाटक ‘ शूर्पनखा ‘ भी उन्होंने लिखा है.

अलका पाठक की पुस्तक – किराये के लिए खाली है.

पल्लवी त्रिवेदी पुलिस अधिकारी हैं. उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं—‘अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा’ (व्यंग्य-संग्रह); ‘तुम जहाँ भी हो’ (कविता-संग्रह)। उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रही हैं। लेखन के अतिरिक्त वे यात्राओं, संगीत व फ़ोटोग्राफ़ी का शौक रखती हैं. ‘तुम जहाँ भी हो’ पुस्तक के लिए उन्हें 2020 में मध्यप्रदेश के ‘वागीश्वरी सम्मान’ से सम्मानित किया गया.

साधना बलवटे ने समिक्षात्मक कृति “शरद जोशी व्यंग्य के आर पार ” लिखी है. उनका व्यंग्य संग्रह ” ना काहू से दोस्ती हमरा सबसे बैर ” सदयः प्रकाशित है.

अर्चना चतुर्वेदी का व्यंग्य उपन्यास गली तमाशे वाली बहू चर्चित है.

कांता राय मूलतः लघुकथायें लिखती हैं. जिनमें वे व्यंग्य का सक्षम प्रयोग करती हैं. उनकी विभिन्न विधाओ की कई किताबें प्रकाशित हैं.

शेफाली पाँडे, दलजीत कौर,सक्रिय बहुपठित लेखिकायें हैं. सुषमा व्यास राजनिधि की यद्यपि व्यंग्य केंद्रित किताब अब तक नहीं है पर वे व्यंग्य मंचो पर सक्रिय रहती हैं, मेधा झा स्फुट व्यंग्य लिखती हैं,वे अनेक संग्रहों में सहभागी हैं. सारिका गुप्ता स्फुट व्यंग्य लिख रही युवा व्यंग्यकार हैं, वे कानूनी विषय पर एक किताब लिख चुकी हैं. डा.शांता रानी ने हिंदी नाटकों में हास्य तत्व पुस्तक लिखी है. लक्ष्मी शर्मा मूलतः व्यंग्यकार नहीं हैं पर उनके उपन्यास, एकांकी में व्यंग्य की झलक है.सिधपुर की भक्तिनें, स्वर्ग का अंतिम उतार,उपन्यास, कथा संग्रह आदि लिखे हैं.

डा शैलजा माहेश्वरी ने ” हिंदी व्यंग्य में नारी ” किताब लिखी है. यह पुस्तक हिंदी व्यंग्य में नारी के योगदान पर गंभीर समालोचनात्मक कृति है. बीकानेर की मंजू गुप्ता के संपादन में भी एक पुस्तक व्यंग्य समालोचना पर आई है. जबलपुर में महाविद्यालय में हिन्दी की विभागाध्यक्ष डा स्मृति शुक्ल ने व्यंग्य आलोचना सहित, साहित्यिक समालोचना के क्षेत्र में बहुत काम किया है. उन्हें म प्र साहित्य अकादमी से आलोचना पर पुरस्कार भी मिल चुका है. उन्होंने ” विवेक रंजन के व्यंग्य समाज के जागरुख पहरुये के बयान ” शोध आलेख लिखा है. स्वाति शर्मा, जबलपुर डा नीना उपाध्याय के निर्देशन में विवेक रंजन के व्यंग्य के सामाजिक प्रभाव पर जबलपुर विश्वविद्यालय से शोध कार्य कर रही हैं. आशा रावत की पुस्तक – हिंदी निबंध-स्वतंत्रता के बाद शीर्षक से प्रकाशित है जिसमें महिला व्यंग्य समालोचना पर भी लिखा गया है.

दीपा गुप्ता ने अब्दुल रहीम खानखाना पर विस्तृत कार्य किया है. उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं. यद्यपि व्यंग्य केंद्रित पुस्तक अभी तक नहीं आई है. इसके अतिरिक्त भारती पाठक, गरिमा सक्सेना, पूजा दुबे, ऋचा माथुर,आदर्श शर्मा, अनीता भारती, विभा रश्मि, जयश्री शर्मा, पुष्प लता कश्यप, निशा व्यास, मीरा जैन, प्रभा सक्सेना, रेनू सैनी, डा निर्मला जैन, उषा गोयल, पूनम डोगरा, नीलम जैन, ललिता जोशी, अर्चना सक्सेना, कुसुम शर्मा, सीमा जैन, विदुषी आमेटा, दीपा स्वामिनाथन, आदि लेखिकायें राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सोशल मीडीया प्लेटफार्मस् एवं पत्र पत्रिकाओ में जब तब स्फुट रूप से सक्रिय मिलती हैं. भले ही इनमें से कई पूर्णतया व्यंग्य संधान नहीं कर रही किन्तु अपनी विधा कविता, कहानी, ललित लेख, लघु कथा आादि में व्यंग्य प्रयोग करती हैं.

 व्यंग्य-लोचन पुस्तक में डा.सुरेश महेश्वरी ने रीतिकालीन कवियों के मार्फत उपालम्भ के रूप में महिलाओं द्वारा किये जाने वाले व्यंग्य को विस्तार दिया है. इसी प्रकार व्यंग्य चिन्तना और शंकर पुणताम्बेकर विषयक पुस्तक में भी काफी विस्तार से महिला व्यंग्य की चर्चायें की गई है. डा.बालेन्दु शेखर तिवारी ने भी महिला व्यंग्य लेखन पर अपने विचार दिए हैं.

अस्तु, सीमित संदर्भों को लेकर कम शब्दों में आज सक्रिय व्यंग्य लेखिकाओ के कृतित्व के विषय में यह आलेख एक डिस्क्लैमर चाहता है, मैने यह कार्य निरपेक्ष भाव से महिला व्यंग्य लेखन को रेखांकित करने हेतु सकारात्मक भाव से किया है, उल्लेख, क्रम, कम या ज्यादा विवरण मात्र मुझे सुलभ सामग्री के आधार पर है, त्रुटि अवश्यसंभावी है जिसके लिये अग्रिम क्षमा. कई नाम जरूर छूटे होंगे जिनसे अवगत कराइये ताकि यह आलेख और भी उपयोगी संदर्भ बन सके.

महिला व्यंग्य लेखन स्वच्छंद रुप से विकसित हो रहा है, और संभावनाओ से भरपूर है. महिला व्यंग्यकार राजनीती, घर परिवार,मोहल्ला, पड़ोस, रिश्ते नाते, बच्चे, परिवेश, पर्यावरण, स्त्री विमर्श, लेखन, प्रकाशन, सम्मान की राजनीति आदि सभी विसंगतियों पर लिख रही हैं. महिला लेखन में विट है ह्यूमर है, आइरनी है, कटाक्ष, पंच आदि सब मिलता है. हर लेखिका की रचनाओं का कलेवर उसकी अभिव्यक्ति की क्षमता और अनुभव के अनुरूप सर्वथा विशिष्ट है. व्यंग्य लेखन को ये लेखिकायें पूरी संजीदगी से निभाती नजर आती हैं. सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि महिला व्यंग्य लेखन में कहीं प्राक्सी नहीं है जैसा महिलाओ को लेकर अन्य क्षेत्रो मे प्रायः होता दिखता है उदाहरण के लिये गांवों में महिला सरपंच की जगह उनके पति भले ही सरपंचगिरी करते मिेलें किन्तु संतोष है कि महिला व्यंग्य लेखन में पूर्ण मौलिकता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #136 – लघुकथा – “रहस्य” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक लघुकथा “रहस्य”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 136 ☆

 ☆ लघुकथा- “रहस्य” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’   

अ ने चकित होते हुए कहा, “यह तो चमत्कार हो गया!”

इस पर ब ने कहा, “यह तो होना ही था।”

“मगर कैसे?” अ ने पूछा, “ये हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाते हैं। सोचते हैं कि प्राथमिक शाला के शिक्षक कुछ नहीं जानते हैं। इस कारण नमस्कार तक नहीं करते हैं।”

ब ने कुछ नहीं कहा।

“आपने ऐसा क्या किया जो ये हमारा नमस्कार करके आदर करने लगे हैं।”

“कुछ नहीं। इनका स्वार्थ है इसलिए,” ब ने कहा तो अ ने  पूछा, “क्या स्वार्थ है जिसकी वजह से ये नमस्कार करने लगे हैं।”

“12वीं बोर्ड की परीक्षा में पर्यवेक्षक के रुप में मेरी ड्यूटी लगी हुई है इस कारण,” कहते हुए ब ने अपने मुंह को झटका दिया। मानो नमस्कार रुपी चांटे के दर्द को दूर करना चाह रहा हो, इसलिए अपने मुंह को एक ओर झटके से उचका दिया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-04-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 158 ☆ बाल गीत – बादल जी हैं बड़े चितेरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 158 ☆

☆ बाल गीत – बादल जी हैं बड़े चितेरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बादल जी हैं बड़े चितेरे।

आसमान में चित्र उकेरे।।

 

कहीं चलाते घोड़ा गाड़ी

कभी चलाते हल और बैल।

कभी भागते ट्रैक्टर लेकर

करते नित्य अनोखे खेल।।

 

कभी – कभी तो सूर्य को घेरें

जल्दी आकर बड़े सवेरे।।

 

शेर कभी भालू बन जाते

कभी बनें चितकबरे जिराफ।

कभी उड़ें पर्वत के ऊपर

कभी निकालें मुख से भाप।।

 

सोनी , मौनी , जॉनी खुश हैं

जादूगर बादल को  टेरे।।

 

कभी मौसमी वर्षा लाते

खूब बरसते झम – झम – झम – झम।

कभी ठंड में ठंड बढ़ाते

कभी बरसते बिल्कुल कम – कम।।

 

कभी – कभी ओले बरसाते

खूब बर्फ के लगते डेरे।।

 

काम करें वह बड़ी लगन से

बुझती है धरती की प्यास।

पौधे – पेड़ प्रफुल्लित होते

हरी – भरी हो जाती घास।।

 

बिन स्वार्थ के वह तो बरसें

सच में लगते बड़े कमेरे।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #159 ☆ संत मीराबाई… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 159 ☆ संत मीराबाई☆ श्री सुजित कदम ☆

कृष्णभक्त मीराबाई

 थोर भक्ती परंपरा

बारा तेराशे भजने

भक्तरस वाहे झरा…! १

 

जन्मा आली संत मीरा

रजपूत कुटुंबात

मातृवियोगात गेले

बालपण   आजोळात…! २

 

सगुणाची उपासक

कृष्ण मुर्ती  पंचप्राण

हरी ध्यानी एकरूप

वैराग्याचे  घेई वाण….! ३

 

एका एका अभंगात

वर्णियले कृष्णरूप

प्रेम जीवनाचे सार

ईश्वरीय हरीरुप….! ४

 

कृष्ण मुर्ती घेऊनी या

मीराबाई वावरली

भोजराज पती तिचा

नाही संसारी रमली..! ५

 

कुल दैवताची पूजा

कृष्णा साठी नाकारली 

कृष्ण भक्ती करताना

नाना संकटे गांजली…! ६

 

अकबर तानसेन

मंत्र मुग्ध अभंगात

दिला रत्नहार भेट

मीरा भक्ती गौरवात…! ७

 

आप्तेष्टांचा छळवाद

पदोपदी  नाना भोग

कृष्णानेच तारीयले

साकारला भक्तीयोग…! ८

 

राजकन्या मीरा बाई

गिरीधर भगवान

भव दु:ख विस्मरण

नामजप वरदान…! ९

 

नाना वाद प्रमादात

छळ झाला अतोनात

वैरी झाले सासरचे

मीरा गांजली त्रासात…! १०

 

खिळे लोखंडी लाविले

दृष्टतेने बिछान्यात

गुलाबाच्या पाकळ्यांनी

दूर केले संकटास…! ११

 

दिलें प्रसादात विष

त्याचे अमृत जाहले

भक्त महिमा अपार

कृष्णानेच तारियले…! १२

 

 लपविला फुलांमध्ये

जहरीला नागराज

त्याची झालीं फुलमाळा

सुमनांचा शोभे साज….! १३

 

गीत गोविंद की टिका

मीरा बाईका मलार

शब्दावली पदावली 

कृष्ण भक्तीचा दुलार..! १४

 

प्रेम साधना मीरेची

स्मृती ग्रंथ सुधा सिंधू

भव सागरी तरला

फुटकर पद बिंदू….! १५

 

भावोत्कट गेयपदे

दोहा सारणी शोभन

छंद अलंकारी भाषा

उपमान चांद्रायण….! १६

 

विसरून देहभान

मीरा लीन भजनात

भक्ती रूप  झाली मीरा

कृष्ण सखा चिंतनात….! १७

 

कृष्ण लिला नी प्रार्थना

कृष्ण विरहाची पदे

भाव मोहिनी शब्दांची

संतश्रेष्ठ मीरा वदे…! १८

 

गिरीधर नागरही

नाममुद्रा अभंगात

स्तुती प्रेम समर्पण

दंग मीरा भजनात…! १९

 

द्वारकेला कृष्णमूर्ती

मीराबाई एकरूप

समाधीस्थ झाली मीरा

अभंगात निजरूप….! २०

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ बकुळी… अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? बकुळी… अज्ञात ? ☆ सौ. गौरी गाडेकर 

रुसून बसली एकदा

कृष्णवाटिकेत बकुळी

सगळी पुष्प लेवती मोहक रंग

मीच एकटी का सावळी — 

वाटिकेतील फुले पाने लता

कुजबुजती एकमेकांच्या कानात

नाजुक साजुक आपली कन्या

का बरे मुसमुसे एका कोपर्‍यात — 

गेल्या तिला समजवायला

मोगरा सोनटक्का सदाफुली

बकुळी म्हणे उदास होऊन

शुभ्रतेपुढे तुमच्या दिसे मी कोमेजलेली —

गुलाबराजा आला लवाजमा घेऊन

म्हणे कसले हे वेड घेतले मनी

बकुळी प्रश्न विचारी मुसमुसून

का मोहक पाकळ्या लेवू शकत नाही तनी —

सरतेशेवटी आला पारिजातक

सडा पाडत बकुळीच्या गालावर

थांब तुला सांगतो गुपित

मग हास्य फुलेल भोळ्या चेहर्‍यावर —

कृष्णाने माझी भेट दिली सत्यभामेला

सडा मात्र पडे रुक्मिणीच्या अंगणात

भोळ्या राधेला काय बरं देऊ

हा विचार अविरत चाले भगवंताच्या मनात —

तितक्यात आलीस तु सामोरी

गंधाने दरवळली अवघी नगरी

शुभ्र नाजुक तुझी फुले पाहुन

भगवंत म्हणती हीच राधेला भेट खरी —

अलगद तुला घेता हाती

स्पर्शाने तु मोहरलीस

भरभरून सुगंध देऊन हरीला

सावळ्या रंगात मात्र भिजून गेलीस — 

ऐकुन हे बोल प्राजक्ताचे

बकुळी देहभान विसरुन गेली 

अलौकिक आनंदाने होऊन तृप्त

राधाकृष्णाच्या प्रेमरंगात रंगली —— 

कवी : अज्ञात

प्रस्तुति : सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #180 – बाल गीत – कष्ट हरो मजदूर के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  बाल गीत “कष्ट हरो मजदूर के…”)

☆  तन्मय साहित्य  #180 ☆

बाल गीत – कष्ट हरो मजदूर के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(बाल गीत संग्रह “बचपन रसगुल्लों का दोना” से एक बालगीत)

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

तेरी चाँदनी के साथी

नींद खुले में आ जाती

सुबह विदाई में तेरे

मिलकर गाते परभाती,

ये मजूर न माँगे तुझसे

लड्डू मोतीचूर के

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के।।

 

पंद्रह दिन तुम काम करो

तो पंद्रह दिन आराम करो

मामा जी इन श्रमिकों पर भी

थोड़ा कुछ तो ध्यान धरो,

भूखे पेट  न लगते अच्छे

सपने कोहिनूर के

चंदा मामा दूर के

कष्टहरो मजदूर के।।

 

सुना आपके अड्डे हैं

जगह जगह पर गड्ढे हैं

फिर भी शुभ्र चाँदनी जैसे

नरम मुलायम गद्दे हैं,

इतनी सुविधाओं में तुम

औ’ फूटे भाग मजूर के

चंदा मामा दूर के

दुख हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ सूरज सगा कहाँ है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सूरज सगा कहाँ है।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ सूरज सगा कहाँ है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

घेर हमें अँधियारे बैठे

जाने कब होगा भुन्सारा

सूरज अपना सगा कहाँ है?

 

जले अधबुझे दिए लिए

अब भी चलती पगडंडी

सड़कें लील गईं खेतों को

फसल बिकी सब मंडी

 

गाँव गली आँगन चौबारा

निठुर दलिद्दर भगा कहाँ है?

 

रिश्ते गँधियाते हैं

संबंधों में धार नहीं है

मँझधारों में नैया

हाथों में पतवार नहीं है

 

डूब चुका है पुच्छल तारा

चाँद-चाँदनी पगा कहाँ है?

 

नहीं जागती हैं चौपालें

जगता है सन्नाटा

अपनेपन से ज़्यादा महँगा

हुआ दाल व आटा

 

कैसे होगा राम गुजारा

भाग अभी तक जगा कहाँ है?

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट शाखा में जब अपडाउनर्स की प्रभुता बढ़ी तो स्वाभाविक था कि नियंत्रण कमजोर पड़ा. ये जमाना मेनुअल बैंकिंग का था जब शाखाएँ बिना कम्प्यूटर के चला करती थीं और ऐसा माना जाता था कि कुशल मनुष्य ही मशीन से बेहतर परफॉर्मेंस देता है. पर अपडाउनर्स की प्रभुता ने शाखा का संतुलन, अस्थिर करने की शुरुआत कर दी. संतुलन निष्ठा और व्यक्तिगत सुविधा के बीच ही रहता है और यह संतुलन बना रहे तो शाखाएँ भी परफार्म करती हैं और काम करने वालों के परिवार भी संतुष्ट रहते हैं. पर जब व्यक्तिगत सुविधा, कार्यालयीन निष्ठा को दरकिनार कर दे तो बहुत कुछ बाकी रह जाता है और असंतुलन की स्थिति बन जाती है. इसे बैंकिंग की भाषा में बेलेंसिंग का एरियर्स बढ़ना और साप्ताहिक/मासिक निष्पादन की जानकारी पहुंचने में बर्दाश्त के बाहर विलंब होना कहा जाता है.

तालघाट के शाखा प्रबंधक सज्जनता और धार्मिकता के गुणों से लबालब भरे थे पर उनके व्यक्तित्व से दुनियादारी, कठोरता, चतुराई, निगोशिएशन नामक दुर्गुणों या एसाइनमेंट के अनुसार जरूरी गुणों का जरूरत से ज्यादा अभाव था. सारे ऐसे व्यसन, जैसे चाय, पान, तंबाकू, मदिरा जिनसे सरकारें भी टेक्स कमाती हैं, उनसे कोसों दूर थे. हनुमानजी के परम भक्त, हर मंगलवार और शनिवार को हनुमान चालीसा और सुंदरकांड के नियमित वाचक या पाठक अपने परिवार के संग शाखा के ऊपर बने शाखाप्रबंधक निवास में रहते थे. उनकी पूजा की घंटियों और धूप की सुगंध से शाखा भी महक जाती थी और इस प्रातःकाल पूजा का प्रसाद, शाखा में ड्यूटी पर रहे सिक्युरिटी गार्ड भी पाते थे. कभी कभी या अक्सर उनके लिये चाय का भी आगमन हो जाता था क्योंकि शाखाप्रबंधक से ज्यादा गृहसंचालन और परिवार के संचालन में उनकी भार्या कुशल थीं. अतः शाखाप्रबंधक महोदय ने परिवार संचालन का भार पत्नी पर और शाखा संचालन का भार हनुमानजी की कृपा पर छोडकर अपना मन भक्ति भाव में लगा लिया था। पर हनुमानजी तो स्वयं कर्मठ और समर्पित भक्त थे तो धर्म से ज्यादा कर्म और राम के प्रति निष्ठा पर विश्वास करते थे. तो शाखा प्रबंधक महोदय को परिवार से तो नहीं पर नियंत्रक कार्यालय में पदस्थ वरिष्ठ उप प्रबंधक जो उनके मित्र भी थे, का फोन आया. शाखा की समस्याओं पर चर्चा के दौरान जब शाखाप्रबंधक महोदय ने नियंत्रक कार्यालय से रेडीमेड समाधान मांगा तो वरिष्ठ उपप्रबंधक महोदय ने अपनी मित्रता और नियंत्रक कार्यालय के रुआब के मुताबिक उनको समझा दिया कि हम यहां नियंत्रण के लिये बैठे हैं, आपको रेडीमेड समाधान (जो कि होता नहीं) देने के लिये नहीं. परम सत्य आप समझ लो कि शाखाप्रबंधक आप हो और शाखा आपको ही चलानी है. स्टाफ जैसा है, जितना है उससे ही काम करवाना है. बैंक इन सबको और आपको भी इस काम के लिए ही वेतन देती है. आपकी शाखा की इमेज हर मामले में इतनी बिगड़ चुकी है कि हमारे साहब को भी आपके कारण बहुत कुछ सुनना पड़ता है. कोशिश करिये कि वो आपको नज़र अंदाज ही करते रहें या फिर खुद भी सुधरिये और शाखा को भी सुधारने की कोशिश कीजिये. यारी दोस्ती के कारण पहले से आपको बता रहे हैं. शाखाप्रबंधक महोदय इन सब बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल रहे थे क्योंकि उनके ध्यान में तो सिर्फ बजरंगबाण का पाठ चल रहा था. यही पूरा करके वो नीचे शाखाप्रबंधक के कक्ष में विराजमान हो गये और अंशकालिक संदेशवाहक को नारियल और प्रसाद हेतु लड्डू लाने का अ-कार्यालयीन आदेश दिया. आदेश का तत्काल द्रुत गति से पालन हुआ और शाखा में हनुमानजी को प्रसाद अर्पित करने और उसे जो भी शाखा पधार गये थे, उन्हें प्रसाद वितरण कर शाखा के केलेंडर के अनुसार मंगलवार नामक कार्यदिवस का आरंभ हुआ.

नोट : किस्साये तालघाट जारी रहेगा. हममें से अधिकांश इसमें अपनी यादों का आनंद लेंगे, हो सकता है कुछ ऐसे भी हों जिनका इन सब से वास्ता ही न पड़ा हो और वे अपने यथार्थ रूपी अतीत को जो उनकी भी बुनियाद रही है, भूलकर मायाजाल की सोशलमीडियाई कल्पनाओं में ही गर्वित रहें. तो उनके लिए तो इस किस्से का कोई मतलब नहीं भी हो सकता है पर ये किस्सा तो जारी रहेगा मित्रों क्योंकि संतुष्टि का सबसे बड़ा हिस्सा तो लेखक के हिस्से में ही आता है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 180 ☆ पुण्याई… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 180 ?

💥 पुण्याई… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती पैलू असतात ना,

बाईच्या जगण्याला,

कसे असतो आपण,

मुलगी म्हणून ?

बहिण म्हणून ?

बायको म्हणून?

आई म्हणून ?

 

एका लेखिकेने लिहिल्या होत्या,

आदर्श मातांच्या,

विलक्षण कथा!

मी दिली होती भरभरून दाद,

त्या लेखनाला!

तिने मला मागितला ,

माझ्या आईपणाचा आलेख,

“मला लिहायचंय तुमच्यावर,

“आदर्श माता” म्हणून!”

 

माझा सविनय नकार,

“किती महान आहेत

त्या सा-याजणीच तुम्ही

ज्यांच्यावर लिहिलंय!”

 

मी असं काहीच नाही केलेलं,

माझ्या मुलासाठी!

अंतर्मुख होऊन,

घेतली होती स्वतःची,

उलटतपासणी !

 

आता परत आलंय आवतंन,

आदर्श माता पुरस्कार

 स्वीकारण्याचे !

हसले स्वतःशीच,

आठवल्या माझ्याचं

कवितेच्या ओळी,

“भोग देणं आणि घेणं

सोपं असेलही

किती कठीण असतं

आई होणं !”

 दूरदेशीच्या मुलाशी बोलले,

मिश्किलपणे,

या पुरस्काराबद्दल–

हसत हसत..आणि…

त्याचं बोलणं ऐकून वाटलं,

आई होणं  हेच

 एक पुण्य,

नव्हे जन्मजन्मांतरीची

पुण्याई —

निसर्गाने बहाल केलेला,

केवढा मोठा पुरस्कार!!

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ सांगावा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ सांगावा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सुश्री सुनिता गद्रे ☆ 

पुस्तकाचे नाव- सांगावा

लेखक -श्री सचिन वसंत पाटील

पृष्ठ संख्या -135

 मूल्य- दोनशे रुपये.

अलीकडेच सांगावा हा खूप चांगला कथासंग्रह वाचनात आला.कर्नाळ या सांगली जवळच्या एका छोट्या गावात राहणारे लेखक सचिन पाटील यांचा!… त्यांना नुकताच भेटण्याचा योग आला. अक्षरशः विकलांग अवस्थेत जगणारा, सगळ्या विपरीत परिस्थितीशी लढणारा हा योध्दा!…त्याच्याबरोबरच्या नुसत्या बोलण्याने सुद्धा आपल्यात सकारात्मक ऊर्जेचा संचार होतो.’ सांगावा ‘या कथासंग्रहाची मी वाचली ती चौथी आवृत्ती ! दहा वर्षात चौथी आवृत्ती निघणे ही कुठल्याही नवोदित लेखकाला अभिमान वाटावा अशीच गोष्ट आहे.

श्री सचिन वसंत पाटील

संग्रहातील सर्व कथा ग्रामीण जीवनाचा चेहरा मोहरा दाखवितात. यात एकूण बारा कथांचा समावेश आहे .कथा बीजाची दोन रूपे येथे आढळतात. पहिले रूप म्हणजे आजच्या खेड्यातील मूल्य संस्कृतीचा होऊ घातलेला -हास  आणि दुसरे म्हणजे बदलत्या परिवर्तन प्रक्रियेत माणूस, माणुसकी,नाती, निती,आणि माती पण टिकली पाहिजे हा लेखकाचा दृष्टिकोन. या दोन कथा बीजांभोवती ‘सांगावा’ कथासंग्रहातील कथांचे वर्तुळ तयार झाले आहे.

संग्रहातील भूल ही पहिली कथा! स्वतःच्या हाताने जीवनाची शोकांतिका करणाऱ्या शेतकऱ्याची अंधश्रद्धा, अडाणी समजूत यातून ती साकारली गेलेली आहे. हणमा शेतकरी ऐकीव गोष्टीला बळी पडून ,आपल्या संसाराला रान भूल लागू नये म्हणून भ्रमिष्टासारखा जेव्हा आपल्या शेतातील वांग्याचे बहारातील पीक उध्वस्त करून टाकतो, तेव्हा वाचकाला खूप हळहळ वाटत राहते.

दुसरी कथा ‘काळीज’! ग्रामीण परिसरात ‘सेझ’चे आगमन आणि कृषी जीवनाची फरपट लेखकाने येथे चित्रित केली आहे. शामू अण्णा ,काळी आईचे जिवापाड सेवा करणारा शेतकरी! पण त्याचाच मुलगा जेव्हा त्यांना न विचारता जमीन विक्रीची परवानगी देतो, तेव्हा तो खचून जातो  आणि वेडा बागडा  बिन काळजाच्या, निर्जीव बुजगावण्यागत जगत राहतो.  कथा वाचकाच्या काळजाला एकदम भिडते.

‘पावना ‘कथेत खेडेगावातल्या जीवन मूल्यांचा -हास चित्रित होतो. कितीही कष्ट, त्रास झाला तरी आलेल्या पाहुण्यांचे आदरातिथ्य करणे, त्याला आधार देणे ,विचारपूस करणे हा ग्रामीण माणसाच्या मनाचा मोठेपणा कालौघात ग्रामीण माणसाकडून हिरावला गेलेलाआपल्याला या कथेत दिसतो.

‘मांडवझळ ‘ही एका लाली नावाच्या पाळीव कुत्रीची कथा! ती कुत्रीच येथे सगळं विषद करतेय. भरल्या घरात, लग्न समारंभा दिवशी त्या बिचारीला किती अग्नी दिव्यातून जावे लागले, किती यातना सोसाव्या लागल्या हे वाचून मन विषण्ण  होते.त्या पाळलेल्या बिचारीला खायला द्यायची पण कोणाला सवड आणि आठवण नाहीय. तिचे झालेले हाल आणि अगतिकता बघून मुक्या प्राण्यांना भूक असते, भावना असतात त्यांचे मन समजून घ्या असा मोलाचा संदेश ही कथा देते.

‘वाट ‘कथेत मोठ्या बाहुबली शेतकऱ्याने जाण्या-येण्याच्या वाटेसाठी  एका गरीब शेतकऱ्याची लावलेली  वाट….आजही शेतकऱ्यांच्या नशिबीचा वनवास कसा असतो हे दाखवते.

‘धग’ ही संभा या कष्टाळू प्रामाणिक इस्त्री वाल्याची कथा आहे. त्याच्या जीवन प्रवास बघता, साध्या सरळ स्वभावाच्या माणसांची ही शोकांतिकाच असते काय?.. की त्याला उन्हाळ्याची धग, पोटातील भुकेची धग, न मिळालेल्या मायेची धग यात पिळपटून टाकलं जातं… असा प्रश्न मनात उभा राहतो.

मरणकळा ही नव्या जुन्या पिढीतील खाईची कथा. कथा नायकाला कितीही वाटलं तरी पत्नी विरुद्ध जाऊ न शकल्याने वडिलांचे होणारे हाल.. आणि त्यामुळे वडिलांच्या बरोबरच हळव्या मनाचा तो मरण कळा सोसतोय हे वास्तवाचं विदारक चित्रण येथे आहे.

‘सय’ एक स्वप्न कथा आहे. आपल्या आजोळी गेलेल्या सहा, सात वर्षाच्या मुलाची सय कथा नायकाला किती विचित्र स्वप्न पाडते हे लेखकाने छान रंगवले आहे.

‘चकवा’ ही खेड्यातील प्रेमाचा चकवा देणारी कथा! बाजारातून घरी जाणाऱ्या बज्याला लग्नाचा चकवा, स्त्री भेटल्याचा चकवा, अंधाराचा चकवा इत्यादी प्रतिमांमधून समाजातील अंधश्रद्धा, भूत, पिशाच्यावर विश्वास यावर प्रकाश टाकला आहे.

‘ओझ’एक सुंदर कथा आहे. गावातून शहरात जाऊन खूप मोठा आणि धनाढ्य झालेला मुलगा .गावात पंचवीस वर्षानंतर येऊन गावाचं… बारा बलुतेदारांचं आपल्यावर असलेलं ओझं उतरवतो खूप खुमासदार पद्धतीनं गावाचं चित्र रंगवलं गेलंय.

सांगावा ही संग्रहातील शीर्षककथा! मातृ हृदयानं आपल्या प्रिय पुत्रासाठी, किंबहुना हा एका पिढीने दुसऱ्या पिढीला दिलेला सांगावा आहे. आपल्या निर्वसनी मुलाला नाईलाजानं आईनं शहरात पाठवलंय. चार पैसे कमावले तर कर्ज फिटेल, गावात शेती करून मानानं राहता येईल हा त्यातला विचार. पण शहरातील छंदी-फंदीपणा,व्यसनं या सगळ्यामुळे पैसा हातात आला की नको ते करणं, संगतीचा परिणाम,  सखू म्हातारीच्या मनात असंख्य चित्रे तयार होतात. नको तो पैसा नको ते शहरात रहाणं !पोराला बहकू द्यायचं नसतं. शेवटी मुलाला सांगावा देते”जसा असचील तसा घराकडे निघून ये.”ही कथाही काळजाला जाऊन  भिडते.

आशय, अभिव्यक्ती भाषा मूल्य याने सांगावा कथा संग्रह वाचकांचे लक्ष खिळवून ठेवतो. लेखक सचिन पाटील यांनी ग्रामीण संस्कृती, लोकसंकेत, व्यक्ति, प्रवृतीचं दर्शन मोठ्या सूचकतेने केलं आहे. बोलीभाषा, निवेदनातील सजगता ,सहजता, घडलेला प्रसंग साक्षात् डोळ्यासमोर उभा करण्याची धाटणी खूपच वाखाणण्याजोगी आहे .एक उत्कृष्ट कथासंग्रह वाचल्याचा आनंद ‘सांगावा’ निश्चितच देतो.

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परिचय – सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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