हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #180 ☆ वक्त और उलझनें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 180 ☆

☆ वक्त और उलझनें 

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता; भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है; उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो केवल संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए; जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है, जो ‘देखते ही छिप जाएगा, जैसे तारे प्रभात काल में अस्त हो जाते हैं। इसलिए आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो! आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण-अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में ऐसे लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल-कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें आपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। इस स्थिति में आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं। दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि वह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #178 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 178 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … ☆

आभार

नाम लिया है आपने,  मान रहे आभार

शब्द नहीं हैं कोश में,  करो प्रेम स्वीकार।।

ज्वार

ज्वार बाजरा खा रहे, है सेहत का राज।

ताकत अब बढ़ने लगी, बोझ न लगता काज।।

पुलकन

मन पुलकित अब हो गया, आई मेरे द्वार।

पुलकन मन की जान लो, तुम ही मेरा प्यार।।

सुकुमार

लिखा प्रकृति पर पंत ने, कवि-मन है सुकुमार

शब्द -शब्द से झाँकता, पर्यावरण अपार।।

चितवन

चितवन तेरी देखकर, मन है हुआ अधीर।

बढ़ी मिलन की प्यास है, होती मन में पीर।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #165 ☆ “संतोष के दोहे… घड़े पर दोहे” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे घड़े पर दोहे. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 165 ☆

☆ “संतोष के दोहे …घड़े पर दोहे☆ श्री संतोष नेमा ☆

गर्मी आते ही मुझे, खूब चाहते लोग

प्यास बुझाता आपकी, जो करते उपयोग

मिट्टी से रुँधा गया, हूँ मिट्टी का लाल

मुझसे परहित सीखिए, खा ठोकर बन ढाल

अहम करे किस बात का, हे मूरख इंसान

मिट्टी का तन बाबरे, फिर झूठी क्यों शान

बार बार मिलती नहीं, यह मानव की  देह

कहे घड़ा शीतल रहो, करो सभी से नेह

घट-पानी सेवन करें, जो भी सज्जन लोग

मिले उन्हे “संतोष” भी, दूर भगें बहु रोग

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #172 ☆ माझा हवेली तालुका ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 172 – विजय साहित्य ?

☆ माझा हवेली तालुका ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

पुणे जिल्ह्यातील एक

शोभे तालुका हवेली

मुळा मुठा नदी सवे

ख्याती याची अलबेली….! १

 

आर्वी उरुळी कांचन

गाव कल्याण कवडी

फुरसुंगी नी थेऊर

खेड शिवापूर गढी….! २

 

चिंचवड नी पिंपरी

सोनापूर, तुळापुर

पुणे शहराचा भाग

औद्योगिक त्याचा नुर…! ३

 

पहा मांजरी, मांडवी

शांत, रम्य,‌परीसर

छोट्या मोठ्या ,वाडी वस्त्या

हवेलीत मनोहर…..! ४

 

पीक बाजरी तांदूळ

गहू,ज्वारी हरभरा

साखरेचा कारखाना

समृद्धीची परंपरा….! ५

 

माझा हवेली तालुका

शेती माती जोपासतो

भक्ती शक्ती कलागुण

नाविन्याने भारावतो….! ६

 

औद्योगिक वसाहती

हवेलीची आहे शान

स्थलांतर करूनिया

खगगण घेती मान….! ७

 

स्वराज्याची उभारणी

सह्याद्रीच्या मुशीतून

साकारले शोर्यतेज

हवेलीच्या कुशीतून…!  ८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ – ऋचा १६ ते २४ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ – ऋचा १६ ते २४ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ (अप्‌सूक्त)

ऋषी – मेधातिथि कण्व 

देवता – १६-२३ अप् (पाणी); २४ अग्नि; 

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील तेविसाव्या  सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अनेक देवतांना आवाहन केलेली असली तरी ती मुख्यतः जलदेवतेला उद्देशून हे अप् सूक्त सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील सोळा ते तेवीस या ऋचा अप् (पाणी) आणि चोविसावी ऋचा अग्नि यांचे आवाहन करतात. या सदरामध्ये आपण विविध देवतांना केलेल्या आवाहनानुसार  गीत ऋग्वेद पाहूयात. आज मी आपल्यासाठी  अप् (पाणी) आणि  अग्नि या देवतांना उद्देशून रचलेल्या सोळा ते चोवीस या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे. 

मराठी भावानुवाद :

अ॒म्बयो॑ य॒न्त्यध्व॑भिर्जा॒मयो॑ अध्वरीय॒ताम् । पृ॒ञ्च॒तीर्मधु॑ना॒ पयः॑ ॥ १६ ॥

यजमानाच्या या यज्ञाच्या माता प्रेमळ

मोद वर्धिती मधुर करोनी जलास अपुल्यातील 

आशीर्वच देऊन ऋत्विजा मार्गासी जात

कर्तव्याची जाण ठेउनी अपुल्या मार्गे वहात ||१६||

अ॒मूर्या उप॒ सूर्ये॒ याभि॑र्वा॒ सूर्यः॑ स॒ह । ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम् ॥ १७ ॥

सन्निध असती त्या सूर्याला अहो भाग्य त्यांचे

भास्कर जवळी त्यांच्या उजळाया जीवन त्यांचे

त्या तर साऱ्या अमुच्या जननी हित अमुचे चिंतित

आशिष देऊनीया यज्ञाला यशाप्रती नेवोत ||१७||

अ॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये॒ यत्र॒ गाव॒ः पिब॑न्ति नः । सिन्धु॑भ्य॒ः कर्त्वं॑ ह॒विः ॥ १८ ॥

कपिला अमुच्या प्राशन करिती पवित्र तोय जयांचे

आपदेवते कृतज्ञतेने आमंत्रण द्यायचे 

सरितांमधुनी अखंड वाहे अमुचे जीवन  

नतमस्तक होऊन तयांना हवीचे अर्पण ||१८|| 

अ॒प्स्व१न्तर॒मृत॑म॒प्सु भे॑ष॒जम॒पामु॒त प्रश॑स्तये । देवा॒ भव॑त वा॒जिनः॑ ॥ १९ ॥

हे जल आहे अमृतसम दिव्य सर्वगुणी 

ओखदमयी हे निरामयी हे बहुगुणी  संजीवनी

देवांनो यज्ञासी यावे त्वरा करोनी झणी

स्तवन कराया या उदकाचे सुरातुन गाउनी ||१९||  

अ॒प्सु मे॒ सोमो॑ अब्रवीद॒न्तर्विश्वा॑नि भेष॒जा । अ॒ग्निं च॑ वि॒श्वश॑म्भुव॒माप॑श्च वि॒श्वभे॑षजीः ॥ २० ॥

अग्निदेव हा सकलांसाठी दयाळू शुभंकर्ता

राखुनिया अंतर्यामी  जल आरोग्याचा दाता

रोगांचे परिहारक दिव्य उदक श्रेष्ठ बहुगुणी

ज्ञानी केले आम्हाला हे सोमाने सांगुनी ||२०||

आपः॑ पृणी॒त भे॑ष॒जं वरू॑थं त॒न्वे३मम॑ । ज्योक् च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥ २१ ॥

जलशक्ती हे तुला प्रार्थना आरोग्या द्यावे

अनंतकाली आम्हासी सूर्याचे दर्शन व्हावे

निरामयाच्या वरदानास्तव  दिव्यौषधी मिळावे

प्रसन्न होऊनी आम्हावरती आशीर्वच हे द्यावे ||२१||

इ॒दमा॑प॒ः प्र व॑हत॒ यत् किं च॑ दुरि॒तं मयि॑ । यद्वा॒हम॑भिदु॒द्रोह॒ यद्वा॑ शे॒प उ॒तानृ॑तम् ॥ २२ ॥

पवित्र पावन निर्मल असशी जलाचिया देवते

दुर्गुण दुष्टावा शत्रुत्व नष्ट करी माते

असत्य वर्तन माझ्या ठायी त्याचे क्षालन करा

जीवनास या कृपा करोनी नेई उद्धारा ||२२||

आपो॑ अ॒द्यान्व॑चारिषं॒ रसे॑न॒ सम॑गस्महि । पय॑स्वानग्न॒ आ ग॑हि॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा ॥ २३ ॥

सर्व जलांनो तुमच्या पायी शरणार्थी झालो

मधुर रसांशी तुमच्या ठायी एकरूप झालो 

जलनिवासि हे अनला देवा प्राप्त येथ होई 

तव तेजाचे दान करोनी कृपावंत होई ||२३||

सं मा॑ग्ने॒ वर्च॑सा सृज॒ सं प्र॒जया॒ समायु॑षा । वि॒द्युर्मे॑ अस्य दे॒वा इंद्रो॑ विद्यात्स॒ह ऋषि॑भिः ॥ २४ ॥

गार्ह्यपत्यदेवा आम्हाला दे आभा संतती

दीर्घायुचा आशिष देई हात ठेवुनी माथी 

तुम्ही दिधले वैभव अमुचे देवांना हो ज्ञात

सर्व ऋषींसह देवेंद्राही होऊ देत विदित ||२४||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)

https://youtu.be/kMVENAZAqj8

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 23 Rucha 16 – 24

Rugved Mandal 1 Sukta 23 Rucha 16 – 24

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ न उमजलेले अश्रू… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ न उमजलेले अश्रू … ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

काळजाला भिडते असे काही तेव्हा शब्दात मांडले जातेच असे नाही… 

मग डोळेच येतात धावून नि भावनेचा ओघ घेतात सामावून.. क्षणभर होते त्यांची कालवाकालव अन आसवांची करतात जमवाजमव.. 

तरारलेले अश्रू पूर्ण डोळे एकेक थेंब ओघळू लागतात..

पाहशील का एकदाच डोळयात माझ्या,दिसतेय का तुला अर्थपूर्ण हळवी भावना असे मुके हुंदके सांगत असतात.. ओथंबलेली डोळ्यातली आसवं पापणीच्या किनाऱ्यावर जलबिंदूची नक्षी काढतात.. 

अन तर्जनी नकळत फिरते तिथे अलगद अलवारपणे टिपून घेते किनाऱ्यावर साचलेले अश्रूबिंदू… 

एखादा उन्मळून वाहिलेला भावनेचा कड गालावरून जेव्हा स्यंदन करत ओघळतो.. 

भर भावुकतेचा वाहून गेला तरी सल त्याचा उरी टोचतच राहतो…

आणि आणि या आवेगाची आठवण जेव्हा जेव्हा त्या क्षणाला येते तेव्हा तेव्हा ही अशीच आसवांची रिमझिम बरसून जाते… 

मन गलबलून येते नि… 

काळजाला भिडते असे काही तेव्हा शब्दात मांडले जातेच असे नाही.

.फक्त डोळेच सांगुन जातात सर्व काही…

समजण्या पलिकडचे जे कदापि उमजतच नाही… 

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 116 ☆ लघुकथा – भगवान का क्या सरनेम है? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘भगवान का क्या सरनेम है?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 116 ☆

☆ लघुकथा – भगवान का क्या सरनेम है? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कक्षा में टीचर के आते ही विद्यार्थी ने एक सवाल पूछा – मैडम! नेम और सरनेम में क्या ज़्यादा इम्पोर्टेंट होता है? 

‘मतलब’? – मैडम सकपका गईं फिर थोड़ा संभलकर बोली – यह कैसा सवाल है निखिल? 

पापा कहते हैं कि किसी को उसके सरनेम से बुलाना चाहिए, नाम से नहीं। सरनेम इम्पोर्टेंट होता है। 

लेकिन क्यों? नाम से बुलाने में कितना अपनापन लगता है। नाम हमारी पहचान है। माता- पिता कितने प्यार से अपने बच्चे का नाम रखते हैं। 

 मैम! पर पापा कहते हैं कि सरनेम हमारी सच्ची पहचान होता है। हम किस जाति के हैं, धर्म के हैं, यह सरनेम से ही पता चलता है। दूसरों को इसका पता तो चलना चाहिए। 

अच्छा स्कूल में आपस में दोस्ती करने के लिए नाम पूछते हो या सरनेम? वैशाली! तुम बताओ। 

मैम! नेम पूछते हैं। 

मेरे पापा ने बताया कि सरनेम हमारा गुरूर है, नेम से बुलाओ तो सरनेम हर्ट हो जाता है। वह बड़ा होता है ना! – अक्षत ने कहा। 

कक्षा के एक बच्चे ने कुछ कहने के लिए हाथ उठाया। हाँ बोलो क्षितिज! मैडम ने कहा। 

मैम! भगवान का क्या सरनेम है? 

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 146 ☆ श्रद्धा लभते ज्ञानम्… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका कीhttps://www.e-abhivyakti.com/wp-admin/post.php?post=53412&action=edit# प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “श्रद्धा लभते ज्ञानम्…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 146 ☆

☆ श्रद्धा लभते ज्ञानम्

जब कोई वस्तु या व्यक्ति हमारी कल्पना के अनुरूप होता है, तो अनायास ही उसकी हम उसकी ओर आकर्षित होने लगते हैं। मानव की यह प्रवृत्ति तब घातक सिद्ध होने लगती है,जब यह एक तरफा होकर, जुनून की हद तक बढ़ जाए, इस समय मनुष्य, विवेक से अंधा होकर सही गलत का फर्क भूल जाता है और मन में वांछित पाने की चाहत और बलवती हो जाती है।

वनवास के दौरान माता सीता भी स्वर्ण मृग के प्रति आकर्षित हुईं जबकि वो ये जानती थीं कि ऐसा होना संभव नहीं है और तो और भगवान श्री राम भी उनकी इच्छा पूरी करने के लिए चल दिये। ये सब आकर्षण का माया जाल है जिसके प्रभाव से बड़े – बड़े संत महात्मा भी नहीं बच सके।

लगभग सभी जीव जंतु स्नेह की भाषा समझते हैं। खासकर मनुष्य जो ईश्वर की अनुपम कृति है वो हमेशा सुखद वातावरण ही चाहता है। ये बात अलग है कुछ लोग परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देते हैं तो वहीं कुछ संघर्ष कर विजेता के रूप में सबके प्रेरक बनते हैं। कहा जाता है- श्रद्धा लभते ज्ञानम्। सही है जब हमारी  सोच विकसित होगी तभी श्रद्धा, विश्वास और धैर्य पनपेंगे। क्या आपने कभी सोचा कि हममें से अधिकांश लोग सकारात्मक पोस्ट ही क्यों पढ़ते हैं व शेयर करते हैं ?

 कारण साफ है, हर व्यक्ति मानसिक सुकून चाहता है। जैसी संगत होगी वैसा ही हमारा स्वभाव बनने लगता है अतः केवल अच्छाई से जुड़ते हुए आगे बढ़ते चलें, परिणाम सुखद होगा।

अधिकतर लोग पैसे के लिए हाय- हाय करते दिखते हैं, पूरी उम्र बीत जाने के बाद भी वही ढाक के तीन पात। कारण साफ है कि आप ने अपने कार्यों का मूल्यांकन कभी नहीं किया अन्यथा आपको पैसे की तलाश में भटकना नहीं पड़ता।

यहाँ पर भी श्रद्धा आपकी सहेली बन आत्मविश्वास बढ़ाने का कार्य खूबसूरती से करेगी। अपने अंदर हुनर पैदा करें और उसे तराशने में पूरे मनोयोग से जुट जाएँ। देखते ही देखते कई राहें आपके सामने होगीं और कार्य से अधिक का परिणाम अवश्य मिलेगा। बस बोले नहीं कार्य करें क्योंकि कार्य जब बोलेंगे तभी शुभ फल मिलेंगे और कर्म ,धर्म व मर्म सभी आप के अनुसार चलने लग जायेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 209 ☆ आलेख – कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना…

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 209 ☆  

? आलेख कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना ?

कहा गया है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य  गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ गया. यद्यपि यह उक्ति चरित्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कही गई है किन्तु इसमें कही गई बात कि “स्वास्थ्य गया तो कुछ गया” रेखांकित करने योग्य है.  हमारा शरीर ही वह माध्यम है जो जीवन के उद्देश्य निष्पादित करने का माध्यम है. स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. और निश्चिंत मन से ही हम जीवन में कुछ कर सकते हैं. कला और साहित्य  मन की अभिव्यक्ति के परिणाम ही हैं. स्वास्थ्य और साहित्य का आपस में गहरा संबंध होता है. स्वस्थ साहित्य समाज को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका अदा करता है.  साहित्य में समाज का व्यापक हित सन्नहित होना वांछित है. और समाज में स्वास्थ्य चेतना जागृत बनी रहे इसके लिये निरंतर सद्साहित्य का सृजन, पठन पाठन, संगीत, नाटक, फिल्म, मूर्ति कला, पेंटिंग आदि कलाओ में हमें स्वास्थ्य विषयक कृतियां देखने सुनने को मिलती हैं. यही नहीं नवीनतम विज्ञान के अनुसार मनोरोगों के निदान में  कला चिकित्सा का उपयोग बहुतायत से किया जा रहा है. व्यक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिये मनोचिकित्सक द्वारा  विश्लेषण किये जाते हैं और उससे उसके मनोभाव समझे जाते हैं. बच्चों के विकास में कागज के विभिन्न आर्ट ओरोगामी, पेंटिग, मूर्ति कला, आदि का बहुत योगदान होता है. स्वास्थ्य दर्पण, आरोग्य, आयुष, निरोगधाम, आदि अनेकानेक पत्रिकायें बुक स्टाल्स पर सहज ही मिल जाती हैं. फिल्में, टी वी और रेडियो ऐसे कला माध्यम है जिनकी बदौलत साहित्य और कला का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है.जाने कितनी ही उल्लेखनीय  हिन्दी फिल्में हैं जिनमें रोग विशेष को कथानक बनाया गया है. अपेक्षाकृत उपेक्षित अनेक बीमारियों के विषय में जनमानस की स्वास्थ्य चेतना जगाने में फिल्मों का योगदान अप्रतिम है.

फिल्म आनंद में कैंसर के विषय में, फिल्‍म ‘पा’ में औरो नाम के एक बच्‍चे की कहानी है जिसकी उम्र 13 साल है और जिसे प्रोजेरिया नाम की बीमारी हो जाती है. इस बीमारी में व्‍यक्ति बहुत तेजी से बूढ़ा होने लगता है. फिल्म गुप्त रोग में स्त्री पुरुष संबंधो के बारे में, फिल्म तारे जमीन पर में ईशान अपने बोर्डिंग स्कूल में कुछ भी ठीक से नहीं कर पाता है, सौभाग्य से, एक नया कला शिक्षक उसे यह पता लगाने में मदद करता है कि उसे डिस्लेक्सिया है और वह उसकी क्षमता को पहचानने में मदद करता है, फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी ने एक ऐसी टीचर का किरदार निभाया जिसे टॉरेट सिंड्रोम हैं.  इस बीमारी में महिलाओं को बार-बार हिचकी आने के चलते बोलने और समझने में दिक्कत होती है. इसी तरह पिकू में कांस्टीपेशन का, गजनी में एमनेसिया नामक बीमारी का, माई नेम इज खान में  एस्परगर सिंड्रोम को लोगों के सामने पेश किया गया. एस्परगर सिंड्रोम एक तरह का परवेसिव डेवलपमेंट डिसऑर्डर है.  इसका मरीज गुमनामी में रहना पसंद करता है.   शुभ मंगल सावधान में नपुंसकता पर, ए दिल है मुश्किल में टर्मिनल कैंसर पर, जनजागृति पैदा करने में कलात्मक सफलता देखने मिलती है.ढ़ेरों फिल्में स्वास्थ्य के विभिन्न पहलुओ पर केंद्रित हैं.  साहित्य में हम देखते हैं कि अनेक उपन्यास कहानियां समय समय पर नायक या नायिका की टी बी, कैंसर या किसी अन्य बीमारी पर केंद्रित होने के कारण मर्मांतक, हृदय स्पर्शी और काल जयी बन गयी. स्वास्थ्य संबंधी साहित्य अत्यंत लोकप्रिय है. हर अखबार कोई न कोई स्वास्थ्य परिशिष्ट या स्तंभ अवश्य चलाता है. इस पृष्ठभूमि के संदर्भ में मेरा अभिमत है कि कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना हमेशा से बनी रही है. किन्तु समय के साथ यह और जरूरी हो गया है कि कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य संदर्भो पर और काम किये जायें. कोरोना आपदा एक आकस्मिक वैश्विक स्वास्थ्य समस्या का विस्फोट था. रचनाकारों ने इसका सकारात्मक उपयोग किया. लाकडाउन में लोगों को खूब समय मिला. मैंने कोरोना काल के व्यंग्य लेखों का संग्रह लाकडाउन नाम से संपादित किया. कोरोना जनित कविताओ के कई संग्रह अनेक प्रकाशनो से छपे हैं. पिछले दिनों में योग, इम्युनिटी बढ़ाने के नुस्खों पर भी बहुत सारा लिखा गया है.

 मैं अपने पहले कविता संग्रह आक्रोश से यह कविता उदृत करना चाहता हूं…

अस्पताल

जिंदगी कैद है यहाँ आक्सीजन के सिलेंडर में

उल्टी लटकी है सिलाइन ग्लूकोज या खून की बोतल में

शुगर कोटेड हैं टेबलेट्स और कैप्सूल,

पर जिंदगी बड़ी कड़वी है.

माँस के लोथड़े में, इंजेक्शन की चुभन

जाने कैसी तो होती है अस्पताल की गंध.

सफेद नर्स, डाक्टर- ज्यादा बगुले, कुछ हंस

गले में झूलता स्टेथेस्कोप,

क्या सचमुच सुन पाता है

कितना किसका जिंदगी से नाता है

अनेक व्यंग्य लेखों में भी सहज ही मेरा स्वास्थ्य संबंधी लिखना होता रहा है. उदाहरण के तौर पर मेरा एक व्यंग्य छपा था मेरे परिवार का स्वास्थ्य अभियान, जिसमें स्वास्थ्य उपकरणो के बाजारवाद पर कटाक्ष किया गया है. एक अन्य व्यंग्य है ब्रांडेड वर वधू जिसमें कल्पना की गई है कि मेडिकल रिपोर्टस मिलाकर कम्प्यूटर जी शादियां तय करेंगे जिससे आर एच पाजिटिव निगेटिव लड़के लड़कियों की शादी से थैलेसिमा जैसी समस्याओ का निदान हो सकेगा. ब्लड टेस्ट, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर उसके दुष्प्रभाव आदि लेख भी लिखे गये.

जनसंख्या नियंत्रण, कुपोषण के विरुद्ध अभियान, शिशु स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु दर को कम करने, चेचक नियंत्रण, पोलियो नियंत्रण आदि आदि मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक हमने देखे हैं. गिरिराज शरण अग्रवाल की प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित किताब स्वास्थ्य व्यवस्था पर व्यंग्य में वे लिखते हैं ” अस्पताल हो और वह भी सरकारी तो उसका अलग आनंद है, बस आपमें इस अद्भुत पर्यटन स्थल का आनंद लेने की क्षमता होना चाहिये.

परसाई जी के व्यंग्य निंदा रस से अंश पाठ उद्धृत करना चाहता हूं…

निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयाँ होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।

स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुतायत में होते हैं. परसाई जी ने अपने अनेक व्यंग्य लेखों में स्वास्थ्य विषयक विसंगतियां उठाई हैं. उदाहरण के तौर पर बम और बीमारी, बुखार आ गया, चीनी डाक्टर भागा, रामभरोसे का इलाज, निठल्ले की डायरी में अनेक प्रसंगों में परसाई जी के स्वास्थ्य चेतना संदर्भ मिलते हैं. शरद जोशी जी के प्रतिदिन में अनेक मौकों पर, रवीन्द्र नाथ त्यागी जी के व्यंग्यो में अनेकानेक संदर्भो में, मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में सहज रुप से अनेक प्रसंगों में हमें नायक या नायिका या रचना के किरदारों की बीमारियों के वर्णन मिलते है.तत्कालीन स्वास्थ्य व्यवस्थाओ, अंधविश्वास, रूढ़ियों पर प्रहार, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के स्वास्थ्य, खानपान में भेदबाव को हमेशा से रचनाकारो ने इंगित किया है. और समाज को समय से आगे लाने में अपनी लेखनी से प्रयासरत रहे हैं. 

 दिल्ली में स्वस्थ्य भारत ने ही वर्ष २०१९ में एक राष्ट्रीय लघुकथा संगोष्ठी का आयोजन किया था जिसमें स्वास्थ्य विषयक लघुकथायें ही पढ़ी गई थी. और यह गोष्ठी बहुचर्चित रही थी.

कला चिकित्सा के सिद्धांतों में मानवतावाद, रचनात्मकता, भावनात्मक संघर्षों को सुलझाना, आत्म-जागरूकता को बढ़ावा देना और व्यक्तित्व विकास शामिल है. एक पेशे के रूप में कला चिकित्सा का उदय स्वतंत्र रूप से  संयुक्त राज्य अमेरिका  और यूरोप में हुआ. शब्द “आर्ट थेरेपी”  का प्रयोग 1942 में ब्रिटिश कलाकार एड्रियन हिल द्वारा किया गया था, उन्होंने तपेदिक से उबरने के दौरान पेंटिंग और ड्राइंग से स्वास्थ्य लाभों की खोज की थी. 

साहित्य कला और स्वास्थ्य चेतना परस्पर गुंथे हुये विषय हैं. यद्यपि अब तक इस तरह किसी समालोचक ने स्वास्थ्य साहित्य को इस विभक्त करके कोई रेखांकन नही किया है. यह आयोजन  साहित्य में नितांत नई समीक्षा दृष्टि है. मेरा अभिमत है कि इस दृष्टि को और विस्तार दिया जाये. स्वास्थ्य संबंधी कहानियां, कवितायें, व्यंग्य, नाटको के संग्रह प्रकाशित किये जा सकते हैं. युवा शोधार्थी इन धारणाओ में पी एच डी कर सकते हैं. जन स्वास्थ्य संसद जैसे और भी परिचर्चायें तथा आयोजन और होने चाहिये. जिससे लोगों में निरोगी काया के प्रति जागरूकता का वातावरण सृजित हो.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल कथा संग्रह – ‘टीनू का पुस्तकालय‘ – डॉ. नीनासिंह सोलंकी  ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है डॉ. नीनासिंह सोलंकी जी  के बाल कथा संग्रह “टीनू का पुस्तकालय” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ बाल कथा संग्रह – ‘टीनू का पुस्तकालय‘ – डॉ. नीनासिंह सोलंकी  ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’  ☆

 

कथा-संग्रह  – टीनू का पुस्तकालय

उपन्यासकार- डॉ. नीनासिंह सोलंकी 

प्रकाशक- संदर्भ प्रकाशन, भोपाल (मप्र) मोबाइल नंबर 94244 69015 

पृष्ठ संख्या-72 

मूल्य-₹ 200

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ समीक्षा- प्रवाह से भरपूर कहानियां ☆

कहानी कहने का सलीका होना चाहिए। तब यह बात कोई मायने नहीं रखती है कि आप नए कथाकार हो अथवा पुराने। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह बात नवोदित कथाकार नीनासिंह सोलंकी पर फिट बैठती है।

टीनू का पुस्तकालय- आपका दूसरा कहानी संग्रह है। इस संग्रह में 12 कहानियां संग्रहित की गई हैं। प्रथम कहानी संग्रह की अपेक्षा दूसरे कहानी संग्रह में गुणात्मक रुप से सुधार हुआ है। भाषा, शैली, कथा, प्रवाह की दृष्टि से कहानी संग्रह बढ़िया बना है।

इसकी पहली कहानी-आदि के दादाजी, नाम से संकलित है। कहानी में दादाजी के महत्व को प्रतिपादित किया गया है। इस दृष्टि से कहानी बहुत ही अच्छी बनी है। इसका प्रवाह और अंत बहुत ही प्रभावी है।

पुस्तक आमुख के नाम की कहानी- टीनू का पुस्तकालय- पुस्तक की महत्व प्रदर्शित करती दूसरी कहानी है। यह पुस्तकालय के महत्त्व को रेखांकित करती है।

अनमोल उपहार- कहानी में उपहार के महत्व को प्रदर्शित करती हैं। यह कहानी बताती कैं कि विद्या से बढ़कर कोई उपहार नहीं होता है। अनमोल उपहार इसी महत्व को प्रदर्शित करती एक बेहतरीन कहानी है।

छोटी सी बात- पीती और नीति की दोस्ती के अनमोल पलों को प्रदर्शित करती है। छोटी सी बात पर दोस्ती टूट जाती है। फिर एक सहेली की सुझबुझ से वापस दोस्ती हो जाती है। यह संदेशपरक कहानी बढ़िया है।

बुलबुल समझ गई-में एक नए कथानक द्वारा पानी के महत्व को समझाया गया है। मध्यांतर के बाद वाला भाग ज्यादा उद्देशात्मक हो गया है। वही निया और मिनी की यात्रा- के बहाने ग्लोबल वार्मिंग और घटते ग्लेशियर के बारे में आपने बहुत ही बेहतर ढंग से कहानी में समझाया है।

मैरी क्रिसमस- एक स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती हुई बेहतरीन कहानी है। इसमें कथा परवाह बहुत ही बेहतरीन हैं। वही बच्चों की किट्टी पार्टी- बड़ों की तर्ज पर बच्चों की किट्टी पार्टी एक नए कथानक पर रची गई है। इस नए कथानक पर रची गई कहानी बच्चों को बहुत पसंद आएगी।

चांद के पार- संवाद से भरपूर इस कहानी में बच्चों की जिज्ञासाओं का बहुत ही सहजता से उत्तर दिया गया है।

वही चीनी के दोस्त- बाल सुलभ जिज्ञासा के साथ पक्षियों से प्रेम जताती बेहतरीन कहानी है।

सूरज दौड़ गया- खेल प्रतियोगिता दौड़ पर आधारित एक अच्छी कहानी है। मगर प्लास्टर के बाद दौड़ना और प्रतियोगिता में भाग लेना कुछ हजम नहीं होता है। हेयर क्रेक के बाद बहुत दिनों तक दौड़ना मुश्किल है। यह एक तकनीकी पॉइंट है। इसके बावजूद कहानी बहुत बढ़िया बनी है।

अमरुद मीठे हैं- बच्चों की स्वाभाविक आदत के अनुसार एक बेहतरीन कहानी लिखी गई है। इसका घटनाक्रम भी स्वाभाविक लगता है।

कुल मिलाकर टीनू का पुस्तकालय की समस्त कहानियां अपने कथानक, भाषा, शैली, परवाह के साथ जिज्ञासायुक्त और बेहतरीन बनी है। पुस्तक की साजसज्जा, त्रुटिरहित छपाई बेहतरीन है। बच्चों के हिसाब से 72 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹200 कुछ ज्यादा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-04-2023

मित्तल मोबाइल के पास, रतनगढ़,  जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 

मोबाइल नंबर 7024047675, 8827985775

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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