मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ कागदी होडी… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ कागदी होडी ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

बालपणातला पाण्यात  कागदाची होडी करून सोडणे हा खेळ खेळण्यातला आनंद काही औरच असतो नाही…पूर्वापार हा खेळ चालत आलेला आहे… अरे पाण्यात जाऊ नका भिजायला होईल, सर्दी पडसं होईल असा काळजीपोटी घरच्यांच्या रागवण्याला अक्षतांच्या वाटाण्या लावून हा खेळ खेळण्याची मजा लुटणे हा तर बालकांचा नाद खुळा असतो. बालकांचं कशाला तुम्हा आम्हा मोठ्या माणसांना देखील अजूनही त्यात गंमतच वाटत असतेच की… पाण्याच्या प्रवाहात आपली कागदी बोट अलगदपणे सोडताना किती काळजी घेत असतो, कधी ती पटकन वाहत वाहत पुढे पुढे जाते तर कधी सुरुवातीलाच पाण्यात  आडवी होते भिजते मग काही केल्या ती सरळ होतच नाही ती तशीच पुढे पुढे वाहत जाते.. मन जरा खट्टू होतं..पण चेहऱ्यावर उमलणारा तो आनंद मात्र शब्दातीत असतो… कधी एकट्याने तर कधी मित्र मैत्रिणींच्या सोबत हा खेळ खेळायला जास्त मजा येते… माझी पहिली तुझी दुसरी, त्याची मागेच राहिली तर अजून कुणाची वाटेत अडकली.. नकळतपणे स्पर्धेचं स्वरूप येते.. वेळंचं भान हरपून   खेळात मग्न झालेले मन सगळं विसरायला लावतं.. शाळेची वेळ आणि हा खेळ एकमेकांशी घटट नातं असलेला असतो… अभ्यास नको पण खेळ मात्र हवा अशी  मुलं मुली अगदी बिनधास्तपणे हा खेळ खेळण्यासाठी मागेपुढे पाहत नाही… मग कुणी आई ताई दादा बाबा तिथं येऊन पाठीत धपाटे घालून ओढून नेतात. तेव्हा मात्र मान वेळावून सारखं सारखं पुढे पुढे जाणाऱ्या त्या होडी कडे मन आणि लक्ष खिळलेले असतं.. विरस मनाला होडीचा क्षणैक आनंद पुढे बसणारा  मार नुसता झेलत राहतो.. 

.. खरंतर या खेळातच आपल्या जीवनाचं सारं दडलंय असावं असं मला वाटतं.. प्रवाहात आपली जीवननौका अशीच जात असते… आपण काळजी कितीही घेतली तरी वाटेतल्या प्रवाहात अनेक अडथळे, भोवरे यांना पार करून आपल्याला आपल्या इप्सिताचा किनारा गाठायचा असतो ते ही आनंदाने… हेच तर तो खेळ सुचवत असतो… पण अजाण वयात निखळ आनंदा पुढे हे कळणार कसे… आणि मोठे होते तेव्हा हा आनंदाला विसरणे कधीही शक्य होणार नसते… बालपणीचा काळ सुखाचा आठवतो घडी घडी… पाण्यासंगे पुढे चालली माझीच ती होडी होडी… 

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470.

ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 110 ☆ लघुकथा – कँगुरिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा ‘कँगुरिया’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 110 ☆

☆ लघुकथा – कँगुरिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

ए बहिनी!  का करत हो? 

कुछ नाहीं, आपन  कँगुरिया से बतियावत  रहे।

का!  कउन कंगुरिया? इ कउन है? 

‘नाहीं समझीं का ‘? सुनीता हँसते हुए बोली।

अरे! हमार कानी उंगरिया, छोटी उंगरिया — 

अईसे बोल ना, हमका लगा तुम्हार कऊनों पड़ोसिन बा (दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं)।

कानी उंगरिया से कऊनों बतियावत है का?

अब का बताई  छुटकी! कंगुरिया जो कमाल किहेस  है, बड़े-बड़े नाहीं  कर सकत। उसकी हँसी रुक ही नहीं रही थी।

अईसा का भवा? बतउबो कि नाहीं?  हँसत रहबो खाली पीली, हम रखत हैं फोन – छुटकी नाराज होकर बोली।

अरे! तुम्हरे जीजा संगे हम बाजार गए रहे मोटरसाईकिलवा से। आंधर रहा, गाड़ी गड़्ढवा  में चली गइस अऊर हम गिर गए। बाकी तो कुछ नाहीं भवा, हमरे सीधे हाथ की कानी उंगरिया की हड्डी टूट गइस। अब घर का सब काम रुक गवा( हँसते हुए बताती जाती है)। घर मा सब लोग रहे तुम्हार जीजा, दोनों बेटेवा, सासु–ससुरा।  हमार उंगरिया मा प्लास्तर, अब घर का काम कइसे होई?  घरे में रहे तो सब, कमवा कऊन करे?  एही बरे रोटी बनावे खातिर  एक कामवाली,  कपड़ा तो मसीन से धोय लेत हैं पर  झाड़ू – पोंछा और बासन  सबके लिए नौकरानी लगाई गई।

देख ना! हमार ननकी  कंगुरिया का कमाल किहेस!

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 132 ☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सबको साथ लेकर चलना। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 132 ☆

☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ 

फूलों के साथ खुशबू, रंग, शेड्स व काँटे रहते हैं। सबका अपना- अपना महत्व होता है। क्या आपने महसूस किया कि जीवन भी इसी तरह होता है जिसमें सभी को शामिल करते हुए चलना पड़ता है। इस सबमें समझौते का विशेष योगदान होता है। जो अपने आपको निखारने में लगा हुआ हो उसे केवल सुख  की चाहत नहीं होनी चाहिए, दुख तो सुख के साथ आएगा ही। हम सबमें संतुष्टि का अभाव होता है, जिसके चलते सफलता और शीर्ष  दोनों चाहिए। प्रतिद्वंद्वी हो लेकिन कमजोर। ताकतवर से दूरी बनकर चलते हुए कहीं न कहीं हम स्वयं को निरीह करते चले जाते हैं। इस तरह कब हम दौड़ से बाहर हो गए पता ही नहीं चलता।

हाँ एक बात जरूर है, मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति दबाब नहीं सह पाते, दूसरों की तारीफ व उपलब्धियों से आहत होकर अपना रास्ता बदल देते हैं। जहाँ के लिए निकले हैं वहाँ तो पहुँचिए। कमजोर मन की यही निशानी है कि वो दूसरों द्वारा संचालित होता है। यदि आप उच्च पद पर विराजित हैं तो सहना आना चाहिए। आग सी तपिश, धूप की तेजी यदि नहीं होगी तो कोई भी आसानी से उल्लू बनाकर चलता बनेगा।

चलने से याद आया जो रास्ते पर चलेगा वो अवश्य ही कुछ न कुछ बनेगा क्योंकि धूल में बहुत ताकत है। धरती मैया का आशीर्वाद समझ कर इसे स्वीकार कीजिए और आगे बढ़ते रहिए। जब सोच सही होगी तो साथी मिलने लगेंगे। आसानी से जो कुछ मिलता है उसमें भले ही चमक दमक हो किन्तु लोगों को उसमें कोई जुड़ाव नहीं दिखता है। जब मन ये तय कर लेता है कि प्रतिदिन इतनी दूरी तो तय करनी ही है, तो असम्भव कुछ नहीं रह जाता। सारा दिमाग का खेल है। किसी को परास्त करना हो तो उसके दिमाग व मनोभावों से खेलिए, यदि उसमें लक्ष्य के प्रति लगन का भाव नहीं होगा तो वो आपसे दूरी बना लेगा। हम जब तक आरामदायक स्थिति से दूर नहीं होंगे तब तक आशानुरूप परिणाम नहीं मिलेंगे।

तरक्की पाने हेतु लोग अपना गाँव, शहर, प्रदेश व देश तक छोड़ देते हैं। बाहर रहकर पहचान बनाना कोई आसान कार्य नहीं होता है। जिसमें जो गुण होता है वो उसे तराश कर आगे बढ़ने लगता है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि समय का उपयोग करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको सजाते- सँवारते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 190 ☆ आलेख – जोशी मठ की पुकार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – जोशी मठ की पुकार।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 190 ☆  

? आलेख  – जोशी मठ की पुकार ?

जोशी मठ की जियोग्राफी बता रही है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन , जल जंगल जमीन को अपनी बपौती समझने की इंसानी फितरत पर नियंत्रण की जरूरत है । हिमालय के पहाड़ों की उम्र, प्रकृति के माप दंड पर कम है । इन क्षेत्रों में अभी जमीन के कोंसालिडेशन, पहाड़ों के कटाव, जमीन के भीतर जल प्रवाह के चलते भू क्षरण की घटनाएं होती रहेंगी ।

जोशीमठ जैसे हिमालय की तराई के क्षेत्रों में पक्के कंक्रीट के जंगल उगाना मानवीय भूल है, इस गलती का खामियाजा बड़ा हो सकता है । यदि ऐसे क्षेत्रों में किंचित नगरीय विकास किया जाना है तो उसे कृत्रिमता की जगह नैसर्गिक स्वरूप से किया जाना चाहिए । अमेरिका में बहुमंजिला भवन भी पाइन तथा इस तरह के हल्के वुड वर्क से बनाए जाते हैं । ऐसी वैश्विक तकनीक अपनाई जा सकती हैं जिससे परस्तिथी जन्य नैसर्गिक सामंजस्य के साथ विकास हो , न कि प्रकृति का दोहन किया जाए। हमे अगली पीढ़ियों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हुए विरासत बढ़ानी चाहिये । आधुनिकता के नाम पर वर्तमान में जोशीमठ जैसे इलाकों में धरती से की जा रही छेड़छाड़ हेतु हमारी कल की पीढ़ी हमें कभी क्षमा नहीं करेगी ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 143 ☆ गीत – चन्दनवन वीरान हो गए… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 143 ☆

☆ गीत – चन्दनवन वीरान हो गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

नीरवता ऐसी है फैली

          चन्दनवन वीरान हो गए।

जो उपयोगी था उर-मन से

          लुटे-पिटे सामान हो गए।।

 

झाड़ उगे, अँधियारा फैला

       सूनी हैं दीवारें सब

अर्पण और समर्पणता की

       खोई कहाँ बहारें अब

कौन किसी के साथ गया है

       किसको कहाँ पुकारें कब

      

गठरी खोई श्वांसों की सच

     सब ही अंतर्ध्यान हो गए।।

 

कितने सपने, कितने अपने

          खोई है तरुणाई भी

भोग-विलासों के आडम्बर

         लगते गहरी खाई – सी

बचपन के सब गुड्डी- गुड्डन

         छूटे धेला पाई भी

 

वक्त, वक्त के साथ गया है

         मरकर सभी महान हो गए।।

 

अर्थतन्त्र के चौके, छक्के

        गिल्ली से उड़ गए चौबारे

साथ और संघातों के भी

         आग उगलते हैं अंगारे

प्यार-प्रीति भी राख हो गई

         दिन में भी कब रहे उजारे

 

जोड़ा कोई काम न आया

       सारे ही शमशान हो गए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #144 ☆ संत गोरोबा कुंभार… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 144 ☆ संत गोरोबा कुंभार… ☆ श्री सुजित कदम ☆

चमत्कार चैतन्याचे

संत गोरोबा साधक

तेर गावी जन्मा आली

संत विभुती प्रेरक..!..१

 

संत जीवन दर्शन

विठू भक्ती आविष्कार

प्रतिकुल परिस्थिती

संत गोरोबा साकार…! २

 

भक्ती परायण संत

पांडुरंग शब्द श्वास

देह घट आकारला

विठू दर्शनाचा ध्यास..! ३

 

तुझें रूप चित्ती राहो

वेदवाणी गोरोबांची

भक्ती श्रध्दा समर्पण

गोडी देह प्रपंचाची…! ४

 

व्यवसाय कुंभाराचा

नित्य कर्मी झाले लीन

बाळ रांगते जाहले

माती चिखलात दीन…! ५

 

तुडविले लेकराला

विठ्ठलाच्या चिंतनात

तोडियले दोन्ही हात

प्रायश्चित्त संसारात…! ६

 

संत गोरोबा तल्लीन

 संकीर्तनी पारावर

थोटे हात उंचावले

झाला विठूचा गजर…! ७

 

कृपावंत विठ्ठलाने

दिला पुत्र दोन्ही कर

भक्त लाडका गोरोबा

संतश्रेष्ठ नरवर…! ८

 

मानवांच्या कल्याणाचा

ध्यास घेतला अंतरी.

स्वार्थी लोभी वासनांध

असू नये वारकरी…! ९

 

देह प्रपंचाचा ध्यास

उपदेश कार्यातून

संत सात्विक गोरोबा

वर्णियेला शब्दातून…! १०

 

परब्रम्ह लौकिकाचे

संत रूप निराकार

आधी कर्म मग धर्म

काका गोरोबा कुंभार..! ११

 

संत साहित्य प्रवाही

अनमोल योगदान

अभंगांचे सारामृत

अलौकिक वरदान…! १२

 

चैत्र कृष्ण त्रयोदशी

तेरढोकी समाधीस्त

पांडुरंग पांडुरंग

नामजपी आहे व्यस्त..! १३

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ थंडी, थंडी, थंडी ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ?  😅 थंडी, थंडी, थंडी ! 🤣 ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक 

गंमत झाली एके दिवशी

थंडी पडली बघा खाशी

ताठ झाल्या तिच्या मिशा

लाल झालं नाक टोकाशी

शाल पांघरता ऊबदार

जरा तिला बरे वाटले

भाव सांगती डोळ्यातले

भारीच हे थंडीचे खटले

कान दोन्ही उभारून

ती जणू मानी आभार

मनोमनी म्हणत असावी

लक्षात ठेवीन उपकार

छायाचित्र – प्रकाश चितळे, ठाणा.

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

१३-०१-२०२२

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #165 – तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज नव वर्ष पर प्रस्तुत हैं  आपके भावप्रवण तन्मय के दोहे…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #165 ☆

☆ तन्मय के दोहे…

रखें भरोसा स्वयं पर, है सब कुछ आसान।

पढ़ें-लिखें  सीखें-सुनें,  बने अलग पहचान।।

खुद को भी धो-माँज लें, कर लें खुद का जाप।

बाहर  भीतर  एक   हों,  मिटे  सकल   संताप।।

सीप गहे मोती बने, स्वाती जल की बूँद।

भीतर उतरें  मौन हो, मन की ऑंखें मूँद।।

दिशाहीन संशयजनित, कर्ण श्रवण का रोग।

शंकित जन संतप्त हो, सहते  सदा  वियोग।।

आँखों देखी सत्य है, झूठ सुनी जो बात।

कानों के  कच्चे सदा, खा जाते  हैं मात।।

कर्म नियति निश्चित करे, यही भाग्य आधार।

सत्संकल्पों   पर   टिका,  मानवीय   बाजार।।

नहीं पता है कब कहाँ, भटकन का हो अंत।

सत्पथ पर  चलते रहें,  आगे खड़ा बसन्त।।

कुतर रही है दीमकें, साँसों लिखी किताब।

पाल  रखे  मन में कई,  रंग-बिरंगे  ख्वाब।।

शब्द – शब्द मोती बने,  भरे अर्थ  मन हर्ष।

पढ़ें-गुनें मिल बैठकर, सुधिजन करें विमर्ष।।

संयम में  सौंदर्य है,  संयम  सुखद खदान।

जीवन के हर प्रश्न का, संयम एक निदान।।

अर्क विषैले छींटकर, लगे गँधाने लोग।

नई व्याधियों में फँसे, पालें सौ-सौ रोग।।

भूले से मन में कभी, आ जाये कुविचार।

क्षमा स्वयं से माँग लें,  करें त्रुटि स्वीकार।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 53 ☆ छली गई हूं मैं फिर एक बार— ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता छली गई हूं मैं फिर एक बार—”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 53 ✒️

? छली गई हूं मैं फिर एक बार— ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

कैसे बीती ?

कल की रात ?

कोई मेरे अंतर्मन से पूछे ,

पड़ोसी का सुनसान बंगला ,

विधवा की सूखी सूनी,

मांग सा उदास ,

किसी के जाने का

दिला रहा है एहसास ——–

 

कितने आए और गए,

नरम – नरम यादों के

हुज़ूम के बीच ,

एक तुम्हारा व्यक्तित्व ?

अनबूझ पहेली ?

कभी अजनबी ?

कभी सहेली ?

मुंह चिढ़ाता हुआ

हर पल खुला गेट ,

शायद हुई थी यहीं हमारी भेंट —–

 

कई बार तन्हाई में ,

रूह को झिंझौड़ा है ,

हर मोड़ पर तुम ही तुम

नज़र आते हो हमदर्द ,

‘तुम’ क्यों नहीं बताते कि,

तुम्हारे अन्दर क्या है ? मेरे लिए ?

जितने बार देखा है प्रतिबिंब,

स्वयं को पाया है

तुम्हारा शुभचिंतक ——-

 

आज कर दो निर्णय ,

मैंने पाया है या गंवाया है ?

या छली गई हूं मैं

फिर एक बार ——-

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 165 ☆ गहन निळे नभ माथ्यावरती ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 165 ?

☆ गहन निळे नभ माथ्यावरती ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

गहन निळे नभ माथ्यावरती

अचल ,आसक्त मी धरतीवरती

त्या चंद्राचे अतिवेड जीवाला

काय म्हणावे या आकर्षणाला

ग्रह ,तारे दूर दूरस्थ आकाशगंगा

मी इवलासा कण कसे वर्णू अथांगा

शशांक म्हणे कुणी “सौदागर स्वप्नाचा”

परी जादूगार तू माझ्या मनीचा

 सोम म्हणू की शशी सुधांशु

चकोर जीवाचा असे मुमुक्षु

किती चांदण्या तुझ्याच भोवती

 गौर रोहिणी अन तारा लखलखती

गहन जरी नभ तू अप्राप्यअलौकिका

कधी बैरागी मन कधी अभिसारिका

कुंडलीतल्या सर्व पाप ग्रहांना

कसे समजावू मला कळेना

अखंड चंद्र तो  कुठे मिळे कुणाला ?

तरी मी चंद्राणी…कसे सांगू जगाला !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares
image_print