(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है “तन्मय के दोहे…”।)
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “यायावर यात्राएँ…”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ यायावर यात्राएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है ईद पर्व पर आपका एक स्नेहिल गीत – “ईद मुबारक!”
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीयआलेख “किस्साये तालघाट…“।)
☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
तालघाट जगह का भी नाम था तो बैंक की शाखा भी
इसी नाम से रजिस्टर्ड थी.स्थान की विशेषता यही थी कि जब घाट समाप्त होता तो ताल से भरपूर नगर की सीमा शुरू हो जाती थी.ताल एक ही था पर नगर की तुलना में बहुत विशाल था.तालघाट में होने के बावजूद इस ताल में सिर्फ एक ही पक्का घाट था.इसे भी घाट कहते हैं और रास्ते की चढ़ाई भी घाट कहलाती है.प्रदेश के राजमार्ग के किनारे बसा था यह स्थान और इसकी एक विशेषता और भी थी कि यह नगर दो प्रदेशों की सीमा पर भी स्थित था.याने इस पार अटारी तो उस पार वाघा बार्डर जैसी भौगोलिकता से संपन्न था.एक प्रदेश को पारकर दूसरे राज्य में आ गये हैं,ये सड़क के गड्ढे बयान कर देते थे.जिनकी सरकार और सड़क अच्छी थी वहां के सीमावर्ती नागरिक भी खुद के प्रति श्रेष्ठि भाव और दूसरे राज्य के वासियों के प्रति हिकारत का भाव रखते थे.जबकि उन बेचारों का सिर्फ यही दुर्भाग्य था कि वो खस्ताहाल सड़क वाले राज्य के ईमानदार निवासी थे और उनके द्वारा दी जाने वाली टेक्स की रकम भी उनसे ज्यादा मोटी थी जो अच्छी सड़क वाले राज्य के टेक्स चोर नागरिक थे.तालघाट नगर का कल्चर दोनों राज्यों की गंगाजमुनी संस्कृति का अनूठा उदाहरण था.वहाँ रहने वाले यहाँ नौकरी के नाम पर रोज आते जाते थे और वेतन मिलने पर उसे खर्च करना तो अपने वाले राज्य के अधिकार क्षेत्र का विषय था.जो रोज नौकरी करने के नाम पर बस या ट्रेन से आना जाना करे,उसे सरकारी भाषा में अपडाऊनर कहा जाता है और कम से कम असुविधा झेले समय पर अपनी घर वापसी का सुखद एहसास पाना ही उसका दैनिक लक्ष्य या मंजिल मानी जाती है.इस जीवन की आपाधापी में उसकी राह में अनुशासन, अटेंडेंस, कार्यक्षमता, समर्पित आस्था नाम के असुर जरूर अड़चन बनकर सामने आते हैं पर वो तो तांगे का अश्व होता है जिसकी गति न्यूटन के नियमों से नहीं बल्कि जल्द से जल्द घरवापसी के हथकंडों से निर्धारित होती है.हर अपडाऊनर का यह मानना होता है कि उसके पांच घंटो का आउटपुट, उन स्थानीय लोगों के दस घंटे के बराबर होता है जो बॉस को देखकर अपनी दुकान सजाते हैं और बॉस के जाते ही अतिक्रमण धारियों के सदृश्य अपनी दुकान समेट कर गपशप,चायपानी में लग जाते हैं चूंकि यहाँ रहते हैं तो बैंक के अलावा कोई ऐसी जगह होती नहीं जहाँ शामें या रातें कटें तो उनका ठौरठिकाना बैंक की शाखा और चायपान के ठिये तक ही सीमित हो जाता है पर खुद को असली कर्मवीर समझने वाले अपडाऊनर्स के पास नौकरी में अपना काम निपटाने के अलावा और भी बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं जैसे सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में बिस्तर छोड़ने की मजबूरी, ब्रम्हास्त्र की गति से बिना कुछ भूले तैयार होकर स्टेशन या बस के लिये मिलखा सिंह बनना,फिर रेल के डिब्बों में कभी बैठने की तो कभी खड़े होने की जगह ढूंढना और फिर कभी कभी चार कलात्मक श्रेष्ठता से संपन्न मित्रों के साथ बावन पत्तों की बाजी में रम जाना.ना यहाँ कोई पांडव होता है न कोई कौरव और न ही इस बाजी से कोई द्रौपदी अपमानित होती है पर इस रेलबाजी का अंत आने वाला स्टेशन ही करता है जब ये कौरव और पांडव रेल से उतरकर अपने अपने दफ्तर को प्रस्थान करते हैं.बस के अपडाउनर्स इस सुविधा से वंचित रहते हैं तो उन बेचारों के पास राजनीति पर बहस के अलावा मन बहलाने का कोई दूसरा साधन नहीं होता.इनमें कुछ धूमकेतु भी होते हैं जो इंतजार की घड़ियों को सिगरेट के कश में उड़ाते हैं.पर ये सभी अपडाउनर्स रूपी सज्जन अपने हॉकी के इस दैनिक मैच का फर्स्ट हॉफ ऑफिस पहुचकर हाजिरी देने,साथियों और बॉस से गुडमॉरनिंग करने पर ही पसमाप्त होना मानते हैं.बॉस अक्सर या बहुधा इनसे खुश नहीं रहते हैं पर इनकी याने अपडाउनर्स की नजरों से समझें तो यह पायेंगे कि इनके बॉस इनकी अपडाउन की अवस्था के कारण इनको ब्लेकमेल करते हैं.ये बात अलग है कि अपडाऊन की यह व्यवस्था इन्हें चतुर,चाकचौबंद, बहानेबाज,द्रुतगति धावक,एंटी-हरिश्चंद्र बना देती है.हर गुजरता दिन और अपडाउन करने वालों की बढ़ती संख्या इन्हें आत्मविश्वास और साहस की प्रबलता प्रदान करते जाती है.जब ये अल्पमत में होते हैं तो मितभाषी और बहुमत में होने पर दबंग भी बन जाते हैं.इन्हें कर्मवीर बनाना सिर्फ और सिर्फ शाखा प्रबंधक का ही उत्तरदायित्व होता है और यह उत्तरदायित्व ही सबसे विषम और चुनौतीपूर्ण होता है.कड़कता याने एंटीबायोटिकता से ज्यादा मनोवैज्ञानिकता याने होमियोपैथिक मीठी गोली ज्यादा प्रभावी होती है.
माझी दिवसाची सुरुवात चहाने आणि दिवस संपतो सुद्धा चहानेच
एक कप चहा दिवसाची सुरवात किक फ्रेश करतो आणि रेंगाळलेल्या दुपारची मरगळ झटकतो…आणि ह्याच चहामुळे माझे अनेकांशी मैत्रीपूर्ण नाती तयार झाली…
ज्या चहात साखर नाही तो चहा पिण्यात मजा नाही आणि ज्यांच्या जीवनात मैत्री नाही अशा जीवनात मजा नाही असे इथे मनापासून नमूद करावेसे वाटते..
चहामुळे मित्र मैत्रीणी जमले आणि आपण चहाबाज झालो अशाच सर्वांच्या भावना असतात नाही का..!
“चला रे जरा चहा घेऊ या किंवा चला रे मस्त कटिंग चहा घेऊन या” असे म्हणत जमलेले मित्र-मैत्रिणी आणि चहाची टपरी हा जसा माझा हळवा कोपरा आहे ना तसा अनेकांचा ही हळवा कोपरा असतो आणि जर बाहेर मस्त पाऊस पडत असेल तर…
पाऊस पडत असताना
अजून हव तरी काय
एक कटिंग चाय
चवदार चहाचा सुगंध दरवळतो तसं आपणही दरवळाव. जीवनाचा आनंद कसा चहाच्या भरल्या कपा प्रमाणे भरभरून घ्यायला हवा, ताजा ताजा.. चहाच्या प्रत्येक घोटा बरोबर आपणही ताजं व्हाव…
आयुष्य कसं चहाच्या रंगा सारखं असावं… प्रत्येक रंग हवा…! नवनवीन नाती जोडावीत. भरपूर मित्र असावेत म्हणजे तुमचा चहाचा ग्लास जरी रिकामा झाला तरी आठवणींचा ग्लास कायम भरलेला राहील…
माझ्यापुरतं सांगायचं झालं तर चहा घराचा असो की बाहेरचा.. माझ्या अनेक चांगल्या आठवणी या चहाच्या कपाशी जोडल्या गेलेल्या आहेत आणि अनेक जीवाभावाची मित्रमंडळीही बरं…!
कॉलेजच्या दिवसातली सर्वात जास्त मिस होणारी गोष्ट म्हणजे टपरीवरचा चहा… एक कटिंग चारजणांत पिण्याची मजा परत काही आली नाही…!
आयुष्यात किती कप चहा प्यायली असेल मी कुणास ठाऊक…! अगदी उडप्याच्या हॉटेलातल्या दुधाळ चहापासून ते तारांकीत हॉटेलमधल्या स्टाईलमारू चहापर्यंत. गावोगावच्या टपऱ्यांवरच्या चहापासून रेल्वेतल्या चहा पर्यंत…
मैत्रीचे वय वाढत गेले….चहाच्या टपरीचे रुपडेही बदलले.. बदलत गेले
चहाची चव आणि प्रकारही बदलले बदलत गेले.. आता तर चहाच्या कपाची साईजही बदलली आहे पण वाफाळता चहा आणि
मित्र-मैत्रिणींचा गप्पाचा रंगलेला फड याची लज्जत मात्र कधीही बदलणार नाही हे नक्कीच…!
सकाळी सातची वेळ, शांतारामअण्णांना जोरात प्रेशर आलं होतं पण घरात मुलाची,नातवाची आवरायची लगबग होती. खरंच होतं ते. डोंबिवलीतला वन बीएचकेचा ब्लॉक, तो सुद्धा चाळीतली खोली विकून घेतलेला.
अण्णा करीरोडला एका प्रायव्हेट कंपनीत कामाला होते.रोज सकाळी साडेसहाला घर सोडायचे. ओव्हरटाईम करुन रात्री उशिरापर्यंत घरी यायचे.
आताशा दोन महिने झालेले, अण्णांना रिटायर्ड होऊन. पहिली पहिली ही हक्काची सुट्टी बरी वाटली त्यांना. थोडे दिवस गावी जाऊन आले; पण तिथेही थोरला भाऊ नोटांची पुडकी मागू लागला. पहिल्यासारखं आदराने बोलेनासा झाला. शेवटी अण्णा आठवडाभर राहून पत्नीसोबत माघारी आले. घरी आल्यावर मयंकच्या (मुलाच्या) चेहऱ्यावर प्रश्नचिन्ह होतंच,”रहाणार होतात ना,इतक्या लवकर कसे परतलात?” काही वाक्यं चेहऱ्यावर वाचता येतात. त्यासाठी शब्दांची आवश्यकता नसते आणि अशी वाक्यं आपल्या पोटच्या मुलाच्या चेहऱ्यावर पेरलेली पाहणे, याहून क्लेशदायी काही नाही.
“आणायची कोठून प्रत्येकाला द्यायला नोटांची पुडकी? अरे मी काय टाकसाळीत होतो का?” अण्णा स्वतःशीच बोलले व कुशीवर वळून निजले;पण त्यांना आत्ता थोपवेना. ते गेलेच तडक टॉयलेटमध्ये. इकडे मयंकलाही प्रेशर आलं. अण्णा दहा मिनटं झाली तरी बाहेर पडेनात. मयंक तिथल्या तिथे येरझाऱ्या घालून दमला. टॉयलेटचं दार ठोकवू लागला.
शेवटी एकदाचे अण्णा बाहेर आले. आताशा अर्ध्या अधिक दंताजींचे ठाणे उठल्याने अण्णांना अन्न नीट पचत नव्हते. त्यामुळे त्यांना नीट मोशन होत नव्हते. बराच वेळ बसून रहावे लागे. त्यांचे पायही वळून येत. अण्णा बाहेर येताच मयंक आत पळाला. पोट मोकळं करुन बाहेर आला व पेपर वाचायला घेणार तर अण्णा पेपर वाचत बसलेले. मयंकला रागच आला. मयंक अण्णांच्या अंगावर खेकसलाच,”काय हे अण्णा? सकाळीसकाळी कशाला उठता? टॉयलेट अडवून ठेवता. आत्ता पेपर घेऊन बसलात. मी ऑफिसला गेल्यावर करा की तुमची कामं निवांत. माझ्या वेळेचा कशाला खोळंबा करता? आत्ता माझी आठ चौदाची डोंबिवली लोकल चुकली. पुढच्या गाड्यांत पाय ठेवायलाही जागा नसते. तुम्हाला कसं समजत नाही.”
“हो रे बाळा, मी कुठे ऑफिसला गेलोच नाही कधी. मला कसं कळणार?”
“काय ती तुमची नोकरी, अण्णा! कुठेतरी चांगले नोकरीला असला असतात तर आत्ता रिटायरमेंटनंतर भरघोस पेंशन मिळाली असती. पीएफ,ग्रेज्युइटी मिळाली असता. टुबीएचके घेता आला असतं आपल्याला. टॉयलेटचा असा प्रॉब्लेम आला नसता. माझ्या मित्राचे बाबा बघा गेल्या वर्षी रिटायर झालेत. त्यांनी लेकाला टुबीएचके घेऊन दिला. शिवाय कर्जतला फार्महाऊस घेतलंय,एक होंडा सिटी घेतली. बढाया मारत होता लेकाचा. अण्णा, तुम्ही काय केलंत हो माझ्यासाठी?”
अण्णांचे डोळे पाण्याने डबडबले. मोठ्या कष्टाने त्यांनी आसवांना बांध घातला व हॉलच्या खिडकीशेजारी असणाऱ्या त्यांच्या पलंगावर जाऊन खिडकीत पहात बसले. त्यांना तसं पाहून आभाळही भरून आलं. मधुराने(सुनेनं)चहा आणून दिला. तो कसातरी गळ्याखाली उतरवला त्यांनी.
अण्णांची सौ., लताई देवळातून आली. लताई रोज पहाटे स्नान उरकून महालक्ष्मीच्या देवळात जायची. देवीला स्नान घालणं,साडीचोळी नेसवणं,आरती करणं हे सारं ती भक्तीभावाने करायची. अण्णा रिटायर्ड झाले म्हणून तिने तिच्या नित्यक्रमात बदल केला नव्हता. घरी आल्यावर अण्णांचा मुड पाहताच तिच्या लक्षात आलं की काहीतरी बिनसलंय. अण्णांनी लताईकडे आपलं मन मोकळं केलं तेव्हा नकळत त्यांच्या डोळ्यांतून दोन मोती ठिबकले.ते पाहून मधुराला गलबलून आलं.
मधुराला वडील नव्हते; पण सासरी आल्यापासून अण्णांनी तिची ही पोकळी त्यांच्या वात्सल्याने भरून काढली होती.
संध्याकाळी मधुरा,मयंक व छोटा आर्य फिरायला गेले. मयंक आर्यसोबत फुटबॉल खेळला. आर्य मग मातीत खेळू लागला, तसा मयंक मधुराशेजारी येऊन बसला. मधुराने मयंकजवळ सकाळचा विषय काढला. ती म्हणाली,”मयंक, तू लग्न झालं, तेव्हा मला अण्णांबद्दल किती चांगलं सांगितलं होतंस. अण्णा स्वतः जुने कपडे वापरायचे; पण तुझ्या साऱ्या हौशी पुरवायचे. तुला खेळण्यातल्या गाड्या फार आवडायच्या. अण्णा तुला दर महिन्याला नवीन गाडी आणून द्यायचे. पुढे तुला वाचनाचा छंद लागला,तेव्हा अण्णांनीच तुला चांगल्या चांगल्या लेखकांची पुस्तकं त्यांच्या तुटपुंज्या पगारातून आणून दिली. तुला हवं त्या शाखेत प्रवेश घ्यायची मोकळीक दिली. तुला अकाऊंट्ससाठी क्लास लावावा लागला नाही. अण्णांनीच तुला शिकवलं पण आज तू ‘अण्णा, तुम्ही माझ्यासाठी काय केलंत?’ या एका प्रश्नाने चांगलेच पांग फेडलेस त्यांचे. मयंक,अरे तुला वडील आहेत तर तुला त्यांची किंमत नाही रे. आपल्या आयुष्यात वडिलांची किंमत काय असते, ते माझ्यासारखीला विचार, जिला आपले वडील नीटसे आठवतही नाहीत.”
आर्य मम्मीपप्पांजवळ कधी येवून बसला, त्यांना कळलंच नाही.
आर्य म्हणाला,”खलंच, पप्पा. तुम्ही फाल वाईट्ट वादलात आजोबांशी. आजोबा ललत होते. आजीने गप्प केलं त्यांना. आजोबा दुपाली जेवलेपन नाही.”
मयंकला अगदी भरुन आलं. त्याला त्याची चूक कळली. घरी परतताना तो लायब्ररीत गेला व अण्णांची वार्षिक मेंबरशिप फी भरली. तसंच मधुराला म्हणाला,”आपला बाथरुम मोठा आहे त्यात आपण एक कमोड बसवून घेऊया अण्णांसाठी आणि थोड्या वर्षांत जरा मोठं घर बघूया. मी अण्णांशी नीट बोलेन. माझं असं कधी परत चुकलं, तर अशीच मला माझी चूक वेळोवेळी दाखवत जा.”
घरी गेल्यावर मयंक अण्णांबरोबर चेस खेळायला बसला. मधुराने त्यांच्या आवडीचा मसालेभात व मठ्ठा केला. चेस खेळता खेळता मयंकने अण्णांचा हात हलकेच दाबला व तो त्यांना ‘सॉरी’ म्हणाला.
आर्य तिथेच त्यांचा खेळ बघत बसलेला. तो आजोबांच्या गळ्यात हात टाकून म्हणाला,”बाबा,यू आल आलवेज वेलकम.” अण्णांचे डोळे पुन्हा भरुन आले; पण आत्ताचे अश्रू सकाळच्या अश्रूंपेक्षा वेगळे होते. हे तर आनंदाश्रू होते.
एक इंग्रजी वाक्य वाचनात आलं होतं. ते असं होतं की, “we are all a little broken. But the last time I checked, broken crayons still colour the same”
म्हणजे,
“आपण प्रत्येकजण कधी ना कधी मनानं तुटलेलो असतो. पण तुटलेले रंगीत खडू मी पाहिले, तर लक्षात आलं ते तुटले असले तरीही त्यांचा रंग तसाच राहिला आहे.”
किती सुंदर वाक्य आहे, नाही! आपण प्रत्येकजण कुठे ना कुठे तरी मनावर आघात झाल्यानं किंवा ओरखडा उमटल्यानं तुटलेलो असतो. पण म्हणून त्या तुटलेपणानं आपल्यात जो चांगुलपणा आहे, तो का नष्ट होऊ द्यायचा? ज्या क्षमता आहेत, त्या का लयास जाऊ द्यायच्या? तसेच रंगाचे खडूदेखील कधी कधी वापरताना तुटतात, पण म्हणून त्यांचा रंग पालटतो का? नाही! तो खडूचा तुटका तुकडाही आपल्या मूळ स्वरूपाप्रमाणेच त्याच रंगाचा प्रत्यय देत राहतो… अगदी झिजून संपेपर्यंत! त्या खडूच्या तुकड्यांकडून आपण इतकं तरी शिकलंच पाहिजे!!
“जिंदगी एक बार मिलती है”
“बिल्कुल गलत है!”
सिर्फ मौत एक बार मिलती है!
जिंदगी हर रोज मिलती है !!
बस जीना आना चाहिए!!
संग्राहक – श्री कमलाकर नाईक
फोन नं 9702923636
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈