हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -7 – परदेश की ट्रेल (Trail) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 5 – परदेश की ट्रेल (Trail) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

अमेरिका में  प्राकृतिक और विकसित किए गए वन में विचरण करने के लिए रास्ते बनाए गए है, और कुछ स्वयं बन गए है, उनको ही ट्रेल की संज्ञा दी गई हैं। हमारे देश की भाषा में खेतों की मेड़ या पगडंडी जो सघन वन क्षेत्र में आने जाने के रास्ते के रूप में उपयोग किया जाता हैं, को भी ट्रेल कह सकते हैं।                     

शिकागो शहर में भी ढेर सारी ट्रेल हैं। वर्तमान निवास से आधा मील की दूरी पर विशाल वन भूमि जिसमें छोटी नदी भी बहती है, क्षेत्र में ट्रेल बनाई गई हैं। मुख्य सड़क से कुछ अंदर जाकर गाड़ियों की मुफ्त पार्किंग व्यवस्था हैं। बैठने के लिए बहुत सारे बेंच/टेबल इत्यादि वन विभाग ने मुहैया करवाए गए हैं। कचरा डालने के लिए बड़ी संख्या में पात्र रखवा कर सफाई व्यवस्था को भी पुख्ता किया गया हैं।

मई माह से जब यहां पर भी ग्रीष्म ऋतु आरंभ होती है, तब  निवासी बड़ी संख्या में यहां आकर भोजन पकाते (Grill) हैं। लकड़ी के कोयले को छोटे छोटे चुहले नुमा यंत्र में जला कर  बहुतायत में नॉन वेज तैयार किया जाता हैं। सुरा और संगीत मोहाल को और खुशनुमा बनाने में कैटलिस्ट का कार्य करते हैं।

ट्रेल में थोड़े से पक्षी दृष्टिगोचर होते हैं।मृग अवश्य बहुत अधिक मात्रा में विचरण करते हुए पाए जाते हैं।

ट्रेल को लाल, पीले, हरे इत्यादि रंग से विभाजित किया गया हैं। भ्रमण प्रेमी रास्ता ना भटक जाएं इसलिए कुछ दूरी पर लगे हुए पिलर पर रंग के निशान देखकर हमको अपने दिल्ली मेट्रो की याद आ गई। वहां भी इसी प्रकार से अलग अलग रूट्स को रंगों से विभाजित किया गया हैं। कुछ स्टेशन पर एक लाइन से दूसरी लाइन पर भी यात्रा की जा सकती हैं। यहां ट्रेल में भी प्रातः भ्रमण करने वाले भी तिगड़ों /तिराहों पर अपना मार्ग रंगानुसार बदल सकते हैं।

ट्रेल सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता हैं। श्वान पालक भी यहां विचरण करते हुए पाए जाते हैं, लेकिन चैन से बांधना सख्ती से अनिवार्य होता है, वर्ना श्वान हिरण जैसे जीवों के लिए घातक हो सकता हैं। साइकिल सवार भी यहां दिन भर पसीना बहा कर स्वास्थ्य रहते हैं। बहुत से लोग तो धूप सेक कर शरीर के विटामिन डी के स्तर को बनाए रखते हैं। शीतकाल में तो सूर्यदर्शन भी दुर्लभ होते हैं।

वर्तमान समय में तो गर्मी, वर्षा और तीव्र वेग से हवाएं चलने का मौसम है। मौसम गिरगिट जैसे रंग बदलता है, ऐसा कहना भारतीय राजनीति के उन नेताओं का अपमान होगा, जो अपनी विचार धारा को अनेक बार बदल कर दलगत राजनीति में अपने झंडे गाड़ चुके हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वय एक आकडा… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वय एक आकडा… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

सरले किती, मोजू नको,

     उरलंय अजून बरंच काही

सरलेल्या गोड आठवणींनी,

      उरलेलं गोड करुन घे काही

 

कौमार्य गेलं असेल शिक्षणात,

      अन् भाव-भावंड सांभाळण्यात..!

तारुण्य गेलं नोकरी व्यवसायात

      स्वतःला कुटुंबाला उभं करण्यात!

 

वय केवळ एक आकडा समज ,

      मन भरुन जगून घे..!

“लोक काय म्हणतील?”सोडून,

      मनाला थोडी मोकळीक दे !

 

तू शिक्षित वा अशिक्षित स्वतःसाठी

       संवेदनाशील होऊन बघ..!

स्वतःशीचा वाद संपवून,

   उर्वरीत नियोजन करुन बघ..!

 

व्रण कधीच आठवू नकोस,

     भरलेल्या त्या जखमांचे!

दिवस कधीच साठवू नकोस,

      संकटांच्या त्या क्षणांचे ।

 

हुंदका ही नकोच नको,

     सुर्य मावळतीच्या या क्षणी

तो किती तेजस्वी दिसतो,

    हेच असू दे तुझ्या मनी..।

 

काम, क्रोध,लोभ सारे,

   निवळून जातील कुठेतरी !

निरव मनाची शांतता,

   दाटून येईल तुझ्या अंतरी ।

 

कोण जाणे पुढचा जन्म,

    पशुपक्षी वा माणूस खरा

याच जन्माचा करु सोहळा,

       माणूसकीचा ध्यास बरा ।

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #160 ☆ असे मागणे आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 160 ?

☆ असे मागणे आहे… ☆

शब्दांचे मोती व्हावे, असे मागणे आहे

ते गळ्यात तू माळावे, असे मागणे आहे

 

हे सप्तक छान सुरांचे, शब्दांशी करते गट्टी

सुरातून अर्थ कळावे, असे मागणे आहे

 

कोठार कधी पक्षाच्या, घरात दिसले नाही

उदराला रोज मिळावे, असे मागणे आहे

 

दगडाच्या हृदयी पान्हा, हिरवळ त्यात रुजावी

पाषाणी फूल फुलावे, असे मागणे आहे

 

हृदयाचे फूल मला दे, नकोच बाकी काही

ते कर तू माझ्या नावे, असे मागणे आहे

 

तो गुलाब कोटावरचा, हृदयी दरवळणारा

ते अत्तर आत रुजावे, असे मागणे आहे

 

हे पुस्तक करकमलाचे, भाग्याच्या त्यावर रेषा

हातात रोज तू घ्यावे, असे मागणे आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 110 – गीत – सदियों का संतोष ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – सदियों का संतोष।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 110 – गीत – सदियों का संतोष  ✍

क्षण भर का वह मिलन कि जैसे सदियों का संतोष दे गया।

एक अकेला और उपेक्षित आखिर कब तक रहता

बंद अँधेरे तहखाने में किससे क्या कुछ कहता

एक मृदुल स्पर्श तुम्हारा गई मूर्छना होश दे गया ।

क्षण भर का वह मिलन कि जैसे सदियों का संतोष दे गया।

सूरज डूबा चंदा डूबा पड़ा न कुछ दिखलाई

टिम टिम करते जुगनू ने ही जीवन राह सुझाई।

एक झलक दिखलाई उसने लगा कि संचित कोष दे गया।

क्षण भर का वह  मिलन की जैसे सदियों का संतोष दे गया।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 112 – “वह कबीर बन अलख…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “वह कबीर बन अलख।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 112 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “वह कबीर बन अलख” || ☆

तुम्हें भले ऐसा कह

लेना लगे, सुखद है

किन्तु गीत को निम्न

बताना बहुत दुखद है

 

आओ आगे बढो चलो

पर अनुशासन में

थोड़ा संयत बनो यहाँ

पर सम्भाषण में

 

सदा संतुलित होकर

चलते रहो समय सँग

किन्तु बहुत संकीर्ण

मिली ये तुम्हें रसद है

 

कई शील वानों के

दुविधा में चरित्र हैं

दुरभिसंधियों में विच –

लित कुछ सगे मित्र हैं

 

जो लेता आया उधार

सम्वेदन सारे

आज चाहता मुझसे

वह सम्बन्ध नकद है

 

दिन भर आतम परमा –

तम के लिये भटकता

अब निगाह में सज्जन

बन कर सदा अटकता

 

वह कबीर बन अलख

जगाने को आमादा

और गा रहा निर्गुण –

वाला वही सबद है

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कहानी – “एहसासों का दरिया”)  

☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

चा -पांच कमरे का सरकारी मकान है। सुबह 10बजे मम्मी को उनके विभाग की सरकारी गाड़ी ले गई, फिर कुछ देर बाद पापा को उनके विभाग की गाड़ी ले गई… मैं हाथ हिलाता रह गया, पीछे मुड़ा तो अचानक गलियारे में लगी बाबूजी की श्वेत श्याम मुस्कुराती हुई तस्वीर ने रोक लिया….। कैसे भूल सकता हूं बाबूजी को…, उनकी प्यारी  गोद जिसमें आराम था, सुकून था और थी प्यार की गर्मी। कैसे भूल सकता हूं बचपन के उन दिनों को जब बाबूजी मुझे गोद में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे…। जीवन में क्या क्या करना है और क्या नहीं, यह सब वे मुझे रास्ते भर बताते चलते थे। बाबूजी का प्यार मेरे लिए पूंजी बन गया। रामायण और महाभारत की प्रेरणादायक कहानियां… ज्ञान के खजाने की चाबी… शब्दकोश को समृद्ध बनाने की कलाबाजी, सभी कुछ मुझे बाबूजी से मिली। मेरे कदमों ने उन्हीं की उंगली पकड़कर चलना सीखा। जीवन जीने की कला का पाठ स्कूल में कम पर बाबूजी ने मुझे ज्यादा पढ़ाया। स्कूल आते जाते रास्ते में मेरी फरमाइश लालीपाप की रहती और बाबूजी को उतनी ही याद रहती।

पांचवीं की परीक्षा के रिजल्ट ने पापा -मम्मी की महात्वाकांक्षा बढ़ा दी थी। पापा -मम्मी ने मुझे बड़े शहर के प्रतिष्ठित स्कूल के हॉस्टल में पहुंचा दिया था। मुझे याद है बड़े शहर भेजते हुए बाबूजी तुम मुस्कराने का नाटक बखूबी निभा रहे थे। बाबूजी, न तुम मुझसे जुदा होना चाहते थे और न ही मैं तुमसे अलग होना चाहता था….

फिर हॉस्टल में ऊब और अकेलापन, मेरे अंदर अवसाद ले आया। कभी कभी पापा -मम्मी मिलने आते तो खीज सी उठती,तब बाबूजी तुम मुझे फोन पर समझाते और उन परिंदों की कहानी सुनाते जिसमें परिंदे जब अपने बच्चों को उड़ना सिखाते तो धक्का दे देते और पेड़ पर बैठे देखते कि उनके बच्चे कैसे उड़ना सीखते हैं,तब बाबूजी तुम कहते कि विपरीत परिस्थिति हो, परेशानी हो या कितना भी अकेलापन हो, ये सब एक नई उड़ान का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे समय समय के साथ नई उड़ानों में बाबूजी तुम मेरे साथ होते थे।समय पंख लगाकर उड़ता रहा और मैंने कालेज में दाखिला ले लिया…तब खबरें आतीं…

बाबूजी चिड़चिड़े हो गये हैं, बात बात में पापा -मम्मी से झगड़ते रहते हैं और पापा -मम्मी ने बाबूजी को वृद्धाश्रम भेज दिया है। घर की आया ने फोन पर बताया कि बाबूजी वृद्धाश्रम नहीं जाना चाहते थे पर मम्मी ने जबरदस्ती लड़ झगड़ कर उन्हें वहां भेज दिया और उनकी श्वेत श्याम तस्वीर घर के पीछे बाथरूम की तरफ जाने वाले गलियारे में लगा दी गई है।

आजीविका के चक्कर और बड़ा आदमी बनने की मृगतृष्णा में हम परिवार से दूर बड़े शहरों में अकेलेपन की पीड़ा झेलते हुए टूटते परिवार की तस्वीरों को देखते हुए खामोश जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं, तभी तो बाबूजी के बारे में मैंने पापा -मम्मी से कभी भी चर्चा नहीं की। उनके वृद्धाश्रम भेजे जाने पर मैं हमेशा चुप रहता आया।

जिंदगी सिर्फ मौज मस्ती और खुशी नहीं है इसमें दुःख और मायूसी भी है। इसमें ऐसी घटनाएं भी हो जातीं हैं जो कभी सोची न गई हों, की बार सब कुछ उलट -पलट हो जाता है और ऐसा ही कुछ घर की आया के फोन से मालुम हुआ कि पापा आजकल देर रात से घर पहुंचते हैं, मम्मी और पापा की अक्सर झड़पें होती रहती हैं, कभी कभी शराब के नशे में घर लौटते हैं, कुछ अनमने से रहते हैं। दौरे का बहाना बनाकर किसी महिला मित्र के साथ बाहर चले जाते हैं, मम्मी का ब्लड प्रेशर आजकल बढ़ता ही रहता है और वे भी डाक्टर के चक्कर लगातीं रहतीं हैं। पापा और मम्मी में बहुत कम बात होती है।अब घर में मेलजोल का वैसा माहौल नहीं है जैसा बाबूजी के घर में रहने से बना रहता था। मम्मी बाबूजी से मिलने वृद्धाश्रम कभी नहीं जातीं। पापा महीने में एक बार बाबूजी से मिलने जाते हैं पर दुखी मन से गेट से तुरंत लौट आते हैं। फोन पर आया की बातों को सुनकर मैं परेशान हो जाता… बाबूजी क्यों घर छोड़कर चले गए? जीवन भर तो उन्होंने सबका भला किया। पापा को सभी सुविधाओं देकर पढ़ा लिखा कर बड़ा अफसर बनाया, खुद भूखे रहकर पापा को भरपूर सुख सुविधाएं दीं।

जिंदगी के बारे में तो ऐसा सुना है कि जिंदगी में हमें वही वापस मिलता है जो हम दूसरों को देते हैं, तो फिर बाबूजी को वह सब क्यों वापस नहीं मिला। मुझे लगता है जीवन में खुशी एक तितली की तरह होती है जिसके पीछे आप जितना दौड़ते हैं वह आगे उड़ती ही जाती है और हाथ नहीं आती है। मैं अपने आप को समझाता हूं… बड़ी नौकरी मिलने पर बाबूजी को अपने पास इस बड़े शहर में ले आऊंगा, फिर उन्हें इतनी खुशी और सुख दूंगा कि उनका बुढ़ापा हरदम हंसी खुशी और आराम से कट जाएगा।इस संसार में अच्छे से जीने के लिए विश्वास, प्यार और मेलजोल की जरूरत होती है।घर से मेरे आने के बाद पापा -मम्मी और बाबूजी के बीच ऐसा क्या घटित हो गया कि विश्वास, प्यार मेलजोल सब कुछ टूटकर बिखर गया।

इधर कुछ दिनों से मेरे अकेलेपन के बीच नेहा की दस्तक बढ़ गई है, उससे दिनोदिन लगाव बढ़ता जा रहा है। अक्सर हम लोग मौज-मस्ती करने कभी गार्डन, कभी सिनेमा हॉल जाने लगे हैं। कभी पार्टियों में नाच गाना चलता है तो कभी पूर्ण समर्पण के साथ नेहा मुझ पर न्यौछावर हो जाती है…. नयी बात अभी ये हुई है कि मुझे एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ा पद मिल गया है, खुशी और उत्साह से नेहा मेरा हाथ थामे एक बार बाबूजी से मिलने आतुर है…

मैंने तय किया कि नेहा को लेकर बाबूजी के चरणों में अपना सर रख दूंगा और फिर कहूंगा… बाबूजी तुम जीत गए।

मैं एक बड़ा आदमी बन गया हूं। एक मल्टीनेशनल कंपनी में जनरल मैनेजर का पद संभाल लिया है… और आज हम ट्रेन से अपने घर जाने के लिए रवाना हो गए हैं। स्टेशन से उतरकर घर जाने के लिए टैक्सी से चल पड़े हैं, अचानक बाबूजी तुम याद आ गये, मैंने टैक्सी ड्राइवर को पहले वृद्धाश्रम चलने को कहा, टैक्सी वृद्धाश्रम की तरफ दौड़ने लगी है, वृद्धाश्रम के गेट पर रुककर मैंने नेहा का हाथ पकड़कर टैक्सी से उतारा और पूछताछ काउंटर पर बाबूजी के बारे में पूछताछ की। केयरटेकर हमें बाबूजी की खोली की तरफ लेकर चला। एक टूटी सी खटिया में भिनभिनाती मक्खियों के बीच बाबूजी लेटे हुए थे, शरीर टूट सा गया था, दाढ़ी बहुत बढ़ चुकी थी,गाल पिचके, आंखें घुसी हुई हड्डियों के कंकाल में तब्दील बाबूजी पहचान में नहीं आ रहे हैं। बाबूजी ने आंखें खोली। मेरी उपलब्धियों को सुनकर उनके बेजान चेहरे पर हल्की सी मुस्कान झिलमिलाई और अचानक हताशा में बदल गई..

बाबूजी ने हाथ उठाकर नेहा और मुझे आशीर्वाद दिया और तकिए के नीचे से कुछ पैसे निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए बेजान आवाज में बोले – ‘बेटा मेरा एक छोटा सा काम कर देना, कफन के लिए सस्ता सा कपड़ा ख़रीद कर ले आना ‘

वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था और बाबूजी ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद ली थीं….

मैं अपने मोबाइल से पापा -मम्मी को फोन लगा रहा था,उधर से लगातार आवाजें आ रहीं थीं “आऊट ऑफ कवरेज एरिया”….. आउट ऑफ कवरेज एरिया…..।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 102 ☆ # जलजला… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “#जलजला …#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 102 ☆

☆ # जलजला… # ☆ 

सब की आंखों में छाया कोहरा है

वक्त के हाथों में इन्सान मोहरा है

रिश्ते रोज बनते हैं , बिगड़ते हैं

कुछ लोगों का चरित्र यहां दोहरा है

 

चेहरे पर हंसी रहती है

आंखें कुछ और कहती है

दर्द सीने में छिपाकर हरदम

बेबसी सब कुछ सहती है

 

किससे कोई फरियाद करे

किसे छुपाए, किसे याद करे

कौन समझेगा यहाँ मजबूरियां 

कौन अपना समय बर्बाद करे

 

होंठों को बंद कर के

जी रहे हैं हम

कदम कदम पर

जहर पी रहे हैं हम

कायर बन गये हैं

 ज़माने को देखकर

मुर्दा बन कर जुबां को

सी रहे हैं हम

 

अब तो ज़ुल्म की

इंतिहा हो गई है

न्याय की उम्मीद

थक-हारकर सो गई है

ज़लज़ला आयेगा

यह तो तय है

हर सीने में आग

बारूद बो गई है /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 102 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 102 ? 

☆ अभंग… ☆

युनिक असावं, लोकल नसावं

उत्कृष्ट करावं, काहीतरी..!!

 

सर्वांत असुनी, अलिप्त भासावं

विजन साधावं, योग्यवेळी..!!

 

शब्दांत आपुल्या, सामर्थ्य दिसावं

अनेका कळावं, प्रभुत्व पै..!!

 

दक्षता घेयावी, परी आचरावी

दसी पकडावी, सु-कार्याची ..!!

 

कवी राज म्हणे, अंतर संपावे

चरण दिसावे, श्रीकृष्णाचे..!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ३९ – परिव्राजक १७. बेळगांव आणि हरिपद मित्र ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ३९ – परिव्राजक १७. बेळगांव आणि हरिपद मित्र ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

बेळगाव मध्ये स्वामीजींचा सहवास लाभलेले आणखी एक कुटुंब म्हणजे, हरिपद मित्र आणि त्यांच्या पत्नी सौ इंदुमती मित्र. हरिपद मित्र वन खात्यात विभागीय अधिकारी होते. ते बंगाली असल्याने भाटे वकील ओळख करून द्यायला स्वामीजींना त्यांच्या घरी घेऊन गेले. दारात, शांत, सौम्य, तेजस्वी, दाढी केलेला तरुण संन्यासी, पायात मराठी वहाणा, अंगात भगवी कफनी, डोक्याला भगवा फेटा असं आकर्षक व्यक्तिमत्व पाहून, हरिपद यांना क्षणभर भुरळच पडली. पण पुढच्याच क्षणी तो आपल्याकडे काही मागण्यासच आला असावा, कारण संन्यासी म्हणजे लुच्चा लफंगा असे त्यांचे मत झाले. भाटे वकिलांनी परिचय करून दिल्यावर एका महाराष्ट्रियन ब्राम्हणाकडे बंगाल्याचे जमणे कठीणच म्हणून ते आपल्याकडे रहाण्यासाठीच आले असावेत अशीही भावना झाली. म्हणून हरिपदांनी स्वामीजींना विचारले तुमचं सामान इथेच आणून घेऊ का?

स्वामीजी म्हणाले, “मी वकील साहेबांकडे अगदी आरामात आहे. ते सारे आपल्याला फार प्रेमाने वागवतात. कोणीतरी बंगाली भेटल्यामुळे मी त्यांच्या घरातून हललो तर ते बरं दिसणार नाही. योग्य होणार नाही. त्यांना वाईट वाटेल, सध्या नको, पुढे पाहता येईल.” इथे स्वामी विवेकानंदांचा विवेक दिसतो. यानंतर झालेल्या गप्पांमधून हरिपद यांना स्वामीजींचे व्यक्तिमत्व उलगडत गेले. दुसर्‍या दिवशी स्वामींना त्यांनी फराळाला बोलावले, स्वामीजींनी होकार दिला. दुसर्‍या दिवशी हरिपद स्वामीजींची वाट पाहत होते. बराच वेळ झाला स्वामीजी आलेच नाहीत, म्हणून हरिपद त्यांना बघायला भाटे वकिलांकडे गेले. पाहतात तर काय, त्यांच्या भोवती गावातील अनेक वकील, पंडित आणि इतर प्रतिष्ठित यांचा मेळावा जमलेला. कोणी प्रश्न विचारात होते, कोणाचा मुक्त संवाद चालला होता. स्वामीजी चार भाषांतून सर्वांना कुशलतेने उत्तरे देत होते. या रंगलेल्या धर्मचर्चेत एकाने संस्कृतमध्ये विचारले, “धर्मासंबंधी म्लेंच्छ्  भाषेत चर्चा करणे निषिद्ध आहे. असे अमुक पुराणात संगितले आहे”. त्यावर स्वामीजी म्हणाले, “ भाषा कोणतीही असो, त्या भाषेतून चर्चा करायला काही हरकत नाही. हे सांगताना त्यांनी अनेक वेदादिकांमधील संदर्भासहित स्पष्टीकरण दिले आणि शेवटी सांगितले, हायकोर्टाचा निकाल खालची कोर्टे झिडकारू शकत नाहीत, पुराणापेक्षा वेदांचेच म्हणणे श्रेष्ठ”.

एका ब्राह्मण वकिलाने विचारले, स्वामीजी संध्या व इतरही आन्हिकांचे सारे मंत्र संस्कृत भाषेत आहेत. ते सारे आम्हाला कळत नाहीत. अशा स्थितीत ते म्हटल्याने आम्हाला काही फळ मिळेल की नाही”? स्वामीजी उत्तरले, “अलबत, तुम्ही ब्राह्मणा पोटी जन्म घेतलेला, थोडासा प्रयत्न केला तर त्या मंत्राचा अर्थ सहज समजून घेऊ शकाल. पण असा प्रयत्नच मुली तुम्ही लोक करत नाहीत. हा दोष सांगा पाहू कुणाचा?आणि अर्थ जरी कळत नसला तरी, संध्या करावयास बसता, तेंव्हा काहीतरी शुभ धर्मकर्म करीत आहोत असे तुम्हाला वाटत असते. धर्मकर्माच्या शुभ भावनेने जर ते आन्हिकं करीत असाल तर तेव्हढ्यानेच त्याचे शुभ फळ तुम्हाला खात्रीने मिळेल”.   

सर्वजण गेल्यावर स्वामीजींना हरिपद दिसताच त्यांच्या निमंत्रणची आठवण झाली. स्वामीजींनी त्यांची माफी मागितली आणि म्हणाले, “एव्हढ्या मंडळींचा हिरमोड करून येणं मला प्रशस्त नाही वाटलं. गैर मानू नका”. यावेळी हरिपद यांनी पुन्हा घरी राहायला येण्याचा आग्रह केला. तर स्वामीजींनी सांगितलं, आधी भाटे वकिलांची परवानगी घ्या. ते हो म्हणाले तर माझी काही हरकत नाही. हरिपद यांनी महाप्रयत्नाने ही परवानगी मिळवली आणि ते स्वामीजींना आपल्या घरी घेऊन गेले. हरिपद मित्र यांच्या आयुष्यातला स्वामीजींचा हा सहवास क्रांतिकारक ठरला होता.

हरिपद मित्र अगदी मॅट्रिक होईपर्यंत इंग्रजी शाळेत शिकत असल्याने त्यांचा हिंदू धर्मावरील विश्वास उडत चालला होता. कॉलेजच्या विषयांबरोबर हक्स्ले, डार्विन, मिल.टिंडॉल, स्पेन्सर प्रभृती या पाश्चात्य पंडितांचा त्यांच्या ग्रंथावरून परिचय झाला होता. अती इंग्रजी शिक्षणामुळे ते नास्तिक बनले, कशावरही श्रद्धा नाही, भक्ति नाही. सर्वच धर्मात त्यांना दोष दिसे. याच वेळी मिशनर्यांचे त्यांच्याकडे येणे जाणे सुरू झाले. ख्रिस्ती धर्म स्वीकारावा म्हणून शेवटपर्यंत प्रयत्न केले गेले. इतर धर्माची निंदा करून वेगवेगळे डावपेच रचून, आधी ख्रिस्ती धर्मावर विश्वास ठेवा मग तो श्रेष्ठ वाटेल, मन लावून बायबल वाचा म्हणजे आपोआप श्रद्धा बसेल, असे त्यांच्या गळी ऊतरवू लागले होते मिशनरी. पण प्रमाणाखेरीज कशावरही विश्वास ठेऊ नये हे तत्व पाश्चात्य विद्येमुळेच त्यांना कळले होते आणि ते त्याच्यावर ठाम पण होते. परंतु मिशनरी आता नेमकं याच्या विरुद्धच सांगू लागले होते. शेवटी गोष्ट इतक्या ठरला गेली की, हरिपदांच्या शंका असलेल्या दहा प्रश्नांची उत्तरे द्यावीत मग बाप्तिस्मा करून ते ख्रिस्ती धर्म स्वीकारतील. परंतु सुदैवाने हरिपद यांना तीन प्रश्नांची उत्तरे मिळण्यापूर्वीच कॉलेज सोडलं आणि संसार सुरू झाला त्यामुळे हे धर्मांतर वाचलं. पण यानंतर ही त्यांचा सर्व धर्माचा अभ्यास चालूच होता. चर्चमध्ये जाणं, देवळात जाणं, ब्राह्म समाजात जाणं हे चालू होतं. तरीही सत्य धर्म कोणता, असत्य कोणता, चांगला कोणता, वाईट कोणता हे हरिपद यांना ठरवता आले नव्हते. पण कोणत्यातरी धर्मावर दृढ श्रद्धा ठेवल्यास आयुष्य सुखासमाधानाने  घालवता येईल हे त्यांना पटलं होतं. तरीही चांगल्या पगाराची नोकरी, उत्तम स्थिति असताना सुद्धा मन मात्र बेचैन होतं. शांत नव्हतं. सतत कसली तरी हुरहूर असे. स्वामीजींच्या संपर्कात आल्याने त्यांना धर्मासंबंधी योग्य मार्गदर्शन मिळाले. धर्म वादावादीत नाही. धर्म म्हणजे प्रत्यक्षा अनुभूतीची बाब आहे. ही गोष्ट पटवून देण्यासाठी स्वामीजी म्हणत, ‘मिठाईची पारख होणार ती मिठाई खाऊनच, धर्माचा प्रत्यक्ष अनुभव घ्या, एरव्ही काहीही कळणे कधी शक्य नाही’.  

धर्मजीवनाविषयी अशा प्रकारे त्यांच्या मनात अनेक शंका होत्या. अनेक संशय होते  त्या सर्व प्रश्नांची उत्तरे स्वामीजींनी दिली होती. सत्य, धर्म आणि श्रद्धा या विषयावरच्या चर्चेतून आणखी गोष्टींचा खुलासा हरिपद यांना झाला होता. जेंव्हा जेंव्हा सवड मिळे संवाद होई तेंव्हा तेंव्हा हरिपद मित्र ही संधी घेत असत. याबरोबरच स्वामीजी त्यांना आलेले अनुभव पण सांगत.

हरिपद यांच्या पत्नी इंदुमती यांना बर्‍याच दिवसांपासून गुरुमंत्र घेण्याची इच्छा होती.पण हरिपद धर्माच्या बाबतीत साशंक होते आणि योग्य व्यक्ती भेटेपर्यंत वाट पाहूया असे त्यांनी पत्नीला सांगीतले होते.    स्वामीजींन कडून ती घेण्याचा योग आल्याने दोघं ही कृतकृत्य झाले. शिष्यत्व पत्करल्यावर स्वामीजी तीन वेळा फक्त भेटले . प्रथम बेळगावला. नंतर स्वामीजी अमेरिका प्रवासाला गेले त्या आधी आणि नंतर देहत्यागच्या सहा महीने आधी. स्वामीजींनी दीक्षा दिल्यानंतर दोघांचेही सतत स्मरण ठेवल्याचे दिसते.अमेरिकेत जाण्याआधी त्यांनी इंदुमतींच्या पत्रात लिहिले होते, “तुमचे उभयतांचे कल्याण असावे अशी प्रार्थना मी नित्या परमेश्वराला करत असतो. परमेश्वराची कृपा असेल तर मी अमेरिकेतून परत आल्यावर आपली भेट होईल. आपण परमेश्वराच्या हातातली केवळ बाहुली आहोत. याचे सदैव स्मरण ठेवा. मन सदैव शुद्ध असावे, विचार उच्चार वा आचार यापैकी कशातही अशुद्धतेचा स्पर्श होऊ देऊ नये. गीतेचे पठण करीत राहा”. अशा प्रकारे हरिपद यांना स्वामीजींचे वैयक्तिक सहवासातून दर्शन झाले होते. बोलता बोलताना स्वामीजींनी हरिपद बाबूंना आपला सर्वधर्म परिषदेला अमेरिकेला जाण्याचा मानस त्यांनी बोलून दाखविला होता.                                  

स्वामीजी आता इथला प्रवास संपवून निघाले. हरिपद यांनी त्यांना प्रेमपूर्वक निरोप दिला बेळगावमध्ये असताना शिरगावकर यांची ओळख झाल्याने जाताना त्यांनी मडगावच्या सुब्राय नायक यांच्या नावे  परिचय पत्र दिले होते. ते घेऊन स्वामीजी गोव्याकडे रेल्वेने रवाना झाले.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 33 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 33 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

५१.

रात्र गडद काळी झाली.

आमची दिवसभराची कामं झाली होती.

आम्हांला वाटलं. . .

रात्रीसाठी येणारा शेवटचा प्रवासी आला.

आम्ही गावाचा दरवाजा लावून घेतला.

कोणीतरी म्हणालं. . .

‘ राजा अजून यायचाय.’

आम्ही हसलो.’ ते! कसं शक्य आहे?’

 

दारावर टकटक झाली.

आम्ही म्हणालो,’ ते काही नाही.

फक्त वाऱ्याचा आवाज आहे.’

दिवे मालवून आम्ही झोपायला गेलो.

कोणीतरी म्हणाले,’ तो दूत दिसतोय.’

आम्ही हसून म्हणालो,

‘ नाही! ते वारंच असलं पाहिजे.’

 

रात्रीच्या निरवतेत एक आवाज उमटला.

दूरवर विजेचा गडगडाट झाला

असं आम्हाला वाटलं. आम्हांला वाटलं. . .

धरणी थरथरली, भिंती हादरल्या.

आमची झोप चाळवली.

एकजण म्हणाला, ‘चाकांचा आवाज येतोय.’

आम्ही झोपेतच बरळलो,

‘ छे!हा तर ढगांचा गडगडाट!’

 

ढोल वाजला. रात्र काळोखी होती-

आवाज आला,’ उठा! उशीर करू नका!’

भीतीनं आम्ही आमचे हात छातीवर दाबून धरले.

आमचा थरकाप उडाला.

‘ तो पहा राजाचा ध्वज!’ कुणीतरी म्हणाले.

आम्ही खाडकन जागे झालो.

‘ आता उशीर नको.’

 

कुणीतरी म्हणालं,” आता ओरडून काय उपयोग?”

त्याला रिकाम्या हातांनी सामोरे जा आणि

ओक्याबोक्या महालात आणा.”

” दार उघडा! शिंग फुंका!

मध्यरात्री आमच्या अंधाऱ्या,ओसाड घरांचा

राजा आला आहे.”

 

आकाशात विजांचा गडगडाट होतो आहे.

त्यांच्या चमचमाटात अंधाराचा थरकाप होतो.

 

” तुमची फाटकी सतरंजी आणा.महालात पसरा.

वादळवाऱ्यात एकाएकी अचानकपणे

भयाण रात्रीचा राजा आला आहे.”

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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