हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 31 ☆ व्यंग्य – नंगे हो तो नंगे दिखो भी ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नंगे हो तो नंगे दिखो भी”।) 

☆ शेष कुशल # 31☆

☆ व्यंग्य – “नंगे हो तो नंगे दिखो भी” – शांतिलाल जैन ☆ 

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

हम तो कहेंगे साहब कि ये हवाईजहाज़ बनाने वाली कंपनी की गलती है. इतने बड़े एयरक्राफ्ट के अन्दर खम्बे फिट करना भूल गई. अब किसी को एक पैर ऊपर करके हल्का होना हो तो वो आसमान में कहाँ जाए, बताईये भला ? फ्लाईट में बैठनेवाले सभी तो इंसा नहीं होते हैं ना, कुछ सूंघ कर करनेवाले भी होते हैं. धुत्त नशे में जो इंसा इंसा नहीं रहा उसके लिए क्या तो महिला और क्या तो खम्बा. करने को तो वे टायर पे भी कर सकते थे मगर आसमां में विमान के टायर बाहर नहीं होते सो अन्दर ही हल्का होना पड़ा.

बहरहाल, आसमां पर रहनेवाले आभिजात्य के लिए नीचे की पूरी दुनिया एक यूरीनल है, वे जब जैसे जहाँ चाहे यूरिनेट कर सकते हैं. वे ओरिजनलिटी में रहते हैं, नंगे हो तो नंगे दिखो भी. उन्होंने नंगापन दिखाया तो, आई मीन ज़िप खोल के जेनिटल्स दिखाए ना. अखबार में तो यही लिखा रहा. पूछने का मन किया किया कि बिना ज़िप खोले उनपे धार कैसे मारी जा सकती थी जो दादी नहीं तो माँ की उम्र की तो हैं ही. शराब तो बस तड़का लगाती है, असल नशा पद, पैसे, रसूख का होता है. एक तो फ्रिक्वेंट फ्लायर,  मल्टीनॅशनल कंपनी का वाईस प्रेसिडेंट,  करोड़ दो करोड़ का पैकेज तो रहा ही होगा, कमाल का पढ़ा लिखा मगर अंततः नंगा जो ठहरा. नंगे के नौ-ग्रह बलवान.  केबिन-क्रू को भी अपनी नौकरी प्यारी जो ठहरी. न एयर इंडिया सरकारी रही न उनकी नौकरियाँ. अब गई कि तब गई. तलवार की धार पर चलना है तो धार मारनेवाले कस्टमर को भी नाराज़ नहीं कर सकते. घुटना डॉलर की तरफ मुड़ता है. एविएशन का मार्किट है श्रीमान, यहाँ उपभोक्ता राजा होता है. राजा को नंगा तो कोई अबोध बालक ही कह सकता है, कप्तान पायलट की क्या बिसात ?

वो राजा ही नहीं ‘राजा बेटा’ भी है. पप्पा बचाव में उतर आए हैं. जितनी घिनौनी हरकत लाड़ले ने की उतना ही खूबसूरत दलीलें धृतराष्ट्र ने दी. अपन के बाऊजी होते तो इससे हज़ार गुना छोटी हरकत पे भी हवाई अड्डे से घर तक जुतियाते हुए लाते और थानेदार को बोलते कि दो डंडे तू भी लगा नालायक के, बिरादरी में नाक कटा दी. अभिजनों के  संसार में पैसा ही नाक है, माल हो ज़ेब में तो नाक तो टाईटेनियम की भी लग जाती है. होड़ सी लगी है – बेटा इत्ता नंगा तो बाप इत्ते पे और इत्ता. वैसे भी जो लोग सभ्यता  के चरम पर पहुँच जाते हैं वे कब आदिम दौर में प्रवेश कर जाते हैं पता ही नहीं चलता,  वल्कल वस्त्र से भी पूर्व की अवस्था में. उसी का मुज़ाहिरा पेश किया सुसु भैया ने. संभ्रांतजन उस सभ्य समाज की नुमाईंदगी करते हैं जो दीखते साथ में हैं मगर होते अकेले है. अकेले सहा दादी ने. पुरुष तो बहुत थे साथ में, कमी रही तो बस एक अदद मर्द की. एक ऐसे मर्द की जो टॉमी को लतियाकर भगा पाता.

बहरहाल,  विमान के अन्दर खम्बों का इंतज़ाम किए जाने तक विमानन कंपनियों को चाहिए कि वे हर एग्जिट गेट के पास एक-एक पुराना टायर रख दे, उस प्रजाति का यात्री सूंघे और हल्का हो ले. दूसरे यात्रियों के कपड़े गीले न हों. विमान की आंतरिक दीवारों पर बाकी जगह लिखा हो – ‘यहाँ पेशाब करना मना है, पकड़े जाने पर पांच सौ रूपये जुर्माना’.

और हाँ, टेक-ऑफ से पहले एक जरूरी उद्घोषणा – “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, इस फ्लाईट में पुरुष सह-यात्री डायपर पहन कर नहीं आए हैं अतः महिला यात्री अपनी सीट के नीचे रखे रेनकोट पहन लें और उतरते समय कुर्सी की पेटी खोलने के संकेत होने तक पहने रहें. आपकी यात्रा सूखी और शुभ हो.”

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 170 ☆ “यश का नशा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं  विचारणीय कविता  – “यश का नशा”)

☆ लघुकथा # 170 ☆ “यश का नशा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

फेसबुक में उन्होंने धड़ाधड़ 5000 मित्र बना डाले, फिर उन्हें हर किसी की तस्वीर पर जल्दबाजी में टिप्पणी लिखकर यश कमाने का भूत सवार हो गया। मोबाइल में जल्दबाजी में हिंदी में टायपिंग करना और चैक नहीं करना कभी कभी लठ्ठ पड़वा देता है। किसी ने अपनी पत्नी के साथ बैठकर अंंगूर खाती हुई अपनी फोटो फैसबुक में डाली थी। लिखा था–‘ आज मेरी खूबसूरत पत्नी का जन्मदिन है।’ टिप्पणी देने में  वे तेज तो थे ही तुरंत लिख मारा–‘ वाह क्या लंगूर है,जुग जुग जियो’।

दूसरे दिन उनको लठ्ठ पड़ गये और सिर में पट्टी बांधे वे पछता रहे थे कि टाइप करने के बाद दुबारा चैक करके ही पोस्ट डालना चाहिए।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 112 ☆ # पतंग… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#पतंग …#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 112 ☆

☆ # पतंग… # ☆ 

आओ हम पतंग उड़ाए

मांझा,चक्री लेकर आए

पतंग हमारी उड़ती जाए

नील गगन में खूब लहराए

 

भिन्न भिन्न रंगो की पतंग है

भिन्न भिन्न रूपों की पतंग है

भिन्न भिन्न सपनों की पतंग है

भिन्न भिन्न अपनों की पतंग है

 

कहीं कोई लोहड़ी मनाऐ

कहीं कोई पोंगल मनाऐ

कहीं कोई मकर संक्रांति मनाऐ

कहीं कोई बिहू, भोगली मनाऐ

 

सबके मन में है उमंग

आकाश में उड़ती जाये पतंग

अमीर गरीब का भेद नहीं है

सबकी पतंग उड़े संग संग

 

कोई लगाये कट्टर मांझा

किसी के हाथ में सरल धागा

जो दूसरे की पतंग काटे

वो तो है आज का राजा

 

कुछ लोग सदा पेंच लड़ाते

पतंग काटने जुगत भिड़ाते

तरह तरह के मांझे लाकर

पतंग काट,अपना रोब बढ़ाते

 

उड़ती पतंग कितनी अच्छी है

हर उड़ान कितनी सच्ची है

जीवन की पतंग उड़ती रहे

इसलिए सब माथापच्ची है

 

कभी किसी की डोर ना टूटे

कोई दीवाना पतंग ना लूटे

लहराती रहे आसमान में

कभी हाथ से डोर ना छूटे/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 113 ☆ तिळगुळ होताना… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 113 ? 

☆ तिळगुळ होताना…

तिळगुळ एकत्र येतो

एकत्र येऊन समरस होतो

 

समरस होऊन एकमेकांत

प्रेमाचा तो संदेश देतो

  

तीळ तुटतो,गूळ फुटतो

तेव्हाच कुठे गोडवा येतो

 

आपल्यातील अहंकार असाच तुटावा

गोडवा गोडवा आणि गोडवाच रहावा

 

देणाऱ्याने देत जावे

घेणाऱ्याने घेत जावे

 

परंपरेचे भान अन

स्नेह तुषार उडवित जावे

 

ममता आणि सुनम्रता

साधावी ती समर्पकता

 

शेवटी काय हो येईल सोबती

म्हणुनी जपावी प्रेमळ नाती

 

सु-मंगल सु-दिन आज उगवला

तिळगुळ घ्या,गोड गोड बोला

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग – ५२ – डेट्रॉईट आणि वृत्तपत्रातील वादळ ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग –५२ – डेट्रॉईट आणि वृत्तपत्रातील वादळ ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

मेंफिसहून स्वामीजी शिकागोला परतले. २५ जानेवारीला, तिथेही एक कार्यक्रम झाला. तीन आठवडे राहून ते आता डेट्रॉईट ला आले होते. सांस्कृतिक शहर होतं डेट्रॉईट. तिथे सतत काही न काही घडत तरी असे, किंवा काही तरी उपक्रम चालत असे. असे नवचैतन्य असलेले शहर, इथे नवीन उपक्रमाचे नेहमी स्वागत होत असे,स्वामींचा तिथे तीन वेळा मुक्काम झाला. त्या काळात त्यांची ८ सार्वजनिक व्याख्याने झाली.

डेट्रॉईट मध्ये स्वामीजी मिसेस जे.बॅगले यांच्या राजेशाही प्रासादात मुक्कामाला होते.

बॅगले साठीच्या होत्या. स्वतंत्र विचारांच्या, तडफदार आणि मनाने उदार होत्या. त्यांचे पती मिशिगन चे निवृत्त गव्हर्नर होते ,पण दुर्दैवाने त्यांचे खूप लवकर निधन झाले. व्यापक दृष्टी असलेल्या बॅगले अनेक सार्वजनिक कामात विविध ठिकाणी पदांवर होत्या. जबाबदारी सांभाळत होत्या. शिकागो चे जे प्रदर्शन भरले होते त्याच्या महिला विभागाच्या व्यवस्थापक मंडळावर त्या होत्या. सर्व धर्म परिषदेत त्यांनी विवेकानंदांची भाषणे ऐकली होती. तेंव्हाच त्यांच्यावर स्वामीजींचा प्रभाव पडला होता. त्यामुळे तर काय त्यांनी स्वामीजींना अगदी आनंदाने डेट्रॉईटला आपल्याकडे ठेऊन घेतले होते.

स्वामीजींच्या स्वागताप्रीत्यर्थ अल्पोपाहाराचा खास कार्यक्रम आयोजित केला होता.त्याला सर्व चर्च चे बिश्यप, धर्मोपदेशक, महापौर,पत्रकार, प्राध्यापक, विचारवंत अशा सर्वांना निमंत्रित केलं होतं. याआधी सुद्धा बॅगले यांनी नामवंतांसाठी असे कार्यक्रम आयोजित केले होते पण त्याहीपेक्षा हा कार्यक्रम चांगला झाला असे वृत्तपत्रातल्या प्रसिद्धीत म्हटले होते.

पण या सुंदर नियोजित कार्यक्रमाला गालबोट लागले ते तिथे आलेल्या एका स्त्रीने स्वामीजींना उद्देशून अपमानकारक काही शब्द वापरले होते म्हणून. ते बॅगले यांना अजिबात आवडले नाही. ही तर स्वामीजींना विरोधाची नांदी च ठरली होती जणू. वाचकांच्या पत्रात वृत्तपत्रात हे छापून आले होते. दुसर्‍या दिवशी फ्री प्रेस च्या पत्रकारांनी घेतलेली त्यांची मुलाखत छापताना सुरुवातीलाच काही उपहासात्मक चार ओळी सुद्धा लिहिल्या होत्या मुलाखतित मेंफिस ला प्रश्न विचारले होते तसेच विचारले होते. ही मुलाखत डेट्रॉईट इव्हिंनिंग न्यूज मध्ये सविस्तर छापली होती.

डेट्रॉईटच्या युनिटेरियन चर्च मध्ये स्वामीजींचे पहिले व्याख्यान झाले. मिसेस मेरी फंकी या वेळी उपस्थित होत्या. 

स्वामी विवेकानंद, भारतातील अध्यात्मिकता गुलामगिरीत सुद्धा टिकून राहिली होती,ती प्राचीन संस्कृती, खोलवर पोहोचलेली नीतीमूल्य यावर स्वामीजी बोलले. अशा आमच्या देशात ख्रिस्ती उपदेशकांची काहीही आवश्यकता नाही ,त्यांनी हवं तर भारतात यावं आणि तिथल्या संस्कृतीकडून धडे घ्यावेत”.झालं! ही टीका सहन न होऊन स्वामीजींच्या याच मुद्दयाचा आधार घेऊन आता विवेकानंदांविरूद्ध टीका सुरू झाली.विवेकानंद यांच्या आयोजित कार्यक्रमाचे प्रास्ताविक करायला सुद्धा आता लोक नाही म्हणू लागले. आणि आता विवेकानंद आपले पाहुणे नाहीत सर्वधर्म परिषद आता संपली आहे. आपण त्यांच्या बोलण्यावर जोरदार प्रहार केला पाहिजे. मिशनर्‍यांनी उठवलेले हे वादळ ट्रिब्युन जर्नल, इव्हिंनिंग न्यूज, फ्री प्रेस या तिथल्या प्रमुख वृत्तपत्रातून आल्याने आता स्वामीजी एका बाजूला तर मिशनरी एका बाजूला अशी स्थिति निर्माण झाली.

डेट्रॉईट मध्ये तर वृत्तपत्रात वाचकांची पत्रे आणि संपादकीय याचा वर्षाव झाला जणू. स्वामीजींचे दुसरे व्याख्यान हिंदूंचा तत्वज्ञानविचार या विषयावर झाले.काहीजण योग्य विचार करून स्वामीजींबद्दल लिहिणारे होते तेही छापून येत होते.

विवेकानंद यांना सभेनंतर प्रश्न विचारत किंवा प्रश्नोत्तरचा कार्यक्रम होई त्यात विचारत. त्यातील मते अशी असत. “भारत एक अतिशय मागासलेला देश आहे. आदिम समाज असावा तसा किंवा त्या अवस्थेतून नुकताच बाहेर पडत असलेला देश. दगड धोंड्यांची तसेच, वड किंवा तुळस अशा झाडांची, नाग, वानर अशा प्राण्यांची, पुजा तेथे चालते.पतीच्या मृत्यूनंतर स्त्रीला सरळ त्याच्या बरोबर चितेवर चढवतात . तेथील लोक आपली मुले विशेषत मुली गंगेत सुसरीपुढे टाकतात किंवा जगन्नाथाच्या रथयात्रेवेळी चाकाखाली आपले शरीर झोकून देऊन अनेक जण प्राणत्याग करतात”. अशा तिथे भारताबद्दल समजुती होत्या. हेच प्रश्न लोक तिथे विचारात असत. विवेकानंद यांनी या सर्व प्रश्नांना वेगवेगळ्या कार्यक्रमात ,मुलाखतीत,सभेच्या शेवटी योग्य ती सत्य उत्तरे दिली. नेमके त्या मागचे विचार आणि वस्तुस्थिती स्पष्टपणे समजावून सांगितली.काहीही लपविले नाही.

त्या लोकांची दुसरी समजूत अशी होती, ‘भारतात चमत्कार करणारे काही फकीर आणि बैरागी आहेत, ते आकाशात दोर ताठ फेकून त्यावर चढून नाहीसे होतात. पुन्हा खाली येतात. आपले शरीर जमिनीपासून वर अधांतरी उचलतात,पाण्यावरून चालत जातात, हिमालयात तर अनेक योगी व महात्मे असे आहेत की, अनेक दिवस अन्न पाण्याशिवाय राहू शकतात. भूत भविष्य सांगतात. निसर्गाचा कोणताही नियम त्यांना अडवू शकत नाही. शंभर शंभर वर्षे जगतात’ अशा या समजुतीचे विवेकानंद यांनी स्पष्ट नकारार्थी उत्तर दिले. काही वेळा क्वचित चमत्कार घडतात पण त्यामागे काही नियम असला पाहिजे तो आपल्याला माहिती नसतो एव्हढच. आपण हिमालयात फिरलेलो आहोत. असा कुठलाही महात्मा आपल्याला भेटलेला नाही असे ठणकाऊन सांगितले. पुढे जाऊन असेही स्पष्ट केले की, हिंदू धर्मातील तत्वज्ञानामध्ये चमत्कारांना कोणतेही महत्व दिलेले नाही. सामान्य माणूस त्यांना भुलतो. पण ते त्याचे अज्ञान असते. आध्यात्मिक धारणा महत्वाची आहे. आणि तिचा संबंध माणसाच्या आत्मिक विकासाशी आणि विशुद्ध आचरणाशी आहे. ही भारतीय तत्वज्ञानाची शिकवणूक आहे. हे स्वामी विवेकानंद यांचे बुद्धिनिष्ठ विचार थिओसॉफीच्या विचारसरणीचा पाया च डळमळीत करणारे ठरले आणि पुन्हा एकदा त्यांना शत्रुत्व पत्करावे लागले.एव्हढी समाधानकारक उत्तरे त्यांनी दिली होती, तरी सुद्धा यानंतरच्या अंकात विवेकानंद यांचे स्वागत करताना ‘आम्हाला काही चमत्कार दाखवा’ असा अग्रलेख प्रसिद्ध झाला. त्याच्या दुसर्‍या दिवशी पुन्हा एक अग्रलेख .त्यात लिहिलं होतं, चमत्कार करता येत नाहीत तेंव्हा विवेकानंद यांच्या विषयीचा भ्रमाचा भोपळा फुटला.

पण आता मात्र ओ.पी. डेलडॉक जे स्वामीजींच्या विचारांचे पुरस्कर्ते होते त्यांनी वृत्तपत्राची मागणी आणि विसंगती दाखवणारं सविस्तर पत्रच पाठवलं, जे प्रसिद्ध झालं. धार्मिक विषयात विवेकानंद यांची उघडपणे बाजू घेणारे लोकही तिथे होते.

युनिटेरियन चर्च मध्ये १८ फेब्रुवारी ला धर्म प्रवचनासाठी रेव्हरंड रीड स्टुअर्ट यांनी ‘पूर्व दिशेचा उघडत असलेला दरवाजा’  असा विषय मांडला.विवेकानंद यांच्या विचारधारेशी समन्वय साधणारे भाषण त्यांनी केले, पश्चिमेकडे विज्ञान आहे ,तर पूर्वेकडे अध्यात्म आहे. पश्चिमेकडे पंथ आहे तर पूर्वेकडे अनेक पंथांना सामावून घेणारा धर्म आहे.असे सांगितले.

तर बेथ एल या मंदिरात रॅब्बी ग्रोसमन यांनी, ‘विवेकानंदांनी आपल्याला काय दिले?’ हाच विषय प्रवचनाला निवडला.अगदी ऐकण्यासारख आहे हे . रॅब्बी म्हणतात, “ विवेकानंदांचे विचार ऐकताना मन  अगदी उल्हसित होऊन जाते. धर्म आणि ईश्वर संकल्पना या बाबतीत आपण पाश्चात्य फार मागे आहोत. धर्म म्हणजे नुसता विचार नव्हे, तर साक्षात दैनंदिन जीवन. आपल्याजवळ फार मोठ्या सुरेख आणि आकर्षक कल्पना आहेत. पण त्या हवेत तरंगत असतात. आपणा पाश्च्यात्यांचा देव आकाशात आहे. आणि रविवार सकाळपुरतेच काही कार्य आपण त्याच्यावर सोपविलेले आहे.विवेकानंदांचा ईश्वर पृथ्वीवर आहे. तो परमेश्वर नित्य क्षणाक्षणाला आपल्याजवळ आहे.बागेतील प्रत्येक फुलात, वार्‍याच्या झुळुकीत,आपल्या शरीरातील रक्ताच्या क्षणाक्षणातील स्पंदनात परमेश्वर भरून राहिला आहे. हा विचार आपण हिंदूंकडून उचलला पाहिजे. आपल्या पंथांना भिंती आहेत. पूर्वेकडील धर्म चहू दिशांनी खुला आणि स्वीकारशील आहे.

एखाद्या अगदी गरीब माणसाच्या दरात अकस्मात कोणीतरी येतो तेंव्हा घरातील लहान मूल ओरडून सांगते अतिथि अतिथि. त्या अतिथि साठी घरातले सर्वजण त्याच्यासमोर उभे राहतात. कारण त्याच्या रूपाने दरात परमेश्वर आला आहे अशी शिकवणूक त्या माणसांना मिळालेली असते. ही केव्हढी सुंदर कल्पना आहे. पाश्च्यात्यांच्या घरी बाहेरच्या खोलीत येणार्‍याला किती उपचार(formality) सांभाळावे लागतात.हे आपल्याला माहिती आहे. आपले चर्च पवित्र आहे तेही फक्त रविवारी”.अशा पद्धतीने ग्रोसमन यांनी त्यांना समजलेले विवेकानंद यांचे विचार मांडले. म्हणजेच विवेकानंद यांनी आपल्या धर्माचे काय महत्व आहे ,आपला धर्म काय शिकवण देतो, ते तिथे अशा प्रकारे मोठ्या अभिमानानेच सांगितले असणार.ग्रोसमन चे हे प्रवचन इव्हनिंग न्यूजला मानवले नाही. त्याने ग्रोसमन यांच्यावर टीका केली.

पुढे पुढे तर विवेकानंदा यांच्या विधांनांचा विपर्यास करून तशा बातम्या,लेख प्रसिद्ध होऊ लागले. कोणी स्वामीजींची बाजू मांडू लागले आणि आश्वस्त करू लागले की, आम्ही तुमच्या बरोबर आहोत. सगळेच लोक हलक्या मनाचे व संकुचित वृत्तीचे नाहीत, आम्ही ख्रिस्ता ची शिकवणूक मानणारे तुमचं स्वागत करतो. आणि ज्या शिवराळ भाषेत विवेकानंद यांच्या बद्दल लिहिले जात आहे ते ख्रिस्ताच्या शिकवणुकीला न शोभणारे आहे असे खडसावले होते. एव्हढी टिका  चालू होती पण विवेकानंद यांच्या व्यख्यांनाना प्रचंड गर्दी होत होतीच.अनेक जण त्यांना भेटायला येत. स्वामीजींना भोजन आणि अल्पोपहार याची सतत निमंत्रणे येत.

एक तरुण उद्योजक, मिशिगन-पेनिनशूलर कार कंपनीचे भागीदार चार्ल्स एल. फ्रिअर एक धनवंत होते.  त्यानेही स्वामीजींसाठी भोजन समारंभ आयोजित केला होता. तो खूप थाटामाटाचा होता.शिवाय विवेकानंद यांना त्यांच्या कामासाठी तेंव्हा २०० डॉलर्सची देणगी ही दिली होती.         

मिसेस बॅगले म्हणतात, आमच्या घरातील विवेकानंद यांच्या वास्तव्याचा प्रत्येक दिवस आनंद पूर्ण झाला.बॅगले ज्या भागात राहत होत्या तिथे सर्व धनवान मंडळी राहत होती.त्यांनी आपल्या निवासस्थानी स्वामीजींचे एक व्याख्यान ठेवले. सर्वांना जाहीर निमंत्रण असल्याने खूप गर्दी झाली.स्वामीजी दोन तास बोलले. चर्चा, वाद उत्तर प्रतिउत्तर सुरूच राहिले. सडेतोड व्याख्यान झाले.केवळ आठ दहा दिवसात मिशनरी हादरून गेले होते.

पण डेट्रॉईट च्या बाहेरून विरोध ऐकू यायला लागला होता.रेव्हरंड आर. ए. हयूम यांनी विवेकानंद यांना त्यांच्या भाषणावर आक्षेप घेणारे पत्र लिहिले,विवेकानंद यांनी त्याला लगेच उत्तर दिले. हयूम भारतात जन्मलेले,वाढलेले आणि मिशनरी म्हणून भारतात काम केलेले गृहस्थ. आता त्यांनी पुन्हा पत्र पाठवले. मात्र स्वामीजींनी त्याला उत्तर दिले नाही, कारण सार्वजनिक वादात आपल्याला ओढण्याचा प्रयत्न त्यांच्या लक्षात आला. हयूम यांनी मद्रास मध्ये ‘हिंदू’ या वृत्तपत्रात आलेला अग्रलेख याचा आधार घेऊन हे पत्र लिहिले होते. हा अग्रलेख संपादक जी. सुब्रम्हण्यम अय्यर यांनी लिहिला होता. जे भारतात सर्व धर्म परिषदेसाठी समिति नेमली होती त्यात ते एक सदस्य होते.

हयूम यांनी मार्च मध्ये पाठवलेली पत्रे एप्रिल मध्ये डेट्रॉईट फ्री प्रेस मध्ये प्रसिद्ध झाली. विवेकानंद या वादात नसतानाही त्यांना त्यात ओढण्याचा घाट घातला होता. त्याला वृत्तपत्रातून त्या पत्राच्या बाजूने आणि विरुद्ध बाजूने ही उत्तरे देण्यात आली. धर्मोपदेशकांनी तर स्वामीजींच्या वागण्या बोलण्यावर आणि चारित्र्यावर शिंतोडे उडवण्यास सुरुवात केली.  ही सर्व वार्ता विवेकानंद आलसिंगा पेरूमल यांना पत्राने कळवत होते.

आता ही सर्व बातमी मिसेस बॅगले यांच्या कानावर आली. त्यांच्या ओळखीच्या मिसेस स्मिथ यांनी कळवले की विवेकानंद यांच्यावर नाना तर्‍हेच्या गोष्टी बोलल्या जात आहेत. ते संतापी आहेत, त्यांचे वर्तन शुद्ध नाही, असे आरोप ही केले जात आहेत. हे ऐकून आपण अस्वस्थ झालो आहोत. बॅगले यांनी आपले मत सांगावे असे विचारले होते. स्वामीजी तर तेंव्हा बॅगले यांच्याकडेच राहत होते.पण बॅगले आता नेमक्या अॅनिस्क्व्यामला गेल्या होत्या.तिथून त्यांनी पत्र लिहिले आणि म्हटले ….

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 44 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 44 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

७८.

विश्वाची निर्मिती नुकतीच झाली होती.

प्रथम तेजात तारका चमकत होत्या.

तेव्हा आकाशात देवांची सभा भरली आणि

ते गाऊ लागले-

“वा!पूर्णत्वाचं किती सुरेख चित्र! निर्भेळ आनंद!”

 

एकजण एकदम ओरडला,

“प्रकाशमालेत कुठंतरी त्रुटी आहे.

 एक तारा हरवलाय!”

 

त्यांच्या वीणेची एक तार तुटली.गीत थांबले.

ते निराशेनं म्हणू लागले,

” हरवलेली ती तारका सर्वात सुंदर होती.

 स्वर्गाचं वैभव होती.”

त्या दिवसापासून सतत शोध चालू आहे.

आणि प्रत्येकजण दुसऱ्याला सांगतो,

” जगातला एक आनंद नाहीसा झाला आहे.”

रात्रीच्या खोल शांततेत तारका हसतात

आणि आपापसात कुजबुजतात,

“हा शोध व्यर्थ आहे,

एकसंध पूर्णत्व संपलं आहे.

 

७९.

या आयुष्यात तुला भेटायचं माझ्या वाट्याला

येणार नसेल तर, तुझ्या नजरेतून

मी उतरलोय असं मला सतत वाटू दे.

मला क्षणभरही विस्मरण होऊ नये.

जागेपणी व स्वप्नातही या दु:खाची टोचणी

सतत मनात राहो.

 

जगाच्या बाजाराच्या गर्दीत माझे दिवस

जात असताना आणि दोन्ही हातांनी

भरभरून नफा होत असताना

मला सतत असे वाटत राहो की मी

काहीच मिळवत नाही.

या दु:खाची टोचणी मला स्वप्नात व

जागेपणी सतत राहावी.

 

दमून भागून रस्त्याच्या कडेला मी बसेन.

धुळीत माझा बिछाना पसरेन तेव्हा,

दीर्घ प्रवास अजून करायचा आहे याची जाणीव

मी क्षणभरही विसरू नये

आणि या दु:खाची टोचणी मला जागृतीत व

स्वप्नातही रहावी.

 

शृंगारलेल्या माझ्या महालात

गाण्याचे मंजूळ स्वर आणि

हास्याचा गडगडाट असावा.

तेव्हा मात्र मी तुला निमंत्रण दिले नाही

या दु:खाणी टोचणी मला जागेपणी

व स्वप्नातही असावी.

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #175 ☆ व्यंग्य – एक अभिनव पुरस्कार-योजना ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहद मज़ेदार व्यंग्य  ‘एक अभिनव पुरस्कार-योजना’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 175 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक अभिनव पुरस्कार-योजना

नगर की नामी साहित्यिक संस्था ‘साहित्य संहार’ ने एक सनसनीखेज़ विज्ञप्ति ज़ारी की है जिससे नगर ही नहीं, पूरे देश के साहित्यकारों के बीच हड़कंप मचा है। संस्था एक अभिनव पुरस्कार योजना लेकर आयी है, जिसमें सबसे बड़ा सम्मान ‘साहित्य सूरमा’ का होगा।

संस्था ने अपनी विज्ञप्ति में लिखा कि हिन्दी साहित्य में अब तक पुरस्कारों और सम्मानों  के मामले में नासमझी और नाइंसाफी होती रही है। इसमें लेखक के वाक्चातुर्य को तवज्जो दी गयी और उसकी मेहनत को नकारा गया। ऐसा हुआ कि एक दो रचना लिखने वाला मशहूर हो गया और सौ दो-सौ लिखने वाले का कोई नामलेवा नहीं हुआ। कोई गुलेरी जी हुए जो एक कहानी के बल पर अर्श पर चढ़ गये और मोटे पोथे लिखने वाले टापते रह गये। ऐसे ही एक श्रीलाल शुक्ल हुए जो एक उपन्यास के बूते बहुत से सम्मान पा गये। हम चाहते हैं कि साहित्य में श्रम की प्रतिष्ठा हो और लेखन में पसीना बहाने वालों को महत्व मिले।

संस्था ने आगे लिखा कि इसी असमानता और नाइंसाफी को दूर करने के उद्देश्य से उसके द्वारा स्थापित होने वाला ‘साहित्य सूरमा’ सम्मान लेखक के चातुर्य पर नहीं, उसके कुल लेखन के वज़न पर आधारित होगा। इस पुरस्कार के लिए संस्था के कार्यालय के दरवाज़े पर वज़न तौलने वाली मशीनें लगायी जाएँगीं जहाँ लेखक अपना कुल उत्पाद प्रस्तुत करेंगे। सामग्री जिन थैलों या बोरों में लायी जाएगी उनकी बारीकी से जाँच होगी कि ऊपर पाँच दस किताबें या रजिस्टर डालकर नीचे वज़न बढ़ाने के लिए लोहा-लंगड़ न डाल दिया गया हो। दोषी पाये जाने वाले लेखकों को ब्लैक-लिस्ट किया जाएगा और भविष्य में भागीदारी से वंचित किया जाएगा। सामग्री पाँच अक्टूबर को संध्या पाँच बजे तक स्वीकार की जाएगी।

विज्ञप्ति ज़ारी होते ही साहित्यकारों के बीच भगदड़ मच गयी। सड़कें साहित्यकारों से सूनी हो गयीं। कॉफी-हाउसों में लेखकों की बैठकें  ग़ायब हो गयीं। सब लेखक अपने-अपने कमरों में बन्द होकर लेखन में पिल पड़े। मित्रों-संबंधियों के आने की मुमानियत हो गयी। अभी पाँच अक्टूबर को डेढ़ महीना बाकी है। इतने समय में दिन-रात मेहनत करके तीन चार किताबें लिखी जा सकती हैं।

नगर के जाने-माने कवि अच्छेलाल ‘वीरान’ इस समय अठारह घंटे कविता रच रहे हैं। उन्हें भोजन भी परिवार के लोग अपने हाथ से कराते हैं ताकि लिखने में खलल न पड़े। एक दिन बाथरूम से लौटते में चक्कर खाकर गिर गये। तब दो-तीन दिन तक बायें हाथ में ड्रिप लगी रही और दाहिने हाथ से लिखते रहे।

रोज़ सवेरे लेखकों के दरवाज़े पर प्रकाशकों की गाड़ियाँ आती हैं जो चौबीस घंटे के उत्पादन को समेट कर ले जाती हैं। समेटने वाले लेखक को आगाह करते जाते हैं कि प्रूफ्र-रीडिंग की उम्मीद न की जाए क्योंकि काम युद्ध-स्तर पर चल रहा है। छपने का काम लोकल ही हो रहा है क्योंकि बाहर भेजने का टाइम नहीं है।

जब लिखित सामग्री जमा करने की तारीख नज़दीक आने लगी तब नगर के नये लेखकों की ओर से संस्था के सम्मुख एक आवेदन प्रस्तुत किया गया जिसमें लिखा था कि समय कम होने के कारण हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी वे पुराने लिक्खाड़ों के बराबर नहीं आ सकेंगे। यह भी लिखा गया कि कई लेखक लिखते लिखते बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो गये हैं और वे  अपनी बेड पर ही लिख रहे हैं। अतः लेखकों की प्राणरक्षा की दृष्टि से लिखित सामग्री जमा करने की तारीख कम से कम छः माह बढ़ा दी जाए। तभी पुराने लिक्खाड़ों को टक्कर दी जा सकेगी और नाइंसाफी दूर हो सकेगी।

इस पर पुराने लेखकों की ओर से आपत्ति दर्ज करायी गयी कि जो लेखक कम लिख पाये वह उनके आलस्य और लापरवाही के कारण है। अतः सामग्री जमा करने की तिथि आगे बढ़ा कर आलस्य को पुरस्कृत न किया जाए।

संस्था ने नये लेखकों के आवेदन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए सामग्री जमा करने का काम फिलहाल स्थगित कर दिया है। अगली तिथि छः माह बाद घोषित की जाएगी। तब तक लेखक अपने लेखन-कोष को समृद्ध करने का काम ज़ारी रख सकते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 123 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 123 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 123) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 123 ?

☆☆ ~ Life ~ ☆☆

खुलती है … पढ़ी जाती है…,

फिर रद्दी हो जाती है…

ऐ ज़िंदगी… तू भी कुछ-कुछ

किताब सी है… है. ना…!

☆☆

It gets opened, read, and

then discarded as a trash…

O’life! You’re also somewhat

like a book only…Isn’t…!

☆☆☆☆☆ 

ये जो तुमने

खुद को बदला है…

ये एक बदलाव है,

या “बदला” है…!

☆☆

The change you’ve

undergone…

Is it a change,

or a “revenge”…!

☆☆☆☆☆

लोग ताउम्र मसरूफ़ रहे

दूसरों में कमियाँ ढूँढने में

हमें कभी फुर्सत न मिली दूसरों

की अच्छाइयाँ शुमार करने से

☆☆

Poeple kept finding faults in

others throughout their life

And here I was busy counting

The goodness in others…!

☆☆☆☆☆

लोगों को गुमान हो जाता है कि

वो जिंदगी की  सांस बन गए हैं

लो मिटा दिए हमने भी सारे हर्फ तुम्हारे

अपनी दिल की किताब से ही…

☆☆

Some people have false notion that

they’ve become breath of my life

lo and behold, I’ve erased all your

words from the book of my heart…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 171 ☆ चक्षो सूर्यो जायत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 171 ☆ चक्षो सूर्यो जायत ?

वैदिक दर्शन सूर्य को ईश्वर का चक्षु निरूपित करता है। हमारे ग्रंथों में सूर्यदेव को जगत की आत्मा भी कहा गया है। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं द्वारा सूर्योपासना के प्रमाण हैं। ज्ञानदा भारतीय संस्कृति में तो सूर्यदेव को अनन्य महत्व है। एतदर्थ भारत में अनेक प्राचीन और अर्वाचीन सूर्य मंदिर हैं।

भारतीय मीमांसा में प्रकाश, जाग्रत देवता है।  प्रकाश आंतरिक हो या वाह्य, उसके बिना जीवन असंभव है। एक-दूसरे के सामने खड़ी गगनचुंबी अट्टालिकाओं के महानगरों में प्रकाश के अभाव में विटामिन डी की कमी विकराल समस्या हो चुकी है।  केवल मनुष्य ही नहीं, सम्पूर्ण सजीव सृष्टि और वनस्पतियों के लिए प्राण का पर्यायवाची है सूर्य। वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण या फोटो सिंथेसिस के लिए प्रकाश आवश्यक घटक है।

सूर्यचक्र के अनुसार ही हमारे पूर्वजों का जीवनचक्र भी चलता था। भोर को उठना, सूर्यास्त होते-होते भोजन कर सोने चले जाना। सूर्यकिरणें भोजन की पौष्टिकता बनाए रखने में उपयोगी होती हैं।

वस्तुतः जीवन की धुरी है सूर्य। सूर्य से ही दिन है, सूर्य से ही रात है। सूर्य है तो मिनट है, सेकंड है। सूर्य है तो उदय है, सूर्य है तो अस्त है। सूर्य ही है कि अस्त की आशंका में पुनः उदय का विश्वास है। सूर्य कालगणना का आधार है, सूर्य ऊर्जा का अपरिमित  विस्तार है। सूर्यदेव तपते हैं ताकि जगत को प्रकाश मिल सके‌। तपना भी ऐसा प्रचंड कि लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर होकर भी पृथ्वीवासियों को पसीना ला दे।   

सूर्य सतत कर्मशीलता का अनन्य आयाम है, सूर्य नमस्कार अद्भुत व्यायाम है। शरीर को ऊर्जस्वित, जाग्रत और चैतन्य रखने का अनुष्ठान है सूर्य नमस्कार। ऊर्जा, जागृति और चैतन्य का अखंड समन्वय है सूर्य।

‘सविता वा देवानां प्रसविता’…सविता अर्थात सूर्य से ही सभी देवों का जन्म हुआ है। शतपथ ब्राह्मण का यह उद्घोष अन्यान्य शास्त्रों की विवेचनाओं के भी निकट है। गायत्री महामंत्र के अधिष्ठाता भी सूर्यदेव ही हैं।

सूर्यदेव अर्थात सृष्टि में अद्भुत, अनन्य का आँखों से दिखता प्रमाणित सत्य। सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश अथवा मकर संक्रमण खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन  सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

इस दिव्य प्रकाश पुंज का उत्तरी गोलार्ध से निकट आना उत्तरायण है। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी।

दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता।

अधिक कर्मशीलता के संकल्प का प्रतिनिधि है तिल और गुड़ से बने पदार्थों का सेवन।

निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।

मकर संक्रांति/ उत्तरायण/ भोगाली बिहू / माघी/ पोंगल/ खिचड़ी की अनंत शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 123 ☆ ~ कृति चर्चा ~ हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान ~ कल्पना रामानी ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

 

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  कृति चर्चा और कृति है कल्पना रामानी जी का नवगीत संग्रह “~ हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान~”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 123 ☆ 

कृति चर्चा ~ हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान ~ कल्पना रामानी ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

कृति चर्चा:

हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान

चर्चाकार: आचार्य संजीव.

[कृति विवरण: हौसलों के पंख, नवगीत संग्रह, कल्पना रामानी, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, नवगीत ६५, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद].

ओम निश्चल: ‘गीत-नवगीत के क्षेत्र में इधर अवरोध सा आया है. कुछ वरिष्‍ठ कवि फिर भी अपनी टेक पर लिख रहे हैं… एक वक्‍त उनके गीत… एक नया रोमानी उन्माद पैदा करते थे पर धीरेधीरे ऐसे जीवंत गीत लिखने वाली पीढी खत्‍म हो गयी. कुछ कवि अन्य विधाओं में चले गए …. नये संग्रह भी विशेष चर्चा न पा सके. तो क्‍या गीतों की आभा मंद पड़ गयी है या अब वैसे सिद्ध गीतकार नहीं रहे?’

‘गीत में कथ्य वर्णन के लिए प्रचुर मात्रा में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। ‘कम बोले से अधिक समझना’ की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करना कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है। भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है। गीत में छंद योजना को वरीयता है तो नवगीत में गेयता को महत्व मिलता है।’

उक्त दो बयानों के परिप्रेक्ष्य में नवगीतकार कल्पना रामानी के प्रथम नवगीत संग्रह ‘हौसलों के पंख’ को पढ़ना और और उस पर लिखना दिलचस्प है।

कल्पना जी उस सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके लिए साहित्य रचा जाता है और जो साहित्य से जुड़कर उसे सफल बनाता है। जहाँ तक ओम जी का प्रश्न है वे जिस ‘रोमानी उन्माद’ का उल्लेख करते हैं वह उम्र के एक पड़ाव पर एक मानसिकता विशेष की पहचान होता है। आज के सामाजिक परिवेश और विशेषकर जीवनोद्देश्य लेकर चलनेवाले युवाओं नई ने इसे हाशिये पर रखना आरंभ कर दिया है। अब किसी का आँचल छू जाने से सिहरन नहीं होती, आँख मिल जाने से प्यार नहीं होता। तन और मन को अलग-अलग समझने के इस दौर में नवगीत निराला काल के छायावादी स्पर्शयुक्त और छंदमुक्त रोमांस तक सीमित नहीं रह सकता।

कल्पना जी के जमीन से जुड़े ये नवगीत किसी वायवी संसार में विचरण नहीं कराते अपितु जीवन जैसा ही देखते हुए बेहतर बनाने की बात करते हैं। कल्पना की कल्पना भी सम्भावना के समीप है कपोल कल्पना नहीं। जीवन के उत्तरार्ध में रोग, जीवन साथी का विछोह अर्थात नियतिजनित एकाकीपन से जूझ और मृत्यु के संस्पर्श से विजयी होकर आने के पश्चात उनकी जिजीविषाजयी कलम जीवन के प्रति अनुराग-विराग को एक साथ साधती है। ऐसा गीतकार पूर्व निर्धारित मानकों की कैद को अंतिम सत्य कैसे मान सकता है? कल्पना जी नवगीत और गीत से सुपरिचित होने पर भी वैसा ही रचती हैं जैसा उन्हें उपयुक्त लगता है लेकिन वे इसके पहले मानकों से न केवल परिचय प्राप्त करती हैं, उनको सीखती भी हैं।

प्रतिष्ठित नवगीतकार यश मालवीय ठीक ही कहते हैं कि ‘रचनाधर्मिता के बीज कभी भी किसी भी उम्र में रचनाकार-मन में सुगबुगा सकते हैं और सघन छायादार दरख्त बन सकते हैं।’

डॉ. अमिताभ त्रिपाठी इन गीतों में संवेदना का उदात्त स्तर, साफ़-सुथरा छंद-विधान, सुगठित शब्द-योजना, सहजता, लय तथा प्रवाह की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं। कल्पना जी ने भाषिक सहजता-सरलता को शुद्धता के साथ साधने में सफलता पाई है। उनके इन गीतों में संस्कृतनिष्ठ शब्द (संकल्प, विलय, व्योम, सुदर्श, विभोर, चन्द्रिका, अरुणिमा, कुसुमित, प्राण-विधु, जल निकास, नीलांबर, तरुवर, तृण पल्लव्, हिमखंड, मोक्षदायिनी, धरणी, सद्ज्ञान, परिवर्धित, वितान, निर्झरिणी आदि), उर्दू लफ़्ज़ों ( मुश्किलों, हौसलों, लहू. तल्ख, शबनम, लबों, फ़िदा, नादां, कुदरत, फ़िज़ा, रफ़्तार, गुमशुदा, कुदरत, हक़, जुबां, इंक़लाब, फ़र्ज़, क़र्ज़, जिहादियों, मज़ार, मन्नत, दस्तखत, क़ैद, सुर्ख़ियों आदि) के साथ गलबहियाँ डाले हुए देशज शब्दों ( बिजूखा, छटां, जुगाड़, फूल बगिया, तलक आदि) से गले मिलते हैं।

इन नवगीतों में शब्द युग्मों (नज़र-नज़ारे, पुष्प-पल्लव, विहग वृन्दों, मुग्ध-मौसम, जीव-जगत, अर्पण-तर्पण, विजन वन, फल-फूल, नीड़चूजे, जड़-चेतन, तन-मन, सतरंगी संसार, पापड़-बड़ी-अचार आदि) ने माधुर्य घोला है। नवगीतों में अन्त्यानुप्रास का होना स्वाभाविक है किन्तु कल्पना जी ने छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास का भी प्रयोग प्रचुरता से किया है। इन स्थलों पर नवगीतों में रसधार पुष्ट हुई है। देखें: तृषायुक्त तरुवर तृण, सारू सरिता सागर, साँझ सुरमई, सतरंगी संसार, वरद वन्दिता, कचनार काँप कर, चंचल चपल चारुवदना, सचेतना सुभावना सुकमना, मृदु महक माधुरी, सात सुरों का साजवृन्द, मृगनयनी मृदु बयनभाषिणी, कोमल कंचन काया, कवच कठोर कदाचित, कोयलिया की कूक आदि।

कल्पना जी ने नवल भाषिक प्रयोग करने में कमी नहीं की है: जोश की समिधा, वसुधा का वैभव, निकृष्ट नादां, स्वत्व स्वामिनी, खुशरंग हिना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। महलों का माला से स्वागत, वैतरिणी जगताप हरिणी, पीड़ाहरिणी तुम भागीरथी, विजन वनों की गोद में, साधना से सफल पल-पल, चाह चित से कीजिए, श्री गणेश हो शुभ कर्मों का जैसी अभिव्यक्तियाँ सूक्ति की तरह जिव्हाग्र पर प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती हैं

कल्पना जी के इन नवगीतों में राष्ट्रीय गौरव (यही चित्र स्वाधीन देश का, हस्ताक्षर हिंदी के, हिंदी की मशाल, सुनो स्वदेशप्रेमियों, मिली हमें स्वतंत्रता, जयभारत माँ, पूछ रहा है आज देश), पारिवारिक जुड़ाव (बेटी तुम, अनजनमी बेटी, पापा तुम्हारे लिए, कहलाऊं तेरा सपूत, आज की नारी, जीवन संध्या, माँ के बाद के बाद आदि), सामाजिक सरोकार (मद्य निषेध सजा पन्नो पर, हमारा गाँव, है अकेला आदमी, महानगर में, गाँवों में बसा जीवन, गरम धूप में बचपन ढूँढे, आँगन की तुलसी आदि) के गीतों के साथ भारतीय संस्कृति के उत्सवधर्मिता और प्रकृति परकता के गीत भी मुखर हुए हैं। ऐसे नवगीतों में दिवाली, दशहरा, राम जन्म, सूर्य, शरद पूर्णिमा, संक्रांति, वसंत, फागुन, सावन, शरद आदि आ सके हैं।

पर्यावरण और प्रकृति के प्रति कल्पना जी सजग हैं। जंगल चीखा, कागा रे! मुंडेर छोड़ दे, आ रहा पीछे शिकारी, गोल चाँद की रात, क्यों न हम उत्सव् मनाएं?, जान-जान कर तन-मन हर्षा, फिर से खिले पलाश आदि गीतों में उनकी चिंता अन्तर्निहित है। सामान्यतः नवगीतों में न रहनेवाले साग, मुरब्बे, पापड़, बड़ी, अचार, पायल, चूड़ी आदि ने इन नवगीतों में नवता के साथ-साथ मिठास भी घोली है। बगिया, फुलबगिया, पलाश, लता, हरीतिमा, बेल, तरुवर, तृण, पल्लव, कोयल, पपीहे, मोर, भँवरे, तितलियाँ, चूजे, चिड़िया आदि के साथ रहकर पाठक रुक्षता, नीरसता, विसंगतियोंजनित पीड़ा, विषमता और टूटन को बिसर जाता है।

सारतः विवेच्य कृति का जयघोष करती जिजीविषाओं का तूर्यनाद है। इन नवगीतों में भारतीय आम जन की उत्सवधर्मिता और हर्षप्रियता मुखरित हुई है। कल्पना जी जीवन के संघर्षों पर विजय के हस्ताक्षर अंकित करते हुए इन्हें रचती हैं। इन्हें भिन्न परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित करना इनके साथ न्याय न होगा। इन्हें गीत-नवगीत के निकष पर न कसकर इनमें निहित रस सलिला में अवगाहन कर आल्हादित अभीष्ट है। कल्पना जी को बधाई जीवट, लगन और सृजन के लिये। सुरुचिपूर्ण और शुद्ध मुद्रण के लिए अंजुमन प्रकाशन का अभिनन्दन।

चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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