(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे … कर्म”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ – ऋचा ७ ते १५ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ (अप्सूक्त)
ऋषी – मेधातिथि कण्व
देवता : ७-९ इंद्रमरुत्; १०-१२ विश्वेदेव; १३-१५ पूषन्;
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील तेविसाव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अनेक देवतांना आवाहन केलेली असली तरी हे मुख्यतः जलदेवतेला उद्देशून असल्याने हे अप् सूक्त सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील सात आणि नऊ या ऋचा इंद्राचे आणि मरुताचे, दहा ते बारा ऋचा विश्वेदेवाचे आणि तेरा ते पंधरा या ऋचा पूषन् देवतेचे आवाहन करतात. या सदरामध्ये आपण विविध देवतांना केलेल्या आवाहनानुसार गीत ऋग्वेद पाहूयात. आज मी आपल्यासाठी इंद्र, मरुत् विश्वेदेव आणि पूषन् या देवतांना उद्देशून रचलेल्या सात ते पंधरा या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.
(या ऋचांचा व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)
“..हाच आपला मार्ग बरोबर असेल ना ? ही शंका का आली बरं तुला?”
“..इतका मजल दरमजल करीत प्रवास करून मध्य गाठलास आणि आता या वाटेवरून पुढची वाटचाल करण्यास घुटमळतोस का ?.”
“…निर्णय तर त्यावेळी तूझा तूच घेतला होतास! याच वाटेवरून जाण्याचा आपलं इप्सित साध्य इथेच मिळणार असा आत्मविश्वासही त्यावेळी तुझ्या मनात होता की!”
“..ते तुझं साध्य गाठायला किती अंतर चालावे लागेल, त्यासाठी किती काळ ही यातायात करावी लागेल याचं काळ काम नि वेगाचं गणित तूच मनाशी सोडवलं होतसं की! उत्तर तर तुला त्यावेळीच कळलं होतं .”
.”. वाटचाल करत करत का रे दमलास!, थकलास! इथवर येईपर्यंत चालून चालून पाय दमले..आता पुढे चालत जाण्याचं त्राण नाही उरले..”
“..घे मग घटकाभर विश्रांती.. होशील पुन्हा ताजातवाना, निघशील परत नव्या दमाने. काही घाई नाही बराच आहे अवधी .”
“.ही काय कासव सश्याची स्पर्धा थोडीच आहे? अरे इथं कुणी हारत नाही किंवा कुणी जिंकत नाही. कारण हा आहे जीवन प्रवास आदी कडून अंता कडे निघालेला.. “
“..पण पण कुणालाही न चुकलेला. जो जो इथे आला त्याला त्याला याच वाटेवरून जावं लागलंच.. हा प्रवास मात्र ज्याला त्याला एकटयालाच करावा लागतो.. “
.”.साथ सोबत मिळते ना घडीची पण निश्चित नसते तडीची. “
“..तू पाहिलेस की कितीतरी जणांचे चालत गेलेल्यांचे पावलांचे ते ठसे , त्यांच्याच पावलावर पाऊल ठेवूनच तू ही चालत निघालास .काही पावलंं तुझ्या बरोबरीने चालली त्यात काही भरभर पुढे निघून गेली तर काही मागे मागेच रेंगाळली.. “
“..पण तू ठरवलं होतसं की आपण चालायचं अथक नि अविरत त्या टप्यापर्यंत..आणि हे ही तू जाणून होतास या वाटेने जाताना चालणे हाच एकमेव पर्याय आहे इथं दुसरं वाहन नाही मुळी. “
.”.आशा निराशेच्या दिवस रात्री दाखवत असतात मैलाचा टप्पा
..सुखाच्या सावलीचे मृगजळ दुःखाच्या उन्हात कायम चमचमते दिसते.. “
“..आल़ं हातात म्हणत म्हणत उर किती धपापून किती घेतेय याचं भान नसतयं.. “
“..दुतर्फा घनदाट वृक्षलता लांबवर पसरत गेलेल्या त्या लपवून ठेवतात संकटानां दबा धरुन बसवतात.. “
“..खाच खळगे प्रतिकुलतेचे नि समस्यांचे दगडधोंडे वाटेवर जागोजागी पसरलेले असतात तुझ्याशी सामना करण्यासाठी डोकं उंचावून..,”
“..कुठे उंच तर कुठे सखल, कुठे वळण तर कुठे सरळ, कुठे चढण तर कुठे उतार.. यावर चालूनच व्हायचं तुला पैलपार.. ही आहे तुझी जीवन वाट .. ”
आणि आणि माझी…
“.. मी आहे हा असाच ना आदी ना अंताचा माझा मलाच ठावठिकाणा नाही.. “
.”. कशा कशाचंच मला सोयरसुतक नाही… आणि कशाला ठेवू म्हणतो ते तरी.. “
“किती एक आले नि गेले किती एक अजूनही चालत राहिलेत.. आणि उद्याही कितीतरी येणार असणार आहेत… हीच ती एकमेव वाट आहे ना सगळ्यांची.. “
“.. आणि आणि माझा जन्मच त्यासाठी आहे तो सगळयांचा भार पेलून धरण्यासाठी.. “
“कोवळया उन्हाचे किरणाचे कवडसे गुदगुल्या करतात माझ्या अंगावर… दवबिंदूचे तुषार नाचतात देहावर.. ओले ओले अंग होते नव्हाळीचे न्हाणे जसे..चिडलेला भास्कर चिमटे काढतो तापलेल्या उन्हाने… दंगेखोर वारा फुफाटयाची माती उधळून लावतो भंडाऱ्यासारखी.. मग रवी हळूहळू शांत होत केशर गुलाबाच्या म्लान वदनाने मला निरोप देतो.. अंधाराचा जाजम रात्र टाकत येते… चांदण्याच्या खड्यांना चमकवित चंदेरी रूपेरी शितल अस्तर पसरवते..अंधारात बागुलबुवा झाडाझुडपांच्या आडोशाला दडतो… मी मी असाच पहुडलेला असतो.. दिवस असो वा रात्र मला काहीच फरक पडलेला नसतो… कारण मला तर कुठेच जायचं वा यायचं नसतं..”
“..माझं कामं प्रवाश्यांच्या पदपथाचं असतं. .”
“.. मी आहे हा असाच ना आदी ना अंताचा अक्षय वाटेचा…”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘ मक्खी – सा’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 115 ☆
☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
उसने गिलास में दूध लाकर रखा ही था कि कहीं से एक मक्खी भिनभिनाती हुई आई और उसमें गिर पड़ी । उसने मक्खी को उंगली और अंगूठे से बड़ी सावधानी से पकड़ा और निकालकर दूर फेंक दिया । फर्श पर पड़ी मक्खी हँस पड़ी और बोली – ‘ कहावत बनी तो मुझ पर है लेकिन लागू तुम इंसानों पर होती है । मैं तो कभी- कभी गलती से तुम्हारे दूध में गिर जाती हूँ पर तुम तो काम निकल जाने पर जब जिसे चाहो दूध की मक्खी – सा निकाल बाहर करते हो। ‘
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जीवन परिक्रमा पथ…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 145 ☆
☆ जीवन परिक्रमा पथ… ☆
बला या बलाएँ जो टाले नहीं टल रहीं हैं। बिना दिमाग के जब कोई कार्य किए जाते हैं तो उनके परिणाम न केवल करने वाले को वरन उनसे जुड़े लोगों को भी परेशान कर देते हैं। हैरानी की बात तो तब होती है जब बातचीत के मुद्दे ढूंढने के चक्कर में हम गलतियों पर गलती करते जाते हैं। कहते हैं समय का पहिया गतिमान रहता है, जो इसके साथ कदमताल मिलाते हुए स्वयं को विकसित करता जाता है वो अपना दबदबा बना लेता है। जो भी कार्य करें उसमें आपकी पहचान सबसे अलग तभी होगी जब उसमें शतप्रतिशत परिश्रम लगाया जाएगा। जैसी करनी वैसी भरनी के अनेकों उदाहरण जगत में मिलते हैं किंतु हम सब इन बातों से बेखबर अपने पूर्वाग्रह को ही प्राथमिकता देते हैं। सही गलत को एक ही तराजू में रखने की गलती करने वालों को भगवान कभी माफ नहीं करते। सच के साथ स्वयं की शक्ति अपने आप जुड़ने लगती है जिससे राह और राही उसके साथ खड़े नजर आते हैं।
जीवन पथ पर चलते हुए हमें केंद्र बिंदु की ओर निहारने के साथ ही ये भी ध्यान रखना होगा कि जिस बिन्दु से हमने चलना प्रारंभ किया है, एक निर्धारित समय बाद पुनः यहीं आना होगा। बस हम कुछ कर सकते हैं तो वो यही होगा कि स्वयं को पहले की तुलना में श्रेष्ठ बना लें। हर दिन जब नया सीखते चलेंगे तो आने वाले पलों को सुखद होने से कोई नहीं रोक पायेगा।
दिमागी उथल- पुथल से कुछ नहीं होगा, कार्यों को शुरू कीजिए और तब तक करते रहें जब तक मंजिल आपके कदमों में न आ जाए। लक्ष्य को साधना कोई साधारण कार्य नहीं होता है। जो तय करें उसे पूर्णता तक पहुँचाना ही सच्चे साधक का कार्य होता है।
पटाखे की लड़ी को फूटते हुए देखकर एक बात समझ में आती है कि एक साथ जुड़े हुए लोग एक जैसे परिणाम भोगते है। इसीलिए तो कहा गया है कि संगत सोच समझ के करें, आप जिनके संपर्क में रहेंगे वैसे बनते चले जायेंगे।
आइए सकारात्मक विचारों के पोषक बनें, सर्वे भवन्तु सुखिनः की ओर अग्रसर होकर अच्छे लोगों का सानिध्य प्राप्त करें।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 208 ☆
व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा…
वे सारे लोग झूठे हैं जो सोचते हैं की चूं चूं का मुरब्बा वास्तविकता न होकर, सिर्फ एक मुहावरा है। अपनी उम्र सीनियर सिटीजन वाली हो चुकी है, पर वयस्क होते ही वोटिंग राइट्स के साथ उठा सवाल कि चूं चूं का मुरब्बा वाले मुहावरे का अर्थ, आखिर क्या होता है ? राज का राज ही रहा। बस यही लगा कि चूं चूं का मुरब्बा किसी बेहद भद्दे, बेमेल मिश्रण को कहते हैं . मसलन कश्मीरी दम आलू में कोई कच्चा कद्दू मिला दे, या रबड़ी-मलाई में प्याज-लहसुन का तड़का लगा दिया जाए, तो जो कुछ बनाता हो शायद वैसा होता होगा चूं चूं का मुरब्बा। शादी हुई तो जीवन का सारा भार रसोई शास्त्र ही नही हरफन मौला मैने तो पहले ही बता दिया था, या मैं तो जानती थी कि यही होगा जैसे जुमले जब तब उछालने में निपुण पत्नी से इस रहस्यमय रेसिपी के संदर्भ में पूछा। पत्नी जी ने भी मुस्कराते हुए पूरी व्यंजन विधि ही बता दी। उसने कहा कि सबसे पहले चूंचूं को धोकर एक सार टुकड़ो में काट ले,नमक लगाकर चांदनी रात में दो रात तक सूखा ले। चीनी की चाशनी एक तार की तैयार कर चांदनी में सूखे चूंचूं डाल कर ऊपर से जीरा पाउडर डालें। फिर अगली आठ रातों को पुनः आठ आठ घंटे चांदनी रात में रखे।
आठवें दिन चूंचूं का मुरब्बा खाने के लिए तैयार हो जाता है। रेसिपी मिल जाने के बाद से मेरी समस्या बदल गई अब मैं चूं चूं कहा से लाऊं, देश विदेश, भाषा विभाषा, धर्म जातियों, शास्त्रों उपशास्त्रों के अध्ययन, नौकरी की अफसरों के आदेशों, मातहतों की फाइलों को पढ़ा समझा पर चूं चूं को समझ ही नही पाया।
थोड़े बहुत बाल सफेद भी हो गए हैं, मिली-जुली सरकारें देखी, चौदह के, उन्नीस के परिवर्तन देखे, अब पक्ष विपक्ष की चौबीस की तैयारी देख कर मन में संशय उभरता है कि जिस प्रकार उसूल की घरेलू गौरय्या सियासत के जंगल में गुम हो रही है। कहीं कभी इतिहास में इसी तरह सत्ता का स्वाद चखने के लिए राजाओं, बादशाहों की लड़ाइयों में उन शौकीन सियासतदानों ने कही चूं चूं के मुरब्बे का इतना इस्तेमाल तो नहीं कर डाला कि चूं चूं की प्रजाति ही डायनासोर सी विलुप्त हो गई है। अस्तु अपनी खोज जारी है। आपको चूं चूं मिले तो जरूर बताइए, मेरे चूं चूं के मुरब्बे वाले यक्ष प्रश्न को अनुत्तर रहने से बचाने में मदद कीजिए।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है डॉ. शशि गोयल जी के बाल कहानी संग्रह “गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य” की पुस्तक समीक्षा।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य‘ – डॉ. शशि गोयल ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆
उपन्यास – गोलू –भोलूऔरजंगलकारहस्य
उपन्यासकार – डॉ. शशिगोयल
प्रकाशक – जीएसपब्लिशर्सडिस्ट्रीब्यूटर, एफ–7, गलीनंबर1, पंचशीलगार्डनएक्सटेंशन, नवीनशाहदरा, दिल्ली– 110032मोबाइलनंबर99717 33123
पृष्ठसंख्या–52
मूल्य–₹195
समीक्षक– ओमप्रकाशक्षत्रिय‘प्रकाश‘
☆ समीक्षा- रहस्य से भरपूर उपन्यास है यह ☆
बच्चों के उपन्यास में रहस्य-रोमांच हो तो पढ़ने का मजा दुगुना हो जाता है। उसके साथ रोचक संवाद हो तो उपन्यास की पठनीयता में वृद्धि हो जाती है।
बाल उपन्यास में चंचल बालपात्र हो तो वह बच्चों को बहुत ज्यादा अच्छा लगता है। उसकी चंचलता और चपलता उपन्यास के आनंद का मजा बढ़ा देती है।
इस कला में उपन्यासकार डॉ. शशि गोयल को महारत हासिल है। इनका नवीनतम उपन्यास गोलू-भोलू और जंगल का रहस्य, इस कसौटी पर खरा उतरता है। उपन्यास के शीर्षक के अनुसार उपन्यास में जंगल का रहस्य और रोमांच भरा पड़ा है।
गोलू एक चंचल और चपल बाल पात्र है। वह शहर से गांव अपनी नानी के यहां आता है। यहां वह अपने साथी भोलू के साथ जंगल, नदी, गुफा, पहाड़ आदि की सैर करता है।
सैर-सपाटा के दौरान वह संदिग्ध गतिविधियों को पकड़ लेता है। उसी से दो-चार होता है। परिस्थितियां ऐसी निर्मित होती है कि वह उन सभी का रहस्योद्घाटन करता चला जाता है।
मगर अंत में जाकर वह एक घटना में उलझ जाता है। तब वह और उसके पिताजी एक नई तरकीब अपनाते हैं। इससे गोलू-भोलू के साथ अन्य पात्रों पर आई मुसीबत टल जाती है। इस तरह पूरा उपन्यास रहस्य रोमांच के साथ आगे बढ़ता है।
उपन्यास की भाषा सरल व सीधी है। इसी के साथ ठेठ ग्रामीण भाषा के उपयोग से उपन्यास में रोचकता का समावेश होता है। इसकी यह भाषा उपन्यास की रोचकता में वृद्धि करती है। पाठक पृष्ठ दर पृष्ठ उपन्यास को पढ़ता चला जाता है।
बाल सुलभ जिज्ञासा का असर पूरे उपन्यास में है। इसी जिज्ञासा की वजह से उपन्यास के पात्र निरंतर जोखिम उठाते हुए आगे बढ़ते हैं। फलस्वरुप उसके रहस्य को उजागर करते हुए एक नई मुसीबत का सामना करते हैं।
इस तरह उपन्यास के साथ-साथ मुख्य कथा के साथ उपन्यास उत्तरोत्तर आगे बढ़ता है। अंततः उसकी रोचकता का अंत उपन्यास के अंत के साथ हो जाता है।
उपन्यास का परिवेश ग्रामीण नदी के किनारे फैले हुए जंगल का है। इसी परिवेश में कुछ ऐसी परिस्थितियां निर्मित होती है उपन्यास के पात्रों के सामने नई-नई चुनौतियां आती जाती है।
चुनौतियों का सामना करने में मुक पशु-पक्षी का प्रयोग बखूबी किया गया है। पृष्ठ संख्या के हिसाब से दाम कुछ ज्यादा है। इस पर विचार किया जाना चाहिए। वैसे उपन्यास की साज-सज्जा व पृष्ठ सज्जा के साथ त्रुटि रहित छपाई ने उपन्यास की गुणवत्ता में श्री वृद्धि की है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 156 ☆
☆ बाल कविता – जागो-जागो हुआ सवेरा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆