☆ “पडघवली” – लेखक : गो. नि. दांडेकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुनील शिरवाडकर ☆
पुस्तक : पडघवली
लेखक : गो. नी. दांडेकर
प्रकाशक : मौज प्रकाशन गृह
पृष्ठे : २२२
गो. नी. दांडेकर. माझ्या आवडत्या लेखकांमध्ये अग्रक्रमावर असलेलं नाव. खुप पुस्तकं वाचली त्यांची. नुकतीच ‘पडघवली’ वाचली. कोकणातील एका गावातील कथानक. कादंबरी प्रकाशित झाली १९५५ मध्ये. म्हणजेच कादंबरीत असलेला काळ साधारण सत्तर वर्षापुर्वीचा. कोकणातील अगदी आत वसलेलं गाव. तेथील चालीरीती.. कुलधर्म.. परंपरा सगळं सगळं यात आलंय.
खरंतर हे एका नष्ट होऊ घातलेल्या खेड्याचं शब्दचित्र आहे. कादंबरीचं कथानक घडतंय एका गावात.. गावच्या खोताच्या घरात. पण ओघानेच येताना गावातील इतर माणसं. मग त्यात कुळवाडी आहेत.. कातकरी आहेत.. अगदी मुसलमान पण आहेत. (कादंबरीच्या भाषेत ‘मुसुनमान’). प्रत्येकाची बोली वेगळी. आहे ती मराठीच. पण खोताच्या घरातील ब्राम्हणी बोली वेगळी.. कातकऱ्यांची वेगळी.. कुळवाडी वेगळी आहे हैदरचाचाची तर त्याहुनही वेगळी.
आणि हेच तर आहे गोनीदांचं वैशिष्ट्य. त्यांनी अनेक कादंबऱ्या लिहिल्या. प्रत्येक कादंबरीत महाराष्ट्रातील वेगवेगळ्या प्रांतातील कथानक येते. कधी विदर्भात.. तर कधी पश्चिम महाराष्ट्रात त्यांची कथा आकार घेते. प्रत्येक कादंबरीत ते त्या त्या प्रांतातील भाषेचा गोडवा.. लहेजा अगदी तंतोतंत उतरवतात.
वास्तविक गोनीदांचं बरंचसं आयुष्य पुण्याजवळील तळेगावात गेलंय. पण कादंबरी लिहीताना ते त्या त्या भागात बरंच हिंडत असणार. तेथे वास्तव्य करत असणार. तेथील चालीरीतींचा अभ्यास करत असणार. तेथील बोलीभाषा समजावून घेण्यासाठी ती कानावर पडणे तर आवश्यक असणारच.
‘पडघवली’ मध्येदेखील ही बोलीभाषा जाणवते. त्या त्या भागातील म्हणी.. वाक्प्रचार आपल्याला समजतात. कोकणातील.. किंवा खरंतर एकुणच ग्रामीण भागातील वापरात असलेल्या औषधी वनस्पतींची पण खुप माहिती मिळत जाते. कथानकाच्या ओघात ते छोट्या मोठ्या दुखण्यांवर वापरली जाणारी औषधे.. मुळ्या.. काढे यांची माहिती सहजगत्या सांगुन जातात.
गोनीदा अनेक वेळा अनेक कारणाने भारत फिरले. त्यातही त्यांनी ग्रामीण भारत अधिक अभ्यासला. ग्रामीण अर्थव्यवस्था बारा बलुतेदारांवर आधारित होती. किंबहुना बलुतेदार हा त्या व्यवस्थेचा कणा होता. यातील एक जरी बलुतेदार बाजुला काढला तरी गावगाडा विस्कळीत होऊन जात असे. आणि हे होऊ नये हीच तर गोनीदांची इच्छा होती.
कारण हा गावगाडा विस्कळीत होऊ नये.. तो न कुरकुरता चालावा म्हणून गोनीदा ‘पडघवली’ च्या सुरुवातीलाच सांगतात..
ही कादंबरी वाचल्यानंतर कोणी तिला चांगली म्हणतील.. कोणी वाईट म्हणतील. कोणी निंदाही करतील. पण मला स्तुती अथवा निंदेपेक्षा वाचकांकडून अपेक्षा आहे ती अशी..
वाचकांचे लक्ष आपल्या त्या जिर्णशिर्ण, कोसळु पाहणाऱ्या खेड्यातील घरकुलांकडे वळावे. कदाचित अपेक्षा पुरी होईल.. कदाचित होणारही नाही.
गो. नी. दांडेकरांची ही साधी अपेक्षा पुरी झाली असं आपण आज म्हणू शकतो?
लेखक : वि.वा. शिरवाडकर
परिचय : श्री सुनील शिरवाडकर
मो.९४२३९६८३०८
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – प्रेम, रिमझिम जुलाई जैसा है…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 83 – प्रेम, रिमझिम जुलाई जैसा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपके “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी
राजस्थान भारत का एक ऐसा ख़ूबसूरत राज्य है जहाँ आज भी असंख्य लोग अपनी- अपनी कलाओं से जुड़े हुए हैं। ये वे लोग हैं जो कई पुश्तों से वही कार्य करते हैं जो उनके पूर्वज करते आए थे। बस अंतर यदि कुछ है तो यह कि अब इन लोगों के कार्य और कलाओं को करने की विधि में आधुनिकता की छाप दिखाई देती है।
जयपुर राजस्थान का वह हिस्सा है जिसे गुलाबी शहर कहा जाता है। यहाँ दो हिस्से हैं – एक पुराना जयपुर और दूसरा नया जयपुर। पहाड़ों पर बने अपूर्व किले यात्रियों का आकर्षण केंद्र है। शहर के बीच एक जल महल है जिसे देखने लोग यहाँ आया करते हैं।
अब इसमें एक आलीशान रेस्तराँ भी बनाया गया है।
जयपुर शहर से 22 किलोमीटर की दूरी पर एक विशाल खुले मैदान पर एक छोटा – सा गाँव स्थापित किया गया है। वास्तव में यह कोई बसा -बसाया गाँव नहीं है। इस स्थान को राजस्थानी गाँव का कृत्रिम रूप देकर लोगों का मनोरंजन किया जाता है। इस स्थान को ‘चोखी ढाणी’ कहा जाता है इसका अर्थ है *सुंदर या अच्छा गाँव। *
इस सुंदर गाँव के प्रवेश द्वार पर यात्रियों का स्वागत माथे पर टीका लगाकर और “राम राम साईं” कहकर किया जाता है। स्वागत करने वाले राजस्थानी पोशाक में ही दिखाई देते हैं। इस गाँव के भीतर प्रवेश करने के लिए ₹300 का टिकट है। (आज शायद परिवर्तन आया होगा मगर जिस समय की मैं बात कर रही हूं 2007 तब इसकी कीमत ₹300 ही थी)
शाम को 7 से रात के 12 बजे तक यहाँ विभिन्न प्रकार की कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है। गाँव के घर, मिट्टी से बनी दीवारे, दीवारों पर राजस्थानी कलाकृतियाँ, चित्र, कुआँ, पनघट आदि सभी दृश्य यहाँ देखने को मिलेंगे। साथ ही राजस्थानी भोजन का विभिन्न जगहों पर आयोजन भी दिखाई देता है। छोटे -छोटे भोजनालय की फ़र्श जो गोबर मिट्टी से लिपी हुई होती है उस पर दरियाँ बिछाकर चौकियों पर थाली कटोरे सजाकर गरमागरम भोजन परोसा जाता है। यात्री जयपुर जाने पर इस स्थान का दर्शन अवश्य करते हैं।
मैं जब जयपुर पहुँची तो मुझसे भी कहा गया कि चोखी ढाणी का मैं निश्चित रूप से दर्शन करूँ। उस दिन शाम के समय निश्चित समय पर होटल में हमें चोखी ढाणी ले जाने के लिए गाड़ी आ गई और मैं होटल के अन्य यात्रियों के साथ चोखी ढाणी के लिए रवाना हुई। चोखी ढाणी में पहुँचते ही मुझे ऐसा लगा मानो राजस्थान के किसी फलते -फूलते गाँव में आ गई हूँ। चारों तरफ दीये जल रहे थे। चूल्हे पर भोजन पक रहा था। बाजरे की रोटी, बेसन के पकोड़े से बनी तरी वाली सब्ज़ी और दाल बाटी की खुशबू हवा में भरी थी।
सारा वातावरण आनंद से सराबोर था। कहीं कोई जादू दिखा रहा था तो कोई कठपुतली का नाच, तो कहीं कुछ पुरुष और स्त्री लोक गीत गा रहे थे, कहीं कुछ पुरुष ढोलक बजा रहे थे और मंच पर सजी-धजी युवा लड़कियाँ घड़े पर कई घड़े अपने सिर पर रखकर नृत्य दिखा रही थीं। नाचती हुई वे बड़े से परात के किनारों पर खड़ी होकर ढोल के धुनों पर नाच रही थीं। सारा दृश्य अद्भुत था और मन को न केवल प्रसन्न कर रहा था बल्कि यह सोचने के लिए भी विवश कर रहा था कि हमारे देश में कितनी अद्भुत कलाएँ आज भी जीवित हैं।
मैं अकेली ही इस गाँव के हर घर के आँगन में चल रहे विभिन्न कार्यक्रमों का आनंद ले रही थी। दो लाल पगड़ी वाले ज्योतिषी नज़र आए जिनके इर्द-गिर्द कई लोग बैठे थे और ये ज्योतिषी जी उन्हें उनके हाथ की रेखाएँ देखकर उनका भविष्य बता रहे थे। खुशगुबार माहौल था। कुछ औरतें काँच की डिज़ाइनदार चूड़ियाँ पहनकर खुश हो रही थीं। अपनी अपनी कलाइयाँ घुमाकर अपने साथियों को चूड़ियों की खनक सुना रही थीं। वहीं पर कुछ लोग लाख की चूड़ियाँ बना रहे थे। उस पर विभिन्न प्रकार की मोतियाँ जड़ रहे थे जो देखने में अद्भुत सुंदर थे। कुछ लोग राजस्थानी मोजड़ियाँ पहन-पहन कर अपने पैरों के माप की मुजड़ियाँ तलाश रहे थे। कुछ वृद्धा औरतें पास बैठी अन्य महिलाओं के हाथों में सुंदर मेहंदी के फूल और आकृतियाँ काढ़ रही थीं। इस गाँव में छोटे-बड़े सब व्यस्त थे। यात्री तो खुश थे ही गाँववासी भी प्रसन्न थे। कलाकारों को अपनी कला की प्रशंसा सुन और भी खुशी हो रही थी।
अचानक मेरा ध्यान एक सुरीली आवाज़ की ओर आकर्षित हुआ। यह आवाज़ इस भीड़ से हटकर और सब शोर से उठकर मेरे कानों में पड़ने लगी। मैं भीड़ से हटकर उस आवाज़ की दिशा की ओर चलने लगी। चोखी ढाणी के पूर्वी दिशा में एक कृत्रिम तालाब -सा बना हुआ था। उस पर एक छोटा- सा पुल बनाया गया था। उस पुल को पार कर मैं तालाब की दूसरी ओर पहुँची। एक बुज़ुर्ग फटी हुई दरी पर बैठे हुए थे और उनके साथ एक अट्ठारह- उन्नीस वर्षीय युवक बैठा था। वृद्ध के सामने बाजा रखा हुआ था और वे आकाश की ओर ताकते हुए बाजे पर उँगलियाँ फेरते हुए कबीर के दोहे गा रहे थे। उसके साथ मधुर आवाज़ में उसका बेटा साथ दे रहा था। दोनों की आवाज़ में एक अद्भुत मिठास थी और साथ ही गाने का अंदाज भी निराला था। ये पिता-पुत्र राजस्थान के किसी छोटे से कबीले के निवासी थे और सूफी संतों की वाणी गाया करते थे। चोखी ढाणी में इसी वर्ष पहली बार वे गीत गाने तथा लोगों का मनोरंजन करने आए थे। उनके इर्द-गिर्द कई लोग बैठे गीतों का आनंद ले रहे थे। कई विदेशी यात्री भी थे जो उनकी धुनों पर थिरक रहे थे। मैं रात के 12 बजे तक मंत्रमुग्ध होकर उनके गीत सुनती रही। मुझे भोजन की भी सुध न रही और मैं उस मीठी आवाज के जादू में खोई हुई उनके गाए लोकगीत और संतवाणियों को गुनगुनाती हुई अपने होटल में लौट आई।
उन दोनों की आवाज मेरे हृदय की गहराई को छू गई थी। उनका जब गाना समाप्त हुआ और भीड़ भी छँटने लगी तो मैं अपनी जिज्ञासावश उनके और समीप जा बैठी थी। उस लड़के ने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और शुद्ध भाषा में पूछा, “आंटी जी आपको हमारा गाना अच्छा तो लगा न!” मैं क्या कहती, मैं तो मंत्रमुग्ध ही हो गई थी। दोनों की आवाज की मैंने प्रशंसा की, दिल खोलकर युवा की खुली और ऊँची आवाज की विशेष प्रशंसा की तथा अपने दिल की गहराई से युवक को आशीर्वाद दिया।
बातचीत का सिलसिला जारी रहा तो युवक ने अपना नाम आफ़ताब बताया। उसके पिता वृद्ध थे तथा दृष्टिहीन भी थे। वह एक सूफ़ी गायक तथा अजमेर के निवासी थे। पिता का नाम अशफाक मियाँ था। अजमेर में रहकर उनकी रोज़ी-रोटी अब नहीं चलती थी इसलिए वे जयपुर आ गए थे और इसी साल चोखी ढाणी में अपने मधुर स्वर का जादू उन्होंने चलाना प्रारंभ कर दिया था।
आफ़ताब दिन में कॉलेज जाता और रात के समय चोखी ढाणी में गीत गाता। गाँव बनानेवाली संस्था की ओर से उन्हें महीने में कुछ बंधी हुई रकम मिल ही जाती और साथ ही गाना सुनने के बाद लोग भी खुश होकर कुछ न कुछ रकम पुरस्कार स्वरूप अवश्य देते। दोनों मिलाकर उनका गुज़ारा हो जाता।
बातें करते – करते पता चला कि उसके तीन बड़े भाई भी थे पर आज कोई भी जवित नहीं हैं। उसकी बूढ़ी अम्मा थीं जो पिता की देखभाल किया करती थी अब वह भी नहीं रहीं। अपने घर की बातें करते हुए और अपनी अम्मा का ज़िक्र करते ही उसकी आँखें छलक उठीं। मैं उसके पास ही बैठी थी तो सांत्वना देते हुए मैंने उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया। दो मिनिट चुप रहने के बाद उसने स्वयं को संभाल ही लिया।
आफ़ताब का सप्ना था कि एक दिन वह महान गायक बनेगा। उसे गायकी की तालीम अपने पिता से ही मिली थी, वही उसके उस्ताद थे। कॉलेज से लौटकर नियमित रूप तीन -चार घंटे वह रियाज़ भी किया करता था।
इस वर्ष मैं कुछ स्कूलों के शिक्षकों को ट्रेनिंग देने के लिए जयपुर आई थी। बड़ी उत्कट इच्छा थी कि उस बाप – बेटे की सुरीली आवाज और सूफी संगीत का आनंद एक और दिन लूँ। पर मैं वहाँ रुक न सकी दूसरे ही दिन मुझे अहमदाबाद के लिए रवाना होना था।
युवक के हृदय की उच्च आकांक्षा को देखकर मेरा हृदय बाग – बाग हो उठा। मैं मन ही मन सोचने लगी कि क्या ईश्वर इसकी इच्छाओं को पूरी करेंगे ? उस इच्छा की पूर्ति के लिए वह हर दिन कड़ी मेहनत किया करता था।
कहते हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। बात 2009 की है। मैं एक दिन अपने कमरे में कुछ लिख रही थी रात के कुछ 9:30 बजे होंगे अचानक मेरे कानों में आफ़ताब की वह परिचित मीठी आवाज सुनाई दी। पहले मैंने ध्यान से सुना तो अंदाज आया कि पड़ोस के घर में टीवी पर किसी कार्यक्रम में दिखाए जाने वाले गीत की वह आवाज़ थी। मैंने तुरंत टीवी लगाया, मुझे टीवी देखने में खास रुचि नहीं है परंतु आज उस आवाज को सुन मेरे मन ने मुझे सारे काम स्थगित करने पर विवश कर दिया। चैनलों की जानकारी नहीं जिस कारण टीवी के सारे चैनल ढूँढ़ने के लिए मजबूर कर दिया।
अब पता चला यह टीवी पर दिखाए जाने वाले एक कार्यक्रम का हिस्सा था। हाँ आफ़ताब ही तो था जो अब टीवी पर गीत गा रहा था! जयपुर के चोखी ढाणी की बात को गुज़रे दो वर्ष बीत चुके थे पर आफ़ताब की मधुर आवाज मेरे हृदय और मस्तिष्क पर छाई हुई थी। आफ़ताब की बात मैंने अपने परिवार वालों से भी की थी। उस दिन जब टीवी पर मैंने उसकी आवाज सुनी और उसे टीवी पर देखा तो मेरी बेटी ने कहा कि वह पिछले कुछ सप्ताहों से टीवी पर एक कार्यक्रम में गीत गाते हुए दिखाई दे रहा था। हिंदी सिनेमा के लिए पार्श्वगायकों की खोज के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई थी इस प्रतियोगिता में हजार युवक -युवतियों ने हिस्सा लिया था। अब कुछ चुनिंदा गायकों के बीच प्रतियोगिता चल रही थी।
मैं कभी भी टीवी नहीं देखती थी पर जब से आफ़ताब गीत गाते हुए दिखाई देने लगा मैं तबसे बड़े चाव से उस कार्यक्रम को देखने बैठ जाती। हमारे घर में सब मेरा मज़ाक उड़ाने लगे। बेटियाँ कहती मम्मा तो सठिया गई हर रोज 9:30 बजे ही टीवी के सामने बैठ जाती हैं। पर मैं बच्चों को यह समझाने में सफल न हो सकी कि उस बालक की आवाज़ में क्या तो मिठास थी, क्या दर्द था और आलापों की तानों में पागल कर देने की क्षमता! आफ़ताब की आँखों में एक प्रसिद्ध गायक बनने का जुनून मैंने देखा था वह मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती थी।
आखिर वह दिन आ ही गया जब आफ़ताब ही असंख्य लोगों का पसंदीदा प्रिय गायक बना। रिकॉर्डिंग कंपनी द्वारा उसे एक करोड़ रुपये का कॉन्ट्रैक्ट मिला। एक सुंदर गाड़ी दी गई उसे और पचास लाख रुपये भी दिए गए।
कुछ दिनों तक हर पत्र-पत्रिकाओं में आफ़ताब की चर्चा, उसकी सफलता की कहानी, उसके जुनून की बातें, उसके आत्मविश्वास और मेहनत की मिसाल ही पढ़ने को मिलती रही। सुनने में आया कि उसने अपने पिता की आँखों का भी ऑपरेशन करवाया।
समय बीतता चला गया आफ़ताब की आवाज अब अक्सर सुनाई देती। कई नायकों के लिए वह सफल पार्श्वगायक सिद्ध हुआ। नए ज़माने का गायक ही नहीं, कई सफल एल्बम भी बना चुका। उसकी आवाज सदा ही मेरे कानों में गूँजती रही।
कुछ महीनों के बाद मैं अपनी एक सहेली को लेकर राजस्थान दर्शन के लिए गई। जयपुर में हम तीन-चार दिन रुकने वाले थे जिस दिन हम जयपुर पहुँचे उसी रात मेरी सहेली ने चोखी ढाणी जाने की बात की। मैंने उसे रास्ते में आफ़ताब की सफलता की कहानी सुनाई।
हम चोखी ढाणी पहुँचे। ठंड के दिन थे लोग राजस्थान की ठंडी का आनंद ले रहे थे। हम भी घूमने लगे। अचानक एक परिचित आवाज़ सुनकर मैं ठिठक गई। कदम अपने आप उस दिशा की ओर बढ़ चले। मैं अपनी सहेली का हाथ पकड़कर उसे खींचती हुई ले जाने लगी। मेरी गति देख वह हैरान हो गई ! हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पहली बार मैंन आफ़ताब का गीत सुना था।
मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं। मेरी आँखों के सामने अशफाक मियाँ बैठे हुए थे। वह आज भी उतनी ही तल्लीनता और मिठास के साथ सूफी संतों की वाणी गा रहे थे। वही बाजा, वही जगह, वही व्यक्ति और वही फटी हुई दरी! पर आज वे अकेले थे। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी ! आफ़ताब जैसे प्रसिद्ध और धनाढ्य गायक के पिता को इस ठंडी में इस तरह गीत गाने की क्या ज़रूरत थी? मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी जब उनका गीत समाप्त हुआ तो मैं उनके पास पहुँची, हाथ जोड़कर मैंने उनसे पूछा, ” उस्ताद जी आज तो आफ़ताब का सपना पूरा हो गया है। वह जो चाहता था उसे मिल गया है। फिर आप इस बुढ़ापे में इस ठंडी में यहाँ क्यों कष्ट सहन कर रहे हैं?
अशफाक मियाँ ने एक बार सजल नेत्रों से मेरी ओर देखा फिर दोनों बाहें फैलाकर आसमान की ओर देखते हुए बोले, ” यहीं से तो मेरे आफ़ताब का सफ़र शुरू हुआ था ना! उसे जहाँ जाना था वहाँ वह पहुँच चुका लेकिन मेरी जगह यही है। मैं अपनी कला को उसकी जड़ों से अलहदा नहीं कर सकता। वरना आप जैसे लोगों की यादों में हमारी आवाज़ कैसे घर बना सकेगी भला ! मैं तो इस जगह पर गीत गाकर अपना अहसान जताता हूँ। वह आफ़ताब का सपना था यह मेरा सपना है। आप जैसे यात्रियों की सेवा कर सकूँ इससे बढ़कर मेरी और कोई ख्वाहिश नहीं। खुदा हाफ़िज़ !
उस वृद्ध संत के प्रति मेरे हृदय में आदर की भावना और भी बढ़ गई और साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि दो कलाकार एक दूसरे के हृदय से कितने भी जुड़े क्यों न हों उनके सपने और मंजिल अलग ही होते हैं। सच भी तो है कि कला को उसकी जड़ से अलग करना अर्थात उसमें परिवर्तन का समावेश होना। भला वृद्ध संत यह कैसै होने देते। हर किसी की अपनी- अपनी मंजिल होती है। शायद यही संसार का कटु सत्य भी है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “सरप्लस… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 320 ☆
कविता – सरप्लस… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
बड़ी सी चमचमाती शोफर वाली
कार तो है
पर बैठने वाला शख्स एक ही है
हाल नुमा ड्राइंग रूम भी है
पर आने वाले नदारद हैं
लॉन है, झूला है, फूल भी खिलते हैं, पर नहीं है फुरसत, खुली हवा में गहरी सांस लेनें की
छत है बड़ी सी, पर सीढ़ियां चढ़ने की ताकत नहीं बची।
बालकनी भी है
किन्तु समय ही नहीं है
वहां धूप तापने की
टी वी खरीद रखा है
सबसे बड़ा,
पर क्रेज ही नहीं बचा देखने का
तरह तरह के कपड़ों से भरी हैं अलमारियां
गहने हैं खूब से, पर बंद हैं लॉकर में
सुबह नाश्ते में प्लेट तो सजती है
कई, लेकिन चंद टुकड़े पपीते के और दलिया ही लेते हैं वे तथा
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 112 ☆ देश-परदेश – मुंह धो कर आना ☆ श्री राकेश कुमार ☆
सामान्य भाषा में मित्रों और परिचितों को हमने ये कहते हुए अनेक बार सुना है, “जाओ मुंह धो कर आओ” जब कभी हमें ऐसा प्रतीत होता है, कि सामने वाला व्यक्ति किसी कार्य कर सकने के काबिल नहीं है, या उसमें इतनी क्षमता नहीं है, कि वो ये कार्य सम्पन्न कर सकें, उसको मज़ाक में कह दिया जाता है, जाओ पहले मुंह धो कर आओ।
हमारे चाचा जब कभी घर में कुछ खानें के लिए बात करते थे, तो पिताजी कहते थे। पहले हाथ मुंह धो लो, फिर भोजन ग्रहण करो। चाचा हाजिर जवाबी और अधिक भूख के कारण कह देते थे, “शेर कहां मुंह धोते हैं” ऐसा कहकर वो भोजन पर टूट पड़ते थे।
उपरोक्त फोटो में तो पुलिस वाले ही हाइवे पर ट्रक ड्राइवरों के मुंह धो रहे हैं, ताकि उनकी नींद खुल जाए, और सड़क दुर्घटनाओं में कमी की जा सके, नींद भगाने का पुराना फॉर्मूला है। वैसे, रात के समय भीषण ठंड के दिनों में, ये घोर जुल्म हो रहा है।
दसवीं की बोर्ड परीक्षा के समय माता जी ठंड के दिनों में प्रातः चार बजे जगा दिया करती थी। हम भी चटाई/ कुर्सी पर कंबल में बैठे बैठे सो जाते थे। पिता जी की दृष्टि जब भी हम पर पड़ती, वो शब्दों के बाण छोड़ दिया करते थे। हम भी जिद्दी और ढीठ प्रवृति के थे, पिताजी के शब्द बाण को अनसुना कर निद्रा में खो जाते थे।
बाप तो बाप ही होता है, कड़कती ठंड में खुले हौद से लौटा भर कर पानी के छींटे हमारे मुंह पर डाल कर नींद भगाने का फार्मूला, पिता जी ने भी अपने बाप से ही सीखा था। हमारी पीढ़ी ने इस प्रथा को लुप्त प्रायः सा कर दिया है।
बंडू आणि बेबीची वहिनी म्हणून गल्लीतले सारेच त्यांना वहिनीच म्हणायचे. आयुष्याच्या संपूर्ण प्रवासात अनेक स्त्रिया माझ्या जीवनात आल्या. नात्यातल्या, शेजारपाजारच्या, काही सहज ओळखीच्या झालेल्या, काही शिक्षिका, काही मैत्रिणी, लग्ना आधीच्या, लग्नानंतरच्या, एका संस्थेच्या माध्यमातून काम करण्याच्या निमित्ताने भेटलेल्या तळागाळातल्या स्त्रिया, घरातल्या मदतनीस, ठिकठिकाणच्या प्रवासात ओळख झालेल्या, निराळ्या धर्माच्या,संस्कृतीच्या, सहज भेटलेल्या अशा कितीतरी सबल, दुर्बल, नीटनेटक्या, गबाळ्या, हुशार, स्वावलंबी, अगतिक, असहाय्य, परावलंबी, जिद्दी, महत्त्वाकांक्षी तर कुठलंच ध्येय नसलेल्या वारा वाहेल तशा वाहत जाणाऱ्या स्त्रिया मला ठिकठिकाणी भेटल्या पण लहानपणीच्या वहिनींना मात्र माझ्या मनात आजही एक वेगळाच कोपरा मी सांभाळून ठेवलेला आहे. त्यावेळी वहिनींच्या व्यक्तिमत्त्वातलं जे जाणवलं नाही त्याचा विचार आता आयुष्य भरपूर अनुभवलेल्या माझ्या मनाला जाणवतं आणि नकळत त्या व्यक्तिमत्त्वासमोर माझे हात जुळतात.
विस्तृत कुटुंबाचा भार वहिनींनी पेलला होता. त्यांचं माहेर सातार्याचं. तसा माहेरचाही बहीण भावंडांचा गोतावळा काही कमी नव्हता पण सातारचे बापूसाहेब ही एक नावलौकिक कमावलेली असामी होती. साहित्यप्रेमी, नाट्यप्रेमी म्हणून सातारकरांना त्यांची ओळख होती आणि त्यांची ही लाडकी कन्या म्हणजे आम्ही हाक मारत असू त्या वहिनी. वहिनींनाही बापूसाहेबांचा फार अभिमान होता. पित्यावर त्यांचं निस्सीम प्रेम होतं. उन्हाळ्याच्या सुट्टीत मुलाबाळांना घेऊन त्या माहेरपणाला सातारी जात आणि परत येत तेव्हा त्यांच्यासोबत धान्य, कपडे, फळे, भाज्या, मिठाया विशेषत: कंदी पेढे यांची बरीचशी गाठोडी असत. वहिनींचा चेहरा फुललेला असे आणि त्यांच्या मुलांकडून म्हणजेच आमच्या सवंगड्यांकडून आम्हाला साताऱ्याच्या खास गमतीजमती ऐकायलाही मजा यायची.
अशी ही लाडकी बापूसाहेब सातारकर यांची कन्या सासरी मात्र गणगोताच्या गराड्यात पार जुंपलेली असायची.
आमचं कुटुंब स्वतंत्र होतं. आई-वडील, आजी आणि आम्ही बहिणी. मुळातच वडील एकटेच असल्यामुळे आम्हाला फारशी नातीच नव्हती, विस्तारित नात्यांच्या एकत्र कुटुंबात राहण्याचा आम्हाला अनुभवच नव्हता. त्या पार्श्वभूमीवर या मुल्हेरकरांचे कुटुंब नक्कीच मोठं होतं. बाबासाहेब आणि वहिनी या कुटुंबाचे बळकट खांब होते. आर्थिक बाजू सांभाळण्याचं कर्तव्य बाबांचं आणि घर सांभाळण्याची जबाबदारी वहिनींची. घरात सासरे, नवऱ्याची म्हातारी आजारी आत्या, दीर, नणंद आणि त्यांची पाच मुलं. धोबी गल्लीतलं त्यांचं घर वडिलोपार्जित असावं. बाबासाहेबांनी त्यावर वरचा मजला बांधून घेतला होता. वहिनींच्या आयुष्यात स्वत:चं घर हा एकच हातचा मौलिक असावा.
त्यावेळी दोनशे रुपये महिन्याची कमाई म्हणजे खूप होती का? बाबासाहेब आरटीओत होते. त्यांचाही स्वभाव हसरा, खेळकर, विनोदी आणि परिस्थितीला टक्कर देणारा होता. बाबासाहेब आणि वहिनींच्यात त्याकाळी घरगुती कारणांमुळे धुसफुस होतही असेल पण तसं त्यांचं एकमेकांवर खूप प्रेम होतं आणि त्याच सामर्थ्यावर वहिनी अनंत छिद्रे असलेला संसार नेटाने शिवत राहिल्या. काहीच नव्हतं त्यांच्या घरात. झोपायला गाद्या नव्हत्या, कपड्याचं कपाट नव्हतं, एका जुनाट पत्र्याच्या पेटीत सगळ्यांचे कपडे ठेवलेले असत. म्हातारी आजारी आत्या— जिला “बाई” म्हणायचे.. त्या दिवसभर खोकायच्या. सासरे नानाही तसे विचित्रच वागायचे पण बंडू बेबी आणि बाबासाहेबा या भावंडांचं मात्र एकमेकांवर खूप प्रेम होतं. बेबीला तर कितीतरी लहान वयात जबाबदारीची जाणीव झाली असावी. ती शाळा, अभ्यास सांभाळून वहिनींना घर कामात अगदी तळमळीने मदत करायची. खरं म्हणजे तिच्या आणि माझ्या वयात फारसं अंतरही नव्हतं पण मला ज्या गोष्टी त्यावेळी येत नव्हत्या त्या ती अतिशय सफाईदारपणे तेव्हा करायची. त्यामुळे बेबी सुद्धा माझ्यासाठी एक कौतुकाची व्यक्ती होती. शिवाय त्यांच्या घरी सतत पाहुणेही असायचे. त्यांच्या नात्यातलीच माणसं असत. काहींची मुलं तर शिक्षणासाठी अथवा परीक्षेचं केंद्र आहे म्हणून त्यांच्या घरी मुक्कामी सुद्धा असायची. प्रत्येक सण त्यांच्याकडे पारंपारिक पद्धतीने, साग्रसंगीत साजरा व्हायचा. दिवाळी आणि गणपती उत्सवाचंच तर फारच सुरेख साजरीकरण असायचं. खरं सांगू ? लहानपणी बाह्य गोष्टींचा पगडा मनावर नसतोच. भले चार बोडक्या भिंतीच असतील पण त्या भिंतीच्या मधलं जे वातावरण असायचं ना त्याचं आम्हाला खूप आकर्षण होतं आणि या सर्व पार्श्वभूमीवर केंद्रस्थानी वहिनी होत्या.
किती सुंदर होत्या वहिनी! लहानसाच पण मोहक चेहरा, नाकीडोळी नीटस, डोळ्यात सदैव हसरे आणि प्रेमळ भाव, लांब सडक केस, ठेंगणा पण लवचिक बांधा, बोलणं तर इतकं मधुर असायचं …! संसाराची दिवस रात्रीची टोकं सांभाळताना दमछाक झाली होती त्या सौंदर्याची.
अचानक कुणी पाहुणा दारी आला की पटकन त्या लांब सडक केसांची कशीतरी गाठ बांधायच्या, घरातलंच गुंडाळलेलं लुगडं, सैल झंपर सावरत अनवाणीच लगबगीने वाण्याकडे जायच्या. उधार उसनवारी करून वाणसामान आणायच्या आणि आलेल्या पाहुण्यांना पोटभर जेवायला घालून त्याने दिलेल्या तृप्तीच्या ढेकरानेच त्या समाधानी व्हायच्या. वहिनी म्हणजे साक्षात अन्नपूर्णा. साधं “लिंबाचं सरबत सुद्धा” अमृतासारखं असायचं. त्यांच्या हातच्या फोडणीच्या भाताची चव तर मी आजही विसरलेली नाही. अनेक खाद्यपदार्थांच्या चवीत त्यांच्या हाताची चव मिसळलेली असायची. मला आजही आठवतं सकाळचे उरलेले जेवण लहान लहान भांड्यातून एका मोठ्या परातीत पाणी घालून त्यात ठेवलेलं असायचं, त्यावर झाकण म्हणून एखादा फडका असायचा. शाळा सुटल्यानंतर घरी आल्यावर मी कित्येकदा चित्रा, बेबी बरोबर त्या परातीतलं सकाळचं जेवण जेवलेली आहे. साधंच तर असायचं. पोळी, कधी आंबट वरण, उसळ, नाहीतर वालाचं बिरडं, किंवा माशाचं कालवण पण त्या स्वादिष्ट जेवणाने खरोखरच आत्म्याची तृप्ती व्हायची. त्या आठवणीने आजही माझ्या तोंडाला पाणी सुटतं! लहानपणी कुठे कळत होतं कुणाची आर्थिक चणचण, संसारातली ओढाताण, काळज्या, चिंता. एका चपातीचीही वाटणी करणे किती मुश्कील असतं हा विचार बालमनाला कधीच शिवला नाही. घरात जशी आई असते ना तशीच या समोरच्या घरातली ही वहिनी होती. आम्हाला कधीच जाणवलं नाही की वहिनींच्या गोऱ्यापान, सुरेख, घाटदार मनगटावर गोठ पाटल्या नव्हत्या. होत्या त्या दोन काचेच्या बांगड्या. त्यांच्या गळ्यात काळ्या मण्याची सुतात ओवलेली पोतही आम्हाला सुंदर वाटायची. त्यांच्या पायात वाहणा होत्या की नव्हत्या हे आम्ही कधीच पाहिले नाही. आम्हाला आठवते ते सणासुदीच्या दिवशी खोलीभर पसरून ठेवलेला सुगंधित, खमंगपणा दरवळणारा केवढा तरी चुलीवर शिजवलेला स्वयंपाक आणि पाहुण्यांनी भरगच्च भरलेलं ते घर आणि स्वादिष्ट जेवणाचा आनंद लुटणाऱ्या त्या पंगती आणि हसतमुखाने आग्रह कर करून वाढणाऱ्या वहिनी. हे सगळं त्यांना कसं जमत होतं हा विचार आता मनात येतो.
मला टायफॉईड झाला होता.तोंडाची चव पार गेली होती. वहिनी रोजच माझ्याजवळ येऊन बसायच्या. एकदिवस मी त्यांना म्हटलं, “शेवळाची कणी नाही का केली?” दुसर्या दिवशी त्या माझ्यासाठी वाटीभर “शेवळाची कणी” घेउन आल्या. अत्यंत किचकट पण स्वादीष्ट पदार्थ.पण वहिनी झटपट बनवायच्या.
काळ थांबत नाही. काळा बरोबर जीवन सरकतं नाना—बाई स्वर्गस्थ झाले. बाबासाहेबांनी यथाशक्ती बहीण भावाला त्यांना पायावर उभे राहण्यापुरतं शिक्षण दिलं. बेबी च्या लग्नात आईच्या मायेने वहिनींनी तिची पाठवणी केली. आयुष्याच्या वाटेवर नणंद भावजयीत वाद झाले असतील पण काळाच्या ओघात ते वाहून गेलं. एक अलौकिक मायलेकीचं घट्ट नातं त्यांच्यात टिकून राहिलं. माहेरचा उंबरठा ओलांडताना दोघींच्या डोळ्यातून अश्रूधारा वाहत होत्या. विलक्षण वात्सल्याचं ते दृश्य होतं. बेबी आजही म्हणते!” मी माझी आई पाहिली नाही. मला माझी आई आठवत नाही पण वहिनीच माझी आई होती.”
धन, संपत्ती, श्रीमंती म्हणजे काय असतं हो? शब्द, भावनांमधून जे आत्म्याला बिलगतं त्याहून मौल्यवान काहीच नसतं.
बाबा वहिनींची मुलंही मार्गी लागली, चतुर्भुज झाली. जुनं मागे टाकून वहिनींचा संसार असा नव्याने पुन्हा फुलून गेला. पण वहिनी त्याच होत्या. तेव्हाही आणि आताही.
बाबासाहेब निवृत्त झाले तेव्हा काही फंडांचे पैसे त्यांना मिळाले. त्यांच्या लग्नाचा वाढदिवस होता. तेव्हा ते म्हणाले,” सहजीवनात मी तृप्त आहे. मला अशी सहचारिणी मिळाली की जिने माझ्या डगमगत्या जीवन नौकेतून हसतमुखाने सोबत केली. माझ्या नौकेची वल्ही तीच होती. मी तिच्यासाठी काहीच केलं नाही. तिचं डोंगराएवढं ॠण मी काही फेडू शकणार नाही पण आज मी तिच्या भुंड्या मनगटावर स्वतःच्या हाताने हे सोन्याचे बिलवर घालणार आहे. “ .. त्यावेळचे वहिनींच्या चेहऱ्यावरचे भाव मी कोणत्या शब्दात टिपू? पण त्या क्षणी त्यांच्या परसदारीचा सोनचाफ्याचा वृक्ष अंगोपांगी फुलला होता आणि त्या कांचन वृक्षाचा दरवळ असमंतात पसरला होता. तो सुवर्ण वृक्ष म्हणजे वहिनींच्या जीवनातल्या प्रत्येक क्षणाचा साक्षीदार होता आणि तोही जणू काही अंतर्यामी आनंदला होता.
अशोक (त्यांचा लेक) एअर इंडियात असताना त्याने वहिनी आणि बाबासाहेबांसाठी लंडनची सहल आयोजित केली. विमानाची तिकिटे तर विना शुल्क होती. बाकीचा खर्च त्यांनी केला असावा. वहिनींना मुळीच जायचं नव्हतं पण सगळ्यांच्या आग्रहाखातर त्यांनी अखेर जाण्याचे मान्य केले. वहिनींच्या आयुष्यात असा क्षण येईल असे स्वप्नातही वाटले नव्हते पण त्याचवेळी त्यांच्या प्रियजनांचा आनंदही खूप मोठा होता. त्या जेव्हा लंडनून परत आल्या तेव्हा मी त्यांना भेटायला गेले होते. धोबी गल्ली ते लंडन— वहिनींच्या आयुष्यातला अकल्पित टप्पा होता तो! मी त्यांना विचारलं,” कसा वाटला राणीचा देश ?”
तेव्हा त्या हात झटकून म्हणाल्या,” काय की बाई, एक मिनिटंही मी बाबासाहेबांचा हात सोडला नाही. कधी घरी जाते असं झालं होतं मला! “
.. .. .. त्यावेळी मात्र वहिनींकडे पाहताना “इथेच माझे पंढरपुर” म्हणणारी ती वारकरीणच मला आठवली.
“ ते जाऊदे ग! हे बघ सकाळी थोडी तळलेली कलेजी केली होती. खातेस का?”
.. .. त्या क्षणी मला आठवलं ते मोठ्या परातीत पाणी घालून झाकून ठेवलेलं सकाळचं उरलेलं चविष्ट जेवण!
या क्षणी माझ्याजवळ होती ती तीच अन्नपूर्णा वहिनी. प्रेमाने खाऊ घालणारी माऊली…
आज वहिनी नाहीत पण जेव्हा जेव्हा मी काटेरी फांदीवर उमललेलं टवटवीत गुलाबाचे फुल पाहते तेव्हा मला वहिनींचीच आठवण येते..
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 218 – कथा क्रम (स्वगत)…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “समझ गई जो जीवन को...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 218 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “समझ गई जो जीवन को...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆