मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 43 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 43 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

७८.

विश्वाची निर्मिती नुकतीच झाली होती.

प्रथम तेजात तारका चमकत होत्या.

तेव्हा आकाशात देवांची सभा भरली आणि

ते गाऊ लागले-

“वा!पूर्णत्वाचं किती सुरेख चित्र! निर्भेळ आनंद!”

 

एकजण एकदम ओरडला,

“प्रकाशमालेत कुठंतरी त्रुटी आहे.

 एक तारा हरवलाय!”

 

त्यांच्या वीणेची एक तार तुटली.गीत थांबले.

ते निराशेनं म्हणू लागले,

” हरवलेली ती तारका सर्वात सुंदर होती.

 स्वर्गाचं वैभव होती.”

त्या दिवसापासून सतत शोध चालू आहे.

आणि प्रत्येकजण दुसऱ्याला सांगतो,

” जगातला एक आनंद नाहीसा झाला आहे.”

रात्रीच्या खोल शांततेत तारका हसतात

आणि आपापसात कुजबुजतात,

“हा शोध व्यर्थ आहे,

एकसंध पूर्णत्व संपलं आहे.

 

७९.

या आयुष्यात तुला भेटायचं माझ्या वाट्याला

येणार नसेल तर, तुझ्या नजरेतून

मी उतरलोय असं मला सतत वाटू दे.

मला क्षणभरही विस्मरण होऊ नये.

जागेपणी व स्वप्नातही या दु:खाची टोचणी

सतत मनात राहो.

 

जगाच्या बाजाराच्या गर्दीत माझे दिवस

जात असताना आणि दोन्ही हातांनी

भरभरून नफा होत असताना

मला सतत असे वाटत राहो की मी

काहीच मिळवत नाही.

या दु:खाची टोचणी मला स्वप्नात व

जागेपणी सतत राहावी.

 

दमून भागून रस्त्याच्या कडेला मी बसेन.

धुळीत माझा बिछाना पसरेन तेव्हा,

दीर्घ प्रवास अजून करायचा आहे याची जाणीव

मी क्षणभरही विसरू नये

आणि या दु:खाची टोचणी मला जागृतीत व

स्वप्नातही रहावी.

 

शृंगारलेल्या माझ्या महालात

गाण्याचे मंजूळ स्वर आणि

हास्याचा गडगडाट असावा.

तेव्हा मात्र मी तुला निमंत्रण दिले नाही या दु:खाणी टोचणी मला जागेपणी

व स्वप्नातही असावी.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #174 ☆ व्यंग्य – फर्ज़ बनाम इश्क ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य  ‘फर्ज़ बनाम इश्क’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 174 ☆

☆ व्यंग्य ☆ फर्ज़ बनाम इश्क

हाल में एक सनसनीख़ेज़ ख़बर पढ़ी कि बांग्लादेश की सीमा पर ड्यूटी पर तैनात सीमा सुरक्षा बल की स्निफ़र कुतिया ने तीन बच्चों या पिल्लों को जन्म दे दिया।  सनसनीख़ेज़ इसलिए कि ड्यूटी पर तैनात कुतियों को गर्भ धारण करने की इजाज़त नहीं होती।इसकी वजह यह है कि गर्भ धारण के काल में कुतियों की सूँघने की क्षमता क्षीण हो जाती है। ड्यूटी के दौरान उनके आचरण के ऊपर सख़्त निगरानी रखी जाती है और वे तभी बच्चे पैदा कर  सकती हैं जब विभाग का पशु-चिकित्सक इजाज़त दे। अब यह समझना मुश्किल हो रहा है कि इतनी चौकसी के बावजूद कुतिया ने अपने ‘हैंडलर्स’ की नज़र बचाकर अपना प्रेमी कैसे तलाश लिया। ज़ाहिर है कि कुतिया ने फर्ज़ के ऊपर इश्क को तरजीह दी, जो अक्षम्य अपराध है।इस मामले में कोर्ट ऑफ़ इनक्वायरी बैठा दी गयी है। कुतिया को ड्यूटी पर इश्क फरमाने की जो भी सज़ा मिले, उसके ‘हैंडलर्स’ की जान निश्चित ही साँसत में होगी।

अभी बच्चों के पिता के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। मेरी चिन्ता यह है कि चूँकि यह लव-स्टोरी बांग्लादेश की सीमा पर घटित हुई है, कहीं ऐसा न हो कि देश के सयानों के द्वारा इसमें भी लव-जिहाद का कोण ढूँढ़ लिया जाए।ऐसा हुआ तो हमारे न्यूज़ चैनलों की पौ-बारह हो जाएगी। उन्हें दिन भर मुर्गे लड़ाने के लिए मसाला और वसीला बिना मेहनत के मिल जाएगा। उम्मीद है इस घटना का भारत-बांग्लादेश रिश्तों पर असर नहीं होगा।

मेरी चिन्ता की ख़ास वजह यह है कि यह जुमला इंसानों पर कई बार चिपकाया जा चुका है, इसलिए अब पशु-पक्षियों का नंबर लगने की पूरी संभावना है। इस सिलसिले में मुझे कथाकार पुन्नी सिंह की मार्मिक कहानी ‘काफ़िर तोता’ याद आती है। तोता जिस परिवार में रहता है उसके सदस्य उसे अपने धर्म के अनुसार मंत्र आदि सिखाते हैं।कुछ समय बाद वह परिवार तोते को वहीं छोड़कर अन्यत्र चला जाता है और घर में दूसरे समुदाय का परिवार आ जाता है। बेचारा पक्षी इस परिवर्तन का मतलब नहीं समझ पाता और वह वही दुहराता है जो उसे सिखाया गया है। नतीजतन उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। मतलब यह कि निरीह पशु-पक्षियों को भी आदमी के पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों से अपनी जान बचा पाना मुश्किल है।

मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो की कहानी ‘टिटवाल का कुत्ता’ भी याद आती है। कुत्ता सीमा पर तैनात हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी फौजों के बीच भोजन के लालच में दौड़ता रहता है और अंततः दोनों  की आपसी घृणा का शिकार होकर मारा जाता है। एक सिपाही टिप्पणी करता है, ‘अब कुत्तों को भी या तो हिन्दुस्तानी होना पड़ेगा या पाकिस्तानी।’ संदेश साफ है, जो बँटेंगे नहीं वे मारे जाएंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 170 ☆ संतत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 भास्कर साधना संपन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जाएगी ।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 170 ☆ संतत्व ?

फूटी आँख विवेक की, लखे ना संत असंत।

जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ||

महंत होना सरल है, संत होना कठिन। संत यात्रा करता है, संत यात्रा करवाता भी है। यात्रा में भटका ऐसा ही एक पथिक कबीरदास जी के पास पहुँचा। वह अपने गृहस्थ जीवन में रोज़ाना होने वाले कलह और तर्क-वितर्क से बहुत दुखी था। अपना दुखड़ा बयान करता हुआ कबीरदास जी से बोला, “महाराज मेरा गृहस्थ जीवन बहुत दुखी है। हम पति-पत्नी में ज़रा भी नहीं पटती। रोज़ झगड़ा, रोज़ कलह। वह भी दुखी, मैं भी दुखी। तंग आ गया हूं इस जीने से। जीवन में अंधेरा ही अंधेरा है।” कबीर ् समय सूत बुन रहे थे। पथिक की बात सुनी-अनसुनी कर अपनी पत्नी लोई से बोले,”इतना अंधेरा है कि सूत बुनने में दिक्कत हो रही है। तनिक दीया तो बाल लाओ।” लोई एक दीप प्रज्ज्वलित करके ले आई। पति के पास रखकर चली गई। कबीर के इस व्यवहार से प्रश्नकर्ता किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो गया। वह भरी दोपहर का समय था। सूर्य सिर पर था और प्रकाश प्रखर था। आशंका व्यक्त करते हुए कबीरदास जी से बोला, “महाराज, सूरज तप रहा है। दोपहर का समय है। इतना तेज़ प्रकाश है और आपको सूत कातने के लिए दीया मंगवाना पड़ा। क्या आपकी आँखें खराब हो गई हैं?” कबीर मुस्करा कर बोले, “यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी है। अपनी आँखों को ठीक करो। गृहस्थ जीवन में विश्वास करना सीखो। अपने साथी के विचार का, उसकी सोच का, उसके निर्णय का सम्मान करो। व्यर्थ के तर्क-वितर्क एक दूसरे का मान समाप्त करते हैं। तुमने देखा कि दिन के प्रकाश में मैंने लोई से दीया मंगवाया। बिना कोई प्रश्न किए वह दीया रख गई। उसका विश्वास है कि मैंने दीया मंगवाया है तो कुछ सोच कर ही मंगवाया होगा। …तुम अपनी पत्नी को अपने जैसा कर देना चाहते हो। खाना-पीना तुम्हारे जैसा, बोलना-चालना तुम्हारे जैसा, सोचना-विचारना तुम्हारे जैसा। तुम्हारी  आँखें खराब हो गई हैं। तुम जानते हो पर देखते नहीं कि धरती पर कोई भी दो लोग एक जैसे नहीं हो सकते।

….और सुनो, यह दीया मैंने अपने लिए नहीं तुम्हारे लिए मंगवाया था। जैसे इसकी ज्योति जल रही है अपने भीतर भी ज्योति जलाओ। अग्नि पवित्र होती है। भीतर एक बार ज्योति जल गई तो जीवन में प्रकाश ही प्रकाश होगा।”

सच्चा संत खुद जलता है, खुद तपता है आत्मदीप बनता है। वह पोथी का ज्ञान नहीं जताता, अनुभव से मिला ज्ञान बताता है। संतत्व में ‘कागज की लेखी’ नहीं बल्कि ‘आँखन की देखी’ महत्वपूर्ण है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 122 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 122 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 122) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 122 ?

☆☆☆☆☆

खुलती है… पढ़ी जाती है…,

फिर रद्दी हो जाती है….

ऐ जिंदगी… तू भी कुछ-कुछ

किताब सी है…है ना…!!

It gets opened, read, and

then discarded as a trash…

O’ life! You’re also somewhat

like a book only…Isn’t..!!

☆☆☆☆☆ 

तीर-ए-इश्क़ से नामुमकिन है

बचना है इस दिल का,

दर्द उठ उठ के बताता है ख़ुद

ठिकाना अपने दिल का…!

It’s difficult for the heart to

escape from the arrows of love

Pain pops itself up to tell

the whereabouts of the heart…!

☆☆☆☆☆

वो उँगली उठाये तो

दर्द होना लाजिमी है

दो हाथ उठा कर के

माँगा था जिसे हमने…!

 

It is bound to be painful,

if the one raises finger,

For whom we had prayed for

with the raised hands…!

☆☆☆☆☆

 करता नहीं कभी ज़िक्र तेरा

किसी तीसरे के साथ

तेरे बारे में बातें सिर्फ

ख़ुदा से ही होती हैं…!

Never ever I mention your

name with any third person

Conversations about you

happen only with the God…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 122 ☆ ~ सॉनेट ~ तुलसी ~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित “~ सॉनेट ~ तुलसी ~”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 122 ☆ 

☆ सॉनेट ~ तुलसी ~ ☆

*

तुलसी जग कल्याणिका।

रामा-श्यामा रूप मनोहर।

पति हितकारी साधिका।।

आत्मशक्ति की लिए धरोहर।।

*

छली विश्वपालक कर दंडित।

देह त्याग हो गई अमर है।

है त्रिलोक में महिमामंडित।।

चढ़ी छली के भी सिर पर है।।

*

भाव-भक्तिमय जीवन अनुपम।

अंग हरेक रोग उपचारक।।

तन-मन स्वस्थ्य करे यह माँ सम।

दिव्यौषधि शत-शत गुणधारक।।

*

शीश चढ़ा हर आत्मा हुलसी।

काल हलाहल अमरित तुलसी।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत 🌹

(विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

☆ ☆ ☆

अखिल भारतीय कला मंदिर के अध्यक्ष श्री गौरीशंकर  द्वारा महापौर  मालती राय के साथ साहित्यिक  उद्यान के प्रारूप  पर विशद चर्चा।  ज्ञात हो कि कलामंदिर के वार्षिक साहित्यिक अलंकरण  समारोह  के अवसर पर मध्यप्रदेश  के स्वास्थ्य  मंत्री श्री विश्वास  सारंग ने साहित्यकारों के लिये “साहित्यिक  पार्क  की उद्घोषणा की थी।

☆ ☆ ☆

‘लघुकथा शोध संस्थान, भोपाल द्वारा कांता राय के निर्देशन में प्रायोजित ‘पुस्तक पखवाड़े’ में चौदह साहित्यकारों की पुस्तकों पर समीक्षात्मक  चर्चा की जा चुकी हैं जिनके रचनाकार  हैं, उर्मिला शिरीष ,अशोक  भाटिया, अरूण  अर्नवखरे, राजनारायण बोहरे, बलराम धाकड़, पद्मा शर्मा, कुमार सुरेश ,द्विजेन्द्र  कुमार संगत, संतोष दुबे, मुकेश वर्मा  एवं मधुलिका सक्सेना

☆ ☆ ☆

प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘पत्रिका ‘में साहित्य के सितारे नामक स्तंभ में मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी  द्वारा पुरस्कृत  साहित्यकार अर्जुनदास खत्री ,गोकुल सोनी और घनश्याम  मैथिल का विस्तृत परिचय का प्रकाशन हुआ ।

☆ ☆ ☆

साहित्यिक संवाद समूह द्वारा तात्कालिक गजल प्रतियोगिता में हरिवल्लभ  शर्मा ने प्रथम स्थान  प्राप्त  किया ।

☆ ☆ ☆

लेखिका संघ  के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम  ‘आनलाइन  ज्ञान’ में संयोजक अनीता सक्सेना के निर्देशन में “प्रकाशन  हेतु  रचना कैसे भेजे “ विषय पर चर्चा की गई ।चर्चाकार थी ‘बालभास्कर’ की संपादिका इंदिरा त्रिवेदी ,।इस परिचर्चा में 3o लेखिकाओं ने भाग लिया ।

☆ ☆ ☆

साभार – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – किनारा शोधत राही – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– किनारा शोधत राही – 🚤⛵? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

अथांग सागर भवताली

आकाशाची जली निळाई

 दिशा द्यायला नाही वल्हे

नाव एकटी टिकून  राही

 बोलवी  का  कुणी किनारा?

 शाश्वत  सहारा नीत देणारा

त्याच किनार्‍याच्या विश्वावर

मिठीत घेईल पुर्ण  सागरा

 सागराची निळी नवलाई

भूल पाडत हाकारत जाई

भरकटण्याचे भय  होडीला

 म्हणून  किनारा शोधत राही

  किनारा मिळे बंधन येते

 बंधन विश्वहर्तता देते

 प्रेमरज्जू साथीला मिळता

 होडी सागरी खुशाल फिरते

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #171 – 57 – “चेहरा मोहरा पहनावा सजधज महज़ छल…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “चेहरा मोहरा पहनावा सजधज महज़ छल…”)

? ग़ज़ल # 57 – “चेहरा मोहरा पहनावा सजधज महज़ छल…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ख़ैरात  बँट  रही  है  सियासत के नाम पर।

लूट मची अब  केवल रियायत के नाम पर।

चेहरा मोहरा  पहनावा सजधज महज़ छल,

चलता खेल हवस का मोहब्बत के नाम पर।

खुलकर बोल न देखे जो यहाँ कुछ हुआ ग़लत,

चुप मत रह  तू  अब यहाँ शराफ़त के नाम पर।

अपनो  की  बेरुख़ी  तन्हा  बद  है  सरेआम,

यह बचता अब मेरे पास दौलत के नाम पर।

पाबंदियां     पामालियां    मक्कारियां    फ़रेब,

क्या कर रहे हैं आतिश अब सत्ता के नाम पर।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 48 ☆ मुक्तक ।। जिंदगी चल कि अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। जिंदगी चल कि अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 48 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। जिंदगी चल कि अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

जिंदगी अभी  चल  प्रभु  कर्ज चुकाना बाकी है।

अपने पराये का भी कुछ दर्द मिटाना बाकी है।।

टूटे  रिश्तों  की  तुरपाई   करनी  है  मिल  कर।

ईश्वर  शुकराने  को  भी सिर झुकाना बाकी  है।।

[2]

किसीके भूख की अग्नि अभी बुझाना बाकी है।

नई  पीढ़ी  को  भी  सही  राह सुझाना बाकी है।।

बहुत  काम  कर  लिया  जीवन के  इस सफर में।

फिर भी कुछऔर नया करके दिखाना बाकी है।।

[3]

जीवन मोड़ों में पड़ी गाँठेअभी सुलझाना बाकी है।

किसी  का अभी  रूठना मनाना हंसाना बाकी है।।

जो  छूट  गया पीछे  जीवन  की   इस  भाग दौड़ में।

तिनका तिनका जोड़ उसको फिर जुटाना बाकी है।।

[4]

अधूरी  बात  अभी  भी  सबको  सुनाना  बाकी  है।

किसी  रोते  हुए को  भी  अभी  हँसाना बाकी  है।।

जो मिली  अनमोल वरदान  सी  यह  इक  जिंदगी।

उस जिंदगी का बाकी फ़र्ज़ अभी निभाना बाकी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 114 ☆ ग़ज़ल – “जलने वाले दीपों की व्यथा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “जलने वाले दीपों की व्यथा …” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #114 ☆  ग़ज़ल  – “’जलने वाले दीपों की व्यथा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बहुतों को जमाने में अपनी किस्मत से शिकायत होती है

क्योंकि उनका उल्टा-सीधी करने की जो आदत होती है।।

 

जलने वाले दीपों की व्यथा लोगों की समझ कम आती है

सबको अपनी औ’ अपनों की ही ज्यादा हिफाजत होती है।।

 

नापाक इरादों को अपने सब लोग छुपाये रखते हैं

औरों की सुहानी दुनियां को ढाने की जहालत होती है।।

 

अनजान के छोटे कामों की तक खुल के बड़ाई की जाती

पर अपने रिश्तेदारों से अनबन व अदावत होती है।।

 

कई बार किये उपकारों तक का कोई सम्मान नहीं होता

पर खुद के किये गुनाहों तक की बढ़चढ़ के वकालत होती है।।

 

अपनी न बता औरों की सदा ताका-झांकी करते रहना

बातों को बताना बढ़चढ़ के बहुतों की ये आदत होती है।।

 

केवल बातों ही बातों से बनती है कोई बात नहीं

बनती है समय जब आता औ’ ईश्वर की इनायत होती है।।

 

मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों में जाने से मिला भगवान कहाँ ?

मिलते हैं अकेले में मन से जब उनकी इबादत होती है।।

 

जो लूटते औरों को अक्सर एक दिन खुद ही लुट जाते हैं

दौलत तो ’विदग्ध वहाँ बसती जिस घर में किफायत होती है।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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